हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 176 ☆ व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।)
साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 176 ☆  

? व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ?

मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए  कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए  फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर  थोडी लंबी प्रक्रिया  होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद  बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे  उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः  गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।

हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।

एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

स्कूल कालेज कोरे मन के  बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं, अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।

पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।

बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर  डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर  रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।

जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद  जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले,  तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से  छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री।  एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे,  पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया।  जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड  में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे  को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज  दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते  उसकी तरफ  बढ़ गए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहोदर…(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻

दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सहोदर…(2) ??

न माटी मिली, न पानी,

न पोषण ही हिस्से आया,

सदा पत्थर चीरकर ही

अंकुरित हो पाया,

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म का मिथक

हमारा यथार्थ निकला,

बोधिवृक्ष और मेरा प्रारब्ध

हरदम एक-सा निकला!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – यही तो है जीवन हमारा … ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

 ☆ गीत –  यही तो है जीवन हमारा …☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

कुछ छूट जाता है

कुछ रह जाता है

कुछ  बॅट  जाता है

ज़िंदगी का सफर यूं ही कट जाता है

 

जो छूट गया

वो है मां का प्यारा सा आलिंगन

पिता का खुशी से कंपन

भाई बहन का लाढ़ मनुहार

सखियों के साथ खिलवाड़

ये छूट गया सब पीछे छूट गया

और साथ आ गया

मां के हाथों का नरम स्पर्श

पिता के माथे पर भविष्य की  चिंता का दर्श

नए जीवन से जुड़ा मेरा संघर्ष

सोचती हूं जीवन तो आते जाते रहेंगे

 

कुछ छूटेगा कुछ मिलेगा

कुछ का होगा बटवारा

यही तो है जीवन हमारा

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे – इतराता है चाँद  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहे – इतराता है चाँद  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

इतराता है चाँद तो,पा तुझ जैसा रूप।
सच,तेरा मुखड़ा लगे,हर पल मुझे अनूप।।
चाँद बहुत ही है मधुर,इतराता भी ख़ूब।
जो भी देखे,रूप में,वह जाता है डूब।।
कभी चाँद है पूर्णिमा,कभी चाँद है ईद।
कभी चौथ करवा बने,करते हैं सब दीद।।
जिसकी चाहत वह सदा,इतराता है नित्य।
आसमान,तारे सुखद,चाँद और आदित्य।।
इतराने में है अदा,इतराने में प्यार।
इतराना चंचल लगे,अंतस का अभिसार।।
इतराकर के चाँद तो,देता यह पैग़ाम।
जो तेरे उर में बसा,प्रीति उसी के नाम।।
इतराकर के चाँद तो,ले बदली को ओट।
पर सच उसके प्यार में,किंचित भी नहिं खोट।।
कितना प्यार चाँद है,कितना प्यारा प्यार।
नेह नित्य होकर फलित,करे सरस संसार।।
छत से देखो तो करे,चाँद आपसे बात।
कितना प्यारा दोस्त की,मिली हमें सौगात।।
अमिय भरा है चाँद में,किरणों का अम्बार।
चाँद रखे युग से यहाँ,अपनेपन का सार।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -7 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अमेरिका में  प्राकृतिक और विकसित किए गए वन में विचरण करने के लिए रास्ते बनाए गए है, और कुछ स्वयं बन गए है, उनको ही ट्रेल की संज्ञा दी गई हैं। हमारे देश की भाषा में खेतों की मेड़ या पगडंडी जो सघन वन क्षेत्र में आने जाने के रास्ते के रूप में उपयोग किया जाता हैं, को भी ट्रेल कह सकते हैं।                     

शिकागो शहर में भी ढेर सारी ट्रेल हैं। वर्तमान निवास से आधा मील की दूरी पर विशाल वन भूमि जिसमें छोटी नदी भी बहती है, क्षेत्र में ट्रेल बनाई गई हैं। मुख्य सड़क से कुछ अंदर जाकर गाड़ियों की मुफ्त पार्किंग व्यवस्था हैं। बैठने के लिए बहुत सारे बेंच/टेबल इत्यादि वन विभाग ने मुहैया करवाए गए हैं। कचरा डालने के लिए बड़ी संख्या में पात्र रखवा कर सफाई व्यवस्था को भी पुख्ता किया गया हैं।

मई माह से जब यहां पर भी ग्रीष्म ऋतु आरंभ होती है, तब  निवासी बड़ी संख्या में यहां आकर भोजन पकाते (Grill) हैं। लकड़ी के कोयले को छोटे छोटे चुहले नुमा यंत्र में जला कर  बहुतायत में नॉन वेज तैयार किया जाता हैं। सुरा और संगीत मोहाल को और खुशनुमा बनाने में कैटलिस्ट का कार्य करते हैं।

ट्रेल में थोड़े से पक्षी दृष्टिगोचर होते हैं।मृग अवश्य बहुत अधिक मात्रा में विचरण करते हुए पाए जाते हैं।

ट्रेल को लाल, पीले, हरे इत्यादि रंग से विभाजित किया गया हैं। भ्रमण प्रेमी रास्ता ना भटक जाएं इसलिए कुछ दूरी पर लगे हुए पिलर पर रंग के निशान देखकर हमको अपने दिल्ली मेट्रो की याद आ गई। वहां भी इसी प्रकार से अलग अलग रूट्स को रंगों से विभाजित किया गया हैं। कुछ स्टेशन पर एक लाइन से दूसरी लाइन पर भी यात्रा की जा सकती हैं। यहां ट्रेल में भी प्रातः भ्रमण करने वाले भी तिगड़ों /तिराहों पर अपना मार्ग रंगानुसार बदल सकते हैं।

ट्रेल सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता हैं। श्वान पालक भी यहां विचरण करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन चैन से बांधना सख्ती से अनिवार्य होता है, वर्ना श्वान हिरण जैसे जीवों के लिए घातक हो सकता हैं। साइकिल सवार भी यहां दिन भर पसीना बहा कर स्वास्थ्य रहते हैं। बहुत से लोग तो धूप सेक कर शरीर के विटामिन डी के स्तर को बनाए रखते हैं। शीतकाल में तो सूर्यदर्शन भी दुर्लभ होते हैं।

वर्तमान समय में तो गर्मी, वर्षा और तीव्र वेग से हवाएं चलने का मौसम है। मौसम गिरगिट जैसे रंग बदलता है, ऐसा कहना भारतीय राजनीति के उन नेताओं का अपमान होगा, जो अपनी विचार धारा को अनेक बार बदल कर दलगत राजनीति में अपने झंडे गाड़ चुके हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

सरले किती, मोजू नको,

     उरलंय अजून बरंच काही

सरलेल्या गोड आठवणींनी,

      उरलेलं गोड करुन घे काही

 

कौमार्य गेलं असेल शिक्षणात,

      अन् भाव-भावंड सांभाळण्यात..!

तारुण्य गेलं नोकरी व्यवसायात

      स्वतःला कुटुंबाला उभं करण्यात!

 

वय केवळ एक आकडा समज ,

      मन भरुन जगून घे..!

“लोक काय म्हणतील?”सोडून,

      मनाला थोडी मोकळीक दे !

 

तू शिक्षित वा अशिक्षित स्वतःसाठी

       संवेदनाशील होऊन बघ..!

स्वतःशीचा वाद संपवून,

   उर्वरीत नियोजन करुन बघ..!

 

व्रण कधीच आठवू नकोस,

     भरलेल्या त्या जखमांचे!

दिवस कधीच साठवू नकोस,

      संकटांच्या त्या क्षणांचे ।

 

हुंदका ही नकोच नको,

     सुर्य मावळतीच्या या क्षणी

तो किती तेजस्वी दिसतो,

    हेच असू दे तुझ्या मनी..।

 

काम, क्रोध,लोभ सारे,

   निवळून जातील कुठेतरी !

निरव मनाची शांतता,

   दाटून येईल तुझ्या अंतरी ।

 

कोण जाणे पुढचा जन्म,

    पशुपक्षी वा माणूस खरा

याच जन्माचा करु सोहळा,

       माणूसकीचा ध्यास बरा ।

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #160 ☆ असे मागणे आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 160 ?

☆ असे मागणे आहे… ☆

शब्दांचे मोती व्हावे, असे मागणे आहे

ते गळ्यात तू माळावे, असे मागणे आहे

 

हे सप्तक छान सुरांचे, शब्दांशी करते गट्टी

सुरातून अर्थ कळावे, असे मागणे आहे

 

कोठार कधी पक्षाच्या, घरात दिसले नाही

उदराला रोज मिळावे, असे मागणे आहे

 

दगडाच्या हृदयी पान्हा, हिरवळ त्यात रुजावी

पाषाणी फूल फुलावे, असे मागणे आहे

 

हृदयाचे फूल मला दे, नकोच बाकी काही

ते कर तू माझ्या नावे, असे मागणे आहे

 

तो गुलाब कोटावरचा, हृदयी दरवळणारा

ते अत्तर आत रुजावे, असे मागणे आहे

 

हे पुस्तक करकमलाचे, भाग्याच्या त्यावर रेषा

हातात रोज तू घ्यावे, असे मागणे आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनपेक्षित – भाग 2 ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ अनपेक्षित  –  भाग 2 ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

(त्या बाईचे फक्त गर्भाशयच नाही,  तर तिचे आईपणच आपण भाड्याने घेतलंय असा एक नकोसा विचित्र विचार तिच्या मनात झर्र्कन येऊन गेला —) इथून पुढे —-

आधी कायदेशीर आणि मग सगळ्या वैद्यकीय प्रक्रिया एकदाच्या पार पडल्या, आणि ते दोघे जरासे निश्चिन्त झाले. पण काहीच दिवसांनी त्या बाईच्या पोटात एक नाही, तर तीन गर्भ अगदी व्यवस्थित वाढत आहेत असं डॉक्टरांनी सांगितलं आणि या दोघांच्या पोटात गोळाच आला. पण डॉक्टरांची चिंता वेगळीच होती. कारण त्यांना या प्रसूतीत मेडिकल complications होण्याची दाट शक्यता वाटत होती. डॉक्टरांनी तिनातला एक गर्भ ऍबॉर्ट करावा असा प्रामाणिक सल्ला दिला. पण तो सल्ला त्या बाईतल्या आईला अजिबात मान्य नव्हता, आणि तिचा नकार एक आई म्हणून स्वाभाविक आहे हे त्या दोघांनाही पटत होतं. डॉक्टरांचा सल्ला ऐकून ती बाई एकदम खूप चिडली होती, आणि तिने डॉक्टरांनाच जाब विचारला होता –” डॉक्टर काय बोलताय तुम्ही ? अहो मला मान्य आहे की मला पैशांची खूप गरज आहे म्हणून मी माझे गर्भाशय भाड्याने द्यायला तयार झाले आहे– असं करतांना माझा जीवही जाऊ शकतो याचीही कल्पना आहे मला. पण म्हणून मी चक्क माझ्याच एका बाळाची यात आहुति द्यावी असं सांगताय तुम्ही मला ? डॉक्टर मी गर्भाशय भाड्याने दिलंय ते एक नवा जीव जन्माला घालण्यासाठी — तिथे उमलू पाहणाऱ्या एका जीवाला निर्दयीपणाने जागच्याजागी पुरण्यासाठी नाही — तुम्हाला काय हो— तुमच्यासाठी सगळ्या नोटांचा रंग सारखाच असतो आणि पैसा हे त्याचं एकच नाव असतं. – पण माझ्यासाठी माझं  प्रत्येक  बाळ महत्वाचं आहे हे ध्यानात ठेवा. एक सुई टोचली की काम झालं इतकं सगळं सोप्पं वाटत असेलही तुम्हाला. पण यासाठी कोणता गर्भ निवडायचा– पहिला – शेवटचा–की मधला ? आणि हे ठरवणारा एखादा कायदेशीर निकष आहे तुमच्याकडे ? नाही ना ?  तुमचा हा सल्ला अजिबात ऐकणार नाही मी…. मग माझा जीव गेला तरी चालेल. “ 

हे सगळं बोलतांना- तिची हतबलता- मनात चाललेली घालमेल– परिस्थितीवरचा राग–आणि केवळ पैशासाठी मनाविरुद्ध करावी लागत असलेली ही क्लेशदायक तडजोड –असे कितीतरी संमिश्र भाव तिच्या चेहेऱ्यावर तीव्रतेने उमटले होते– तो फक्त राग नव्हता– तर एका असहाय्य मनाचा आक्रोश होता. आणि त्याक्षणी त्या दोघांनाही प्रकर्षाने हे जाणवलं होतं, की ती तिच्या बोलण्यातून फक्त डॉक्टरांनाच नाही, तर कायद्याला– सगळ्या सिस्टिमला–सगळ्या समाजाच्याच बदललेल्या मानसिकतेला धिटाईने जाब विचारत होती– खडसावून सांगत होती की प्रत्येक गोष्ट पैशात तोलता येत नाही म्हणून. ‘– त्या दोघांचं मनही पार हेलावून गेलं होतं त्याक्षणी. पण आता त्यांना त्यांचा निर्णय बदलता येणं शक्य नव्हतं.—- आता आपल्याला एक नाही, तर तीन बाळं असणार हे सत्य  त्यांनी मनापासून स्वीकारलं. पुन्हा नव्याने करार- कायद्याची आणखी जास्त प्रक्रिया, आणि अर्थातच त्या साखळीतल्या सगळ्यांच्याच मनातली तिप्पट वाढलेली हाव— म्हणजे एकूण तिप्पट खर्च – हे सगळं मान्य करणं आता भागच होतं. हे बाळंतपण सुखरूप पार पडलं तर सरोगसीच्या मार्गाने तिळं जन्माला येणं ही त्या शहरातली पहिलीच केस असणार होती,आणि त्यामुळे डॉक्टरांचं आणि हॉस्पिटलचंही  नाव खूपच प्रसिद्ध होणार हा सुप्त हेतू डॉक्टरांना लपवता आला नव्हता हेही दोघांच्या लक्षात आलं होतं. पण त्याकडे दुर्लक्ष करत, सगळ्या फॉर्मॅलिटीज त्यांनी नव्याने पूर्ण केल्या….. आणि आता त्यांना फक्त वाट बघत राहायची होती. 

 

आणि आज दिलेल्या डेटच्या जरासं आधीच त्यांना हॉस्पिटलमध्ये यावं लागलं होतं — त्यांच्या तीन बाळांची आतुरतेने वाट पाहत थांबले होते ते .—-

 

एकदाचं दार उघडलं. नर्स बाळांना घेऊन आली. दोघांनाही प्रचंड आनंद झाला. त्या बाईला तिळं होणार हे आधीच माहिती असलं तरी तीनही बाळं सुखरूप असणं, ही त्या दोघांसाठी फार मोठी गोष्ट होती. कारण त्यांच्या आयुष्यातला सर्वात मोठा निर्णय त्यामुळे योग्य ठरणार होता. 

दोघे खूपच खूश झाले होते– तिचा आनंद तर आगळाच  – बाळाला जन्म न देताही स्वतःच ‘आई’ झाल्यासारखा आनंद,  जो तिच्या डोळ्यातून नकळतच पाझरायला लागला होता. 

इतक्यात डॉक्टर गंभीर चेह-याने बाहेर आले. स्वतःचं गर्भाशय भाड्याने दिलेली ती आई या प्रसूतीमध्ये स्वतःचा जीव मात्र गमावून बसली होती. दोघेही एकदम सुन्न झाले. त्यांना मूल देण्याच्या बदल्यात, तिची स्वतःची तीन मुलं पोरकी होऊन गेली होती. आणि हे वास्तव पैसे देऊनही बदलणार नव्हतं. असह्य अस्वस्थता, दुःख, आणि अपराधीपणाची, मनाला घायाळ करणारी तीव्र वेदना…. दोघांनाही काहीच सुचत नव्हतं….मनाला आणि मेंदूलाही नकोसा सुन्नपणा जाणवत होता . 

 शेवटी तिनेच कसंबसं स्वतःला सावरलं. त्याचा हात हळुवारपणे हातात घेतला….

 “ हे बघ, जरा शांत हो . ऐक… अरे न सांगताच देवाने किती जास्त कृपा केली आहे आपल्यावर.  मला काय वाटतं –आपल्याला स्वतःचं एक बाळ हवं होतं, तर तीन मिळाली. आणि जरा शांतपणाने विचार केलास ना तर नक्की पटेल तुला की तिची पोरकी झालेली तिन्ही मुलंही ……… “ दत्तक….. “ दोघं एकदमच म्हणाले ….. मग …. मग फक्त ओलावलेले डोळेच बोलत राहिले…. आणि …….  

…… आणि अमेरिकेला परत जाण्यासाठी आता एकूण आठ तिकिटं काढली गेली… 

— समाप्त —

© मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ आरती म्हणजे काय व आरतीची उत्पत्ती कशी? ☆ प्रस्तुती – सौ. विद्या पराडकर ☆

सौ. विद्या पराडकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ आरती म्हणजे काय व आरतीची उत्पत्ती कशी? ☆ प्रस्तुती – सौ. विद्या पराडकर ☆

आरती म्हणजे औक्षण. ‘ शब्द कल्पद्रुम ‘ नावाचा ग्रंथ आहे, त्यात हे औक्षण किती करायचे या संदर्भात एक श्लोक आहे. मूर्तीच्या पायाशी चार वेळा, नाभी भोवती दोन वेळा, मुखाभोवती एक वेळ आणि सर्वांगावरून सात वेळा.-बस संपली आरती. आरती म्हणण्याची प्रथा कधी सुरु झाली हा थोडा संशोधनाचा विषय. महानुभाव पंथाच्या चक्रधर स्वामींच्या काही आरतीसदृश रचना आहेत असं म्हणतात. आणि ज्ञानेश्वरांनी काही अशा रचना केल्या होत्या, पण त्या भगवतगीतेचं कौतुक करणाऱ्या. माझ्या मते हा प्रकार श्री रामदासस्वामी या लोकोत्तर संताने चालू केला असावा.  जशी त्यांनी मारुतींची स्थापना केली, व्यायामशाळा चालू केल्या, त्याच पद्धतीने समाज एकत्र यावा, मोंगलांची त्यांच्या मनातील भीती कमी व्हावी, म्हणून हा प्रपंच मांडला होता का ? राम जाणे. एवढी छान पूजा केली आहे तेव्हा देवाला ‘ येई हो विठ्ठले ‘ म्हणून संगीत आवतण आर्ततेने द्यायचं. यात खूप आरत्या त्या देवाच रूप, काम सांगणाऱ्या आहेत, आणि शेवटी ‘ देवा तू ये ‘ अशी आळवणी. आणि या आळवणीला देव प्रतिसाद देतो तो प्रसाद अशी समजूत .

अथर्ववेदाचे एक परिशिष्ट वाचायला मिळाले, त्यात एक गोष्ट वाचली. राक्षसांच्या पुरोहिताने काहीतरी मंत्रप्रयोग करून, इंद्राची झोप उडेल म्हणजे निद्रानाश होईल असे काहीतरी केले. इंद्र त्रस्त झाला व त्याने बृहस्पतीना यासाठी उपाय विचारला. तेव्हा बृहस्पती म्हणाले की “ मी तुला एक उपाय सांगतो त्याला अरार्त्रिक म्हणतात. एक तबक घेऊन त्यात वेगवेगळी फुले ठेव व एक त्यात दीप लावून सुवासिनीकडून औक्षण करून घे. व हे करताना एक मंत्र म्हण. यामुळे तुला या त्रासातून मुक्ती मिळेल.” या अरात्रिकामधून आरती या विषयाचा जन्म झाला. देवाला झोपविण्यासाठी पहिली आली ती शेजारती. मग त्याला परत उठविण्यासाठी आली ती काकडआरती. पूजेनंतर ५ वाती किवा दिव्याने ओवाळून करायची ती पंचारती. एकच दिवा असेल तर एकारती, धूप जाळला असेल तर धुपारती, कापूर असेल तर कापूरारती . 

समर्थांनी जवळ जवळ ८० ते ८२ आरत्या लिहिलेल्या आहेत. सर्व अत्यंत प्रासादिक. गेली ४०० वर्ष याची मोहिनी जनमानसावरून उतरलेली नाही. एखाद्या महान व्यक्तीच्या काव्याला, शब्दांना मंत्राचं पावित्र्य येत ते असं. याला म्हणतात चिरंजीविता .यात एक गम्मत अशी की रामदास हे काही आजच्यासारखे संधीसाधू ,दलबदलू नाहीत. गणपती बाप्पा असो की  मारुतीराया असो, की कुठलीही देवी असो, आरतीमध्ये तिचे गुणगान करतील, पण प्रत्येक आरतीमध्ये शेवटी त्या देवाला ‘ साहेब तुमचं मी कौतुक केलं असलं, तरी मी दास रामाचा ,’ ही आठवण ते करून देतातच. रामदासांनी अनेक आरत्या लिहिल्या आहेत. सर्व सुंदर आहेत. त्यातील देवतांची वर्णनंही खूप सुंदर. 

पण या आरतीपेक्षा संत एकनाथांनी लिहिलेली दत्ताची आरती एक वेगळी आणि सुंदर आहे. या आरतीचे स्वरूप इतर आरत्यांच्यापेक्षा वेगळे अशाकरिता की कुठल्याही आरतीत त्या देवाचे रूपवर्णन, त्याचे पराक्रम आणि नंतरच्या कडव्यामधून साधारण फलश्रुती असा प्रकार असतो. पण दत्ताच्या आरतीत ‘ सुरवर मुनिजन योगी समाधी न ये ध्याना ‘, ‘अभाग्यासी कैची कळेल हि मात ‘ अशा ओळी आहेत. म्हणजे थोडक्यात, मला तो कळलाच नाही असा पहिल्या दोन कडव्यात स्वानुभव आहे व उरलेली दोन कडवी फलश्रुती आहे. याचे कारण असे की एकनाथ महाराज त्यांच्या गुरूच्या म्हणजे जनार्दनस्वामी यांचेकडे हट्ट धरून बसले की मला दत्त महाराजांचे दर्शन घडवा. जनार्दनस्वामींनी त्यांना दौलताबाद येथे किल्ल्यावर बोलावले. एक दिवस एक योगी एकनाथ महाराजांच्या समोर येऊन उभे राहिले. एकनाथांनी त्यांना आपण कोण असे विचारले, तेव्हा तो योगी त्यांना आशीर्वाद देऊन न बोलता निघून गेला आणि नंतर जेव्हा जनार्दनस्वामी हसले तेव्हा एकनाथ महाराजांना समजले की दत्तमहाराज दर्शन देऊन गेले. तेव्हा ही आरती एकनाथ महाराजांनी तेथे लिहिली आणि ते लिहून गेले– ” सबाह्याभ्यंतरीं तू एक दत्त ,अभाग्यासी कैची कळेल ही मात “–फारच सुंदर चुटपूट .

मंडळी मी या विषयातील तज्ञ नाही. मी जे वाचतो, ऐकतो ते मित्रमंडळींना सांगावे, एवढीच इच्छा असते .

संग्राहिका –  सौ. विद्या पराडकर

वारजे  पुणे..

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ हेमलकशाचे देव… लेखक – श्री विजय गावडे ☆ प्रस्तुती – सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆

सौ.शशी.नाडकर्णी-नाईक

? वाचताना वेचलेले ?

⭐ हेमलकशाचे देव… श्री विजय गावडे ☆ प्रस्तुती – सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ⭐

देवा, या हेमलकशाच्या देवाला, आदिवासींच्या आधारवडाला, उदंड आयुरारोग्य दे!

बाबांचे चिरंजीव,डॉक्टर प्रकाश आमटे दुर्धर आजारावर उपचार घेऊन परतलेत, हे ऐकून त्यांच्या कार्याविषयी केवळ जुजबी माहिती असलेल्या माझ्यासारख्या मराठी माणसाचा देवावरचा विश्वास दृढ झालाय.  हेमलकशाचा माडिया आदिवासी तर अत्यंत सुखावला असेल, यात शंकाच नाही.

डॉक्टर आणि मंदाताई यांचा पर्लकोटा नदीच्या पुलावर फिरायला गेल्याचा फोटो वायरल झालेला पाहिला आणि देवाचे आभार मानण्यासाठी हात आपोआप जोडले गेले.

मित्रांनो, माडिया आदिवासी,डॉक्टर प्रकाश आमटे व मंदा आमटे या दाम्पत्याला देव मानतात आणि म्हणून देवाने या वंचित, गरीब आदिवासींच्या देवाचे आयुरारोग्य सांभाळावे, यासाठी आपण सर्वांनी प्रार्थना करूया.

बाबा आमटेंच्या या सुपुत्राने, अत्यंत हलाखीत जगणाऱ्या माडिया आदिवासींचे जीवन जगण्यायोग्य करण्यासाठी केलेली अतिशय खडतर आणि जीवन झोकून देणारी  धडपड ‘प्रकाशवाटा’  हे त्यांचं पुस्तक वाचून कळते.

धड कपडेही अंगावर न घालणाऱ्या या माडिया आदिवासींना कपडे घालायला, अन्न म्हणून फक्त आंबिलावर विसंबून जीवन कंठणाऱ्या वा केवळ जनावर मारून खाणाऱ्या आदिवासींना भाज्या कशा बनवतात, कशा खातात आणि कशासाठी खातात हे माहीत नसणाऱ्या माडियांना त्या    पिकवायला  व खायला त्यांनी शिकवलं.  माडिया भाषेशिवाय कोणत्याही भाषेचा गंध नसलेल्या या अतिमागास जमातीला शिक्षण, आरोग्य या सुविधा त्यांच्या हेमलकशात अहोरात्र उपलब्ध करून देणाऱ्या या सिद्धहस्त डॉक्टर, इंजिनियर, आणि इतर व्यावसायिक एकाच ठिकाणी एकवटलेल्या अवलियाला,देवा,उदंड आयुरारोग्य दे, हीच तुझ्या चरणी प्रार्थना.

समाजसेवेचे भांडवल करून, छोट्या- मोठया कार्याचा सोस पुरा करतांना, सोशल मीडियामध्ये फोटो टाकून आपला उदोउदो करून घेणाऱ्या आजच्या तथाकथित समाजधुरीणांच्या डोळ्यात अंजन घालणारे त्यांचे छोटेखानी ‘प्रकाशवाटा’ हे पुस्तक प्रत्येकाने वाचावे. डॉक्टर प्रकाश आमटे यांचे काम हे दीपस्तंभ बनून समाजाचे मार्गदर्शन करतेय याची त्यांना ना जाणीव असेल, ना खंत.

आपल्या जन्मदात्यांच्या पावलावर पाऊल टाकून, किंबहुना त्यांच्याही पुढे जाऊन, वंचित आदिवासींच्या जीवनाला अर्थ प्राप्त करून देणारे त्यांचे आणि मंदाताईंचे हात असेच कार्यरत राहून, आपणा सर्वांना प्रेरणा देत राहोत ही श्रीचरणी प्रार्थना!

असंख्य पुरस्कारांनी गौरविलेले डॉक्टर प्रकाश आमटे आपल्या या पुस्तकात एका ठिकाणी लिहितात, “शाळेकडे पाहण्याचा आमचा दृष्टिकोन थोडा वेगळा आहे.  इथे आदिवासींची होत असलेली फसवणूक थांबावी आणि आपल्या हक्कांबद्दल त्यांनी सजग व्हावं, हा शाळा सुरु करण्यामागचा आमचा हेतू होता.  आज जेव्हा तिकिटापेक्षा जास्त पैसे घेणाऱ्या कंडक्टरला माझी मुलं पकडतात आणि जाब विचारतात, तेव्हा माझ्या दृष्टीने इथे शाळा सुरु केल्याचा उद्देश सफल झाल्यासारखा वाटतो.”  केवढा मोठा पुरस्कार!इतर कोणत्याही पुरस्कारांच्या पेक्षा मोठा!

असो.  बाबा आमटेंच्या या सुपुत्राला उदंड आयुरारोग्य मिळो ही पुन्हा एकदा विधात्या चरणी प्रार्थना.

लेखक :श्री.विजय लक्ष्मण गावडे

संग्राहिका : सौ. शशी नाडकर्णी- नाईक.

फोन  नं. 8425933533

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

image_print

Please share your Post !

Shares