(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “भारी बरसात और…”।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …तिरंगा”।)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# रेशम के धागे… #”)
Anonymous Litterateur of Social Media # 105 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 105)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला – राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक… )
☆ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
कबीर साहब का जन्म तत्कालीन काशी क्षेत्र वर्तमान में वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में सन् 1398 में हुआ। जन्म के पश्चात् इन्हें लावारिस हालत में तालाब के किनारे पाया गया था। इनका लालन-पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति ने किया था। वह समय भारत की गुलामी का था।
देश पर मुग़ल साम्राज्य था। तथा हिंदू धर्म अपने पराभव काल में था। यह वह समय था जब था हिंदू सभ्यता तथा सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकों को तोडा गया, उनकी संपत्ति को लूटा गया तथा पददलित किया गया। लेकिन उसी समय देश के संतों महात्माओं ने धर्म और संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के लिए कलम को हथियार बना कर लोगों के भीतर एक चेतना पैदा की। एक तरफ जहां भक्तिकालीन कवियों ने लोगों में भक्तिभाव जगाया। सगुण भक्ति की काव्य धारा प्रवाहित किया, तो वहीं पर कुछ कवियों ने निर्गुण की उपासना की। एक ओर सूरदास, कबीर दास, तुलसी दास, रविदास जैसे कवि थे तो दूसरी ओर रहीम, रसखान जैसे मुसलमान कवि जो इस्लाम केदीन को मानते हुए भी कृष्ण के भक्ति रस में खुद को आकंठ डुबा चुके थे और हृदय से परम उदार शालीनता के प्रतीक बन गए थे। तो वहीं पर कुछ दरबारी कवि भी हुए जो राजाओं महाराजाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति गान तक सीमित हो गए। आल्हा तथा रासों विधा की रचनाएं दी, जिसमें जगह जगह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रस्तुति है। लेकिन भक्तिकालीन कवियों में कबीर की रचनाओं में खरापन दिखाई देता है, उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है।
समाज के अंतिम पायदान पर खड़े कबीर साहब को ना तो कुछ पाने की अभिलाषा थी ना कुछ खोने का भय। इस लिए जो भी लिखा निर्भय हो कर लिखा। इनकी रचना की मूल विधाएं साखी, सबद, रमैनी तथा दोहे थे। भाषा शैली पंचमेल खिचड़ी थी। इनकी रचनाओं में हिंदी भाषा के अपभ्रंश, पंजाबी गुरुमुखी तथा स्थानीय भाषा के शब्द दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी लेखन शैली में उलटबांसी, अध्यात्म चिंतन, कूट कूट कर भरा हुआ है। उनकी जीवनशैली खांटी फक्कड पन भरी थी, तथा वे घुमक्कड़ प्रकृति के थे, जिसका प्रभाव उनके लेखन की भाषा शैली में स्पष्ट दिखाता है।
उनके लेखन का सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार का अंदाज जहां रूढिवादियों को तिलमिला देता है वहीं समाज के पुरोधाओं को विचार करने के लिए विवश भी करता है। उनके प्रहार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है।–
पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार
याते चाकी भली जो पीस खाए संसार
तथा कलयुगी गुरु शिष्य परंपरा की विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि—-
गुरू लोभी सिष लालची, दोनों खेले दाव।
दोनों बूङे बापुरे, चढ़ि पाथर की नाव॥
तो वहीं पर गुरु सत्ता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
मानव जीवन में गुरु की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि—–
गुरु कुंभार शिष्य कुंभ है, घड़ि घड़ि काढ़े खोट।
भीतर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट।
अर्थात् गुरु व्यक्ति भीतर व्यक्तित्व गढ़ता है।उनकी रचनाओं में समाज को दिशा दिखाने वाले संदेश प्रतिध्वनित होते हैं। उनका भी उदाहरण देखें——-
दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।
मरे बैल की चाम सो लोह भसम हो जाए।।
अथवा
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।
वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनका दृष्टि कोण उदारवादी तथा विस्तृत था वह संकुचित दृष्टि कोण के विरुद्ध थे। वह माला नहीं मन फेरने की बात करते थे। तथा दिखावे और बाह्याडंबर के विरुद्ध थे, लेकिन धर्म कर्म के विरोधी नहीं थे।
जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ काम।
मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे राम।
कबीर माला काठ की, कहीं समझावे तोही।
मन ना फिरावे आपना, कहा फिरावे मोहि।
मूड़ मुड़ाए हरि मिलै तौ सब कोई लेइ मुड़ाय ।
बार – बार के मूड़ते , भेड़ न बैकुंठ जाय ।
तो वहीं पर अध्यात्म का संदेश देते हुए कहते हैं कि–
संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बाँधी ॥
उन्होंने अध्यात्म की नई परिभाषा गढ़ते हुए ईश्वर के घर की दूरी नापने की आध्यात्मिक नई परिभाषा देते हुए सावधानी का संदेश दिया।
कबिरा हरि घर दूर है, जैसे पेड़ खजूर।
चढै सो चाखे प्रेम रस, गिरै सो चकनाचूर।।
तो वहीं पर और गहराई में उतर कर लिखते हैं कि
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
तो वहीं खोजते खोजते खुद के खो जाने की बात करते हैं।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
अर्थात् भक्ति मार्ग पर अपने अस्तित्व को मिटाने की बात करते हैं। प्रकारांतर से कबीर साहब के मत का समर्थन रविदास जी की रचना में भी दृष्टि गोचर होता है।
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी में भी देखा जा सकता है। अर्थात् चंदन के संपर्क में आकर पानी सुवासित हो जाता है और चंदन घिस कर माथे का तिलक बन जाता है। अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन उपयोगी बन जाता है आत्मा के लिए ।
वहीं पर गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाएं भी उनके मत की पुष्टि करते जान पड़ते हैं जैसे—-
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।
जौ बिरंचि संकर सम होई ।।
तो वहीं पर—–
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी।।
श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।
तो वहीं पर तुलसी दास जी के दोहे प्रकारांतर से वहीं संदेश देते प्रतीत होते हैं जैसे—–
तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।
लेकिन कबीर के राम तुलसी के सगुण रूपी राम नहीं है, वे तो राम के रूप को अनुभूति की विषय वस्तु बना देते हैं तथा राम को अनुभवगम्य बताते हुए कहते हैं कि
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥
तो वहीं पर अपनी जन्मभूमि की गरिमा बढ़ाते हुए उसे मोक्ष भूमि कहते हुए लिखते हैं कि—–
जौ काशी तन तजै कबीरा ,तो रामै कौन निहोटा।
और अपने सत्करमों के परीक्षण हेतु मगहर में जा कर अपना शरीर का त्याग कर अपनी आत्मसत्ता को पूर्ण में एकाकार कर उसी में खो जाते हैं।
वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कबीर के मत की पुष्टि करते हुए लिखा—–
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
से की है तो आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं——
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अर्थात् सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, एक शरीर है तो दूसरी आत्मा। सगुण जहां शरीर है वहीं निर्गुण निराकार आत्मचेतन सत्ता। शरीर के बिना आत्मचेतना विलुप्त है तो शरीर के भीतर आत्मचेतना प्रकट हो गतिशील रूप में दृश्य मान हो जाती है। इस प्रकार कबीर साहित्य हमें यथार्थ दर्शन के साथ मतैक्यता के भी दर्शन कराता है।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जमाने ने रहम नहीं किया …”।)
ग़ज़ल # 38 – “जमाने ने रहम नहीं किया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा।। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 29 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा 🇮🇳।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆