मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची… प्रवाळांची दुनिया – भाग – ६ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… प्रवाळांची दुनिया –  भाग – ६ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

प्रवाळांची दुनिया 

अंदमान मधील बेटं कोरल लिफ्स अर्थात प्रवाळ भिंती साठी प्रसिद्ध आहेत. ही बेटं म्हणजे जणू या भूमीवरील अद्भुत चमत्कार आहे. प्रवाळांचे एकशेएकोण ऐंशी पेक्षा जास्त प्रकार इथं आढळतात. शाळा कॉलेज मध्ये शिकत असताना प्रवाळांचा अभ्यास नेहमी वेगळी ओढ लावत असे. प्रवाळांची रंगीत चित्रे मन आकर्षित करणारी असतात. प्रत्यक्ष प्रवाळ कधी बघायला मिळतील असं वाटलं नव्हतं. पण अंदमानची सहल या करता वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. प्रवाळ भिंत ही एक अद्भुत अशी पाण्याखालील बाग आहे. जिवंत, श्वास घेणाऱ्या प्रवाळांच्या बागेत आपण फिरतोय ही कल्पनाच केवढी मोहक आहे, हो ना? 

ते एक चित्तथरारक दृश्य आहे. लाल, गुलाबी, जांभळे, निळे लवलवते प्रवाळ, हात पसरून आपल्या आजूबाजूला पसरलेले दिसतात. जणू काही पाण्याखालील रंगीबेरंगी उद्यानांची शहरेच. अकराशे चौरस किलोमीटर पेक्षा जास्त पसरलेली ही शहरे दोन प्रकारात मोडतात. एक-बॅरियर रीफ आणि दुसरा -फ्रिंगिंग रिफ. भारतातील सर्वात प्राचीन व गतिशील परिसंस्थांपैकी एक. समुद्राच्या उथळ आणि पारदर्शक पाण्यात वाढणारी ही प्रवाळ बेटे म्हणजे सिलेंटेराटा या वर्गातील ऍंथोझोआ गटातील लहान आकाराच्या प्राण्यांची वसाहत होय. हे सजीव चुन्याचे उत्सर्जन करतात. त्यांच्या भोवती या चुन्याचे कवच तयार होते. कालांतराने हे सजीव मृत झाल्यावर, त्यांच्या अवशेषांमध्ये वाढणारे जलशैवाल आणि त्यांनी उत्सर्जित केलेले चुनायुक्त क्षार एकत्र येऊन प्रवाळ खडक तयार होतात. या खडकांना प्रवाळ मंच किंवा प्रवाळ भित्ती (Coral reefs) असे म्हणतात. सामान्य भाषेत आपण यांना पोवळे म्हणतो.

अंदमान येथील नॉर्थ बे, हॅवलॉक बेट (स्वराज द्वीप) आणि नील बेट (शहीद द्वीप) या बेटांवर ही प्रवाळांची भिंत आपल्याला बघायला मिळते. नॉर्थ बे द्वीप या बेटावर मऊशार पांढरी शुभ्र वाळू तुमचं स्वागत करते. या वाळूवर जिकडं तिकडं प्रवाळांचे अवशेष इतस्ततः विखुरलेले दिसतात. स्वच्छ समुद्रकिनारा हे ही अंदमानच्या सर्व सागरकिनाऱ्यांचं वैशिष्ट्य म्हणायला हवं. मऊ रेशमी वाळूचा किनारा आणि निळा समुद्र. दोन्ही किती मोहक. निळी मोरपंखी झालर झालर वाली घेरदार वस्रं ल्यालेली नवतरुण अवनी, जिच्या निळ्या झालरीला शुभ्र मोत्यांच्या लडी अलगद जडवल्यात. तिच्या पदन्यासात निळ्या झालरीची लहर फेसाळत शुभ्र किनाऱ्यावर झेपावत येते. येताना किती चमकते शुभ्र मोती पसरून जाते. का कुणी अवखळ सागरकन्या धीरगंभीर भारदस्त किनाऱ्याच्या ओढीनं मौत्यिकं उधळत खिदळत येते. नजरकैद म्हणजे काय हे उमगावं असं हे फेसाळणारं सौंदर्य बघून.

सबमरीन नावाची लालपरी आपल्याला अलगद समुद्रात पाण्याखाली घेऊन जाते. आठ जणांना बसायची सोय असलेल्या या परीतून आपण समुद्रात काही मीटर खोल जातो. आजूबाजूला पसरलेलं प्रवाळ साम्राज्य बघून स्तिमित होतो. नॉर्थ बे किनाऱ्यावर जास्त करून आपल्याला प्रवाळांचे खडक बघायला मिळतात. यातील प्राणी आता जिवंत सापडत नाहीत. पण यांनी समुद्रातील कितीतरी सजीवांना आसरा दिला आहे. इथं माशांचे खूप प्रकार बघायला मिळाले. टेबल कोरल्स, ब्रेन कोरल्स, फिंगर कोरल्स, फुलकोबी कोरल्स अशी यांची नावं असल्याचं आमच्या नावाडीमित्रानं माहिती दिली.

नील बेटावर आम्हाला काचेचा तळ असलेल्या बोटीतून समुद्र सफर करायला मिळाली. या बोटीच्या तळाशी काच बसवलेली असते. त्यामुळे समुद्रातील प्राणी, मासे, वनस्पती अगदी बसल्या जागेवरून दिसतात. या बोटीतून नावाडी आपल्याला समुद्रात दूरवर घेऊन जातो. मनमोहक निळं पाणी संपून जिथं अधिक गहिरा निळा रंग समुद्रानं धारण केला असतो. या पाण्यात प्रवाळांची संख्या जास्त आहे. शिवाय प्रकार देखील जास्त आहेत. समुद्र वनस्पती प्रवाळांच्या खडकांतून डोकावताना दिसतात. नावाडी त्याला माहित असलेल्या प्रवाळांची माहिती देतो. सबमरीन पेक्षा जास्त प्रकारचे प्रवाळ तर दिसतातच, पण विविध मासेही दिसतात. नशीब बलवत्तर असेल तर डॉल्फिन दर्शन सुद्धा होतं.

या बेटांवर स्कुबा डायव्हिंग, स्नॉर्कलिंग, केयाकिंग, पॅराग्लायडिंग सारखे साहसी खेळ आहेत. आवड असणारे साहसवीर यात सहभागी होऊ शकतात. समुद्र सफारीचा अनोखा आनंद मिळवू शकतात. अर्थात यासाठी वयाची अट आहे. साठी नंतरचे लोक, तसंच रक्तदाब, मधुमेह किंवा आणखी काही शारीरिक व्याधी असेल तर परवानगी मिळत नाही. इथं जाताना आपलं आधार कार्ड, पासपोर्ट गरजेचा आहे. त्याशिवाय हे साहसीखेळ खेळायला परवानगी दिली जात नाही. हा समुद्र प्रवास सुद्धा शक्य नाही. प्रत्येक जेट्टीवर हे तपासलं जातं.

– क्रमशः भाग सहावा

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२४ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२४ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हॉस्पेट बाज़ार से होटल लौटते समय एक बड़े चौराहे पर महात्मा गांधी उद्यान दिखा। हमने कुछ समय उद्यान में बिताने का निर्णय किया। घनी हरियाली के बीच पुष्पों, मध्यम ऊँचाई के आच्छादित पेड़ों के सायों में  फ़व्वारों की जल लहरियाँ मध्यम संगीत की धुन पर नृत्य कर रही थीं। पुरसुकुन माहौल पाकर एक हरी घास की मोटी सी कालीन पर आँख बंद कर लेट का ध्यानस्थ हो गए। समय रुक सा गया। जब थोड़ी देर बाद आँख खुली तो सुबह सी ताज़गी नसों में दौड़ रही थी।

तब तक चारों तरफ़ कई मुस्लिम परिवार बाल बच्चों सहित आकर आनंदित हो रहे थे। साथी ने पूछा – यहाँ मुस्लिम आबादी अधिक है क्या ?

  • हाँ विजयनगर साम्राज्य के विध्वंस के बाद अधिकांश आबादी ने धर्म बदल लिया था। विजयनगर साम्राज्य की चार मुस्लिम रियासतों ने आपस में बांट लिया था। बाक़ी काम हैदरअली-टीपू सुल्तान ने निपटा लिया था।

लेकिन बाद में तो शिवाजी का मराठा साम्राज्य यहाँ स्थापित हुआ था।

  • सही है, लेकिन उन्होंने इनकी घर वापिसी की कोई मुहिम नहीं चलाई। और चलाई भी होती तो इन्हें किस जाति में वापस लेते।

मगर यहाँ के मुसलमान सीधे-सादे दिखते हैं।

  • हाँ, दक्षिण में अधिकांश शिया पंथ के मुसलमान हैं। जो उत्तर के तुर्की मुसलमानों जैसे कट्टर सुन्नी नहीं होते। इसीलिए दक्षिण में कम दंगे होते हैं। यहाँ दोनों कौमों में उतनी नफ़रत नहीं है।

महात्मा गांधी उद्यान में एक घंटा व्यतीत कर जब तक होटल लौटे, भोजन का समय हो चुका था। लौटकर मालूम हुआ, राजेश जी के चुम्बकीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर होटल के मालिक ने अपने बंगले की छत पर एक सामूहिक परिचय और रात्रिभोज का इंतज़ाम किया था। रात ग्यारह बजे तक आसमान से छिटक कर बरसती चाँदनी में कुछ साधु संतों की संगत में इन्द्रियों पर रंगत चढ़ाते आनंदित हुए। अगले दिन से वापिसी यात्रा शुरू होनी थी। पुस्तक से थोड़ा ऐहोले और बादामी का भूगोल और इतिहास देखते बारह बजे के आसपास मुलायम गद्दे पर नींद के आगोश में चले गए।

ऐहोले (Aihole) कर्नाटक राज्य के बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी घाटी में फैले हुए 120 से अधिक शिला और गुफा मन्दिरों का एक समूह है। इसमें हिन्दू, जैन और बौद्ध स्थापत्य आकृतियाँ शामिल हैं। इन मन्दिरों व मठो का निर्माण 4थी–12वीं शताब्दी में चालुक्य राजवंश ने कराया था। लेकिन अधिकांश स्थापत्य 7वीं से 10वीं शताब्दी में निर्मित हैं। यह ऐहोले नामक गाँव के आसपास स्थित हैं, जो खेतों और बलुआ पत्थर के पहाड़ों के बीच बसा हुआ है। यहाँ से हुनगुन्दा लगभग 35 किमी दूर है, जिसके बिल्कुल नज़दीक ऐहोले है।

ऐहोले से चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का 634 ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्रशस्ति के रूप में है और संस्कृत काव्य परम्परा में लिखा गया है। इसके रचयिता जैन कवि रविकीर्ति थे। इस अभिलेख में पुलकेशी द्वितीय की विजयों का वर्णन है। अभिलेख में पुलकेशी द्वितीय के हाथों हर्षवर्धन की पराजय के बारे में जानकारी मिलती है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हर्ष और पुलकेशिन के मध्य युद्ध 630 और 634 ईसवी के बीच हुआ था। जिसमें पुलकेशिन ने नर्मदा नदी के उत्तर तक का बहुत सा हिस्सा दबा लिया था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 286 ☆ यात्रा-संस्मरण ☆ चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय यात्रा संस्मरण – ‘चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

(25 अप्रैल 2025 को परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने सफल, स्वस्थ एवं सादगीपूर्ण जीवन के 86 वर्ष पूर्ण किये। आपका आशीर्वाद हम सबको, हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को सदैव मिलता रहे ईश्वर से यही कामना है। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपके स्वस्थ जीवन  के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 💐🙏)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 286 ☆

☆ यात्रा-संस्मरण ☆ चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति

हाल ही में सिक्किम यात्रा का अवसर मिला। ट्रेन से दिल्ली पहुंच कर 22 मार्च को बागडोगरा की फ्लाइट पकड़ी। हमारे परिवार के नौ लोग थे। बागडोगरा पहुंचने पर रोलेप ट्राइबल होमस्टे के संचालक श्री रोशन राय ने हमारी ज़िम्मेदारी संभाल ली। पहला गंतव्य मानखिम। उसके बाद लुंचोक, रोलेप, ज़ुलुक, गंगटोक और रावोंगला। 30 मार्च तक घूमना-फिरना, रुकना-  टिकना, खाना-पीना सब रोशन जी के ज़िम्मे। होमस्टे का अलग ही अनुभव था। रोशन जी अभी युवा हैं, बहुत सरल, विनोदी स्वभाव के। वैसी ही उनकी पूरी टीम है। सब कुछ घर जैसा, पूरी तरह अनौपचारिक। मेरी बेटियां और बहू उनकी टीम को रसोई में मदद देने में जुट जाती थीं।

रोलेप में हम ऊंची, मुश्किल जगहों में पैदल चढ़े। तब इत्मीनान हुआ कि उम्र बहुत हो जाने पर भी काठी अभी ठीक-ठाक है। अपने ऊपर भरोसा पैदा हुआ। ऊपर चढ़ने में मेरी फिक्र मुझसे ज़्यादा रोशन जी के लड़कों को रहती थी। हम 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित ज़ुलुक में भी एक रात ठहरे, जो बेहद ठंडी जगह है।

लौटते वक्त गंगटोक में हमारी भेंट रोशन जी की पत्नी और उनकी बहुत प्यारी बेटी से हुई। उनके साथ भोजन हुआ। दूसरे दिन रोशन जी ने हमें रास्ते में रोक कर हम सब के गले में पीला उत्तरीय डालकर हमें विदा किया। उनके व्यवहार के कारण हमारी यात्रा सचमुच यादगार बन गयी।

रोशन जी की टीम में जो लड़के हैं वे गांव-देहात के लड़कों जैसे हैं। होटलों में कार्यरत, ट्रेन्ड, ‘गुड मॉर्निंग, गुड ईवनिंग सर’ वाले सेवकों जैसे नहीं। आपके बगल में चलते-चलते वे आपके साथ कोई मज़ाक करके हंसते-हंसते दुहरे हो जाएंगे। रोशन जी ने बताया ये सब ऐसे लड़के थे जिनके घर में खाने-पहनने की भी तंगी थी। रोशन जी उन पर नज़र रखते थे कि पैसा मिलने पर कोई ग़लत शौक न पाल लें।

गंगटोक से चलकर हम नाथूला पास पर कुछ देर रुकते हुए रावोंगला पहुंचे, जो बागडोगरा वापस पहुंचने से पहले हमारा आखिरी मुकाम था। यहां ‘सेविन मिरर लेक’ नामक होमस्टे पर हम दो दिन रुके। सुन्दर स्थान है। सिक्किम में हर जगह तरह-तरह के फूलों की बहार दिखी। प्राकृतिक, प्रदूषण-मुक्त वातावरण में फूलों के दमकते रंग आंखों को चौंधयाते हैं।

इस होमस्टे से कुछ दूरी पर बुद्ध पार्क है। यहां गौतम बुद्ध की विशाल प्रतिमा, संग्रहालय  और पुस्तकालय हैं। पार्क बड़े क्षेत्र में फैला है। वहां पर्यटकों की अच्छी भीड़ दिखी।

होमस्टे की सीढ़ियों पर बने द्वार के बगल में लगी सफेद पत्थर की एक पट्टिका ने ध्यान खींचा। उस पर कुछ अंकित था। उत्सुकतावश पढ़ा तो चमत्कृत हो गया। पट्टिका पर लिखा था कि  वह द्वार अनेक ‘ज़ुंग’ अर्थात मंत्रों से अभिषिक्त था और उसके नीचे से निकलने वाला अपने सभी पिछले पापों से मुक्त हो जाएगा। (फोटो दे रहा हूं)

अंधा क्या चाहे, दो आंखें। मैं 86 की उम्र पार करने के बाद भी अभी तक संगम पहुंचकर अपने पाप नहीं धो पाया, इसलिए इस द्वार की लिखावट पढ़कर लगा अंधे के हाथ बटेर लग गयी। मैं तुरन्त दो तीन बार उस द्वार के नीचे से गुज़रा । मन हल्का हो गया, सब पापों का बोझ उतर गया। 86 पार की उम्र में नये पापों का पराक्रम करने की गुंजाइश बहुत कम है, इसलिए मुझे अब स्वर्ग की दमकती हुई रोशनियां साफ-साफ दिखायी पड़ने लगी हैं। मित्रगण भरोसा रख सकते हैं कि दुनिया से रुख़सत होने पर मुझे स्वर्ग में बिना ख़ास  जांच- पड़ताल के ‘एंट्री’ मिल जाएगी। परलोक की चिन्ता से मुक्त हुआ।

(ई-अभिव्यक्ति द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के 85 वें जन्मदिवस के अवसर पर स्मृतिशेष भाई जय प्रकाश पाण्डेय जी द्वारा संपादित 85 पार – साहित्य के कुंदन आपके अवलोकनार्थ)

इस प्रकार सौ टका पुण्यवान होकर 31 मार्च को दिल्ली से ट्रेन पकड़कर 1 अप्रैल की सुबह पंछी पुनि जहाज पर पहुंच गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची… द्वीपसखी – भाग – ५ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… द्वीपसखी –  भाग – ५ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

आपल्या आजूबाजूला आपण काही निसर्गप्रेमी बघतो. हे लोक तसे आपल्या सारखे व्यस्त असतात. तरीही त्यांच्या व्यस्ततेतून सवड काढून ते झाडांची, पशुपक्ष्यांची काळजी घेताना दिसतात. अगदी स्वतःच्या जीवावर उदार होऊन हे काम ते करत असतात. खिशाला खार लावून निसर्ग संवर्धन करताना आढळतात. यातील काहींना तर त्यांची भाषाही कळते असं वाटतं. आपण त्यांचं हे सौहार्द बघून स्तिमित होतो. माझ्यासाठी म्हणाल तर हे निसर्गमित्र वंदनीय आहेत.

एका कुत्र्याच्या किंवा मांजराच्या विषयी माया वाटणं हे तसं थोडंसं सोपं आहे. परंतु एखाद्या अधिवासात राहणाऱ्या सर्वच प्राणीमात्रांविषयी, तिथल्या वनस्पतींविषयी, प्रेम वाटणं थक्कं करणारं आहे, हो ना? मला अशी एक व्यक्ती माहिती आहे, जिला शेकडो प्राणी ओळखतात. जिला त्यांची भाषाही कळते. आपण जशी रोज संध्याकाळी घरी परतणाऱ्या आपल्या आप्तेष्टांची वाट पाहतो ना, अगदी तशीच वाट हे सगळे या ताईची पाहतात. अगदी आतुरतेनं. तिची चाहूल लागताच हरणांचे कळपच्या कळप तिच्या भोवती जमा होतात. सुंदर पिवळ्या सोनेरी रंगाचे, ठिपक्या ठिपक्यांची वस्त्रं चमचम करत तिच्या भोवती जमा होतात. थुईथुई करणाऱ्या मोरांची नाचरी चाल तिच्याकडं धाव घेते. सोनेरी रंगांमध्ये निळ्या मोरपिशी रंगांचे थवे डोलत उभे राहतात. निळे हिरवे पिसारे, वेड लावेल अशी गर्द निळ्या रंगाच्या ऐटदार मानेला अधिकच तोऱ्यात उभी करत ते शेकडो मोरोपंत दाटीवाटी करतात. मागं दिसणारा समुद्र अधिक निळाशार की समोरचा मोहक मयुरसंच अधिक निळा? आकाशाचा निळा रंग बघू, सागराची निळी गहराई शोधू कि या मयुरपंखांची निळीहिरवी जादू डोळ्यात साठवू. त्यातच तो निळाई छेदून आरपार जाणारा पिवळा सोनेरी रंग घायाळ करता होतो. तितक्यात एक इटुकली, धिटुकली खारुताई तिच्या खिशातून बाहेर येते आणि घाईघाईने, तुरुतुरु कुठंतरी जाते.

मी अचंबित होऊन बघत होते. जेमतेम साडेचार पाच फुटांची ती ताई, या सगळ्यांची जणू आई होती. आईच म्हणायला हवं. ही आहे एक आदिवासी महिला, अनुराधा, अनुराधा ताई, दिदी, माई कोणतीही हाक मारा. रॉस आयलंड, म्हणजेच सध्याच्या नेताजी सुभाषचंद्र बोस बेटावर तुम्ही गेलात तर हे दृश्य तुम्हाला नक्की दिसेल. त्सुनामी नंतर हे बेट विराण खंडहर झालंय. पूर्वी इथं सेल्युलर जेल मध्ये काम करणारे इंग्रज अधिकारी रहात होते. त्यांचे बंगले होते. आता फक्त अवशेष दिसतात. तो सगळा इतिहास अम्मा सांगतातच, पण या सगळ्या प्राण्यांच्या, पक्ष्यांच्या, झाडांच्या गोष्टी त्या सांगतात. वादळानंतर या बेटावर फक्त तीन प्राणी उरले होते. आता त्यांची संख्या हजारोत आहे. या प्राण्यांना त्यांच्याच अधिवासात तिनं अतिशय प्रतिकूल परिस्थितीतून अनुकूल परिस्थितीत आणलंय. प्रसंगी वेडी अनुराधा हा शिक्का मारुन घेऊन. कधी वेडीला मारलेले दगड झेलून, तिनं या विराण खंडहर झालेल्या मातीत पुन्हा नंदनवन उभं केलं आहे. तिनं तिचे आईवडील, भावंड या सर्वांना गमावलंय. पण मुक्या प्राण्यांवर प्रेम करण्याची वडिलांनी दिलेली शिकवण ती विसरली नाहीय. इथल्या आदिवासी जमातीची अनुराधा या निसर्गावर भरभरून प्रेम करते. या मातीचं क्षण फेडण्यासाठी अविरत धडपडते. आज तिची दखल भारतीय नौदलानं घेतली आहे. तिला मानाचा किताब दिला आहे. पण पुरस्कार मिळाला तरी तिचं काम सुरू आहे.

अम्माला या सजीवांचं बोलणं समजतं, त्यांच्या डोळ्यातले भाव ओळखता येतात. तिच्याशी बोलायला सगळे प्राणी उत्सुक असतात. एक आंधळं हरीण तिच्या सगळ्या आज्ञा पाळतं. (अर्थात बाकीचे सगळे तिला देवासमान मानतात हे तर आहेच.) ताई सांगत होती, ती आमच्याशी बोलतेय हे त्या हरणाला आवडलं नाहीय. म्हणून ते रुसून बसलंय. बघा बघा, ते चाललंय निघून. तिनं त्याला सांगितलं की बघ बरं आपल्या कडं पाहुणे आले आहेत. त्यांच्याशी बोलते. मग भेटते तुला. त्याला पटलं असावं. लांब जाऊ लागलेलं ते थांबलं. बेटावरचे सर्व रहिवासी, (माणसं तिथं रहात नाहीत आता) तिला मनातलं सांगतात, तिला आपल्या भावविश्वात घेऊन जातात. त्यांना तिची भाषा समजते यापेक्षा, तिला त्यांची, त्यांच्यातल्या प्रत्येकाच्या मनात काय आहे हे कळतं. केवढं मोठं वरदान लाभलंय तिला. आपल्याशी बोलता बोलता ती स्वातंत्र्याच्या इतिहासाची पानं उलटते. आपल्याला स्वातंत्र्यवीरांच्या कथा सांगते, अंदमानच्या तुरुंगाविषयी त्वेषानं बोलते. तिच्या अंगात जणू वीरश्री संचारते. सावरकरांच्या विषयी तिला वाटणारा आदर तिच्या शब्दांत, तिच्या डोळ्यात, सहज दिसतो. सावरकरांच्या बाबतीतल्या काही गोष्टी ज्या सहजतेनं वाचायला मिळणार नाहीत, अशा कथा ऐकायला, आपल्या देशाविषयी, आपल्या वीर सैनिकांना खरीखुरी आदरांजली द्यायला, नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वीपाला भेट द्यायलाच हवी. जाज्वल्य अभिमान कसा असतो हे अम्माच सांगू शकते. बाकी कुणी नाही.

मोबाईल संस्कृती, मोबाईल पर्वात वावरणारे आपण. आपली छटाकभर बुद्धी चंगळवादी राहणीमानाला दान करून टाकणारे आपण, तिच्या समोर खूप खुजे ठरतो. कृत्रिम जगात वावरताना आपण संवाद विसरलोय. आपल्या आईवडिलांशी, घरातल्या लोकांशी, आपण बोलायला कचरतो. शेजारपाजाऱ्यांशी तर आपण ओळख ठेवायला तयार नसतो. त्यांची नावंच काय पण चेहरे ही माहित नसतात आपल्याला. मग भावबंध कुठले? पण ही ताई लौकिक दृष्ट्या एकटी असून एकटी नाही. एकटेपणा तिच्या वाऱ्याला उभा रहातच नाही. तिला अगणित नाती आहेत. अस़ंख्य भावबंधांनी ती निसर्गाशी जोडली गेलीय. तिचा तसा साधाच पण आनंदी चेहरा मनात घर करून राहतो. अम्माचं साधंसुधं मोठेपण सोबत बांधून घेण्याचा प्रयत्न करत आपण परतीचा प्रवास सुरु करतो.

– क्रमशः भाग पाचवा 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२३ – हनुमान जन्म स्थली की पवित्र यात्रा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२३ – हनुमान जन्म स्थली की पवित्र यात्रा ☆ श्री सुरेश पटवा ?

पर्वत की चढ़ाई करते समय सूर्य हमारे पीछे चलते आ रहे थे। हम पूर्व से पश्चिम दिशा में बढ़ रहे थे। जब ऊपर पहुंचे तो दिनमान पूरी तेजी से सिर पर चमक रहे थे, लेकिन चढ़ते समय पसीने से नहाए हुए थे, ऊपर हवा ठंडी चल रही थी। शरीर का तापमान भी सामान्य हो गया। आसमान में एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था। फोटोग्राफी के लिए बहुत उम्दा चित्रमयी झांकियां चारों दिशाओं में दिख रही थीं। सम्पूर्ण भारत में सितंबर का महीना बड़ा सुहावना होता है। आंजनेय पर्वत पर से चारों दिशाओं में घूमकर देखा।

हमारी बस जिस रास्ते से आई थी। साथ में दाहिनी तरफ़ तुंगभद्रा नदी बहती दिखती रही थी। तुंगभद्रा नदी आंजनेय पर्वत को उत्तर से घूमकर पश्चिम की तरफ़ मुड़ती है। नदी भरी है, पानी पर सूर्य की किरणों की चमक तेज है। भारी गोल पत्थरों के किनारों से पेड़ों की घनी हरियाली दिख रही है। नदी और पहाड़ी के किनारे तक खेतों में हरियाली नज़र आ रही है। जी भरकर वीडियो बनाए और कई फोटो खींचे। 

जिस रास्ते से चढ़े थे, उससे वापस उतरने के बजाय हमने दक्षिण दिशा का तीखी उतार का रास्ता चुना। सीधी सीढ़ियों से उतरने पर घुटनों में हल्का दर्द होने लगा। इसलिए रुक-रुक कर उतरते रहे। हमारे साथ घनश्याम मैथिल और रूपाली सक्सेना भी नीचे उतरे।  नीचे उतर कर सबसे पहले नींबू-गन्ना रस पिया। बस की तरफ़ पैदल चलने लगे। तभी एक ऑटो ने दस-दस रुपयों में बस के नज़दीक छोड़ दिया। इस प्रकार हमारी हनुमान जन्म स्थली की पवित्र यात्रा पूरी हुई।

सभी साथियों के नीचे उतरने पर बस में सवार हो होटल की तरफ़ चले। सभी बुरी तरह थके निढाल दिख रहे थे। राजेश जी ने साथियों को विकल्प दिया कि होटल पहुँचकर आधा घंटा आराम करके एक और आश्रम चलना है या आराम करना है। हमने थोड़ा अधिक आराम करके हम्पी नगर का एक चक्कर लगाने का निर्णय किया। होटल पहुँच कुनकुने पानी से नहाकर थकान उतारी। थके-हारे पैरों की मालिश करके आधा घंटा ध्यान से मानसिक चंगा होकर घनश्याम जी के साथ पैदल घूमने निकले। दोहरी सड़क लंबी जाती दिख रही थी। उसी ओर बतियाते हुए चलने लगे। थोड़ा आगे चक्कर एक चौड़ी नहर के ऊपर से गुज़रकर क़रीब दो किलोमीटर चले। दोनों तरफ़ दुकानों की क़तारें थीं। एक बड़ा चौराहा पार करके उसके बाद के चौराहे से वापिसी यात्रा शुरू कर दी। फिर वही नहर मिली। चौड़ी और गहरी नगर तुंगभद्रा नदी पर बने बांध से प्रवाहित हो रही थी।

होसपेटे-कोप्पल जिलों की सीमा पर प्रवाहित तुंगभद्रा नदी पर एक जलाशय बना है। यह एक बहुउद्देशीय बांध है जो सिंचाई, बिजली उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण आदि के काम आता है। यह भारत का सबसे बड़ा पत्थर की चिनाई वाला बांध है और देश के केवल दो गैर-सीमेंट बांधों में से एक है।

इस बाँध के बनने का भी एक इतिहास रहा है। रायलसीमा के अकालग्रस्त क्षेत्र में उस समय बेल्लारी, अनंतपुर, कुरनूल और कुडप्पा जिले शामिल थे। अकाल के निदान हेतु 1860 में ब्रिटिश इंजीनियरों का ध्यान तुंगभद्रा ने आकर्षित किया। इन जिलों में अकाल की तीव्रता को कम करने के लिए तुंगभद्रा के पानी का उपयोग एक जलाशय और नहरों की एक प्रणाली के माध्यम से भूमि की सिंचाई के लिए करने का प्रस्ताव रखा गया। तुंगभद्रा के पानी की कटाई और उपयोग के लिए कई समझौते किए गए। ब्रिटिश भारत की मद्रास प्रेसीडेंसी और हैदराबाद निज़ाम रियासत के बीच वार्ता के कई दौर चले, पर कोई बात नहीं बनी। आज़ादी के बाद हैदराबाद निज़ाम रियासत के भारत में विलय, लेकिन भारतीय गणतंत्र बनने के पहले ही 1949 में इसका निर्माण शुरू हुआ। यह हैदराबाद और मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन प्रशासन की संयुक्त परियोजना थी। 1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद यह मद्रास और हैदराबाद राज्यों की सरकारों के बीच एक संयुक्त परियोजना बन गई। इसका निर्माण 1953 में पूरा हुआ। तुंगभद्रा बांध 70 से अधिक वर्षों से समय की कसौटी पर खरा उतरा है और उम्मीद है कि यह कई और दशकों तक टिकेगा।

नहर के ऊपर खड़े होकर कुछ देर नज़ारे देखते रहे। चाट-चटोरों और आइसक्रीम ठेलों पर बुर्काबंद महिलाएं बुर्का उठा कर सी-सी के तीखे स्वर के साथ पानीपूरी का मजा ले रही थीं। उनके बच्चे उन्हें आइसक्रीम ठेले की तरफ़ खींच रहे थे। हमने थोड़ी देर नज़ारे का आनंद लिया, फिर बाज़ार की गलियों में उतर गए। दुकानों पर हाथ से बनाई गई वस्तुएं जैसे मोती, पेंडेंट, स्क्रीन, नक्काशीदार टेबल और ताबूत के साथ सुगंधित वस्तुएं जैसे चंदन की मूर्तियां, चंदन की लकड़ी के पैनल, इत्र और अगरबत्ती जैसी वस्तुओं की भरमार थी।

थोड़ी ही दूर पर ठेलों पर स्थानीय व्यंजन बिक रहे थे। दुकानदार ने बताया यह चित्रन्ना है। चावल को नीबू के रस के साथ उपयोग करके इसे तैयार किया जाता है। आमतौर पर, चावल को गोज्जू नामक सब्जी मिश्रण में मिलाया जाता है। यह गोज्जू सामान्य रूप से सरसों के बीज, लहसुन, हल्दी पाउडर और मिर्च के साथ तैयार किया जाता है। मसाले में नींबू या मुलायम आम के टुकड़े मिलाये जाते हैं। पकवान को मसालेदार स्वाद बढ़ाने के लिए तली हुई मूंगफली और धनिये की पत्तियों से सजाया जाता है। सामग्री के आधार पर चित्रन्ना कई प्रकार के होते हैं।

दुकानदार ने दूसरा व्यंजन वंगीबाथ बताया। वंगीबाथ होसपेट का एक बहुत ही पसंदीदा व्यंजन है। इसे चावल और मिले-जुले मसालों से तैयार किया जाता है। इसे तैयार करने में अंडे की जर्दी का इस्तेमाल किया जाता है। यह व्यंजन आमतौर पर नाश्ते के लिए बनाया जाता है। मुख्य रूप से, लंबे हरे बैंगन और वंगीबथ पाउडर इसकी मुख्य सामग्रियां हैं, वे इसे एक अनोखा स्वाद देते हैं। वंगीबाथ को मेथी की पत्तियों का उपयोग करके भी तैयार किया जा सकता है। रेसिपी में कई मसाले भी शामिल दिख रहे थे, जो इसके मसालेदार और स्वादिष्ट स्वाद को अनोखा बनाते  हैं।

एक और व्यंजन पुलिओइग्रे बताया। पुलिओइग्रे अपने खट्टे और मसालेदार स्वाद के लिए जाना जाता है। इसे इमली के रस के साथ चावल से तैयार किया जाता है। इसकी सजावट मूंगफली से की जाती है जो इसे और भी स्वादिष्ट बनाती है।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची… मड व्होल्कॅनो – भाग – ४ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… मड व्होल्कॅनो – भाग – ४ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

मड व्होल्कॅनो 

व्होल्कॅनो अर्थातच ज्वालामुखी हा तसा परिचित शब्द. पण मड व्होल्कॅनो हा काहीसा वेगळा शब्द. आमचं कुतूहल चांगलंच चाळवलं गेलं होतं. आज अंदमानच्या मुक्कामाचा शेवटचा दिवस होता. रामनं, (आमचा टूर लिडर) रात्री झोपताना निक्षून सांगितलं होतं की भल्या पहाटे तीन वाजता आपण हॉटेल मधून बाहेर पडणार आहोत. जो बरोबर तीन वाजता बस मध्ये नसेल त्याला न घेता बस निघेल.पावणेतीन वाजताच आम्ही सगळे हॉटेल लाऊंजमध्ये हजर होतो. 

वीर सावरकरांना मानवंदना करून, बाप्पाच्या जयजयकारात प्रवास सुरू झाला. आमच्या हॉटेलपासून साधारण अडीच तास प्रवास करुन आम्ही मध्य अंदमानला आलो. इथं जलडमरु बॉर्डरवर बाराटांगला जाण्यासाठी गेट आहे. हे गेट सकाळी सहा वाजता व नऊ वाजता उघडते. दुपारी तीन वाजता ते बंद होते. बारटांगला जाणारा रस्ता जंगलाच्या अशा भागातून जातो जेथे आदिवासी लोकांचा भाग आहे. जारवा जातीच्या या आदिवासींच्या सुरक्षिततेकरता हा भाग प्रतिबंधित आहे. गेटवर आधारकार्ड (परदेशी प्रवाशांना पासपोर्ट ) दाखवावे लागते. मगच प्रवेश करता येतो. 

आपण फार लवकर आपली झोप सोडून आलोय.  गेटवर आपलीच बस पहिली असेल हा भ्रमाचा भोपळा तिथं पोचतात फुटला. आमच्या पुढे एकशे छत्तीस गाड्या होत्या. रस्त्याच्या दुतर्फा चहाचे स्टॉल्स होते. गरमागरम मेदूवडे आणि डाळवडे तयार होते. पट्टीचे खाणारे मात्र हवेत. 

आदिवासी पाड्यातील जारवा लोक रस्त्यात दिसण्याची शक्यता होती. ते लुटारू आहेत असं ऐकलं होतं. या रस्त्यावर बसच्या वेगाला मर्यादा आहे. कारण क्वचित एखादा प्राणी रस्त्यावर आलेला असू शकतो. जारवांना बघून उत्साहित होऊन काही करायचं नाही. हात हलवायचा नाही. थांबायचं नाही. फोटो काढायचा नाही. त्यांना काही खाऊ द्यायचा नाही. अशा सूचनांचे फलक रस्त्यावर लावलेले आहेत. आम्हाला कोणताच वाईट अनुभव आला नाही. परतीच्या प्रवासात आम्हाला जारवांचे बच्चू दिसले. एक दोन नाही तर सहा बच्चू. काळीकुळकुळीत, उघडबंब, कोरीव शिल्पासमान ती सहा कोकरं रस्त्याच्या कडेला ओळीनं उभी होती. हसरे चेहरे, काळेभोर टप्पोरे डोळे बसकडे मोठ्या आशेनं बघतायत का? 

खूप कडक सूचना दिल्या गेल्या होत्या. आम्ही सर्वांनी त्या पाळल्या. 

जारवा ही आदिवासी भागात राहणारी जमात. दक्षिण आणि मध्य अंदमानच्या पश्चिम किनारपट्टीवरील जंगलात यांची वस्ती आहे. बांबू, नारळाच्या झावळ्या, काठ्या यापासून घरं बांधून राहतात. घर नव्हे खरंतर झोपडीवजा आडोसा म्हणावा. हे निसर्गाशी एकरूप होऊन गेले आहेत. निसर्गाचे नियम त्यांना मान्य आहेत आणि ते काटेकोरपणे पाळले जातात. त्सुनामी मध्ये हे लोक मृत्युमुखी पडले नाहीत. या संकटाची कल्पना त्यांना आधीच आली असावी. फळं कंदमुळं मासे हे त्याचं प्रमुख अन्न. न शिजवता कोणतीही प्रक्रिया न करता हे लोक अन्न खातात. मीठ मसाला तेल यांचा वापर न करता आपण ज्याला ब्लाण्ड म्हणतो तसं अन्न ते घेतात. आपल्या जगातील आधुनिक तंत्रज्ञानापासून कोसो दूर आहेत हे लोक. त्यांना त्याची काही गरजही नाही. पण भारत सरकार त्यांना मुख्य प्रवाहात आणण्यासाठी प्रयत्न करत आहे. अलिकडेच एकोणीस जारवांना त्यांचे ओळख पत्र दिले गेले आहे. 

जेटीवर पोचतात आम्ही बसमधून उतरलो आणि एका मोठ्या क्रूझ मध्ये चढलो. आमची बस आणि काही गाडय़ा या क्रूझमध्ये चढवल्या गेल्या. चारशे पाचशे माणसं बसू शकतील अशी क्रूझ अर्धा पाऊण तास प्रवास करुन बारतांग बेटाला लागली. तिथून पुढे आम्ही छोट्या छोट्या जीपनं बॅरन बेटावर गेलो. जाताना वाटेत आदिवासी आणि त्यांची वस्ती दिसत होती. आता साधारण पंधरावीस मिनिटांचा ट्रेक होता. टेकडीवजा रस्त्यानं चढ चढून आम्ही माथ्यावर पोचलो. आजूबाजूला चढताना थोडी झाडी होती. पण दाट जंगल नव्हते. माथ्यावर पोहोचल्यावर मात्र स्तंभित झालो आम्ही. कारण समोर ठिकठिकाणी चिखलाचे ज्वालामुखी दिसत होते. हे ज्वालामुखी सक्रिय नव्हते. तरी त्यातून हळुहळू बुडबुडे येताना दिसत होते. काही लहान काही मोठे. चिखलाचे लहान मोठे डोंगर किंवा ढीग म्हणावेत . आणि प्रत्येक डोंगराच्या टोकावरून हलकेच येणारे बुडबुडे. निसर्गातला हा चमत्कार बघताना मन थक्क होतं. निसर्ग पोटात काही ठेवून घेत नाही. काही सजीवांचे निर्जीव घटकांचे पृथ्वीच्या पोटात खोल कुठेतरी विघटन होत आहे. त्या विघटनात उत्सर्जित होणारे काही वायू बाहेर पडताना स्वतःबरोबरच तिथला थंड झालेला चिखलाचा ज्वालामुखी घेऊन बाहेर पडतात. विश्वंभरानं किती विचार करून हा खेळ मांडला आहे. किती जटील आणि गुंतागुंतीची रचना केली आहे. आणि ती जटीलता सोपी करण्याचे मार्ग देखील तयार केले आहेत. गुंतागुंतीची कोडी तितक्याच हलक्या हातानं नाजूक बोटांनी कुशलतेने सोडवली आहेत. म्हणूनच तर आपण सुरक्षित आनंदी जीवन जगत आहोत. धन्य धन्य हो प्रदक्षिणा सद्गुरुरायाची… 

– क्रमशः भाग चौथा

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२२ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

आंजनेय पर्वत पर सीढ़ियों खत्म होते ही सामने हनुमान जी का मंदिर है। एक दरवाजे से सीधे मंदिर में प्रवेश करके दूसरे द्वार से बाहर निकलते हैं तो मंदिर के पीछे एक बड़ी पानी की टंकी में नल लगा हुआ है। वही जल आपके पीने योग्य है। जिसमें नीचे से मोटर द्वारा तुंगभद्रा नदी का पानी भरता रहता है। वहीं नज़दीक नारियल की नट्टी निकालने वालों की बैठक है। वे नट्टी, छूँछ और गूदा अलग करके रखते जाते हैं। उनसे पूछने ओर ज्ञात हुआ कि इस कार्य हेतु ठेका दिया गया है। इन चीजों का औद्योगिक उपयोग किया जाता है। ठेके से प्राप्त रकम मंदिर न्यास में जाती है।

पहाड़ी पर मंदिर से थोड़ी दूर महंत विद्यादास जी महाराज का आश्रम नुमा छोटा सा मकान बना है। राजेश जी की व्यवस्था अनुसार महंत जी की गादी के पीछे रामायण केंद्र का बैनर लगा दिया गया। सबसे पहले महंत जी ने हम श्रद्धालुओं को आरती के समय मंदिर में दर्शन कराए। वापस उनके आश्रम में उनके प्रवचन उपरांत राजेश जी और रामायण केंद्र के प्रतिनिधियों ने विचार प्रकट किए।

मंदिर के दाहिनी तरफ़ चार महिलाएं दाल-भात तैयार करने में लगी थीं। तब तक तीन बज चुके थे। वहीं नज़दीक स्टील थालियाँ का ढेर था। एक नल से पानी की व्यवस्था भी थी। महंत जी का आदेश हुआ कि प्रसाद ग्रहण किया जाए। अभी तक भूखे पेट भजन हो रहा था। कहने भर मी देर थी। सभी तीर्थ यात्री तुरंत पालथी मार कर बैठ गए। कोई परस करने वाला नहीं दिखा तो हम दो तीन लोगों ने अपनी थाली सहित सभी को भात-दाल परसना शुरू किया ही था, तभी वहाँ प्रसाद हेतु आतुर श्रद्धालु भीड़ आ पहुँची। महंत जी ने उन्हें रुकने का इशारा किया। हम लोगों ने पेट भर भोजन किया। उसी समय सामने की खुली जगह में चार लोग खिचड़ी के बड़े कढ़ाव लेकर आ पहुँचे। उन्होंने पत्तलों में खिचड़ी प्रसाद बाँटना शुरू किया। भक्तों की भीड़ खिचड़ी पर टूट पड़ी। जब खिचड़ी समाप्त हुई तब बचे खुचे भक्तों ने आश्रम की तरफ़ रूख किया। हम लोगों ने भोजन समाप्त होने तक प्रसाद वितरण कर धर्म लाभ कमाया। भोजन ग्रहण करने वाले तृप्त हुए फिर भी भोजन बचा रहा।

भोजन उपरांत तो भजन होने से रहा। भोजन से तृप्त मन और आलस्य पूर्ण देह ने दरी पर पसरने को मजबूर किया। कुछ लोग पसर गए। कुछ आसपास घूमने लगे। जब मन और देह से तृप्त आलस्य दूर हुआ तो हनुमान जी पर चर्चा चल पड़ी।

एक साथी बोले – कुछ सालों तक महिलाओं को हनुमान जी की पूजा की मनाही थी। महिलाएं  हनुमान मंदिर नहीं जाती थीं। अब तो गर्भग्रह में महिलाओं की भारी भीड़ है।

दूसरे बोले – हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं। इसलिए शायद यह व्यवस्था रही होगी।

चर्चा में भाग लेते हुए, उन्हें बताया – सनातन संस्कृति सतत परिवर्तन शील है। हनुमान जी कलयुग के सबसे उपास्य देव बनकर उभरे हैं। सांस्कृतिक विकास समझने हेतु हमें राजनीतिक इतिहास की तरह धर्म का इतिहास भी समझना चाहिए।

मूर्ति शिल्प के विकास में गुप्त काल (35-550 ईस्वी) का महत्वपूर्ण योगदान है। जब शिल्प कला का विकास आरम्भ हुआ था। भारत में विष्णु और शिव की प्रस्तर मूर्तियाँ उसी काल से गढ़ना आरम्भ हुई थीं। इसके पूर्व अनगढ़ मूर्तियां होती थीं। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि शिव आराधना आर्यों और अनार्यों में कुछ भेद के साथ उपलब्ध थी। कालांतर में दोनों संस्कृति ने शिव को अनादि देव स्वीकार कर लिया। भारतीय संस्कृति का समन्वयात्मक स्वरूप अस्तित्व में आने लगा था। गुप्त कालीन पुराण युग के बाद बारहवीं-तेरहवीं सदी में विष्णु और उनके अवतारों की पूजा शुरू होती है, तब से भक्ति युग आरंभ होता है। उसके बाद सूरदास और मीरा ने कृष्ण भक्ति की अलख जगाई और सोलहवीं सदी में तुलसीदास ने राम भक्ति को जनता में प्रचारित किया। राम दरबार के साथ हनुमान भी पूजित होने लगे।

तुलसीदास ने हनुमान चालीसा लिखा। वे जहाँ भी प्रवचन को जाते, वहाँ हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति स्थापित करते थे। उन्होंने पहला हनुमान मंदिर राजापुर में स्थापित किया था। इसके बाद उत्तर भारत में हनुमान मंदिर स्थापित होना शुरू हुए। दक्षिण भारत में हनुमान मंदिर नहीं के बराबर हैं। पूरी हम्पी में आंजनेय पर्वत को छोड़कर कहीं हनुमान जी का मंदिर नहीं दिखता। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को अखाड़ों से जोड़कर पहलवानी से संबद्ध कर दिया। विधर्मियाँ से निपटने हेतु शक्ति का आव्हान और कसरत अनिवार्यता थी। अखाड़ों में नगधडंग पहलवानों के समझ देवी स्थापना तो की नहीं जा सकती थी। वैसे भी देवी पूजन का वैष्णवों में कोई विधान नहीं था। शाक्त देवी पूजते थे। शाक्त बंगाल तक सीमित थे। इस तरह उत्तर भारत में हनुमान शक्ति के देवता स्थापित हो गए। महिलाएं ब्रह्मचर्य के प्रतीक हनुमान जी के सामने जाने में संकोच करती थीं।

इसका एक और कारण समाज का अर्थ प्रधान होता जाना है। आज़ादी के बाद हर वर्ग धनोपार्जन को लालायित हुआ। शिक्षा का उद्देश्य भी धनोपार्जन होने लगा। हनुमान बल, बुद्धि और विवेक के प्रतीक हुए। वे युवकों से लेकर बुजुर्गों तक सभी के उपास्य देव बन गए। वे शनिदेव की साढ़े साती और अढ़ैया दशा का निवारण करने में भी सक्षम सहायक हैं।

समाज शास्त्रियों द्वारा मानवीय जीवन के सम्पूर्ण  जीवन वृत्त का अध्ययन करने पर एक नया सिद्धांत पाया गया ‘मध्य जीवन संकट’। मध्य जीवन संकट (मिड ऐज क्राइसिस) की परिभाषा जीवन में परिवर्तन की अवधि है जहां कोई व्यक्ति अपनी पहचान और आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करता है। यह 40 वर्ष से लेकर 60 वर्ष की आयु के बीच कहीं भी होता है। पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करता है। मध्य आयु संकट कोई विकार नहीं है बल्कि मुख्यतः मनोवैज्ञानिक पहलू है।

मनुष्य की चालीस से साठ वर्ष की उम्र में एक तरफ़ माँ-बाप बीमारी बुढ़ापा ग्रसित हो मृत्यु का ग्रास बनने की कगार पर होते हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चों की ज़िम्मेदारियों का बोझ सर्वाधिक महसूस होने लगता है। मनुष्य को खुद स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें दरपेश होने लगती हैं। उसे भी स्वयं की मृत्यु का बोध सताने लगता है। इसमें यदि आय पर कुछ संकट होता दिखे तो मनुष्य टूटने लगता है। उसे किसी संबल की ज़रूरत होती है।

मध्य आयु संकट के लक्षण हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकते हैं। आम तौर पर, उनमें चिंता, बेचैनी, जीवन से असंतोष और महत्वपूर्ण जीवन परिवर्तनों की तीव्र इच्छा की भावनाएँ शामिल हो सकती हैं।

मध्य जीवन संकट और अवसाद के कुछ सामान्य लक्षण हैं, जिनमें ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन और लापरवाह व्यवहार शामिल हैं। यदि लक्षण लगातार बने रहते हैं और हर दिन दिखाई देते हैं, तो यह अवसाद होने की अधिक संभावना है। यदि स्थिति साढ़े साती शनि बनकर सामने आती है। शनि के प्रभाव को कम करने हेतु हनुमान जी से उत्तम औषधि कुछ नहीं है। जीवन संग्राम में हनुमान सर्वाधिक पूज्य देव बनकर उभरे हैं। इसमें महिला-पुरुष का भेद खत्म हुआ है, क्योंकि महिलाएं भी तेजी से कमाई करके परिवार का आर्थिक केंद्र बनती जा रही हैं। उन्हें भी हनुमान रक्षा कवच की आवश्यकता महसूस हुई है। यही सब चर्चा करते पहाड़ी से नीचे के लुभावने दृश्य देखते रहे।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची… भाग – ३ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची…  भाग – ३ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

चुनखडीच्या गुहा 

बारतांगच्या धक्क्यावर लहान स्पीड बोटीतून आमचा प्रवास सुरु झाला. एका बोटीत दहा जणं बसून जाऊ शकतो. निळाशार खोल समुद्रात वेगानं जाणाऱ्या या बोटीतून जाताना भारी मजा येते. वारा वहात असतो आणि त्याला छेद देत मोटरबोट सागरी लाटांवर स्वार होते. नावाडी कौशल्यपूर्ण असतात. या बोटींची नावं मजेशीर आहेत. सी टायगर, सी मेड, इ. ज्या बोटीतून तुम्ही जाल त्याच बोटीतून परत यायचं असतं. त्यामुळे बोटीचं नाव आणि नावाड्याचं नाव लक्षात ठेवावं लागतं.

समुद्राच्या लाटा एका लयीत उठत असतात. पण आपल्या बोटीमुळं त्यांना छेद जातो. त्यांचा ताल बिघडतो. लय वाढते. लाटांची उंची, हेलकावे सगळं उसळी मारून आपल्या बोटीकडं झेपावतं. आपल्या आजूबाजूनं दुसरी आणि एखादी स्पीड बोट जात असेल तर लाटांचा खेळकरपणा वाढतो. त्या आपल्या बोटीला जास्तच झोके देतात. सप् कन पाण्याचा किंचित जोरदार फटकारा देतात. हलणारं निळं पाणी आणि लाटांमुळं फेसाळलेल्या पाण्यातील शुभ्र फेसांची माळ. शुभ्र चमकणारे मोती. निळ्या लाटांना त्यांची मध्येच जुळणारी तुटणारी झालर. रमणीय दृश्य असतं ते. वरती पसरलेलं घनगंभीर अलिप्त आकाश अधिक निळं अधिक समंजस आणि शांत वाटतं. हा खाली पसरलेला निळाशार समुद्र मात्र अवखळ चंचल अनाकलनीय तरीही गूढ वाटतो.

बराच वेळ लांबवर दिसणारं खारफुटींचं जंगल आता दोन्ही बाजूंनी जवळ जवळ येऊ लागतं. आणि अचानक ते अंतर इतकं कमी होत जातं की आपली बोट खारफुटीच्या घनदाट छताखालून जाऊ लागते. हे छत इतकं दाट आहे की आता आकाशाची निळाई लुप्त होते. आकाश आणि समुद्र यातल्या निळ्या रंगाची तुलना करण्याचं कारण रहात नाही. कारण आता आपल्या डोक्यावर निसर्गराजा हिरवी छत्री धरून उभा असतो. हिरवाई इतकी सलगी करते की पाण्याची निळाई हरवून जाते. आता लाटांचा खेळ आणि लाटांचं संगीत दोन्ही शांत होतं. आपली बोट शांतपणे एका बेटाच्या लहानशा लाकडी धक्क्याला लागलेली असते.

आता सुरू होतो आपला पायी प्रवास. साधारण पणे अर्ध्या तास चालावं लागतं फारतर. पण ही वाट दाट जंगलातून जाते. या पायवाटेनं जाणं तसं फार कठीण नाही पण सोप्पंही नाही. दोन्ही बाजूला खारफुटींची घनदाट झाडी. झाडांची मुळं इतस्ततः पसरलेली. ही मुळं आपल्या डावीकडून उजवीकडे आणि उजवीकडून डावीकडे जातात. त्यांच्या या रांगत रांगत इकडून तिकडे जाण्यानंच नैसर्गिक पायऱ्या तयार झाल्या आहेत. काही ठिकाणी मात्र दगडांचा वेडावाकडा चढ उतार आहे. सगळा रस्ताच चढ उतारांनी बनला आहे. एक दोन ठिकाणी प्रचंड मोठे वृक्ष पायवाटेत मध्यभागी ठिय्या देऊन बसले आहेत. त्यांच्या दोन्ही बाजूला पायवाट आहे. या गर्द दाट हिरव्या रंगातून सूर्यकिरणांना सुद्धा आत यायला मज्जाव करण्यात आला आहे. एक हिरवी शांतता गारवा वाहून आणते जणू. मंद शीतल वारा उष्णता जाणवू देत नाही. सोबतीला असतं पानांचं सळसळतं संगीत आणि नयनमनोहर पक्ष्यांची मधुर सुरावट. त्यांचे आलाप आणि ताना ऐकत आपण गुहेजवळ कधी जातो ते कळत नाही.

गुहा सुरू झाली आहे हे आपल्याला आपला वाटाड्या सांगतो. त्याचं कदाचित आणखी एक कारण असेल. ते म्हणजे या गुहेचा पहिला साठ टक्के भाग वरुन उघडा आहे. दोन्ही बाजूस चुनखडीचे उंच डोंगर. आकाशाकडं निमुळते होत जातात आणि वरच्या बाजूला छतावर ते डोंगर एकमेकांपासून विलग झालेले दिसतात. अर्थात या भागात पुरेसा उजेड आहे. पाय जरा जपून ठेवावा लागतो. खालचा रस्ता खाचखळगेवाला आणि वरखाली करत आतल्या गुहेत नेतो. हा बाहेरचा भाग चुनखडीचा असूनही काळा दिसतो. हवा पाणी यांच्या संपर्कात आल्यानं चुनखडीचा पांढरा रंग बदललेला आहे. इथून पुढे गुहेच्या आतील चाळीस टक्के भाग कमी उजेडाचा आहे. गुहेत आत जाऊ तसतसा काळोख दाट होतो. या गुहेतील पुढचा प्रवास मोबाइल टॉर्चच्या उजेडात करावा लागतो. परंतु इथल्या डोंगराच्या भिंती पांढऱ्या आहेत. या भिंतींना हात लावायचा नाही. हाताचा स्पर्श जिथं झाला आहे तिथं त्या काळ्या झाल्या आहेत.

वाटाड्या दाखवत जातो तसं आपण फक्त बघत आत जायचं. चुनखडीच्या क्षारांचे एकावर एक अनेक थर या भिंतीवर जमले आहेत. दोन्ही बाजूच्या भिंती आकाशाकडं निमुळत्या होत जातात आणि शेवटी एकमेकींना मिळालेल्या दिसतात. काळोख वाढत जातो. चुनखडीचे थर चित्र विचित्र आकार धारण करतात. आपली जशी नजर तसे आकार किंवा आपल्या मनात जो भाव तसा दगड. इथं दगडानं कधी बाप्पाच्या सोंडेचा आकार धारण केला आहे तर कधी फक्त सोंडेचा. कुठं चुनखडीतून पद्म फुललंय तर कुठं कमळपुष्पमाला. कुठं मानवी नाकाचा, चेहऱ्याचा भास तर कुठं मानवी पाठीचा कणा. स्पायनल कॉर्ड. तो इतका हुबेहुब की आ वासून बघतच रहावं. मणक्यांची खरी माळच कुणा प्रवाशानं आणून ठेवली नसावी ना? असा विचार मनात आल्या शिवाय रहात नाही. एके ठिकाणी एक दगड छतातून खालच्या दिशेनं वाढतोय तर त्याखाली दुसरा जमिनीतून छताच्या दिशेने. दोन्हीमध्ये एखादी चपटी वस्तू जाऊ शकेल इतकं कमी अंतर. काही वर्षांनी येणाऱ्या प्रवाशांना एकसंघ खांब दिसला तर नवल नसावं. काही ठिकाणी अजूनही थर बनवण्याचं, क्षार साचण्याचं काम सुरू आहे. त्या जागा ओलसर दिसतात. टपकन एखादा पाण्याचा थेंबही आपल्या अंगावर पडतो. काही थरांमध्ये अभ्रकाचं प्रमाण जास्त आहे. ते अंधारात चांदण्यागत चमकतात.

निसर्गाची लीला अजबच याची पक्की खात्री करून देणाऱ्या या गुहा. नजरबंदी करणाऱ्या नैसर्गिक सौंदर्याचा, निसर्गाच्या अदाकारीचा थाट लेवून उभ्या आहेत. एक गूढ वातावरण घेऊन. रम्य आणि अजब आकारांचं हे निसर्ग दालन किती सजीवांचं आश्रय स्थान होतं कोण जाणे. किंवा अजूनही असेल माहिती नाही. गुहेतून फिरताना समुद्राची गाज कानावर येत राहते. ती गाजच काय तेवढी तिथल्या गूढ शांततेचा भंग करते पण गूढता अधिकच गूढ करते.

या गुहांच्या पलिकडे आणखी गुहा आहेत. ज्या स्तरसौंदर्याच्या खाणी आहेत. परंतु तो रस्ता बंद झाला आहे. शिवाय इथं अंधार लवकर पडतो. बारटांगचं गेट दुपारी तीन वाजता तसंच चार वाजता उघडतं. त्यावेळेत पोचायला हवं. पाय उचलावेच लागतात. गूढ रहस्याचा शोध न लागल्यासारखे आपण परतू लागतो.

– क्रमशः भाग तिसरा 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२१ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२१ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम लोग जैसे-जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे, पसीना से तरबतर होते जा रहे थे। अंत में तीखी चढ़ाई पर पेड़ों की मौजूदगी भी कम होती जा रही थी। तक़रीबन सौ-सवा सौ सीढ़ियाँ बची होंगी। वहाँ सीधी चढ़ाई पर भारी भीड़ अटी थी। चढ़ने वाले और उतरने वाले दोनों आमने-सामने अड़े थे। उनमें ध्यानु-ज्ञानु बकरों का विवेक नहीं था कि एक दूसरे को राह देकर निकल जाएँ। सीढ़ियों के आजूबाजू बहुत बड़े पत्थरों के ढेर थे। जिन पर बंदरों का हुजूम था। एक बंदर ने बच्चे के हाथ से कोल्ड ड्रिंक की बोतल छुड़ा, ढक्कन खोल गटागट पीना शुरू किया तो लोगों ने फोटो निकालना शुरू कर दिया। मानों पुरखों की पेप्सी पसंदगी को सहेजना चाहते हों। भीड़ इंच भर भी नहीं खिसक रही थी। ऊपर आंजनेय पहाड़ी पर जय हनुमान के जयकारे के साथ घंटों की टंकार ध्वनि गूँज रही थी। एक लाउड स्पीकर पर हनुमान-चालीसा चल रहा था। भक्त भी उसकी ध्वनि में ध्वनि मिला रहे थे कि शायद इस मुश्किल से मुक्ति मिल जाए।

एक प्रश्न मन में आया कि हम लोग तो हनुमान-चालीसा पढ़-सुन कर कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की राह देखते हैं। जब हनुमान जी पर मुश्किल आती थी तो वे बुद्धि-विवेक से राह तलाशते थे। जब बुद्धि-विवेक से संजीवनी बूटी सूझ नहीं पड़ी तो समूचा पर्वत उठा लाए थे। भूखी-प्यासी भीड़ निजात की राह तलाशते खड़ी थी। तभी उतरती भीड़ के कुछ युवक चट्टानों के बीच से रास्ता बना नीचे की तरफ़ उतरने लगे। हमने भी इसी तरह की कोशिश सोची। बाईं तरफ जूते-चप्पलों का एक छोटा सा ढेर दिखा। कई भक्त शनिवार को दर्शन करने आते हैं तो अपने जूतों के साथ शनि की बुरी दशा को भी उतार कर फेंक जाते हैं।

शनिदेव से जुड़ी से जुड़ी एक और परिपाटी है कि शनिदेव को तेल का दान करने से शनि के बुरे प्रभाव से मुक्ति मिलती है। जो लोग ये उपाय नियमित रूप से करते हैं, उन्हें साढ़ेसाती और अढय्या से भी मुक्ति मिलती है। लेकिन शनिदेव तेल चढ़ाने से क्यों प्रसन्न होते हैं।

ऐसी मान्यता है कि रावण की क़ैद में शनिदेव काफी जख्मी हो गए थे, तब हनुमान जी ने शनिदेव के शरीर पर तेल लगाया था जिससे उन्हें पीड़ा से छुटकारा मिला था। उसी समय शनि देव ने कहा था कि जो भी व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उसे सारी समस्याओं से मुक्ति मिलेगी। तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई। इसको लेकर कथा प्रचलित है कि रावण ने सभी नौ ग्रहों को बंदी बना रखा था। शनिदेव को उल्टा लिटा कर उनकी पीठ पर पैर रख सिंहासन पर बैठता था।  शनिदेव ने रावण से विनती की “हे राजन, मुझे चित लिटा कर मेरे ऊपर पैर रखकर बैठिए, मैं कम से कम आपके मुखारबिंद का दर्शन लाभ प्राप्त करता रहूँगा। विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहावत चरितार्थ करते रावण ने शनिदेव को चित लिटा लिया। शनिदेव की वक्रदृष्टि रावण के चेहरे पर पड़ती रही। यहीं से रावण के अंत की शुरुआत होती है।

हनुमान द्वारा मुक्ति के समय शनिदेव ने कहा था कि जो भी व्‍यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उस पर मेरी वक्रदृष्टि नहीं पड़ेगी। उसे सारी समस्‍याओं से मुक्ति मिलेगी। एक साथी ने उत्कंठा वश जानना चाहा, क्या ऐसा होता है।

हमने कहा- एक चीज होती है- श्रद्धा और दूसरी चीज उसी से उपजती है- विश्वास। जब आपको हनुमान जी पर श्रद्धा है तो उनके कार्यों पर विश्वास भी होगा ही। नहीं तो विकलांग श्रृद्धा किसी काम की नहीं होती। पूरे भारत में शनिवार को शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है। यह इसी पौराणिक आख्यान में विश्वास का द्योतक है और इन्ही विश्वासों से किसी देश की संस्कृति जन्म लेती है। आधुनिक मनोविज्ञान मानता है कि मुश्किलों से पार पाने में आत्म-विश्वास बड़े काम की चीज होता है।

हमने भी आत्म-विश्वास पूर्वक जूतों के ढेर पर से चलते हुए सीढ़ियों से हटकर रास्ता बनाया। पंद्रह मिनट में पर्वत की चोटी पर थे। दो साथी भी उसी तरीक़े से ऊपर पहुँच गए। ऊपर से नीचे सीढ़ियों की तरफ़ देखा तो हमारा दल बुरी तरह गसी भीड़ में पैवस्त था। किसी भी तरफ़ निकल नहीं सकता था। उन्हें भीड़ के साथ ही चींटी चाल से खिसक कर चढ़ना था।

हमको भूख लगी थी। एक जगह नारियल से नट्टी निकालने का उपक्रम चल रहा था। कुछ महिलाएं भक्तों का नारियल पत्थरों से कूट कर निकाल एक हिस्सा अपने पास रख बाकी भक्तों को दे देती थीं। हम उनके नज़दीक उनके नारियल निकालने की कला को देखते बैठ गए। एक भक्त हमको भी नारियल से नट्टी निकालने को देने लगे तो हमने तनिक देर सोचा, और नारियल लेकर पत्थरों की दो चोट से गूदा बाहर करके एक हिस्सा उन्हें पकड़ा दिया। दूसरा नीचे रख लिया। फिर तीन-चार भक्त और आ गए। करीब दसेक मिनट यह धंधा चला। भूख मिटाने योग्य नारियल को नल के पानी से धोया और चबाते रहे। कुछ भक्त प्रसाद में मीठी चिरौंजी दे गए। नारियल और चिरौंजी के ग्लूकोस से प्रफुल्लित हो,  दल के साथियों के आने तक पहाड़ी से नीचे तुंगभद्रा नदी के आलिंगन में बसे हनुमानहल्ली गांव के साथ सुंदर दृश्यावली का आनंद लिया।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची…  भाग – २ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… भाग – २ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

फ्लॅग पॉईंट 

श्रीविजयानगर, अर्थात पोर्ट ब्लेअर.

वीर सावरकर हवाई अड्ड्यावर पंधरा जानेवारीला सकाळी साडे सहा वाजता आम्ही उतरलो. वीर सावरकर हवाई अड्डा हे नाव वाचताना मराठी असल्याचा अभिमान वाटला. समोरचा सावरकरांचा पुतळा बघून नतमस्तक होणार नाही असा एकही मराठी माणूस मिळणार नाही.

अंदमान निकोबारची राजधानी असलेलं हे ठिकाण. या मातीत पाऊल ठेवताना मान ताठ होते. उर देशाभिमानानं दाटून येतो 

30 डिसेंबर 1943 ला इथं नेताजी सुभाषचंद्र बोस यांनी पहिल्यांदा तिरंगा फडकावला. अंदमान ब्रिटिश राजवटीतून मुक्त झाल्याची वार्ता हा तिरंगा सगळ्या जगाला सांगत होता. भारताला स्वातंत्र्य मिळण्यापूर्वी नेताजींच्या सेनेनं अंदमान स्वतंत्र केलं होतं. तो Flag point बघायला आम्ही संक्रातीच्या सरत्या संध्यासमयी गेलो होतो. काही वेळा पूर्वी सेल्युलर जेल बघून आलो होतो. अजून ते बघताना अंगावर आलेले रोमांच तसेच होते. स्वातंत्र युद्धाचा तो दैदीप्यमान इतिहास आणि तो काळ नजरेसमोर बिनचूक उभा करणारा तो लाईट एँड म्युझिक शो यांचा मनावर आणि शरीरावर झालेला परिणाम तेवढाच तीव्र होता. साखळदंडाचे आवाज कानात घुमत होते. इंग्रज अधिकाऱ्यांचे गडगडाटी सातमजली हास्य विसरणं शक्यच नव्हतं. जेलच्या प्रांगणातील पिंपळाच्या पानांची सळसळ धमन्यांतून वाहणाऱ्या रक्तात भिनली होती. हा इतिहास जिवंत ठेवण्यासाठी आजच्या भारतीयांना तो ऐकवण्यासाठी हा पिंपळ इथं ताठ उभा आहे. जाज्वल्य देशाभिमान असाच प्रज्वलित ठेवणाऱ्या पटांगणातील त्या दोन अखंड हुतात्मा ज्योती प्रत्येक भारतीय मनात हा इतिहास जागा ठेवतात. सात बाय साडेतीनची ती अंधारी कोठी, तिथंच जेवण, तिथंच झोप, शारीरिक विधींसाठी वेगळी व्यवस्था नाही. तांबरलेल्या लोखंडी थाळीत वाढलेलं बेचव कोरडं अन्न ज्यात अळ्या आणि किड्यांचं साम्राज्य. नाक दाबून प्यावं तरी पिऊ शकणार नाही असं घाणेरडा वास असलेलं पाणी प्यायला. हे सगळं कमी म्हणून दिवसभर शेकडो हजारो शहाळी सोलणं, काही टन तेल काढण्यासाठी कोलू ओढणं, पाठीवर आसूडाचे फटके झेलणं. हे सगळं कशासाठी तर मातृभूमीला स्वतंत्र करण्यासाठी. आपल्याच देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देण्यासाठी आपल्याच देशात असंख्य कोवळ्या हातांनी कोलू ओढले. साखळदंडांनी बद्ध असलेल्या हातापायांनी, ज्या बेड्या हालचाल केल्यास 

हातापायांना जखमा करत असत. नुसतं ऐकून श्वास रोखला जातो, मन बधीर होतं. वेड लागेल असं वाटतं. पण हा सिनेमा नाही. किंवा ही काही काल्पनिक कथा कादंबरी नाही. हा खराखुरा इतिहास आहे स्वातंत्र्य चळवळीचा, हे सत्य आहे बलिदानाचं, ही सत्यकथा आहे वेड्या साहसी वीरांची. आज त्यांच्या मुळंच आपण स्वतंत्र भारतात ताठ मानेने जगू शकतो.

150 फूट उंच तिरंगा वाऱ्यावर लहरत होता. समुद्राच्या लाटा ओढीनं त्याच्या चरणाकडं धाव घेत होत्या. त्याला स्पर्श न होऊ देता ध्वजस्तंभापासून काही अंतरावर येऊन पुन्हा समुद्रमय होत होत्या. त्यांचा लयबद्ध आवाज गंभीर तरीही मोदमय होता. अभिमानानं जणू वंदे मातरम म्हणत असाव्यात. बंगालचा उपसागर अजूनही तो दिवस विसरला नाही. 2018 मध्ये पंतप्रधान मोदींनी पुन्हा एकदा तिथं ध्वजारोहण केलं आणि नेताजींना आदरांजली म्हणून या फ्लॅग पॉईंटचं पुनर्निर्माण पुनर्जीवन केलं. आज तो पॉईंट एक देखणं प्रेक्षणीय स्थळ आहे. इथं छानशी चौपाटी आहे. आमच्यातल्या एकीचा, सौ स्वाती मेहता हिचा वाढदिवस त्या दिवशी होता. तिरंग्याच्या साक्षीनं तो साजरा झाला. अहो भाग्यम्!! आपल्या तीन मुलींना घेऊन स्वतःच्या लग्नाची एनिव्हर्सरी साजरी करायला अंदमानला येण्याची कल्पना केवढी रोमांचकारक. पण… पण ती पाहण्याचं भाग्य आम्हाला लाभलं किंबहुना ती कल्पना प्रत्यक्षात आली ते आणि ते केवळ या वीरांच्या समर्पणानं, त्यागानं, अचाट देशप्रेमामुळंच हे विसरून चालणार नाही.

सरसरला शहारा सरसर अंगावर 

नतमस्तक मी वीराच्या त्या भूमीवर 

*

झेलले अनेक वार 

सोसले तुम्ही अत्याचार 

अनंत यातनांचे अंगार 

दाहक अग्नीफुलांचे हार 

*

न थिजे तव बुद्धीची धार 

शब्दच लवती बनून तलवार 

ती कोळशाची लेखणी धारदार 

भिंतीवर फुलले अक्षरांचे अंगार

*

अवांछनीय मिळे तुज जलनीर 

आरास किड्यांची, शोभला थाळीचा तीर

झेलले असंख्य अगणित भाले टोकदार 

तरी न ढळला निश्चय तू धीरवीर 

*

थंड बोचरे काळेपाणी 

आईची ममता जागी गाणी 

पेटता मग लाव्हा त्या धमनी 

थिजली काळरात्रही त्या अंदमानी 

*

केले यशस्वी तुम्ही संक्रमण 

फिरंगी पळविले करून आंदोलन 

तव त्यागाची ठेवून आम्ही जाण 

नतमस्तक होऊन लुटतो मुक्तक्षण 

*

सरसरला शहारा सरसर अंगावर 

नतमस्तक मी त्या वीराच्या भूमीवर 

– क्रमशः भाग दुसरा 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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