हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ??

(विकिबुक्स ने हिंदी भाषा सम्बंधी लेखों के संकलन में इस लेख को प्रथम क्रमांक पर रखा है। लेख का शीर्षक ही संकलन को भी दिया है।)

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो,च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम हो या उच्चस्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन, अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। आशा है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 178 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी: वैधानिक स्थितियाँ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – ”हिन्दी: वैधानिक स्थितियां…”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 178 ☆  

? आलेख – राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी: वैधानिक स्थितियां… ?

हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को क्यों ?

1947 में जब भारत को आजादी मिली तो देश के सामने राजभाषा के चुनाव को लेकर गहन चर्चायें हुई. भारत में अनेकों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, ऐसे में राष्ट्रभाषा के रूप में किसे चुना जाए ये संवेदनशील सवाल था. व्यापक मंथन के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया. भारत के संविधान में भाग 17 के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि राष्ट्र की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था. इसीलिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अनुशंसा के बाद से 1953 से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाने लगा. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिन के महत्व देखते हुए प्रति वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी.

विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी को क्यों ?

हिन्दी आज विश्व में तीसरे नम्बर पर बोले जाने वाली भाषा बन चुकी है. भारतीय विश्व के कोने कोने में बिखरे हुये हैं. वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था. इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.

हिन्दी की वैधानिक स्थितियां

चुंकि जब अंग्रेज गये तब सरकारी काम काज प्रायः अंग्रेजी में ही होते थे, रातों रात सारा हिन्दीकरण संभव नहीं था अतः अंग्रेजी में कामकाज यथावत जारी रहे. इसके चलते हिन्दी और अंग्रेजी के बारे में यह भ्रम व्याप्त है कि ये दोनों भारत संघ की सह-राजभाषाएँ हैं. वास्तविक सांविधानिक स्थिति बिल्कुल भिन्न है. संविधान में कहीं भी अंग्रेजी को राजभाषा नहीं कहा गया है. संविधान में अंग्रेजी के लिए प्रयुक्त शब्द हैं ” the language for the time being authorised for use in the Union for official purposes. ” संविधान ने कहा कि अंग्रेजी अगले पन्द्रह वर्ष तक राजकीय प्रयोजन के लिए साथ साथ प्रयुक्त होगी, तब तक संपूर्ण रूप से हिन्दी अपना ली जायेगी किन्तु दलगत तथा क्षेत्रीय राजनीति के चलते ये पंद्रह बरस अब तक खिंचते ही जा रहे हैं.

अनुच्छेद 344 में मुख्यत: छ: संदर्भों को रेखांकित किया गया है-

राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्ष की समाप्ति पर भारत की विभिन्न भाषाओं के सदस्यों के आधार पर एक आयोग गठित किया जाएगा और आयोग राजभाषा के संबंध में कार्य-दिशा निर्धरित करेगा.

हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर बल दिया जाएगा. देवनागरी के अंकों के प्रयोग होंगे. संघ से राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा और एक राज्य से दूसरे राज्य से पत्राचार की भाषा पर सिफारिश होगी. आयोग के द्वारा औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति के साथ लोक-सेवाओं में हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के न्यायपूर्ण औचित्य पर ध्यान रखा जायेगा.
राजभाषा पर विचारार्थ तीस सदस्यों की एक समिति का गठन किया जाएगा जिसमें 20 लोक सभा और 10 राज्य सभा के आनुपातिक सदस्य एकल मत द्वारा निर्वाचित होंगे.
समिति राजभाषा हिंदी और नागरी अंक के प्रयोग का परीक्षण कर राष्ट्रपति को प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगी. राष्ट्रपति के द्वारा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निर्देश जारी किया जाएगा.

अनुच्छेद 345, 346 और 347 में विभिन्न राज्यों की प्रादेशिक भाषाओं के विषय में भी साथ-साथ विचार किया गया है.

अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि राज्य के विधान मण्डल द्वारा विधि के अनुसार राजकीय प्रयोजन के लिए उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा या हिंदी भाषा के प्रयोग पर विचार किया जा सकता है. इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब तक किसी राज्य का विधन मंडल ऐसा प्रावधान नहीं करेगा, तब तक कार्य पूर्ववत अंग्रेजी में चलता रहेगा.

अनुच्छेद 346 के अनुसार संघ में राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त भाषा यदि दो राज्यों की सहमति पर आपस में पत्राचार के लिए उपयोगी समझते हैं, तो उचित होगा. यदि दो या दो से अधिक राज्य आपस में निर्णय लेकर राजभाषा हिंदी को संचार भाषा के रूप में अपनाते हैं, तो उचित होगा.

अनुच्छेद 347 कहता है कि यदि किसी राज्य में जनसमुदाय द्वारा किसी भाषा को विस्तृत स्वीकृति प्राप्त हो और राज्य उसे राजकीय कार्यों में प्रयोग के लिए मान्यता दे, और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाए, तो उक्त भाषा का प्रयोग मान्य होगा.

अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों की भाषा पर विचार किया गया है. यहाँ यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा उपबंध न करे, तब तक कार्य अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय, प्रत्येक उच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र रखे गए.

हिन्दी प्रयोग के लिए संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होना चाहिए. अधिनियम संसद या राज्य विधान मंडल से पारित किए जाएं और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिले. यह प्रस्ताव विधि के अधीन और अंग्रेजी में होंगे. नियमानुसार स्वीकृति के बाद हिंदी का प्रयोग संभव होगा, किंतु उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश पर लागू नहीं होगा.

अनुच्छेद 349 में प्रावधान है कि संविधान के प्रारंभिक 15 वर्षों की कालावधि तक संसद के किसी सदन से पारित राजभाषा संबंधित विधेयक या संशोधन बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के स्वीकृत नहीं होगा. ऐसे विधेयक पर राजभाषा संबंधित तीस सदस्यीय आयोग की स्वीकृति के पश्चात्, राष्ट्रपति विचार कर स्वीकृति प्रदान करेंगे.

अनुच्छेद 350 के प्रावधानो के अनुसार विशेष निर्देशों को व्यवस्थित किया गया है. इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या को संघ और राज्य के पदाधिकारियों को संबंधित मान्य भाषा में आवेदन कर सकेगा. इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को अधिकृत भाषा में संघ या राज्य के अधिकारियों से पत्र-व्यवहार का अवसर दिया गया है.

अनुच्छेद 351 में भारतीय संविधान की अष्टम सूची में स्थान प्राप्त भाषाओं को महत्व दिया गया है. हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार से भारत की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्ति मिलने का संकेत है. हिंदी भाषा को मुख्यत: संस्कृत शब्दावली के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करने का संकेत भी इस अनुच्छेद में किया गया है.

हिन्दी के साथ साथ उपयोग हेतु राष्ट्रपति के आदेश

भारत संघ में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रपति के द्वारा समय-समय पर आदेश जारी किए गए हैं. 1952 का आदेश उल्लेखनीय है जिसमें राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 343(2) के अधीन 27 मई, 1952 को एक आदेश जारी किया जिसमें संकेत था कि राज्य के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और अंक नागरी लिपि में हों.

राजभाषा आयोग की स्थापना सन् 1955 में हुई. आयोग के तीस सदस्यों द्वारा राजभाषा संदर्भ में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-

त्वरित गति से हिन्दी के पारिभाषिक शब्द-निर्माण हों.

14 वर्ष की आयु तक प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी भाषा की शिक्षा दी जाए.

माध्यमिक स्तर तक भारतीय विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षण अनिवार्य हो.

इसमें से प्रथम सिफारिश मान ली गई. अखिल भारतीय और उच्चस्तरीय सेवाओं में अंग्रेजी जारी रखी गई. सन् 1965 तक अंग्रेजी को प्रमुख और हिंदी को गौण रूप में स्वीकृति मिली. 45 वर्ष से अधिक उम्र के कर्मचारियों को हिंदी- प्रशिक्षण की छूट दी गई.

1955 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार संघ के सरकारी कार्यों में अंग्रेजी के साथ हिंदी प्रयोग करने का निर्देश किया गया. जनता से पत्र-व्यवहार, सरकारी रिपोर्ट का पत्रिकाओं और संसद में प्रस्तुत, जिन राज्यों ने हिंदी को अपनाया है, उनसे पत्र-व्यवहार, संधि और करार, अन्य देशों उनके दूतों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से पत्र-व्यवहार, राजनयिक अधिकारियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों द्वारा जारी औपचारिक विवरण सभी कार्य अंग्रेजी और हिन्दी दोनो भाषाओ में किये जाने के निर्देश दिये गये.

1960 में राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निम्न निर्देश जारी किए गए थे-

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के निर्माणार्थ शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक आयोग स्थापित किया जाए.शिक्षा मंत्रालय, सांविधिक नियमों आदि के मैनुअलों की एकरूपता निर्धरित कर अनुवाद कराया जाए. मानक विधि शब्दकोश, हिंदी में विधि के अधिनियम और विधि-शब्दावली निर्माण, हेतु कानून विशेषज्ञों का एक आयोग बनाएँ.तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों को छोड़, 45 वर्ष तक की उम्र वाले कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जावे. गृह मंत्रालय हिंदी आशुलिपिक, हिंदी टंकण प्रशिक्षण योजना बनाए.

1963 का राजभाषा अधिनियम : 26 जनवरी, 1965 को पुन: आगामी 15 वर्षों तक अंग्रेजी को पूर्ववत् रखने का प्रावधान कर दिया गया. हिंदी-अनुवाद की व्यवस्था पर जोर दिया गया. उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में अंग्रेजी के साथ हिंदी या अन्य राजभाषा के वैकल्पिक प्रयोग की छूट दी गई. इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका जो राजभाषा से अपेक्षा थी.

वर्ष 1968 में संविधान के राजभाषा अधिनियम को ध्यान में रखकर संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष संकल्प पारित किया. इसमें विचार रखे गए-

हिंदी प्रचार-प्रसार का प्रयत्न किया जाएगा और प्रतिवर्ष लेखा-जोखा संसद के पटल पर रखा जाएगा.
आठवीं सूची की भाषाओं के सामूहिक विकास पर राज्य सरकारों से परामर्श और योजना-निर्धारण.
त्रिभाषा-सूत्र पालन करना.
संघ लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी के साथ हिंदी और आठवीं सूची की भाषाओं को अपनाना.
कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों. संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किए जाने वाले सरकारी पत्र आदि अनिवार्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों.
राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन के लिए देश को भाषिक धरातल पर तीन भागों में बाँटा गया-

‘क’ क्षेत्र- बिहार, हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली.

‘ख’ क्षेत्र- गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, अंडमान निकोबार द्वीप-समूह और केद्रशासित क्षेत्र.

‘ग’ क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र-बंगाल, उड़ीसा, आसाम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल आदि.

इस अधिनियम के अनुसार केद्र सरकार द्वारा ‘क’ क्षेत्र अर्थात हिन्दी बैल्ट से पत्र-व्यवहार हिंदी से ही होगा. यदि अंग्रेजी में पत्र भेजा गया, तो उसके साथ हिंदी अनुवाद अवश्य होगा. ‘ख’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी होगा. ‘ग’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में हो सकता है.

इन स्थितियों में आजादी के अमृत महोत्व वर्ष में भी हम हिन्दी के अधूरे राजभाषा स्वरूप में हिन्दी दिवस मना रहे हैं. प्रधानमंत्री ने दासता के सारे चिन्हों से मुक्त होने का आव्हान किया है, राजपथ का नाम करण कर्तव्य पथ हो चुका है, अब हम भारत वासियों और हिन्दी प्रेमियों का कर्तव्य है कि हम अंग्रेजी की दासता से मुक्त होकर हिन्दी को उसकी संपूर्णता में कब तक और कैसे अपनाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी दिवस ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार  के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की राजभाषा दिवस पर आधारित एक विशेष रचना  “हिंदी दिवस”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी दिवस 

दृश्य  एक –

“साथियों, हिंदी को हमारी व्यवस्था ने राजभाषा  बना दिया राष्ट्रभाषा  नहीं, इसलिये आज भी देश भर में उसे दूसरा दर्जा मिला हुआ है। आज भी हम अंग्रेजी बोलकर अपने आप को शिक्षित एवं विकसित दिखाते  हैं इसलिये हमें अपनी इस मानसिक गुलामी को तोड़ कर हिंदी को अपने दिल से स्वीकारना होगा।”

इस भाषण  को सुनकर श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट बरसा दी। आज के हिंदी दिवस पर राजेश  को विद्यालय में भाषण में पहला पुरस्कार दिया गया।

ख़ुशी  से झूमता हुआ राजेश  अपने घर पहुंचा और माँ पिताजी को अपनी उपलब्धि बताई जिससे वे भी खूब खुश हुये।

दृश्य  दो –

राजेश ने शहर के नामांकित महाविद्यालय में स्नातक के प्रवेश  के लिये साक्षात्कार दिया और वह असफल रहा, साक्षात्कार मंडल ने उससे कहा – सॉरी यंग बॉय, तुम्हारी इंग्लिश बड़ी पूअर है तुम यहाँ फेल हो जाओगे।

मुँह लटका कर राजेश घर आ गया।

दृश्य  तीन –

एक छोटे से निजी महाविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक करके राजेश  ने सरकारी बैंक में बाबू के पद के लिये आवेदन दिया। प्रबंधन मंडल से आमना सामना होने पर उसे दो टूक जवाब दिया गया – वेरी बैड मैन, तुम तो इंग्लिश में एकदम जीरो हो, हमारे सारे कस्टमर तो हाई क्लास हैं उनसे क्या हिंदी में बात करोगे ? वी आर सॉरी ।

मुंह लटका कर राजेश घर आ गया।

दृश्य  चार –

अपने पिता की पहचान से एक बडे वकील के कार्यालय में निम्न श्रेणी लिपिक का काम कर रहे राजेश के लिये आज विवाह का प्रस्ताव आया है। घर भर के लोग लड़की देखने के लिये लड़की वालों के  यहाँ गये। चाय पानी के बाद जब लड़का लड़की अकेले बात करने के लिये बैठे तो चार बातें करने के बाद ही लड़की ने तमक कर कहा – व्हॉट,….. यू  डोंट स्पीक इंग्लिश एंड यूज हिंडी?  मैं तो थ्रू आउट कांन्वेंट स्टूडेंट हूं, नो – नो-  नो – सारी,  नॉट पॉसिबल ।

मुंह लटका कर राजेश घर आ गया।

अंतिम दृश्य  –

राजेश के कार्यालय में एक खादीधारी सज्जन आये और राजेश से मिले। वे बोले कि अगले हफ्ते हिंदी दिवस है,  हमारे यहाँ तो किसी टीचर को हिंदी आती नहीं है इसलिए हम चाहते हैं कि आप  हमारे कांन्वेंट स्कूल में स्टूडेंटस् को मोटिवेट करने के लिये  हिंदी पर भाषण  देने आयें। हम आपको इसके लिये कैश  रिवार्ड भी देंगे।

यह सुनकर राजेश के मुख पर एक नई मुस्कान आ गई।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

शिकागो शहर को अमेरिका के नक्शे में देखा तो उसकी स्थिति वहां के मध्य भाग में मिली, जैसे हमारे देश में नागपुर शहर की हैं।

शहर के बारे में जब जानकारी मिली की यहां तो पांच बड़ी झीलें हैं। सबसे बड़ी मिशिगन झील है, जिसका क्षेत्रफल ही बाईस हज़ार वर्ग मील से भी अधिक हैं। उसकी अपनी चौपाटी (Beach) भी है। उसमें बड़े बड़े जहाज भी चलते हैं। हमारे देश में उदयपुर को झीलों की नगरी कहा जाता है। लेकिन वहां की झीलें इतनी विशाल नहीं है, जितनी शिकागो शहर की हैं। हमारे भोपाल शहर के तालाब भी कम नहीं है, और उसकी स्थिति भी देश के मध्य भाग में हैं, तो क्यों ना इस शहर को “अमेरिका का भोपाल” शीर्षक से नवाज दिया जाय।                          

शहर में प्रवेश के समय से ही शीतल हवा के झोंके महसूस हो रहें थे। जैसे हमारे देश में सावन माह की पूर्वैयां हवाएं चलती हैं। मेज़बान ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया की शिकागो शहर को windy city का खिताब भी मिला हुआ हैं। जहां बड़ी बड़ी झीलें होंगी वहां ठंडी हवाऐं तो चलेंगी और मौसम को भी सुहाना बनाएं रखेंगीं।

शहर में सब तरफ हरियाली ही हरियाली हैं। आधा वर्ष तो भीषण शीत लहर/ बर्फबारी में निकल जाता हैं। जून माह से सितंबर तक गर्मी या यों कह ले सुहाना मौसम रहता है।

हमारे जैसे राजस्थान के भीषण गर्म प्रदेश के निवासियों को तो गर्मी के मौसम में भी ठंड जैसा महसुस हो रहा है। पता नही ठंड में क्या हाल होता होगा।

इस शहर की एक कमी है, कि चाय बहुत ही कम स्थानों पर मिलती हैं, हमारे जैसे चाय प्रेमियों को जब घूमने जाते हैं, तो चाय की बहुत तलब लगती है, तो कॉफी से ही काम चलाना पड़ता हैं। अगला भाग एक कप चाय के बाद ही पेश कर पाऊंगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 155 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 155 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त ?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।

दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?

बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,

यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #149 ☆ कोशिश–नहीं नाक़ामी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश–नहीं नाक़ामी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 149 ☆

☆ कोशिश–नहीं नाक़ामी 

‘कोशिश करो और नाक़ाम हो जाओ; तो भी नाक़ामी से घबराओ नहीं; फिर कोशिश करो। अच्छी नाक़ामी सबके हिस्से में नहीं आती,’ सैमुअल बैकेट मानव को निरंतर कर्मशीलता का संदेश देते हैं। मानव को तब तक प्रयासरत रहना चाहिए; जब तक उसे सफलता प्राप्त नहीं हो जाती। कबीरदास जी के ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में रामानुजम् जी का कथन भी द्रष्टव्य है–’अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम पर, तुम्हारे गुणों और क़ाबिलियत पर बात करेगा।’ सो! मानव को अपनी योग्यता पर भरोसा होना चाहिए और उसे अपने गुणों व अपने हुनर में निखार लाना चाहिए। दूसरे शब्दों में मानव को निरंतर अभ्यास करना चाहिए तथा अपना दिन इन तीन शब्दों से शुरू करना चाहिए– कोशिश, सत्य व विश्वास। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए, सच अपने काम की गुणवत्ता के साथ और विश्वास भगवान की सत्ता में रखें; सफलता तुम्हारे कदमों में होगी। मानव को परमात्म-सत्ता में विश्वास रखते हुए पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा से अपना कार्य करते रहना चाहिए।

‘वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल। बेशक़ जवाब देर से मिलेंगे, पर लाजवाब मिलेंगे।’ भगवद्गीता में भी यही संदेश प्रेषित किया गया है कि मानव को सदैव निष्काम कर्म करना चाहिए; फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है, क्योंकि ‘होता वही है, जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! हमें परमात्म-सत्ता में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि यदि ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ अर्थात् बुरे कार्य का परिणाम सदैव बुरा ही होता है।

आत्मविश्वास व धैर्य वे अजातशत्रु हैं, जिनके साथ रहते मानव का पतन नहीं हो सकता और न ही उसे असफलता का मुख देखना पड़ सकता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा अपनी पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं।’ वे मानव को तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देने का संदेश देते हैं तथा उससे आग्रह करते हैं कि मानव को हताश-निराश होकर अपना लक्ष्य परिवर्तित नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार पतझड़ में पुराने पीले पत्ते झड़ने के पश्चात् नये पत्ते आते हैं और वसंत के आगमन पर पूरी सृष्टि लहलहा उठती है; ठीक उसी प्रकार मानव को विश्वास रखना चाहिए कि अमावस की अंधेरी रात के पश्चात् पूनम की चांदनी रात का आना निश्चित है। समय नदी की भांति निरंतर गतिशील रहता है; कभी ठहरता नहीं। ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है’ मानव को सचेत करता है कि भविष्य अनिश्चित है और अतीत कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान में जीना सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि वही पल सार्थक है।

जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन केवल हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसी क़ायनात अर्थात् जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। शेक्सपियर के अनुसार ‘सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है।’ इसलिए संसार हमें हमारी मन:स्थिति के अनुकूल भासता है। सो! हमें मन को समझने की सीख दी गयी है और उसे दर्पण की संज्ञा से अभिहित किया गया है। मन व्यक्ति का आईना होता है। इसलिए नमन व मनन दोनों स्थितियों को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। दूसरे शब्दों में यह एक सुरक्षा-चक्र है, जो सभी आपदाओं से हमारी रक्षा करता है। मनन ‘पहले सोचो, फिर बोलो’ का संदेशवाहक है और नमन ‘विनम्रता का’, जिसमें अहं का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। यदि मानव अहं का त्याग कर देता है, तो संबंध शाश्वत बन जाते हैं। अहं संबंधों को दीमक की भांति चाट जाता है और सुनामी की भांति लील जाता है। इसलिए कहा जाता है ‘घमंड मत कर दोस्त! सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं।’ सो! मानव को अर्श से फ़र्श पर आने में पल भर भी नहीं लगता। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जो आज शिखर पर है, उसे एक अंतराल के पश्चात् लौटकर धरा पर ही आना पड़ता है; जैसे तपते अंगारे भी थोड़े समय के बाद राख बन जाते हैं। इसलिए ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ लेकिन ‘गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ यदि अपनों का साथ हो, तो कोई रास्ता भी कठिन व लंबा नहीं होता। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य- व्यवहार ही उनका निर्माण करते हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध  होती है।

’यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो उसके बारे में जो आप जानते हैं, उस पर विश्वास रखिए; न कि उसके बारे में जो आपने सुना है’ अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। ‘दोस्ती के मायने कभी ख़ुदा से कम नहीं होते/ अगर ख़ुदा क़रिश्मा है, तो दोस्त भी जन्नत से कम नहीं होते।’ सो! आवश्यकता से अधिक सोचना दु:खों का कारण होता है। महात्मा बुद्ध अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देते हैं कि मानव की सोच अच्छी होनी चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में मुमक़िन है, परंतु नज़रिए का नहीं। वास्तव में इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा दे जाती हैं, जो वह दूसरों से करता है। इसलिए उम्मीद न ही दूसरों से रखें, न ही ख़ुद से, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं, ख़्वाहिशें नहीं। इसके साथ ही मानव को तुलना के खेल में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में इंसान एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता है। मुझे याद आ रही हैं वे स्वरचित पंक्तियाँ, जो आज भी समसामयिक हैं। ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख़्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ आजकल बच्चे हों, युवा हों या वृद्ध; पति-पत्नी हों या परिवारजन– सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। सो! संसार को नहीं, ख़ुद को बदलने का प्रयास करें, अन्यथा माया मिली न राम वाली स्थिति हो जाएगी, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की चेष्टा की; वह पराजित ही हुआ है।

मानव को हर पल मालिक की रहमतों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। वह सृष्टि-नियंता सबको कठपुतली की भांति नचाता हैं, क्योंकि सबकी डोर उसके हाथ में है। ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ ईश्वर आक्सीजन की तरह है, जिसे हम देख नहीं सकते और उसके बिना ज़िंदा रह भी नहीं सकते। ईश्वर अदृश्य है, अगम्य है, अगोचर है; परंतु वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि तुम में अदम्य साहस है और तुम जो चाहो, कर सकते हो। निरंतर प्रयासरत रहें और आत्मविश्वास व धैर्य रूपी धरोहर को थामे रखें। प्यार व विश्वास वे तोहफ़े हैं, जो मानव को कभी पराजय का मुख नहीं देखने देते। इसके साथ ही वाणी-संयम की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए मौन की महत्ता को दर्शाया गया है तथा गुलज़ार जी द्वारा लफ़्ज़ों को चखकर बोलने की सलाह दी गयी है। रहीम जी के शब्दों में ‘ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय’ यथासमय व अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की ओर इंगित करता है। सदैव कर्मशील बने रहें, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। वे अपनी नाक़ामी से सीख लेकर बहुत ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचते हैं और उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होता है। एक अंतराल के पश्चात् ख़ुदा भी उसकी रज़ा जानने को विवश हो जाता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ दुष्यंत की यह पंक्तियां इसी भाव को दर्शाती हैं कि यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो संसार में असंभव कुछ भी नहीं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की प्रथम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पराए देश अमेरिका जिसको बोलचाल की भाषा में यू एस कहा जाने लगा है,के तीसरे बड़े शहर शिकागो पहुंचे तो विमानतल पर बाहर जाने वालों की करीब एक मील की लंबी कतार थी।                

हमें मुम्बई के लाल बाग के राजा” गणपति” दर्शन की याद आ गई। वहां भी भीड़ नियंत्रण करने के लिया जिकजैक करके थोड़े स्थान में भीड़ की व्यवस्था बनाई जाती हैं। यहां प्रतिदिन दो हज़ार पांच सौ से अधिक विमानों का आगमन /प्रस्थान होता हैं।

इमिग्रेशन के लिए ढेर सारे केबिन हैं, इसलिए अधिक समय नहीं लगा। फोटू खींच और कुछ प्रश्न पूछ कर अपना सामान समेट कर सकुशल बाहर आ गए। विमानतल पर अपना सामान खोजना भी थोड़ा कठिन होता है।  श्रीमतीजी ने सभी सूटकेस पर लाल रंग के रिब्बन बांध दिए थे, परंतु बहुत सारे अन्य सूटकेस पर भी लाल रंग के रिब्बन थे।स्कूल के दिनों में रिब्बन के रंग से पहचान हो जाती की लड़कियां किस स्कूल की हैं।

सुना है, कभी कभी वीज़ा होते हुए भी अमेरिका में विमानतल से ही यात्री को उसके देश की रवानगी कर दी जाती हैं।

बचपन में जब उजूल फिजूल बातें करते थे, तो घर के बुजुर्ग कहा करते थे, इसको शिकागो भेज दो, इसका दिमाग़ ठीक नहीं हैं। यहां का पागल खाना प्रसिद्ध था, जैसा हमारे देश में आगरा शहर का है।

जब बड़े हुए और  विवेकानंद जी के बारे में जाना तो पता चला था, उनका धर्म संसद में दिया गया ऐतिहासिक भाषण भी शिकागो में ही दिया गया था। आने वाले दिनों में यहां की और जानकारियां उपलब्ध करवाने का प्रयास करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आत्मा क्या है?॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आत्मा क्या है? ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आत्मा कोई वस्तु नहीं शक्ति है जिसका न कोई रूप है न रंग न आकार जैसे बिजली। एक ऊर्जा है, एक चेतना हे जो विशेष परिस्थिति में पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है और परिस्थितियों के विघटन पर समाप्त हो जाती है। जब तक संचालित होती है हर प्रकार के संभव कार्य संपादित करती है। क्षमतायें अनेकों हैं, पर जिस कार्य में, जिस दिशा में लगाई जाती है वहीं संचालक की इच्छानुसार कार्य करती है। जैसे बिजली उत्पन्न करने के लिये विद्युत तापग्रह, जल विद्युत गृह या परमाणु विद्युत गृह हैं। वैसे ही विभिन्न शरीरों में वह उत्पन्न होती और विघटित होती है।

न कहीं से आती है न कहीं जाती है। केवल कार्य संपादिनी ऊर्जा है, जो व्यक्ति को जन्म के साथ ईश्वर से मिलती है और मृत्यु के साथ लुप्त हो जाती है या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब लुप्त हो जाती है तो ही मृत्यु होती है। यह अवधारणा कि आत्मा शरीर छोडक़र जाती है। मेरी दृष्टि से भ्रामक है, उसका विनाश नहीं विलोप होता है जैसे किसी टार्च के सेल से शक्ति का विलोप हो जाता है या जैसे माचिस की तीली से एक बार अग्नि प्रज्वलित कर देने के बाद उसकी ज्वलन शक्ति लुप्त हो जाती है। अगर इस धारणा को सत्य माना जाता है तो फिर आत्मा की उध्र्वक्रिया हेतु पिण्डदान आदि की मान्यतायें बेईमानी है। सारे कर्मकाण्ड तो हमारी मान्यताओं पर आधारित हैं। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरत देखी तिन्ह तैसी’। जीवन में बहुत से कार्य मान्यताओं के अनुसार ही संपादित किये जाते हैं। विभिन्न धर्मावलंबियों की विभिन्न धारणायें हैं। इसीलिये धारणाओं के भेद के कारण टकराव हैं। अलग धर्मों की तो बात क्या एक ही धर्म में अलग-अलग मत, विचार और धारणायें हैं। इसीलिये कभी भी चार व्यक्तियों के मनोभाव और विचार एक समान नहीं पाये जाते। जिसे एक धर्म सही मानता है, दूसरा उसे गलत मानता और उसका खण्डन करता है। आत्मा, रूह और सोलर की सत्ता को तो सभी मानते हैं क्योंकि वह एक सत्य है और उसकी शक्ति या सत्ता क्या है इसका अनुभव तो किया जाता है, परन्तु देखा नहीं जाता। उसके स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है। जब से सृष्टि है तब से उसे जानने के निरन्तर प्रयास जारी हैं और आगे भी रहेंगे। किन्तु उसकी पहेली अनसुलझी है। वह ऐसा सूक्ष्म तत्व है जो परम तत्व में एकाकार हो सकता है। इसीलिये इसको मोक्ष या निर्वाण नाम दिया गया है। गीता की मान्यता है कि-

आत्मा एक ऐसा सूक्ष्म दैवी तत्व है जिसका कभी नाश नहीं होता, किन्तु उसका पुनर्जन्म होता है और मृत्यु के उपरांत वह एक शरीर को वैसे ही त्याग देती है जेसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र धारण कर लेता है। पुराना इसलिये छोड़ देता है क्योंकि वह खराब हो जाता है। आत्मा भी इसी प्रकार पुराने शरीर को जो खराब हो गया होता है त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। मृत्यु के उपरांत आत्मा को कहीं नया शरीर मिल जाता है और उसकी जीवन यात्रा निरन्तर चलती रहती है। मरणोपरांत विभिन्न धर्मावलंबियों द्वारा जो मृत व्यक्ति की अंतिम धार्मिक क्रियायें कराई जाती हैं वे समस्त रीतियां शांति प्राप्त हेतु कराई जाती हैं।

आत्मा अदृश्य है परन्तु ईश्वर के समान सक्षम तथा चेतन है। इसीलिये आत्मा को ईश्वर (परमात्मा) का अंश कहा जाता है। आत्मा और परमात्मा दोनों के अस्तित्व का आभास तो होता है पर ऊर्जा की भांति अदृश्य होने से देखा नहीं जा सकता।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 154 ☆ समझ समझकर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 154 ☆ समझ समझकर ?

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’  इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’  बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। यूँ भी जन्म देने का वरदान पानेवाली का, जन्म पानेवाले से आगे होना स्वाभाविक है। ‘वह’ शृंखला की अपनी एक रचना स्मृति में कौंध रही है,

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी-नानी,

वह बुआ-मौसी,

चाची-मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट रूप की

जननी है वह..!

हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर कथित  संतुलन साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आत्मविश्वास॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आत्मविश्वास ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जहां न साधन साथ निभाते, फीकी पड़ जाती हर आश।

वहां अडिग चट्टान सरीखा, आता काम आत्मविश्वास॥

जिसमें आत्मविश्वास प्रबल है उसकी विजय प्राय: सुनिश्चित होती है। कोई भी कार्य छोटा हो या बड़ा, सरल हो या कठिन काम करने वाले के मन में सफलता पाने का आत्मविश्वास का होना बहुत जरूरी है। विश्व इतिहास के पन्ने, आत्मविश्वासी की विजयों से भरे पड़े हैं। क्षेत्र राजनीति का हो या विज्ञान का, व्यक्ति के आत्मविश्वास ने समस्याओं का सदा समाधान कराया है। चन्द्रगुप्त के आत्मविश्वास ने भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यूरोप में नेपोलिय बोनापार्ट की हर जीत का रहस्य उस का आत्मविश्वास ही था। विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी नये अविष्कार के लिये वैज्ञानिक की लगन, परिश्रम और सूझबूझ के साथ ही आत्मविश्वास और धैर्य के बल पर ही सफलता प्राप्त होती है। आत्मविश्वासी वीरों ने ही हिमालय की सर्वोच्च ऊंची चोटी गौरीशंकर जिसे एवरेस्ट भी कहा जाता है तक पहुंचकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया है। आत्मविश्वास व्यक्ति को निडर, उत्साही और धैर्यवान बनाता है।

सामान्य जीवन में भी जिनमें आत्मविश्वास होता है वे किसी भी कार्य को करने से न तो हिचकिचाते हैं और न पीछे हटते हैं। विद्यार्थी जीवन में देखें तो परीक्षा देना तो अनिवार्य है। बिना परीक्षा पास किये कोई आगे नहीं बढ़ सकता। उसे वांछित लक्ष्य नहीं मिल सकता पर कई छात्र परीक्षा के नाम से घबराते हैं। क्योंकि उन्हें अपने अध्ययन और अभ्यास पर पूरा पूरा विश्वास नहीं होता। डर लगता है कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाये। किन्तु जिस छात्र के मन में अपने पर पूरा विश्वास होता है उसे परीक्षा न केवल आसान लगती है बल्कि उसे परीक्षा देना और विशेष योग्यता प्रदर्शित कर पास होना एक खेल सा सरल काम लगता है। वह तो चाहता है कि परीक्षा का अवसर हो और वह उसमें सफल होकर यश अर्जित करे। आत्मविश्वास एक ऐसा गुण है जो जीवन को सहज और सुखद बनाता है। सफलता उसके लिये प्रसन्नता का कारण होती है। आत्मविश्वास हिम्मत बढ़ाता है। आत्मविश्वास का अभाव शंकाओं को जनम देता है और कार्यसिद्धि में व्यवधान बनता है। प्राय: समझा जाता है कि नारी जाति में समस्याओं से जूझने का आत्मविश्वास नहीं होता परन्तु यह बात पूर्णत: सही नहीं है भारत में ही गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने सम्राट अकबर से टक्कर लेने का साहस दिखाया था। सन् 1856 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरता से लड़ते हुये झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने एक वीर सैनिक के वेश में युद्ध कर अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिखाया। आज कल बोर्ड और यूनीवर्सिटी की परीक्षाओं में लड़कियां अच्छे अंक प्राप्त कर मेरिट लिस्ट में अपने समकक्ष लडक़ों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पुरस्कार की हकदार बन रही हैं। यह उनके आत्मविश्वास से कार्य करने का प्रमाण है।

प्रकृति ने हर व्यक्ति को आत्मविश्वास का वरदान दिया है। व्यक्ति उसे समझकर हमेशा दृढ़ता से काम करे। उस गुण को बढ़ाने की आवश्यकता है। व्यक्ति खुद को कमजोर या हीन न समझे। अपनी पूरी सामथ्र्य से कार्य हेतु खुद को समर्पित कर लक्ष्य को पाने की भावना मन में जगा ले, तो आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। मार्ग की कठिनाइयां अपने आप समाप्त होती दिखती हैं। रुचि व उत्साह से कार्य में जुट जाने की आदत बन जाती है। दूसरों से अनुमोदन या प्रशंसा पाकर भी आत्मविश्वास बढ़ता है। उत्साह जागता है। कार्य में रुचि उत्पन्न होती है इसीलिये शिक्षकों द्वारा कक्षा में योग्य छात्रों की प्रशंसा करना उचित है। यह नये-नये गुणों के विकास में सहायक होता है। समाज में अच्छे कार्यकर्ताओं को पुरस्कारों की व्यवस्था भी इसीलिये की जाती है कि पुरस्कार पाकर उनमें आत्मविश्वास बढ़े और वह पुरस्कार उन्हें ही नहीं दूसरों को भी प्रोत्साहित कर सके।

प्रोत्साहन से कार्यक्षमता बढ़ती है, रुचि और उत्साह जागृत होते हैं और सफलता पाना सरल हो जाता है। प्रोत्साहन बाहरी आवश्यकता है परन्तु अपने गुणों को प्रखर करने में आत्मविश्वास की बड़ी भूमिका है और जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। आत्मविश्वास से जीवन को हर क्षेत्र में बढऩा आसान हो जाता है। किसी भी काम को पूरे विश्वास के साथ करके सफलता पाने की मनोभावना को आत्मविश्वास कहा जाता है जो बुद्धिमान और परिश्रमी व्यक्ति के लिये अपने खुद में जगाना कठिन नहीं है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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