हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 14 ??

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “रद्दी वाला।)

☆ आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रद्दी शब्द उर्दू भाषा से है, परंतु हमारी रोजमर्रा के बोलचाल में बहुतायत से उपयोग होता हैं। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने के बाद अनुपयोगी हो जाते हैं। इन सबको रद्दी वाले को विक्रय कर दिया जाता हैं। आज की युवा पीढ़ी समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर मोबाईल से ही पूरी जानकारी ले लेती हैं। वैसे हमारे मोबाईल पर भी बहुत रद्दी एकत्र हो जाती हैं। उसको साफ़ करने में भी काफ़ी समय देना पड़ता हैं।

वर्षों पूर्व ये लोग पैदल घूम घूम कर आवाज़ लगाते थे “रद्दी वाला” बाद में साइकिल या ठेले पर घर का अनुपयोगी समान खरीद कर ये ही लोग ले जाते हैं।

ये लोग पहले आधा किलो के बांट से तौल कर ले जाते थे, अब भी एक किलो के बांट का प्रयोग करते हैं। हाथ ठेले/रिक्शे पर चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी लेकर चलते हैं। मुंबई प्रवास के समय रद्दी वालों की दुकानें भी देखने को मिली। आप उनको फोन कर बुला सकते है वो घर से रद्दी ले जाते हैं।

घर में पड़े कबाड़ और टूटे फूटे सामान को लेकर वो हमारे घर को स्वच्छ रखने में भी सहयोग कर रहे हैं। अब तो वास्तु शास्त्री भी घर में कबाड़ रखने से मना करते हैं। वर्तमान में पेपर को रिसाइकल किया जाता है, जिसमें इन सबका बड़ा योगदान हैं।

हम में से अधिकतर इनको हेय दृष्टि से देखते है, और वो सम्मान नहीं देते जिसके वो हकदार हैं। हमे हमेशा ये लगता है, कि वो लोग कम तोलते और बेईमानी करते हैं। उनकी आर्थिक दृष्टि को देखते हुए नहीं लगता की वो इस व्यापार से कोई बहुत अधिक धनार्जन करते हैं। शायद हमारा नजरिया गलत हो सकता हैं। रद्दी वाले को अपनी रद्दी नज़र से ना देखकर एक सहयोगी के रूप में देखना ही उचित होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उर्दू के प्रख्यात शायर- अल्लामा इकबाल ने कहा है-

है राम के वजूद पै हिन्दोस्तां को नाज़

अहले नजर समझते हैं इनको इमामे हिन्द॥

भारत में अनेकों मुस्लिम, विद्वान, रामचरितमानस के अप्रतिम स्नेही भक्त और प्रवचनकार हैं जो इस ग्रंथ की एक-एक चौपाई की विशद व्याख्या करते हैं क्योंकि इस गं्रथ में कथानक और भाव की अप्रतिम माधुरी है।

अनेकों दोहे और चौपाइयां लोकोक्तियों और सूक्तियों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे-

पराधीन सपनेहु सुख नाही।

हित अनहित पशुपक्षिहु जाना।

जो जस करई सो तस फल चाखा।

नहि असत्य सम पातक पुंजा।

जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपति निदाना।

आज के भौतिकवादी सोच ने आपसी व्यवहारों में धन के महत्व को बढ़ा दिया है तथा आत्मिक व आध्यात्मिक प्रेम को हृदय से दूर कर रखा है। जहाँ प्रेम है वहां आनन्द है और जहां प्रेम नहीं है वहां अशांति और दुख है। पति-पत्नी में सच्चा प्रेम यदि है तो दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को बिना कहे भी पढ़ लेते हैं। भारतीय दाम्पत्य का यह ही मधुर अनुभव है। गंगा तट पर गंगा पार जब राम सीता लक्ष्मण उस तट पर पहुंचे तब निषाद (केवट) को उतराई देने के लिए राम के पास कुछ नहीं था। उनके मन की इस व्याकुलता को उनकी पत्नी सीता जी ने तुरंत ही समझ लिया और उन्होंने उतराई देने अपनी अंगुली से मणिमुद्रिका उतार कर आगे कर दी। मानसकार ने स्नेह की इस अनुभूति को किस सुंदरता से लिखा है-

प्रियहिय की सिय जाननहारी, मणिमुंदरी मनमुदित उतारी।

जहां प्रेम होता है वहां प्रिय के हृदय की बात प्रेमी को दूर से भी समझ में आ जाती है। यही प्रेम का अलौकिक आनंद है कि दो हृदयों को बिना वाणी के भी सबकुछ समझ में आ जाता है। इसलिये प्रेम को पावन कहा है। प्रेम इससे ही भगवान है।

तुलसीदास जी को समन्वयवादी कहा गया है। उन्होंने समन्वयवाद अर्थात् प्रेम की भावना को प्रतिष्ठित किया है। छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक, सम्पन्न-निर्धन, भक्ति-ज्ञान, शैव-वैष्णव, सुख-दुख में सबके बीच समन्वय स्थापित कर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। मन, वचन और कर्म के समन्वय से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व उठता है और जीवन में शांति और सुख प्राप्त होता है। व्यक्ति में देवत्व आता है।

प्रेम से आत्मा का परिष्कार होता है। मन का मैल धुल जाता है। गंगाजी के जल से जैसा शरीर निर्मल हो जाता है। पवित्रता प्राप्त होती है। वैसे ही प्रेम के प्रवाह में मन निर्मल हो जाता है। निर्मल मन में सरलता होती है। कटुता दूर हो जाती है। व्यक्ति के प्रति प्रेम हो या ईश्वर की भक्ति निर्मल मन का बड़ा महत्व है। बिना निर्मल मन के मनुष्य को न तो जीवन में अन्य सहयात्रियों के प्रति भाव जागता है न ईश्वर की भक्ति में ही मन लगता है। प्रेम से ही भक्ति होती है। प्रेम से ही परमार्थ होता है। तुलसीदास जी ने कहा है-

परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

प्रेम निर्मल मन का सहज धर्म है। उसी से समाज में परोपकार और अध्यात्म भाव में ईश्वरोपासना व भक्ति संभव है। अत: मेरी समझ में मानस का रेखांकित शाश्वत सत्य यही प्रेम है, जिसका मानस में हर प्रसंग में किसी न किसी रूप से वर्णन आया है।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 13 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 13 ??

कोई भी अध्याय जिसका आरम्भ पश्चिमी है, यदि उसे मानव जाति के विनाश में समाप्त नहीं होना है तो उसका अंत भारतीय होना ही चाहिए। इतिहास के इस बेहद खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र तरीका भरतीय तरीक है।

– डॉ. अर्नॉल्ड टोयनबी

इसी संदर्भ में महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी ज्योतिपुँज-सा है-

“भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!‘

जैसा पहले कहा जा चुका है कि भारतीय लोक में दहाई के बिना इकाई का मान नहीं है। समूह के बिना व्यक्ति का अस्तित्व यहाँ अग्राह्य है। यही कारण है कि लोक का क्रियाकलाप सामूहिक है। लोक में नृत्य सामूहिक है। लोक में गायन सामूहिक है। समूह में हर किसी का निबाह हो जाता है। समूह हर किसी को प्रतिभा प्रदर्शन  हेतु मंच देता है तो हरेक के विरेचन के लिए सेतु भी बनता है। सामूहिकता ऐसी कि भोजन भी पंगत में बैठकर सबके साथ ही होगा। भोजन के समय किसी अतिथि के घर आ जाने पर मानसिक विचलन का शिकार हो जाने वाली आधुनिकता की किसी शायर ने लोक से सटीक तुलना करते हुए लिखा है,

एक वो दौर था, सोचता था मेहमान आये तो खाना खाऊँ।

लानत है इस दौर पर, सोचता हूँ मेहमान जाये तो खाना खाऊँ।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य का मन विचारों का उद्गम स्थल है। विचार उत्पन्न होने पर ही मनुष्य कोई कार्य करता है। बहुत से विचार तो उठकर विलुप्त हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो कार्य कराते हैं। औरों से बिना कहे व्यक्ति को चैन नहीं मिलती हैं। जन साधारण तो अपने विचार मौखिक ही एक दूसरे पर व्यक्त कर अपना सारा कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं, किन्तु मनीषी कवि लेखक अपने मन के विचारों को लिखकर व्यक्त करते हैं। ऐसे विचार गंभीर होते हैं और जन-जन को दीर्घकाल तक चिन्तन मनन का मसाला सबों को देते हैं। उनसे समाज को मार्गदर्शन भी मिलता है। ये विचार व्यक्ति के व्यक्तित्व समाज की तत्कालीन स्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसीलिये उन विद्वानों के द्वारा रचित पुस्तकें समाज को उनके विचारों की सुगंध देती हैं और समाज की समस्याओं को सुलझा सकने के लिए राह दर्शाती हैं। ऊंचे विचारों को दर्शाने वाली ऐसी पुस्तकें युग-युग के लिए अमर हो जाती हैं जैसे गीता या रामायण।

महात्मा तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने पर हमें उनकी अवधारणा इच्छा और लेखन के उद्देश्य का ज्ञान होता है। उन्होंने रामचरितमानस की रचना क्यों की, उन्हीं के शब्दों में मानस के प्रारंभ में लिखा है-

नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोदपि

स्वान्तस्सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबद्धमतिमंजुलमातनोति।

वे कहते हैं कि विभिन्न वेद शास्त्रों में और बाल्मिकी रामायण में तथा कुछ अन्य गं्रथों में भी जो कुछ कहा गया है उसी को उन्होंने आत्मसुख की भावना से सुख के लिए सरल भाषा में अपनी तरह से लिखा है। इससे स्पष्ट है कि तुलसीदास जी ने नानापुराण निगम, बाल्मिकी रामायण और कुछ अन्य आध्यात्मिक गं्रथों का अध्ययन मनन कर जो सब संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं, उनके भावों को अपने विचारों के अनुसार प्रचलित लोकभाषा (जन-जन की बोलचाल की भाषा) में लिखा है। लोक भाषा में इसलिये लिखा कि जिससे जनसाधारण उसे पढ़ सकें और समझ सकें और उसमें निरूपित विचारों और भावों को लोक कल्याण के लिए व्यवहार में ला सकें।

महात्मा तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे। मानस में श्रीराम के जीवन का विशद वर्णन ही उनका प्रतिपाद्य विषय है परन्तु हर प्रसंग में उन्होंने जन साधारण के लिये सरल भाषा में लोकत्तियों और सूक्तियों तथा उदाहरणों और दृष्टान्तों के माध्यम से जनजीवन को सीखने और सुखी बनाने के लिए उपदेशात्मक प्रवचन भी लिखा है।

प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में उन्होंने ईश प्रार्थनायें की हैं जो संस्कृत में हैं। परन्तु सम्पूर्ण गाथा हिन्दी (अवधी लोकभाषा) में इसीलिये वर्णित की है, जिससे सामान्य ग्रामवासी भी पढक़र या सुनकर उस कथा प्रसंग से कुछ पा सकें, सीख सकें।  ”स्वान्तस्सुखाय” का अर्थ होता है आत्म सुख के लिये परन्तु विद्वानों का ”स्वान्तस्सुखाय” ”बहुजन हिताय” होता है। हर एक का सुख अलग होता है। परन्तु लेखक या कवि का सुख तो इसी में होता है कि उसकी रचना अधिक लोगों के द्वारा पढ़ी जाय और सराही जाय। जितने अधिक संख्या में लोग उसकी रचना का रसास्वादन करें और उससे उनके विचारों की शुद्धि हो यही कवि या लेखक की सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है। यही उसका आत्मसुख है। इस दृष्टि से देखें तो रामचरित मानस अद्भुत गं्रथ है। भारत में तो हर हिन्दू के घर में उसकी प्रति उपलब्ध है। पढ़ी जाती है और पूजी जाती है। अन्य धर्मावलंबियों द्वारा भी उसे पढ़ा और सराहा जाता है। रामचरितमानस का अनुवाद विश्व की विभिन्न भाषाओं में हो चुका है और दक्षिण-पूर्वी एशिया के मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी उसका सम्मान है। तुलसीदास जी की मनोभावना के अनुरूप उनकी अपूर्व आध्यात्मिक रचना ‘मानसÓ को उद्देश्य प्राप्ति भी हुई है और वे प्रसिद्धि के साथ सफल भी हुए हैं। इसमें भगवान राम की जीवन की सम्पूर्ण गाथा है किन्तु उनके जीवन की घटनाओं को आदर्शरूप में प्रस्तुत किया गया है जो पाठक पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है। घर-परिवार और समाज में घटित होने वाले छोटे से छोटे व्यवहारों को प्रस्तुत कर कवि ने वह सबकुछ समझा दिया है कि मनुष्य को जीवन में कैसे जीना चाहिये। उसको सब के साथ कैसा संबंध रखना चाहिये और कैसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे जीवन में सबसे मधुर संबंध रख द्वेष और कलह से दूर रह प्रेम का व्यवहार कर सफल हो सकें। मानस में प्रेम के सशक्त धागे से मनुष्य मन के समस्त भावों को पुष्प की भांति गूंथकर, कवि ने प्रेम के माध्यम से ही समस्त कठिनाइयों को सुलझाने के मनोवैज्ञानिक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। मानस में पारिवारिक हर रिश्ते में प्रेम, भ्रार्तृत्व, सहयोग, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति, त्याग, निष्ठा, शौर्य, कर्तव्य का सच्चाई और ईमानदारी से निर्वाह, सदाचार का पालन, दुराचारियों का समाजहित में दमन, विचारों की दृढ़ता, निर्णय की अंडिगता तथा विनम्रता, समानता और सद्भाव के अनुपम आदर्श हैं। मनोविकारों पर विजय पाने से जीवन में सुख-शांति और सामाजिक समृद्धि संभव है तथा भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए दैनिक व्यवहारों में शुद्धता और पवित्रता का पालन किया जाना सुखदायी और परिणामप्रद होता है- इसी का संकेत है। रामकथा के माध्यम से समाज में नई चेतना फूंकना, अपने परम आराध्य राम का जनहितकारी मंगलकर्ता ईश्वरीय स्वरूप हर भक्त हृदय में स्थापित करना, तुलसी का लक्ष्य प्रतीत होता है। श्रीराम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दीन-दुखियों के शरणदाता हैं। सबके स्वारथरहित सखा हैं। निर्बल के बल है। भक्तों के लिये भवसागर पार कराने वाले पूज्य परमात्मा हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा जागती है। मानस के प्रमुख पात्र (नायक) हैं, किन्तु उनके जीवन से संबंधित हर पात्र आदर्श आचरण वाला है। राम के भाई भरत और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न, भातृप्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। मातायें कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी भी वात्सल्य की प्रतिमा हैं। आयोध्यावासी नागरिक नितान्त प्रेमल व सदाचारी और धार्मिक हैं। अन्य सभी सेवक सहायक जो वनवास की अवधि में उन्हें मिले- सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि आदर्श सेवक हैं। हर पात्र, जो भी मानस में हैं अपनी भूमिका में आदर्श पात्र हैं। ऐसा तो ग्रंथ विश्व साहित्य में कोई दूसरा नहीं मिलता। इसीलिये यह ग्रंथ बेजोड़ है, कालजयी है तथा मनमोहक है। इसमें राजनीति, धर्मनीति, लोकनीति तथा अध्यात्म की शिक्षायें हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में- कम्बोडिया, वियतनाम, जावा, सुमात्रा में रामकथा का बड़ा आदर और महत्व है। विभिन्न अवसरों पर वहां रामकथा का रंगमंच पर प्रदर्शन किया जाता है।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3) ?

जीवन का दर्शन छोड़ प्रदर्शन के मारे मनुष्य की चर्चा आज जारी रखेंगे। लगभग पौने तीन दशक पूर्व हमने मासिक साहित्यिक गोष्ठियाँ आरंभ की। यह अनुष्ठान गत 27 वर्ष से अखंडित चल रहा है। गोष्ठियाँ आरम्भ होने के कुछ समय बाद ही कविता के बड़े मंचों से निमंत्रण आने लगे। इसी प्रक्रिया में एक रचनाकार से परिचय हुआ। वह मंचों पर तो मिलते पर गोष्ठियों से नदारद रहते। एक बार इस विषय पर चर्चा करने पर बोले, ” मैं टेस्ट मैच का खिलाड़ी हो चुका हूँ। लगातार टेस्ट मैच खेल रहा हूँ। ऐसे में रणजी ट्रॉफी क्यों खेलूँ?” उन्हें कोई उत्तर देना अर्थहीन  था। ऐसे खिलाड़ियों को समय ही उत्तर देता है। समय के साथ टेस्ट मैच पर वन-डे को प्रधानता दी जाने लगी। फिर टी-20 का ज़माना आया, फिर आईपीएल की चकाचौंध और अब तो कुछ स्थानों पर टी-10 के टूर्नामेंट भी होने लगे हैं।

यह नहीं भूलना चाहिए कि फॉर्म हमेशा नहीं रहता। फॉर्म जाने के बाद खुद को सिद्ध करने का मंच है रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट। यहाँ नयी प्रतिभाएं भी  निरंतर आ रही होती हैं। भविष्य में आपको किन-किन से स्वस्थ प्रतियोगिता करनी है, किन-किन के मुकाबले खुद को खड़ा करना है, यह रणजी टूर्नामेंट से ही पता चलता है।

अपने समय के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था कि हर सुबह जॉगिंग करते समय वह उस समय जो नये और युवा कलाकार आ रहे थे, उन्हें याद किया करते। उन कलाकारों को याद कर, हर नये कलाकार के नाम पर अपनी जॉगिंग 100 मीटर और बढ़ा देते। बकौल उनके उन्हें नये प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले खुद को फिट रखना था।

अपने आप को फिट रखना है अर्थात निरंतर सीखना है, सीखे हुए को स्मरण रखना है तो बेसिक या आधारभूत को भूलने की गलती कभी मत करना। कहा भी जाता कि ‘बेसिकस् नेवर चेंज।’ रणजी बेसिक है, रणजी आधारभूत है । फॉर्म आएगा, फॉर्म जाएगा पर आधारभूत बनाए रखना, बचाए रखना, आधारभूत का सम्मान अखंडित रखना।

यह भी ध्यान रहे कि जीवन में भी रणजी ट्रॉफी से टेस्ट मैच तक, सब कुछ होता है। एक कोई संस्था/ संस्थान/ व्यक्तित्व ऐसा होता है जो व्यक्ति के उद्भव, विकास और विस्तार में माँ की भूमिका निभाता है। उससे दूर जाना याने फॉर्म जाने के बाद खेल से बाहर हो जाने की आशंका है। कुछ इसी तरह परिवार भी व्यक्ति का आधार है। परिवार में अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, मानसिक स्थिति वाले सदस्य हो सकते हैं। अपने अहंकार, अपने प्रदर्शन-भाव  के चलते परिवार से दूर मत चले जाना। तुम्हारा परिवार तुम्हारे उत्थान में मंगलगीत गाता है, तुम्हारे अवसान में भी परिवार ही संबल बनता है।

चित्रपट उद्योग का ही एक और उदाहरण, पचास के दशक के प्रसिद्ध अभिनेता भगवान दादा का है।  उन्होंने अपने संघर्ष का आरंभ मुंबई की लालूभाई मेंशन चॉल से किया था। 25 कमरों वाले बंगले में जाने के बाद भी चॉल का कमरा दादा ने बेचा नहीं। विधि का विधान देखिए कि फर्श से अर्श की यात्रा उल्टी घूमी और उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिन चॉल के उसी कमरे में बिताने पड़े।

इस विषय के समानांतर चलती अपनी एक कविता  साझा कर रहा हूँ-

जब नहीं बचा रहेगा

पाठकों.., अपितु

समर्थकों का प्रशंसागान,

जब आत्ममोह को

घेर लेगी आत्मग्लानि,

आकाश में

उदय हो रहे होंगे

नये नक्षत्र और तारे,

यह तुम्हारा

अवसानकाल होगा,

शुक्लपक्ष का आदि,

कृष्णपक्ष की इति

तक आ पहुँचा होगा,

सोचोगे कि अब

कुछ नहीं बचा

लेकिन तब भी

बची रहेगी कविता,

कविता नित्य है,

शेष सब अनित्य,

कविता शाश्वत है,

शेष सब नश्वर,

अत: गुनो, रचो,

और जियो कविता!

प्रदर्शन से मुक्त होकर अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने संदर्भ में कविता में अंतर्निहित दर्शन को जो जी सका, समय साक्षी है कि वही  खिलाड़ी लंबे समय तक पूरे फॉर्म में खेल सका।.. इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य को अपनी चाह को पूर्ण करने में आनंद मिलता है। हर व्यक्ति जीवन मैं आनंद चाहता है और उसी के लिये कर्म करता है। मनुष्य ही नहीं हर जीव (प्राणी) दुख से दूर हो सुख या आनन्द प्राप्ति के लिए जीवन भर कार्यरत रहता है हर क्षण। अर्थात्ï जीवन का लक्ष्य है आंनद बल्कि परमानंद।

प्रकृति ने प्राणी को ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे वह ज्ञान प्राप्त करता है और कर्मेन्द्रियाँ दी हैं जिनसे कर्म कर आनंद पाने की दिशा में बढ़ता है। इनके सिवाय मन है जिससे वह सोचता है समझता है और तभी कुछ करता है। मन ही ज्ञान और कर्म का मूल है। और कर्म का आधार ज्ञान होता है। जब जानता है तभी उस दिशा में जानकार काम करता है। मन यदि सही सोचता और समझता है तो कार्य सही होता है। यदि मन सही नहीं है तो सही कार्य नहीं होता, दुख होता है। मनुष्य घर परिवार समाज में रहता है। उसका सोच विचार और कार्य का आधार और क्षेत्र केवल व्यक्ति नहीं अन्य का संपर्क है अर्थात्ï उसका हर कार्य दूसरों को प्रभावित करता है। और दूसरों से प्रभावित होता है इसलिय उसे वही करना चाहिए जो उसे तथा औरों को आनंद दे। सिद्धान्त: यह सही सोच से ही संभव है और मनुष्य को सोच को सही रखने के लिए ही शिक्षा जरूरी है। आदिकाल से जब से मनुष्य जाति ने सभ्य व्यवहार करना सीखा संस्कृति को जन्म दिया, तब से ही उसे, समाज के अन्य सदस्यों के साथ उचित व्यवहार करने की सीख देने को नीति और अनीति समझाने को समाज को संयमित, सुखी और अनुशासित रखने को धर्म की स्थापना हुई। धर्म का अर्थ है जो धारण किया जाता है। धारण करने का अर्थ है कत्र्तव्य। क्या करना अच्छा है क्या बुरा है-हर धर्म यही विवेचना करता है और उसके समझने और व्यवहार में लाने का उपदेश देता है। विभिन्न देशों में जहाँ प्राचीन  काल में मानव समुदाय पले बढ़े, स्थानीय परिस्थितियेां के अनुसार किसी विशेष व्यक्ति/ देवदूत/ अवतार या फरिश्ते ने उन्हें अनुशासित, संयमित रह सही व्यवहार करने की शिक्षा दी। उद्ïदेश्य हर एक समुदाय का यही रहा कि सब सुखी रहें, कष्ट न हो, सब मिलके एक लक्ष्य को पाने की ओर चलें, आपस में टकराव न हो। इसीलिए विश्व के विभिन्न भागों में विकसित होने वाले मानव समुदायों में वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार रहन-सहन, सोच-विचार व्यवहार नीति-नियम विकसित हुए और उसको संचालित करने को अलग-अलग धर्माे की स्थापना हुई। धर्मों के मध्य भी मत भिन्नता के कारण पंथ बने और  उनके अनुयायी सुख शांति और आनंद पाने के लिये उन धर्मांे की शिक्षाओं या उपदेशों के अनुयायी बने। धर्म जो स्थापित हुए थे जन समुदाय में शांति और आनंद  प्रदान करने को लोगों की नासमझी से या गलत प्रचार से दूसरे पंथों या अनुयायियों का विरोध करने वाले बन गये और अंधविश्वासी नासमझ लोगों के व्यवहारों के कारण निरर्थक बैर और लड़ाई के आधार बन गये। हर समुदाय में समझदार दूरदर्शी और दूसरों का हित करने वाले थोड़े ही होते हैं। जो स्वार्थी तात्कालिक हित की बात सोचते हैं हठवादी हैं। ऐसे अधार्मिक ही अधिक होते हैं। इसीलिए धर्मों का जो लाभ होना चाहिए था वह न होकर उसका विपरीत असर समाज में हुआ। अंधविश्वासी ज्यादा हो गये और बढ़ते गये। आबादी के बढऩे के साथ-साथ ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि एक धर्म दूसरे धर्म का सहायक या पूरक होने के स्थान पर विरोधी बनकर उभर रहा है। लड़ाई का कारण बन गया है।

हर धर्म में सही आचरण का ही उपदेश है। मन-वचन और कर्म की एकरूपता की बात प्रथम महत्व की कही गई है। अर्थात्ï मन से सही सोचो, वही सत्य बात मुँह से बोलो और वैसा ही काम करो। परन्तु आज स्वार्थ परता के कारण मन-वचन और कर्म में एक रूपता के स्थान पर विभिन्नता अधिक दिख रही है। इसी से सारे संसार में उलझने हैं, झगड़े हैं, टकराव हैं, मारकाट है, युद्ध है। परिणामत: दूसरों को मारकाट कर अपना हित साधन करने की सोच और वृत्ति ने आतंकवाद को जन्म दिया है जिससे सारा विश्व जल रहा है, दुखी है। हाहाकार कर रहा है। कोई रास्ता नहीं दिख रहा है जग को सुलझाव का। हर धर्म ने मनुष्यों का ध्यान ईश्वर की प्रार्थना उपासना में लगाने के प्रयास के द्वारा उनकी वृत्तियाँ को आनंद प्राप्ति की ओर लगाकर बुराई से हटाने और अच्छाई के द्वारा मोक्ष, मुक्ति या बहिश्त पाने के अधिकारी बनने के लिए मोडऩे का प्रयास किया है। किन्तु आज तक पूरी सफलता नहीं मिली है।

सफलता तभी संभव होगी जब हम अपने ही हेतु नहीं जिनके साथ हम रहते हैं उनके हित के लिए भी सोचें और व्यवहार करें। इसीलिए हजरत मोहम्मद ने अपनी रोटी को पड़ोसी के साथ बांटकर खाने का उपदेश दिया था। ईसामसीह ने समाज के हर व्यक्ति के लिए त्याग करने और उनसे प्रेम करने व उनके दुख को दूर करने के लिए परमपिता से सदा प्रार्थना करने को कहा था। दुखी साथी के दुख को दूर करने के लिए उसकी सेवा करने का उपदेश दिया था। सनातम धर्म (हिन्दू धर्म) कहता है कि सोचो और प्रयास करो कि-

सर्वे  सुखिन:  सन्तु  सर्वे  सन्तु निरामया:,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुखभागभवेत्ï॥

क्योंकि सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम्ï। सही बात हर धर्म ने बार-बार उच्च स्वर में कही है परन्तु आज लाउडस्पीकर लगाकर भक्तिभाव की दुहाई देने वाले तथा कथित धार्मिक लोगों के मन में धर्माेपदेश नहीं असर कर पाये हैं और यही आज के विश्व में न केवल मानव जाति की वरन समस्त प्रकृति और प्राणियों की दुर्दशा का कारण है।

“मानस” में तुलसीदास जी ने इस विषमता को बारीकी से देखा गहराई से सोचा और बड़ी सशक्त वाणी में कहा है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

यदि परहित की बात हमें सदा याद रहे तो हमसे बड़ा धार्मिक और कौन हो सकता है और इस संसार को सुखी और समृद्ध होने से कौन रोक सकता है?

धर्म का सरल सूत्र यही है और धार्मिक होने के लिए परम्ï आनंद की प्राप्ति के लिए इससे बड़ा कोई उपाय भी संभव नहीं है। अत: इस मूलमंत्र का जाप भी होना चाहिये और हर कार्य भी इसी माप से किया जाना चाहिऐ।

यह मंत्र समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी है किसी एक धर्म के अनुयायियों के लिए नहीं।

इसी के आधार पर अपना कत्र्तव्य निर्धारित कर व्यक्ति न केवल खुद को और समाज को सुख और आनंद दे सकता है वरन जीवन के उपरान्त परमपिता के चरणों में मोक्ष पा परमानंद को प्राप्त हो सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 12 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 12 ??

दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।

– किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी

‘ मैं भारत के अनेक राज्यों में घूमा. वहाँ मैंने एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी हो, चोर हो. ऐसी विलक्षण सम्पदा देखी है मैंने इस देश में, ऐसे उच्चतम मौलिक विचार, इतने काबिल/गुणी व्यक्ति देखे हैं कि मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को गुलाम बना पाएँगे, जब तक कि हम इस देश की अध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को नष्ट ना कर दें, जो इस देश की वास्तव में रीढ़ है।

और इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि इस देश की वर्षों पुरानी ‘शिक्षा प्रणाली‘ और यहाँ की ‘संस्कृति‘ को बदल दिया जाए, क्यूंकि जब भारतीय ये सोचेंगे कि जो कुछ भी विदेशी है और ब्रिटेन का है, वह अच्छा और बेहतर है उनके स्वयं से, तब ये भारतीय अपना अपनी पौराणिक संस्कृति और स्वाभिमान को खो बैठेंगे और तब ये लोग वो बन जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं, एक वास्तविक गुलाम भारत !‘

 – भारत का दौरा करने के बाद 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये अँग्रेज मैकाले के भाषण के अंश। ( ये दस्तावेज संग्रहित हैं ) 

भारत में बीस लाख देवी-देवता हैं और वे सभी की पूजा करते हैं। धर्म के मामले में बाकी सभी देश कंगाल हैं, भारत ही करोड़पति है।

 – मार्क ट्वेन

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 3 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

(4)  राम के वनगमन समय राम के सीता को अयोध्या में रुकने के लिए कहने पर सीता उत्तर में कहती हैं-

मै सुकुमार नाथ बन जोगू? तुमहि उचित तप मो कँह भोगू्ï?

प्राणनाथ क रुणायनत, सुन्दर सुखद सुजान-

तुम बिन रघुकुल कुमुद विधु सुरपुर नरक समान।

जिय बिनु देह, नदी बिन बारी, तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी॥

मोहि मग चलत न होइहि हारी, छिनु छिनु चरण सरोज निहारी॥

बार बार मृदु मूरत जोही, लागहि ताप बयार न मोही।

पति के साथ वन जाने का कितना सशक्त किन्तु विनम्र आग्रह है उनका यह।

(5)  गंगा पार करने पर-केवट को उतराई देने के लिए राम के मन के संकोच को देखकर सीता ने-

प्रिय हिय की सिय जानन हारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

पतिहृदय की बात को समझने वाली भारतीय आदर्श नारी ही हो सकती हैं।

(6)  चित्रकूट में पर्णकुटी में रह रहे राम सीता से मिलने जनक जी सपरिवार आते हैं सीता जी मिलती है। पिता भी अपनी ऐसी पतिपरायणा पुत्री पर गर्व से वे कहते हैं

पुत्री पवित्र किए कुल दोऊ, सुजस धवल जनु कह सब कोऊ,

सीता की मर्यादा और शील यहाँ भी दिखता है जब वे रात को माता पिता के पास भी वहाँ रुकने में संकोच करती है-

कहति न सिय सकुचत मन माँही। इहाँ रहब रजनी भल नाहीं॥

(7)  बन यात्रा में ग्राम वासिनी स्त्रियों द्वारा उत्सुकता से उनका परिचय पूछें जाने पर सीता जी का शीलपूर्ण संयत उत्तर देना भारतीय संस्कृति की मर्यादा  का आकर्षक चित्रण है। पूछा जाता है-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आँहि तुम्हारे?

उत्तर में सीता कहती हैं-

सहज सुभाय सुभग तनु गोरे, नाम लखन लघु देवर मोरे

बहुरि बदन बिधु आँचल ढाँकी प्रिय तन चितइ भौंह कर बाँकी॥

(8)  रावण के द्वारा विभिन्न साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग करने पर सीता जिस तरह अपने सतीत्व रक्षा में उसे उत्तर देती है वह देखें-

तृण धरि ओट कहत बैदेही, सुमिर अवधिपति परम सनेही,

सुन दशमुख खद्योत प्रकाशा, कबहुकि नलिनी करई विकासा?

सो भुज कंठ कि तब असिघोरा, सुन सठ अस प्रमाण पण मोरा।

पतिवियोग में-

कृस तन सीस जटा एक वेणी, जपत हृदय रघुपति गुणश्रेणी,

इन सबके उपरान्त अपार कष्टों के बाद जब सीता को अग्नि परीक्षा देने के बाद अयोध्या की राजरानी बनने का अवसर मिला, तब वह एक योग्य गृहिणी की भाँति रहती दिखती है-

(9)  पति अनुकूल सदा रह सीता, शोभाखानि सुशील विनीता

निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंन्द्र आयसु अनुसरई।

कौशल्या सासु गृह माँही सेवहिं सबहि मान मदनाहीं।

पति के प्रति आस्था विश्वास और निष्ठा की चरम सीमा तो तब है जब एक  धोबी के कथन पर राम ने सीता का परित्याग उस अवस्था में किया जब वह गर्भवती थी। तब भी वन में उन्होंने राम को नहीं अपने भाग्य को दोषी ठहराते हुए अपने को अपनी सन्तान की सुरक्षा की आशा में जीवित रखा और जन्म देकर उन्हें इतना योग्य बनाया कि वे अपने महापराक्रमी पिता श्री रामचन्द्र जी से शक्ति, गुण में, सुयोग्य बन टक्कर ले सकने को समर्थ हो सके। जब वन में कोई अन्य नहीं था तब माता सीता ने ही उन्हें पाल पोस कर उचित शिक्षा दी और भारतीय माता की भूमिका का सही निर्वाह किया।

इस प्रकार सारा जीवन कष्टï सहकर भी सीता जी ने जो भारतीय नारी का आदर्श निबाहा इसी से उन्हें जगतमाता और महासती कहा गया और तुलसी दास जी ने श्री राम के साथ मानस की रचना करने से पूर्व उनकी प्रार्थना इन शब्दों में कर उनकी कृपा और आशीष की कामना की है-

सती शिरोमणि सिय गुनगाथा, सोई गिनु अमल अनुपम पाथा,

जनक सुता जग जननि जानकी, अतिसय प्रिय करुणा निधान की।

ताके युगपद कमल मनावहुँ, जासु कृपा निर्मल मति पावहुँ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #137 ☆ ट्यूशन व तलाक़  ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख  ट्यूशन व तलाक़ . यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 137 ☆

☆ ट्यूशन व तलाक़ ☆

जो औरतें शादी के बाद मायके से ट्यूशन लेती हैं; वे औरतें तलाक़ की डिग्री ज़रूर हासिल कर लेती हैं,’ यह कथन कोटिशः सत्य है। आजकल माता-पिता, भाई-बांधवों व अन्य परिजनों के पास उनकी पल-पल की रिपोर्ट दर्ज होती है और वे ससुराल में रहते हुए भी मायके वालों के आदेशों की अनुपालना करती हैं। खाना बनाने से लेकर घर-परिवार की छोटी से छोटी बातों की ख़बर उनकी माता व परिजनों को होती है। आजकल विदाई के समय उसे यह सीख दी जाती है कि उसे वहाँ किसी से दब कर रहने की आवश्यकता नहीं है; सदा सिर उठाकर जीना। हम सब तुम्हारे साथ हैं और उन्हें दिन में तारे दिखला देंगे। वैसे भी वर के परिवारजनों को सीखचों के पीछे धकेलने में समय ही कितना लगता है। उन पर दहेज व घरेलू हिंसा का इल्ज़ाम लगाकर आसानी से निशाना साधा जा सकता है। सो! दूर-दूर के संबंधियों की प्रतिष्ठा भी अकारण दाँव पर लग जाती है और रिश्ते उनके लिए गले की फाँस बन जाते हैं।

इतना ही नहीं, अक्सर वे माता-पिता की इच्छानुसार सारी धन-दौलत व आभूषण एकत्र कर अक्सर अगले दिन ही नये शिकार की तलाश में वहाँ से रुख़्सत हो जाती हैं। जब से महिलाओं के पक्ष में नये कानून बने हैं, वे उनका दुरुपयोग कर प्रतिशोध ले रही हैं। शायद वे वर्षों से सहन कर रही गुलामी व ज़ुल्मों-सितम का प्रतिकार है। पुरुष सत्तात्मक परंपरा के प्रचलन के कारण वे सदियों से ज़ुल्मों-सितम सहन करती आ रही हैं। अब तो वे मी टू की आड़ में अपनी कुंठाओं की  रिपोर्ट दर्ज करा रही हैं। 

महिलाओं को समानता का अधिकार लम्बे समय के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त हुआ है। इसलिए अब वे आधी ज़मीन ही नहीं; आधा आसमान भी  चाहती हैं; जिस पर पुरुष वर्ग लम्बे समय से  काबिज़ था। इसलिए वे ग़लत राहों पर चल निकली हैं। चोरी-डकैती, अपहरण आदि उनके शौक हो गए हैं तथा पैसा ऐंठने के लिए वे पुरुषों पर निशाना साधती हैं तथा उन पर अकारण दोषारोपण करना व उनके लिए सामान्य प्रचलन हो गया है। महफ़िल में शराब के पैग लगाना, सिगरेट के क़श लगाना, रेव पार्टियों में सहर्ष प्रतिभागिता करना उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। आजकल अक्सर महिलाएं अपने माता- पिता के हाथों की कठपुतली बन इन हादसों को अंजाम दे रही हैं तथा दूसरों का घर फूंक कर तमाशा देखना उनके जीवन का शौक हो गया है।

‘गुरु बिन गति नांहि’ ऐसी महिलाओं के गुरू अक्सर उनके माता-पिता होते हैं, जो उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें सतत्  विनाश के पद पर अग्रसर होने की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार ऐसी महिलाएं जो अपने मायके की ट्यूशन लेती हैं, उन्हें तलाक़ की डिग्री अवश्य प्राप्त हो जाती है। मुझे एक ऐसी घटना का स्मरण हो रहा है, जिसमें विवाहिता ने चंद घंटे पश्चात् ही तलाक़ ले लिया। विवाह के पश्चात् प्रथम रात्रि को वह पति को छोड़कर चली गई। उसका अपराध केवल यही था कि उसने पत्नी से यह कह दिया कि ‘तुम्हारे बहुत फोन आते हैं। थोड़ी देर आराम कर लो।’ इतना सुनते ही वह अपना आपा खो बैठी और उसे खरी-खोटी सुनाते हुए भोर होने पूर्व ही पति के घर को छोड़कर चली गई।

अक्सर महिलाएं तो यह निश्चय करके ससुराल में कदम रखती हैं कि उन्हें उस घर से पैसा व ज़ेवर आदि बटोर कर वापस लौटना है और वे इसे अंजाम देकर रुख़्सत हो जाती हैं। वैसे भी  आजकल तो हर तीसरी लड़की तलाक़शुदा है। फलत: सिंगल पैरंट का प्रचलन भी बेतहाशा बढ़ रहा है और लड़के ऐसी ज़ालिम महिलाओं के हाथों से तिरस्कृत हो रहे हैं। इतना ही नहीं, वे निर्दोष अपने अभागे माता-पिता सहित कारागार में अपनी ज़िदगी के दिन गिन रहे हैं और उस ज़ुल्म की सज़ा भोग रहे हैं।

पहले माता पिता बचपन से बेटियों को यह शिक्षा देते थे कि ‘पति का घर ही उसका घर होगा और उस घर की चारदीवारी से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। उसे अकेले मायके में आने की स्वतंत्रता नहीं है।’ सो! तलाक़ की नौबत आती ही नहीं थी। वास्तव में तलाक़ की अवधारणा तो विदेशी है। मैरिज के पश्चात् डाइवोरस व निक़ाह के पश्चात् तलाक़ होता है। हमारे यहां तो विवाह के समय एक-दूसरे के लिए सात जन्म तक जीने- मरने की कसमें खाई जाती हैं। परंतु हमें तो पाश्चात्य की जूठन में आनंद आता है। इसलिए हमने ‘हेलो हाय’ ‘मॉम डैड’ व ‘जींस कल्चर’ को सहर्ष अपनाया है। वृद्धाश्रम पद्धति भी उनकी देन है। हमारे यहां तो पूरा विश्व एक परिवार है और ‘अतिथि देवो भव’ का बोलबाला है।

आइए! हम बच्चों को संस्कारित करें उन्हें जीवन मूल्यों का अर्थ समझाएं व ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ पढ़ाएं। अपने घर को मंदिर समझ सहर्ष उसमें रहने का संदेश दें, ताकि कोरोना जैसी आपदाओं के आगमन पर उन्हें घर में रहना मुहाल हो। लॉकडाउन जैसी  स्थिति में वे न विचलित हों और न ही डिप्रेशन कि शिकार हों। हम भारतीय संस्कृति का गुणगान करें और बच्चों को सुसंस्कारित करें, ताकि उनकी सोच सकारात्मक हो। वे घर-परिवार की महत्ता को समझें तथा बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनके सान्निध्य में शांति व सुक़ून से रहें। वे अधिकतम समय मोबाइल के साथ में न बिताएं तथा घर-आंगन में दीवारें न पनपने दें। महिलाएं  ससुराल को अपना परिवार अर्थात् मायका समझें, ताकि तलाक़ की नौबत ही न आए। वे एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से रहें, ताकि  सोलोगैमी अर्थात् सैल्फ मैरिज की आवश्यकता ही न पड़े। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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