हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #143 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “सन्तोष के नीति दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 143 ☆

 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पूँजीवादी दौर में, दिखतीं दो ही जात

अमीर-गरीब इसी की, सामाजिक सौगात

 

जीवन के किस मोड़ पर, हो जीवन का अंत

इसे न कोई जानता, कहें श्रेष्ठजन, संत

 

चलती दुनिया देखकर, चलो समय के साथ

चूक करे जो भी जरा, पकड़े खुद फिर माथ

 

बोलने के पूर्व करें, चिंतन मनन विचार

पछताना न पड़े कभी, हो ऐसा व्यवहार

 

जाति-पाँति अरु धर्म में, बाँटा सकल समाज

नफरत चढ़ कर बोलती, प्रेम मौन है आज

 

भोजन संयत कीजिये, और करें नित योग

होगा तन-मन स्वस्थ तब, दूर भगेंगे रोग

 

मात-पिता की बात को, कभी न टालें आप

इनके प्रति अनुराग से, मिटें जगत के ताप

 

कथनी करनी में नहीं, रखें कभी भी भेद

दृढ़ता रखें विचार में, हो न बाद में खेद

 

स्वार्थ भरे इस दौर में, झूठ पसारे पाँव

रिश्ते भी अब रिस रहे, सत्य खोजता ठाँव

 

कलियुग में “संतोष” अब, मतलब के सब यार

झूठी लगती दोस्ती, झूठा लगता प्यार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – रिश्ते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  ‘रिश्ते ’

☆ कविता – रिश्ते — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रिश्तों को

हमने जो

परखना चाहा

खुद को

मंझधार में

खड़ा पाया |

 

दोस्तों को

जब हमने

परखना चाहा

आगे बढ़ा हाथ

सिमटता पाया |

 

दोस्ती का बढ़ाया हाथ,

समझ दोस्त अपना |

पैरों तले जमीन को,

खिसकते पाया |

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सूत्र ??

जिज्ञासा घनी है,

प्रश्न गहरा है,

जो ठिठका था,

आकर ठहरा है,

कब चलेगा..?

कब बढ़ेगा..?

जल बहता है,

सूत्र कहता है,

आरंभ करो,

मार्ग दिखेगा,

आदि से अंत

संवाद करेगा!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 6.30 बजे, 29.10.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 134 ☆ हम बच्चों की शान तिरंगा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 134 ☆

☆ बाल गीत – हम बच्चों की शान तिरंगा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।

मना महोत्सव आजादी का

जीवन को महकाएँ हम।।

 

व्यर्थ न खोएँ आजादी को

वीरों ने बलिदान दिया है।

उस माता पर गर्व करें हम

जिसके सुत ने प्राण दिया है।

 

कर्तव्यों को करें देश हित

मिलकर पर्व मनाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

 

पढ़ें – लिखें हम सदा लगन से

खेल – कूद में अव्वल आएँ।

जीवन अनुशासन की कुंजी

तन को अपने सबल बनाएँ।

 

समय कीमती अपना होता

हरदम ज्ञान बढ़ाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

 

हर अनीति , छोड़ें कुरीतियाँ

सत पथ को हम अपनाएँ।

धरती पर हम पौधे रोपें

योग , भ्रमण कर मुस्काएँ।।

 

प्रेम , दया , सेवा है उत्तम

गौरव सदा  बढ़ाएँ हम।

हम बच्चों की शान तिरंगा

भारत नया बनाएँ हम।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#156 ☆ कविता – नारद व्यथा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता नारद व्यथा…)

☆  तन्मय साहित्य # 156 ☆

☆ नारद व्यथा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक बार नारद जी व्याकुल हो

बोले भगवान से

मुझे बचा लो हे नारायण

धरती के इंसान से।

 

अब तो हमें लगे हैं डर

विचरण करते आकाश में

चश्मा दूरबीन नहीं

न पैराशूट हमारे पास में

शोर मचाते हुए विमान

भटकते रहते इधर-उधर

कब वे टकरा जाए हमसे

मन में शंका खास है

डर है वीणा टूट न जाए

मानव वायुयान से

हमें बचा लो हे नारायण….

 

धरती पर जाऊँ तो

वन-पेड़ों का नाम निशान नहीं

सूख गए तालाब सरोवर

नदी कुओं में जान नहीं

कहाँ करूँ विश्राम घड़ी भर

किस पनघट जलपान करूं

पिज्जा बर्गर की पीढ़ी में

राम नहीं रहमान नहीं

देव! न भिक्षा मिलती है

अब नारायण के गान से

मुझे बचा लो हे नारायण ….

 

लोहे कंक्रीट और सीमेंट से

जनता सब बेहाल है

कृषि भूमि पर सड़क भवन

बाजार दमकते मॉल है

हे प्रभु तुम्हीं बताओ

कैसे पृथ्वी पर में भ्रमण करूं

जितने खतरे हैं ऊपर

उतने नीचे भ्रम जाल हैं

कब तक आँखें मूँदे बैठें

नव विकसित विज्ञान से

मुझे बचा लो हे नारायण….

 

बड़े-बड़े घोटाले होते

इंसानों के देश में

डाकू और अय्याश घूमें

फ़क़ीर संतो के वेश में

जिसकी लाठी भैंस उसी की

यही न्याय अब होता है

रहा नहीं विश्वास परस्पर

इस बदले परिवेश में

अब तो यूँ लगता है भगवन

छूटा तीर कमान से

मुझे बचा लो हे नारायण

धरती के इंसान से।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 46 ☆ गीत – गीत गुनगुनाऐंगे… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत गीत गुनगुनाऐंगे…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 45 ✒️

? गीत – गीत गुनगुनाऐंगे…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

शब्द थरथराऐंगे ,

भाव जाग जाएंगे ।

डूब के हम अश्कों में ,

गीत – गुनगुनाऐंगे ।।

 

तुमको मान देवता ,

पूजा किए हैं उम्र भर ,

पत्थरों के बुत पे हम ,

अब ना सिर झुका आएंगे ।।

शब्द…

 

सेज पर बिछी कली ,

तुम ना चैन पाओगे ।

पक्षी अर्धरात्रि को ,

मिलकर चहचहाऐंगे ।।

शब्द…

 

अध खुली आंखों के ,

स्वप्न टूट जाए ना ।

वहीं घरोंदे रेत पर ,

फ़िर से हम बनाएंगे ।।

शब्द…

 

लौट आओ एक बार ,

तुम मेरी पुकार पर ।

ले लो आज इम्तहां ,

ना कभी सताएंगे ।।

शब्द…

 

खींच कर ले आएगी ,

सलमा प्यार की लगन ।

उन हसीन लम्हों में ,

मिलकर मुस्कुराएंगे ।‌।

शब्द…

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 57 – मनोज के दोहे…. दीप ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 57 – मनोज के दोहे…. दीप 

1 रोशनी

दीवाली की रोशनी, बिखराती उजियार।

प्रखर रश्मियाँ दीप की, करे तमस संहार ।।

2 उजियार

हिन्दू-संस्कृति है भली, नहीं किसी से बैर।

फैलाती उजियार जग, माँगे सबकी खैर।।

3 जगमग

जगमग दीवाली रही, देश कनाडा यार।

आतिशबाजी देख कर, लगा भला त्यौहार।।

4 तम

तम घिरता ही जा रहा, सीमा के उस पार।

चीन-पाक आतंक का, कैसे हो उपचार।।

5 दीप

दीप-मालिके कर कृपा, फैला दे उजियार।

सद्भभावों की भोर हो, खुलें प्रगति के द्वार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – दस्तक ??

तक़लीफ़देह है

बार-बार दरवाज़ा खोलना;

जानते हुए कि

कोई दस्तक नहीं दे रहा,

ज़्यादा तक़लीफ़देह है

हमेशा दरवाज़ा बंद रखना;

जानते हुए कि

कोई दस्तक दे रहा है,

बार-बार; लगातार!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 112 – गीत – हे राम ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – हे राम।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 112 – गीत – हे राम ✍

राम राम  जय जय राम

राम राम  जय सीता राम

दशरथ नंदन

दनुज निकंदन

टेर लगाते चातक वंशी

लेकर तेरा नाम

हे राम । हे राम हे राम।

पंकज लोचन

हे दुख मोचन

रोम रोम में रचा हुआ है

एक तुम्हारा नाम।

हे राम । हे राम हे राम।

हे रघुनंदन

अलख निरंजन

तुम ही हो सुखधाम

हे राम हे राम

जय राम जय राम।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 114 – “काजल लगी आँख में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –काजल लगी आँख में।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 114 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “काजल लगी आँख में” || ☆

नीचे को, छज्जे से कोई

झाँका करता है ।

मेरे प्रतिमानों को अक्सर

आँका करता है ॥

 

उधर जहाँ पत्तों के

मनहर झूमर हैं लटके ।

जिनसे छनकर धूप

चकत्ते दिखते हैं हटके ।

 

उन्हें धरा के आँचल पर

चुपचाप हवाओं से ।

लहरा कर दिन के गौरव

में टाँका करता है ।

 

मधुछन्दा दोपहर दिखा

कर  बुन्दे कानों के

काजल लगी आँख में

भरकर, बिम्ब मकानों के

 

ज्योंकि बजाज बैठ गद्दी पर

दिन भर की विक्री

का आदर करता ,जैसे वह

माँ का करता  है

 

साथ खडा है पेड़ मगन

जैसे कि चरवाहा

अपने में हो मस्त गा रहा

मीठा मनचाहा

 

और पोटली में लाये

उस चना चबैने को

पूरा तन्मय होकर के

ज्यों फाँका करता है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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