हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 112 ☆ बचपन के दिन…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपके बचपन के संस्करण  ‘बचपन के दिन….’ )  

☆ संस्मरण # 112 ☆ बचपन के दिन….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बचपन के दिनों को जिंदगी के सबसे सुनहरे दिनों में गिना जाता है। ये वो सबसे खास पल होते हैं, जब न ही किसी चीज की चिंता होती है और न ही किसी चीज की परवाह। हर किसी के बचपन का सफर यादगार और हसीन होता है, इसलिए अक्सर लोगों से मुंह से यह कहते जरूर सुना होगा कि ‘वो दिन भी क्या दिन थे’

बचपन पचपन के बाद थोड़ा ज्यादा याद आता है,

कंचे खेलते वे दिन,

पतंग लूटने की जद्दोजहद,

गिल्ली डंडा की उड़ती हुई गिल्ली,

तितली पकड़ने की भाग-दौड़,

कागज के हवाई जहाज का क्लास रूम में उड़ाना,

समय बिताने के लिए करना है कुछ काम,

हरी थी, मन भरी थी,

लाख मोती जड़ी थी,

राजा जी के बाग में 

दुशाला ओढ़े खड़ी थी, 

अखण्ड अंताक्षरी के मजे।

मोर-पंख किताबों में छुपाना,

स्कूल की छुट्टी होने पर

दौड़ते- भागते

एक दूसरे को टंगड़ी मारना,

वो सच, वो झूठ, वो खेल, वो नाटक, वो किस्से, वो कहानी

परियों वाली……

जबलपुर के नरसिंह बिल्डिंग परिसर में हमारा बीता बचपन,

नरसिंह बिल्डिंग में भले 60-70 परिवार रहते थे पर नरसिंह बिल्डिंग परिसर भरा पूरा एक परिवार लगता था । सभी हम उम्र के दोस्तों के असली नाम के अलावा घरेलू चलतू निक नेम थे, जो बोलने बुलाने में सहज सरल भी होते थे, जो उन 60-70परिवार के लोग बड़ी आत्मीयता से बोलते थे, निक नेम से ही सब एक दूसरे को जानते थे, जैसे फुल्लू, गुल्लू, किस्सू, गुड्डू, मुन्ना, मुन्नी, सूपी, राजू, राजा, नीतू, संजू, बबल, लल्ला, बाला, जग्गू आदि … आदि, सभी सुसंस्कारवान और सबका लिहाज और सम्मान करने वाले…….

तो एक दिन अचानक जयपुर से फुल्लू भाई (अनूप वर्मा) का फोन आया कि नरसिंह बिल्डिंग के फ्लैट नंबर 22  में 46 साल पहले रहने वाले मिस्टर कुमार नासिक से जबलपुर पहुँचे हैं और 46 साल पुरानी यादों को ताजा करने वे नरसिंह बिल्डिंग पहुचे हैं,अनूप ने नंद कुमार का फोन नंबर भी भेजा, हमने कुमार से बात की, पता चला कि वे मानस भवन के पास की पारस होटल में रूके हैं, 46  साल बाद पहली बार किसी को देखना और मिलकर पहली बार बात करना कितना रोमांचक होता है,जब हम और कुमार ने नरसिंह बिल्डिंग के उन पुराने दिनों के एक एक पन्ने को याद करना चालू किया,कुछ हंसी के पल,कुछ पुराने अच्छे लोगों के बिछड़ जाने की पीड़ा आदि के साथ कुमार ने सब परिवारों को दिल से याद किया, लाल ज्योति की याद आई, जग्गू और किस्सू को याद किया,मुरारी से मुलाकात का जिक्र आया,तो छत में रहने वाली नर्स बाई के जग्गू की बात हुई,रवि कल्याण,मीरा,चींना याद आए,ऊधर बिशू राजा ललिता से लेकर साधना, सूपी, शोभा, चिनी, मुन्नी, विनीता, संजू, भल्ला आदि सब कहाँ और कैसे की कुशलक्षेम बतायी गई, सात समंदर पार बैठी जया,नीलम, बड़े फुल्लू,अरविन्द,और सरोज दीदी को भी याद किया, 46 सालों का लेखा जोखा की बात करते हुए कुमार ने हंसी की फुलझड़ियां छोड़ते हुए बताया कि हमारे घर के नीचे फ्लैट नंबर 7और फ्लैट नंबर ८ में ‘ई एस आई’ का अस्पताल था जिसमें नीले रंग का छोटा सा बोर्ड  लगा था जिसमें लिखा था “छोटा परिवार सुखी परिवार ” पर डिस्पेंसरी के ऊपर नौ बच्चे का परिवार, डिस्पेंसरी के बाजू में नौ बच्चों का परिवार फिर बोर्ड में लिखी इबारत का नरसिंह बिल्डिंग में कितने घरों में पालन की समीक्षा में लगा कि नरसिंह बिल्डिंग में नौ बच्चे के परिवार खूब थे,पर गजब ये था कि सभी परिवारों में, अदभुत तालमेल और अपनत्व भाव था, पूरा भारत देश उस नरसिंह बिल्डिंग परिसर में बसा था, सभी त्यौहार सभी मिलजुल कर मनाते, एक नरसिंह बिल्डिंग परिसर ऐसी फलने वाली जगह थी जहाँ हर तरफ से सबके पास विकास के दरवाजे खुले मिले हर किसी ने हर फील्ड में उन्नति पाई ।

कुछ दिन बाद जयपुर से खबर आई कि मित्र छोटा फुल्लू (अनूप वर्मा) नहीं रहा, उसके साथ बिताए बचपन के दिन याद आये तो इतना सारा लिख दिया।

बचपन की सारी यादें साथ हैं,

 वे सारे लम्हें मेरे लिए खास हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ में आज एक संस्मरण

? संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय  ??

स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।

एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!

दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!

अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।

कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।

एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’

बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।

आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ??

दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?

प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।

इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रांगोली रंग बिखेर रही है।

रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।

सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी। हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।

कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।

दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।

पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।

अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।

पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:50 बजे, 21.6.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अत्यंत रोचक संस्मरण  ‘बहुरूपिए से मुलाकात ….’  साथ ही आप  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की  उसी बहुरुपिए से मुलाकात के अविस्मरणीय वे क्षण इस लिंक पर क्लिक कर  >> बहुरुपिए से मुलाकात   

☆ संस्मरण # 109 ☆ बहुरूपिए से मुलाकात ….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

विगत दिवस गांव जाना हुआ। आदिवासी इलाके में है हमारा पिछड़ा गांव। बाहर बैठे थे कि अचानक पुलिस वर्दी में आये एक व्यक्ति ने विसिल बजाकर डण्डा पटक दिया । हम डर से गए, पुलिस वाले ने छड़ी हमारे ऊपर घुमाई और जोर से विसिल बजा दी….. 

….. साब दस रुपए निकालो! सबको अंदर कर दूंगा, मंहगाई का जमाना है, बच्चादानी बंद कर दूंगा। सच्ची पुलिस और झूठी पुलिस से मतलब नहीं,हम बहुरूपिया पुलिस के बड़े अधिकारी हैं, 52 इंच का सीना लेकर घूमते हैं, चोरों से बोलते नहीं, शरीफों को छोड़ते नहीं। थाने चलोगे कि राजीनामा करोगे…. राजीनामा भी हो जाएगा, अभी अपनी सरकार है, और हमारी सरकार की खासियत है कि अपनी सरकार में खूब बहुरुपिए भरे पड़े हैं, मुखिया सबसे बड़ा बहुरूपिया माना जाता है। साब झूठ बोलते नहीं सच को समझते नहीं, राजीनामा हो जाएगा। आश्चर्य हुआ इतने मंहगाई के जमाने में पुलिस वर्दी सिर्फ दस रुपए की डिमांड कर रही है।

हमने भी चुपचाप जेब से दस रुपए निकाल कर बढ़ा दिए। 

अचानक उसकी विनम्रता पानी की तरह बह गई। हंसते हुए उसने बताया – साब बहुरुपिया प्रकाश नाथ हूं…. दमोह जिले का रहने वाला हूँ। मूलत: हम लोग नागनाथ जाति के हैं सपेरे कहलाते हैं सांप पकड़ कर उसकी पूजा करते और करवाते हैं पर सरकार ऐसा नहीं करने देती अब। हम लोग गरीबी रेखा के नीचे वाले जरूर हैं पर उसूलों वाले हैं। जीविका निर्वाह के लिए तरह-तरह के भेष धारण करना हमारा धर्म है। कभी नकली पुलिस वाला, कभी बंजारन, कभी रीछ, कभी भालू और न जाने कितने प्रकार के भेष बदलकर समाज के भेद जानने के लिए प्रयासरत रहते हैं और समाज में फैले अंधविश्वास, विसंगतियों को पकड़ कर उन्हें दूर कराने का प्रयास करते हैं। हम लोग पुलिस मित्र बनकर छुपे राज जानकर पुलिस के मार्फत समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं।बहुरुपिया समाज का अधिकृत पंजीकृत संगठन है जिसका हेड आफिस भोपाल में है वहां से हमें परिचय पत्र भी मिलता है। संघ की पत्रिका भी निकलती है। सियासत करने वाले बहुरुपिए नेता लोग बदमाश होते हैं पर हम लोग ईमानदार लोग हैं ,निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए बहुरुपिया बनकर लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। 

उसने बताया कि बड़े शहरों में यही काम बड़े व्यंग्यकार करते हैं जो समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करने के लिए लेख लिखकर छपवाते हैं और पढ़वाते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ ‘यादों की धरोहर’ में स्व. हरिशंकर परसाईं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ ‘यादों की धरोहर’  में  स्व. हरिशंकर परसाईं ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

[1] साहित्यिक हास्य : परसाई का स्नेह चार्ज

हरिशंकर परसाई ने अपनी पहली पुस्तक – हंसते हैं,  रोते हैंं,  न केवल स्वयं प्रकाशित की बल्कि बेची भी । उनका समर्पण भी उतना ही दिलचस्प था – ऐसे आदमी को जिसे किताब खरीदने की आदत हो और जिसकी जेब में डेढ़ रुपया हो ।

एक मित्र ने कहा – यह क्या सूखी किताब दे रहे हो ? अरे,  कुछ सस्नेह,  सप्रेम लिखकर तो दो ।

परसाईं ने किताब ली और लिखा – भाई मायाराम सुरजन को सस्नेह दो रुपये में ।

मित्र ने कहा – किताब तो डेढ़ रुपये की है । दो रुपये क्यों ?

परसाई का जवाब – आधा रुपया स्नेह चार्ज ।

 

[2] हरिशंकर परसाई कहिन

मेरी कभी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही । जब पूरी तरह लेखन करने लगा तब भी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही । मेहनत से लिखता था । बस , यही चाहता था कि लेखन सार्थक हो । पाठक कहें कि सही है ।

मुझे मान सम्मान बहुत मिले । साहित्य अकादमी,  शिखर , मानद डाक्टरेट , प्रशस्ति पत्र  ,,,, ये सब कुछ अलमारी में बंद । कमरे में सिर्फ गजानंद माधव  मुक्तिबोध का एक चित्र । बस । सम्मान का कोई प्रदर्शन नहीं ।

 

[3] बुरा ही बुरा क्यों दिखता है 

एक आरोप मुझ पर लगाया जाता है कि मुझे बुरा ही बुरा क्यों दिखता है ? मेरी दृष्टि नकारात्मक है ।

यह कहना उसी तरह हुआ जिस डाँक्टर के बारे में कहा जाए कि उसे आदमी में रोग ही रोग दिखता है ।

हरिशंकर परसाईं का कहना था कि मैं उन लेखकों में से नहीं जो कला के नाम पर बीमार समाज पर रंग पोतकर उसे खूबसूरत बना कर पेश कर दें । वे लेखक गैर जिम्मेदार हैं । जिम्मेदार लेखक  बुराई बताएगा ही । क्योंकि वह उसे दूर करके बेहतर जीवन चाहता है । वे मुक्तिबोध की पंक्तियां गुनगुनाने लगे

जैसा जीवन है उससे बेहतर जीवन चाहिए

सारा कचरा साफ करने को मेहतर चाहिए

 ‘यादों की धरोहर’ पुस्तक में से  स्व हरिशंकर परसाई जी के साक्षात्कार के अंश

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

पंजाब विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डाॅ इंद्रनाथ मदान को इसी टैग लाइन के साथ याद किया जाता है -पान , मदान और गोदान । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को जो ऊंचाई दी उसके बल पर देश भर में विभाग का डंका बजता आ रहा है । डाॅ मदान के साथ बहुत सारी मुलाकातें और यादें हैं । व्यंग्य का लहजा आम बातचीत में भी रहता था जैसा उनके व्यंग्य लेखों में । मैं बहुत छोटे से शहर नवांशहर से चंडीगढ़ आता था । पहले पहल फूलचंद मानव के पास , फिर रमेश बतरा और बाद में डाॅ वीरेंद्र मेंहंदीरत्ता के पास । वैसे उन दिनों डाॅ इंदु बाली, राकेश वत्स से भी चंडीगढ़ में ही मुलाकातें होती रहीं । अनेक समारोहों में मिलते रहे । रमेश बतरा तो शामलाल मेंहदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर के संपादन के लिए चर्चित हो रहा था जिसका लघुकथा विशेषांक खूब रहा । डाॅ अतुलवीर अरोड़ा डाॅ मदान के प्रतिभाशाली शिष्यों में से एक थे । 

संभवतः पान, मदान और गोदान की यह टैग लाइन फूलचंद मानव के मुंह से ही शुरू में सुनी । वे ही पहली बार मुझे डाॅ मदान से मिलाने ले गये थे । डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुंशी प्रेमचंद और गोदान पर लिखा । एक मुलाकात में पूछा था मैंने कि क्या आप मुंशी प्रेमचंद से कभी मिले थे ? तब उन्होंने बताया था कि मिला था लेकिन यह ऐसा चित्र है कि उनके जूतों के तस्मे तक ढंग से बंधे नहीं थे । इतने लापरवाह किस्म के आदमी थे लेकिन लेखन में पूरे चाक चौबंद । यह गोदान पढ़ने के बाद समझ लोगे । उनकी कोठी बस स्टैंड के निकट सेक्टर अठारह में थी और हमारे क्षेत्र के विधायक दिलबाग सिंह भी वहीं निकट ही रहते थे । इसलिए जब कभी किसी काम से चंडीगढ़ अपने विधायक के यहां जाना हुआ तो डाॅ मदान की कोठी में भी झांक आता था । 

बहुत प्यारी सी याद आ रही हैं । दिल्ली से डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार चंडीगढ़ आए तब मुझे भी सूचित किया । मैं चंडीगढ़ खासतौर पर गया । डाॅ कोहली के साथ मैं और रमेश बतरा पिंजौर भी गये । बाद में डाॅ मदान की कोठी पहुंचे । उनके लाॅन में  गोष्ठी चल रही थी । अचानक मुझे उल्टियां लग गयीं माइग्रेन की वजह से । मैं दो तीन बार लाॅन से उठ कर बाथरूम में गया । डाॅ मदान को पता    चला तो रमेश से बोले -क्या यार । कमलेश को फ्रिज में से शराब निकाल कर दो पैग पिला दो । ठीक हो जायेगा । सब तरफ ठहाके और मेरा माइग्रेन काफूर । ऐसे थे डाॅ मदान । हर नया रचनाकार चाहता था कि डाॅ मदान उसके बारे में , लेखन पर दो पंक्तिया लिख दें । डाॅ नामवर सिंह की तरह डाॅ मदान का सिक्का चलता था । रवींद्र कालिया हों या निर्मल वर्मा या फिर राजी सेठ । सबको उन्होंने रेखांकित किया , उल्लेखित किया और चर्चित किया । जब वे जीवन की सांध्य बेला में थे तब मेरा प्रथम कथा संग्रह महक से ऊपर आया था । मैंने उन्हें भेंट किया और कुछ दिन बाद जब दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू करने गया तब उन्होंने कहा कि तुमने अपना कथा संग्रह तब दिया जब मैं कुछ भी लिख नहीं पा रहा । पर मैंने सारा पढ़ लिया है और निशान भी लगाये हैं । बहुत संभावनाएं हैं तुम्हारे कथाकार में । ये वे दिन थे जब उन्हें पीजीआई से कैंसर के कारण अंतिम दिन भी बता दिए गये थे और वे मेरे जैसे नये कथाकार को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे । मैंने कहा कि आप न भी लिख पाएं पर आपका आशीष मुझे मिल गया । मेरे लिए यही बड़ी बात है । 

अब उनके अंतिम इंटरव्यूज के बारे में बताता हूं । यह सन् 1984 के दिनों की बात है जब खटकड़ कलां में मेरे छोटे भाई तरसेम की प्रिंसिपल से ऐसी कहा सुनी हुई कि उसकी नौकरी खतरे में पड़ गयी । मैं उसकी नौकरी बचाने भागा डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर आकर रुका । रात खाना खाने लगे तो उन्होंने मुझे उदास देख सारा माजरा पूछा और कौन बाॅस है के बारे में जानकारी ली । जब मैंने अपने वाइस चेयरमैन प्रो प्रेम सागर शास्त्री का नाम लिया तो मेंहदीरत्ता जी बोले कि चुपचाप खाना खा लो । तुम्हारा काम हो गया समझो । असल में प्रेम सागर जी उनके सहयोगी रह चुके थे और परम मित्र थे । वह काम हो भी गया । फिर मैं अपने विधायक के पास दूसरे दिन जाने लगा तब डाॅ मेंहदीरत्ता ने कहा कि हो सके तो डाॅ मदान की खबर सार लेने जाना । वे पीजीआई से घर आ चुके हैं और अकेला महसूस करते हैं । तुम जाओगे तो खुश हो जायेंगे । मैंने वादा किया कि जरूर जाऊंगा क्योंकि आपको याद दिला दूं कि हमारे विधायक की कोठी बिल्कुल पास थी । डाॅ मेंहदीरत्ता ने बताया कि बेशक डाॅ मदान हमारे चेयरमैन थे लेकिन कभी किसी को अपने ऑफिस में नहीं बुलाते थे । जब कोई बात करनी होती तो हमारे ही पास कमरे में आ जाते । कभी अध्यक्ष होने का रौब गालिब नहीं किया ।

 वही किया मैंने जो कहा था डाॅ मेंहदीरत्ता को । विधायक से थोड़ी सी मुलाकात कर मैं डाॅ मदान की कोठी की ओर चल दिया । वे छड़ी पकड़े बाहर ही दिल बहलाने के लिए चक्कर काट रहे थे । मुझे देखकर अंदर चल दिए । हम आमने सामने बैठ गये । मुझे यह आइडिया तक नहीं था कि आज मैं डाॅ मदान की इंटरव्यू करने वाला हूं । वे बहुत खूबसूरत सी यादों में बह गये और बहते चले गये । सचमुच डाॅ मेंहदीरत्ता  ठीक कह रहे थे कि उदास रहते हैं । कुछ बात हो जाए और ज्यादा देर बैठ  सको तो अच्छा रहेगा । वही हुआ । वे यादों में बहते गये और मैं डायरी निकाल नोट्स लेता गया । कुछ कुछ पूछ भी लिये सवाल । काफी देर तक चला यह सिलसिला । ऐसे लगा मानो वे लेखकों पर छड़ी बरसा रहे थे । आखिर मैंने विदा ली । तब तक मैं अपने छोटे से कस्बे नवांशहर से दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर भी बन चुका था सन् 1978 दिसम्बर से । इसलिए चंडीगढ़ जाने पर मेरा आकर्षण दैनिक ट्रिब्यून  का कार्यालय भी बन चुका था । वहां से निकल कर मैंने सीधी सेक्टर 29 की लोकल बस पकड़ी और दैनिक ट्रिब्यून में पहुंच गया । विजय सहगल  सहायक संपादक थे और राधेश्याम शर्मा संपादक । विजय सहगल से मैं काफी घुला मिला था सो पहले उनके पास पहुंचा । उन्होंने पूछा कि कहां से आ रही है मेरी सरकार ? जब मैंने बताया कि डाॅ मदान से मिल कर तब अगली बात पूछी कि कोई बात हुई उनसे ? मैंने बताया कि कोई क्यों ? बहुत सारी बातें । तो चलो पहले पंडित जी के पास । पंडित जी यानी संपादक राधेश्याम शर्मा जी । वे जोश में मुझे धकेलते हुए उनके कमरे में दाखिल हुए । बताया कि पंडित जी कमलेश डाॅ मदान से मिलकर आ रहा है । बस । वे तो मानो इसी इंतजार में थे कि कोई आए और डाॅ मदान का इंटरव्यू लिख कर दे दे । सो एकदम आदेश हुआ कि अभी मेरे ऑफिस में सामने मेज़ पर बैठो । पैड उठाओ और इंटरव्यू लिखकर दो । 

मैं हैरान । क्या इस तरह भी लिखना पड़ेगा ? किसी समाचारपत्र के कार्यालय में संपादक के सामने बैठ कर इंटरव्यू लिखना परीक्षा देने जैसा लगा । जैसे तपते बुखार में मैंने परीक्षा की तरह लिखा । राधेश्याम जी को सौपा तो उन्होंने कहा कि इसे मूल्यांकन के लिए विजय सहगल को न देकर रमेश नैयर से करवाते हैं क्योंकि विजय तो आपके दोस्त हैं । उन्होंने रमेश नैयर को वे पन्ने भेज दिए । कुछ समय बाद रमेश नैयर मेरा लिखा इंटरव्यू लेकर आए और बोले कि यह इंटरव्यू मेरे आजतक पढ़े श्रेष्ठ इंटरव्यूज में से एक है । बस । उसी रविवार इसे प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया । एक सवाल था कि सरकारी अकादमियां क्या कर पाती हैं ? डाॅ मदान का जवाब था कि भाषा को संवारने और साहित्य को बढ़ाने का काम सरकारी तौर पर नहीं हो सकता । जब पंजाब का भाषा विभाग बना था तो शुरू में कुछ गंभीरता से काम हुआ था लेकिन बाद में रूटीन बन गया और खाना पीना होने लगा । इतने स्पष्ट जवाब डाॅ मदान ही दे सकते थे । रवींद्र कालिया पर भी टिप्पणी थी कि पहले बहुत बढ़िया लिखा लेकिन अब घास काट रहा है । यानी किसी का लिहाज नहीं । निर्मल  वर्मा का उपन्यास पाठ्यक्रम में न लगवा पाने का भी उन्हें दुख साल रहा था । यह बहुत बड़ी बात भी कही कि यदि गद्य लेखन में यानी कहानी उपन्यास में पंजाब के लेखकों के योगदान की बात करनी है तो इन्हें यदि निकाल दिया जाए तो आधा लेखन रह जाए । इतना योगदान है । 

मैंने कहा कि आप इन दिनों कुछ लिख रहे हैं तो उनका कहना था कि लिखना चाहता हूं लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा । मैंनै सुझाव दिया कि किसी को डिक्टेशन दे दीजिए । आप कहो तो मैं आ जाया करूंगा नवांशहर से । कहने लगे कि जब तक अपने हाथ के अंगूठे के नीचे कलम न दबा लूं तब तक लिखने का मज़ा कहां ? फिर व्यंग्य के मूड में आए कि बताओ आजकल लोग हालचाल पूछने तो आते नहीं । मेरे बाद बड़े बड़े आंसू बहायेंगे और अखबार में शोक संदेश देंगे जैसे मेरे बिना मरे जा रहे हों । प्रकाशकों के बारे में पूछे जाने पर कहा कि जब हिंदी विभाग का अध्यक्ष था तब पीछे पीछे चक्कर काटते थे कि आपकी नयी किताब हम छापेंगे और अब कोई किताब कहूंगा छापने को तो कहेंगे कि हमारे पास आलोचनात्मक पुस्तक के लिए बजट नहीं । सीधी बात यह कि उसी बेरी को पत्थर मारते हैं जिस पर बार लगे हों । अब मैं किसी पद पर नहीं यानी मेरे कोई बेर नहीं लगा तो क्यों आएंगे ?

इस पहली इंटरव्यू का इतना चर्चा हुआ कि राधेश्याम जी ने मुझे नवांशहर से बुलाया और दूसरा इंटरव्यू करने के लिए कुछ प्रश्न दिए और मेरे साथ फोटोग्राफर योग जाॅय को लेकर चले । वहां मुलाकात की । डाॅ मदान कम कहां थे – बोले कि कमलेश को नवांशहर से बुलाकर कुछ दोगे भी या रूखा सूखा इंटरव्यू करवाओगे ? इस हंसी मज़ाक के बीच फिर सवाल जवाब हुए और योग जाॅय का फोटो सैशन भी । सबसे मुश्किल सवाल मुझे दिया था कि पूछ लूं कि अंतिम समय क्या चाहते हैं ? 

इसका जवाब था कि अंतिम समय में मेरी अस्थियों को गंगा में विसर्जित न किया जाए बल्कि सतलुज में विसर्जित की जाएं क्योंकि मैंने इसी का पानी पिया है और अन्न खाया है । यही नहीं चूंकि वे आजीवन अविवाहित रहे थे और अंतिम समय में एक लड़की को गोद ले लिया था तो कोठी और पुस्तकों के भंडार का क्या किया जाए ?

डाॅ मदान की इच्छा थी कि इसे शोधछात्रों को अर्पित किया जाए और यह एक केंद्र बने लेकिन ऐसा नहीं हुआ । गोद ली हुई बेटी ने यह इच्छा पूरी नहीं की । वे विदेश चली गयीं । गोद ली हुई बेटी का नाम सरिता है जिसने हिंदी विभाग से एम ए की । बाद में डाॅ मदान ने उस मुंहफोली बेटी सलिता की विनोद से शादी कर दी और वह फ्रांस चली गयी । आजकल डाॅ मदान की कोठी सरिता ने अपनी बहन को दे रखी है । इस तरह डाॅ मदान की इच्छा अधूरी ही रही । डाॅ मदान और पंजाब विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग जैसे एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे । व्य॔ग्य में एक बड़ा नाम । उन्होंने मुझे अपना व्यंग्य संग्रह भेंट किया जो एक मधुर याद की तरह मेरे पास सुरक्षित है ।  व्यंग्य को लेकर वे कहते थे कि दूसरों पर व्यंग्य करने की बजाय अपने पर करो । यह शेर भी सुनाया करते थे :

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है साकी 

मज़ा तो तब है जो गिरतों को थाम ले साकी

डाॅ मदान ही नहीं , रमेश  बतरा की याद और वो लाॅन पर गोष्ठी और यह कहना कि कमलेश को दो पैग लगवा दे । आज तक हंसी ला देता है मेरे होंठों पर । रमेश बतरा से अनजाने ही दो बातें सीखीं । पहला संपादन । दूसरा संगठन चलाने के लिए गुण । संपादन तो वह दिल्ली की लोकल बस में सफर करते भी करता जाता था । नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करना भी उसी से सीखा । चंडीगढ़ में हर वीकएंड रमेश के साथ बिताता रहा । और उसका आदेश कि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना -बड़ा काम आया । मैं निरंतर कहानी , सारिका , धर्मयुग और नया प्रतीक में प्रकाशित हुआ । 

संभवतः डाॅ इंद्रनाथ मदान के तीन तीन इंटरव्यूज ही मेरे दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बनने का मार्ग प्रशस्त कर गये और उनका यह कहना कि राधेश्याम, कमलेश को कुछ दोगे भी ? यह उपसंपादक बनना शायद उनकी ही दिखाई हुई राह थी । फिर तो इंटरव्यू दर इंटरव्यू  किए और बनी यादों की धरोहर जिसमें संभवतः सबसे लम्बा इंटरव्यू डाॅ मदान का ही है । उनका इंटरव्यू न केवल दैनिक ट्रिब्यून बल्कि राजी सेठ के संपादन में युगसाक्षी पत्रिका में भी आया और पंजाब की पत्रिका जागृति में भी । आह । इतना सच और खरा खरा बोलने वाला आलोचक नहीं मिला फिर और उनका यह मंत्र कि कृति की राह से गुजर कर । यानी जो कृति में है उसी की चर्चा करो । जो नहीं है उसको खोजना या चर्चा करना बंद करो । यह मंत्र बहुत कम आलोचकों ने स्वीकार किया पर यह लक्ष्मण रेखा जरूरी है । डाॅ मेंहदीरत्ता लगातार मांग करते रहे कि मदान विशेषांक निकाला जाए पर वह भी नहीं हो पाया किसी से । सबसे मीठा उलाहना डाॅ अतुलवीर अरोड़ा से बरसों बाद सुनने को मिला कि वे डाॅ मदान के प्रिय और प्रतिभाशाली छात्र जरूर रहे । शोध भी उनके निर्देशन में किया पर उनके भाग्य में डाॅ मदान का साथ और सहयोग कम रहा कि उन्होंने नियुक्ति में तटस्थता अपनाए रखी । खैर,अफसोस । 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 97 ☆ स्वच्छता मिशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  ‘नकली इंजेक्शन)  

☆ संस्मरण # 97 ☆ स्वच्छता मिशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ये बात ग्यारह साल पहले की है, जब स्वच्छता मिशन चालू भी नहीं हुआ था…….. ।
समाज के कमजोर एवं गरीब वर्ग के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में स्टेट बैंक की अहम् भूमिका रही है। ग्यारह साल पहले हम देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच लोकल हेड आफिस, भोपाल में प्रबंधक के रुप में पदस्थ थे। ग्वालियर क्षेत्र में माइक्रो फाइनेंस की संभावनाओं और फाइनेंस से हुए फायदों की पड़ताल हेतु ग्वालियर श्रेत्र जाना होता था। माइक्रो फाइनेंस अवधारणा ने बैंक विहीन आबादी को बैंकिंग सुविधाओं के दायरे में लाकर जनसाधारण को परंपरागत साहूकारों के चुंगल से मुक्त दिलाने में प्राथमिकता दिखाई थी, एवं सामाजिक कुरीतियों को आपस में बातचीत करके दूर करने के प्रयास किए थे।
एक उदाहरण देखिए……..
स्व सहायता समूह की एक महिला के हौसले ने पूरे गाँव की तस्वीर बदल डाली , उस महिला से प्रेरित हो कर अन्य महिलाऐं भी आगे आई …. महिलाओं को देख कर पुरुषों ने भी अपनी मानसिकता को त्याग दिया और जुट गए अपने गाँव की तस्वीर बदलने के लिए….. ।
 ………ग्वालियर जिले का गाँव सिकरोड़ी की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या अनुसूचित जाति की है लोगों की माली हालत थी , लोग शौच के लिए खुले में जाया करते थे, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने माइक्रो फाइनेंस योजना के अंतर्गत वामा गैर सरकारी संगठन ग्वालियर को लोन दिया , वामा संस्था ने इस गाँव को पूर्ण शौचालाययुक्त बनाने का सपना संजोया …. अपने सपने को पूरा करने के लिए उसने स्टेट बैंक की मदद ली , गाँव के लोगों की एक बैठक में इस बारे में बातचीत की गई , बैठक के लिए शाम आठ बजे पूरे गाँव को बुलाया गया , हालाँकि उस वक़्त तक गाँव के पुरुष नशा में धुत हो जाते थे और इस हालत में उनको समझाना आसान नहीं था , लेकिन वामा और स्टेट बैंक ने हार नहीं मानी, और फिर बैठक की ….बैठक में महिलाओं और पुरुषों को शौचालय के महत्त्व को बताया , पुरुषों ने तो रूचि नहीं दिखी लेकिन एक महिला के हौसले ने इस बैठक को सार्थक सिद्ध कर दिया । विद्या देवी जाटव ने कहा कि वह अपने घर में कर्जा लेकर शौचालय बनवायेगी , वह धुन की पक्की थी उसने समूह की सब महिलाओं को प्रेरित किया इस प्रकार एक के बाद एक समूह की सभी महिलाएं अपने निश्चय के अनुसार शौचालय बनाने में जुट गईं , पुरुष अभी भी निष्क्रिय थे …. जब उन्होंने देखा कि महिलाओं में धुन सवार हो गई है तो गाँव के सभी पुरुषों का मन बदला और तीसरे दिन ही वो भी सब इस सद्कार्य में लग गए और देखते ही देखते पूरा गाँव शौचालय बनाने के लिए आतुर हो गया , प्रतिस्पर्धा की ऐसी आंधी चली कि कुछ दिनों में पूरे गाँव के हर घर में शौचालय बन गए और साल भर में  कर्ज भी पट गए …. तो भले राजनीतिक लोग स्वच्छता अभियान, और शौचालय अभियान का श्रेय ले रहे हों,पर इन सबकी शुरुआत ग्यारह साल पहले स्टेट बैंक और माइक्रो फाइनेंस ब्रांच भोपाल ने चालू कर दी थी।
 ……. जुनून पैदा करो और जलवा दिखाओ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण#94 ☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।)

☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के विशेष स्वर्णिम अनुभवों को साझा करने जा रहे हैं जो उन्होने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के कार्यकाल में प्राप्त किए थे। आपने आरसेटी में तीन वर्ष डायरेक्टर के रूप में कार्य किया। आपके कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। इस उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा दिल्ली में आपको बेस्ट डायरेक्टर के सम्मान से सम्मानित किया गया था। मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अनुभव साझा करने के लिए ह्रदय से आभार – हेमन्त बावनकर)  

आज ऐसे एक इवेंट को आप सब देख पायेंगे, जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तो आरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे।

उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में  कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया, फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था, दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ।

आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है।इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन अलग अलग तरह के कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण खाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ, सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…..। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप देखकर बताईए, आपको कैसा लगा।

यूट्यूब लिंक >> SBI RSETI Umaria –Bichka Scarecrow) Workshop at Jangan Tasveer Khana Lorha (M.P.)

स्व आशीष स्वामी

इस अप्रतिम अनुभव को साझा करते हुए मुझे गर्व है कि मुझे आशीष स्वामी जी जैसे महान कलाकार का सानिध्य प्राप्त हुआ। अभी हाल ही में प्राप्त सूचना से ज्ञात हुआ कि उपरोक्त कार्यशाला के सूत्रधार श्रीआशीष स्वामी का कोरोना से निधन हो गया।

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया, दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले, ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए, कोरोना उन्हें लील गया। महान कलाकार को विनम्र श्रद्धांजलि!!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 104 ☆ संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। साथ ही मिला है अपनी माताजी से संवेदनशील हृदय। इस संस्मरण स्वरुप आलेख के एक एक शब्द – वाक्य उनकी पीढ़ी के संस्कार, संघर्ष और समर्पण की कहानी है । गुरु माँ जी ने निश्चित ही इस आत्मकथ्य को लिखने के पूर्व कितना विचार किया होगा और खट्टे मीठे अनुभवों को नम नेत्रों से लिपिबद्ध किया होगा। यह हमारी ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी उनकी पीढ़ी के विरासत स्वरुप दस्तावेज हैं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104 ☆

? संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ?

(पुराने कम्प्यूटर पर वर्ष 2001 की फाइलों में  स्व माँ की यह वर्ड फाइल  मिली, अब माँ के स्वर्गवास के उपरांत  इसका दस्तावेजी महत्व है । यथावत, यूनीकोड कन्वर्जन कापी पेस्ट – विवेक रंजन श्रीवास्तव)

मारा वैवाहिक जीवन पहले उस मुरब्बे के समान रहा जो पहले पहल कुछ खट्टा मीठा मिलने पर होता ही है। परन्तु जैसे – जैसे त्याग, दृढ़ संकल्प, प्यार, उम्र के शीरे में पगता गया तो सचमुच जीवन अति मधुर – मधुरतम होता गया। जो संतोष सबों को नहीं मिलता, वह हमें मिला है। और हमारे पास इसकी एक कुंजी है, हम दोनों का एक दूसरे पर अटूट भरोसा करते हैं। हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं हमारी सुयोग्य संतान।

यह सब शायद हमारे तपोमय गृहस्थ जीवन के फल हैं। धन तो नश्वर है, परन्तु चरित्रवान संतान पीढ़ी – दर – पीढ़ी रहने वाली सम्पत्ति है। सन 1951 में जब हमारी शादी हुई थी, तब मध्यप्रदेश सी.पी.एण्ड बरार कहलाता था मेरे पति जिला मण्डला के रहने वाले थे।  और मेरे पिता लखनऊ में शासकीय सेवा में थे। मेरी इन्टरमीडियट तक की शिक्षा (शादी के पहले) लखनऊ में ही हुई। मैं अपने सात बहनों व दो भाईयों में सबसे छोटी थी।  मेरे पति अपने चारों भाईयों में सबसे बड़े वे। शादी के समय मेरे पति इण्टर के साथ विशारद पास करके उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर खामगांव बरार में पदस्थ थे।  विशारद को उस समय बी.ए. के समकक्ष मान्यता थी। इसी आधार पर इन्हें उच्च श्रेणी शिक्षक का पद मिला था। सो शायद नासमझी में इन्होंने मेरे पिताजी को अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक ही बताई थी।  पहली रात को जब हम मिले तो इन्होंने मजाक किया कि तुम मुझे बी.ए. पास समझती हो, परन्तु यदि ऐसा न हो तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा ? और इन्होंने मैट्रिक का एडमीशन कार्ड रोल नंबर दिखाया, क्योंकि महाराष्ट्र में पदस्थ होने से मराठी भाषा सीखने के लिये उन्होंने उसी वर्ष मराठी भाषा की मैट्रिक की परीक्षा दी थी। बचपन में पढ़ी हुई रामायण के आदर्श की छाप मेरे मन में थी। सीता जैसी पत्नि का स्वरूप मेरे मन व मस्तिष्क में अंकित था। माता – पिता के द्वारा दी गई शिक्षा भी ऐसी ही थी कि जो स्त्री हर परिस्थिति में पति की सहधर्मिणी हो, वही श्रेष्ठ कहलाती है। मेरी आगे पढ़ने की लालसा ने और भी प्रेरणा दी और खुश होकर मैने कहा कि तो क्या हुआ, हम दोनों ही साथ – साथ बी.ए. इसी वर्ष कर लेंगे ।

इनका परिवार सामान्य मध्यम वर्ग का था। मण्डला जैसे पिछड़े स्थान का भी कुछ प्रभाव था, बहू को पढ़ाना तो शायद सोचा भी नहीं जा सकता था। इनके पिता की अस्वस्थता के कारण इन्हें मैट्रिक पास करके परिवार का आर्थिक खर्च वहन करने के लिये लिपिक की नौकरी से जीवन की शुरुवात करनी पड़ी थी। उस पहली नौकरी के साथ ही इन्होंने प्राइवेट ही साहित्य सम्मेलन से संचालित परीक्षा दे डाली और विशारद पास कर लिया, और इसी आधार पर खामगांव में इनकी उच्च श्रेणी हिन्दी शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गयी। शादी के समय पहली बार ही 10-15 दिन मुझे ससुराल में रहना पड़ा। मैने महसूस किया कि घर की आर्थिक स्थिति डॉवाडोल है। मेरे मन में कुछ करने का उत्साह था, बस मैनें इनसे अपनी इच्छा जाहिर की,कि यदि में नौकरी कर लूंगी तो दोनों मिलकर अधिक आर्थिक बोझ उठा सकेंगे।

इत्तिफाक से इन्हीं के स्कूल में एक लेडी टीचर का स्थान रिक्त था, और तत्कालीन डी.एस.ई. (नियुक्ति अधिकारी) ने मेरी नियुक्ति उस स्थान पर करने की सहमति भी दे दी। किन्तु मेरे सास ससुर व मेरे माता पिता उन पितृपक्ष के कड़वे दिनों में विदा के लिये तैयार नहीं थे इन्होंने मेरी राय जाननी चाही। पता नहीं किस दैवी प्रेरणा से मैने अपनी स्वीकृति इन्हें पत्र द्वारा सूचित कर दी।  मैंने सोचा आज जो मौका मिल रहा है, पता नहीं कल मिले या न मिले ? अतः मौके का लाभ ले ही लेना चाहिए उस समय पितृपक्ष चल रहा था। परम्परा के अनुसार लड़की की विदाई आदि के लिये यह समय शुभ मुहूर्त नहीं माना जाता, परन्तु हम दोनों के कहने से हमारे बड़ों ने भी अनुमति दे दी और पितृपक्ष में ही हमारी बिदा कर दी गयी।

मैंने चिखली बरार में इनके साथ पहुंचकर शिक्षकीय कार्य संभाल लिया। हम दोनो ने बी.ए.का फार्म भी  नागपुर विश्वविद्यालय से प्राइवेट भर दिया। और नई नई शादी में पढ़ाई भी शुरू हो गई। उस छोटी सी उम्र में नौकरी, पढ़ाई और नई गृहस्थी के कार्य संभालना पड़ा।  थोड़ी कठिनाई जरूर महसूस हुई परन्तु पतिदेव के सहयोग से सारी कठिनाईयाँ हंसी – खुशी हल होती गई। निरन्तर प्रयास से हम दोनों ने बी.ए., फिर एम.ए. व बी.टी. बिना रुकावट के पास कर लिया। बाद में जब मेरे पिताजी को इनकी इतनी सारी डिग्रियों का व विवाह के बाद पढ़ने की असलियत का पता चला तो उन्होंने खुश होकर इनको ‘आफताब” का खिताब तक दे डाला था। इसी बीच बड़ी बेटी वन्दना का जन्म हुआ और घर – गृहस्थी व नौकरी की व्यस्तता में मेरी पढ़ाई में तो फुलस्टॉप लग गया। परन्तु इन्होंने लगातार पढ़ाई जारी रखी और डबल एम.ए. व एम एड। पास किया। शासकीय सेवा में प्रमोशन होते रहे।  मैं प्राचार्य पद से सेवानिवृत हो चुकी हूँ व मेरे पतिदेव उसी प्रांतीय शिक्षक प्रशिक्षण कालेज से प्रोफेसर पद से  सेवानिवृत हुए, जहाँ कभी हमने साथ साथ शिक्षक प्रशिक्षण लिया था।

हमारे तीन बेटियां व एक बेटा है, सभी सुशिक्षित है। बेटा भी जैसी मेरी कल्पना थी कि ‘ वरम एको गुणी पित्ः न च मूर्खः शतान्यपि, वैसा ही गुणी निकला। आज वह भी विद्युत विभाग में एस.ई.के पद पर है। चारों बच्चों की अच्छी शादियां यथासमय हो गई। और सभी अपने परिवार के साथ प्रसन्न है। मुझे संतोष है कि नन्हें नन्हें प्यारे नाती नातिनो के रूप में मेरे अथक परिश्रम का फल मुझे पूरा मिल गया। बच्चों को सही दिशा मिल सकी। मेरे पतिदेव एक विख्यात साहित्यकार है, प्रारंभिक जीवन में पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, साहित्य साधना के लिये समय व धन का अभाव रहा। इससे कुछ रचनायें यदि लिख भी लेते तो आर्थिक अभाव के कारण छपवाना कठिन था। कुछ तो इनका सिद्धांत था कि पहले इनके छोटे भाइयों की गृहस्थी बस जाये, फिर अपने लिये कुछ करूं। इसीलिए अपने लिये छोटे – छोटे खर्च भी नहीं करते थे। और 1972 के बाद ही, जब सब भाइयों की नौकरी, शादी आदि से निवृत हो गये, तभी अपनी गृहस्थी के लिये कुछ किया। कभी – कभी जब बच्चों तक की छोटी सी मांग को भी फिजूलखर्ची कहकर टाल जाते थे, तब जरूर मुझे दुख होता था और खिन्नता के कारण हमारी खटपट भी हो जाती थी। ऐसा नहीं था कि हमें अभाव में रखकर इन्हें दुःख नहीं होता था। कविता में मुखर हो जाते है उनके उदगार – कुछ इस प्रकार

“उदधि में तूफान में ही डाल दी है नाव अपनी” या 

” अंधेरी रात का दीपक बताये क्या कि उजियाला कहाँ है” अथवा

” रो रो के हमने सारी जिन्दगी गुजार दी, आई न  हँसी जिन्दगी में एक बार भी”

किन्तु आशावादी दृष्टिकोण के ही कारण  सारी झंझटें दूर होती गई व हमें सफलता हासिल हुई। मुझे भी इनके गीतों से बहुत सहारा मिलता था तथा प्रेरणा मिलती थी।

दुख से भरे मन को किसी का प्यार चाहिये।

दुख से घबरा न  मन, कर न गीले नयन।

आदमी वो जो हिम्मत न हारे कभी।

सचमुच अभाव में भी इनके प्यार के आगे सारे कष्ट विस्मृत हो जाते थे, और काम करते रहने की, सब कुछ  सहने की प्रेरणा मिलती थी। इनकी अनुगामिनी बनकर मैंने बहुत कुछ सीखा है। हमारे स्वभाव में साम्य होने को कारण ही हम कदम से कदम मिलाकर चल सके और स्वयं निर्धारित लक्ष्य को पा सके। हम दोनों ही सादगी, ईमानदारी, सच्चाई एवं कर्तव्य परायणता के कायल हैं। हमने कभी एक – दूसरे से कुछ छिपाया नही. एक – दूसरे पर अटूट विश्वास ही हमारी सफलता का राज है।

आज हम जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं और संतोषं परमं धनं, भरपूर है हमारे पास। सबका प्यार बना रहे, सब मिलकर प्यार से रहें, यही कामना है। इन्हीं की कविता की पंक्तियां हैं..

” मोहब्बत एक पहेली है, जो समझाई नहीं जाती” इसी प्रेरणा को लेकर हमारा परिवार,  हमारे बच्चे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हों, ऐसी कामना है।

जीवन की कुछ खट्टी – मीठी यादें ही शेष है। ईश्वर पर विश्वास है। भगवान की कृपा ने हमारी सारी योजनायें पूरी कर जीवन में सफलता दी। अंतिम इच्छा है कि “ पति के सामने मेरी अंतिम सांस पूरी हो”, परमात्मा यह साध अवश्य पूरी करेगा। आज तक जो सोचा, जो चाहा, वह अवश्य हासिल हुआ है, अंतिम इच्छा भी पूरी होगी।

आज साहित्य जगत में एक अच्छे साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति है- और अब उनकी काव्य – कृतिया छपती जा रही है, यह इस प्रकार है 1.  मेघदत का हिन्दी काव्यानुवाद २. ईशाराधन ३. वतन को नमन ४. अनुगुंजन ५. रघुवंश का हिन्दी काव्यानुवाद छपने जा रहा है। हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह बच्चों ने धुमधाम से मनाई है। इनकी अनेको उपदेशात्मक कहानियां व अन्य रचनायें भी छप चुकी हैं। आज साहित्य साधना ही उनका मुख्य लक्ष्य है, उसी में अपना समय आनंद से बीत जाता है। मेरे पतिदेव दिखावे की दुनिया से बिल्कुल दूर है, इसलिए रचनायें स्वान्तः सुखाय ही लिखते है। जिनके प्रकाशन में मेरे पुत्र विवेक का प्रयास प्रशंसनीय है।

 – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 85 – संस्मरण – बोलता बचपन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “संस्मरण – बोलता बचपन।  हम एक ओर बेटियों को बोझ मानते हैं और दूसरी ओर नवरात्रि पर्व पर उन्हें कन्याभोज देकर  उनके देवी रूप से आशीर्वाद की अपेक्षा करते हैं।  यह दोहरी  मानसिकता नहीं तो क्या है ?  इस  संवेदनशील विषय पर आधारित विचारणीय संस्मरण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 85 ☆

?? संस्मरण – बोलता बचपन ??

‘बेटा भाग्य से और बेटियां सौभाग्य से प्राप्त होती हैं।’  इसी विषय पर पर आज एक  संस्मरण – सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ 

ठंड का मौसम मैं और पतिदेव राजस्थान, कुम्बलगढ़ की यात्रा पर निकले थे। जबलपुर से कोटा और कोटा से ट्रेन बदलकर चित्तौड़गढ़ से कुम्बलगढ ट्रेन पकड़कर जाना था। क्योंकि ट्रेन चित्तौड़गढ़ से ही प्रारंभ होती थी।

हम ट्रेन पर बैठ चुके थे, ट्रेन खड़ी थी। स्टेशन पर मुसाफिरों का आना जाना लगा हुआ था। जैसे ही ट्रेन की सीटी हुई, दौड़ता भागता आता हुआ एक बिल्कुल ही गरीब सा दिखने वाला परिवार अचानक एसी डिब्बा में घुस कर बैठ गया। तीन चार सामान जो उन्होंने साड़ी और चादर की पोटली बना बांध रखा था। तीन बिटियाँ को चढ़ा, एक बेटा और स्वयं पति पत्नी चढ़कर बैठ गए।

सीटी बजते ही ट्रेन चल पड़ी। जल्दी-जल्दी चढ़ने से सभी हाँफ रहे थे, उनको कुछ लोगों ने डाँटा और कुछ सज्जनों ने कहा कि ठीक है अगले स्टेशन पर उतर कर सामान्य डिब्बा में चले जाना।

कंपकंपाती ठंड और उनकी दशा देख बहुत ही दयनीय स्थिति लग रही थी। परंतु बातों से वो बहुत ही बेधड़क, बोले जा रहे थे।

तीनों बच्चियों को महिला बार-बार आँखें दिखा डांट रही थी और पाँच वर्ष का एक बेटा जिसे गोद में बड़े प्यार से बिठा रखी थीं।

बेटे के हिसाब से उसको पूरा स्वेटर मोजा जूता सभी कुछ पहनाया गया था।

परंतु बच्चियों में सिर्फ एक बच्ची के पैरों पर चप्पल दिख रही थी। बाकी दो फटेहाल कपड़ो में दिख रहीं थीं। और फटी साड़ी को आधा – आधा कर सिर  से बांध गले में लपेट पूरे शरीर पर ओढ रखी थीं।

दोनों दंपत्ति भी लगभग कपड़े, स्वेटर, शाल पहने हुए थे। मेरे मन में बड़ी ही छटपटाहट होने लगी।

उसमें से छोटी बच्ची बहुत ही चंचल और नटखट, बार- बार देखकर मुस्कुरा कर कुछ कहना चाह रही थीं।

बातों का सिलसिला शुरु हो गया “आप कहां जा रही हैं आंटी जी?”  बस बात शुरू हो गई। पतिदेव नाराज हो रहे थे परंतु बच्चों की मासूमियत के कारण बात करने लगी।

बात कर ही रही थी कि आँखें दिखा बस महिला बात करना शुरु कर दी…” छोरियां है मैडम जी। बड़ी वाली तो शौक से आई ।बाकी दो छोड़ो वो तो राम जाणे और इस समर्थ बेटे को बहुत मन्नत और पूजा पाठ के बाद पाया है हमणे। या छोरियां तो किसी काम की ना रहेंगी।”

“एक दिन ससुराल चली जाएंगी और वंश तो बेटा ही चलावे है। इसीलिए बेटे की चाह में यह छोरियां हो गई है।”

“इन छोरियों को पालने का जी न करता है, परंतु रुखी- सूखी देकर पाल रहे हैं। सोच रहे हैं बारह-बारह बरस की हो जाएंगी तो शादी कर दूंगी। बाकी खुद जाणेगी।”

पूरे डिब्बे में उनकी बातों को मैं और मेरी सहेली और बाकी सभी सुन रहे थे। सभी आश्चर्य से देखने लगे।

” समर्थ की मन्नत पूरी करने हम चित्तौड़गढ़ माता की मंदिर जा रहे हैं। या छोरियां भी पीछे लग रखी इसलिए लाना पड़ा। बहुत पिटाई की पर नहीं माणी।” तीनों बच्चों के मासूम से मुसकुराते चेहरे हाँ में सिर हिला रहे थे।

ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी। मैं आवाक उसकी बातों को सोचने लगी ‘क्या ऐसा भी होता है कि वाकई माँ- बाप के लिए बेटियां बोझ होती हैं!’ कहने सुनने के लिए शब्द नहीं थे। कुछ बोलने की स्थिति भी नहीं लग रही थीं। तीनों बिटिया गोल बनाकर चिया- चुटिया खेलने में मस्त हो गई थी।

शायद हँसता मुस्कुराता बचपन मानो कह रहा हो “जाने दीजिये हम आखिर छोरियाँ (बेटियाँ) ही तो हैं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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