हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 33 ☆ मुक्तक ।। यहीं इसी धरती को हमें, स्वर्ग बनाना है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।। यहीं इसी धरती को हमें, स्वर्ग बनाना है।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 33 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। यहीं इसी धरती को हमें, स्वर्ग बनाना है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

हो विरोध कटुता फिर बात प्यार की नहीं होती।

हो मतभेद मनभेद तो बात इकरार की नहीं होती।।

जब दिल का कोना कोना नफरत में लिपटता है।

तो कोई बात आपस में सरोकार की नहीं होती।।

[2]

हम भूल जाते कोई अमर नहीं एक दिन जाना है।

जाकर प्रभु से कर्मों का खाता जंचवाना है।।

ऊपर जाकर स्वर्ग नरक चिंता मत करो अभी।

हो तेरी कोशिश हर क्षण यहीं स्वर्ग बनाना है।।

[3]

एक ही मिला जीवन कि बर्बाद नहीं करना है।

मन में नकारात्मकता भाव आबाद नहीं करना है।।

चाहें सब के लिए सुख तो हम सुख ही पायेंगे।

भूल से किसी के लिए गलत फरियाद नहीं करना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना कल सम्पन्न हुई। अगली साधना के लिए समय पूर्व आपको जानकारी प्रदान की जवेगी।  

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – वर्जनाएँ  ??

इस रचना की दृष्टश्रव्य प्रस्तुति >> वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं शब्द- संजय भारद्वाज  स्वर- सतीश कुमार

ऊहापोह में बीत गया समय,

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ,

जीवन भर मन मथती रहीं,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो,

आजीवन पा न सके वो,

पग-पग साँकल कसती रही,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ,

जाने कितनी जिज्ञासाएँ,

अबूझ जन्मीं, अबूझ मरती रहीं,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन, असीम इच्छाएँ,

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की गाथाएँ,

पल-पल जीवन हरती रहीं,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर है जीवन टिका,

हर साँस में इक जीवन बसा,

साँस-साँस पर घुटती रही,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो,

अपनी तरह जीकर देखो,

चकमक में आग छुपी रही,

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 99 ☆ ’’हे नाथ तुम्हीं जग के स्वामी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “कल्पना का संसार…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 99 ☆ गज़ल – कल्पना का संसार” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मनुज मन को हमेशा कल्पना से प्यार होता है

बसा उसके नयन में एक सरस संसार होता है।

जिसे वह खुद बनाता है, जिसे वह खुद सजाता है

कि जिसका वास्तविकता से अलग आकार होता है।

जहाँ हरयालियां होती, जहाँ फुलवारियां होती

जहाँ रंगीनियों से नित नया अभिसार होता है।

जहाँ कलियां उमगतीं है जहाँ पर फूल खिलते हैं

बहारों से जहाँ मौसम सदा गुलजार होता है।

जहाँ पर पालतू बिल्ली सी खुशियां लोटती पग पै

जहाँ पर रेशमी किरणों का वन्दनवार होता है।

अनोखी होती है दुनियां सभी की कल्पनाओं की

जहाँ संसार पै मन का मधुर अधिकार होता है।

जहाँ सब होते भी सच में कहीं कुछ भी नहीं होता

मगर सपनों में बस सुख का सुखद संचार होता है।      

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #149 ☆ भावना की शब्दांजलि – तुम यहीं हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। 8 सितम्बर 2015 को चिर विदा लेने वाली परम आदरणीया गुरु माँ डॉ गायत्री तिवारी जी को सजल श्रद्धांजलि! आज प्रस्तुत हैं  उन्हें समर्पित  भावना की शब्दांजली   – तुम यहीं हो।) 

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🌸 स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी 🌸

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 149 – साहित्य निकुंज ☆

भावना की शब्दांजलि – तुम यहीं हो

तुम मेरी यादों के

झरोखे में झांकती

मुझे तुम निहारती

मै अतीत के उन पलों

में पहुंच जाती हूं।

 

तुम्हारा रोज मुझसे

बात करना,अपना

मन हल्का करना।

मैं खो जाती हूं तुम्हारे

आंचल की छांव में

जहां मिलता था

मुझे सुकून, मुझे चैन।

 

तुम्हारा प्यार ,तुम्हारा

ममत्व अक्सर

ख्वाबों में भी आराम

देता है।

नींद में भी तुम्हारे

हाथों का स्पर्श

यकीन दिला जाता है कि

तुम हो मेरे ही आस पास।

 

मन में आज भी एक

प्रश्न चिन्ह उठता है

जिंदगी पूरी जिये

बिना तुम क्यों चली गई

और जाने कितने सवाल

छोड़ गई हम सब के लिए।

जो आज भी अनसुलझे है।

 

तुम गई नहीं हो

तुम हो

तिलिस्म के साए में

ऐसी माया है जिससे वशीभूत

होकर व्यक्ति उसके मोह जाल में

फंस जाता है।

मां

हो मेरे आसपास

मेरे अस्तित्व को मिलता है अर्थ

नहीं है कुछ भी व्यर्थ।।

तुम मेरी यादों में ……

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

🌸 ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुमाता डॉ गायत्री तिवारी जी की पुण्य तिथि (8 सितंबर 2015) पर सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि 🌸

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिशंकु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – त्रिशंकु ??

स्थितियाँ हैं कि

जीने नहीं देती और

मेरी जिजीविषा है कि

मरने नहीं देती..,

सुनो सत्यव्रत!

तुम अकेले

त्रिशंकु नहीं हुए

इस जगत में..!

© संजय भारद्वाज

(शुक्रवार दि. 26.08.2016, प्रातः 7:40 बजे )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #136 ☆ संतोष के दोहे – शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – शिक्षक। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 136 ☆

☆ संतोष के दोहे – शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा ☆

शिक्षक तम को दूर कर, रोशन करे जहान

ज्ञान बाँटता सभी को, होते बहुत महान

 

होती शिक्षक प्रथम माँ, देती है सद्ज्ञान

अनुभव हमको बाँटते, होते पिता महान

 

शिक्षक से होता सदा, प्रतिभा का निर्माण

अपने शिष्यों का करें, सदा वही कल्याण

 

गीली मिट्टी रुँध कर, देते नव आकार

अपने शिष्यों के करें, सपने सब साकार

 

शिक्षक के सानिध्य से, मिलता है संतोष

सिखलाते सद्गुण वही, हर कर सारे दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ काश मैं गिलहरी बन आता… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता काश मैं गिलहरी बन आता…)

☆ कविता  ☆ काश मैं गिलहरी बन आता… ☆ श्री जयेश वर्मा ☆

जब भी मौसम बदलता

मुझे आती तुम्हारी याद

काश, मैं गिलहरी बन जाता

आता तुम्हारे पास…

 

मैं जीता तुम्हारे सन्नाटे को

जीता तुम्हारे दर्द को, मन की कसक

पूछता आकर तुम्हारे पास

तुम्हारे हाल…

 

जब तुम घर के आंगन में बांटती

अपने मन का सन्नाटा,

घर की बगिया में फूलों में,  पौधों में

और वृक्षों की डालियों में,

तभी मैं बन आता गिलहरी सा…

उतरता उस हरे भरे वृक्ष से धीरे-धीरे

तुमको देखता, तुम देखती मुझे..

 

खुश होती मुझे देखकर,

मैं आता, हाथ रुक जाता,

तुम्हारे पास तुम बढ़ाती अपनी हथेली

और उठा लेती मुझे, अपने चेहरे के पास..

 

मैं देखता….तुम्हारी आंखों को

और घबरा जाता उन आंखों की

असीम गहराई देखकर वेदना..

 

तुम मेरी आंखों में देखती और

समझने की कोशिश करती

मेरे मन की भाषा, जो तोड़ने आया है

तुम्हारा एकांत, उस समय

जो तुम्हारी हथेलियों में बैठा बैठा,

जी रहा ऊस वातायान को

ऊस वातावरण को..

तुम्हें तुम्हारा सन्नाटा,

मैं जीता जाता तुम्हें…

 

काश मैं आता

तुम्हारे पास रोज इसी तरह

तुम्हारा सन्नाटा बाटने रोज

मैं बन आता गिलहरी बन कर

एक बार छू लेता

तुम्हारे मन की छुअन को

जी लेता उन क्षणों को

उन पलों को एक बार

तुम्हारे साथ

 

काश मैं बन आता, गिलहरी बन

फिर एक बार

तुम्हारे पास, तुम्हारे पास

 

क्योंकि और कोई रास्ता नहीं

तुम्हारे पास आने का मेरे पास

काश मैं गिलहरी बन कर आता

तुम्हारे पास तुम्हारे पास…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

मो 7746001236

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – झुर्रियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – झुर्रियाँ ??

देखता, समझता, पढ़ता हूँ

दहलीज़ तक आ पहुँची झुर्रियाँ,

घर के किसी रैक पर

कभी सलीके से धरी,

कभी तितर-बितर पड़ी

तो कभी फटे टुकड़ों में सिमटी,

बासी अख़बार की तरह उपेक्षित झुर्रियाँ..,

गुमान में जीते

नये अख़बारों को पता ही नहीं

कि ख़बरें अमूमन वही रहती हैं,

बस संदर्भ ताज़ा होते हैं और

तारीख़ें बदलती रहती हैं,

और हाँ, दिन, हर दिन ढलता है,

हर दिन नया अख़बार भी निकलता है!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 8:33 बजे, 24.8.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 126☆ गीत – पेट है यदि आदमी का ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 126 ☆

☆ गीत – पेट है यदि आदमी का ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

तू मुसाफिर है तुझे

चलना पड़ेगा।

जिंदगी का बोझ भी

सहना पड़ेगा।।

 

प्रेम भी है हर तरफ

दुश्वारियाँ भी हैं बहुत।

ये जरूरी भी नहीं दें

साथ पत्नी और सुत।

 

है पहेली जिंदगी भी

उस तरह ढलना पड़ेगा।।

 

पीर भी अब मित्र बनकर

दे रही शब्दावली।

देखता हूँ नित्य ही मैं

शूल में खिलती कली।

 

पेट है यदि आदमी का

काम भी करना पड़ेगा।।

 

अग्नि में जब खूब तपता

तब चमकता है कनक।

घिर गईं परछाइयाँ यदि

लोग करते नित्य शक।

 

मुश्किलों की हर डगर में

प्रीत को गढ़ना पड़ेगा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “पान…!” (मराठी कविता) – श्री सुजित कदम – एक पत्ता….! (हिन्दी भावानुवाद) ☆ हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

☆  “पान…!” (मराठी कविता) – श्री सुजित कदम – एक पत्ता….! (हिन्दी भावानुवाद) ☆ हेमन्त बावनकर ☆

(श्री सुजित कदम जी की मराठी कविता – पान…! का हिंदी भावानुवाद)

मैंने रख लिया है

आँगन के पेड़ के

एक पत्ते को…   

पुस्तक के पन्नों में  

सहेज कर…   

यदि भविष्य में

बच्चों नें पूछ लिया कि –  

वृक्ष यानी क्या ? 

तो कम से कम

पेड़ का एक पत्ता तो

दिखा सकूँगा…!

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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