हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ दक्षिण की वो महिला ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

(आदरणीया  श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं।  साथ ही आप साहित्य की अन्य विधाओं में भी उतनी ही दक्षता रखती हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक कहानी “दक्षिण की वो महिला”। दक्षिण की वो महिला आपको निश्चित ही जिंदगी जीने का जज्बा सिखा देगी। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप आखिर जीना कैसे चाहते हैं?)

 

दक्षिण की वो महिला 

 

आज अस्पताल जाना हुआ। बेटे की रिपोर्ट दिखाने। दो महिलाएं पहले से बैठी थीं। एक की नाक में सीधी तरफ नथ थी। समझ गई कि दक्षिण की है। और दूसरी मराठी ही दिख रही थी।

दूसरी महिला ने बोलना शुरू किया तो पहली वाली भी मराठी में ही बात करने लगी। दोनों ही डायबिटीज की मरीज थी। लेकिन बहुत स्मार्ट।

जो दक्षिण से थीं उनकी उम्र कोई 70 साल होगी और दूसरी की 50 के आसपास। बोली डेली जिम जाती हूं। सास बीमार थी तो नहीं जा पायी। शुगर हाई की बजाय लो हो गई।

हाथ में बैंक ऑफ महाराष्ट्र का बैग था। जूट का…। यहां पॉलीथीन बैग्स पूर्ण रूप से बैन है। कोई शादियों में बंटे कपड़े के थैले लेकर भी खूब दिख जाते हैं।

बैग देखकर मैंने पूछा आप जॉब करती हैं।

बोली- मेरे पति हैं बैंक में।

तब तक पहली वाली महिला से बातचीत होने लगी। कहने लगी मुझे पुणे बिल्कुल पसंद नहीं आता फिर भी यहां रहती हूं। 2011 दिसंबर को मुंबई छोड़ दिया। जहां बेटा कहेगा वहीं रहूंगी अब।

पूछा उनसे कि क्यों नहीं पसंद?

बोली- जिंदगी के 28 साल नवी मुंबई वाशी में गुजारे। वहां ज्यादा अच्छा है। 10×10 के घर में रहते थे। जबकि यहां टूबिएचके…। पूरी बिल्डिंग की हालत जर्जर हो गई थी। जिनकी थी उन्होंने वाशी में ही बड़े बड़े बंगले बना लिए। कोई देखने वाला नहीं था। दीवारों में इतनी दरख्त थी कि बाहर देख लो उन झरोखों से।

बारिश में घर के अंदर छाता लेकर बैठना पड़ता था। फिर भी छोडने का मन नहीं था। जिन्होंने नहीं छोड़ा उन्हें 30 लाख मिले। खाली करा दी थी बाद में बिल्डिंग।

लेकिन बेटा माना नहीं। बुला लिया अपने पास।

फिर अपने पति के गुजरने की बात कही। बोली कमानी कंपनी में थे। बहुत बड़ी कंपनी थी। नाम था उसका और हमारी इज्ज़त थी वहां नौकरी करना। कैशियर था वो (पति)।

1973 से ही केरल छोड़ मुंबई बस गए। बहुत अच्छी कंपनी थी। एक दिन 800 वर्करों को निकाल दिया कह कर की कंपनी बंद हो गई है अब।

एक पैसा भी नहीं दिया। पेंशन तो दूर की बात है, पगार भी खा गए वो लोग।

मैं भी स्टेनो थी। जॉब करती थी। सास ने झगड़ा कर कर के मेरी जॉब छुड़वा दी थी। अब न पति है न सास।

बेटी है। चैन्नई में सेटल है। दो बच्चे हैं। जॉब करती है।

लंबी सांस लेते हुए बताने लगी कि मेरे बेटे को तीन बार ऑफर आया लेकिन उसने मना कर दिया मेरे लिए।

लेकिन अभी उसे जबर्दस्ती भेजा है। क्यों उसके आगे बढ़ने की रुकावट बनना। पिछले महीने ही गया अमेरिका। कंपनी जब तक रखेगी, रहेगा।

लेकिन मैं बहुत आध्यात्मिक हूं। वीणा वादन, शास्त्रीय गायन संगीत सब करती हूं। भजनों में जाती हूं।

एक पेपर पर पूरा टाइमटेबल बना है। उसी के हिसाब से चलती हूं। ज्यादा कुछ परवाह नहीं करती। बच्चे सीखने आते हैं, सिखाती हूं। ऐसे ही…। मतलब फ्री में…।

मलयालम, तेलुगु, तमिळ, इंग्रजी, कन्नड़ सब भाषाएं आती हैं। बस इसी में सारा समय निकल जाता है।

शुगर है लेकिन बॉर्डर के ऊपर नहीं जाने देती। डॉक्टर के यहां बहुत कम जाती हूं। अच्छा नहीं लगता। बस आज के बाद अब एक साल बाद ही आऊंगी।

मस्त जिंदगी गुजार रही हूं। किसी की चिंता नहीं…। उतने में ही डॉक्टर आ गए और मैं अंदर चली गई।

सोच रही थी कि जीना इसी का नाम है…।

 

© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #7 – दस्तक ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “दस्तक ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  को  मीन साहित्य संस्कृति मंच द्वारा  हिन्दी साहित्य सम्मान  प्राप्त  प्रदान किया  गया है ।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 7 ☆

 

☆ दस्तक ☆

 

मिस अर्पणा सिंग’ स्कुल की अध्यापिका। नाम भी सुन्दर दिखने में औरों से बहुत अच्छी। सख्त और अनुशासन प्रिय। सभी उनके रूतबे से डरते थे। किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिना परमिशन के उनके स्कूल या घर में कोई दस्तक दे। घर परिवार में भी उसी प्रकार रहना, न किसी  का आना जाना और न ही स्वयं किसी के घर मेहमान बनना। इसी वजह से  सब लोगों ने उनका नाम बदल दिया ‘मिस अपना सिंग’ । उनको कोई पसंद भी नहीं करता था। बस स्कूल की गरिमा और उनका कड़क जीवन यापन ही उन्हें अच्छा लगता था।

किसी ने आज तक उनसे उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जानता भी कौन? किसी से उनकी बात ही नहीं  होती थी। समय बीतता गया। कब तक अकेली सफर करती। एक दिन अचानक पाँव फिसल जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई। जैसे उन पर दुखों का पहाड़ आ गया। जैसे तैसे पड़ोसी अस्पताल ले जा कर प्लास्टर लगवा कर ले आये। फिर घर पर अकेली अपनी काम वाली बाई के साथ पड़े रहना।

स्कूल में कुछ बच्चे खुश पर कुछ उदास थे। पर उनके पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। पता चला दरवाजे से ही बाहर भगा दिया तो? पर सब की बातों से बेखबर एक उनके कक्षा का विद्यार्थी जिसका नाम ‘अनुज’ था जो बहुत ही शरारती और अपने चंचल स्वभाव के कारण सब का मनोरंजन करता रहता था। सिंग मेडम कभी टेबिल के उपर तो कभी क्लास रूम के बाहर कर देती थीं। उसे अपनी अध्यापिका को देखने और मिलने जाने का मन हुआ।

चुपके से सब बच्चों के साथ जा पहुँचा मेडम के घर। दरवाजे पर दस्तक दिया।  दरवाजा अधखुला और हाथों में पेपर लिए मेडम चश्मे से दरवाजे पर देख कर बोली. कौन? क्या काम है? बस क्या था बाकी बच्चे अनुज को छोड़कर भाग खड़े हुए। परन्तु अनुज हिम्मत कर बोला…. “मेडम जी मैं, आपका अपना अनुज”।

अपना अनूज सुनते ही अध्यापिका की आँखें भर आईं। बड़ी मुश्किल से अपनी भावना को दबाते हुए उसे अन्दर बुलाकर पूछी.. “कैसे आना हुआ?” अनूज ने बड़े डर से बताया “आप को देखने आया था। सब कोई आना चाहते हैं। क्या सब को बुला लूं?”  मेडम ने हां में सिर हिलाया। अनुज दौड़ कर बाहर चला गया।

आज अध्यापिका ‘मिस अपना सिंग’ को अपने नाम से ज्यादा अच्छा ‘अपना अनुज’ कहना  लग रहा था। उनके दिल पर किसी ने ‘दस्तक’ जो दे दिया है। जैसे उन्हें सारे जहां की खुशी मिल गई हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – सालिगराम☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। आज प्रस्तुत है उनकी पौराणिक कथाओं पर आधारित  कथा – शालिग्राम । )

 

☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – शालिग्राम ☆

 

बरसात का मौसम, मौसमी फलों की बहार। बाजार निकलने पर ठेलों पर काले काले जामुन। सभी का दिल खाने को होता है। जामुन देख हम भी आपको एक पुरानी कथा बता रहे हैं। आप सभी जानते होंगे फिर भी मुझे आप सब के साथ साझा करना अच्छा लग रहा है ।

एक ऋषि का आश्रम जहाँ बहुत सारे शिष्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। गांव का एक अनपढ उसे भी गुरूकुल जाने का मन हुआ और साधु संत बनने की इच्छा जागी। माँ से बात कर वह एक दिन पहुंच गया आश्रम  बहुत ही भोला भाला जैसा कोई कह दे मान जाता था। गुरुजी ने उसे रखने से इंकार किया परंतु उसकी सच्ची श्रद्धा देखकर उसे अपने आश्रम में रख लिया।

उन्होंने पूछा “क्या जानते हो?”

बहुत ही सीधे शब्दों में उसने सब बात बता कर गुरु जी से कहा “आप जो काम देंगे वह मैं अवश्य पूरा करूंगा। बदले में मुझे खाना दे दिया कीजिए।”

गुरुजी शालिग्राम प्रभु के बहुत भक्त थे और बड़े छोटे भिन्न-भिन्न प्रकार के  शालिग्राम की स्थापना कर रखे थे। आश्रम में पूरा दिन उनको नहलाना, पूजा करना, टीका चंदन लगाना, फिर जो भी मिले प्रसाद स्वरूप सब को बाँट कर खाना बस बाकी समय भगवान का आराधना कर बैठे रहना वह सब से देखता था। उसको बड़ा सहज लगता था कि बस बैठे-बैठे खाना मिलता है।

एक दिन गुरुजी पास के गांव में शास्त्रार्थ करने गए। जाते समय बाकी शिष्यों को साथ ले गए परंतु इस शिष्य को समझा गए कि “हमारे आते तक सब शालिग्राम भगवान की सेवा करना, नहलाना, चंदन तिलक लगाना और जो भी मिले सब तुम्हारा होगा खा लेना।” शिष्य बड़ा खुश हो गया दो दिनों तक बहुत जमकर खाया भूल गया कि भगवान का भी कुछ काम करना है। तीसरे दिन एकादशी व्रत था। किसी ने कुछ खाने का सामान नहीं लाया पूजा-पाठ तो दूर भूख सताने लगी।

आश्रम के बाहर निकल कर देखा जामुन के पेड़ पर खूब सारे जामुन लगे हैं।  किन्तु, पहुँच से सब बाहर हैं। पत्थर बड़े बड़े थे । उसे निशाना नहीं बन रहा था उसने सोचा इतने सारे शालिग्राम है तो पत्थर ही है बस एक एक उठा जामुन पर दे मारा और भगवान की इच्छा जामुन भी खूब गिरते गए। सब शालिग्राम ऊपर मारने से पास में नदी बह रही थी पानी में जा गिरे। जब पेट भर गया तो उसे ध्यान आया कि गुरु जी आने वाले हैं अब शालिग्राम ढूँढेंगे तो कहाँ से दूँगा। उसने सोचा क्यों ना जामुन में टीका चंदन लगाकर उसी जगह रख दिया जाए। उसने वैसा ही किया। बड़े छोटे जामुन को जगह के अनुसार चंदन लगा कर रख दिया फूल पत्ती चढ़ाकर स्वयं पूजन में बैठ गया। गुरुजी आने पर देखते हैं कि फूल तो ज्यादा मात्रा में चढ़े हैं और पूजन भी विधिवत हो गया है। बहुत खुश हुए दूसरे दिन गुरुजी स्नान कर अपने सभी शालिग्राम को स्नान कराने के लिए उठाया तो देखा कि उठाए देखा कि माखियाँ भिनक रही हैं और शालिग्राम पिचके सूखे गीले पड़े हैं। उन्हें समझते देर न लगी।  फिर भी बुला कर शिष्य को पूछा उसने जवाब दिया “पुनि पुनि चंदन पुनि पुनि पानी ठाकुर गवागे हम का जानी।” उसने कहा आप ही ने उन्हें रोज नहलाने और चंदन टीका के लिए कह गए थे। बार-बार नहलाने से शायद ऐसे हो गए हैं। आपके शालिग्राम और कहीं गए। हमें कुछ नहीं मालूम शिष्य के भोलेपन से गुरुजी को समझते देर न लगी कि जामुन तोड़कर खुद खाया और जामुन को ही रख दिया है पूजा पाठ करके। पर क्या करें ऊपर से कड़क होते गुरु जी ने कहा जाओ  नदी में सब शालिग्राम नहा रहे हैं। सबको निकाल कर ले आओ।

शिष्य गुरु जी की बात मानकर नदी चला गया और खुशी-खुशी लौट आया। यह थी शालिग्राम और जामुन की कहानी।

रामायण में शालिग्राम का वर्णन करते तुलसीदास बताते हैं कि एक समय था नल और नील दोनों भाई ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। बहुत ही चंचल चपल चतुर सभी ऋषियों को हमेशा तंग करना उनका काम था। आश्रम में सभी ऋषि मुनि उनकी दुष्टता से परेशान थे। कहीं भी मौका मिलता सभी के शिवलिंग और शालिग्राम भगवान को नदी में फेंक दिया करते थे। पूजन के समय पर जब अपनी जगह पर शिवलिंग ना पाकर सभी दुखित हो जाते थे। एक दिन ब्रह्म ऋषि आश्रम में तपस्या कर रहे थे। दोनों भाई नल और नील आकर उनका शिवलिंग उठाकर नदी पर फेंक आए। उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया ‘जाओ आज के बाद तुम जिस पत्थर को भी या चीज को भी नदी में बहाओगे नदी के ऊपर तैरने लगेगा। ‘ नल नील की शैतानियां बंद हो गई क्योंकि कुछ भी डाल देते तो वह नदी पर और किनारे आ जाता। उन्होंने नादानी में न जाने कितने बानर और ऋषि-मुनियों को उठाकर नदी में फेंका था। फिर क्या था जब भगवान को नदी में डाल देते थे उनका सामान एक किनारे लग जाता था। इसकी वजह से दोनों बहुत व्याकुल थे परंतु प्रभु की इच्छा जब रामावतार में प्रभु राम सीता माता की खोज करने वानर भालू के साथ विराट और अथाह समुद्र को पार करने का और लंका जाने के लिए बहुत ही आशंकित थे कि इतना बड़ा समुद्र कैसे पार किया जाएगा। परंतु तभी उनको विभीषण जी ने बताया कि “प्रभु आपके वानर सेना में नल और नील दो ऐसे वानर हैं जिनके द्वारा फेंके गए पत्थर और चट्टानें पानी पर तैरने लगते हैं इस प्रकार हम इस पर बांध बनाकर जा सकते हैं।”

इसका वर्णन रामायण की निम्न चौपाई में इस प्रकार है:-

 

“नाथ नील नल कपि दो भाई लरिकाई ऋषि आशीष पाई।

तिन्ह के परस किए गिरी भारे तरिहहीं जलधि प्रताप तुम्हारे।”

 

बस फिर क्या था नल नील प्रभु का नाम लिख लिख कर समुद्र पर पत्थर फेंकते गए और रामेश्वरम के ऊपर जो पुल का निर्माण हुआ है वह बन गया। नल नील के द्वारा बनाया गया पुल आज भारतीय संस्कृति को देखने को मिल रहा है। उनका श्राप वरदान बना और आज भारत अखंड में एक रामेश्वरम पुल है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆ सिंदूर ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆

 

☆ सिंदूर ☆

 

मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.

“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”

मोहन भी पूरा जिद्दी था.  “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही.  एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”

मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.

वही मोहन आज उज्जैन से आया था.  ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”

“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.

मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.

सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #5 – छोटा मुंह बड़ी बात….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही शिक्षाप्रद लघुकथा  “छोटा  मुँह बड़ी बात….. ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #5 ☆

 

☆ छोटा मुँह बड़ी बात….. ☆

 

पांच वर्षीय मेरा चुलबुला पोता दिव्यांश स्कूल व अपने गृहकार्य के बाद अधिकांश समय मेरे कमरे में ही बिताता है। कक्ष में बिखरे कागज व पत्र-पत्रिकाएं ले कर पढ़ने का अभिनय करते हुए बीच-बीच में वह मुझसे कुछ-कुछ पूछता भी रहता है।

आज दोपहर फिर एक पत्रिका खोल कर पूछता है — “दादू ये क्या लिखा है? ये वाली कविता पढ़कर मुझे सिखाओ न दादू! ये कविता भी आपने ही लिखी है न ?”

“नहीं बेटू–ये मेरी कविता नहीं है।”

“फिर भी आप पढ़ कर सुनाएं मुझे।””

टालने के अंदाज में मैंने कहा- “बेटू जी आप ही पढ़ लो, आपको तो पढ़ना आता भी है।”

“नहीं दादू! मुझे अच्छे से नहीं आता पढ़ना। आप ही सुनाइए।”

“इसीलिए तो कहता हूँ बेटे कि, पहले खूब मन लगा कर अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लो, फिर बड़े हो कर अच्छे से कविताएं पढ़ना और सब को सुनाना भी।”

बड़े हो कर नहीं दादू! मुझे तो अब्बी छोटे हो कर ही कविता पढ़ना और सुनाना भी है, आप तो पढ़ाइए ये कविता।”

“आपसे सीख कर अभी छोटा हो कर ही कविता सुनाते-सुनाते फिर जल्दी मैं बड़ा भी हो जाऊंगा”।

पोते को कविता पढ़ाते-सुनाते हुए मैं खुश था, आज उसने अपनी बाल सुलभ सहजता से  जीवन में बड़े होने का एक सार्थक  सूत्र  मुझे दे दिया था।

“छोटे हो कर कविता सुनाते-सुनाते बड़े होने का।”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #6 गौरव ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “गौरव ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 6 ☆

 

☆ गौरव ☆

 

माता पिता ने अपने इकलौते बेटे का नाम रखा गौरव।

मां हमेशा कहती बेटा जैसा नाम रखा है, वैसा कुछ काम करना। बस छोटे से बाल मन में ये बात घर कर गई थीं।

धीरे-धीरे बड़ा हुआ गौरव।  गौरव ने बारहवीं कक्षा अच्छे नम्बरों से पास करने के बाद देश सेवा में जाने की इच्छा बताया। आर्मी बटालियन का पेपर, फिर ट्रेनिंग के बाद सिलेक्शन हो गया। और एक दिन बाहर बार्डर पर तैनात हो गया।

हमेशा मां की बात मानने वाला गौरव भारत माँ की निगरानी, रक्षा करते नहीं थकता था। माँ  शादी की बात करने लगी। वह हँस कर कहता मुझे अभी भारत माता की सेवा करनी है। माता-पिता भी कुछ न कहते।

एक दिन सुबह सब कुछ अनमना सा था। माँ को समझ नहीं आ रहा था। दरवाजे पर एक सिपाही आया देख पिता जी बाहर आकर पूछे क्या बात हैं? उसने बड़े ही दर्द के साथ बताया कि गौरव भारत मां की रक्षा करते शहीद हो गया।

माँ समझ गई। रो रो कर कह उठी “मेरा गौरव मेरी बात का इतना बड़ा मान रखेगा।  मैं जान न सकी। गौरव इतना महान बनेगा।” माँ का रूदन रूक ही नहीं रहा था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #6 – सरदार ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(यह एक संयोग ही है की आज के ही दिन श्री आशीष कुमार जी की पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’  का विमोचन है। श्री आशीष जी को उनकी इस नवीनतम कृति की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें।

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश  “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक  अत्यन्त  भावुक एवं मार्मिक  संस्मरण सरदार।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #6 ☆

 

सरदार

 

मैंने अपनी अभियांत्रिकी सूचना प्रौद्योगिकी से सन 2000 से लेकर 2004 तक की थी । इस दौरान मैंने अपनी जिंदगी के 4 साल उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में व्यतीत किये और बहुत कुछ सिखने को मिला । मैं अभियांत्रिकी के सूचना प्रौद्योगिकी की बात नहीं कर रहा बल्कि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया । अलग अलग तरह के लोगो से वास्ता पड़ा सबकी सोच को समझने की कोशिश की । उस दौरान ये भी समझ में आया की कैसे किसी की संस्कृति, रहन सहन, उसका क्षेत्र और उसके माता पिता, भाई बहन आदि का उसके विचारो, प्रकृति और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है । अभियांत्रिकी में शुरू का 1 महीना तो जान पहचान आदि में ही बीत जाता है ।

धीरे धीरे मेरी भी मेरी शाखा सूचना प्रौद्योगिकी के बाक़ी साथियो से जान पहचान और कुछ से दोस्ती भी शुरू हो गयी एक लड़का जो की सरदार जी थे हमेशा कक्षा में देर से आता था कभी कभी तो आता भी नहीं था एक दिन हमारी व्यक्तित्व विकास (Personality Development) का व्याख्यान (lecture) था उसमे अध्यापिका ने बोला के आज आप सब लोग अपना परिचय (Introduction) दीजिये । तो सब साथी अपना परिचय ऐसे दे रहे थे ‘My Name is….’ और हमारी अध्यापिका सबको Ok Ok बोल रही थी । कुछ देर बाद सरदार जी का नंबर आया उन्होंने अपना परिचय My name is …….से शुरू नहीं किया बल्की ‘I am … ‘ से शुरू किया । अध्यापिका ने बोला वैरी गुड जब हमे कोई अपना परिचय देने को बोले तो हमे I am and name बताना चाहिए ना की शुरुवात ही my name is  से करनी चाहिए । क्योकि सामने वाला आपके बारे में पूछ रहा है ना कि केवल आपका नाम । उसके बाद कक्षा के सब छात्र अपना परिचय ‘I am …’ से ही देने लगे । सरदार जी ने जो अपना नाम बताया था वो मेरे दिमाग पर छप गया वो नाम था ‘राजविंदर सिंह रैना’

धीरे धीरे राजविंदर और मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी । फिर अभियांत्रिकी के दूसरे साल में मैं और राजविंदर कमरा साथी (Roommate) बन गए । मैं राजविंदर को बोला करता था यार तुम्हे तो Modeling में जाना चाहिए था तो वो हमेशा बोलता ‘नहीं यार Modeling के लिए तो बहुत कम उम्र से तैयारी करनी पड़ती है और मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ’ तो  जवाब में बोलता ‘तुम्हारा नाम है राजविंदर सिंह रैना मतलब तुम्हारे नाम में राजा भी है और शेर भी, और ना ही राजा कभी बूढ़ा होता है ना ही शेर’ इस बात पर राजविंदर बहुत हँसा करता था । राजविंदर में ये विशेषता थी की वो अपनी बातो से किसी रोते हुए को भी हँसा सकता था ।

इंजीनियरिंग में लड़के रात रात भर जागते है कुछ पढ़ाई करते है कुछ खुराफ़ात । हमारे कमरे से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक चाय की टपरी थी जिसे एक बाप और दो बेटे चलाते थे । बाप और एक बेटा सुबह से रात तक चाय की टपरी संभालते थे और दूसरा बेटा रात से सुबह तक । ऐसे वो ‘गुप्ता जी’ की चाय की टपरी 24X7 खुली रहती थी । कॉलेज की परीक्षाओ के समय हम लोग रात को कभी भी गुप्ता जी की चाय की टपरी पर चाय पीने चले जाते थे कभी रात्रि में 11:30 कभी रात्रि में 2:00 कभी सुबह 5:00 आदि आदि । रात के समय गुप्ता जी की चाय की टपरी पर काफी रिक्शा वाले भी बैठे रहते थे क्योकि वो बेचारे अपना घर चलाने के लिए रात में भी रिक्शा चलाते थे क्योकि रात मे पैसे थोड़े ज्यादा मिल जाते थे धीरे धीरे मेरी और राजविंदर की उन रिक्शावालों से भी अच्छी पहचान हो गयी थी ।

अब अगर हम लोगो को अपने घर (Hometown) जाना हो तो हम लोग रात को गुप्ता जी की चाय की टपरी पर से ही रिक्शा लेते थे क्योकि ज्यादातर ट्रेन मेरे और राजविंदर के Hometown के लिए रात में ही चलती थी तो घर जाते समय हम लोग पहले गुप्ता जी के यहाँ चाय पीते फिर वही से रिक्शा में बैठ कर रेलवे स्टेशन चले जाते । सामान्य तौर पर हम लोग ट्रेन का टिकट कई दिन पहले ही बुक करा लेते थे पर कभी कभी अचानक भी जाना पड़ता था ऐसे ही एक बार राजविंदर को अचानक अपने घर जम्मू जाना था सर्दी का समय था उसकी  ट्रेन  करीब रात के 12:30 पर बरेली आती थी । हम लोग रात 10:00 बजे के करीब गुप्ता जी की चाय की टपरी पर पहुंचे हमने चाय पी, फिर मैंने राजविंदर से पूछा ‘यार तेरा ट्रेन में टिकट बुक नहीं हुआ है तो टिकट और रास्ते के लिए पैसे है या नहीं ?’ तो राजविंदर ने कहा ‘Don’t worry यार 500 रूपये है’ मैंने कहा ‘ठीक है’ फिर हमे गुप्ता जी की चाय की टपरी पर ही एक जानने वाला रिक्शावाला मिल गया राजविंदर उस रिक्शा में बैठ गया मैंने उसे विदा किया और वापस कमरे की तरफ चल दिया ।

मैं घर आ कर सो गया अगले दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की रात को करीब 3:00 बजे राजविंदर का फ़ोन आया था उस समय सन 2001 में मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करता था तो राजविंदर का फ़ोन उस दोस्त के पास आया था जिसके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था मैंने उस दोस्त से घबरहाट और उत्सुकता से पूछा ‘क्या हुआ इतनी रात को उसने फ़ोन क्यों किया था ?’

उस दोस्त ने कहा ‘यार वो बिना टिकट यात्रा कर रहा था T.C. ने पकड़ लिया था तो किसी स्टेशन से फ़ोन कर के T.C. को ये confirm करा रहा था की वो स्टूडेंट है ताकि T.C. उसे छोड़ दे ‘ मैंने बोला ‘नहीं यार ऐसा कैसे हो सकता है जब वो गया था तो उसके पास 500 रूपये थे उतने में स्लीपर का टिकट आराम से आ जाता’ उस दोस्त ने कहा ‘पता नहीं यार’ । जब राजविंदर अपने घर से वापस आया तो सबसे पहले मैंने उससे यही पूछा ‘यार तेरे पास तो टिकट के लिए पैसे थे फिर बिना टिकट यात्रा क्यों कर रहे थे ?’ तो वो बोला ‘यार वो रामलाल चाचा वो जिनकी रिक्शा में बैठकर मैं स्टेशन तक गया था उनकी बच्ची बहुत बीमार थी और उनके पास डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे इसलिए मैंने 500 रूपये उन्हें दे दिए थे’ मैं मन में सोच रहा था की जो किसी और की परेशानी मे अपने पास के सारे पैसे किसी जरूरतमंद को देदे और बिना टिकट यात्रा करता हुआ पकड़ा जाये शायद उसी को सरदार बोलते हैं। दिल से सलाम है राजविंदर को ।

रस : वीर

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #3 – हृदय का नासूर… ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  “हृदय का नासूर…। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #3  साहित्य निकुंज ☆

 

हृदय का नासूर…

 

‘ मां क्या हुआ? इतनी दुखी क्यों बैठी हो?”

 

“बेटा क्या बताये आजकल लोग कितनी जल्दी विश्वास कर लेते है। सब जानते है अपनों पर विश्वास बहुत देर में होता है फिर भला ये कैसे कर बैठी अनजान पर विश्वास।

 

“मां कौन?”

 

“प्रिया और कौन?”

 

“ओह्ह …प्रिया आंटी सोहन अंकल की बेटी!”

 

“हाँ हाँ वही …”

 

“क्या हुआ?”

 

“अभी-अभी फोन आया प्रिया का तो वह बोली …दीदी बहुत गजब हो गया मैं कहे बिना नहीं रह पा रही हूँ पर आप किसी से मत कहना मन बहुत घबरा रहा है।

 

“अरे तू बोलेगी अब कुछ या पहेलियां की बुझाती रहेगी।“

 

“हाँ हाँ बताती हूँ …”

 

“एक दिन बस स्टेण्ड पर एक अजनबी मिला बस आने में देर हो रही थी और मैं ऑटो करने लगी तभी एक लड़का आया और बहुत नम्रता से बोला मुझे भी कुछ दूरी तक जाना है प्लीज मुझे भी बिठा लीजिये मैं शेयर दे दूँगा। मैं न जाने क्यूँ उसके अनुरोध को न टाल पाई और ठीक है कह कर बिठा लिया। अब तो रोज की ही बात हो गई वह रोज उसी समय आने लगा और न जाने क्यों? मैं भी उसका इन्तजार करने लगी। हम रोज साथ आने लगे और एक अच्छे दोस्त बन गए। उसने कहा “एक दिन माँ से मिलवाना है।”

 

हमने कहा…”हम दोस्त बन गए है अच्छे पर मेरी शादी होने वाली है हम ज़्यादा कहीं आते जाते नहीं न ही किसी से बात करते है पता नहीं आपसे कैसे करने लगे?”

 

वह बोला “…कोई बात नहीं फिर कभी …”

 

कुछ दिन बीतने पर वह दिखाई नहीं दिया हमे चिंता हो गई तो हमने फोन किया तो उसकी मम्मी ने उठाया वह बोली …”पापाजी बहुत बीमार है ऑपरेशन करवाना है अभि पैसों के इंतजाम में लगा है बेटा आते ही बात करवाती हूं।”

 

थोड़ी देर बाद अभि का फोन आया वह बोला “क्या बताये? पापा को अचानक हॉर्ट में दर्द हुआ और भर्ती कर दिया। अब ऑपरेशन के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत है 50 मेरे पास है 50 हजार की ज़रूरत है।

 

हमने कहा …”कोई बात नहीं हमसे ले लेना।”

 

वह बोला “नहीं … हमने कहा हम सोच रहे तुम्हारे पापा हमारे पापा।“ और अगले दिन उसे पैसा दे दिया। कुछ दिन बाद कुछ और पैसों से हमने मदद की। वह बोला…”हम तुम्हारी पाई-पाई लौटा देंगे। मुझे नौकरी मिल गई है हमें कंपनी की ओर से बाहर जाना है दो माह बाद आकर या तुम्हारे अकाउंट में डाल देंगे। कुछ दिन वह फोन करता रहा बातें होती रही एक दिन उसके फोन से किसी और दोस्त का फोन आया और वह बोला…

 

“मैं बाथरूम में फिसल गया पैर टूट गया है चलते नहीं बन रहा मैं जल्दी आकर तुम्हारा क़र्ज़ चुकाना चाहता हूँ।

 

हमने कहा “कोई बात नहीं …कुछ दिन बाद बैंक में डाल देना।“

 

बोला “ओके.”

 

दो चार दिन बाद हमने मैसेज किया “प्लीज पैसा भेजो।“

 

तब उसके दोस्त का फोन आता है “एक दुखद सूचना देनी है गलती से अभि की गाड़ी के नीचे कोई आ गया और एक्सिडेंट हो गया तो उसे पुलिस ले गई है। वह आपसे एस एम एस से ही बात करेगा आज मैं   यह फोन उसे दे दूँगा।“

 

हमने कहा…”हे भगवन ये क्या हो गया बेचारे की कितनी परीक्षा लोगे।”

 

कुछ समय बाद उसका मैसेज आया “मैं ठीक हूं जल्द ही बाहर आ जाऊंगा”।

 

तब हमने कहा …”आप अपने दोस्त से कहकर मेरा पैसा डलवा दो मेरी शादी है मुझे ज़रूरत है।”

 

वह बोला “ठीक है …”

 

फिर हमने कई बार मैसेज किया कोई जबाब नहीं आया।

 

तब मैं बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी एक साथ उसके साथ जो घटा वह वास्तव में था या सिर्फ़ एक नाटक था।

 

तब मन में एक अविश्वास का बीज पनपा और हमने उसका नंबर ट्रेस किया तो वह नंबर भारत में ही दिखा रहा था। यह जानकर मन दहल गया और वह दिन याद आया जब वह बहुत अनुरोध कर रहा था होटल चलने की कुछ समय बिताने की लेकिन हमने कहा “नहीं हमें घर जाना है यह सही नहीं है तुम्हारे साथ मेरा दोस्त रुपी पवित्र रिश्ता है।“

 

दीदी बोली… “बेटा पैसा ही गया इज्जत तो है। बेटा अब पछताये होत क्या जब… ।”

 

“अब अपने आप को कोसने के सिवा कोई चारा नहीं है दीदी। यह तो अब हृदय का नासूर बन गया है।”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆ जनरेशन गेप ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆

 

☆ जनरेशन गेप  ☆

 

पापाजी  उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है.  हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”

अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .

“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और  नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”

यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”

शायद  सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी.  इसलिए चुपचाप रोने लगी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #4 – वातानुकूलित संवेदना ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “वातानुकूलित संवेदना”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆

 

☆ वातानुकूलित संवेदना ☆

 

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।

देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी  बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।

घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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