हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ नवगीत – बेला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – बेला…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ 

☆ नवगीत – बेला… ☆

मगन मन महका

प्रणय के अंकुर उगे

फागुन लगे सावन.

पवन संग पल्लव उड़े

है कहाँ मनभावन?

खिलीं कलियाँ मुस्कुरा

भँवरे करें गायन-

सुमन सुरभित श्वेत

वेणी पहन मन चहका

मगन मन महका

अगिन सपने, निपट अपने

मोतिया गजरा.

चढ़ गया सिर, चीटियों से

लिपटकर निखरा

श्वेत-श्यामल गंग-जमुना

जल-लहर बिखरा.

लालिमामय उषा-संध्या

सँग ‘सलिल’ दहका.

मगन मन महका

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-६-२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #138 ☆ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 138 ☆

☆ ‌ कविता ☆ ‌बेटी की अभिलाषा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(सृष्टि का जब सृजन हुआ तो विधाता ने जीव जगत की रचना की तो मात्र नर और मादा के रूप में ही की थी। न जाने सृष्टिकर्ता की किस चूक का परिणाम है ये ट्रांसजेंडर (वृहन्नला अथवा किन्नर) जिन्हें आज भी समाज में इज्जत की रोटियां नसीब नहीं। लेकिन सिर्फ ये ही दुखी नहीं है मानव समाज के अत्याचारों से, बल्कि शक्ति स्वरूपा कही जाने वाली नारी समाज भी पीड़ित है समाज के पिछड़ी सोच से। यदि विधाता ने बीज रूप में सृष्टि संरचना के लिए नर का समाज बनाया।  तो नारी के  भीतर कोख की रचना की जिससे जन्म के पूर्व जीव जगत का हर प्राणी मां की कोख में ही पलता रहे, इसीलिए मां यदि जन्म दायिनी है तो पिता जनक है ।

नारी अर्द्धांगिनी है उसके बिना वंश परम्परा के निर्माण तथा निर्वहन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह बेटी, बहन, बहू, पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी तथा दायित्वों ‌का‌ निर्वहन ‌करती‌ है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही है, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली ‌बन कर उलझ गया‌ है, वह समझ नहीं पा रही‌ है कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन ‌बन गया है। आज उसका‌ जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है। प्रस्तुत  रचना  में पौराणिक काल की घटनाओं के वर्णन का उल्लेख किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि नारी की विवशता का चित्रांकन करने के लिए किया‌ गया‌ है। ताकि मानव समाज इन समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर सके। –  सूबेदार पाण्डेय)

मैं बेबस लाचार हूं, मैं इस जग की नारी हूं।

सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये, मैं क़िस्मत की मारी हूं।

हमने जन्माया इस जग को‌, लोगों ने अत्याचार किया।

जब जी‌ चाहा‌ दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।

क्यो प्यार की पूजा खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।

जब भी नारी प्यार करे, तो जग बैरी हो जाता है।

जिसने अग्नि‌ परीक्षा ली, वे गंभीर ‌पुरूष ही थे।

जो जो मुझको जुए में हारे, वे सब महावीर ही थे।

अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।

क्यों चीर हरण का दृश्य देख कर, उन सबको शर्म नहीं आई।

अपनी लिप्सा की खातिर ही, बार बार मुझे त्रास दिया।

जब जी चाहा जूये में हारा, जब चाहा बनबास दिया।

क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।

कभी जहर पिलाई जाती है, कभी वन में पठाई‌ जाती है।

मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से ‌मुझे निकाला था।

क्या अपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था।

इस मानव का दोहरा चरित्र, मुझे कुछ  भी समझ न आता है।

मैं नारी नहीं पहेली हूं, जीवन में गमों से नाता है ।

अब भी दहेज की बलि वेदी पर, मुझे चढ़ाया जाता है।

अग्नि में जलाया जाता है, फांसी पे झुलाया जाता है।

दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पांव पखारा जाता है।

फिर क्यो दहेज दानव के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है ।

जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।

फिर क्यो अबला का संबोधन दे, ये दुनिया हम पे हंसती है।

अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी‌ भी उसी की राह चली।

ये बैरी हुआ जमाना अपना, ना ममता की छांव मिली।

सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।

अब तो जीवन ही खतरे में, क्या‌ बुरा कहें क्या बेहतर है।

मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।

फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस‌ कोख में तू पैदा होगा।

मैं हाथ जोड़ विनती करती हूं, मुझको इस जग में आने दो।

 मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।

यदि मैं आई इस दुनिया में, दो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।

अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।

बेटी पत्नी मइया बन कर, जीवन भर साथ निभाउंगी।

करूंगी सेवा रात दिवस, बेटे का फर्ज निभाउंगी।

सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी

सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।

मैं इस जग की बेटी हूं, बस मेरी यही कहानी है।

ये दिल है भावों से भरा हुआ, और आंखों में पानी है।

जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।

अपने ‌जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ वलयांकित गोल गोल तरंग ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? वलयांकित गोल गोल तरंग ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

सुंदर नजारा श्रावणातला

हिरवाईने डोंगर नटला,

चादर धुक्याची पायथ्याची

मोहित करी मम मनाला !

निळ्याशार तळ्यात उठती

वलयांकित गोल गोल तरंग,

उभे राहून काठावर निरखती

उंच कल्पवृक्ष आपुले अंग !

छायाचित्र  – प्रकाश चितळे, ठाणे.

© प्रमोद वामन वर्तक

१२-०८-२०२२

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #154 – ग़ज़ल-40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…”)

? ग़ज़ल # 40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सरेशाम से सुहानी ख़ुशबू आने लगती है

उन्हें ज़िंदगी की हर चीज़ भाने लगती है,

 

जिसे कमाने बचपन ओ जवानी खपी है,

बूढ़ी देह इसीलिए सबको भाने लगती है।

 

चिकनी खोपड़ी पर बचा नहीं एक भी बाल,

नई कंघी बरबस सिर पर आने लगती है।

 

मधुमेह है तो क्या एक गोली और ले लेंगे,

चाशनी में तर गरम जलेबी आने लगती है।

 

सुबह सैर की सख़्त हिदायत देते हैं डॉक्टर,

कमबख़्त नींद तो मगर तभी आने लगती है।

 

दोस्तों के साथ गप्पों का मज़ा अल्हदा है,

गुज़रे ज़माने की यादें ख़ूब मायने लगती है।

 

भूलने लगे थे जवाँ जिस्म के सभी पहाड़े,

तब कायनात फिरसे याद दिलाने लगती है।

 

ख़स्ता हाल हो चुके देह के सभी कल पुर्ज़े,

आशिक़ के सामने माशूका शरमाने लगती है।

 

अब तो तौबा कर लो मयकशी से ए आदम,

साक़ी मगर ज़ाम के फ़ायदे गिनाने लगती है।

 

जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी गुज़र जायेगी,

क़ज़ा की आहट “आतिश” को सताने लगती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆ मुक्तक ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जिन्दगी   रोज़  थोड़ी  सी  व्यतीत  हो   रही  है।

कुछ    जिन्दगी   रोज़   अतीत    हो   रही   है।।

जिन्दगी   जीते  नहीं  हमें   जैसी  जीनी  चाहिये।

कल  आएगी मौत सुनकर भयभीत हो रही है।।

[2]

कांटों   से  करो  दोस्ती  गमों से भी याराना कर लो।

हँसने   बोलने   को    कुछ  तुम  बहाना   कर  लो।।

मायूसी   मान  लो    रास्ता  इक   जिंदा  मौत  का।

हर बात नहीं दिल पर मिज़ाज़ शायराना करलो।।

[3]

जिंदगी जीनी चाहिये कुछ अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।

हवा चल रही उल्टी फिर भी खुशनुमा  मिज़ाज़ से।।

मिलती नहीं खुशी बाजार  से किसी  मोल  भाव में।

बस खुश होकर ही  जियो  तुम हर एक लिहाज से।।

[4]

सुख  से  जीना  तो  उलझनों को तुम सहेली बना  लो।

मत     छोटी   बड़ी  बात  को   तुम   पहेली  बना   लो।।

समझो    जिन्दगी    के   हर   बात  और   जज्बात  को।

नाचेगी इशारों पर तुम्हारे जिंदगी अपनी चेली बना लो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साथ-साथ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि –  साथ-साथ ??

चलो कहीं

साथ मिल बैठें,

न कोई शब्द बुनें,

न कोई शब्द गुनें,

बस खामोशी कहें,

बस खामोशी सुनें..!

© संजय भारद्वाज

सुबह 9:43 बजे, 25.08.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 96 ☆ ’’नारी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “नारी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 97 ☆ नारी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ “प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी”

 

परिवार की है प्रेरणा, जीवन का उत्स है

है प्रीति की प्रतिमूर्ति सहन शक्ति है नारी

 

ममता है माँ की साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

 

कोमल है फूल सी, कड़ी चट्टान सी भी है

आवेश, स्नेह, भावना, अनुरक्ति है नारी

 

सहधर्मिणी, सहकर्मिणी सहगामिनी भी है

है कामना भी, कामिनी भी, स्वामिनी भी है

 

संस्कृति का है आधार, हृदय की पुकार है

सावन की सी फुहार है, आसक्ति है नारी

 

नारी से ही संसार ये, संसार बना है

जीवन में रस औ” रंग का आधार बना है

 

नारी है धरा, चाँदनी अभिसार प्यार भी

पर वस्तु नही एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि – यक्ष प्रश्न ??

किताब पढ़ना,

गाने सुनना,

टीवी देखना,

तेल लगाना,

औंधे पड़ना,

शवासन करना,

चक्कर लगाना,

दवाई खाना..,

नींद के लिए रोज़ाना

हज़ार हथकंडे

अपनाता है आदमी..,

जाने क्या है,

आजीवन सोने को उन्मत्त

पर अंतिम नींद से

घबराता है आदमी..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #147 ☆ भावना के मुक्तक… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के मुक्तक।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 147 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक… 

शहीदों ने जो फरमाया वतन के काम आया है।

लहू का तेरे कतरा तो यही पैगाम लाया है।

किए है प्राण निछावर देश की खातिर हमने तो।

हर घर में तिरंगा आज तो फिर से लहराया है।।

🇮🇳

वतन के काम आया है लहू का तेरे कतरा  तो

शहीदों की शहादत में लिखा है नाम  तेरा   तो

तुम्हें शत शत नमन मेरे वतन के हो चमन तो तुम

तेरा सम्मान करते है करे  एलान तेरा तो।।।।

🇮🇳

वतन की याद आती है हमारा मन नहीं लगता।

हरा भरा है ये जीवन हमें सावन नहीं लगता।

वतन के वास्ते तुमने किया अपने को ही अर्पण।

तुम्हारे बिन ये जीवन तो हमें उपवन नहीं लगता।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #134 ☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 134 ☆

☆ संतोष के दोहे – भगवान् श्रीकृष्ण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सारे बंधन टूटते, खुलें प्रेम के द्वार

कृष्ण प्रकट होकर करें, खुशियों का संचार

 

रक्षा करते धर्म की, करें दुष्ट संहार

हर्षित हैं माँ देवकी, पा कृष्णा उपहार

 

चकित हुईं माँ देवकी, देख चतुर्भुज रूप

शिशु रूप में आईये, हे प्रभु जी सुर भूप

 

बाल रूप में प्रकट हो, भरें खूब किलकार

मुदित हुईं माँ देवकी, अनुपम रूप निहार

 

बजी श्याम की बाँसुरी, झंकृत मोहक तान

राधा बेसुध दौड़तीं, संध्या निशा विहान

 

बाल कन्हैया के दिखें, नित नित अभिनव रूप

अंगुली चूसें पाँव की, अनुपम लगे स्वरूप

 

यमुना जी यह चाहतीं,  प्रभु पद रख लूँ माथ

चरण कमल स्पर्श कर, मैं भी बनूँ सनाथ

 

चंदन सी महके सदा, ब्रज की रज शृंगार

अवसर जब हमको मिले, ब्रज रज करें पखार

 

धन्य धन्य ब्रज भूमि है, श्याम लिए अवतार

मन में भरिये आस्था, रखिये दिव्य विचार

 

श्याम चरण रज चाहते, दूर करें सब दोष

हम अज्ञानी स्वार्थी, हमको दें “संतोष”

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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