हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिहीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कविता ? ?

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

मानसरोवर का अनहद,

शिवालय का नाद कविता,

अयोध्या का चरणामृत,

मथुरा का प्रसाद कविता,

अंधे की लाठी,

गूँगे का संवाद कविता,

बारम्बार करता नमन संजय,

माँ सरस्वती साक्षात कविता!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #47 – नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का।)

? रचना संसार # 47 – नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

बदला है परिवेश हमारा,

फटते वसन पुराने हैं।

रीति-रिवाजों को भूले सब,

दो आँखों के काने हैं।

 *

सभी रसोई  हुई आधुनिक,

सिलबट्टा  अब ओझल है।

टूटे मिट्टी के चूल्हे हैं,

नीर बहाता ओखल है।।

कुतर रहे पीतल के बर्तन,

चूहे बड़े सयाने हैं।

 *

भीषण दोहन हुआ प्रकृति का,

लुप्त हो रहे हैं जंगल।

दंश मारते लोभी बिच्छू,

यश-वैभव के हैं दंगल ।।

निगल रहे छोटी मछली को,

मगरमच्छ से थाने हैं।

 *

दर्प दिखाता अब दिनकर भी,

हुआ  विदेशी है घन भी।

पीली पड़ी दूब आँगन की,

घटते जाते पशुधन भी।।

ढोल बजाते लोभी नेता,

दाँव-पेंच सब जाने हैं।

 *

बंद फाइलों में घोटाले,

क्रोधित होता है  सागर।

जोशीमठ की देख त्रासदी,

विचलित जग है नटनागर ।।

खोटे सिक्के राजनीति के,

अम्मा चलीं भुनाने हैं।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #274 ☆ भावना के दोहे – जिंदगी ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – जिंदगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 274 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – जिंदगी ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

आँधी से डरता नहीं, नहीं रुके हैं पाँव।

चलते जाना मार्ग में, मगर कहाँ है छाँव।।

*

उजड़ गई है ज़िन्दगी, घर सारा वीरान।

दिल में सबके उठ रहा, हिंसा का तूफ़ान।।

*

बिन मौसम बरसात हो, ओलों की भरमार।

बिगड़ी उपज किसान की, करते सुधी विचार।।

*

सुखमय मौसम में उठा, कैसा झंझावात।

भेंट चढ़ा आतंक की, होता है प्रतिघात।।

*

बात-बात पर क्यों भला, नित्य अकारण क्रोध।

पहले तो तुमने कभी, किया न तनिक विरोध।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #256 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 256 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

करें सृजन ऐसा सदा, बढ़े राम से प्रीति |

राम नाम का जाप कर, चलें नीति संग रीति ||

*

प्रेम प्रकट उनसे किया, शब्द हुए तब मूक |

भाव चेहरे के कहें, अन्तस के हर रूप ||

*

नैनों से नैना मिलें, होकर जब आसक्त |

झुके नयन खुद ही करें, प्रेम आपना व्यक्त ||

*

कहने को तो जगत में, सुख के दिवस अनंत |

दुख का रेला बहे तो, सुख का होता अंत ||

*

सुख की गहराई कभी, माप सका है कौन |

दुख के दल दल में फँसे, प्रश्न खड़े हैं मौन ||

*

जीवन भर छूटे नहीं, सुख की गहरी आस |

जीवन मर्यादित रहे, यही बात है खास ||

*

दो मुख के संसार में, करते दुहरी बात |

चाल दुरंगी चल रहे, आज यही हालात ||

*

तन मन जन धन पर कभी, करना नहीं गुमान |

तभी बढ़ेगा आपका, इस जीवन में मान ||

*

कोरी बातों से कभी, बनें न कोई काम |

मिलते निष्ठा, लगन से, हमें सुखद परिणाम ||

*

अन्तस की सुनिए सदा, कहता यह संतोष |

रखें नियंत्रित जीभ को, किए बिना ही रोष ||

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पसोपेश ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पसोपेश ? ?

बहुत बोलते हो तुम,

उस रोज़ ज़िंदगी ने कहा था..,

मैंने ख़ामोशी ओढ़ ली

और चुप हो गया…

 

अर्से बाद फिर

किसी मोड़ पर मिली ज़िंदगी,

कहने लगी-

तुम्हारी ख़ामोशी

बतियाती बहुत है…,

 

पसोपेश में हूँ

कुछ कहूँ या चुप रहूँ…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 249 ☆ बाल सजल – फुर्र – फुर्र उड़ जाते मिट्ठू… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 249 ☆ 

☆ बाल सजल – फुर्र – फुर्र उड़ जाते मिट्ठू ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दूध-जलेबी खाते मिट्ठू।

मीठा गीत सुनाते मिट्ठू।।

 *

रोज हमें विज्ञान पढ़ाते

खुशियाँ रोज लुटाते मिट्ठू।।

 *

पढ़ते रामायण , गीता हैं

सच में ज्ञान बढ़ाते मिट्ठू।।

 *

कभी न करते ऊधमबाजी

जीवन कला सिखाते मिट्ठू।।

 *

कितने प्यारे लगें दुलारे

बिस्किट ,चावल खाते मिट्ठू।।

 *

रोज भोर में जग जाते हैं

कभी न आलस लाते मिट्ठू।।

 *

संग – साथ में रहें सदा ही

फुर्र – फुर्र उड़ जाते मिट्ठू।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 102 ☆ प्यासा हिरण है ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “प्यासा हिरण है” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 102 ☆ प्यासा हिरण है ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मरुस्थल की

चमचमाती धूप

पानी के भरम में

मर गया प्यासा हिरण है।

 

शांति के स्तूप

जर्जर हो गये

लिखी जानी है

इबारत अब नई

टूटकर ग्रह

आ गये नीचे

ढो रहा युग

अस्थियाँ टूटी हुई

 

संधियों पर

है टिकी दुनिया

ज़िंदगी के पार

शेष बस केवल मरण है।

 

जंगलों में

घूमते शापित

पत्थर कूटते

राम के वशंज

धनु परे रख

तीर के संधान

भुलाकर विरासत

जी रहे अचरज

 

परस पाकर

अस्मिता के डर

जागे हैं ह्रदय में

सोच में सीता हरण है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 105 ☆ मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 105 ☆

✍ मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सच का अहसास कराते हैं चले जाते हैं

ख़्वाब तो ख़्वाब हैं आते हैं चले जाते हैं

जो हक़ीक़त न हो उससे न रब्त रखना है

ये छलावा है सताते है चले जाते हैं

 *

मस्जिदें और शिवाले न परिंदों को अलग

बैठते खेलते खाते है चले जाते हैं

 *

बुज़दिलों और जिहादी की न पहचान अलग

दीप धोखे से बुझाते हैं चले जाते  हैं

 *

इन हसीनों की अदाओं से बचाना खुद को

मुस्करा दिल को चुराते हैंचले जाते हैं

 *

बादलों जैसी ही सीरत के बशर कुछ देखे

गाल बस अपने बजाते है चले जाते हैं

 *

ज़ीस्त में  मिलती हैं तक़दीर से ऐसी हस्ती

हमको इंसान बनाते है चले जाते  हैं

 *

रहनुमाओं से सिपाही हैं वतन के  बेहतर

देश पर जान लुटाते है चले जाते  हैं

 *

रोते आते है मगर उसका करम जब हो अरुण

 फ़र्ज़ हँस हँस के निभाते है चले जाते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता।)

✍ मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता… ☆ श्री हेमंत तारे  

ग़र ये दिन,  अलसाये से  और शामें सुस्त ही न होती

तो सच मानो,  ये किताब  वजूद में आयी ही न होती

*

मैं कोई  गीत,  ग़ज़ल,  नज़्म,  अशआर कैसे लिखता

ग़र  मेरी  माँ ने   रब से  कभी  दुआ मांगी ही न होती

*

लाजिम है गुलों कि महक से चमन महरूम रह जाता

ग़र थम – थम कर मद्दम वादे – सबा चली ही न होती

*

क्या पता परिंदे चरिंदे अपना नशेमन कहाँ बनाने जाते

ग़र दरख़्त तो पुख्ता होते पर उन पर  डाली ही न होती

*

वादा करना और फिर मुकर जाना तुम्हे ज़ैब नही देता

ग़र अपने पे ऐतिबार  न था तो कसम खाई ही न होती

*

जानते हो “हेमंत” शम्स ओ क़मर रोज आने का सबब

ग़र ये रोज न आते रोशन दिन, सुहानी रातें ही न होती

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मुरझाये देखती कभी चेहरे जो लाल के, 

रखती कलेजा सामने थी माँ निकाल के,

बीमार वृद्ध माँ को उसके समर्थ बेटे 

असहाय छोड़ देते हैं घर से निकाल के।

0

कोई तीरथ न माँ के चरण से बड़ा, 

माँ का आँचल है पूरे गगन से बड़ा, 

माँ की सेवा को सौभाग्य ही मानना 

कोई वैभव न आशीष धन से बड़ा।

0

सम्बन्धों के तोड़े जिनने धागे होंगे, 

तृष्णा में घर-द्वार छोड़कर भागे होंगे, 

छाया कहीं न पायेंगे वे ममता वाली 

पछताते वे जाकर वहाँ अभागे होंगे।

0

खुद रही भींगी हमें सूखा बिछौना दे दिया 

भूख सहकर भी हमें धन दृव्य सोना दे दिया 

कर दिया सब कुछ निछावर माँ ने बेटों के लिए

वृद्ध होने पर उसे, बेटों ने कोना दे दिया।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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