हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 139 ☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 139 ☆

☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हवा – हवा कहती है बोल।

मानव रे! तू विष मत घोल।।

 

मैं तो जीवन बाँट रही हूँ

तू करता क्यों मनमानी।

सहज, सरल जीवन है अच्छा

तान के सो मच्छरदानी।

 

विद्युत बनती कितने श्रम से

सदा जान ले इसका मोल।।

 

बढ़ा प्रदूषण आसमान में

कृषक पराली जला रहा है।

वाहन , मिल धूआँ हैं उगलें

बम – पटाखा हिला रहा है।।

 

सुविधाभोगी बनकर मानव

प्रकृति में तू विष मत घोल।।

 

पौधे रोप धरा, गमलों में

साँसों का कुछ मोल चुका ले।

व्यर्थं न जाए जीवन यूँ ही

तन – मन को कुछ हरा बना ले।।

 

अपने हित से देश बड़ा है

खूब बजा ले डमडम ढोल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #161 – चिड़िया चुग गई खेत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “चिड़िया चुग गई खेत…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #161 ☆

☆ चिड़िया चुग गई खेत…

रहे देखते स्वप्न सुनहरे

चिड़िया चुग गई खेत

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।

 

पूर्ण चंद्र रुपहली चाँदनी

गर्वित निशा, मगन

भूल गए मद में करना

दिनकर का अभिनंदन,

पथ में यह वैषम्य बने बाधक

जब हो अतिरेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली….।

 

मस्तिष्कीय मचानों से

जब शब्द रहे हैं तोल

संवेदनिक भावनाओं का

रहा कहाँ अब मोल,

अंतर्मन है निपट मलिन

परिधान किंतु है श्वेत

बँधी हुई मुट्ठी से….।

 

लगे हुए मेले फरेब के

प्रतिभाएँ हैं मौन

झूठ बिक रहा बाजारों में

सत्य खरीदे कौन,

एक अकेला रंग सत्य का

झूठ के रंग अनेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जिंदगी की शाम ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करते रहते हैं।

☆ कविता  – जिंदगी की शाम ☆श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

कोई नहीं जानता

(और जानता भी हो

तो कोई फर्क नहीं पड़ता )

कि कब और किस गली में

 

डूब जाए

आपके हिस्से का सूरज

कब सूख जाए

आपके भीतर की नमी

 

सांसों की आवाजाही के रास्ते

कब जल उठे लाल बत्ती

 

और उसे हरा होते हुए

न देख पाएं आप

 

और कम हो जाए

जनगणना विभाग की सांख्यिकी में

आबादी का एक अंक

 

शेषनाग को मिले

थोड़े से ही सही

पर कम हुए वजन से राहत

 

खाली हो जाए

बरसों बरस से

बेवजह सा घिरा हुआ

धरती का एक कोना

 

घर में नकारात्मक ऊर्जा फैलाता

एक अनुपयोगी सामान

हो जाय घर से बाहर

 

और घर की ऊब हो कुछ कम

 

तो बेहतर होगा

जाने से पेशतर

 

पूर्वाग्रहों और कुंठाओं की

घृणा और ईर्ष्या द्वेष की

फफूंद लगी गठरी

झूठ के झंडे

और तृष्णा की चादर

सम्मान के कटोरे

और यश की थाली

 

इन सबको दे दी जाए

जल समाधि

 

मित्रों की शुभकामनाओं

उनसे मिले प्रेम

और उनके साथ की

बेशकीमती दौलत की

 

करते हुए कद्र

खुशी की चादर ओढ़

सोया जाए चैन से

 

उनकी यादों की महक से

सराबोर

आत्मा के बगीचे की क्यारी में

चहलकदमी करते

 

डूबते सूरज को देखना

और मिला देना उसी में

अपने भीतर की धूप

 

शाम को बना लेना है

अपनी अगली

सुनहरी सुबह

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, एक कविता संग्रह (स्वर्ण मुक्तावली), पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता माँ। )  

☆ कविता ☆ माँ ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

सबसे प्यारी, न्यारी मेरी मां,

सबसे सुंदर, निराली मेरी मां,

हर धर्म, जाति के लोग रहते,

कभी न किया भेदभाव,

अपनाया हर किसी को दिल से,

ममता न्योछावर की सब पर एक,

माना कि गणित की कच्ची है,

भावों से पूरित है मां भारती,

न आने देंगे आंच इन पर कभी,

आंख उठायेगा मां पर कोई भी

नोच लेंगे आंखे उसकी,

पास नहीं आने देंगे दुश्मनों को,

नहीं शिकन आने देंगे चेहरे पर

जब भी देखा मां को मुस्काते

पाया भाई व बहन के साथ,

अपनी ही दुनिया में खोई सी,

एक अनजान सुलभ दुनिया,

आज तेरे बच्चे खड़े है माँ,

न आंसू का कतरा बहने देंगे,

रक्षा हम करेंगे नादान मां की,

अजीब है तेरी संस्कृति,

अरे ! क्यों मनाते हो,

एक दिन मात्र मां का,

हर दिन मां की गोद में

खेलते हुए महफूज़ व प्रसन्न है,

जन्म से लेकर मौत तक,

निभाते है माँ का साथ,

बावजूद अनेक समस्या के

रहते सदा साथ मिलकर,

जन्म लिया धरती पर,

हमें मात्र चुकाना है ऋण ,

मत भूलो मां के संसार में,

वीर औ’ क्षत्राणी ने है लिया जन्म

मां तक गंदी हवा का

झोंका भी न आने देंगे,

जब तक यह सांसे चलेंगी,

लडेंगे हम मां के लिए,

सर पर चढाकर धूलि

मां के चरणों की कहो…

वंदेमातरम्‌, वंदेमातरम्‌

नारे लगाओ…..

जय हिन्द जय हिन्द

आज मार भगाना है शत्रु को,

देखो,  कभी भी मेरी मां के

आंचल मे दाग नही लगने देंगे,

मेरी मां में इतनी ममता भरी है

दुश्मन भी विवश हो जाएंगे,

वे भी घुटने टेक देंगे,

प्यारी, सुंदर मेरी मां ।

©डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 61 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 61 – मनोज के दोहे… 

1 अंत

अंत भला तो सब भला, सुखमय आती नींद।

शुभारंभ कर ध्यान से, सफल रहे उम्मीद ।।

2 अनंत

श्रम अनंत आकाश है, उड़ने भर की देर।

जिसने पर फैला रखे, वही समय का शेर।।

3 आकाश

पक्षी उड़ें आकाश में, नापें सकल जहान।

मानव अब पीछे नहीं, भरने लगा उड़ान।।

4 अवनि

अवनि प्रकृति अंबर मिला, प्रभु का आशीर्वाद।

धर्म समझ कर कर्म कर, मत चिंता को लाद।।

5 अचल

अचल रही है यह धरा, आते जाते लोग।

अर्थी पर सब लेटते, सिर्फ करें उपभोग।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “गर्म थपेड़े लू की सह के…” ☆ श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ ☆

श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’

(श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। गणित विषय में शिक्षण कार्य के साथ ही हिन्दी, बुन्देली एवं अंग्रेजी में सतत लेखन। काव्य संग्रह अंतस घट छलका, देहरी पर दीप” काव्य संग्रह एवं 8 साझा संग्रह प्रकाशित। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है आपकी कविता “गर्म थपेड़े लू की सह के…”।) 

☆ “गर्म थपेड़े लू की सह के…” ☆ श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ ☆

(मापनी 16/14, विधा – नवगीत, विरोधाभास युक्त व्यंजना)

गर्म थपेड़े लू की सह के,

पुष्प पटल ये मुस्काये। 

चंद्रकिरण की बढ़ी तपन तो, 

देख कली ये मुरझाये।।

 

अर्क रश्मियाँ शीतलता से, 

लहर लहर लहराती हैं ।

वात रुकी है निर्जन वन में,

डाली झोंका खाती है।

सूर्य तपन को कम करता अब,

चाँद दिखे तन जल जाये।।

गर्म थपेड़े लू की सह के…

 

चोट बड़ी ही मन के भीतर,

होंठ हँसी आकर ठहरी। 

पीर सही सब खुश हो होकर,

फाँस गड़ी जाकर गहरी।।

छाँव जलाये छाले उठते,

धूप उन्हें फिर सहलाये।।

गर्म थपेड़े लू की सह के…

 

विरह पढ़े ना दुख की पाती। 

मौन अधिक बातें करता।

दग्ध तड़प में सुख को पाता,

मुग्ध हृदय रातें जगता।

घाव लगाते मरहम मन को,

दंड उसे अब बहलाये।।

गर्म थपेड़े लू की सह के…

 

काम करे जब सिर पर दिनकर,

गान सुनाए सुंदर सा ।

स्वेद बिंदु माथे पर छलके,

“स्नेह” दिखे है अंदर का।

श्रम भरता उल्लास अधिक ही,

देख पसीना नहलाये।।

गर्म थपेड़े लू की सह के… 

 

© प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ 

संपर्क – 37 तथास्तु, सुरेखा कॉलोनी, केंद्रीय विद्यालय के सामने, बालाकोट रोड दमोह मध्य प्रदेश

ईमेल – plupadhyay1970@gmail:com  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मसमर्पण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – आत्मसमर्पण ??

देह जब-जब थकी,

मन ने ऊर्जस्वित कर दिया,

आज मन कुछ क्या थका,

देह ने आत्मसमर्पण कर दिया!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गुज़ारिश ☆ श्री गौतम नितेश ☆

श्री गौतम नितेश

☆ गुज़ारिश ☆ श्री गौतम नितेश

गुज़ारिश आसमां से है,

इक परवाने की शमां से है,

कुछ इस कदर बिखेर दे

अपने प्यार का रंग,

वो चाहे या ना चाहे?

फिर भी हो मेरे संग,

चाँद की शीतल चाँदनी से

ऐसा हो सर्द उजाला,

तन बदन में सुलग उठे

गर्म लौ सी ज्वाला,

जब हो हमारा साथ,

हाथों में इक दूजे का हाथ,

मद्धम—मद्धम चाँद चले पर

खत्म न हो वो हसीं रात,

फिर सब कुछ जाए ठहर,

बस चलता रहे मध्यरात्रि पहर,

आसमान से मेरी

एक आखरी गुज़ारिश है,

जो अब तक ना हो बरसी!

बरस जाए, वो बारिश है।

© श्री गौतम नितेश

गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
9926494244.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 117 – गीत – कहूँ योजना… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – कहूँ योजना।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 117 – गीत – कहूँ योजना…  ✍

नाम तुम्हारा क्या जानूँ मैं

मन कहता मैं कहूँ योजना।

 

गौरवर्ण छविछाया सुन्दर

अधरों पर मुस्कान मनोहर

हँसी कि जैसे निर्झरणी हो

मत प्रवाह को कभी थामना।

 

अंत: है इच्छा की गागर

आँखों में सपनों का सागर

मचल रहीं हैं लोल लहरियाँ

प्रकटित होती मनो कामना ।

 

राधा रस का है आकर्षण

मनमोहन का पूर्ण समर्पण

सम्मोहन के गंधपाश में

कोई कैसे करे याचना ।

 

अपलक देखा करें नयन, मन

मन रहता है उन्मन उन्मन

शब्दों के संवाद अधूरे 

मन ही मन मैं करूँ चिन्तना।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 119 – “सिर्फ भौंह की ओट…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –सिर्फ भौंह की ओट।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 119 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “सिर्फ भौंह की ओट…” || ☆

अब उलाहना देती है

मेरे घर की छानी

जिसे बनाकर थकी,

हार कर विवश मरी नानी

 

रही चौंकती फुरसत,

जिन के दरवाजे आकर

और लौटता रहा पसीना

समझा समझा कर

 

सिर्फ भौंह की ओट

सम्हलता आया अनुशासन

कामचोर ना कर पाये

थे अपनी मनमानी

 

उन्हे बाद में मिल ना पाया

मान कभी इस घर

वह नानी हर समय रही

जो सेवा को तत्पर

 

उनकी बेटी, मेरी माँ,

जोर शून्य बनी ठहरी

उसको  यह पीड़ा आयी

थी सच में अनजानी

 

इस कुटुम्ब की उठा

पटक का कारण था मामा

उसकी पत्नी चमत्कार सँग

थी अन्तर्यामा

 

यह सम्मिलत व्यवस्था

लगती तो थी सम्मानित 

जिसका साज सम्हाल

मर गई थी करती नानी

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-12-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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