(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की कविता “कैसी विडम्बना ? ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 14 ☆
गुरूजी कल फिर मैंने एक मनभावन सपना देखा,
मुरझाए फूल को हँसते-हँसाते आपका चेहरा ही देखा।
पल्लू को कस के पकड़े,पिता की उंगली थामे,
था बैठा मैं,न डर था न किसी से नफरत थी हमें
उम्र ने दी दस्तक,चल पाठशाला के आँगन में,
लिए हाथ कोरी पाटी और विश्वास भरे मन में
न चाहते हुए भी पाटी पर शब्दों को उभरे देखा।
आपको फिर बच्चा बनाए आपसे गीत सुनवाएँ,
बचपन के आँगन में,दोस्तों के साथ गीत गाए
उसकी पाटी,मेरी पेन्सिल,प्यारे झगड़े हमें भाए,
मन में गुस्सा पल का,अगले पल फिर गले मिल जाए
हमारे गुस्से-प्यार में आपका मन-मुस्काता चेहरा देखा।
नासमझ से समझदार बाबू हम बन गए,
हमारी शरारतें भी अपनी आदत मानकर सह गए
दिखाई जो श्रद्धा हम पर,आप आगे चल दिए,
मुड़कर न देखना कहकर,हमें आगे बढ़ाते जो गए
गुरूजी उन हाथों को और प्यार को सख्त होते जो देखा।
गिरकर उठना,उठकर चलना,आपने ही सिखाया,
भटके हुए थे कभी बचपने में,सही रास्ता भी दिखाया
अहंकार ने जब भी छुआ,नम्रता का पाठ भी पढ़ाया,
खोए कभी उम्मीद अपनी,रोशनदान बन सबेरा उगाया,
यौवन की बेला पर हमें संभालते हुए फिर से आपको देखा।
गुरूजी,आज वह परछाई फिर से ढूंढ रहा हूँ,
शायद जिंदगी की तलाश में अपने तन की
खोखली उम्मीदों के बीच खोई रूह ढूँढ रहा हूँl
जो कभी बचपने से यौवन तक आपने सँभाली थी,
उसे आपकी परछाई के तले सुमन-सा बिछता हुआ देखा ।
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ काल….! ☆
जिन्हें तुम नोट कहते थे
एकाएक कागज़ हो गए,
अलबत्ता मुझे फ़र्क नहीं पड़ा
मेरे लिए तो हमेशा ही कागज़ थे,
हर कागज़ की अपनी दुनिया है
हर कागज़ की अपनी वज़ह है,
तुम उनके बिना जी नहीं सकते
मैं उनके बिना लिख नहीं सकता,
सुनो मित्र!
लिखा हुआ ही टिकता है
अल्पकाल, दीर्घकाल
या कभी-कभी
काल की सीमा के परे भी,
पर बिका हुआ और टिका हुआ
का मेल नहीं होता,
न दीर्घकाल, न अल्पकाल
और काल के परे तो अकल्पनीय!
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ के सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
आज हम डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी के सम्मान में कैप्टन प्रवीणजी के मित्र श्री सुमीत आनंद जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी कविता “The gentleman down the street” का हिन्दी भावानुवाद “विजय अवतरित सज्जनता…” प्रस्तुत कर रहे हैं।
संक्षिप्त परिचय:
डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी का जन्म 4 अगस्त, 1924 को हुआ था। आप हिन्दी के समकालीन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप जर्मनी के फ्रैंकफुर्त शहर में स्थित जॉन वौल्फ़गॉग गोएटे विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्त प्राध्यापक हैं।
श्री सुमीत आनंद जी के ही शब्दों में –
4 अगस्त 2019 को फ्रैंकफोर्ट (जर्मनी) में आदरणीय डॉ इन्दु इंदु प्रकाश पाण्डेय जी के 95 वें जन्मोत्सव पर उनके स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए मैंने “The gentleman down the street” शीर्षक से पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की प्रच्छन्न विशेषताओं को उजागर करते हुए एक कविता लिखी थी. मेरे अनन्य मित्र और हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू के मर्मज्ञ विद्वान् कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने मेरे अनुरोध करने पर इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है.
प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने हिंदी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है.
मुझे विश्वास है कि पाण्डेय जी के असंख्य हिंदी पाठक, प्रशंसक, इष्ट-मित्र और विद्यार्थी इसे पढ़कर एक बार फिर से उनके लिए शुभकामनाएँ अर्पित करेंगे.
– सुमीत आनंद
☆ विजय अवतरित सज्जनता… ☆
बस जैसे ही मैंने सोचा
कि अब शिष्टता मर चुकी है
वाक्पटुता भी मृतप्राय है
मौलिक भद्रता मरणासन्न है
तभी जीवन में सज्जनता स्वरूप
आपका आगमन हुआ…
आपका अपनी
जीवन की अनूठी कहानियों का,
अपने दीर्घ अनुभवों के
खज़ाने का द्वार मेरे लिए खोलना
और मुझे सिखाना
जीवन के छोटे-बड़े आनंद
का नित्य लुत्फ उठाना…
आपका
एक ज्योतिपुंज होना
प्रेमभाव से परिपूरित होना
और हम सभी को
इन्हीं ईश्वरीय भावों से ओतप्रोत करना…
जीवन को सम्पूर्णता से प्रेम करना
फिर भी हमेशा निर्लिप्त भाव में रहना
एक श्वेत कपोत की भांति अल्हड़, मस्त और पवित्र…
प्रत्येक दिन एक अपरिमित
उन्मुक्तता के साथ जीना
जीवन के तूफानों का
एक मुस्कान के साथ
एक फ़क़ीराना अंदाज़ में,
शांत व साहसी भाव से
निरंतर सामना करना…
जबसे जीवन में सज्जनता स्वरूप
आपका प्रादुर्भाव हुआ…
हर गुज़रता पल
हर गुज़रता वर्ष
ये अहसास दिलाता रहा कि
आपका शाश्वत सामीप्य
हमे प्रेम-विभोर कर रहा है…
निरंतर आशीष दे रहा है…
हिंदी अनुवादः प्रवीण रघुवंशी
The Original poem – ☆ The gentleman down the street ☆
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है गीत – कविता “स्वयं से सदा लड़े हैं…..”। )
(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)
(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “सवाल अभी बाकी हैं…”।