हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ? ?

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का आप,

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन,

कविता से मिलन,

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

© संजय भारद्वाज 

(संध्या 7:15 बजे, दि. 30.5.2016)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #23 ☆ कविता – “यहाँ भी और वहाँ भी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 23 ☆

☆ कविता ☆ “यहाँ भी और वहां भी…☆ श्री आशिष मुळे ☆

वहाँ ठहरा यहाँ बरसा

मौसम तो मौसम है

वहाँ जलाती यहाँ डुबाती

बारिश तो बारिश है

यहाँ भी और वहाँ भी….

 

वहाँ सपनों में यहाँ सच्चाई में

धूप तो धूप है

वहाँ बैठी अकेली यहाँ कब से लापता

छांव तो छांव है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहाँ आंखो में यहाँ लब्जों में

दर्या तो दर्या है

वहाँ रूह उबलता यहाँ कागज़ गलाता

पानी तो पानी है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहां भी जिंदगी यहां भी जिंदगी

चाहत उसकी निशानी है

वहां भी मौत यहां भी मौत

सेज चिता की अग्नि है

यहाँ भी और वहां भी……

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 183 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 183 ☆

☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

      प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

     कहतीं कई कहानी।।

 

काश! परी यदि मैं बन जाती

      हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

      शाला पढ़ने  जाता।।

 

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

      खेल खेलती सँग में।

 पर्वों पर उपहार बाँटती

      रँग जाती मैं रँग में।।

 

सैर भी करती बाग बगीचे

     उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

      रहती सदा मगन मैं।।

 

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

     सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

       घूम मजे कर लेती।।

 

नींद हो गई सुंदर पूरी

      सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

       चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #206 – कविता – ☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “अदले बदले की दुनियाँ…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #206 ☆

☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

ऊषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

 

अदले बदले की

दुनिया के हैं रिश्ते

जो न समझ पाये

कष्टों में वे पिसते,

कठपुतली से रहे, नाचते पर वश में

स्वाभाविक ही, मन को यही लुभाये….

 

थे जो मित्र आज

वे ही हैं प्रतिद्वंदी

आत्म नियंत्रण कहाँ

सभी हैं स्वच्छंदी,

अतिशय प्रेम जहाँ, ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही, झूठे स्वप्न दिखाए….

 

चाह सभी के मन में,

आगे बढ़ने की

कैसे भी हो सफल

शिखर पर चढ़ने की,

खेल चल रहे हैं, शह-मात अजूबे से

समय आज का, सबको यही सिखाए….

 

आदर्शों को पकड़े

अब भी हैं ऐसे

कीमत जिनकी आँके

वे कंकड़ जैसे,

हर मौसम के वार सहे,आहत मन पर

रूख हवा का, समझ नहीं जो पाये….

उषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खुलकर गीत गाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मर्सिया पढ़ने से अच्छा

आओ खुलकर गीत गाएँ।

 

माना कठिन है समय

पर उसका ही रोना

कहाँ की है समझदारी

कुछ तो लिखो ऐसा कि

घटते हौसलों में भी

घिरे न यह ज़िंदगी सारी

 

दर्द को ढोने से अच्छा

सुख को काँधों पर उठाएँ।

 

धूप से गठजोड़ कर

हमने खरीदीं रात

मेहनत बेचकर काली

शब्द के घनघोर वन

में बजाते हैं खड़े हो

बस ज़ोर से ताली

 

क्या नियति है यही अपनी

आओ तोड़ें वर्जनाएँ ।

 

दर्द की बैसाखियों पर

चले कब तक ज़िंदगी

उमर घटती जा रही है

जोड़ कर हासिल हुई

आँसुओं के हाथ से

खुशी बँटती जा रही है

 

जो मिला जैसा उसी में

तलाशें संभावनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मन ? ?

सार्वकालिक चर्चा है

प्रकृति की

सनातन गूढ़ता,

अध्यात्म दिखाता है

कण-कण में छिपा गूढ़,

विज्ञान दर्शाता है

सजीवों की संरचना में

अंतर्निहित दुरूहता,

दर्शन और मनोविज्ञान

गूढ़ता की सरलता और

क्लिष्टता के बीच

शोधन और

संशोधन में विचरते हैं,

ये सब

पढ़ते-सुनते-गुनते

मन जाने कहाँ-कहाँ

चक्कर लगा आया,

अपवादस्वरूप ही

देह के साथ रहा,

बाकी विदेह-सा

ब्रह्मांडका भ्रमण कर आया,

एक निष्कर्ष मेरा भी है-

कस्तूरी मृग-सा रूढ़ है,

बाहर क्या देखें

मन सबसे गूढ़ है!

© संजय भारद्वाज

(अपराह्न 4:34 बजे, दीपावली, 11.11. 2015 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब अमावस की लगती पूनम सी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “शब अमावस की लगती पूनम सी“)

✍ शब अमावस की लगती पूनम सी ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

तय नहीं जिसका भी सफ़र होता

आदमी वो ही दर-बदर होता

ठोकरें तेरे है मुक़द्दर में

क्यों नसीहत का फिर असर होता

अज़्म जिसका रहा बड़ा पुख्ता

उसको अंजाम का न डर होता

हो वजनदार सीखता झुकना

तू भी किरदार से शज़र होता

छल फरेबों के होते कब नरगे

पाक सबका अगर जिगर होता

मजहबी फिर न होते ये दंगे

बस समझदार हर बशर होता

ज़र का चश्मा उतार लेते तुम

उजड़ा दिल का नहीं नगर होता

हो मुहाजिर न काटते जीवन

छोड़ विरसे को जो इधर होता

शब अमावस की लगती पूनम सी

साथिया पास जो क़मर होता

ए अरुण प्यार है नहीं जिसमें

छत पड़ी होने से न घर होता

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 28 – बेशर्मी के ताले… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बेशर्मी के ताले।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 28 – बेशर्मी के ताले… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

सत्ता के कानों में हैं

बेशर्मी के ताले 

 

राजनीति में छुटभैये 

बछड़े भर रहे कुलाँचें 

किसको पड़ी जरूरत 

अपना संविधान बाँचें 

कुछ तो बंद किये हैं

कुछ की आँखों में जाले 

 

जहाँ देखिये वहीं घिरे हैं 

आतंकी बादल 

होते हैं विस्फोट 

भला क्या कर लेगी सांकल 

राजनीति की गंगा में

मिल रहे अपावन नाले 

 

सारस्वत मंचों ने 

कैसी ओढ़ी फूहड़ता 

जहाँ चुटकुलेबाज 

बड़ी बेशर्मी से पढ़ता 

कवि-कवित्रियाँ, लगें कि

जीजा, साली औ’ साले

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 105 – मनोज के दोहे… ☆

1 चाँद

हाथ थाम कर चल प्रिये, प्रेम भरी सौगात।

चाँद हँसा आकाश में, शरद पूर्णिमा रात।।

2 चकोर

नयना चंद्र चकोर बन, प्रिय को रहे निहार।

विरहन-सी रातें लगें, प्रतिदिन लगते भार।।

3 चंद्रिका

शरद रात में चंद्रिका, झिलमिल लगे अनूप।

शृंगारित दुल्हन बनी, धरे मोहनी रूप।।

4 चंद्रमुखी

देख रही आकाश में, चंद्रमुखी वह चाँद।

स्वप्न सलौने बुन रही, प्रेमिल सी उन्माद।।

5 पूनम

पूनम का वह चाँद फिर, खिला आज आकाश।

पृथ्वी पर बिखरा रहा, दुधिया नवल प्रकाश।।

6 शरद

शरद ऋतु ने ठंड की, बिखराई सौगात।

ओढ़ दुशाला काँपते, बूढ़ों की जगरात।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ध्रुवीय समीकरण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ध्रुवीय समीकरण ? ?

सेलेब्रिटी

नहीं कर पाते सेलेब्रेट

अपने लिए

नितांत अपने क्षण,

दूभर हो जाता है

24 बाय 7

कैमरे के आगे

सार्वजनिक होते

जन-नेता का

हर निजी पल,

अनुभव की सीख है,

दुनिया की रीत है,

हर अति

मांगती है

अपनी ऊँची कीमत,

पहाड़ की चोटी

जितनी संकरी

जितनी नुकीली,

उतना ही ढलवा होता है

उसका उतार भी,

फिर भी,

अनादि काल से

पहाड़ हैं,

चोटियाँ हैं,

चुनौतियाँ हैं,

आदमी है,

संकरेपन को

जीतने की

जिजीविषा है,

जीतकर

सार्वजनिक होने की

निजी आकांक्षा है,

निजता और

सार्वजनिकता का

अपना-अपना

आभास है,

ध्रुवीय समीकरण है,

दोनों में

आकंठ आकर्षण है,

दोनों में

कर्कश विरोधाभास है!

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 8 बजे, 13.11.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

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