डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय यात्रा संस्मरण – ‘चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

(25 अप्रैल 2025 को परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने सफल, स्वस्थ एवं सादगीपूर्ण जीवन के 86 वर्ष पूर्ण किये। आपका आशीर्वाद हम सबको, हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को सदैव मिलता रहे ईश्वर से यही कामना है। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपके स्वस्थ जीवन  के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 💐🙏)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 286 ☆

☆ यात्रा-संस्मरण ☆ चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति

हाल ही में सिक्किम यात्रा का अवसर मिला। ट्रेन से दिल्ली पहुंच कर 22 मार्च को बागडोगरा की फ्लाइट पकड़ी। हमारे परिवार के नौ लोग थे। बागडोगरा पहुंचने पर रोलेप ट्राइबल होमस्टे के संचालक श्री रोशन राय ने हमारी ज़िम्मेदारी संभाल ली। पहला गंतव्य मानखिम। उसके बाद लुंचोक, रोलेप, ज़ुलुक, गंगटोक और रावोंगला। 30 मार्च तक घूमना-फिरना, रुकना-  टिकना, खाना-पीना सब रोशन जी के ज़िम्मे। होमस्टे का अलग ही अनुभव था। रोशन जी अभी युवा हैं, बहुत सरल, विनोदी स्वभाव के। वैसी ही उनकी पूरी टीम है। सब कुछ घर जैसा, पूरी तरह अनौपचारिक। मेरी बेटियां और बहू उनकी टीम को रसोई में मदद देने में जुट जाती थीं।

रोलेप में हम ऊंची, मुश्किल जगहों में पैदल चढ़े। तब इत्मीनान हुआ कि उम्र बहुत हो जाने पर भी काठी अभी ठीक-ठाक है। अपने ऊपर भरोसा पैदा हुआ। ऊपर चढ़ने में मेरी फिक्र मुझसे ज़्यादा रोशन जी के लड़कों को रहती थी। हम 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित ज़ुलुक में भी एक रात ठहरे, जो बेहद ठंडी जगह है।

लौटते वक्त गंगटोक में हमारी भेंट रोशन जी की पत्नी और उनकी बहुत प्यारी बेटी से हुई। उनके साथ भोजन हुआ। दूसरे दिन रोशन जी ने हमें रास्ते में रोक कर हम सब के गले में पीला उत्तरीय डालकर हमें विदा किया। उनके व्यवहार के कारण हमारी यात्रा सचमुच यादगार बन गयी।

रोशन जी की टीम में जो लड़के हैं वे गांव-देहात के लड़कों जैसे हैं। होटलों में कार्यरत, ट्रेन्ड, ‘गुड मॉर्निंग, गुड ईवनिंग सर’ वाले सेवकों जैसे नहीं। आपके बगल में चलते-चलते वे आपके साथ कोई मज़ाक करके हंसते-हंसते दुहरे हो जाएंगे। रोशन जी ने बताया ये सब ऐसे लड़के थे जिनके घर में खाने-पहनने की भी तंगी थी। रोशन जी उन पर नज़र रखते थे कि पैसा मिलने पर कोई ग़लत शौक न पाल लें।

गंगटोक से चलकर हम नाथूला पास पर कुछ देर रुकते हुए रावोंगला पहुंचे, जो बागडोगरा वापस पहुंचने से पहले हमारा आखिरी मुकाम था। यहां ‘सेविन मिरर लेक’ नामक होमस्टे पर हम दो दिन रुके। सुन्दर स्थान है। सिक्किम में हर जगह तरह-तरह के फूलों की बहार दिखी। प्राकृतिक, प्रदूषण-मुक्त वातावरण में फूलों के दमकते रंग आंखों को चौंधयाते हैं।

इस होमस्टे से कुछ दूरी पर बुद्ध पार्क है। यहां गौतम बुद्ध की विशाल प्रतिमा, संग्रहालय  और पुस्तकालय हैं। पार्क बड़े क्षेत्र में फैला है। वहां पर्यटकों की अच्छी भीड़ दिखी।

होमस्टे की सीढ़ियों पर बने द्वार के बगल में लगी सफेद पत्थर की एक पट्टिका ने ध्यान खींचा। उस पर कुछ अंकित था। उत्सुकतावश पढ़ा तो चमत्कृत हो गया। पट्टिका पर लिखा था कि  वह द्वार अनेक ‘ज़ुंग’ अर्थात मंत्रों से अभिषिक्त था और उसके नीचे से निकलने वाला अपने सभी पिछले पापों से मुक्त हो जाएगा। (फोटो दे रहा हूं)

अंधा क्या चाहे, दो आंखें। मैं 86 की उम्र पार करने के बाद भी अभी तक संगम पहुंचकर अपने पाप नहीं धो पाया, इसलिए इस द्वार की लिखावट पढ़कर लगा अंधे के हाथ बटेर लग गयी। मैं तुरन्त दो तीन बार उस द्वार के नीचे से गुज़रा । मन हल्का हो गया, सब पापों का बोझ उतर गया। 86 पार की उम्र में नये पापों का पराक्रम करने की गुंजाइश बहुत कम है, इसलिए मुझे अब स्वर्ग की दमकती हुई रोशनियां साफ-साफ दिखायी पड़ने लगी हैं। मित्रगण भरोसा रख सकते हैं कि दुनिया से रुख़सत होने पर मुझे स्वर्ग में बिना ख़ास  जांच- पड़ताल के ‘एंट्री’ मिल जाएगी। परलोक की चिन्ता से मुक्त हुआ।

(ई-अभिव्यक्ति द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के 85 वें जन्मदिवस के अवसर पर स्मृतिशेष भाई जय प्रकाश पाण्डेय जी द्वारा संपादित 85 पार – साहित्य के कुंदन आपके अवलोकनार्थ)

इस प्रकार सौ टका पुण्यवान होकर 31 मार्च को दिल्ली से ट्रेन पकड़कर 1 अप्रैल की सुबह पंछी पुनि जहाज पर पहुंच गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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जगत सिंह बिष्ट

अत्यंत रोचक और सार्थक संस्मरण।

साधुवाद!