(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – मोक्ष
उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।
मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए संन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।
देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री हनुमान साधना कल सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Ministser of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem I heard that…. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है…।
रचना संसार # 8 – नवगीत – बस वेदना ही वेदना है… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खून पसीना…“।)
अभी अभी # 369 ⇒ खून पसीना… श्री प्रदीप शर्मा
हमारे शरीर में खून भी है, और पानी भी। जो रगों में दौड़ता रहता है, वह खून कहलाता है। जरा सी चोट लगी, बहने लगता है। थोड़ी मेहनत की, पसीना बहने लगता है। जिनकी आंखें समंदर हैं, वहां समंदर जितने आंसू भी हैं। जितना पानी इस पृथ्वी पर है, उसी के अनुपात से, यानी हमारे इस शरीर में सत्तर प्रतिशत पानी है। हमारी इस पृथ्वी पर भी सत्तर प्रतिशत जल ही तो है।
स्वस्थ और तंदुरुस्त इंसान का खून बढ़ता है। जो हमेशा क्रोध करता है, जलता रहता है, क्या उसका खून नहीं जलता। खून पसीना बहाकर ही इंसान अपनी गृहस्थी चलाता है। खून की कमी और पानी की कमी से इंसान कमजोर हो जाता है। उधर होमोग्लोबिन घटा, इधर खून की बॉटल चढ़ी। शरीर के पानी की मात्रा घटने पर भी तो, सलाइन ही चढ़ाई जाती है।।
इन आंखों में कभी गुस्से में खून उतर आता है तो कभी जब दिल पसीजता है, तो पानी उतर आता है। समंदर ही खारा नहीं होता, हमारा पसीना भी खारा होता है।
कभी जब आपकी उंगली कटती है, तो हम उसे मुंह में ले लेते हैं, हमें हमारे खून का स्वाद भी पता चलता है, आंसू भी गर्म और नमकीन और हमारी रगों में दौड़ता खून भी गर्म और नमकीन। खून की गर्मी ही तो जोश है, जिंदगी है।
उधर जवान सरहद पर खून बहाता है और इधर किसान खेत में पसीना बहाता है। खून और पसीने का कर्ज उतारना हम देशवासियोंके लिए इतना आसान भी नहीं होता।।
जैसा मौसम, वैसी हमारी तासीर। बारिश के मौसम में इधर चाय पी, उधर तुरंत लघु शंका। पानी पीते ही टॉयलेट। ठंड में पसीना नहीं आता, शरीर को गर्मी और धूप चाहिए। भूख भी
गजब की लगती है। ठंड में हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है।।
अभी तो गर्मी का मौसम अपने शबाब पर है। जून की शायरी मई में ही गुल खिला रही है ;
आजा मेरी जान,
ये है जून का महीना।
गर्मी ही गर्मी,
पसीना ही पसीना।।
जितना पसीना हम बहाते हैं, उतनी ही अधिक हमें प्यास लगती है। जो मेहनत अधिक करते हैं, उन्हें भूख भी अच्छी ही लगती है। भोजन से ही हमारा शरीर पुष्ट होता है, खून बढ़ता है, हमारी कार्य शक्ति प्रबल होती है।
खून पसीने से बना हमारा यह शरीर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है। जिस तरह कुदरत खाद, पानी और हवा से पेड़, पौधों को सींचती, पल्लवित करती, चंदन वन में परिवर्तित करती है, उसी तरह केवल खून पसीने से हमारा यह शरीर कुंदन सा महकता है। आरोग्य के मंत्र से बड़ा कोई महामृत्युंजय मंत्र नहीं, सोना चांदी च्यवनप्राश नहीं। सच्चा सुख, निरोगी काया। हमने व्यर्थ ही नहीं, खून पसीना बहाया।।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खुले जब त्रिनेत्र शिवा का…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 215 ☆
☆ एक पूर्णिका – खुले जब त्रिनेत्र शिवा का…☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ उगवतीचे रंग – ओढ गावाची, ओढ निसर्गाची☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆
(माझ्या रंगसोहळा या पुस्तकातील लेख)
निसर्ग जेवढा आपल्या डोळ्यांनी आपल्याला बाहेर दिसतो, तेवढाच तो मनामनात खोलवर रुजलेला असतो. आपलं बालपण गेलं, त्या ठिकाणच्या आठवणी या बहुतांशी निसर्गाशी निगडित असतात. कोणाला आपल्या गावातली नदी आठवते, कोणाला आपली शेत, त्या शेतातली झाडं , त्या झाडांशी निगडित असलेल्या अनेक आठवणी असं हे निसर्गचित्र तुमच्या आमच्या मनात पक्कं रुजलेलं असतं . ती झाडं , ते पशुपक्षी तुमच्या आमच्या मनाच्या आठवणींचा एक कप्पा व्यापून असतात. आपल्याकडे निरनिराळ्या समारंभाचे फोटो काढलेले असतात. त्याचे विविध अल्बम आपण आठवणी म्हणून जपून ठेवतो. पण कधी कधी या फोटोंमधले रंग फिके होऊ लागतात. चित्र धूसर होतात. पण मनामधला निसर्ग मात्र पक्का असतो. त्याचे रंग कधीही फिके होत नाहीत. उलट जसजसे वय वाढत जाते, तसतसे ते रंग गडद, अधिक गहिरे होत जातात. त्याचा हिरवा रंग मनाला मोहवीत असतो.
तुम्ही कामानिमित्त शहरात राहायला गेलेले असा, लॉकडाऊन मुळे घरात अडकलेले असा, तुमचा फ्लॅट, तुमचं घर छोटं असो की मोठं, तुमच्या मनात बालपणाचा तो निसर्ग ठाण मांडून बसलेला असतो. कोकणातून मुंबईत कामानिमित्त येणारे चाकरमानी, खेड्यापाड्यातून कामानिमित्त मुंबई पुण्याला स्थायिक झालेली माणसं ही सगळी वर्षातून एकदा तरी आपल्या गावी जायला मिळावं म्हणून केवढी आसुसलेली असतात. त्यांचं गाव, त्या गावातला निसर्ग त्यांना बोलावत असतो. त्याची ओढ असते. आणि तिथे गेल्यावर काय होतं ? जणू जादू होते. शहरामध्ये दररोजच्या कामाने त्रासलेला तो जीव, तिथे गेल्यानंतर ताजातवाना होतो. जणू जादूची कांडी फिरते. काय विशेष असते त्या गावात असे ? पण ते विशेष त्यालाच माहिती असते, ज्याने तिथे आपले बालपण घालवलेले असते. कवी अनिल भारती यांची ‘ खेड्यामधले घर कौलारू ..’ ही रचना पहा. किती साधे आणि सोपे शब्द.. ! पण त्यातला गोडवा किती कमालीचा…! मालती पांडे यांनी गायीलेलं हे गीत आपल्यापैकी बऱ्याच जणांनी ऐकलंही असेल.
आज अचानक एकाएकी
मानस तेथे लागे विहरू
खेड्यामधले घर कौलारू.
पूर्व दिशेला नदी वाहते
त्यात बालपण वाहत येते
उंबरठ्याशी येऊन मिळते
यौवन लागे उगा बावरू
माहेरची प्रेमळ माती
त्या मातीतून पिकते प्रीती
कणसावरची माणिक मोती
तिथे भिरभिरे स्मृती पाखरू
आयुष्याच्या पाऊलवाटा
किती तुडविल्या येता-जाता
परि आईची आठवण येता
मनी वादळे होती सुरु.
अगदी साधे सोपे शब्द. पण त्या शब्दात ताकद केवढी ! जणू तुम्हाला त्या वातावरणात घेऊन जातात ते शब्द. शब्द आपल्याला वाटतात तेवढे साधे नसतात. त्यांना आठवणींचा गंध असतो. पहिल्या पावसाने माती ओली होते. एक अनामिक पण हवाहवासा वाटणारा गंध आपल्यापर्यंत पोहचवते. जसं आपण म्हणतो, फुलाला सुगंध मातीचा, तसाच मातीलाही स्वतःचा एक सुगंध असतो. तो सुगंध आणतात त्या पावसाच्या धारा. जसा मातीला गंध असतो, तसाच शब्दांनाही गंध असतो. आणि तो गंध अनेक आठवणी आपल्यासोबत घेऊन येतो.
वरच्या कवितेतलं दुसरं कडवं नदीशी संबंधित आहे. कुणीतरी असं म्हटलंय की ज्याच्या गावात नदी असते, त्याचं बालपण समृद्ध असतं . आणि ते खरंच आहे. नद्यांना केवढं मोठं स्थान आपल्या जीवनात आहे ! प्रत्येकाच्या गावातली नदी छोटी असेल किंवा मोठी, पण तिच्याशी त्याच्या अनेक आठवणी निगडित असतात. गंगा, यमुना, सरस्वती या नद्यांची नुसती नावं घेतली तरी त्यांच्याशी संबंधित अनेक गोष्टी आपल्याला आठवतात. कुठेतरी लग्नात गुरुजींनी म्हटलेले मंगलाष्टक आठवते. कुठे अलाहाबादचा त्रिवेणी संगम आठवतो. तसंही ज्याच्या त्याच्या गावातली नदी ही त्याच्यासाठी गंगेसारखीच पवित्र असते. जेव्हा लोक नासिकला जातात आणि गोदावरीत स्नान करतात, किंवा तिथे जाऊन येतात, तेव्हा मी गोदावरीवर गेलो होतो असं म्हणत नाहीत. मी गंगेवर गेलो होतो असंच म्हटलं जातं . ( उगवतीचे रंग – विश्वास देशपांडे )
या कवितेचं तिसरं कडवं बघा. गावाकडची ओढ का असते लोकांना ? तर ‘ माहेरची प्रेमळ माती..’ ही माती केवळ अन्नधान्य पिकवीत नाही. त्या मातीतून प्रीती म्हणजेच प्रेमही पिकतं. शेतातल्या कणसांना जे दाणे लागतात, ते माणिक मोत्यांसारखे मौल्यवान आहेत. आणि त्याच्याशी कवीच्या स्मृती निगडित आहेत. स्मृतींचं पाखरू जणू तिथं घिरट्या घालत असतं . आणि शेवटचं कडवं तर अप्रतिमच. आयुष्यात आपण सुख दुःखाच्या, संकटांच्या अनेक पाऊलवाटा तुडवतो. पण त्याचं फार काही वाटत नाही आपल्याला. पण जेव्हा आईची आठवण होते, मग ती आपली आई असो वा काळी आई म्हणजे शेती, तिची आठवण आली की मनात वादळे सुरु होतात. मन तिच्या आठवणीने आणि ओढीने बेचैन होते.
असा हा निसर्ग आपल्याला समृद्ध करीत असतो. त्याच्यात आणि आपल्यात एक अतूट नातं असतं . खरं म्हणजे आपणही निसर्गाचाच एक भाग असतो. पण आपलं अलीकडंच जीवनच असं काही झालं आहे, की ते नातं तुटायची वेळ जणू काही येते. आणि माणसाच्या जीवनातून निसर्ग वजा केला तर, काहीच शिल्लक राहणार नाही.
मला कधी कधी भीती वाटते ती पुढच्या पिढीची. जी शहरातून राहते आहे. आणि निसर्गाच्या या सुंदर वातावरणाला आणि अनुभवाला पारखी होते आहे. याचा बराचसा दोष आमच्याकडेही जातो. आम्ही लहानपणी जी नदी पाहिली , अनुभवली ती आता आम्ही आमच्या मुलांना, भावी पिढीला अनुभवायला देऊ शकू का ? आम्हाला जसा निसर्गाचा लळा लागला, तसा त्यांना लावता येईल का ? त्यांच्या चार भिंतीच्या पुस्तकी शिक्षणात निसर्ग शिक्षणाला स्थान असेल का ? पुस्तकातल्या माहितीवर जशी आम्ही त्यांची परीक्षा घेतो, तशी त्यांना निसर्गज्ञान, निसर्ग अनुभव देऊन घेता येईल का ? त्यांना जंगलं , प्राणी, पक्षी हे अनुभवायला देता येतील का ? मोबाईल, टीव्ही, सिनेमे, पुस्तके यांच्यापलीकडेही एक वेगळे जग अस्तित्वात आहे याची जाणीव आम्हाला त्यांना करून देता येईल का ? सध्या तरी या प्रश्नांची उत्तरे नकारार्थी आहेत. त्यासाठी वेगळे स्वतंत्र प्रयत्न करावे लागतील. अन्यथा पर्यावरण दिवस, वसुंधरा दिन इ साजरे करून आपण आपल्या मनाचे समाधान फक्त करून घेऊ.