श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 155 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त ?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।

दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?

बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,

यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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