हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 2 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 2 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – जन्म लेने के बाद सोलहवां बसंत आते आते पगली का विवाह हो गया, पगली की डोली  ससुराल की तरफ बढ़ चली।  अब आगे पढ़े——–)

जब पगली की डोली मायके से चली तो वह कल्पना लोक के  सतरंगी इन्द्रधनुषी संसार में खोई हुई थी। जहाँ एक तरफ घर गाँव माँ-बाप का साथ छूटने की पीड़ा थी तो दूसरी तरफ ससुराल में नवजीवन के सुखों की कल्पना उसके मन के किसी कोने से झांक रही थी। लेकिन उसने अपने भविष्य की कोई कल्पना नही की थी कि भविष्य के गर्भ में पल रहा दुर्भाग्य रूपी अजगर उसकी खुशियाँ लीलने की ताक में बैठा है। उसकी डोली सर्पीली पगडंडियों से होती हुई ससुराल पहुँच कर गाँव के बाहर बने एक मंदिर परिसर में जा कर रूक गई थी। और उस परिसर के अगल बगल छोटे छोटे बच्चे-बच्चियाँ नई नवेली दूल्हन देखने की चाह में डोली के आसपास मंडरा रहे थे। नई दूल्हन का चेहरा देखने की चाह दिल में मचल रही थी।

कभी कभी कोई बच्चा या बच्ची शरारतवश डोली का पर्दा हटाता तो पगली शर्मो हया  से लाज की गठरी बन डोली के कोने में सिमट जाती।

अब गाँव घरों की महिलाओं ने उसे देवी माई के दर्शन कराये, दूधों नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद दिया, अरमानों के सागर में गोते लगाती पगली की डोली उसके ससुराल में आ लगी थी। जहाँ पगली का भविष्य उसका ही इंतजार कर रहा था।

उस दिन नई बहू का स्वागत बुजुर्ग महिलाओं तथा नव यौवनाओं ने हर्षोल्लाष के साथ मंगल गीतों से किया था।

उस समय पगली अपने भाग्य पर इतरा उठी थी, वह अपनी कर्मनिष्ठा मृदुल व्यवहार से ससुराल में सबकी आंखों का तारा बन बैठी थी। गाँव की महिलायें उसके रूप सौन्दर्य तथा प्रेम व्यवहार की कायल हो गई थी वे उस का गुणगान तथा सास ससुर के भाग्य की सराहना करते थकती नहीं थी। उसने अपने स्नेह व्यवहार से सबका मन जीत लिया था, वह बच्चों की प्यारी मीठी बातों से खिलखिलाती हंस पड़ती, तो मानो वह अपने बचपने के दिनों में वापस चली जाती।

अब पगली की जिंदगी में वह दिन भी आया, जिस का  इंतजार हर नई नवेली दूल्हन करती है। उसके ससुराल में सुहाग रात की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी, और पगली पिया मिलन की आस मन में लिए अपने भविष्य का ताना बाना बुनने मे व्यस्त थी। सारे घर आंगन को गाय के गोबर से लीपा पोता गया था। आंगन मेंजौ  के आटे से चौक पूरा गया, तुलसी और चंद्रमा की पूजा के साथ भगवान सत्यनारायण की कथा भी हुई। गाँव की नव वधुओं ने ढोलक की थाप पर मंगल गीत भी गाये, उस दिन मित्रों, रिश्तेदारों तथा समाज के लोगों को सुस्वादु भोजन के साथ बहू भोज भी दिया गया, लोगों ने उसके मंगल भविष्य की मंगल कामना भी की, महिलाओं ने पुत्रवती अखंड सौभाग्यवती  होने का आशीर्वाद दिल से दिया, उस समय उसके ससुराल में संपन्नता अपनी चरम सीमा पर थी, उसकी ननदों  तथा भाभियों ने उसकी सुहाग सेज को बेला और गुलाब की लड़ियों से सजाया, सुहाग सेज पर बिछी बेला और गुलाब की पंखुड़िया कोमल स्पर्श  नर्म एहसास दिलानें को आतुर थी।  उसमें सबके अरमानों की खुश्बू समाहित थी।

अब दिन ढलता जा रहा था।  शाम होने को आई।  उसको उस पल का पल-पल इंतजार था जिसकी कामना हर दुल्हन करती है।  अपने दिल में अरमानों की माला लिए तथा आंखों मे रंगीन सपने सजाये सुहाग सेज के निकट जमीन पर बैठी पगली अपने साजन के आने का इंतजार नींद से बोझिल आंखों से कर रही थी।

दरवाजे पर होने वाली हर आहट पर उसकी धड़कन बढ़ जाती, उसका इंतजार खत्म नही हुआ, बल्कि उसकी घड़ियाँ लम्बी होती चली गई। रात आधी बीतते। उसका मन किसी अज्ञात भय आशंका से कांपने लगा था। वह पिंजरे में कैद मैंना पक्षी की तरह छटपटा उठी थी।

एक तरफ वह भय आशंका से ग्रस्त हो छटपटा  रही थी।  दूसरी तरफ उसका पती सुहागरात रंगीन बनाने के लिए मित्रों के साथ जाम पे जाम टकराये जा रहा था।  इसकी पगली को भनक भी नही लगी थी। वह जब भी उठने का प्रयास करता मित्र मंडली आग्रही बन उसे रोक लेती और फिर एक बार पीने पिलाने का नया दौर शुरू हो जाता।  नशा हर पल गहरा होता जा रहा थ।  आधी रात के बाद पति महोदय ने नशे में झूमते झामते सुहाग कक्ष में दस्तक दी। लेकिन, सुहाग कक्ष की देहरी पार नही कर सके थे।  नशे की अधिकता से भहरा कर देहरी पर ही गिर पड़े थे।  यह सब देख पगली का हृदय दुख और पीड़ा से हाहाकार कर उठा था।  वह आने वाले भविष्य की दुखद कल्पना कर रो उठी थी। फिर भी अपनी कोमल बाहों से सहारा दे अपने पति को सुहाग सेज तक लाने का असफल प्रयास किया था।

लेकिन भारी शरीर संभालने में खुद गिरते-गिरते बची थी।  नशे की अधिकता से एक बार वह फिर लड़खड़ाया था और गिर गया था।  देहरीं पर पंहुच कर सुहाग सेज तक, नशे में बंद अधखुली आंखों से उसे सुहाग सेज मीलों दूर नजर आ रही थी, जिसे वह हाथ बढ़ा कर छूना चाहता था।

अब एक बेटी अपने अरमानों का गला घोंटे जाने  पे रोने के सिवा कर ही क्या सकती थी? ऐसे में उसकी पीड़ा समझने वाला सिवाय गोविन्द के और कौन हो सकता था।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -3 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “दुःख में सुख”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆

☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ 

 

माँ की पीठ पहले की अपेक्षा अधिक झुक गयी थी । डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है साथ ही याददाश्त भी कमजोर हो जाती है।

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो हर समय की बात हो गयी थी। कई बार परेशान होकर वह खुद ही कह उठती- पता नहीं क्या हो गया है ? लगता है मैं पागल होती जा रही हूँ। कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?

झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही कराह उठती। झुकी पीठ में टीस उठती। फिर वही सिलसिला दूसरे दिन का……..

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। अपनी आयु और स्वास्थ्य भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता होती कि बेटे-बहू का कोई कड़वा बोल बेटियों के कानों में न पड़ जाए। उपेक्षा का भाव बेटियों को नजर ना आ जाए। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए और खुद को प्रसन्न दिखाने के लिए वह गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ हँसती, खेलती, खिलखिलाती…….. ?

वह गर्मी की रात, थकी-हारी माँ छत पर लेटी थी। इलाहबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। माँ नाती-पोतों से घिरी लेटी है। हवा चले, इसके लिए वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया ,कौआ ,तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे। बच्चों के लिए अच्छा खेल था। माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी- बेटी खुश रहा करो। बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरुरी है यह। जब से हर बात भूलने लगी हूँ मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी कड़वी बात थोड़ी देर असर करती है फिर कुछ याद ही नहीं रहता। किसने क्या कहा, क्यों कहा, क्या ताना मारा……. कुछ नहीं। यह कहकर माँ ने लंबी साँस भरी।

बोलते-बोलते माँ कब सो गयी पता नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी। माँ के विश्वास ने ठंडी हवा भी चला दी थी। मुझे डॉक्टर की कही बात याद आ रही थी लेकिन माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆ गणना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक सार्थक लघुकथा  “गणना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆

☆ गणना ☆

 

अनीता बहुत परेशान थी.  250 बच्चों की गणना करना, फिर उन्हें जातिवार बांटना, लड़का- लड़की में छांटना – यह वह अकेली कर नहीं पा रही थी . आखिर थक हर कर अपने एक शिक्षक साथी से कहा , “आप मेरी गणना करवा दीजिए.”

साथी मुंहफट था “मैं आप  का काम करवा देता हूँ, बदले मुझे क्या मिलेगा ?”

“जो आप चाहे,” कहने को अनीता कह गई, मगर बाद में उस ने बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घर से दूर रह कर यह गठबंधन करने में ही उसे ज्यादा फायदा है. अन्यथा वह यहाँ अकेली नौकरी नहीं कर पाएगी. इसलिए चुपचाप साथी के साथ गणना करने चल दी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संभावनाएं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  संभावनाएं

बारिश मूसलाधार है। हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम बारफ़्तार दौड़ रही थी।

आज का दिन संभावनाओं से भरा हो।

 

संजय भारद्वाज

[email protected]

प्रात: 8:18, 7.12.2019

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 1 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – भाग 1 – बचपन ☆

 

जी हाँ यह कहानी है उस पगली माई की जो त्याग, तपस्या, दया, करूणा तथा प्रेम जैसे गुणों की साक्षात् प्रतिमूर्ती थी। उस में हिमालयी चट्टानों का अटल धैर्य था, तो कार्य के प्रति  समर्पण का जूनूनी अंदाज भी।  वह हर बार परिस्थितिजन्य पीड़ा से टूट कर बिखर जाती लेकिन फिर संभलकर अपने कर्मपथ पर अटल इरादों के साथ चल पड़ती। उसकी जीवन मृत्यु सब समाज के लिए थी।

दमयंती के चेहरे पर सारे जमाने का भोलापन था। वह किसान परिवार में पैदा हुई अपनी माँ बाप की इकलौती संतान थी।

बचपन में उसका अति सुंदर रूप था। गोरा-गोरा रंग ऐसा जैसे विधाता ने दूध में केशर घोल उसमें नहला दिया हो। चेहरे के बड़े बड़े नेत्र गोलक किसी मृगशावक के आंखों की याद दिला देते।  उसके चेहरे का कोमल रूप-लावण्य देखकर लगता जैसे प्रातः ओस में नहाई गुलाब कली खिल कर मुस्कुरा उठी हो। जो भी उसे देखता
उस सुन्दर परी जैसी जीवन्त गुड़िया को गोद में उठाकर नांच उठता। उसकी  खिलखिलाहट भरी हंसी सुनते-सुनते मन  की वीणा के तार झंकृत हो उठते। उस का जन्म का नाम तो दमयन्ती था, पर माता-पिता प्यार से  उसे पगली कह के बुलाते। तब उन्हें कहाँ पता था कि उनका संबोधन एक दिन सच हो जायेगा। वह बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन गृह कार्य में दक्ष तथा मृदुभाषी थी। बहुधा कम ही बोलती।

धीरे धीरे समय बीतता रहा। बचपना कब बीता, किशोरावस्था कब आई समय के प्रवाह में किसीको पता ही नही चला।

उसी गाँव में एक सूफी फकीर रहा करते थे। सारा गाँव उन्हें प्यार से भैरव बाबा कह के बुलाता था। उनकी वेशभूषा तथा दिनचर्या अजीब थी। उनका आत्मदर्शन  तथा जीवन जीने का अंदाज़ निराला था। वे हमेशा खुद को काले लबादे में ढंके कांधे पर  झोली टांगे हाथ में ढपली लिए गाते घूमते रहते थे। वे हमेशा बच्चों के दिल के करीब रहते, बच्चों को बहुत प्यार करते थे।

जब कोई भी बच्चा उनके पैरों  को छूता तो वो उसका माथा चूम लेते तथा उसे एक मुठ्ठी किसमिस का प्रसाद अवश्य मिल जाता। वे जब भिक्षाटन पर जाते तो सिर्फ एक घर से ही पका अन्न लेते और उसे वही बैठ खा लेते। कभी पगली के दरवाजे पर “माई भिक्षा देदे” की आवाज लगाते तो पगली भीतर से ही “आयी बाबा कह उनसे दूने जोर से चिल्लाती तथा आकर बाबा के पावों मे लेट जाती। उस दिन उसे मुठ्ठी भर प्रसाद अवश्य मिल जाता खाने को।

वह भी घर में बने भोजन से थाली सजाती  और उसी भाव से खिलाती मानों भगवान का भोग लगा रही हो।  इस प्रकार खेलते खाते समय कब  बीत चला किसी  को पता नही चला।

अब पगली जवानी की दहलीज पर कदम  रख चुकी थी।  पिता ने संपन्न सजातीय वर देख उसका विवाह कर  दिया।

वह जमाना भारत देश की गुलामी से आजादी का दौर था। देश स्वतंत्र था, फिर भी देश पिछडापन, अशिक्षा, नशाखोरी, गरीबी, तथा रूढिवादी विचारधाराओं का दंश झेल रहा था।  उन्ही परिस्थितियों में जब माता पिता ने उसे विवाह के पश्चात डोली में बिठाया तो पगली छुई मुई सी लाज की गठरी बन बैठ गई थी। उसे माता पिता तथा सहेलियों का साथ छूटना, गाँव की गलियों से दूरी खल रही थी। वह डोली  में बैठी सिसक रही थी कि सहसा उसके कानों में ढपली की आवाज के साथ  भैरव बाबा की दर्द भरी  आवाज में बिदाई गीत गूंजता चला गया।

उस बेला में भैरव बाबा की आंखें  आंसुओं से बोझिल थी, तथा ओठों पे ये दर्द में डूबा गीत मचल रहा था—–

ओ बेटी तूं बिटिया बन,
मेरे घर आंगन आई थी।
उस दिन सारे जहाँ की खुशियाँ,
मेरे घर में समाई थी।
मुखड़ा देख चांद सा तेरा,
सबका हृदय बिभोर हुआ।
तू चिड़िया बन चहकी आंगन में,
घर में मंगल चहुं ओर हुआ।
हम सबने अपने अरमानों से,
गोद में तुमको पाला था।
पर तू तो धन थी पराया बेटी,
बरसों से तुझे संभाला  था।
राखी के धागों से तूने,
भाई को ममता प्यार दिया।
अपनी त्याग तपस्या से,
माँ बाप का भी उद्धार किया।
तेरी शादी का दिन आया,
ढ़ोलक शहनाई गूंज उठी।
मंडप में वेद मंत्र गूंजे,
स्वर लहरी गीतों की फूटी।
मात-पिता संग अतिथिगणों ने,
तुझको ये आशीष दिया।
जीवन भर खुशियों के रेले हो,
तू सदा सुखी रहना  बिटिया।
जब आई घड़ी बिदाई की,
तब मइया का दिल भर आया,
आंखें छलकी गागर की तरह,
दिल का सब दर्द उभर आया।
द्वारे खड़ी देख पालकी,
पिता की ममता जाग उठी।
स्मृतियों का खुला पिटारा,
दिल के कोने से आवाज उठी।
ओ बेटी सदा सुखी रहना,
तुम दिल से सबको अपनाना।
अपनी मृदु वाणी सेवा से,
तुम सबके हिय में बस जाना।
जब उठी थी डोली द्वारे से,
नर-नारी सब चित्कार उठे।
बतला ओ बिटिया कहां चली,
पशु पंछी सभी पुकार उठे।
तेरे गाँव की गलियां भी,
सूनेपन से घबराती हैं।
पशु पंछी पुष्प लगायें सब,
नैनों से नीर बहाते हैं।
ये विधि का विधान है बड़ा अजब,
हर कन्या को जाना पड़ता है।
छोड़ के घर बाबुल का इक दिन,
हर रस्म निभाना पड़ता है।
खुशियों संग गम के हर लम्हे,
हंस के बिताना पड़ता है।

उस दर्द में डूबे गीत को भैरव बाबा गाये जा रहे थे। आंखों से आंसू सावन भादों की घटा बन बरस पड़े थे। इसी के साथ सारा गाँव  रो रहा  था।  इसी के साथ पगली की डोली सर्पाकार पगडंडियो से होती हुई ससुराल की तरफ बढ़ चली थी।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -2 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ प्रेम ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह कहानी  ‘प्रेम’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । मनुष्य मोह माया के मोहपाश में  बंधा हुआ यह भूल जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के अतिरिक्त और स्वयं से अधिक कोई भी सगा नहीं है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 

 कथा-कहानी  – प्रेम 

 

शहर के वयोवृद्ध नेता एवं उद्योगपति उमाकान्त जी का कल देहावसान हो गया। उनकी विशाल कोठी के बरामदे में उनका पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा हेतु तैयार रखा था। पूरा परिवार, चारों बेटे-बहुयें, तीनों बेटियां-दामाद एवं नाती पोते मोहल्ले वाले एवं पार्टी के सदस्य एक ओर खडे़ थे। पंडितजी का इशारा मिलने पर ज्यों ही उनको उठाने का प्रयास हुआ, सब का तीव्र क्रंदनयुक्त रुदन चालू हो गया।

पत्नी, बहुऐं दहाड़ें मार कर रोने लगीं, बेटे भी- बाबूजी आप क्यों चले गये अब हम कैसे रहेंगे-ऐसा कह कर फफक पडे, नाती पोते तो दादाजी को मत ले जाओ ऐसा आग्रह करने लगे, बडा पोता तो बाकायदा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। पार्टी सदस्य भी रुमाल में आंखें ढंक कर रोने जैसा कुछ करने लगे-आप नहीं होंगे तो पार्टी कैसी चलेगी ऐसा कुछ बोलते जा रहे थे। बेटियों ने सामूहिक मांग कर दी कि बाबूजी को खोल दो। मंझली बेटी तो अर्थी पर ही पछाड खाकर गिर पड़ी।

हमारी हिन्दू मान्यता के अनुसार उस समय उमाकान्त जी की आत्मा कंपाउंड के पास पेड पर बैठी यह सीन देख रही थी। उनका दिल भी पिघल आया और उन्होंने यमदूत से कहा- “भाई देख रहे हैं, मेरे बिना ये कैसे हो रहे हैं, मुझे केवल चौबीस घंटे और दे दो।“

यमदूत ने भी पता नहीं किस भावना में कहा- “ठीक है, जाओ एक दिन और रह लो तुम्हारी इस प्यारी दुनिया में।
यह कहते ही उमाकान्त जी ने आंखें खोल दी और कसमसाकर बोले अरे राजन, खोलो मुझे।”

इस अनपेक्षित घटना से पहले तो सब ओर अचानक सन्नाटा छा गया फिर सन्नाटे को तोडती पत्नी की आवाज आई- “इनका तो शुरू से ऐसा ही है, कोई भी काम ढंग से नहीं करते। कल से सबने इतनी मेहनत की, सब बेकार !!! लो अब करो स्वागत इन साहब जी का।”

पीछे-पीछे बड़ी बहू के बोल फूटे – “लो, अब बाबूजी को अदरक की चाय चाहिये होगी, फिर रात का खाना खायेंगे। चलो अपन तो किचन में ही भले।”

बड़े बेटे ने खीजते हुये कहा- “क्या बाबूजी, क्या है ये ? इतना रुपया पैसा समय, तैयारी सब बेकार कर दिया, इससे अच्छा तो मैं दुकान पर ही बैठा होता, आज की ग्राहकी भी गई। हट्.  .  .”

छोटा बेटा अंशुल थोडा व्यावहारिक बुद्धि का था। उसने मन ही मन सोचा अरे, मैं तो श्मशान से लौट कर जैन वकील साहब को बुलाने वाला था, बाबूजी की वसीयत खुलवाते। हाय, कहां गया मेरा नया बिजनेस !! हाय री किस्मत !!!

छोटी बेटी भी अचानक इस बीच होश  में आकर कूद पड़ी – “क्या बाबूजी आप भी, मैंने तो सोचा था कि मेरा हिस्सा मिल जायेगा तो लखनऊ में एक प्लॉट देखा था उसका सौदा फायनल कर देती, पर हाय रे भाग !!”

जो बड़ा पोता मत ले जाओ, मत ले जाओ की रट लगा रहा था – प्रगट में बोला “वाह दादाजी अच्छा हुआ आप आ गये, अब मुझे बाल नहीं कटाना पडेंगे, पर मन ही मन बोला लो ये बूढे बाबा वापस आ गये अब फिर से पढाई करो, फोन पर ज्यादा बात मत करो, सिगरेट मत पियो ये सब ज्ञान सुनना पडेगा। अरे भगवान, यार ये चमत्कार मेरे ही यहां होना था क्या ?”

रस्सियों से बंधे बंधे ही उमाकान्त जी ने अपनी लाडली पोती की ओर देखा जिसका मेकअप रोने के कारण पूरा बह निकला था, वह भी मन में भुनभुना रही थी- “अब ये दादू वही राग अलापेंगे, लडकों से बातें मत करो, स्कर्ट, फटी जींस, शॉर्ट्स  टॉप मत पहनो, खाना बनाओ, देर तक घर से बाहर मत रहो। शिट्, क्या लाइफ है।“

इस चखचख में उनके कान में पार्टी के कार्यकर्ता की दबी आवाज आई- “अबे तिवारी, ये बुढऊ तो लौट आया यार, अब ये फिर से चंदे का हिसाब, बिल वाउचर सब मांगेगा। यार हम कैसे काम करेंगे। बडी मुसीबत है ये बूढा।“

अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर उमाकान्त जी का दिल जाने कैसा हो आया, उन्होंने उसी पेड पर बैठे यमदूत की ओर इशारा किया और फिर आंखें मूंद लीं –

इस बार हमेशा के लिये .  .  .  .

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆ प्रेरणा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “प्रेरणा”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆

☆ प्रेरणा ☆

खुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफारिश करते हुए कमलेश ने कहा, “यार योगेश! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बन कर लोगों की सेवा करना चाहता है.”

“ठीक है मैं उस की मदद कर दूंगा.  उस से कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें.” योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “मगर, मैं चाहता हूं कि तू उस की निस्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें.”

“नहीं यार! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं ?”  योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “इस से तेरा नाम होगा ! लोग तूझे जिंदगी भर याद रखेंगे.”

“हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर,  मैं नहीं चाहता हूं कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह खत्म हो जाए.”

“मैं उसे जानता हूं, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा”, कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, योगेश ने हाथ ऊंचा कर के उसे रोक दिया.

“भाई कमलेश ! यह उस के हित में है कि वह मेहनत कर के पढाई करें”, कह कर यौगेश ने अपनी आंख में आए आंसू को पौंछ लिए, “तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है.”

यह सच्चाई सुन कर कमलेश चुप हो गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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