हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे नए साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  स्व गणेश प्रसाद नायकके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

 

☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆

“स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक  ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

माता – पिता को याद करती टिप्पणियों की आत्मीयता प्रसन्न भी करती है और विकल भी… उनमें स्मृतियों का सुखद संसार, माता- पिता के होने की सम्पन्नता  और उन्हें खो देने की टीस होती है… एक बीत गयी निश्छल दुनिया को याद करना होता है ।… पिता गणेश प्रसाद नायक को गये उनतालीस साल हो गये, वे इस समय 111 वर्ष के होते | 24 मार्च 1913 को वे जन्मे थे | माँ गायत्री नायक को गये भी  तेरह साल हो गये |

जबलपुर में 1930 में रानी दुर्गावती  की समाधि पर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने की शपथ के साथ उन्होंने खादी पहनने का संकल्प भी किया था। वे कभी अपने संकल्पों से डिगे नहीं। पारिवारिक दबाव के कारण  गंजबासौदा, भोपाल, जबलपुर में रेलवई की नौकरी की, पर फिर उसे छोड़छाड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 1930 की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, ‘डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |’ 

दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने  एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी – सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर  पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, ‘बहुत कम काता।’ 

वे मध्यप्रांत और बरार  ( पुराने मध्यप्रदेश, सीपी एंड बरार) स्टुडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, त्रिपुरी कांग्रेस में सेवादल के प्रधान थे | 1939 मैं हरि विष्णु कामथ फ़ार्वर्ड ब्लॉक में ले गए, फिर समाजवादी आंदोलन से जुड़े… फिर जेपी के साथ सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल हुए… वे मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक थे| पत्रकारिता भी ख़ूब की ।अमृत पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका, एपी ( एसोशिएटिड प्रेस के संवाददाता रहे। नवभारत में रहे। साप्ताहिक ‘प्रहरी’ के अंतरंग मंडल में रहे। 

पिता ने अनेक बार जेल यात्राएंँ कीं  जिसमें अंतिम आपात्काल के दौरान उन्नीस महीने की थी | कभी उन्होंने पेरोल नहीं लिया, 1944 में भी नहीं जब उनके पिता का निधन हो गया था ,तब भी | अंतिम दर्शन के लिये पेरोल पर आना गवारा न हुआ | वे  सिद्धांतवादी थे… अपने विचारों -कार्यक्रमों पर सख़्त और अडिग… राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर शत्रु… समाजवादी दिनों में पार्टी के स्थानीय नेता विरोध में थे पर उन्होंने ठान लिया कि शहर में गोलवलकर की शोभायात्रा नहीं निकलेगी तो नहीं निकलने दी…  स्टेशन पर ही सारी शोभा ध्वस्त हो गयी |  प्रदेश संघर्ष समिति में भी जनसंघ की चलने नहीं दी, जबकि वह सबसे बड़ी पार्टी थी… उनकी छवि जुझारू  , बेदाग़ नेता की थी… इसलिए उन्हें हटाने की जनसंघी  नेताओं की कोशिशें नाकाम हुईं  … जेपी ने उन्हीं पर भरोसा जताया | 

 समाज और राजनीति को समर्पित रहा , उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा। निहित हितों को जीवन-मूल्यों  पर कभी  हावी नहीं होने दिया | जबलपुर में समाजवादियों का वर्चस्व रहा, बाद में नेताओं में राजनीति खुलकर खेली.. . बिना किसी छल-छंद में पड़े वे राजनीति से हट गए, लेकिन जनता में घुले -मिले रहे, हमेशा उसके हक़ में आवाज़ उठाते रहे और 1974 में जनसंघर्ष  में कूद पड़े | … वे अच्छे संगठनकर्ता और ओजस्वी वक्ता थे और  सहज , आत्मीय, ख़ुशमिज़ाज व्यक्ति  |राजनीतिक मतभेदों के बावजूद पुराने मित्रों से पारिवारिकता बनी रही | शहर -प्रदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी | परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा कि आज इस बात की कल्पना  करना कठिन है कि नायकजी और तिवारीजी ( भवानी प्रसाद) समाज में किस संजीदगी और ईमानदारी से काम करते थे | ग़लत बात उन्हें नापसंद थी, और वे भड़क जाते थे | संघर्ष समिति की भोपाल में पहली बैठक में विजयराजे सिंधिया ने टोकाटाकी की तो नायकजी ने कहा कि आप दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि यह किसी रजवाड़े की संघर्ष समिति है | परसाईजी कहते थे नायकजी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | वे नागपुर जेल में भी रहे| वहाँ मिलने वाले खाने का विरोध किया, राजनीतिक बंदियों के लिये  अलग रसोई की मांग की, अनशन किया… अंत में सभी मांगे मानी गयी |  नागपुर जेल के साथियों को उपाधियाँ दी गयी थीं नायकजी को दी गयी उपाधि की चार पंक्तियाँ थीं :

झुकी कमर पर ज़ोर दिये

डिक्टेटरशिप का बोझ लिये

सुबह सुबह चरखा कातें

मुँह में मीठे बोल लिए ।

लेखक – श्री मनोहर नायक 

प्रस्तुति –  श्री जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-11 – मोहन राकेश और उनकी कलम का जादू ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-11 – मोहन राकेश और उनकी कलम का जादू ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

अश्क और‌ मोहन राकेश के ठहाके….

कुछ कदम आगे, कुछ कदम पीछे

-कमलेश भारतीय

यादें भी क्या चीज़ हैं, जो आती हैं, तो आती ही जाती हैं। इनके आने का न‌ तो कोई सबब होता और न ही कोई ओर- छोर! आज कदम थोड़ा पीछे लौट रहे हैं! मोहन राकेश के जालंधर में बिताये दिनों की ओर लौट रहे हैं मेरे कदम! वैसे मैं इन दिनों‌ का साक्षी नहीं हूँ। कुछ सुनी सुनाई सी बातें हैं! एक तो यह कि मोहन राकेश का नाम मदन मोहन गुगलानी था जो सिमट कर मोहन राकेश रह गया! दूसरी बात कि जब वे काॅफी हाउस आते, तब उनके ठहाके काॅफी हाउस के बाहर तक भी सुनाई देते! तीसरी बात कि डी ए वी काॅलेज में एक बार प्राध्यापक तो दूसरी बार हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने लेकिन बकौल‌ रवींद्र कालिया, वे कुछ क्लासें काॅफी हाउस में भी लगाते थे! वे लिखने के लिए सोलन‌ के निकट धर्मपुरा के आसपास जाते थे और‌ पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में जो कथा हम पढ़ाते रहे-मंदी,  वह इसका प्रमाण है! यदि मोहन राकेश जालंधर ही जीवन व्यतीत करते तो कुछ वर्षों बाद मैं भी उन्हें मिल पाता लेकिन यह संभव नहीं था। ‌इसके बावजूद मैं उनकी कहानियों का बहुत बड़ा फैन था और‌ आज भी हूँ। इसका यह भी एक कारण हो सकता है कि सिर्फ छटी कक्षा में था‌ जब मेरे मामा नरेंद्र ने इनका कथा संग्रह- जानवर और जानवर उपहार में दिया था! हाँ, उनकी  पत्नी अनीता राकेश का इंटरव्यू जरूर लिया, जो मेरी इंटरव्यूज की  पुस्तक ‘ यादों की द व धरोहर’ में प्रकाशित है! मोहन राकेश का निधन तीन‌ दिसम्वर, सन् 1972 में हुआ था लेकिन अपने गूगल बाबा ने इसे तीन जनवरी कर दिया है! दो तीन साल पहले जब मैंने इस पुण्यतिथि का उल्लेख फेसबुक पर  किया तब अनेक लेखकों ने इसे गलत करार दिया तब सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया मेरे समर्थन में आईं और उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं सही हूँ लेकिन गूगल बाबा ने इस वर्ष भी यही गलत तिथि बताई। ‌इसे ठीक कैसे करवाऊं?

 जब ‘आषाढ़ का एक दिन’, हमें एम ए हिंदी में पढ़ने को मिला और‌ जब जालंधर से खरीद कर नवांशहर बस में सवार होकर लौटा तब तक इसे शोर‌-शराबे के बीच पढ़ चुका था! इसे कहते हैं – कलम का जादू! वैसे मोहन राकेश का हिसार कनेक्शन भी है, यहां इनकी दूसरी शादी हुई थी जो देर तक नहीं चल‌ पाई! यदि यह शादी भी निभ गयी होती तो मोहन राकेश के कुछ निशान यहां भी मिल जाते! पर ऐसा नही हुआ! उन्होंने तीसरी शादी दिल्ली की अनीता औलख से की, जो अनीता राकेश कहलाई! मोहन राकेश ने‌ शिमला में अपनी पहली पत्नी और‌ बेटे को देखकर कहानी भी लिखी है! वे देहरादून की रहने वाली थीं!

खैर, इसी तरह जालंधर से वास्ता रखते थे उपेंद्र नाथ अश्क‌! उन्हें मिलने का सौभाग्य मिला, चंडीगढ़ में डॉ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता के घर, सुबह सवेरे नाश्ते पर! उनके बारे में यह मशहूर था कि वे प्रश़ंसा करने वाले को तो भूल जाते थे लेकिन वे आपनी आलोचना करने वाले से बुरी तरह भिड़ जाते थे! इस बात का कड़वा अनुभव मुझे भी हुआ! मैं उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘सुपर ब्लेज’ का साहित्य संपादक था और‌ उसमें‌ इन्हें उकसाने का जानबूझकर प्रयास किया था ताकि यह जांच सकूं कि इस बात में कितनी सच्चाई है! वही हुआ! मैंने अश्क जी पर जानबूझकर टिप्पणी लिखकर इन्हें पत्रिका का अंक पांच, खुसरो बाग, इलाहाबाद के पते पर पोस्ट कर दिया! अश्क जी अपने स्वभाव के अनुसार प्रतिक्रिया देते गये और यह मामला छह माह तक चला!  इसके पीछे कारण यह था कि ‘सुपर ब्लेज़’ चर्चा में आ जाये! खैर, मुझे अश्क जी से उनके बेटे नीलाभ के साथ मिलने का मौका मिल गया! तब अश्क जी ने कहा था कि कमलेश! मैंने अपना बहुत सा समय ऐसे ही बेकार उलझ उलझ कर बर्बाद कर लिया! इसकी बजाय मैं कुछ और‌ लिखने में यह समय लगा सकता था! यही सीख मैं तुम्हें दे रहा हूँ कि समय इन फिजूल बहसों में मत बर्बाद करना मेरी तरह! तभी किचन‌‌ से आलू का गर्मागर्म परांठा लातींं‌ श्रीमती मेहंदीरत्ता ने कहा कि अश्क जी! कमलेश भी तो आपकी तरह दोआबिया ही तो है, यह आपके पदचिन्हों पर ही चलेगा या नहीं! इस बात पर अश्क जी ने जब  ठहाका लगाया तब लगा कि मोहन राकेश भी ऐसे ही ठहाके ‌लगाते होंगे! आज अश्क व‌ मोहन राकेश के ठहाकों की गूंज में अपनी बात समाप्त करने से‌ पहले एक दुख भी है कि मैं सुप्रसिद्ध लेखक और जालंधर के ही मूल निवासी रवींद्र कलिया जी से उनके जीवन काल में एक बार भी मिल नहीं पाया, हालांकि फोन पर बातचीत होती रही और हरियाणा ग्रंथ अकादमी के समय मासिक पत्रिका ‘कथा समय’ के प्रवेशांक में उनसे अनुमति लेकर  कहानी प्रकाशित की थी पर एक तसल्ली भी है कि भाभी ममता कालिया जी से बात भी होती है और मुलाकात भी हो चुकी है! ममता कालिया जी ने मेरे नये प्रकाशित हो रहे  कथा संग्रह – सूनी मांग का गीत के लिए मंगलकामना के शब्द लिखे हैं! कहूँ तो रवींद्र कालिया का भी हिसार कनेक्शन रहा है, वे यहां डीएन काॅलेज में‌ कुछ समय हिंदी प्राध्यापक रहे हैं! हमारे मित्र डाॅ अजय शर्मा ने ममता कालिया पर इन्हीं पर अपनी पत्रिका ‘साहित्य सिलसिला’ का विशेषांक प्रकाशित किया है, जिसमें उन‌ पर लिखा मेरा संस्मरण -नये लेखकों की कुलपति ममता कालिया, भी आया है।

आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘‘क्या अरब में महिलायें यहॉँ की तरह आटा गूँथ कर रोटी बनाती हैं? वे तो रोटी खरीद कर ले आती हैं।’’फिलिस्तीनिओं पर इजरायली अत्याचार पर लिखी मेरी कहानी को पढ़ कर पत्रिका लौटाते हुए डा0 श्री प्रसादजी ने कहा।और यही बात उन्होंने कहानी के अंतिम पृष्ठ पर पेंसिल से लिख भी दी थी। जिस कमरे में बैठ कर वे लिखने पढ़ने का काम किया करते थे उसकी खिड़की पर एक कलमदान में कई कलम और वह पेंसिल भी पड़ी रहती थीं।

थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर झेंपते हुए बोला ,‘अब तो मां बेटी रोटी खा चुकी हैं। ’यानी कहानी तो प्रकाशित  हो चुकी है।खैर, बात तो अपनी जगह सही थी। खालेद होशैनी का उपन्यास ‘ए थाउजैंड स्प्लेंडिड सनस्’ पढ़ते हुए पता चला कि काबुल में औरतें तंदूर से रोटी बनवा कर घर ले आती हैं।

उनसे मेरा नाता मेरी ‘गलतिओं के गलियारे’ से होकर ही गुजरता है। आज भी उनके सुपुत्र डा0 आनन्द वर्धन जब भी मेरी कोई रचना पढ़ते हैं तो मैं कहता हूँ,‘कहीं कोई गलती हो तो उसे पेंसिल से जरूर मार्क कर दीजिएगा।’सच वह पेंसिल तो हमारे लिए मशाल ही थी।

और इसी तरह डा0 श्रीप्रसाद जी के घर मेरा आना जाना होता रहा। घंटे दो घंटे की बैठक। सुनने सुनाने का कार्यक्रम। वे मेरी त्रुटिओं की ओर संकेत कर देते। मैं उन्हें ठीक कर लेता। या कोई बेहतर शब्द को ढूँढने में मेरी मदद कर देते ,कोश का पन्ना पलटते। जब भी वे फोन पर कहते, ‘आपकी कहानी अमुक पत्रिका में निकली है।’

मैं पूछ लिया करता,‘पढ़ते समय आपके हाथ में पेंसिल थी न?’

डाक्टर साहब हॅँस देते। वैसे वे अपने नाम के आगे डाक्टर लिखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे हर समय धोती कुर्ता ही पहनते थे। इसी लिबास में वे विदेश भी हो आये। उनकी किताबें प्रकाशित  होतीं, तो मुझे पहले से ही मालूम हो जाता।

वे और उनकी पत्नी (श्रीमती शांति शर्मा) मेरे क्लिनिक में दिखाने या ऐसे ही भेंट करने आते, और बैठते ही काले पोर्टफोलिओ बैग से वे अपनी सद्यः प्रकाशित  किताब मेरे हाथों में धर देते। पहले पृष्ठ पर उनके अपने हाथों से लिखा होता मेरे लिए सप्रेम भेंट!

उन दिनों हमारे ‘विहान’ नाट्य संस्था के लिए नाटक लिख कर मैं संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स कालोनी में उनके आवास पर मैं जाया करता था। वे सुनते और ठीक करते जाते। काशी के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक डा0 राजेन्द्र उपाध्याय ने मुझे उनका पता दिया था। सच, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ……..

उन दिनों उन्हें सांस की तकलीफ होती रहती थी।उसी सिलसिले में शुरू शुरू में वे खुद को दिखाने मेरे पास आते थे। फिर तो आने जाने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जानकी नगर के नये मकान बनने के बाद मुझसे कहने लगे,‘आप भी इसी मुहल्ले में आ जाइये।’

बनारस में रहते तो करीब हर इतवार को दोपहर बारह के बाद उनका फोन आता, क्योंकि उस समय मैं भी कुछ खाली हो जाता। फिर काफी देर तक तरह तरह की बातें होती रहतीं।किस रचना को कहाँ भेजा जाए। उनकी कौन सी नयी किताब आनेवाली है।बाल पत्रिकाओं का स्वरूप कैसा हो रहा है। इससे बाल साहित्य के पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वगैरह। अगर किसी रविवार को उनका फोन नहीं आता तो अगले दिन या बाद में मैं उनसे कहता, ‘डाक्टर साहब,रविवार के अटेंडेंस रजिस्टर में ‘ए’ लग गया है।’

उनके पारिवारिक रिश्ते – आपस में तालमेल – सास ससुर के साथ बहू का सम्पर्क – सभी अनुकरणीय थे। बात उनदिनों की है जब उनका सुयोग्य पुत्र आनन्द भोपाल में रहते थे। दो एक महीने उनके पास रह कर डाक्टर साहब सपत्नीक वापस आ रहे थे। सास ससुर को विदा करते समय ट्रेन में (डा0) ऊषा अपनी सास से लिपट कर ऐसे रो रही थी कि एक दूसरी महिला यात्री पूछने लगी,‘क्या तुम अपनी मां को विदा करने आयी हो ?’

ऊषा तो कहती ही है कि यहाँ तो मुझे मायके से भी ज्यादा प्यार व स्नेह मिला !

अपने गॉँव के बारे में श्री प्रसादजी ढेर सारी बातें किया करते थे। खूब किस्से सुनाया करते थे।उनका गॉँव जमुना के तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। किसी जमाने में वह डकैतों का इलाका रहा। एक बार जंगल के रास्ते आते हुए उनकी भेंट गांव के ही एक आदमी से हो गई जो बागी बन गया था। इन्होंने उससे पूछा था,‘तुमने आखिर इस रास्ते को क्यों अपना लिया? घर परिवार से दूर – इस तरह दर दर भटकना -’

उस डकैत ने जबाब दिया था,‘और क्या करता? वहॉँ दबंग लोगों का अत्याचार सह कर और कितने दिन गॉँव में रह सकता था?किससे शिकायत करता? पुलिस भी तो उन्ही की जी हुजूरी में लगी रहती है।’

इन सब बातों से उन्हें बहुत कष्ट होता। दीर्घश्वास छोड़कर कहते,‘इसी तरह सबकुछ बिखर जा रहा है। एक बसा बसाया संसार उजड़ता जा रहा है।’

गांव के बारे में और एक किंवदंती वे सुनाया करते थे। एकबार महात्मा तुलसीदास अपने अग्रज भक्तकवि सूरदास से भेंट करने जा रहे थे। रास्ते में इन्हीं के गांँव से उन्हें जमुना पार करना था। जमुना का अथाह जल देखते हुए कवि ने कहा था,‘पारना!’ यानी इसका तो पार नहीं है! इसीसे गॉँव का नाम भी पारना हो गया। चूँॅकि शाम ढल चुकी थी इसलिए कविवर ने रात वहीं बितायी। मगर किसी को भनक तक नहीं पड़ी कि उनके यहाँ कौन ठहरा हुआ है। कहते हैं सुबह कुछ सुगबुगाहट हुई और ढेर सारी हलचल,‘अरे जानते हो कल यहॉँ कौन ठहरा हुआ था ? और हम्में पता तक नहीं !’

इसी पर लिखी उनकी कहानी ‘पारना’ नंदन में प्रकाशित  हो चुकी है।

हम तीनों (श्रीप्रसादजी, शांति देवी और मैं) की साहित्यिक महफिल घंटे दो घंटे तो आराम से जम जाया करती थी। तीनों तरफ दीवारों पर किताबों के रैक। वहीं दीवारों पर से प्रेमचंद, पंत और निराला के साथ साथ काजी नजरूल इस्लाम और गोर्की भी हमारी ओर देखते रहते। चौकी पर भी ढेर सारी पत्रिकाएॅँ और किताबें। जब चाय पिलाना होता तो आनन्द की माँ कभी कभी हँॅसने लगतीं,‘अरे चाय की ट्रे कहॉँ रक्खूँॅ ?’ मैं झट से किताबों के बीच जगह बनाने लगता। जाड़े के दिनों में मैं तीन चार बजे तक ‘ब्रजभूमि’(उनके आवास का नाम) में पहुॅँच जाता और सात बजे तक बैक टू पैवेलियन। मगर एकबार लौटते समय रात हो गई और महमूरगंज के विवाह मंडपों के सामने बारातिओं के उफान के बीच मेरी ‘कश्ती’ बुरी तरह फॅँस गई। पेट में भूख -दिमाग में झुॅँझलाहट -परिणाम …..? बौड़ा गैल भइया, काशी का साँड़!  

जन्माष्टमी के मौसम में दो एक बार घर से ताड़ की खीर और उसका बड़ा ले गया था। दोनों को खूब पसन्द आये। अपने हाथ से गाजर का हलुआ बना कर ले गया तो वे हॅँसने लगे,‘आप तो रस शास्त्र में ही नहीं पाकशास्त्र में भी निपुण हैं।’

मैं ने कहा,‘मगर आप कोशिश मत कीजिएगा। याद है न एकबार कद्दूकश से गाजर काटते समय आपकी उँगली शहीद होते होते बच गई ?’

वे खूब हॅँसने लगे। शांति देवी कहने लगी,‘मैं तो इनसे कोई काम कहती ही नहीं। बस, अपना लिखना पढ़ना लेके रहें ,वही ठीक है।’  

वे तो बस जी जान से सरस्वती के उस मंदिर को सँभालने सॅँवारने में ही लगी रहती थीं। वे सचमुच साहित्य की पारखी थीं। किस सम्मेलन में कौन आया था और कौन नहीं – ये सारी बातें भले ही श्रीप्रसादजी कभी कभी भूल जाते थे, मगर उन्हे ठीक याद रहता था। गाय घाट के माहौल में पली बढ़ी होने के कारण बनारस की कई पारंपरिक बातें वे बखूबी से जानती थीं। नलीवाले लोटे को ‘सागर’ कहा जाता है यह बात उन्होंने ही मुझे बतायी थीं। कहानी के संप्रेश्य मर्म बिंदु को वह ठीक पकड़ लेती थीं। जिसे कहा जाय सेन्स ऑफ एप्रिसियेशन – अनुभूति एवं उपलब्धि की तीक्ष्णता उनमें कूट कूट कर भरी थी। उचित जगह पर ही दाद देतीं या पंक्ति को दोहराने लगतीं ……..

वैसे डाक्टर साहब रोटी तो बना नहीं पाते थे मगर कहते थे – ‘मैं पराठा अच्छा बना लेता हूँ।’ वे बिलकुल अल्पभोजी थे। खैर, फलों में आम उनको बहुत पसंद था।

‘ब्रजभूमि’ से लौटते समय मैं कहता था, ‘बनारसी विप्र की दक्षिणा मत भूलियेगा।’

डाक्टर साहब हॅँस कर करीपत्ते के पेड़ से कई डालियॉँ तोड़कर एक प्लास्टिक में भर कर मुझे थमा देते थे।

आनन्द की शादी के पहले जब वे ऊषा को देखने पौड़ी गये थे तो उसी समय केदारनाथ बद्रीनाथ भी हो आये थे। इधर तो बाहर कम ही जाते थे ,वरना बाल साहित्य सम्मेलनों में भाग लेने खूब जाया करते थे। आनन्द जब बुल्गारिया में थे तो वे दोनों बुल्गारिया, तुर्की और ग्रीस सभी जगह घूम आये थे। गांडीव में उनकी यात्रा की डायरी भी किस्तवार आ चुकी है। बुल्गारिया की जो बात उन्हें बहुत अच्छी लगती थी वह यह कि वहाँ की सड़कों या जगहों का नाम लेखक या कविओं के नाम से हुआ करता है। न कि राजनयिकों के नाम से।

सभी को मालूम है कि उनकी कविता ‘बिल्ली को जुकाम’ को स्वीडिश विश्व बाल काव्य संग्रह में स्थान मिला है। दो संग्रहों में संकलित इसकी पहली पंक्ति में कुछ अंतर है। एक में हैःःबिल्ली बोली, बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम, तो दूसरे में है :ःबिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको …..। वे अपनी कविता ‘हाथी चल्लम चल्लम’ को बड़े चाव से सुनाते थे। जैसे फैज साहब तरन्नुम में षेर सुनाना पसंद नहीं करते थे (नया पथ, फैज जन्मशती विशेषांक,पृ.327),वे भी सीधे सपाट ठंग से कविता का पाठ करना ही पसंद करते थे। उन्होंने कहा था श्रद्धेय बच्चन सिंह भी इस कविता को इसी ठंग से सुनना चाहते थे। और मार्क्सवादी आलोचक चंद्रवली सिंह को उनकी कविता -‘रसगुल्ले की खेती होती/बड़ा मजा आता’ में ‘देश के अभावग्रस्त बालकों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति’ दिखाई दी।(जनपक्ष-12, पृ.190)

बाल साहित्यकारों के बीच चल रही गुटबाजी से वे दुखी रहते थे। कई ऐसे भी हैं जो उनके पास आते बनारस आने पर उनके यहॉँ ठहरते, मगर अवसर मिलने पर उनका पत्ता गोल करने से कभी न कतराते थे। किसी ने लिखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बाल साहित्य की चर्चा क्यों नहीं की। उनका जबाब था – यह काम तो हम लोगों को करना चाहिए। आचार्य के समय बाल साहित्य की सामग्री ही कितनी थी ?

कविता में छंद की अशुद्धि उन्हें तकलीफ देती थी। वे हर महीने कई पत्रिकायें खरीदते थे। खास कर कविता ही पढ़ते और मात्रा आदि की गड़बड़ी के नीचे पेंसिल से लकीर खींच देते।

शांति देवी के देहावसान के बाद तो वे जैसे बिलकुल टूट गये थे। मानो उनका जीवन ही बिखर गया था। मैं वह दृश्य कैसे भूल सकता हूँ – जब हमलोग उनकी बैठक के दरवाजे के पास शांति देवी के पार्थिव शरीर को फर्श पर लेटाकर बैठे हुए थे। रो रोकर ऊषा का हाल बेहाल था। इधर सभी की ऑँखें छलक रही थीं। उसी समय डाक्टर साहब ने उनकी अधखुली पलकों को अपनी उॅँगलिओं से मूँॅद दिया। मैं उनकी बगल ही में बैठा था। मुझे लगा मेरी सांस ही गले में अटक गयी -!

उन्होंने ‘बाल साहित्य की अवधारणा’नामक आलोचना की पुस्तक को इसतरह अर्पण किया था – ‘सहधर्मिणी शांति को’……..

वे अखबार के किनारे या छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर ही कविता लिखना प्रारंभ कर देते थे। प्लैटफार्म पर बैठे बैठे या ट्रेन की सफर में इसी तरह उनका वक्त बीत जाता था। मैं ने कितनी बार कहा कि मेरे पास तो इतने सफेद पैड पड़े रहते हैं, डायरी मिल जाती हैं। आप इन पर लिखा करें।वे केवल हॅँस देते थे,‘अब यह मेरी आदत बन गयी है। उतने सफेद पन्नों पर शायद मैं लिख न सकूॅँ!’

दुर्गा पूजा के पहले बांग्ला में आनंदमेला शुकतारा आदि पत्रिकाओं के शारदीय विशेषांक निकलते है। वे उन्हें भी कभी कभी खरीद लेते थे। उन्हें तकलीफ होती थी कि उनमें भी आजकल उतनी कविता नहीं छपती है। ‘बाल साहित्य की अवधारणा’ में ‘बाल साहित्य का उद्देश्य’ में उन्होंने लिखा है -‘एक ओर समर्पित बाल साहित्यकारों को अवसर नहीं मिल पाता, दूसरी ओर बाल साहित्य के रूप में अबाल साहित्य चलता रहता है।’ (पृ.6)हिन्दी बाल साहित्य में हास्य कथा, भूत कथा, डिटेकटिव कहानी आदि के अभाव के बारे में कई बार उनसे बातें होती रही। यहॉँ तक कि अब तो दो पृष्ठों में ही कहानी को समेटना आवश्यक हो गया है,वरना लौटती डाक से आपकी रचना आपके द्वारे। मैं ने उनसे कहा था – आज अगर ईदगाह या दो बैलों की कथा जैसी कहानी लिखी जाती तो वह प्रकाशित  कहॉँ होती ?

सन् 2005 दिसंबर में मेरा पितृवियोग हुआ। उस समय वे दोनों अस्पताल में बाबूजी को देखने आये हुए थे। फिर अक्टूबर 2012 में मैं दोबारा अनाथ हो गया। उन्हें दिल्ली के मैक्स में हार्ट के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया गया था। हालत में कुछ सुधार भी हुआ था। मगर तीसरे दिन रात के करीब आठ बजे आनंद का फोन आया। मैं सन्न रह गया। क्या कहता? सांत्वना के सारे शब्द मानो मूक हो गये थे……रोते रोते मैं पत्नी को यह खबर देने ऊपर जा पहुॅँचा….

कुछ दिनों के लिए मुझे लगा मेरी कलम की वाणी ही गूॅँगी हो गई है। मता (पूॅँजी)-ए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है /….बहुत सही गमे गेती (सांसारिक दुःख), शराब क्या कम है…….(फैज)

फिर एकदिन अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर नाम देख कर मैं चौंक उठता हूँ ….यह क्या! दिल की धड़कनें तेज हो गईं। स्क्रीन पर उनका नाम जगमगा रहा था। यद्यपि मुझे मालूम था कि श्रीप्रसादजी का फोन आजकल उनकी बहूरानी ऊषा के पास ही रहता है, फिर भी एक उम्मीद की लौ ….कहीं ….! मैं कॉँपती उॅँगली से हरा बटन दबाता हूँ… शायद फिर से वही आवाज सुनाई दे… ‘हैलो… मैं श्रीप्रसाद…!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो, जालंधर, एक ऐसा शहर, जहाँ मेरा साहित्यिक जीवन शुरू हुआ। यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य में अच्छे- बुरे, खट्टे- मीठे अनुभव प्राप्त किये! यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य व साहित्यकारों के चेहरों को बड़े गौर से देखना और समझना शुरू किया।

इन चेहरों में डाॅ चंद्रशेखर भी एक हैं, जो लायलपुर खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और‌ उन्होंने पंजाब में हिंदी के लिए बहुत ज्यादा योगदान दिया – एक मिशनरी की तरह! वे मेरी मुंह बोली बहन‌ डाॅ देवेच्छा के पति थे और मेरा जालंधर में एक ठिकाना इनका घर‌ भी था, जो बस स्टैंड के दायीं‌ ओर रणजीत नगर में था। वे गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से बीए के उन छात्रों को चुनते जिनके बहुत अच्छे अंक आये हों! संयोग से एक वर्ष ऐसा आया जब विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में मैं 76‌ अंक लेकर सर्वप्रथम था, तो वे जब नवांशहर आये देवेच्छा जी के पास तो मुझे बुला कर खालसा काॅलेज में हिंदी एम ए में दाखिला लेने के लिए कहा ! इस पर मेरी बहन ने कहा कि कमलेश नहीं जा सकता जालंधर! इसकी परिस्थितियां ऐसी नहीं! इसके पिता नहीं रहे और‌ घर में बड़ा बेटा होने के कारण शहर छोड़कर नहीं जा सकता और यह मेरे पास बी एड करेगा , बाद में कोई भी डिग्री ले ले! इस तरह मैंने बीएड की लेकिन मेरा आना जाना बना रहा। ‌रणजीत नगर के आवास की सीढ़ियां तय करते मैंने मोहन सपना, सेवा सिंह, कैलाश नाथ भारद्वाज, कुलदीप अग्निहोत्री और हिमाचल के गौतम व्यथित को न केवल देखा बल्कि जाना और समझा! डाॅ चंद्रशेखर अपने छात्रों को बहुत प्यार करते थे और‌ कैलाश नाथ भारद्वाज के संपादन में ‘ रक्ताभ’ पत्रिका भी फगवाड़ा से शुरू करवाई । वे आकाशवाणी, जालंधर के निर्देशक विश्ववर्धन प्रकाश दीक्षित ‘बटुक’ के साथ अच्छे से घुले मिले थे और‌ मुझ जैसे न जाने कितने नये लेखकों को आकाशवाणी के स्टुडियो तक पहुँचाया ! वे तब आकाशवाणी के लिए खूब ‘ध्वनि नाटक’ लिखते थे, जिनमें मुझे ‘ कटा नाखून’ की याद है!  उन्हें ध्वनि नाटकों पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले‌! इसी तरह डाॅ चंद्रशेखर हिंदी को लेकर बहुत भावुक होकर कहते थे कि

यह हिंदी सिर्फ हिंदी नहीं है

यह भारत माता के माथे की बिंदी है!

उन्होंने मुझे अपने छात्रों जैसा ही स्नेह दिया, बेशक हिंदी एम ए नहीं की बल्कि बी एड के बाद हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से पत्राचार से हिंदी एम ए कर सका! वे मुझे काॅलेज के हर कार्यक्रम में आमंत्रित करते! इस तरह मैं उनके छात्रों के करीब आता गया !  वे एक आदर्श प्राध्यापक थे, जो अपने प्रिय शिष्यों को सिर्फ हिंदी ही नहीं पढ़ाते थे बल्कि उनकी ज़िंदगी भी संवारते थे और रचनायें भी! ‌डाॅ चंद्रशेखर ने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी और उनसे राष्ट्रपति भवन में पंजाब के लेखकों को सम्मानित भी करवाया!

आज डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज पंजाब हिंदी साहित्य अकादमी को चला रहे हैं और‌ डाॅ चंद्रशेखर की स्मृति में सम्मान प्रदान करते हैं, जो सम्मान मुझे भी एक वर्ष यह प्रदान किया गया ! डाॅ सेवा सिंह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिंदी विभाग में रहे और आजकल कपूरथला में रहते हैं। इसी प्रकार डाॅ कुलदीप अग्निहोत्री आजकल‌ हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं। वे अच्छे विचारक भी हैं।  वे पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के उपाध्यक्ष ह नहीं बल्कि धर्मशाला (हिमाचल) के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।

यही नहीं डाॅ गौतम व्यथित हिमाचल से ‘बागेश्वरी’ पत्रिका निकाल रहे हैं जिसमें वे मुझसे भी बहुत प्यार से रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। इसी प्रकार इनके प्रिय शिष्यों में से एक मोहन सपरा जो नकोदर के डी ए वी काॅलेज में हिंदी विभाग के वर्षों अध्यक्ष रहे और‌ नकोदर से ही, ‘फिर’ नाम से हिंदी पत्रिका निकालते रहे और पिछले कई वर्षों से वे जालंधर में बसे हुए हैं। ‘फिर’ का स़पादन बहुत अच्छा होने के बावजूद कभी मोहन सपरा इसे नियमित प्रकाशित नहीं कर पाये ! उन्होनें’ आस्था प्रकाशन भी शुरू किया पर प्रकाशित कृतियों को बेचने के पैंतरे नहीं जानते या अपनाते! जिससे वे प्रकाशन तो करते हैं लेकिन विक्रय नहीं कर पाते। उनकी प्रकाशन की समझ बहुत बढ़िया है। उन्होंने मेरी इंटरव्यूज की पुस्तक ‘ यादों की धरोहर’ के दो संस्करण प्रकाशित किये! उन्हें यह मलाल है कि शानदार लंबी कवितायें लिखने के बावजूद उनका लंबी कविता में कोई खास जिक्र नहीं!

चलिए, इस बात को छोड़कर उनके कवि पक्ष की बात करते हैं। उनकी पहली काव्य कृति थी ‘कीड़े’ और फिर हाल ही के वर्षों में प्रेम के रंग भी खूब चर्चित रही। अनेक काव्य संकलन और पंजाब शिरोमणि साहित्यकार होने के साथ साथ वे हरियाणा साहित्य अकादमी से भी सम्मानित हो चुके हैं! हरियाणा के वरिष्ठ आईएएस रमेंद्र जाखू को  साहित्यिक क्षेत्र में लाने में बड़ा सहयोग दिया!

आज लगता है कि डाॅ चंद्रशेखर स्कूल के सभी छात्रों को मैंने याद करने की छोटी सी कोशिश भर की है! हां, आज आंखें भीग गयीं डाॅ चंद्रशेखर को याद करते क्योंकि वे सन्‌1989 में 29 अगस्त को दिल्ली से अपनी कार‌ ड्राइव करते लौट रहे थे कि करनाल के निकट हरियाणा रोडवेज की बस से सीधी टक्कर में वे हमसे बिछड़ गये!

अब आज आगे लिख पाना बहुत मुश्किल लग रहा है और डाॅ चंद्रशेखर को याद करते इतना ही कहूँगा :

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो

न जाने किस गली में

ज़िंदगी की शाम हो जाये!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 4 – जम्मूवाली दादी – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  जम्मूवाली दादी)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – जम्मूवाली दादी  ?

माताजी तो माताजी थीं। मोहल्ले भर की गली – मोहल्ले की माताजी, और क्यों ना हो! 101 वर्ष उम्र और अनुभव दोनों का अद्भुत मिलन जो था।

माताजी 100 साल तक जिंदा रहना चाहती थीं। अब उसके ऊपर एक और साल जुड़ गया। पूरे कुनबे को जोड़कर रखने वाली माताजी गली – मोहल्ले के लोगों से भी आजीवन जुड़ी ही  रहीं। घर में कुल मिलाकर 40 लोग होंगे और मोहल्ले वाले उनकी तो कोई गिनती ही नहीं!

माताजी 60 साल की रही होंगी जब बाबूजी गुज़र गए पर माताजी टूटी नहीं, और न  सारे परिवार को ही टूटने -बिखरने  दिया। जिस भूमिका को बाबूजी निभाते थे, वही भूमिका अब माताजी निभाती आ रही थीं।वह विशाल छायादार वटवृक्ष के समान सशक्त थीं।

माता जी के पाँच पुत्र थे । आज उनका बड़ा बेटा 85 साल का है उसकी दुल्हन 82 साल की है, उनका बड़ा बेटा 62 साल का है उसका बेटा 38 साल का है और उसका बच्चा 16 साल का। कुल मिलाकर इस तरह घर के हर एक बेटे उनके बच्चे, पढ़ पोते- पतोहू सब मिलाकर कुनबे में 40 लोगों का समूह रहता आ रहा था। साझा व्यापार था।

आज भी जम्मू-कश्मीर में ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। सेब, बादाम, अखरोट, चिलगोज़ा, खुबानी के बाग हैं और व्यापार भी उसी का ही है।

माताजी का एक बेटा कटरा में व्यापार करता था, वही ड्राईफ्रूट और गरम कपड़ों का। पर रोज़ रात को घर लौटकर आता ही था।यद्यपि जम्मू और कटरा के बीच चालीस किलोमीटर का अंतर है। प्रति घंटे बसें चलती हैं तो घर आना ही होता है।यह माताजी का आदेश था।रात के भोजन के समय वे बेटे बहुओं को लेकर भोजन करना पसंद करती थीं।शायद परिवार को जोड़कर रखने का यह एक गुर था।

माताजी के तीसरे बेटे की अकाल मृत्यु हुई थी।पर माताजी ने बहू को अपने मायके न जाने दिया और न सफ़ेद कपड़े ही पहनने दिए।माताजी का कहना था, “पति मर गया, यादें तो हैं !चिट्टे ( सफेद) कपड़े पाकर ओदा दिल न दुखाईं पुत्तर।” बड़ी प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी माताजी की।

माताजी के घर में आज तक कभी किसी ने ऊँची आवाज में बात ना की थी और ना उस घर में विवाद का कभी प्रश्न ही उठ खड़ा हुआ।सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे चाहे भूषण हों या पड़पोते का पाँच साल का गुड्डू।

बड़ा बेटा भूषण आज भी गुल्लक संभालते थे। सूखे मेवे का व्यापार था उनका जिसे बाबूजी चलाते आ रहे थे। उनके देहांत के बाद बड़ा बेटा चलाने लगा और अब उसके बेटे चलाते हैं। पर गुल्लक संभालने की जिम्मेदारी आज भी माता जी के बड़े बेटे के पास ही है। यही नहीं हर रोज की कमाई का हिसाब माताजी को जरूर देना पड़ता था। माताजी अपने पास जरूरत के हिसाब से पैसे रख लेती थी॔ बाकी जमा करवा देती थीं। जो धनराशि वह अपने पास रखती थी वह  घर के बच्चे और उनके जन्मदिन, तीज -त्योहार,  विवाह वार्षिक दिन के उत्सव पर उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया करती थी॔। शुरू में तो यह ₹11 हुआ करते थे । समय की बढ़ती चाल देखकर माता जी अब ₹101 पर आकर अटक गईं। कहती थीं “मेरी भी तो उमरा 101 ही है तो क्यों ना 101 दिया करूँ।”

गली मोहल्ले में कोई बीमार पड़े तो माताजी जरूर पहुँच जाती थीं।यदि कोई पुरुष बीमार हो तो वहाँ उनके पास बैठकर पाठ करती  और ठीक होने की दुआ कर घर लौट आतीं।

यदि कोई स्त्री बीमार हो तो उन्हें पता होता था कि परिवार को भोजन की आवश्यकता होती है। माताजी सुबह-शाम भोजन भेजने की व्यवस्था भी करतीं और समय-समय पर उनसे मिलने भी जातीं।

कोई बच्चा बीमार हो तो न जाने माताजी कौन-कौन से काढ़ा और  घुट्टियाँ तैयार करके बच्चे को पिलातीं। लोगों को पता था अनुभवी माताजी एक लंबा जीवन देख चुकी थीं।ऐसा जीवन जहाँ  आज जैसी दवाइयाँ नहीं थी इसलिए लोगों का  उन पर बड़ा भरोसा था।

खाली बैठना माताजी को कभी गवारा न था।इन एक सौ एक वर्ष की उम्र तक पचास -साठ स्वेटर बुन चुकी थीं साथ में न जाने कितने ही शालों पर कढ़ाई कर चुकी थीं।पड़ोस में किसीकी शादी हो तो माताजी चद्दर काढ़ने बैठ जातीं।

प्रातः चार बजे उठना, नहा धोकर पाठ करने बैठना उनकी बरसों की आदत थी। वे पाँच क्लास तक पढ़ी थीं जिस कारण पढ़ने लिखने की आदत बनी रही।तेरह वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी इस परिवार में। यह परिवार जम्मू का डोगरी परिवार था।माताजी श्रीनगर की थीं जिस कारण उनकी वेष-भूषा आज भी काश्मीरियों जैसी ही थीं।हाँ भाषा वे डोगरी सीख गई थीं।

उनकी उम्र की महिलाएँ सारा दिन लेटी बैठी रहती होंगी पर माताजी को बैठे रहना मंजूर न था।सारे परिवार के लिए रात को बादाम भिगोकर रखना भी उनकी आदत में शामिल थी।हर कोई जब सुबह उठ कर उनके कमरे में पैरीपौना (प्रणाम) करने आता तो माताजी उसके हिस्से के बदाम – अखरोट उन्हें पकड़ा देतीं। घर के छोटे बच्चे कहीं बादाम अखरोट कूड़ेदान में ना डालें इसलिए उन्हें अपने सामने बिठाकर बादाम अखरोट चबाने के लिए कहती थीं।यह उनके अनुभव का ही एक हिस्सा था। रोज अखरोट तोड़ना,  खरबूजे के सूखे बीज से बीज निकालना, कद्दू के  सूखे बीज से छोटे बीज निकालना माताजी का ही काम था।नाखून अब काले से पड़ गए थे, हथेलियों पर रेखाओं का जाल बिछा था जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कर्मठ हाथ थे।घर परिवार के लोगों को अपने हाथ से  खिलाना माता जी का निजी शौक था।

यही नहीं गर्मी के मौसम में आम का अचार- मुरब्बा बनाना आज भी माता जी का ही काम था। ठंड के मौसम में  जब फूल गोभी, गाजर शलगम, मटर खूब सस्ते हो जाते तो माताजी उन सब से अचार बनातीं। जम्मू के लोगों का यह बड़ा प्रिय अचार होता है ।

ठंड के दिनों में जब बड़ी-बड़ी, लाल – लाल मिर्चे  आते तो माता जी अपने हाथ से मसाले तैयार करके भरवे मिर्ची के अचार बनातीं। जम्मू में आज भी लोग सरसों का तेल भोजन के लिए प्रयोग में लाते हैं इसलिए सभी चीजें घर पर होने के कारण माताजी दिन भर अपने काम को लेकर व्यस्त रहती थीं। किसी पड़ पतोहू को साथ में ले लेती मदद के लिए और उन्हें सिखाती भी चलती।

ठंड के मौसम में जब वह भी गाजर शलगम मटर बाजार में आते तो माताजी उन सब को साफ करके खूब धूप में सुखातीं ताकि बारिश के दिनों में किसी को भोजन की कमी ना हो। रात के समय दही जमाने का काम भी माताजी ही किया करती थीं। गर्मी के मौसम में माताजी का अधिकांश समय घर की छत पर ही कटती थीं।लौकी -कद्दू डालकर बड़ियाँ डालना, मसालेवाली बड़ियाँ बनाना, पापड़ बनाना सब सुखाना माताजी का शौक था।

घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की देखभाल का मानो उन्होंने जिम्मा उठा रखा था। आजकल कुछ दिनों से माताजी अक्सर जोर से चिल्ला पड़ती और परिवार के लोगों को एकत्रित करती कहतीं ” ओए, ओए बड़ी पीड़ है छाती ते, आ … आ गया मैंन्नू लैंण। चलो मेन्नू मंजीते उतार लो, थल्ले जमीन पर चदरा बिछा दो मेरे जाणे दा वखत आ गिया।”

माताजी अक्सर कहती थीं “मैं मंजी ते न मरणा, थल्ले लिटाणा।”

इस तरह पिछले छह माह में माताजी ने कई बार कुनबे को अपने कमरे में एकत्रित कर लिया था।पहली बार जब ऐसा हुआ तो सब घबड़ा गए।तुरंत डॉक्टर बुलाया गया।डॉक्टर ने कहा हाइपर एसिडिटी है माताजी को घबराने की बात नहीं।” फिर जब कभी छाती में दर्द होता तो बच्चे दो चम्मच जेल्यूसिल उन्हें पिला देते।

एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में माताजी ने न शोर मचाया न किसी को एकत्रित किया।न चाहकर भी अपने पलंग पर जिसे वे आजीवन मंजी कहती आईं थीं, पड़ी रहीं। सुबह जब भूषण माताजी से रोज़ की तरह पैरीपौना करने आया तो देखा हाथ में जप माला पकड़े वह निस्तेज पड़ी हैं।देह शांत, चेहरे पर मृदु मुस्कान!

खबर मिलते ही गली- मोहल्ले के लोग दर्शन के लिए आने लगे।देह को खूब सजाया गया पशमीना शाल ओढ़ाया गया, गुब्बारे बाँधे गए।

बड़ी उम्र के लोगों के देहांत के बाद इस तरह सजाकर ले जाना संभवतः डोगरी लोगों की संस्कृति है।  कंधे देनेवाले अनेक थे। खूब छुट्टे पैसे लुटाए  गए। घाट तक सौ दो सौ लोग पहुँचे। माताजी कहती थीं, “लकड़ी न सुलगाई मेरे लई, बच्च्यांदे काम्म आणा लकड़ियाँ। मेन्नू भट्टी विच पा देणा।” अर्थात फर्नेस में। लकड़ियाँ बच्चों के काम आएगी कहती थीं शायद इसलिए कि भारत में सबसे ज्यादा पेंसिल का कच्चा माल लखीमपुरा पुलवामा काश्मीर में बनाया जाता है। क्या सोच है माताजी की!

एक एरा, प्रचुर तजुर्बा लेकर,  कुनबे को, गली- मोहल्ले को अपने संस्कार से अवगत कराती हुई  प्रोग्रेसिव  सोच रखनेवाली माताजी परलोक सिधार गईं।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय)

☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆

“व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कवि, व्यंग्यकार, सम्पादक श्रीबाल पाण्डेय जी का जन्म 19जुलाई1921 को नरसिंहपुर जिले के बिलहरा गांव में हुआ था,उनका पहला काव्य संग्रह 1958 में प्रकाशित हुआ था, ‘जब मैंने मूंछ रखी’ निबंध संग्रह के अलावा कुछ व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुए और पसंद किए गए, व्यंग्य संग्रह ‘तीसरा कोना जुम्मन मियां का कहना है’के अलावा ‘माफ कीजिएगा हुजूर’ और ‘साहिब का अर्दली’ खूब चर्चित हुए थे। मानवीय संवेदनाएं उनकी कविताओं में कूट-कूट कर भरीं थीं,होटल में काम कर रहे छोटे से लड़के पर लिखी गई कविता पढ़कर हर पाठक की आंखें नम हो जातीं हैं, कविता में एक जगह आया है….

आज तक इसने चांद को देखा नहीं है,

हाथ में इसके सौभाग्य की कोई रेखा नहीं है,

श्रीबाल पाण्डेय जी ने साहित्यिक पत्रिका ‘सुधा’ का सम्पादन किया और ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की चर्चित पत्रिका ‘वसुधा’के प्रबंध सम्पादक रहे।वे लेखन के मामले में किसी के सामने कभी झुके नहीं, कभी किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं की। वे हरिशंकर परसाई जी के बहुत करीबी थे। श्रीबाल पाण्डेय जी के बारे में लिखते हुए याद आ रहा है जब  हम लोगों ने भारतीय स्टेट बैंक की तरफ से श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान किया था।

साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘रचना’ के संयोजन में जबलपुर के मानस भवन में हर साल मार्च माह में अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। जिसमें देश के हास्य व्यंग्य जगत के बड़े हस्ताक्षर शैल चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर,शरद जोशी, सुरेन्द्र शर्मा, के पी सक्सेना जैसे अनेक ख्यातिलब्ध अपनी कविताएँ पढ़ते थे। रचना संस्था के संरक्षक श्री दादा धर्माधिकारी थे सचिव आनंद चौबे और संयोजन का जिम्मा हमारे ऊपर रहता था। देश भर में चर्चित इस अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान हम लोगों ने जबलपुर के प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय का सम्मान करने की योजना बनाई, श्रीबाल पाण्डेय जी से सहमति लेने गए तो उनका मत था कि उन्हें सम्मान पुरस्कार से दूर रखा जाए तो अच्छा है फिर ऐनकेन प्रकारेण परसाई जी के मार्फत उन्हें तैयार किया गया।

इतने बड़े आयोजन में सबका सहयोग जरूरी होता है। लोगों से सम्पर्क किया गया बहुतों ने सहमति दी, कुछ ने मुंह बिचकाया, कई ने सहयोग किया। स्टेट बैंक अधिकारी संघ के पदाधिकारियों को समझाया। उस समय अधिकारी संघ के मुखिया श्री टी पी चौधरी ने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा। तय किया गया कि स्टेट बैंक अधिकारी संघ ‘रचना’ संस्था के अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान करेगी।

हमने परसाई जी को श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की तैयारियों की जानकारी जब दी तो परसाई जी बहुत खुश हुए और उन्होंने श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की खुशी में तुरंत पत्र लिखकर हमें दिया।

श्रीबाल पाण्डेय जी उन दिनों बल्देवबाग चौक के आगे  के एक पुराने से मकान में रहते थे। आयोजन के पहले शैल चतुर्वेदी को लेकर हम लोग उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़े, शैल चतुर्वेदी डील – डौल में तगड़े मस्त – मौला इंसान थे, पहले तो उन्होंने खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ने में आनाकानी की फिर हमने सहारा दिया तब वे ऊपर पहुंचे। श्रीबाल पाण्डेय जी सफेद कुर्ता पहन चुके थे और जनाना धोती की सलवटें ठीक कर कांच लगाने वाले ही थे कि उनके चरणों में शैल चतुर्वेदी दण्डवत प्रणाम करने लोट गए। श्रीबाल पाण्डेय की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे चूंकि उनकी जीभ में लकवा लग गया था। उस समय गुरु और शिष्य के अद्भुत भावुक मिलन का दृश्य देखने लायक था। श्रीबाल पाण्डेय शैल चतुर्वेदी के साहित्यिक गुरु थे।

मानस भवन में हजारों की भीड़ की करतल  ध्वनि के साथ श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान हुआ। मंच पर देश भर के नामचीन हास्य व्यंग्य कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया था पर उस दिन मंच से शैल चतुर्वेदी अपनी रचनाएँ नहीं सुना पाये थे क्योंकि गुरु से मिलने के बाद नेपथ्य में चुपचाप जाकर रो लेते थे और उनका गला बुरी तरह चोक हो गया था।

स्वर्गीय श्रीबाल पाण्डेय जी अपने जमाने के बड़े हास्य व्यंग्यकार माने जाते थे।जब परसाई जी  ‘वसुधा’ पत्रिका निकालते थे तब वसुधा पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पंडित श्रीबाल पाण्डेय हुआ करते थे। उनके “जब मैंने मूंछ रखी”, “साहब का अर्दली” जैसे कई व्यंग्य संग्रह पढ़कर पाठक अभी भी उनको याद करते हैं। उन्हें सादर नमन।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-9 – पुराने चावलों जैसे महकते दोस्त… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-9 – पुराने चावलों जैसे महकते दोस्त… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आज फिर जालंधर की सुनहरी, कुछ ह़सातीं, कुछ रुलातीं यादों की ओर‌ एक बार फिर! अपनी पीढ़ी के रचनाकारों को मैं बराबर याद कर‌ रहा हूँ और वे सब अब पुराने चावलों जैसे महकते हैं! वैसे तो मैने प्रसिद्ध उपन्यासकार व जालंधर दूरदर्शन के समाचार संपादक रहे जगदीश चंद्र वैद जी का उल्लेख पहले  कर चुका हूँ और उनसे मिले प्रोत्साहन को भूला नहीं ! वे पंजाब के ग्रामीण अंचल‌ पर उपन्यास ‘धरती धन न अफ्ना’ लिखकर प्रसिद्धि के शिखर को छूने में उसी तरह सफल रहे जैसे अपने समय के लोकप्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद अपने उपन्यास ‘गोदान’ के लिए ऐसे प्रसिद्ध हुए कि उनकी जैसी ऊंचाई तक पहुंचना किसी लेखक के बूते की बात नही थी लेकिन ‘ धरती धन न अपना’ भी बहुत सी भाषाओं में अनुवादित हुआ! आज उनकी बेसाख्ता याद इसलिए आई कि क्या उनकी तरह आज पंजाब में कोई उपन्यास लिख रहा है? जी हां,हैं न मेरी पीढ़ी के, मेरे सहयात्री डाॅ  विनोद शाही! वे पटियाला रहते थे, फिर हिंदी प्राध्यापक के रूप में काफी समय जालंधर और होशियारपुर रहे और कई वर्ष जालंधर में रहने के बाद‌ आजकल‌ गुरुग्राम में अपने बेटे के पास शिफ्ट हो गये हैं यानी वे भी मेरी तरह हरियाणवी रंग में रग गये हैं! उपन्यासों की चर्चा चली तो बता दूँ कि डाॅ विनोद शाही ने दो उपन्यासों- ईश्वर का बीज और निर्बीज की रचना की है! वैसे कथा लेखन में निरंतर सक्रिय हैं और इनके चार‌ कथा संग्रह भी हैं, जिनमें ‘श्रवण कुमार की खोपड़ी’ बहुचर्चित रही और अभी इन वर्षों में ‘हंस’ में प्रकाशित कहानी ‘बाघा वाॅर्डर’ मेरी प्रिय कहानियों में शामिल हैं! आजकल ज्यादा चर्चा इनके आलोचना क्षेत्र में है रही है और कम से कम पच्चीस आलोचना पुस्तकें हिंदी साहित्य को दे चुके हैं! बहुआयामी लेखन और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी शाही को अनेक सम्मान मिले हैं। हाल ही में चंडीगढ़ में इन्हें ‘आधार सम्मान’ से सम्मानित किया गया! मुझे इस मित्र की एक नसीहत नही भूलती, जब मेरे प्रथम लघुकथा संग्रह-मस्तराम ज़िदाबाद पर जालंधर में आयोजित विचार चर्चा में कहा कि कमलेश की लघुकथाएं बहुत शानदार हैं लेकिन ये अंत में पौराणिक कथाओं की तरह ज्ञान बांटते की तरह कोई शिक्षा देने की मोमबत्ती क्यों जला देते हैं! ऐसे ही सच्चे दोस्त और आलोचक होने चाहिएं  । यही दुआ के साथ आगे बढ़ता हूँ! वे निश्चय ही आलोचना में और ऊंचा मुकाम बनायेंगे!

एक और‌‌ भी हैं न ऐसे हमारे मित्र डाॅ अजय शर्मा ! जो मूलत: तो एक डाॅक्टर हैं लेकिन साहित्य के कीड़े ने ऐसा काटा कि डाॅक्टर पीछे निशानी जैसा रह गया और वे उपन्यास लेखन में कदम दर कदम बढ़ते ही गये! शुरुआत हुई चेहरा और परछाईं से और फिर‌ आया बसरा की गलियां जो बहुचर्चित रहा । इसके बाद तो फिर दे दनादन ‘नौ दिशाएं’, ‘कागद कलम ना लिखणहार’  विभिन्न विश्वविद्यालयों में पांच कक्षाओं में शामिल !

इनके उपन्यासों पर अब तक 29 एम फिल’.सात पीएचडी विभिन्न विश्वविद्यालयों से हो चुकी हैं! है न रिकॉर्ड? इनके अतिरिक्त .छह नाटक एक कहानी संग्रह पंजाबी में! इनके लेखन के आधार पर अब तक इन्हें पुरस्कार शिरोमणि पुरस्कार और केंद्रीय हिंदी निदेशालय से मिले अनेक सम्मान शामिल हैं ।

इतना याद दिला दूँ कि तरसेम गुजराल के उपन्यास ‘ जलता हुआ गुलाब’ को वाणी प्रकाश की ओर से पुरस्कृत किया गया! जिसका चयन अपने समय के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ नामवर सिंह ने किया था! इस तरह जालंधर में उपन्यास लेखन की परंपरा को मेरे मित्र बाखूबी आगे बढ़ा रहे हैं! डाॅ अजय शर्मा ने अमर उजाला, दैनिक जागरण और‌ दैनिक सबेरा में पत्रकारिता भी की!

कभी प्रसिद्ध आलोचनक व पंजाब विश्विद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान ने कहा था कि यदि हिंदी साहित्य में से पंजाब के लेखकों का योगदान निकाल‌ दिया जाये तो यह आधा ही रह जायेगा! यानी आधा हिंदी साहित्य में लेखन पंजाब के लेखकों ने किया है ! हमारे मित्र धर्मपाल साहिल भी उपन्यास लेखन में पीछे नहीं! उन्हें भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से उपन्यास पर सम्मान मिल चुका है!

शायद आज के लिए इतना ही काफी!

पुराने चावलों जैसी खुशबू जैसे दोस्तों की बातें आगे भी जारी रहेंगी।

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 3 – गुड समरीतान – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गुड समरीतान)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गुड समरीतान ?

(दो सत्य घटनाओं पर आधारित यह संस्मरण है। दोनों घटनाओं को पढ़ने पर ही संपूर्ण कथा स्पष्ट हो सकेगी।)

भाग एक

समीर मुखर्जी अपने शहर के एक प्रसिद्ध कंपनी में उच्च पदस्थ व्यक्ति थे। धन -दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा, बड़ा सा बंगला और सुखी परिवार ये सब कुछ जीवन में अर्जित था। तीन बेटियाँ थीं जिन्हें प्रोफेशनल एज्यूकेशन दिलाकर  समयानुसार विवाह भी करवा चुके थे और वे तीनों विदेश में रहती थीं।

अब हाल ही में समीर रिटायर हुए। अति प्रसन्न थे कि अब पति-पत्नी  फ्री हो गए और  खूब घूमेंगे। कोलकाता से निकले एक लंबा अंतराल बीत चुका था, कई ऐसे रिश्तेदार थे जो बंगाल के छोटे – छोटेे गाँवों में रहते थे  जिनसे मिले कई वर्ष बीत गए थे। वे फिर उन भूले-बिसरे और शिथिल पड़े तारों को जोड़ना चाहते थे।

समीर और सुमिता कोलकाता जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उससे पहले कंप्लीट मेडिकल चेक अप करवा लेना चाहते थे। यह रेग्यूलर चेक अप था और प्रति वर्ष करवाते रहे तो खास चिंता की बात नहीं थी। पर भगवान की योजना कुछ और ही थी। सुमिता के स्कैन में आंत में कोई ग्रोथ दिखाई दिया और  प्रारंभ हुआ अनेक विभिन्न प्रकार के टेस्ट। बायप्सी हुई और पता चला कि उन्हें कैंसर था जो काफी फैल भी चुका था। दोनों पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। अब शुरू हुआ एक नया युद्ध। अस्पतालों के चक्कर, सर्जरी, और फिर कीमो। जिस घर में सुख शांति और समृद्धि का वास था वहाँ श्मशान की – सी चुप्पी छा गई। सुख और खुशियाँ न जाने किस खिड़की से बाहर निकल गए और दुख- दर्द ने घर भर में पैर पसार लिए।

समीर के बचपन के एक मित्र थे गौतम चौधरी, वे अपने शहर के  मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड डीन थे। अब रिटायर होने पर कोलकाता के पास एक छोटे से गाँव में अपनी विधवा बड़ी बहन को साथ लेकर रहते थे। स्वयं विधुर तथा नि: संतान थे समाज सेवा में मन लगाते थे। गाँव वालों को फ्री ट्रीटमेंट देते, सरकारी अस्पतालों से संपर्क करवाते, भर्ती करवाते और व्यस्त रहते।

उन्हें जब से सुमिता की बिगड़ती हालत की जानकारी मिली वे अक्सर समीर के घर आने लगे और न केवल अपनी बातों से सुमिता को हँसाते रहते, उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहे  बल्कि समीर के लिए बहुत बड़े इमोशनल सपोर्ट भी थे।

तीन – चार माह के भीतर ही सब कुछ खत्म हो गया। कहाँ मुखर्जी दंपति फ्री होकर घूमने – फिरने की योजना बना रहे थे और कहाँ भीषण कष्ट सहती जीवन संगिनी का साथ ही छूट गया। समीर टूट से गए। ईश्वर में जो आस्था थी वह टूट गई। जिस दिन पत्नी की अस्थियाँ बहाने गए थे उस दिन अपना जनेऊ भी न जाने क्या सोचकर नदी में बहा आए।

कुछ दिन बाद घर के छोटे से मंदिर में जितनी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री थी सब एक कार्टन में डालकर किसी मंदिर में छोड़ आए। गौतम लगातार  चुपचाप समीर का साथ देते रहे। वे उसके मन की हालत को समझ रहे थे। शायद स्वयं इसी दौर से गुज़र चुके थे, भुग्तभोगी थे, इसलिए समीर के दर्द की गहराई को नापने की क्षमता भी रखते थे।

सुमिता ने अपनी आँखें दान की थी, समीर ने दो महीने के भीतर उसकी सभी वस्तुएँ बेटियों और ज़रूरत मंदों में बाँट दी बस उसका चश्मा अपने पास रख लिया। गौतम समीर की मानसिकता को भली-भांति समझ रहे थे। उसे घर से दूर ले जाना जरूरी था इसलिए अपने साथ कोलकाता ले गए।

शुरू-  शुरू में समीर चुप रहते थे, हँसना मानो छोड़ ही दिया था। पर गौतम एक सच्चे दोस्त की तरह निरंतर उसका साथ दे रहे थे। कभी गंगा के तट पर घुमाने ले जाते कभी नाव में सैर कराते, कभी गंगा तट पर बैठ खगदल को अपने वृक्षों पर लौटते हुए निहारते  कभी बँधी नावों से टकराती लहरों का गीत सुनते तो कभी रेत पर बैठकर केकड़ों  के क्रिया कलाप देखते। कभी गाँवों में रहते  रिश्तेदारों से मिलवा लाते तो कभी ताश या शतरंज खेलने के बहाने उसका मनोरंजन करते। समीर के भीतर भीषण खलबली – सी मची हुई थी, जिसे केवल गौतम समझ पा रहे थे। एक बचपन का मित्र ही शायद ऐसा कर सकता है।

भाग दो

देखते ही देखते छह महीने बीत गए। समीर अब फिर से हँसने लगे, बोलने लगे लोगों से मिलकर खुशी ज़ाहिर करने लगे। जिस तरह भारी वर्षा के बाद जब बादल छँट जाते हैं तब दसों दिशाएँ चमकने लगती हैं, एक ताज़ापन-  सा प्रसरित हो उठता है। बस कुछ इसी तरह समीर भी मानो काली घटाओं को पीछे धकेलकर बाहर निकल आए थे।

घर से दूर काफी लंबे समय तक रह लिए थे। यद्यपि सुमिता के बिना घर खाली था पर उसकी यादें उसे पुकार रही थी। अब वे घर लौटना चाहते थे। वे जानते थे सुमिता के बिना घर में रहना कठिन होगा पर कब तक सच्चाई से भागते भला!

गौतम के साथ एक दिन आखिर एयरपोर्ट आ ही गए। एयरपोर्ट के बाहर ही भारी भीड़ दिखाई दी तो दोनों मित्र उस भीड़ में शामिल हुए यह देखने के लिए कि शायद कोई दुर्घटना घटी हो तो सहायता दे सकें।

देखा एक अधेड़ उम्र की महिला रो रही थी और सिक्यूरिटी व पुलिस वाले उससे सवालात कर रहे थे। पास जाकर देखा तो वह महिला समीर के बहुत दूर के रिश्ते की बहन मीनू दीदी थीं। जिनसे वह कुछ माह पहले ही मिलकर आए थे। समीर से आँखें मिलते ही मीनू दीदी “भाई मुझे बचाओ ” कहकर रोने लगीं। उसे शांत किया, पानी पिलाया, भीड़  हटाई गई। एयर पोर्ट के विसिटर लाऊँज में ले जाया गया उसे। थोड़ा स्वस्थ होने पर मीनू दीदी ने जो कुछ कहा वह सुनकर उपस्थित लोग हतप्रभ हो गए।

एक माह पूर्व उनका बेटा अमेरिका से आया था। वह जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से निकला मेधावी छात्र था। नौकरी भी अच्छी मिली थी फिर विदेश जाने का मौका मिला। कुछ वर्ष वहीं अमेरिका में काम करता रहा। शादी हुई, बच्चा हुआ हर साल एक बार परिवार को लेकर आता रहा। इस बार वह अकेला आया और माँ को साथ लेकर जाने की ज़िद करने लगा। पास – पड़ोस के लोगों ने भी मीनू दीदी के भाग्य की सराहना की कि बेटा माँ का ध्यान रखने के लिए साथ रखना चाहता है। बेटे ने कई विभिन्न कागज़ातों पर माँ के अँगूठे लगवाए। पुश्तैनी हवेली थी जिसकी गिरती हालत थी पर ज़मीन की कीमत चढ़ी हुई थी। संपत्ति अच्छे दाम पर बेचकर सारा रुपया पैसा बैंक में जमा किया गया। माँ -बेटे का जॉइंट अकाउंट था। वह निरक्षर थी, जैसा बेटा कहता गया वह करती रही। एक सूटकेस में अपने थोड़े कपड़े और गहने लेकर वे उस दिन सुबह एयरपोर्ट आए। बेटे ने माँ को एयरपोर्ट के बाहर एक काग़ज़ हाथ में लेकर बिठाया और अभी आता हूँ कहकर अपना सामान लेकर जो गया तो अब तक नहीं लौटा।

पिछले पाँच घंटों से मीनू दीदी अपने सूटकेस के साथ बैठी रही। इतनी देर से वहीं होने के कारण सिक्यूरिटी ने सवाल -जवाब करना शुरू किया। उनके हाथ में जो कागज़ थमाकर उनका बेटा गया था वह था मेट्रोरेल का टिकट!! जब उनसे पासपोर्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोलीं कि उनके पास कुछ भी नहीं हैं और पासपोर्ट क्या चीज़ होती है वे नहीं जानतीं। एक यात्री ने अपना पासपोर्ट दिखाया तो उन्होंने कहा कि उनके बेटे के हाथ में उन्होंने वैसी पुस्तक देखी थी। अमेरिका जानेवाली एवं उड़ान भर चुकी एयरलाइंस से मालूमात किए जाने पर ज्ञात हुआ कि मीनू दीदी का बेटा माँ को छोड़कर निकल चुका था।

समीर और गौतम  मीनू दीदी को गौतम के घर ले आए। बैंकों में जाकर पता किया तो पाया कि लाखों रुपये जो हवेली बेच कर मिले थे उसमें से पच्चीस हजार छोड़कर बाकी रकम मीनू दीदी के बेटे ने अपने अलग बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर लिया था। वेलप्लैन्ड प्लॉट !!!! उफ़ भयंकर योजना!!!!

मीनू दीदी को उनके गाँव वापस तो नहीं भेज सकते थे, निंदा होती सो अलग गाँववाले जीना कठिन कर देते तिस पर अब रहने का कोई ठौर था नहीं।

कुछ दिन बाद समीर मीनू दीदी को लेकर अपनघरशहर, अपने घर लौट आए। दोनों दुखी थे एक को धोखा दिए जाने का दर्द था और दूसरे के जीवन संगिनी के विरह का दुख। पर दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया। सहारा दिया विश्वास और भरोसा दिया।

अब मीनू दीदी ने घर संभाल लिया। समीर की बेटियाँ आती जाती रहतीं, उनके बच्चे आते और मीनू पीशी ( बुआ ) के स्नेह का आनंद उठाते।

इस घटना ने समीर मुखर्जी को एक नई दिशा दी। मीनू दीदी के बेटे जैसे हज़ारों होंगे जो माँ – बाप को ठगते हैं, घर से निकाल देते हैं, बेसहारा कर देते हैं। उनकी निरक्षरता का संतान लाभ भी उठाती हैं। इसलिए समीर ने अपने ही बंगले के एक हिस्से में ‘ क्रेश फॉर दी ओल्ड ‘ की व्यवस्था की। जिन लोगों को कभी बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती पर बूढ़े माता-पिता को साथ लेजाना संभव न होता वे देख – रेख के लिए तथा कुछ समय के लिए अपने माता-पिता को समीर के क्रेश फॉर दी ओल्ड में छोड़ जाते। यह व्यवस्था पूरे वकालती कागज़ातों पर हस्ताक्षर लेकर पूरे  किए जाते ताकि छोड़कर भागने का मार्ग न मिले !

मीनू दीदी को घर परिवार मिला, इज्ज़त मिली, अपने मिले। वे  अपने कर्त्तव्यों को खूब अच्छे से निभाने लगीं और समीर मुखर्जी आज एक अच्छे समाज सेवक बन गए। उनका घर भर गया, अकेलापन दूर हुआ।

आज उनके इस क्रेश फॉर दी ओल्ड में दो बूढ़े पिता, एक दंपति और दो बूढ़ी माताएँ रहती हैं। मनुष्य कुछ करना चाहता है पर ईश्वर उससे कुछ और ही करवाते हैं।

आज हमारे समाज के द गुड समरीतान हैं समीर मुखर्जी!!!

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 265 ☆ संस्मरण – लंदन से 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय संस्मरण लंदन से 1

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 265 ☆

? संस्मरण लंदन से 1 ?

ब्रिटेन की पार्लियामेंट के सामने ही महात्मा गांधी मिले।

मंद ठंडी बयार में लहराते कामनवेल्थ देशों के झंडे, अन्य अनेक महापुरुषों के बुतों के साथ अपने अंदाज में सत्य की लाठी के साथ डटे हुए।

लंदन में अपनी मांग, आवाज, आंदोलन, इसी पार्क में उठाई  जाती हैं। (भारत के जंतर मंतर की तरह)

यद्यपि इंग्लैंड में बब्बर शेर या टाइगर  नहीं होते, पर फिर भी इसे इंग्लैंड के राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता दी गई है।

यहां की महत्वपूर्ण इमारतों के स्वागत द्वार पर शेरों की मूर्तियां लगी हुई हैं।

शेरों को लंबे समय से ताकत के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह जंगल का सर्वथा शक्तिशाली प्राणी होता है।

इंग्लैंड के इतिहास में 12 वीं सदी से यहां के शासको प्लांटैजेनेट परिवार के समय से सिंह की छबि और मूर्तियों को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया गया, और यह परंपरा आज तक कायम है।

दरअसल इंग्लैंड की संस्कृति में धरोहर, परंपरा और इतिहास को बहुत महत्व दिया जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग- 8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो! आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह जालंधर में ऐसा क्या है जो बार बार वही जाता हूँ! जालंधर में मैने कलम पकड़नी सीखी और शायद पत्रकारिता का क, ख, ग, भी यहीं से सीखा और पहले सीखा प्रेसनोट लिखना! कैसे भला? ‘विचारधारा’ के जितने आयोजन होते, बाद में मेरी जिम्मेदारी हो गयी कि गोष्ठी की पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबारों के कार्यालय में पहुंचाऊं, क्योंकि मेरी हिंदी की लिखावट थोड़ी अच्छी थी और उन दिनों फोटोस्टेट करवा कर प्रेसनोट बांटा जाता था! मुझे स्कूटर चलाना कभी नहीं आया तो कोई स्कूटर वाला सहयोगी अपने स्कूटर के पीछे बिठाकर हर अखबार के दफ्तर ले जाता और इस तरह प्रेसनोट लिखने का शऊर सीखा। हालांकि दूसरे दिन समाचार प्रकाशित होने पर उस खबर का पोस्टमार्टम किया जाता कि ऐसा क्यों लिखा, ऐसे क्यों नही लिखा? मतलब मुद्दे की बात कहाँ है? जो समाचार कोई संदेश लोगों के बीच  मुद्दा ही स्पष्ट न कर पाये, वह  समाचार कैसा? तो इस तरह अनजाने ही पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ते गये!

अब आपका परिचय अपने एक और दोस्त व कथाकार सुरेंद्र मनन से करवाता हूँ जो जालंधर के होने के बावजूद , मेरे सम्पर्क में चंडीगढ़ में आये! वे चंडीगढ़ में नौकरी कर रहे थे और रमेश बतरा के साथ चंडीगढ़ में हमारी दोस्ती का सफर शुरू हुआ! जालंधर भी कुछ मुलाक़ातें हुईं लेकिन ज्यादा मुलाकातें चंडीगढ़ में हुईं। इनका पहला कथा संग्रह उठो लछमीनारायण आया! इसके बाद कैद में किताब, फिर ये चंडीगढ़ से भी उड़ान भर दिल्ली जा पहुंचे, वहां इनकी रूचि दस्तावेजी फिल्में बनाने में बढ़ती गयी और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते! पर फिर कहानी की ओर लौटे तब बर्षो बाद कथा संग्रह आया-अहमद अल हिल्लोल कहां हो? इतने बर्षों बाद मुझे याद रखा और वह कथा संग्रह हिसार के पते पर भेजा!

कैद में किताब और शिलाओं पर लिखे शब्द हिल्लोल भी आया! मैं इस दोस्त से जब फोन पर बात शुरू करता हूं तब हर बार कहता हूँ, हां भई सुरेंद्र मनन, नाम तो है मनन, भावें मेरी गल्ल मन्नन या न मन्नन ! फिर हम हंसते हुए नयी ताज़ी पूछते हैं, अपनी अपनी अपनी खैर खबर देते हैं! बेशक हमारी रूबरू मुलाक़ात पिछले कई सालों से नहीं हुई लेकिन दोस्ती बरकरार है! यह दोस्ती ज़िदाबाद! अब मिलने की इच्छा भी बलवती होती जा रही है!

जालंधर में मेरी एक लम्बे समय से महिला गीता डोगरा भी दोस्तों की सूची में शामिल हैं, जो सिमर सदोष और हिंदी मिलाप के माध्यम से परिचय के दायरे में आईं और‌ वैसे तो अमृतसर की थीं लेकिन विवाह जालंधर में हुआ तो समारोहों में मिलना जुलना होता रहा! ये वहां पहले पंजाब केसरी से जुड़ी रहीं  फिर दैनिक जागरण से! आजकल त्रिवेणी साहित्य मंच चला रही हैं और अनेक पुस्तकों‌ की रचना कर चुकी हैं, त्रिवेणी को कभी पालमपुर तो कभी मोगा तक ले जाती हैं। नाटक भी लिखा जो लूणा के दर्द पर केंद्रित है और पंजाब की श्रेष्ठ कहानियाँ का संपादन भी किया, जिसमें मेरी कहानी मंगवाकर सम्मानपूर्वक प्रकाशित की! बीच में साहित्यिक पत्रिका भी निकाली, उसमें भी मेरी रचनायें आती रहीं वैसे गीता डोगरा सबसे ज्यादा अमृता प्रीतम से प्रभावित हैं! इसीलिए इनकी पत्रिका भी  अमृता प्रीतम की पत्रिका नागमणि के आकार की है और‌ नाम भी है पारसमणि ! लघुकथा लेखन भी किया और बहुत ही भावुक कविताओं के संकलन भी इनके नाम हैं ‌आजकल थोडा़ अस्वस्थ रहती हैं, फिर भी साहित्य लेखन जारी है। संयोग देखिए की आज गीता का जन्मदिन है और अचानक इस ओर‌ मेरा ध्यान गया!इनकी स्वस्थता की दुआ करते आज जालंधर की यादों को यहीं पर विराम दे रहा हूँ। फिर मिलेंगे जालंधर की यादों के साथ!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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