डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
कविता, गजल, शायरी आदि।
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो
तरक्की कहाँ से कहाँ लेके आई
बेफिक्री वाली वो दुनिया भुलाई
सबकुछ तो है पर सुकून खो गया है
कोई फिर से मेरी वो बेफिक्री लौटा दो
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो
वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो..
रोज बनाती हूँ नए आयाम
भागती हूँ दौड़ती हूँ छूने को ऊँचाइयाँ
गगन चुंबी इमारतों में खुद ही खो जाती हूँ
शाम को लौटकर दो पल सुकून के तलाशती हूँ
सुकून से भरी वो सूखी घास की ठंडी छत
कोई ला सकता हो तो फिर से ला दो
वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो
कोई मुझे……..
वो नानी और दादी की परियों की कहानी
राजा रानी के मरने से होती खतम थी
अम्मा की डाँट और दादी की पुचकार
चंदा की रोशनी से जगमग तारों भरी रात
वो तारों को गिनती हुई ठंडी रातें लौटा दो
दादी की कहानियों की सौगातें लौटा दो
कोई मुझे……
वो बरसाती अंधेरी रातों में जुगनू का चमकना
वो जुगनू संग आकाश का धरती पे उतरना
बंद कर हथेली में फिर उनको उड़ाना
वो रंग-बिरंगी तितलियाँ के पीछे दौड़ लगाना
वो कोयल की कूक सुन उसको चिढ़ाना
कोई तो कोयल की मधुर कूक फिर सुना दो
वो रंग-बिरंगी तितलियाँ कोई फिर दिखा दो
कोई मुझे……
वो घर से निकलते स्कूल की पगडंडी पर
लहलहाते खेत गन्नों के वो फिर से दिखा दो
चलो खाएँ गन्ने खाएँ छीमियाँ मटर की
अपने छोड़ दूजे खेतों की राह फिर दिखा दो
नून मिर्च की चटनी संग चने के फुनगी का साग
भूल गई रसना वो स्वाद फिर चखा दो
बड़ी हो गई हूँ फिर बच्चों सी चोरी सिखा दो
कोई मुझे……..
बच्ची थी जब तब ये बड़प्पन था लुभाता
तरह-तरह के सब्जबाग था दिखाता
बताया नहीं इसने कभी
कि गया बचपन न लौटेगा
पाने को इसको कभी फिर मन तरसेगा
फिर न देखूँगी बड़े होने के सपने….2
ले लो सारे सपने वो बेफिक्री लौटा दो
कोई मुझे…….
वो बारिश के पानी में घंटों नहाना
वो हल्दी वाले दूध संग माँ की मीठी डाँट खाना
भूल सारी मस्ती माँ के गर्म आँचल में दुबक जाना
और बिना देरी किए माँ का वैद्य से दवाई ले आना
और नहीं कुछ तो वैद्य की वो कड़वी पुड़िया ही लौटा दो
वो चिकनी मिट्टी से पुता घर-आँगन लौटा दो
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो।
जीवन की भाग-दौड़ में जीना ही भूल गई हूँ
माँ के बिन जीते-जीते
बचपन से कितनी दूर आ गई हूँ
नहीं चाहिए ऊँचाई
मुझे रोज की वो ठोकरें लौटा दो
वो गिरकर फूटे घुटनों के
घाव फिर दिखा दो
वो घाव पे हल्दी लगाती माँ की मीठी सी छुवन फिर लौटा दो
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो
वो चिकनी ……….
आज डनलप के मुलायम गद्दे हैं पर नींद रूठ गई
पहले सर्दी में दादी पुआल बिछाती थी
बड़े ही सुकून भरी वो रात होती थी
एक ही रजाई में पुआल के गद्दे पे
सोते थे सभी साथ, होती थी चुहलबाजियाँ
वो पुआल की मीठी सी गरमाहट तो ला दो
नींद वाली सुकून भरी रातें ही लौटा दो
कोई मुझे…….
चिकनी मिट्टी…….
दिवाली पे आँगन में मिट्टी के घरौंदे
रंग मिले चूने की सफेदी से थे चमकते
बड़ों की दुनिया से जुदा
दिवाली के दीयों से जगमगाता…
हमें महलों का अहसास था कराता।
वो मिट्टी का घरौंदा फिर से बना दो
उसमें वो राम दरबार की तस्वीर भी सजा दो
कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दो
चिकनी मिट्टी से पुता…..
बड़ी हो गई हूँ तरक्की भी कर लिया है
कमा के रुपैय्या बैंक बैलेंस भर लिया है
फिरभी
फिर भी आँखें खोजती हैं वो मिट्टी की गुल्लक
जिसमें भरे होते बाबूजी के दिए अठन्नी चवन्नी के सिक्के
मेरे बैंक खातों को कोई वो गुल्लक का पता दो
ले लो चेक मेरे बैंक बैलेंस भी ले लो
फिर से मुझे उस गुल्लक की खनक तो सुना दो
कोई मुझे….
वो चिकनी मिट्टी……
© मालती मिश्रा ‘मयंती’
सुश्री मीनाक्षी भालेराव
रसोई
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।
अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।
खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।
थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से
तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे
सुश्री गुंजन गुप्ता
(युवा कवयित्री सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)
गीत
मैं चन्दा की धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥
जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥
संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥
मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥
© सुश्री गुंजन गुप्ता
गढ़ी मानिकपुर, प्रतापगढ़़ (उ प्र)
सुश्री नूतन गुप्ता
पेंसिल की नोक
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना श्री विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा “पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां“ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है सुश्री नूतन गुप्ता जी की भावप्रवण कविता ।)
© नूतन गुप्ता
श्री विवेक चतुर्वेदी
पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां
(संयोग से इसी जमीन पर इसी दौरान एक और कविता की रचना सुश्री नूतन गुप्ता जी द्वारा “पेंसिल की नोक “ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज ये दोनों कवितायें जिनकी अपनी अलग पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की भावप्रवण कविता ।)
डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल
…. तो ज़िंदगी मिले
(प्रस्तुत है डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की एक बेहतरीन गजल)
जी डी पी उछल रही हमें फक्र है खुदा,
तू खैरात बाँटना छोड़ दे तो जिंदगी मिले॥1॥
खेतों में सपने बोये फसल काटे जहर का,
रब को अगर तू बख्श दे तो ज़िंदगी मिले॥2॥
ऊपर औ नीचे बीच में मध्यम है पिस रहा,
नज़रें इनायत हो तो इधर ज़िंदगी मिले ॥3॥
जय जवान, जय किसान, विज्ञान की है जय,
तू धर्म बेचना छोड़ दे तो जिंदगी मिले ॥4॥
मजबूर नहीं था कभी, अब मजलूम हो गया,
मज़लूमों को अगर बख्श दे तो जिंदगी मिले ॥5॥
हमने खून-पसीने से सींचा है हिंदुस्तान ‘उमेश’
तू खून पीना छोड़ दे अगर तो जिंदगी मिले ॥6॥
© डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
चलो बुहारें…..
चलो जरा कुछ देर स्वयं के
अंतर में मुखरित हो जाएं
अपने मन को मौन सिखाएं।
जीवन को अभिव्यक्ति देना
शुष्क रेत में नौका खेना
दूर क्षितिज के स्वप्न सजाए
पंखहीन पिंजरे की मैना,
बधिर शब्द बौने से अक्षर
वाणी की होती सीमाएं। अपने मन को…..
बिन जाने सर्वज्ञ हो गए
बिन अध्ययन, मर्मज्ञ हो गए
भावशून्य, धुंधुआते अक्षर
बिन आहुति के यज्ञ हो गए,
समिधा बने, शब्द अंतस के
गीत समर्पण के तब गायें। अपने मन को…..
तर्क वितर्क किये आजीवन
करता रहा जुगाली ये मन
रहे सदा अनभिज्ञ स्वयं से
पतझड़ सा यह है मन उपवन,
महक उठें महकाएं जग को
क्यों न हम बसन्त बन जाएं। अपने मन को…..
कब तक भटकेंगे दर-दर को
पहचानें सांसों के स्वर को
खाली हों कल्मष कषाय से
चलो बुहारें अपने घर को
करें किवाड़ बन्द, बाहर के
फिर भीतर, एक दीप जलाएं। अपने मन को….
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
श्री विवेक चतुर्वेदी
दुनिया भर के बेटों की ओर से…
(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)
एक दिन सुबह सोकर
तुम नहीं उठोगे बाबू…
बीड़ी न जलाओगे
खूँटी पर ही टंगा रह जाएगा
अंगौछा…
उतार न पाओगे
देर तक सोने पर
हमको नहीं गरिआओगे
कसरत नहीं करोगे ओसारे
गाय की पूँछ ना उमेठेगो
न करोगे सानी
दूध न लगाओगे
सपरोगे नहीं बाबू
बटैया पर चंदन न लगाओगे
नहीं चाबोगे कलेवा में बासी रोटी
गुड़ की ढेली न मंगवाओगे
सर चढ़ेगा सूरज
पर खेत ना जाओगे
ओंधे पड़े होंगे
तुम्हारे जूते बाबू…
पर उस दिन
अम्मा नहीं खिजयाऐगी
जिज्जी तुम्हारी धोती
नहीं सुखाएगी
बेचने जमीन
भैया नहीं जिदयाएंगे
उस दिन किसी को भी
ना डांटोगे बाबू
जमीन पर पड़े अपलक
आसमान ताकोगे
पूरे घर से समेट लोगे डेरा बाबू … तुम
दीवार पर टंगे चित्र
में रहने चले जाओगे
फिर पुकारेंगे तो हम रोज़
पर कभी लौटकर ना आओगे ।।
© विवेक चतुर्वेदी
सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
रौशनाई
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की एक भावप्रवण कविता।)
ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?
क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?
बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,
बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!
क्या एक पल की रौशनी है,अंधेरा छोड़ जायेगी?
या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?
डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,
कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!
ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,
जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!