हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – प्रेम ??

“कब तक प्रेम करोगे मुझे..?”

मैं हँस पड़ा।

वह रो पड़ी।

कुछ नादान हँसी और आँसू की गणना करने लगे।

काल प्रतीक्षारत है कि समय के जीवनकाल में नादानों की गणना पूरी हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 156 – मज़दूर दिवस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है मज़दूर दिवस पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा मजदूर दिवस”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 156 ☆

☆ लघुकथा 🚩 मजदूर दिवस 🚩☆

प्रति वर्ष की भांति आज फिर एक नेता जी के बंगले के सामने एक बहुत बड़े बैनर पोस्टर पर लिखा था आज मजदूर दिवस के उपलक्ष में कोई भी मजदूर अपना कार्ड दिखाकर पेट भर भोजन कर सकता है। पूरे आसपास चर्चा का विषय बन गया। सभी मजदूर यहां-वहां भागने लगे। एक दूसरे को बताने लगे कि आज खाना भरपेट मिलेगा। क्यों? ना ठेकेदार से आज की छुट्टी लेकर लाइन में लगकर भोजन किया जाए।

इधर उधर से सभी मजदूर वहां पहुंचने लगे। दुखिया भी अपना फावड़ा हाथ में लिए वहां पहुंच गया। दोनों हाथ पर भरे भरे छाले थे। पेट चिपका, बाल बिखरे लगातार काम और खाना नहीं मिलने की वजह से वह काफी बीमार लग रहा था।

बंगले के मालिक ने दुखिया के साथ फोटो खिंचवाई। खाना खाने के बाद दुखिया बाहर निकल रहा था। चार कदम भी नहीं चल पाया, बेहोश होकर गिर पड़ा। अफरा तफरी मच गई सभी मजदूर भागने दौड़ने लगे।

चीखने चिल्लाने लगे किसी ने कहा… जल्दी से अस्पताल ले जाओ। दुखिया को उठाकर अस्पताल ले जाया गया। हालत बिगड़ती चली गई दुखिया के साथ आए हुए कुछ उसके साथियों ने देखा पलभर में ही दुखिया दुनिया को छोड चला गया।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट आया डाक्टरों ने बताया… दुखिया कई दिनों से भूखा था, उसकी पेट की नसें सूख चुकी थी। आज उसे जब भरपूर खाना मिला। वह जरूरत से ज्यादा खा लिया। आंतों ने इसे स्वीकार नहीं किया और दुखिया खाना खाने की खुशी को सहन नहीं कर पाया। दिमागी संतुलन भी खो चुका।

बात हवा की तरह फैल गई बंगले के बाहर दुखिया के मृत शरीर को रखकर सभी मजदूर चिल्ला चिल्ला कर मजदूर दिवस जिंदाबाद मजदूर, एकता जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।

तभी किसी मजदूर ने धीरे से कहा… एक सप्ताह पहले दुखिया इसी बंगले पर कुछ खाने को मांगने आया था। बदले में वह कुछ काम कर दूंगा ऐसा कह रहा था। परंतु नेताजी ने चौकीदार से कह कर उसे बाहर से ही भगा दिया था और आज वह खाना खाकर मर गया।

उसके इतना कहते ही उसे घसीटते हुए भीड़ में न जाने कहां ले जाया गया पता नहीं चला। पुलिस और नेताओं की भीड़ बंगले के सामने लगे पोस्टर के साथ हाथ जोड़ती नजर आ रही थी और पोस्टर के सामने खड़े होकर सभी फोटो खिंचवा रहे थे।

पोस्टर पर लिखा मजदूर दिवस उड़कर उड़कर मजदूरों की कहानी बता रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “रद्दीवाला” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “रद्दीवाला”.)

☆ लघुकथा ☆ “रद्दीवाला” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

 (सौ. उज्ज्वला केळकर द्वारा मराठी भावानुवाद 👉 “रद्दीवाला”)

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी, अपनी चार चक्कों की गाड़ी, जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए – वह कबाड़ी “रद्दी.., पुराना सामान.. रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता रहता। अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का, उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एकाध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है। कभी-कभार एकाध छोटा-मोटा सामान उठा लेना, बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं। रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा- “मै बाहर जा रही हूँ, इससे तीस रूपये ले लेना।” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा। पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा- “कोई जल्दी नहीं, आराम से देना, थोड़ा सुस्ता लो।” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। “पानी पीओगे ?” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर, पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा – “शुक्रिया”

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?”

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है।”

मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा लगा। पुराने ही सही, बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला है, या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों में एक चमक भरते बोला- ” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं, तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे…?” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि…

रद्दीवाला जब “रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। “ये सब उठा लो” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की… “तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा।’

सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि… “रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा।”

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला
पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।” रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।
अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी ” रद्दी- रद्दी ” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।
आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,:- -ऐ…, जाता कहाँ..,?,… पैसे…,? ”
वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का -सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ” उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया। फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?” अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।
इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “सफारी”.)

☆ लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

जंगल में सफारी का मजा कुछ और ही होता है। एक खौफ लिए कंपकपाते, डरते हुए रोमांचित होने का मजा।

गेस्टहाऊस से सुबह ही 15-20 जिप्सियां पर्यटककों को लिए वहीं के गाइड व ड्राइवरों के साथ जहां शेर दिखने की अधिकतम संंभावना हो, उन रास्तों पर निकल पड़ते हैं। शेर की झलक भर पाने घंटों जंगलों में भटकते रहते हैं। उन्हें न तो हजारों पेड़ों का मौन निमंत्रण दिखाई देता है, न ही परिंदों का चहचहाहट भरा बोलता हुआ निमंत्रण सुनाई पड़ता है। उन्हें तो बस शेर या उस जैसा कोई भयानक जंगली जानवर देखना होता है। जिसे याद करते ही वह कांपने लगे। शाम को डरे-डरे , रोमांचित हो लौटना ही सफारी की सफलता है।

शाम को सब जिप्सियां गेस्टहाऊस वापिस लौट आई। सब अपना अनुभव सुना रहे थे। ” मैंने दो शेरों को एक साथ देखा, लगा कभी इधर आ गये तो… ” वह अब तक डरा हुआ कांप रहा था। ” “हमारी जिप्सी के थोड़े ही आगे बीस जंगली भैंसों का झुण्ड हमारी ओर लाल-लाल आँखों से घूर रहा था। हम तो डर गए। और जब गाइड ने बताया कि एक भैंसें में इतनी ताकत होती है कि वह एक झटके में पूरी जिप्सी उलट सकता है, तब हम और ज्यादा डर गए। ”

‘असली कोबरा का एक जोड़ा बिल्कुल हमारी गाड़ी के एक फुट दूरी से गुजर गया। और था भी बीस फुट इतना लम्बा।” अपना तीन फुट का हाथ लम्बा्ते हुए बोला।, वह अब तक सिहर रहा था।

सबने देखा एक जिप्सी का एक आदमी सबसे ज्यादा मारे डर के अब तक कांप रहा था। उससे पूछा ” तुमने कितने शेर देखे ? ”

” एक भी नहीं। “

” तो फिर भालू, सियार, भैंसें, या इसके जैसे कोई साँपों का जोड़ा देखा?

” नहीं मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा। “

” तो फिर डर के मारे अब तक इतना क्यूँ काँप रहे हो ? “

” मैने जंगल में दो आदिवासियों को हँसते हुए बात करते देखा है। “

” मगर इसमें डरने जैसा क्या ? आदिवासी तो बड़े सीधे होते हैं, वे हमेशा हँसकर ही बात करते हैं। “

” हाँ, मगर उनकी हँसी झूठी थी। और वे बातें भी दिल्ली की कर रहे थे। ”

अब सभी एक साथ और ज्यादा डरने लगे।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है  ‘‘दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ।)

☆ लघुकथा – दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(प्राची पत्रिका से साभार)

एक -> मानसिक विकलांगता

ट्रेन के इंजन के साथ ही लगा था विकलांगों का डिब्बा। एक यात्री, ट्रेन में जगह ढूंढते ढूंढते उसी डिब्बे के सामने से गुजरा। तभी विकलांग कोच में से उसका एक परिचित चिल्लाया- ‘अरे आ जाओ इसी डिब्बे में, और कहीं तिल भर जगह मिलने से रही’।

‘पर यह तो विकलांगों के लिए है’।

‘तो क्या हुआ हम किसी विकलांग से कम हैं जो पूरी ट्रेन में अपने लिए एक अदद जगह तक नहीं ढूंढ पाए।’

मानसिक विकलांगता का एक अच्छा उदाहरण था यह।

🔥 🔥 🔥

दो -> ट्राईसिकिल

विकलांगों के लिए बांटी जाने वाली ट्राईसिकिल भले चंगों में बांट दी गई तो मीडिया पीछे पड़ गया। हलचल मच गई। मामला आगे तक जा पहुंचा।

यहां से खबर भेजी गई- ‘मीडिया पीछे पड़ गया है’।

वहां से खबर आई- ‘घबराने की जरूरत नहीं है‌। मीडिया को बता दो कि ट्राईसिकिल कुछ बदमाशों ने छीन ली है। उन से छुड़ाकर जल्दी ही विकलांगो को दे दी जाएंगी। बदमाशों को सबक भी सिखाया जाएगा।’

अब मीडिया बगलें झांकने पर विवश हो गया।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 116 ☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘भगवान का क्या सरनेम है?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 116 ☆

☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कक्षा में टीचर के आते ही विद्यार्थी ने एक सवाल पूछा – मैडम! नेम और सरनेम में क्या ज़्यादा इम्पोर्टेंट होता है? 

‘मतलब’? – मैडम सकपका गईं फिर थोड़ा संभलकर बोली – यह कैसा सवाल है निखिल? 

पापा कहते हैं कि किसी को उसके सरनेम से बुलाना चाहिए, नाम से नहीं। सरनेम इम्पोर्टेंट होता है। 

लेकिन क्यों? नाम से बुलाने में कितना अपनापन लगता है। नाम हमारी पहचान है। माता- पिता कितने प्यार से अपने बच्चे का नाम रखते हैं। 

 मैम! पर पापा कहते हैं कि सरनेम हमारी सच्ची पहचान होता है। हम किस जाति के हैं, धर्म के हैं, यह सरनेम से ही पता चलता है। दूसरों को इसका पता तो चलना चाहिए। 

अच्छा स्कूल में आपस में दोस्ती करने के लिए नाम पूछते हो या सरनेम? वैशाली! तुम बताओ। 

मैम! नेम पूछते हैं। 

मेरे पापा ने बताया कि सरनेम हमारा गुरूर है, नेम से बुलाओ तो सरनेम हर्ट हो जाता है। वह बड़ा होता है ना! – अक्षत ने कहा। 

कक्षा के एक बच्चे ने कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। हाँ बोलो क्षितिज! मैडम ने कहा। 

मैम! भगवान का क्या सरनेम है? 

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मित्रता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मित्रता ??

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, धीमी आवाज़ में उसने एक से कहा।

मैं श्रद्धावनत हो उठा।

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, कुछ ऊँचे स्वर में उसने दो से कहा।

मैं मुस्करा दिया।

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, उसने और ऊँचे स्वर में चार लोगों से कहा।

आगे यही बात उसने क्रमशः बढ़ते स्वर और लगभग चिल्लाते हुए आठ, सोलह, चौबीस और अनगिनत लोगों से कहीं।

उसकी मित्रता अब संदेह के घेरे में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #189 ☆ कथा कहानी – एतबार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी ‘एतबार’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 189 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ एतबार

वीरेन्द्र जी ऊँचे प्रशासनिक पद से रिटायर हुए। वे रोब-दाब वाले अफसर के रूप में विख्यात रहे। चाल-ढाल और बोली में हमेशा कड़क रहे। उनके ऑफिस के आसपास कभी किसी को ऊँची आवाज़ में बोलने की हिम्मत नहीं हुई। रिटायरमेंट के बाद भी उनका स्वभाव वैसा ही बना रहा। घर के लोग उनसे उलझने से बचते रहते हैं।

वीरेन्द्र जी हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहना पसन्द करते हैं। सबेरे स्मार्ट वस्त्रों और जूतों में पत्नी के साथ सैर को निकल जाते हैं। घूम कर आराम से घर लौटते हैं। कहीं अच्छा लगता है तो बैठ जाते हैं। उनका नित्य का क्रम बँधा हुआ है। उसमें व्यतिक्रम उन्हें पसन्द नहीं।

अपने जीवन और अपनी ज़रूरतों के बारे में वीरेन्द्र जी सख़्त हैं। अपने कपड़ों, खाने- पीने  और दूसरी ज़रूरतों में फेरबदल उन्हें पसन्द नहीं। वे उन पिताओं में से नहीं हैं जो अपने परिवार की ज़रूरतों के लिए अपनी ज़रूरतों को होम कर देते हैं। इस मामले में वे ज़्यादा भावुक नहीं होते।

वीरेन्द्र जी के साथ उनका छोटा बेटा और बहू रहते हैं। बड़ा बेटा ऑस्ट्रेलिया में और बेटी बैंगलोर में अपने पति के साथ है। छोटा बेटा और उसकी पत्नी शहर में ही जॉब करते हैं। वीरेन्द्र जी ने बंगला बड़ा बनाया है, इसलिए जगह की कमी नहीं है।

वीरेन्द्र जी का दृढ़ विश्वास है कि दुनिया में पैसे से ज़्यादा भरोसेमन्द कोई चीज़ नहीं है। उन्हें किसी मनुष्य में भरोसा नहीं है, अपनी सन्तानों पर भी नहीं। उनकी सोच है कि आदमी के लिए अन्ततः पैसा ही काम आता है, इसलिए भावुकता में उसे बाँटकर खाली हाथ नहीं हो जाना चाहिए। मित्रों के बीच में वे जब भी बैठते हैं तब भी यही दुहराते हैं कि पैसे से बड़ा दोस्त कोई नहीं होता, इसलिए उसे हमेशा सँभाल कर रखना चाहिए। वे अपने पैसे का हिसाब-किताब, अपने एटीएम कार्ड, अपनी मियादी जमा की रसीदें अपने पास ही रखते हैं। अपनी संपत्ति के बारे में खुद ही निर्णय लेते हैं। बेटे-बहू को कभी ज़रूरत से ज़्यादा जानकारी नहीं देते। पैसे निकालने, जमा करने का काम खुद ही करते हैं। उनके स्वभाव को जानते हुए बेटा-बहू भी उनसे जानकारी लेने की कोशिश नहीं करते।

वे अक्सर एक बड़े उद्योगपति का किस्सा सुनाते हैं जिसने भावुकता में अपनी सारी संपत्ति अपने बेटे के नाम कर दी थी और जो फिर अपना घर छोड़कर किराये के मकान में रहने को मजबूर हुआ था।

बैंक और एटीएम वीरेन्द्र जी के घर के पास ही हैं। कई बार पत्नी के साथ टहलते हुए चले जाते हैं। बेटे और बहू से पैसा नहीं निकलवाते। अपने पैसे के बारे में भरसक गोपनीयता बनाये रखने की कोशिश करते हैं।

वीरेन्द्र जी किसी का एहसान लेना पसन्द नहीं करते। उनकी सोच है कि दुनिया में बिना स्वार्थ के कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता। उनके विचार से निःस्वार्थ सेवा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। कोई उनके लिए कुछ करता है तो वह तुरन्त उसका मूल्य चुकाने की कोशिश करते हैं। एक बार उनके ऑफिस का चपरासी महेश उनके घर अपने गाँव से लायी मटर दे गया था। वीरेन्द्र जी ने तुरन्त मटर का मूल्य महेश के हाथों में ज़बरदस्ती खोंस दिया था। उनके इस आचरण से महेश का मुँह छोटा हो गया था। अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन उसे दुखी कर गया था, लेकिन वीरेन्द्र जी ने उसे उचित समझा था।

वीरेन्द्र जी घूमने-घामने के शौकीन हैं। देश के ज़्यादातर महत्वपूर्ण स्थानों को देख चुके हैं। पत्नी के साथ सिंगापुर और जापान भी हो आये हैं। उनका सोचना है कि जब तक हाथ-पाँव चलते हैं, दुनिया का लुत्फ़ ले लेना चाहिए। साल में पत्नी के साथ कहीं न कहीं का चक्कर लगा आते हैं।

वे मुहल्ले के ‘लाफ्टर क्लब’ के भी सदस्य बन गये हैं। पार्क में दस-पंद्रह बुज़ुर्ग इकट्ठे होकर पहले झूठी और फिर एक दूसरे की हँसी देख कर सच्ची हँसी हँस लेते हैं। आसपास की इमारतों की महिलाएँ इनकी झूठी-सच्ची हँसी देखकर आनन्दित हो लेती हैं।

ऐसे ही वीरेन्द्र जी के रिटायरमेंट के तीन चार साल गुज़र गए। स्वास्थ्य के मामले में वह हमेशा ‘फिट’ रहे थे और इस बात का उन्हें गर्व भी रहा था। नौकरी के आख़िरी दिनों में कुछ ‘ब्लड प्रेशर’ की शिकायत ज़रूर हुई थी। तब से नियमित रूप से ‘ब्लड प्रेशर’ की दवा लेते थे।

एक दिन वीरेन्द्र जी पत्नी के साथ बैंक गये थे। काम करके सीढ़ी से उतरने लगे कि अचानक लगा दुनिया घूम रही है। रेलिंग पकड़कर अपने को सँभाला, फिर वहीं सीढ़ी पर बैठ गये। पत्नी घबरायी। फोन करके बेटे को बुलाया। वह कार लेकर आया और दोनों को घर ले गया। वीरेन्द्र जी को पलंग पर लिटा दिया। थोड़ी देर में तबियत कुछ सँभली तो पास ही के अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने जाँच की, फिर बोला, ‘भर्ती करा दीजिए।चौबीस घंटे ऑब्ज़र्वेशन में रखना पड़ेगा। अभी ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। आराम ज़रूरी है।’

वीरेन्द्र जी अस्पताल में भर्ती हो गये। पहली बार अस्पताल की ज़िन्दगी का अनुभव हुआ। वहाँ के कर्मचारियों और डॉक्टरों को तटस्थ और मशीनी ढंग से काम करते देखा। देखा कि कैसे यहाँ आकर जीवन और मृत्यु के बीच का फर्क धूमिल हो जाता है। वीरेन्द्र जी को वहाँ चौबीस घंटे में बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला।

चौबीस घंटे में वीरेन्द्र जी के अनगिनत ‘टेस्ट’ हो गये। कई विशेषज्ञ उनकी जाँच पड़ताल कर गये। दूसरे दिन शाम को अस्पताल से उनकी छुट्टी हो गई। डॉक्टर ने कहा, ‘ब्लड प्रेशर में फ्लक्चुएशन होता है। अभी कोई खास वजह समझ में नहीं आयी। दवाएँ लिख दी हैं। एक हफ्ते बाद फिर बताइए।’

दो दिन में ही करीब आठ हज़ार का बिल बन गया। वीरेन्द्र जी ने बेटे को अपना एटीएम कार्ड दिया,कहा, ‘निकाल कर जमा कर देना।’

बेटा बोला, ‘मैंने जमा कर दिया है। अभी आप इसे रखिए।’ वीरेन्द्र जी ने सकुचते हुए कार्ड रख लिया।

घर आकर वीरेन्द्र जी ने फिर कार्ड बेटे की तरफ बढ़ाया। बेटे ने कहा, ‘आप थोड़ा ठीक हो जाइए, फिर देख लेंगे।’

ऑस्ट्रेलिया से बड़े बेटे का फोन आया। कहा, ‘पैसे की दिक्कत हो तो बताएँ। भेज दूँगा।’ बेटी के फोन हर चार छः घंटे में आते रहे, कभी कैफियत लेने के लिए तो कभी हिदायत देने के लिए।

तीन चार दिन के आराम के बाद वीरेन्द्र जी ने बाहर निकलने की सोची। सबेरे पत्नी को लेकर घूमने निकले, लेकिन धीरे धीरे, अपने को टटोलते हुए चले। मन में कहीं डर बैठ गया था, आत्मविश्वास दरक गया था।

लौटे तो पलंग पर लेटे बड़ी देर तक सोचते रहे। आदमी और परिवार के बारे में उनकी मान्यताएँ कमज़ोर पड़ रही थीं। थोड़ी देर बाद बेटे को बुलाया, बोले, ‘शाम को मेरे पास बैठना। अपने बैंक एकाउंट और फिक्स्ड डिपाज़िट्स वगैरः के बारे में तुम्हें जानकारी दे दूँगा। तबियत का कोई भरोसा नहीं है, पता नहीं कब फिर से बिगड़ जाए।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 115 ☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा मक्खी – सा । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 115 ☆

☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – काल☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा –काल ??

घातक हथियार लिए वह मेरे सामने खड़ा था। चिल्लाकर बोला, “मैं तुम्हें मार दूँगा। तुम्हारा काल हूँ मैं।”

मैं हँस पड़ा। मैंने कहा, “तुम मेरी अकाल मृत्यु का कारण भर हो सकते हो पर काल नहीं हो सकते।”

” क्यों, मैं क्यों नहीं हो सकता काल? मैं खुद नहीं मरूँगा पर तुम्हें मार दूँगा। मैं ही हूँ काल?”

” सुनो, काल शाश्वत तो है पर अमर्त्य नहीं है। ऊर्जा की तरह वह एक देह से दूसरी देह में जाकर चेतन तत्व हर लेता है। हारा हुआ अवचेतन हो जाता है, काल चेतन हो उठता है। खुद जी सकने के लिए औरों को मारता है काल।… याद रखना, जीवन और मृत्यु व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जीवन का हरण अर्थात मृत्यु का वरण। मृत्यु का मरण अर्थात जीवन का अंकुरण। तुम आज चेतन हो, अत: कल तुम्हें मरना ही पड़ेगा। संभव हो तो चेत जाओ।”

थरथर काँपता वह मारने से मरने के पथ पर आ चुका था।

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 8:51 बजे, 21 अक्टूबर 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print