हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #124 ☆ एक पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “एक पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆

☆ एक पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कैसे अब  हम  प्यार   लिखें

कैसे  दिल    बेकरार   लिखें

 

प्रश्न  उठाते   जो  नियत  पर

कैसे   उन्हें   सत्कार    लिखें

 

गल  रहा उल्फत  का कागज

अब  कैसे  हम  श्रृंगार   लिखें

 

लिखता   रहा   खतायें    मेरी

उस  पर  क्या अशआर  लिखें

 

है “संतोष” अहसास का रिश्ता

कैसे   आखिर   इंकार    लिखें

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श- 4 – गिलहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श- 4 – गिलहरी ??

गिलहरी,

फल को कुतर-कुतर,

मुँह में दबाती है बीज

फलदार वृक्ष का,

ताकती है चहुँ ओर

टुकर-टुकर..,

लम्बी दौड़ लगाती है,

पोली धरती तलाशती है,

माटी की कोख में

बीज धर आती है,

विज्ञान कहता है-

अपने असहाय भविष्य के लिए

इकट्ठा करती है बीज,

मंदबुद्धि जानवर है,

भूल जाती है..,

आदमी के हाथ,

पेड़ का धड़

सिर से अलग करने के

विशाल यंत्र लिए

आगे बढ़ते हैं,

नन्हीं गिलहरी

सामने अड़ जाती है…,

मैं जानता हूँ

असहाय भविष्य की

निर्वसन धरती

वह देख पाती है, फलतः

बार-बार बीज जुटाती है,

बार-बार दौड़ लगाती है,

बार-बार गर्भाधान कर आती है….

धरती की आँख में

उभरता है चित्र-

बौने आदमी और

आदमकद गिलहरी का..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 113 ☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 113 ☆

☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ

मुझे मिलते हैं षटरस

नए पौधे रोपने से

सींचने से

उन्हें बढ़ता हुआ देखकर

हँसता हूँ, मुस्कराता हूँ

मैं घर की छत पर भी पौधे लगाता हूँ

और पार्कों आदि में भी

बाँटता हूँ उन्हें

जो पृथ्वी से करते हैं प्यार

मैं रोपता हूँ नन्हे बीज

बनाता हूँ पौध

पृथ्वी सजाने सँवारने के लिए

पर विज्ञापन नहीं देता अखबारों में

मैं कई तरह के बीजों को

डाल देता हूँ

रेल की पटरियों के किनारे

ताकि कोई बीज बनकर

हरियाली कर सके

मेरे घर के पास भी

साक्ष्य के लिए उगे हैं

बहुत सारे अरंडी के पौधे

जो हरियाली करते हैं

हर मौसम में

 

मेरे यहाँ आते हैं नित्य ही

सैकड़ों गौरैयाँ, बुलबुल, कौए, फाख्ता, कबूतर,

तोते, नन्ही चिड़िया, बन्दर और गिलहरियां आदि

पक्षियों के कई हैं घोंसले

मेरे घर में

गौरैयाँ तो देती रहती हैं

ऋतुनुसार बच्चे

चींचीं करते स्वर और माँ का चोंच से दाना खिलाना

देता है बहुत सुकून

मेरा घर रहता है पूरे दिन गुलजार

सोचता हूँ मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ

जो आते हैं मेरे घर नित्य मेहमान

आजकल तो कोयल भी आ जाती हैं कई एक

मैं सुनता हूँ सबके मधुर – मधुर गीत – संगीत

ऐसा लगता है मुझे कि

यही हैं मेरे आज और कल हैं

मिलती है अपार खुशी

भूल जाता हूँ सब गम, चिंताएँ

और तनाव

 

मैं बचाता हूँ नित्य ही पानी

हर तरह से

यहाँ तक कि आरओ का खराब पानी भी

जो आता है पोंछें के, शौचालय या कपड़े धोने के काम

 

मैं करता हूँ बिजली की बचत रोज ही

पंखे या कूलर से चलाता हूँ काम

नहीं लगवाया मैंने एसी

एक तो बिजली का खर्च ज्यादा

दूसरे उससे निकलीं गैसें कर रही हैं वायु में घोर प्रदूषण

नहीं ही ली कार

चला इसी तरह संस्कार

यही है मेरी प्रकृति और संस्कृति

 

मैं बिजली और पानी की बचत कराता हूँ अपने आसपास भी

समरसेबल के बहते पानी को

बंद कराकर

लोगों को याद नहीं रहता कि

अमूल्य पानी और बिजली की क्या कीमत है

मुझे नहीं लगती झिझक कि कोई क्या कहेगा

बहता हुआ पानी कहीं भी है दिखता

मैं तुरत बंद करता हूँ गली, रेलवे स्टेशन आदि की टोंटियां

और साथ ही जलती हुई दिन स्ट्रीट लाइटों को

 

आओ हम एक दिन क्या

रोज  ही पृथ्वी दिवस मनाएँ

धरती माँ को सजाएँ

करें सिंगार

यही दे रही है हमें नए – नए उपहार

भर रही पेट हर जीव का

पृथ्वी माँ !

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (51-57)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (51 – 57) ॥ ☆

सर्ग-19

 

तपन से उजड़ता हुआ जैसे सर हो, या बुझते हुये दीप की ज्यों प्रभा हो।।51।।

प्रजा हुई शंकित कि नृप हुये हैं रूग्ण पर मंत्रियों ने सदा सब छुपाया।

 

पुत्र प्राप्ति हित जप-अनुष्ठान-रत है, इसी से है दुर्बल, यही नित बताया।।52।।

कई रमणियों का होकर सखा भी अग्निवर्ण पितृऋण से नहीं उबर पाया।

 

क्रमशः सिमटते बुझा प्राण-दीपक, क्षय वैद्ययत्नों को न लाँघ पाया।।53।।     

अन्त्येष्टि करने पुरोहितों को ले साथ सचिवों ने गृहोद्यान में ही जलाया।

 

हुआ क्या था राजा को जिससे गुजर गये,

किसी की समझ में सही कुछ न आया।।54।।

 

कर प्रजा प्रमुखों को एकत्र सचिवों ने उस पट्टरानी को गद्दी बिठाया।

जिसके उदर में था पल रहा शुभ गर्भ नृप अग्निवर्ण का जो बचने न पाया।।55।।

 

आई विपदा के महाशोक से उष्ण जल नेत्र से ढल जिसे तप्त कर भये।

उसी गर्भ को स्वर्णकलशों से झर जल अभिषेक विधि से सुसंतृप्त कर गये।।56।।

 

सावन में बोये गये थोड़े बीजों की रखती है धरती स्वयं ज्यों संजोकर,

त्यों सिंहासनारूढ़ रानी प्रसव की प्रतीक्षा में रत रही शासन चलाकर।

अमात्यों के सहयोग से उसने अपने उस राज्य को आगे ढंग से चलाया।

हुआ एक युग अंत ‘अग्निवर्ण’ के साथ जो अनेकों के कभी मन न भाया।।57।।

इति रघुवंशम्

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 29 ☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – वृक्ष की पुकार…… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता वृक्ष की पुकार… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 29 ✒️

🌿 विश्व पर्यावरण दिवस विशेष 🦚 वृक्ष की पुकार… — डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई ,

सांसो के मध्य ,

कल सुना था मैंने ,

कि तुमने कर दी ,

फिर एक वृक्ष की ,

” हत्या “

इस कटु सत्य का ,

हृदय नहीं ,

कर पाता विश्वास ,

” राजन्य “

तुम कब हुए ,नर पिशाच ।।

 

अंकित किया ,एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो ,

तो बताओ ?क्यों त्यागा ,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा ,

रम्य वन को ?क्यों किया ,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम ,जगती में

क्या ? कहीं भी ना ,

मिल सकी ,तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम ,अपनी

आवश्यकताएं ,

तो बताते ,

शून्य ,- शुष्क ,

प्रदूषित वन जीवन ,

की व्यथा देख ,

रोती है प्रकृति ,

जो तुमने किया ,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें ,

छाती पर बिठाए ,

यह धरती ,

तुम्हारे चरण चूमती ,

रही बार-बार ,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष ,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे ,

सुकुमार ,

अपनी अनन्त-असीम ,

तृष्णाओं के लिए ,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे ,

निर्विकार ,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार ,

तभी वृद्ध ,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार ,

आयु से पूर्व ,

उन्हें छोड़ा मझधार ,

रिक्त जीवन दे ,

चल पड़े

अज्ञात की ओर ,

बनाने नूतन ,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया ,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है ,

किसी को काट डालना ,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते ,

प्रकृति के संजोए ,

पर्यावरण को बुनते ,

प्रमाद में  विस्मृत कर ,

अपना इतिहास ,

केवल बनकर रह

लगए ,उपहास ।।

 

काश !तुमने सुना होता ,

धरती का ,करुण क्रंदन ,

कटे वृक्षों का ,

टूट कर बिखरना ,

गिरते तरु की चीत्कार ,

पक्षियों की आंखोंका ,सूनापन ,

आर्तनाद करता , आकाश ,

तब संभव था ,कि तुम फिर ,

व्याकुल हो उठते ,

पुनः उसे ,रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास ,

बनाने का करते प्रयास ,

तब तुम ,वृक्ष हत्या ,

ना कर पाते अनायास ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46 – 50) ॥ ☆

सर्ग-19

 

किया पान था अग्निवर्ण ने सुरा का पाटल कुसुम आम्रपल्लव से मिश्रित।

अतः बसंत ऋतु बाद कृश काम उसका पुनः हो गया नया उन्नत श्री समुचित।।46।।

 

प्रजा कार्य से हो निरंतर विमुख वह इंद्रिय-सुखों से हुआ लीन कामी।

था उसका श्रृंगार ही ऋतु का परिचय, हर ऋतु का श्रृ्रंगार था उसका नामी।।47।।

 

व्यसनों में आसक्त रहने पै भी अग्निवर्ण पै न आक्रमण हुआ कोई कभी भी।

 

पर दक्ष-शापित हुये चंद्रमा सा, रतिराग वश क्षीण होता गया ही।।48।।

सुरापान औं रति के कारण था अस्वस्थ पर उसने छोड़ा न वैद्यों की मानी।

 

हो व्यसन के वश अगर इंद्रियाँ तो, उन्हें मोड़ सकता नहीं कोई ज्ञानी।।49।।

हो पीत मुख हो गया क्षीण इतना कि चल पाता था ले किसी का सहारा।

 

हुई मंद आवाज छूटे आभूषण हो राजयक्ष्मावश हुआ थका-हारा।।50।।

हुआ रोग से ग्रस्त वह किन्तु रघुकुल हुआ जैसे कांटा हुआ चन्द्रमा हो।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 36 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 36 – मनोज के दोहे

(पनघट, कुआँ, जेठ, ताल, पंछी)

पनघट बिछुड़े गाँव से, टूटा घर संवाद।

सुख-दुख की टूटी कड़ी, घर-घर में अवसाद।।

 

कुआँ नहीं अब शहर में, ट्यूबबैल हैं गाँव।

पीने को पानी नहीं, दिखती कहीं न छाँव।।

 

जेठ दुपहरी की तपन, दिन हो चाहे रात।

उमस बढ़ाती जा रही, पहुँचाती आघात।।

 

ताल सभी बेहाल अब, नदी गई है सूख।

तरुवर झरकर ठूँठ से, नहीं रहे वे रूख।।

 

प्रकृति हुई अब बावली, बदला है परिवेश।

पंछी का कलरव नहीं, चले गए परदेश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष –  आगे से… ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय रचना ‘आगे से…’।)

☆ कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष –  आगे से… ☆ श्री श्याम संकत ☆ 

कुछ पेड़ लगवा कर

रिटायर हो गए

कुछ पेड़ कटवा कर

रिटायर हो जाएंगे

 

धरती के गहने

उतरते जाएंगे धीरे धीरे

 

अब तक लकड़ी से जला करते थे मुक्तिधाम में

आगे से बिजली वाले में

सरका दी जाएगी ठठरी

 

साहब की भी

चपरासी की भी।

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श-3 – प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श-3 – प्रश्न ??

बड़ा प्रश्न है-

प्रकृति के केंद्र में

आदमी है या नहीं?

इससे भी बड़ा प्रश्न है-

आदमी के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं?

.

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (41 – 45) ॥ ☆

सर्ग-19

अगरु-गंध रांचे लहरते वसन झीने, झलकती थी जिससे सहज स्वर्णस्शना।

अग्निवर्ण को खेलता नीबि से जो, पहन मोहती सी थी कटिक्षीण अंगना।।41।।

 

वह महलों के बंद कमरों में एकान्त रचता था प्रिय-रुचि के व्यापार सारे।

साक्षी शिखिर रजनियां जिसकी केवल अचल दीप लो के नयन के सहारे।।42।।

 

मलय पवन पोषित नवल आम्रपल्लव औं, मधु मंजरी को खिला देख मानिनि।

ने तज मान उस विरही नृप को, मनाया जो था बिताता सब समय सपने गिन-गिन।।43।।

 

बिठा झूले में सुन्दरियों को ले गोदी वह सेवकों से था झूला झुलवाता।

भय वश भुजा डाल थी जो चिपकती वह उनके संश्लेष का सुख था पाता।।44।।

 

कर लेप चंदन का वक्षों पै अपने मुक्ताओं की पहन कर गले माला।

मणि रसना, कर ग्रीष्म की वेशभूषा, शीतोपचारों से युक्त थी सभी बाला।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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