हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 374 ⇒दारू, शराब, ड्रिंक्स… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दारू, शराब, ड्रिंक्स।)

?अभी अभी # 374 ⇒ दारू, शराब, ड्रिंक्स? श्री प्रदीप शर्मा  ?

माया तेरे तीन नाम, परसा, परशु, परसराम की तरह ही बच्चन की मधुशाला में ये तीनों नाम एक ही वस्तु के हैं। अच्छे को बुरा कहना, दुनिया की पुरानी आदत होगी, लेकिन बच्चन की मधुशाला तो मंदिर मस्जिद का मेल कराती है, फिर यह बुरी कैसे हो गई।

हम अच्छे बुरे के चक्कर में इसलिए नहीं पड़ते, क्योंकि सरकार खुद अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए देशी विदेशी दोनों सुविधाएं उपलब्ध करवाती हैं। इस देश में अमीर, गरीब, हर इंसान को खुश रहने का अधिकार है। अपनी हैसियत के अनुसार हर व्यक्ति कहीं ना कहीं, खुशी ढूंढ ही लेता है। ।

तो क्यों न श्रीगणेश दरिद्र नारायण से ही किया जाए। सरकार ने इन्हें नया नाम दे दिया है, इन्हें पहचान पत्र भी दे दिया है, अस्सी करोड़ मुफ्त राशन पाने वाले, ये लोग गरीबी रेखा से नीचे का जीवन स्तर गुजार रहे हैं। गरीबी नशा नहीं, अभिशाप है, यह भूलने के लिए इन्हें दारू का सहारा लेना पड़ता है। इनकी मधुशाला को शुद्ध हिंदी में कलाली कहते हैं। अगर उसमें भी मिलावट हुई, तो उसमें इनकी मुक्ति भी संभव है। लेकिन घरों को बर्बाद करने में इस दारू का बड़ा हाथ है। सरकार बड़ी समझदार है, पहले तो इनके पीने की व्यवस्था करती है, और बाद में नशा मुक्ति केंद्र भी खोलती है। तुम्हीं ने दर्द दिया, तुम ही दवा देना।

दारू को आम भाषा में शराब कहते हैं और जो इसे पीता है, उसे शराबी। आज की युवा पीढ़ी के लिए शहरों में जगह जगह बार और रेस्टारेंट खुले हुए हैं, सरकारी विदेशी शराब की दुकान का बोर्ड अलग ही दिख जाता है। यहां शराब का जश्न जन्मदिन से लगाकर रिटायरमेंट की पार्टी तक मनाया जाता है। पीढ़ियों के अंतर को कम करती, संकोच और लिहाज को बेपर्दा करती, जब आज और कल की पीढ़ी, साथ मिलकर चीयर्स करती है, तो राष्ट्रीय एकता का आभास होता है। ।

हमें माफ करें, हम इतने कल्चर्ड नहीं की ड्रिंक्स पार्टियों का गुणगान अपने मुंह से कर पाएं। यहां बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद कहकर बचने से काम नहीं चलता, एक तहजीब होती है, कल्चर होता है, इन पार्टियों का जिसे कॉकटेल पार्टी कहा जाता है।

यहां गरीब सिर्फ वेटर, ड्राइवर और मातहत कर्मचारी ही होते हैं, बाकी सभी मेहमानों में स्त्री पुरुष का भेद भी समाप्त हो जाता है। एक मित्र के परिवार में विवाह के अवसर पर प्रदेश की राजधानी में, एक ऐसा अवसर आया था, जहां सरकारी अफसरों और मंत्रियों की कॉकटेल पार्टी में मेरी संस्कारी पत्नी ने जाने से ना केवल साफ इंकार किया, मुझे भी नहीं जाने दिया। इस कारण इस महाभोज का सीधा वृतांत मैं आप तक नहीं पहुंचा पाया। इसका मुझे आजीवन खेद रहेगा। ।

कहते हैं सुरा असुरों के लिए बनी है, देवताओं के लिए स्वर्ग में इंद्रदेव ने मादक अप्सराओं और पृथ्वीलोक पर सर्वथा अनुपलब्ध अनोखी, अद्भुत मदिरा की व्यवस्था कर रखी है। ऐसे स्वर्ग की आस में ही हम इस धरती पर पूजा पाठ, यज्ञ हवन और दान दक्षिणा कर समुचित पुण्य कमा रहे हैं, ताकि इस लोक में कॉकटेल पार्टी ना सही, स्वर्गलोक में कोई हमें मदिरा और अप्सराओं से वंचित ना करे।

सोचो क्या साथ जाएगा। सब कुछ यहीं धरा रह जाएगा। स्वर्ग में केवल अच्छाई और दान पुण्य ही साथ जाएगा। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 194 – सत्संगी फिजियोथैरेपी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सत्संगी फिजियोथैरेपी”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 194 ☆

🌻सत्संगी फिजियोथैरेपी🌻

बड़ा प्यारा सा नाम लगा और यह नाम महिलाओं में चर्चा का विषय बनता जा रहा। बदलते परिवेश में आज मनुष्यों के पास सभी प्रकार के साधन सुविधा उपलब्ध है। ऊँगली चलाते ही समान की तो बात छोड़िए, गरमा गरम भोजन भी उपलब्ध हो जाता है।

मशीनों से जूझते कंप्यूटर पर हाथ और आँखें, दिमाग में हजारों तरह की बातें, एक साथ चलती है।

कहीं ना कहीं मानव, मानव द्वारा ही निर्मित यंत्र में ऊलझता चला जा रहा है। परंतु कहते हैं नित आविष्कार ही हमें, ऊँचा उठने की प्रेरणा देता है। अनुचित दिनचर्या, बेहिसाब खान-पान और अनिद्रा के चलते सभी शिकार होते चले जा रहे हैं। घंटो मोबाइल पर समय व्यतीत हो जाता है।

परंतु स्वयं के लिए कोई समय नहीं निकल पाता। खासकर महिला वर्ग अपने लिए समय नहीं निकाल पाती है। निकाले भी कैसे यदि वर्किंग महिला है, तो घर बाहर दोनों की जिम्मेदारी और यदि ग्रहणी है तो फिर तो पूरा दिन रसोईघर पर ही लगी रहे।

बहुत ही प्यारा सा नाम डाॅ निशा फिजियोथैरेपिस्ट। क्लीनिक में उनके पास तरह-तरह की महिलाएं और पुरुषों का आना जाना। क्योंकि कहीं ना कहीं सभी को कुछ समय के बाद हाथ पैरों का दर्द ज्यादातर घुटनों, कमर का दर्द सताने लगा है।

भिन्न-भिन्न प्रकार के मशीन डॉ. निशा के हाथ अपने सभी मरीजों के लिए एक साथ कई काम करते हुए मुस्कुराते अपनी बात रखते सभी की  मदद करते। किसी का व्यायाम, किसी की सिकाई, इलेक्ट्रिक मशीन, किसी को एक्यूप्रेशर तो किसी का ध्यान और सबसे बड़ी बात उनके हँसते मुस्कुराते चेहरे पर चमकती दो बड़ी-बड़ी, धैर्य के साथ देखती दो आँखें।

संतुष्टि से भरा ह्रदय, सत्संग की बातें, कहीं रिश्तो की बातें, कहीं मेहमानबाजी, कहीं घर के कामकाज, कहीं पास पड़ोसियों का मिलना- जुलना, सभी के साथ चर्चा करते-करते ईश्वर पर गहरी आस्था रखती सबका काम करते जाती।

जो भी आते सभी डाॅ निशा की तारीफ करते। सभी को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करना, उनका अपने कार्य के साथ एक जुगलबंदी हो गई थी।

डॉ निशा को आज किसी महिला ने कुदरते हुए पूछा…. आप थकती नहीं है? कितना सब कुछ करते और साथ ही साथ हम सब का मनोरंजन ज्ञानवर्धक बातें और सत्संग करते, – –

दो बड़ी बड़ी बूँदें अँखियों से उतर कर कपोलों पर आ गए। मोती जैसे आँसू को पोंछती हुई डॉ. निशा ने अपने सत्संगी फिजियोथैरेपी की बात करते हुए बताने लगी…. मैं जिस समय और वातावरण से गुजरी हूँ, सत्संग ही मेरा सहारा था। बाबा की कृपा जिन्होंने मुझे मानवता के लिए चुना।

आज के समय में दुख – दर्द देने सभी तैयार मिलते हैं। क्या अपने और क्या पराए। परंतु मैं आप सभी की सेवा कर ईश्वर के इस अनमोल उपहार को उन तक पहुंचा रही हूँ। पैसे लेकर ही सही मैं किसी के दर्द को दूर कर रही। दुख – दर्द निवारण का कारण बन गई हूं। मुझे ईश्वर ने इस नेक काम के लिए चुना। उनका मैं हृदय से वंदन करती हूँ ।

क्लीनिक में लगभग सात आठ महिलाएं एक साथ अपने-अपने कामों में लगी थी और सबसे बड़ी बात सभी की सभी शांत थीं

निशा ने हँसते हुए कहा… क्या बात है मेरे इस सत्संगी फिजियोथैरेपी को हमेशा याद रखना। प्रभु का सुमिरन सच्चे हृदय से करते रहना। संसार है दुख – सुख का आना-जाना लगा रहता है।

अपने दुखों को बुलाकर मानवता अपना कर देखो। जिंदगी बदल जाती है। किसी की सेवा करके देखिए— भगवान भी बदल जाते हैं।

चलते-चलते हँसते सभी ने कहा… इस फिजियोथैरेपी का नाम सत्संगी फिजियोथैरेपी होना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 85 – देश-परदेश – बॉम्बे शहर हादसों का शहर ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 85 ☆ देश-परदेश – बॉम्बे शहर हादसों का शहर ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः ये गीत गुनगुनाते हुए, स्नानगृह से बाहर आए, तो श्रीमती जी ने प्रश्न दाग दिया, आज प्रभु के भजन के स्थान पर ये घटिया गाना कैसे याद आ गया ?

ज्ञानी लोग सही कहते है, जैसा खाओगे या जैसा मन में विचार करेगें, वैसा ही आपका मन बन जायेगा।कुछ दिनों से हादसों की सुनामी आई हुई है।टीवी, सोशल मीडिया भी हादसों की चर्चा कर रहें हैं।तो हमारा मन भी तो प्रभावित होगा।

भयंकर गर्मी, ऊपर से चुनावों की गर्मी, सोने पर सुहागा।पुणे, राजकोट घटनाओं की आग अभी भी सुलग रही हैं। दिल वालों की दिल्ली भला क्यों पीछे रहेगी, वहां तो स्वास्थ्य प्रहरी ही मौत का कुआं बना कर खुला आमंत्रण दे रहें हैं। गर्मी के मौसम में आग लगने की घटनाएं बढ़ जाती है।

सड़क हादसे सदा बहार रहते है, कैसा भी मौसम हो, ये तो ऑल सीजन वाली श्रेणी में रहते हैं। वाहन चालक को हमारे यहां उचित ध्यान नहीं दिया जाता हैं। काम के घंटे हो या उनके विश्राम, भोजन आदि का स्तर निम्न श्रेणी में आता हैं।

वाणिज्यिक वाहन चालकों को अधिकतम आठ घंटे ही कार्य करना चाइए। प्रातः वो जब भी गाड़ी को स्टार्ट करें, उसी समय से आठ घंटे का काउंट डाउन आरंभ हो जाना चाहिए । जीपीएस मॉड्यूल, कार्यप्रणाली जैसा कि विदेशों में प्रचलित है, को लागू करना पड़ेगा।

ओवर लोडिंग का श्रीगणेश बाइक पर कम से कम तीन लोग और कार में सात से आठ व्यक्ति बैठ कर देश की विदेशी मुद्रा की बचत करने में वर्षों से अनवरत सहयोग दे रहे हैं। सुरक्षा पेटी, ट्रैफिक नियम का पालन आदि का रिवाज़ हमारे देश में है, ही नहीं।

एक खूबसूरत सी फिल्म है ” खूबसूरत” उसका एक गीत बला सी खूबसूरत अदाकारा सुश्री रेखा पर फिल्माया गया था, गीत के बोल ” सारे नियम तोड़ दो” को हमारे देश के अधिकतर लोग मान देते हैं।

हर हादसे के बाद एक जांच समिति बनेगी, कुछ छोटे लोग सस्पेंड होंगे, समिति की रिपोर्ट गुमनाम हो जाती हैं।ये ही अंतिम सत्य हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #239 ☆ सतार हृदयी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 239 ?

सतार हृदयी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

छोटेखानी कपाट हृदयी

इथे मांडशी किती पसारा

घर शिस्तीचे माझे सासर

थंड ऋतुतही चढतो पारा

*

तो अश्रूचा आहे ओघळ

आरशास का कळते केवळ ?

जगा वाटते श्रावण धारा

इथे मांडशी किती पसारा

*

ऋतू कोवळे इथे फुलांचे

फूल पाखरा बागडण्याचे

माझ्यासाठी का ही कारा ?

इथे मांडशी किती पसारा

*

संसाराचे स्वप्न पाहिले

सुरात होते गीत गायिले

सतार हृदयी तुटल्या तारा

इथे मांडशी किती पसारा

*

दिसले कोठे गलबत नाही

नुसते पाणी दिशास दाही

मला रोखतो रोज किनारा

इथे मांडशी किती पसारा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निळी शाई… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

निळी शाई... ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

ही निळी-निळी,शाई-शाई

माझ्या काळजाचे पान होई

भले दुःख सहजची पेई

मज जगण्याचे बळ देई

हि निळी-निळी,शाई-शाई.

*

पुस्तकांसी नाती-गोती

अंधाराला ज्ञान ज्योती

मना संवादाचा ध्यास

धागा ज्ञानेशाचा बोई

ही निळी-निळी,शाई-शाई.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सावरकर समजून घेताना ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? विविधा ?

☆ सावरकर समजून घेताना ☆ श्री सुनील देशपांडे 

(निमित्त २८ मे, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जयंती)

(सावरकरांच्या बाबत यापूर्वी मी दोन लेख लिहिले आहेत. त्याच मालिकेतील हा तिसरा लेख.)

खरं म्हणजे सावरकरांचे चरित्र म्हणजे ‘माझी जन्मठेप’ हे पुस्तक(?). त्यातील अंदमानातील तुरुंगवास संपेपर्यंतच(?). कारण अनेकांनी तेवढंच वाचलंय. सावरकरांच्या चरित्राला अंदमानातल्या सुटकेचे कुंपण घालून तेवढ्यावरच त्यांचा उदो उदो करणाऱेच जास्त.   त्यानंतर त्यांनी हिंदू समाजातील अनेक दुष्प्रथांवर प्रचंड कोरडे ओढणाऱ्या समाजकार्याबद्दल किती जणांनी सविस्तर जाणून घेतलंय?   सावरकर ब्रिटिशांच्या स्थानबद्धतेमुळे आणि त्यानंतर स्वातंत्र्योत्तर काळामधील उपेक्षित जीवनामुळे  काहीच करू शकले नाहीत (?) अशा प्रकारचा एक मतप्रवाह असणारेच अनेक.  सावरकरांचे अष्टपैलू व्यक्तिमत्व आणि त्यांची प्रभावी विचारसरणी ही समजून घेताना, आपले वाचन अथवा ज्ञान ‘माझी जन्मठेप’ या पुस्तकापुरते (आणि आता सावरकर सिनेमा पुरते) मर्यादित असता कामा नये असे माझे मत आहे.  सावरकरांना टोकाचे हिंदुत्ववादी बनवून त्यांचा हिंदुत्ववाद समजूनही न घेता त्यांना ईश्वरवादी समजणाऱ्या माणसांची संख्याच जास्त आहे असे मला वाटते.

परमेश्वराच्या अस्तित्वाला नाकारा. भजन पूजन करू नका. देवळे बांधू नका. धार्मिक विधी करू नका. धार्मिक परंपरा धरू नका, रूढी या माणसाला नष्टचर्याकडे नेणाऱ्या आहेत. कोणतीही प्रथा काल सुसंगत आणि कालमान परिस्थितीनुसार  बदलता आली पाहिजे. श्रुती आणि स्मृती संपूर्णपणे नाकारणारा आणि त्यांच्या विरोधात प्रचंड लेखन करणारा.  जातीयवाद आणि अस्पृश्यता यांच्याबाबत समाजाशी प्रचंड संघर्ष करणारा. दारू अथवा मांसाहार या गोष्टी चुकीच्या आहेत असे न मानणारा, अर्थात व्यसनाधीन होऊ नका हेही सांगणारा. असा एक जबरदस्त आधुनिक विचारांचा नास्तिक माणूस. याला परंपरावादी लोक हिंदू म्हणून तरी स्वीकारणार आहेत काय हाच मुळातला प्रश्न आहे. हिंदुत्ववादी आणि हिंदूहृदयसम्राट अशी बिरुदावली ज्यांना अर्पण केली आहे त्या सावरकरांना सर्व बाजूंनी समजून घ्यायचे असेल तर, त्यांच्या या विचारांना सुद्धा हिंदुत्वाचे विचार म्हणून स्वीकारले पाहिजे. हे स्वीकारणार आहात काय ? खरे तर त्यांना राष्ट्रनिष्ठसम्राट असे म्हणणे हेच जास्त संयुक्तिक आहे असे वाटते. स्थानबद्धतेत असताना सावरकरांनी  प्रचंड मोठे समाजकार्य केले आहे. 

पु ल देशपांडे यांनी एक छान वाक्य त्यांच्याबद्दलच्या व्याख्यानात सांगितलं आहे की ‘सावरकरांनी माझ्यावर फार मोठे उपकार केले ते हे की, त्यांनी मला नास्तिक बनवलं’  ह्या विचारांशी किती जण सहमत होतील मला शंका आहे.

त्यांचा मुळात राग किंवा वाद हा वर्षानुवर्षे अन्याय व अत्याचार करणारे आणि वर्षानुवर्षे अन्याय व अत्याचार सहन करणारे यांच्यातला वाद होता. मुस्लिमांच्या विरोधात त्यांनी फक्त एखादी व्यक्ती मुस्लिम आहे म्हणून त्यांचा द्वेष करावा असे सांगितलेच नाही. ज्यांच्या निष्ठा इथल्या भूमीशी प्रामाणिक आहेत ते मुस्लिम असले तरी, त्यांना मी हिंदूच म्हणेन असे ते म्हणत. त्यांचा मुळात आक्षेप मुस्लिम समाजाच्या निष्ठा जर आपल्या देशाबाहेरील कुठल्यातरी दुसऱ्या देशात वा देशाशी जोडल्या गेल्या असतील तर ते राष्ट्रनिष्ठ होऊ शकत नाहीत.   अशा राष्ट्रविरोधी विचारांच्या व्यक्तींना विरोध करा. वर्षानुवर्षे ज्यांनी एतद्देशियांवर अन्याय आणि अत्याचार केले त्यांचे समर्थन करणार असाल तर तुम्ही राष्ट्रनिष्ठ नाही.  मग तुम्ही हिंदू असला आणि अस्पृश्यांवर अत्याचार केले असतील आणि त्याचे समर्थक असाल तरीही तुम्ही हिंदू म्हणून घेण्याच्या लायकीचे नाही. एवढे त्यांचे हिंदुत्व वेगळ्या टोकाचे होते.  हे किती जणांना पटणार किंवा पचणार आहे हाच मुळातला प्रश्न आहे.  या देशात ब्रिटिशांचे राज्य नसते तर ते कांही हिंदूंच्या विरोधात सुद्धा लढले असते. सावरकरांच्या मते राष्ट्रवाद हाच हिंदुत्ववाद. परंतु त्यांच्याच काही समर्थकांनी हे वाक्य उलटे करून हिंदुत्ववाद हाच राष्ट्रवाद असे बनवले.

अल्लाउद्दीन खिलजी जेव्हा हिंदूंच्या महिलांवर अत्याचार करत होता हिंदूंची देवळे नष्ट करीत होता त्या जागी मशिदी बांधीत होता हजारो हिंदूंना बाटवून धर्मांतरित करीत होता त्यावेळी तुमचा विठोबा ज्ञानेश्वरांची भिंत चालवत होता? हे वाक्य किती जणांना पचणार आहे?

एके दिवशी सेनान्हाव्याला बादशहाकडे जायला उशीर झाला. तेव्हा विठोबाने सेना न्हाव्याचे रूप घेऊन बादशहाची दाढी केली या घटनेचा उपहास करताना ते म्हणतात ‘ विठोबाने त्याच वेळेला, हिंदूंवर अन्याय आणि अत्याचार करणाऱ्या बादशहाची मान का छाटून टाकली नाही? गुलामांचा देवही गुलामच.’

अशा तऱ्हेने कपोल कल्पित संतांच्या कथांवर त्यांनी प्रखर विचारांचे आसूड ओढले. या कथांमधून किंवा या विचारांमधून लोकांची अन्याया विरोधी लढण्याची अस्मिताच नष्ट करून टाकली.  गुलामगिरी पुढे समाज नतमस्तक होऊ लागला. समाज नेभळट बनला. स्वातंत्र्याची उर्मी समाजात निर्माण करण्यासाठी त्यानंतर खूप त्रास झाला. असे त्यांचे स्पष्ट मत होते.

‘मनुष्याचा देव आणि विश्वाचा देव’ ‘दोन शब्दात दोन संस्कृती’ हे निबंध किंवा  एकूणच सावरकरांचे विज्ञाननिष्ठ निबंधाचे दोनही भाग तसेच ‘क्ष किरणे’ वगैरे पुस्तके. हे वाचण्याची तसदी किती जणांनी घेतली असेल? ‘क्ष किरणे’ मध्ये श्रुती आणि स्मृतिंवर त्यांनी केलेली भाष्ये

ही मुळातच आपल्या मनातील धार्मिक परंपरांना उलटेपालटे करणारी आहेत.  ‘गाय केवळ उपयुक्त पशू माता नव्हे,  देवता तर नव्हेच नव्हे’ हे त्यांच्या एका निबंधाचे शीर्षक आहे हे किती जण जाणतात आणि ते पटवून घेऊ शकतात?

परंपरावादी तथाकथित हिंदुत्ववादी  व्यक्तींना न पटणारी, न पचणारी, न आवडणारी किंवा कानावरही पडायला नको वाटणारी अशी वाक्ये ठासून भरलेले सावरकरांचे वाङ्मय वाचताना अशा तथाकथित हिंदुत्ववाद्यांचे काय होईल?

स्वतःच्या सामाजिक विचारांशी सुसंगत अशा व्यक्ती त्यांना मोठ्या प्रमाणात जमवता न आल्यामुळे त्यांनीच स्थापन केलेल्या हिंदूमहासभेला त्यांना सोडचिठ्ठी द्यावी लागली असावी असे आज मला वाटते. स्वातंत्र्योत्तर काळातही त्यांना उपेक्षित जीवन जगावे लागले. कारण त्यांची काँग्रेसने केलेली उपेक्षा हे खरे असले तरी, त्या बरोबरच त्यांच्या हिंदुत्ववादी विचारांशी पटवून न घेता आल्यामुळे तथाकथित हिंदूंनी सुद्धा त्यांची केलेली उपेक्षाही जास्त कारणीभूत आहे. सावरकरांना हिंदुत्ववादी म्हणणाऱ्या लोकांनी सावरकरांचे हे विचार तसेच, ते विचार ज्यामध्ये आहेत ते वाङ्मय समाजात पसरूच दिले नाही. त्यांची खरी ओळख समाजाला होणे हे टाळण्यात हिंदुत्ववादी परंतु मनातून सावरकर विरोधी विचारांच्या तथाकथित विचारवंतांनी सावरकरांचे हे विचार समाजामध्ये मोठ्या प्रमाणात पसरवण्याचे टाळले.

त्याचप्रमाणे भाषाप्रेमी, साहित्यनिष्ठ आणि काव्यानंदात वेदना विसरणारे. आपली प्रखर विचारसरणी साहित्यिक आणि कलात्मक स्वरूपात समाजासमोर मांडू शकणारे. मराठीभाषाहृदयसम्राट सावरकर समजून घेणे हा सुद्धा खूप मोठा वैचारिक व्यायाम आहे.

सावरकरांमधील या साहित्यिक पैलूं बाबत सुद्धा फार कमी लिहिलं आणि बोललं गेलेलं आहे अर्थात त्याबाबत पुन्हा कधीतरी. झाला एवढा वैचारिक व्यायाम वाचकांना खूप झाला असे वाटते.

© श्री सुनील देशपांडे

२८ मे २०२४

पुणे, मो – 9657709640 ईमेल  : sunil68deshpande@outlook.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ शबरी – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ शबरी – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(त्यानन्तर पुढील वर्षातील सुट्टीत सुद्धा अश्विन आणि हेमंत आले, या वेळी मुंबई हुन मोटर सायकल घेऊन आले. मी कामावर गेले की ही तिघ गाडीवरून फिरायची. स्विमिंगला जायची, सिनेमा पाहायची.) – इथून पुढे — 

एक दिवशी हेमंत आणि शबू दोघेच स्विमिंग ला जाताना यांच्या मोटर सायकल ला ट्रकने उडवले. हेमंत रस्त्यावर पडला, त्याला फारसे लागले नाही पण शबरी जोराने फुटपाथ वर पडली, तिची शुद्ध गेली. मला ड्युटीवर असताना फोन आला, मी धावले. तिला सिव्हिल मध्ये आणि मग खाजगी हॉस्पिटल मध्ये ठेवले. तिचे हात पाय मोडले होते, त्यांना प्लास्टर घालून बरे केले पण तिचे मजरज्जू पूर्ण चेचून गेले आहेत. कंबरेची हाडे मोडली आहेत.

ही मोठी महागडी ट्रीटमेंट आहें. अशा प्रकारे ऑपरेशन्स करणारे मोजके डॉक्टर्स आहेत. मुंबई मधील कोकिळाबेन हॉस्पिटल आणि जसलोग मधेच या सोयी आहेत. याचा खर्च चार वर्षा पूर्वी वीस लाख सांगितलं होता, आता अजून वाढला असेल.

मी हात जोडून अनेक नातेवाईक, ओळखीचे यांना विनंती केली, पण सर्वांनी कसेबसे तीन लाख जमवून दिले. ते बँकेत ठेवले आहेत, अजून मोठी रक्कम जमवायची आहें, पण कशी?

गेली चार वर्षे मी नोकरीवर न जाता हिला सांभाळते आहें.

ही सर्व हकीगत ऐकून मेधा आश्रयचकित झाली होती. तिने शबरीचा हात आपल्या हातात घट्ट धरून ठेवला होता. मग मेघा म्हणाली 

“अश्विन आणि हेमंत यांना हे सर्व माहित होतं, मग त्यानी काय केल

“काहीच केल नाही मात्र याच घटने प्रमाणे अश्विन जो लेखन करत होता, त्याने एकांकिका लिहिली, ज्यात तू शबरी चें काम केलंस ‘.

“कमाल वाटते मला म्हणजे त्यानी एकांकिका सुद्धा “शबरी ‘याच नावाने लिहिली, मग नाटक, मग सिनेमा ‘.

“हो, पण तू काम केलंस त्या नाटकात शबरी त्या मित्राच्या प्रेमाने आणि डॉक्टर उपयांनी बरी होते, असे दाखवले आणि नाटकाचा शेवट गोड केला पण इथे काय परिस्थिती आहें तू पाहिलीस ‘.

“पण काकी, अश्विन तुमचा भाचा आणि हेमंत इथे येणारा शिवाय शबरीवर प्रेम केलेला, त्यानी काय केले नंतर?

“दुर्दैव माझे आणि शबरीचे, त्या अपघातनंतर ते मुंबई ला गेले ते गेल्या चार वर्षात पुन्हा इकडे फिरकले नाहीत.,,’

पण तुम्ही फोन नाही करत त्यांना?

“नेहेमीच करते, मला माहित आहें आता दोघाकडे पैसे आहेत पण ते दाद देत नाहीत, आता तुझ्यासमोर फोन लावू का?

“हो लावा पण स्पीकर मोठा ठेवा म्हणजे मला ऐकता येईल ‘.

शबरीच्या आईने हेमंतला फोन लावला. बराच वेळ रिंग वाजल्यावर त्याने फोन घेतला, फोन स्पीकर वर असल्याने मेधाला ऐकू येत होते.

“अरे हेमंत, पैशाची व्यवस्था होईल काय रे?

तिकडून हेमंत बोलत होता, त्याचा आवाज तिने ओळखला.

“कुठे काय, नुकतीच शूटिंग सुरु झाली, पैसे नाहीत म्हणून काम बंद आहें, त्यात ती नटी मेघा पैसे मागत असते म्हणून वसंतरावांनी काम बंद ठेवलाय ‘

अस म्हणून हेमंतने फोन खाली ठेवला.

मेधा संतापाने थरथरत होती. तिचा होणारा नवरा आणि प्रियकर तिला खोटं पाडत होता.

तिने शबरीचा हात हातात घेतला आणि तिच्या आईला सांगितलं 

“काकी, मी तुम्हांला शब्द देते, या शबरीला मुंबई मध्ये नेऊन तिच्यावर उपचार करण्याची जबाबदारी माझी, तुम्ही काळजी करू नका, या खऱ्या शबरीच्या मागे ही नाटकातील शबरी कशी उभी रहाते बघाच ‘.

मेधा बाहेर पडली, बाहेर पडता पडता तिने पर्स मधील होत्या तेवढ्या नोटा काढून त्याच्या हातात कोंबलंय आणि ती गाडीत जाऊन बसली.

मेधा हॉटेल वर परातली, तिने आपल्या आईला सर्व वृत्तांत सांगितलं, तिची आई पण अश्विन आणि हेमंत चें रूप पाहून आश्चर्यचकित झाली.

दुसऱ्या दिवशी मेधा सेटवर गेली. गेल्या गेल्या तिने मेकअप करायला नकार दिला आणि हेमंतला फोन करून बोलावले. हेमंत तिच्या रूममध्ये घुसताना “डार्लिंग ‘म्हणणं जवळ येत होता. तिने त्याला झिडकारले आणि प्रश्नांची सरबत्ती चालू केली.

“ही शबरी कथा कुणा वरुन सुचली?खरी शबरी आहें का जिवंत?

हेमंतला ही आज अस काय बोलते, हे कळेना.

“छे, अशी कोण शबरी नाही, अश्विनने काल्पनिक नाटक लिहिले, त्यात खरं काही नाही ‘.

“मग या गावातील अंबाई टॅंक जाताना कुणाचा असिसिडेन्ट झाला होता?

हेमंत दचकला. हिला ही बातमी कशी हे त्याला कळेना.

तो त त प करू लागला.

“हेमंत, मी काल शबरीला भेटून आले. काल तिच्या आईने तुला शबरीच्या उपचारासाठी फोन केलेला ना, तेंव्हा मी तेथे होते. शबरीची अशी अवस्था कुणामुळे झाली हे मला कळले. मी निर्मात्याकडे एकसारखी पैसे मागत असते, हे तिला सांगताना, मी तेथे होते.’

हेमंत लटपटू लागला. त्या AC मध्ये त्याला घाम फुटला.

“हेमंत, मी शबरीला पुन्हा उभी करणार आहें, तसा तिच्या आईला मी शब्द दिलंय, मला पंचवीस लाख रुपये जमा करायचे आहेत लवकरात लवकर. निर्मत्याने दिलेले पाच लाख रुपये माझ्या बँकेत आहेत. बाकीचे दहा लाख मला दोन दिवसात हवेत तरच मी पुढील शूटिंग करेन. अजून दहा लाख कमी आहेत.

जिच्या कथेवर आणि तेंच नाव वापरून तू आणि अश्विनने एवढा पैसा आणि नाव मिळविलात, ते तुम्ही दोघे आणि तुमचे निर्माते वसंतराव पैसे देता की नाही, ते पण मला आज दुपारपर्यत सांगा, नाहीतर पत्रकार परिषध बोलावून मी त्याना खऱ्या शबरीची भेट घालून देते. तू जा येथून.

दुपारपर्यत मला कळायला हवे ‘.

घाम पुसत हेमंत बाहेर पडला आणि अश्विनकडे धावला, ते दोघे मग निर्माते वसंतरावाकडे गेले. दुपारी वसंतरावांनी तिचे राहिलेले दहा आणि हेमंत, अश्विन कडून दहा लाख मिळून वीस लाख जमा केले.

त्याच रात्री मेधाने शबरी वर उपचार केलेल्या कोल्हापूर मधील डॉक्टरना भेटून कोकिळाबेन हॉस्पिटल मध्ये शबरीची अपॉइंटमेंट ठरवली.

शूटिंग बंद होते, जो पर्यत शबरीवर उपचार सुरु होतं नाही, तोपर्यत मी मेकअप करणार नाही, हे तिने वसंतरावना सांगितले होते.

तीन दिवसांनी स्पेशल ऍम्ब्युलन्स घेऊन शबरी, शबरीची आई आणि मेधा मुंबई कडे निघाली.

हॉस्पिटल मध्ये ऍडमिट करून मेधा कोल्हापूर मध्ये आली आणि तिने शूटिंग सुरु केले. ऑपरेशनच्या दिवशी ती पुन्हा संपूर्ण दिवस हॉस्पिटल मध्ये होती,

डॉक्टरनी ऑपरेशन व्यवस्थित झाले असून पंधरा दिवसानंतर तिला डिस्चाज मिळेल मग फिजिओ कडून दोन महिने ट्रीटमेंट घ्या, चार महिन्यात ती हिंडूफिरू लागेल असा विश्वास व्यक्त केला.

“शबरी ‘सिनेमा पुरा झाला. मेधा आणि तिची आई मुंबईत आल्या, मेधाने शबरीला आणि तिच्या आईला पण आपल्यासोबत आणले.

शबरी सिनेमाला अभूतपूर्व प्रतिसाद मिळाला. या सिनेमाची हिंदी आणि तामिळ मध्ये आवृत्ती निघण्याच्या तयारी सुरु झाल्या. सर्वाना शबरी साठी मेधा हवी होती. मेधा बरोबर कोटी रुपयांची कॉन्ट्रॅक्ट केली गेली. मेधा आंनदात होती.

तिने तिच्या आयुष्यातून हेमंतला हाकलून लावले.

फिल्मफार पुरस्कार साठी “शबरी ‘ची निवड झाली. पुरस्कार स्वीकारण्यासाठी जाताना तिने शबरीच्या हातात हात घेऊन तिच्यासामवेत पुरस्कार स्वीकारला. त्या वेळी ती म्हणाली 

“माझा रस्त्यावर अपघात झाला आणि मी दोन महिने घरात वेदना सहन करत बसले. त्या वेदना आणि तो काल मला  असह्य झाला, पण जिच्या खऱ्या घडलेलंय आयुष्यात जिची काही चूक नसताना चार वर्षे जी वेदना सहन करत राहिली, ती ही शबरी. ही शबरी हीच खरी फिल्मफारे विजेती आहें, मी नाही.’

त्या तुडुंब भरलेलंय हॉलमध्ये त्या टाळ्या वाजत राहिल्या.. वाजत राहिल्या.

– समाप्त – 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ असाही एक भीतीदायक अनुभव… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

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☆ असाही एक भीतीदायक अनुभव… ☆ सौ. वृंदा गंभीर

ही कथा नसून माझ्या जीवनातला एक भयानक अनुभव आहे. माझं नावं प्राजक्ता संजय कोल्हापुरे. मी जेव्हा लहान होते तेव्हा मी सायकलवरून शाळेत जात होते. माझी शाळा होती आमच्या घरापासून जवळ जवळ 4km अंतरावर आणि शाळेत जाताना व घरी येताना मला फार दम लागायचा,

मला थकवा जाणवायचा पण वाटायचे सर्वांना होते त्यात काय वेगळं? म्हणून सारखं मी त्याकडे दुर्लक्ष करायचे. आई पण मला म्हणायची ‘ दिदू जेवणं वेळेवर करतं जा किती थकवा येतो तुला ‘ पण मी मात्र दुर्लक्ष करणार. पण त्याचे परिणाम पुढे जाणवतील हे कुणालाच लक्षात आले नाही. मी मोठी झाले पण माझा हा त्रास कुणाच्याच लक्षात आला नाही. ४ वर्षाखाली माझी आई वारली. तिने आत्महत्या केली, सगळे जण म्हणतात मी फार रडलेच नाही. पण  माझं फार प्रेम होत तिच्यावर म्हणून मला फार आठवण यायची.  ती गेल्यावर मी एकटीच असायचे घरी, मी फार रडतच नव्हते त्यामुळं सर्व त्रास मी निमूटपणे सहन केला, भावनाहीन झाले होते. 

मग मला स्थळ आले. मलवडीमध्ये दाखवण्याचा कार्यक्रम अगदी उत्साहात झाला.  माझं एक वर्षाखाली धूमधडक्यात लग्न झालं, आणि तेही माझ्या आईच्या पुण्याईने.  तिने माझ्यासाठी करून ठेवलेले सोने माझ्या उपयोगाला आले. स्वामींच्या आशीर्वादाने खूप चांगले लग्न झाले. मला एक छान आणि सुंदर व्यक्तिमत्व असणारा नवरा मिळाला, आणि त्या कुटुंबातील माणसं फार चांगल्या स्वभावाची आणि निर्मळ मनाची होती,. मी झाले प्राजक्ता संघर्ष गंभीर, गंभीर घराची मोठी सून.  

सर्वजण  फार आनंदात होते, नित्य नियमाने सगळी कामे होत होती, कुलाचार पण चांगला होत होता.  पण आमच्या हसणाऱ्या कुटुंबाला कुणाची तरी नजर लागली. आमच्या घरी मामीच्या दोन मुली आल्या होत्या, नम्रता आणि गौरी. आम्ही सगळे शनिवारी पिक्चरला गेलो.  पिक्चर बघून घरी आलॊ तर आमचा फ्लॅट आहे तिसऱ्या मजल्यावर.  मी चढून वर आले तर मला थकवा जाणवायला लागला.  फार दम लागला ..  १० मिनिटे झाली पण माझा दम काही थांबेना. मागच्या आठवड्यात मी आणि माझे मिस्टर दवाखान्यात जाऊन आलॊ होतो तेव्हा डॉक्टर म्हणाले होते की ऍसिडिटी झाली आहे आणि त्यांनी मला गोळ्या दिल्या, पण माझा  त्रास काही थांबेना.  त्याच दिवशी रात्री मला फार त्रास झाला, मला नीट आणि पुरेसा श्वास घेता येत नव्हता.  आडवे झोपले कि श्वासाच प्रमाण कमी अधिक होत होते.  त्या दिवशी मी काही झोपले नाही, पण दुसऱ्या दिवशी मी आईंना सांगितले कि मला दम लागतोय मग त्या मला म्हणाल्या  कि, आपण दवाखान्यात जाऊ, मी टाळाटाळ केली, लक्ष दिले नाही.  मग मात्र आईने मागे लागून माझ्यावर रागवून मला प्रायव्हेट हॉस्पिटलमध्ये नेलं.  तिथे त्यांनी टेस्ट केली आणि त्या टेस्टमध्ये कळले कि माझ्या छातीत पाणी झाले आहे.,आधी  एकदा होऊन गेले आहे आणि ते छातीत साठून चिटकून बसले आहे हृदयात. म्हणून मला श्वास घेता येत नव्हता. डॉक्टर म्हणाले लवकरात लवकर हॉस्पिटल मध्ये ऍडमिट करावे नाहीतर मुलगी वाचणार नाही.  दुसऱ्या दिवशी मला प्रायव्हेट हॉस्पिटलमध्ये नेले.  तिथे त्यांनी टेस्ट केली आणि मला ताबडतोब वोर्डमध्ये ऑक्सिजनवर ठेवले होते, आणि भीती घालण्यात आली होती कि ट्रीटमेंट लवकरात लवकर चालू करा नाहीतर मुलगी वाचणार नाही. ते डॉक्टर हृदयात होल पाडून पाणी काढणार होते, असा आहे प्रायव्हेट हॉस्पिटलमधला भोंगळ कारभार.  तिथे बिल तर फाडले जातेच पण भीती देखील दाखवली जाते.  या भीतीखाली रात्रभर कुणालाच झोप लागली नाही.  सगळे हॉस्पिटल मधेच होते पण तेवढ्यात त्यांना कुणीतरी कळवले कि मुलीला ससून हॉस्पिटलमध्ये शिफ्ट करा, तिथे चांगली ट्रीटमेंट केली जाते.  मला प्रायव्हेटवरून गव्हर्नमेंटमध्ये ऍम्ब्युलन्समधून न्यावे लागले. ऑक्सिजन लावलेलाच  होता.  असा अनुभव परत कधीच कुणाच्या वाट्याला येऊ नये. मी ससूनला आले.  फार गर्दी होती आणि बेडदेखील शिलक नव्हता.  कसाबसा बेड आरेंज केला.  मी त्रासाने कळवळत होती, त्यानंतर मला वरच्या हॉलमध्ये हालवण्यात आले.  सगळे जण घाबरून गेले होते मला अशा अवस्थेत पाहून आणि माझ्या आई तर फार रडत होत्या मला पाहून, कारण तशी भयानक दिसत होते मी त्या अवस्थेत! मला तिथून बाहेर काढून प्रायव्हेट हॉस्पिटलमध्ये हालवण्यावरून फार वाद झाले सासर कडच्यामध्ये आणि माहेर कडच्यामध्ये, पण शेवटी मला ससूनमध्ये ठेवण्याचा निर्णय पक्का झाला, कारण प्रायव्हेट मध्ये पैसे जास्त घेणार होते आणि शिवाय पायपिंग करून पाणी बाहेर काढणार होते, ससून मध्ये मात्र मला गोळ्यांनी बरे केले,

रोज मला दोन गोळ्या सकाळी आणि संध्याकाळी सुरु केल्या, स्टेरॉईड आणि इंजेकशन तर वेगळाच जीव घेत होते, आणि ऑक्सिजन आणि सलाईन वेगळेच, मी फार गळून गेले होते.  मात्र त्या 10 दिवसात जो अनुभव आला तो वैऱ्याला पण येऊ नये, कारण त्या दिवसात मला माझी माणसं कळली, कोण जवळचे आणि कोण परके सर्व दाखवलं स्वामी महाराजांनी.  माझे पाळीचे प्याड बदलण्यापासून माझी युरीन फेकण्यापर्यंतचे सगळे काम माझी सासू म्हणजेच दुसरी आई करतं होती.  शेवटी काय, ” परदु:ख शितळ असतं ” असे सर्वांना वाटतं असेल , असो.  आईने कधीच मला सून म्हणून ट्रीट नाही केले.  तिथे असणारे सर्व पेशन्ट आणि त्यांचे कुंटूब जेव्हा आम्हाला पहायचे  तेव्हा त्यांना नवलच वाटत होते, जेव्हा आई माझी तेल लावून वेणी घालायचे, मला रोज गरम गरम जेवायला आणायची, तेव्हा सर्व म्हणायचे कि काय मुलीच नशीब, आणि आई नाही तर सासरे म्हणजेच बाबादेखील माझे ताट धुवून ठेवायचे तर सर्व फक्त माझ्या कडेच पाहायचे त्या दिवसात खूप dr लोकांनी खूप भीती घातली कि हे या लहान वयात होणे चांगले नाही.  खूपच वाईट वाटले कि ‘असे कसे झाले तुमच्या सुनेचं ‘ असे टोमणे देखील ऐकायला मिळाले.  मात्र माझी आई माझ्या सोबत होती आणि बाबा देखील.  त्या दिवसात मला एक देखील जवळचे नातलग भेटायला आले नाहीत, माझा भाऊ देखील मला अर्ध्यावर सोडून गेला निघून गेला, माझा सखा बाप पण मला पाहायला आला नाही कि माझी मुलगी कशी आहे? म्हणून.  फक्त मावशीचे mr भेटायला आले.  बाकीच्यांनी तर तोंड फिरवली होती.  मुलगी जिवन्त आहे कि मेली कुणाला काहीच देणं घेणं नाही आणि मी खुळी त्या दरवाज्याकडे नजर लावून होती कि कोणी तरी येईल भेटायला, पण देवाने माणसे मात्र दाखवली. 

त्या दिवसापासून ठरवलं कि सासरकडची माणसं आपली, कारण ज्या सख्या आईने जीव सोडला तरी दुसऱ्या आईने जीव वाचवला. आज ती नसती तर मी पार खचून गेले असते.  ती रोज तुळजाभवानी मातेला प्रार्थना करायची, महाराजांना विनंती करायची कि माझ्या सुनेला घरी सुखरूप घेऊन ये, तिला पूर्ण बरे कर आणि तसेच झाले. त्यांनी माझ्यासाठी शुक्रवार धरले आणि कालभैरवाने  तिचे मागणे पूर्ण केले.  त्याला आईने साकडं घातलं होते कि सुनेला पूर्ण बरे कर आणि देवाने प्रार्थना ऐकली.  मी पूर्ण बरी झाले.  मला घरी आणण्यात  आले.  आज ही मी व्यथा मांडत आहे पण माझ्या डोळ्यातले अश्रू काही थांबायला तयार नाहीत.  तरी देखील हे सत्य मला मांडायचे होते कारण असं म्हणतात कि देव तारी त्याला कोण मारी……,

लेखिका : सुश्री प्राजक्ता संघर्ष गंभीर

प्रस्तुती – दत्तकन्या (सौ. वृंदा पंकज गंभीर)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ आणखी एक कोवळा अभिमन्यू ! – भाग-२ ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

☆ आणखी एक कोवळा अभिमन्यू ! – भाग-२ ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

परमवीर अरूण खेतरपाल !

(आणि लढाईत सर्वांत महत्त्वाचे असते ते सैनिकांचे मनोबल….शस्त्रांपेक्षा ती शस्त्रे चालवणारी मने मजबूत असावी लागतात.) इथून पुढे. — 

हनुतसिंग साहेबांनी मैदानातील सर्वांना आदेश बजावला…कुणीही कोणत्याही परिस्थितीत माघारी फिरायचे नाही! जेथे आणि ज्या स्थितीत असाल तेथूनच लढा…एक तसूभरही मागे सरायचे नाही! प्रमुखांचा आदेश सर्वांनच शिरसावंद्य होता. अरूण साहेबांनीही हा संदेश ऐकला आणि मनात साठवून ठेवला! 

त्यांनी आपल्या रणगाड्यामधील साथीदारांना सांगितलं…सी.ओ.साहब का आदेश सुना है? उन्होंने कहा है..यही रूककर लडना है! 

पाकिस्तानचा हल्ला सूरूच होता…अरूण साहेबांच्या शेजारीच लढत असलेले लेफ़्टनंट अवतार अहलावत साहेब जखमी झाले. त्यांचा रणगाडाही निकामी झाल. मल्होत्रा साहेबांच्या रणगाड्याची तोफ निकामी झाल्याने ते काहीही करू शकत नव्हते…फक्त पाकिस्तानचा मारा सहन करीत युद्धक्षेत्रात निश्चलपणे उभे होते…सेनापतींचा आदेश शिरावर घेऊन…साक्षात मृत्यूच्या डोळ्यांत पहात! 

आता फक्त अरूण साहेबांचा रणगाडा युद्ध करू शकत होता. परंतू तोही आगीने वेढला गेला…मल्होत्रासाहेबांनी अरूणसाहेबांना मागे जावे असे सुचवले…त्यावर अरूण साहेब गरजले…नाही,साहेब! आता माघार नाही….मी शत्रूचा समाचार घेण्यास समर्थ आहे…जीवात जीव असेतोवर! 

प्राकसिंग अरूण साहेबांच्या रणगाड्याचे चालक होते…ते म्हणाले…साहेब…थोडं मागे सरकू…रणगाड्याला लागलेली आग विझवू आणि पुन्हा पुढे येऊ! त्यावर अरूणसाहेबांनी त्याला स्पष्ट नकार दिला…सेनापतींचा आदेश आहे…न मागुती तुवा कधी फिरायचे…सदैव सैनिका पुढेच जायचे! 

याच क्षेत्राच्या आसपास भारतीय रणगाड्यांच्या ब्राव्हो,चार्ली या अन्य तुकड्याही कार्यरत होत्या. पण त्यांच्यावरही पाकिस्तानने तुफान हल्ला चढवला होता. अरूण साहेबांच्या क्षेत्रात आता ते स्वत:च फक्त लढू शकत होते. महाभारत….अभिमन्यू उभा ठाकलेला आहे…त्याने चक्रव्युह भेदला आहे…पण त्यातून बाहेर पडण्याचा मार्ग त्याला गवसत नाहीय…संधी पाहताच कौरवांनी जणू सिंहाच्या बछड्याला घेरलं…शिकारी कुत्र्यांसारखं. ..   भारताचे तेथे उपलब्ध असलेले सर्वच रणगाडे आता युद्धात होते. मागून कुमक येण्याची शक्यता नव्हती. परिस्थिती भयावह होती…पराभव समोर होता…आपण हरण्याची शक्यता जास्त होती. 

अरूण साहेबांनी समोर येईल त्या रणगाड्याला अचूक टिपायला आरंभ केला. आपल्या तोफचालकाला, नथूसिंग यांना ते सतत प्रोत्साहन देत राहिले…मार्गदर्शन करीत राहिले.   एक स्थिती अशी आली की, पाकिस्तानचे सर्वच्या सर्व रणगाडे नेस्तनाबूत झाले…फक्त एक सोडून. हा रणगाडा होता….पाकिस्तानच्या स्क्वाड्रन कमांडर मेजर निसार याचा. निसार थेट अरूण साहेबांच्या रणगाड्याच्या अगदी समोर आला…केवळ दोनशे मीटर्सचे अंतर. ही रणगाड्यांची लढाई आहे…हे अंतर दिसायला जास्त दिसत असले तरी रणगाड्यांसाठी अत्यंत कमी…अगदी डोळ्यांत डोळे घालून पाहण्याएवढे. 

अरूण साहेब आणि निसार यांनी एकाच वेळी एकमेकांवर गोळा डागला. निसारचा रणगाडा निकामी होऊन जागीच थांबला. दिवसभर निसार आणि त्याचे सैनिक त्या रणगाड्यामागे लपून राहिले आणि रात्री आपल्या हद्दीत पलायन करते झाले.   इकडे अरूण साहेबांच्या रणगाड्यावर पडलेल्या तोफगोळ्याने रणगाडा ऑपरेटर सवार नंदसिंग धारातीर्थी पडले. आणि अरूणसाहेब प्राणघातक जखमी झाले होते…पण त्यांनी पाकिस्तानचा निकराचा हल्ला प्राणपणाने परतवून लावला होता. अन्यथा आपले खूप नुकसान झाले असते. 

ती रात्र उलटली…पहाटेची महाभयानक थंडी पडली..थोडंसं उजाडलं होतं. जखमी झालेले सवार प्रयाग सिंग आणि नथू सिंग यांनी हा धडधडून पेटून राखरांगोळी होण्याच्या स्थितीत असलेला रणगाडा मागे घेतला…या सेंचुरीयन रणगाड्याचे नाव होते फॅमगस्टा-JX 202.! 

अरूण साहेबांच्या कुडीत काही प्राण शिल्लक होता…त्यांनी पिण्यास पाणी मागितले. या थंडीत थंड पाणी प्यायला दिले तर आहेत ते प्राण उडून जातील म्हणून त्यांनी ताबडतोब एक कप चहा उकळून घेतला…तो कप अरूण साहेबांच्या ओठांपाशी नेला….पण साहेबांनी नथूसिंग यांच्या मांडीवर प्राण सोडला…अरूण साहेब आपल्यातून निघून गेले होते….दिगंताच्या प्रवासाला…आपले कर्तव्य पार पाडून. क्षेत्राचं प्राणपणाने रक्षण करून आपले खेतरपाल हे आडनाव सार्थ करून आणि अरूण हे आपले सूर्याशी आणि सूर्यवंशाशी नाते सांगणारे नाव अमर करून… आणखी एक अभिमन्यू अमर झाला होता ! 

“The sand of the desert is sodden red, —

Red with the wreck of a square that broke; —

The Gatling’s jammed and the Colonel dead,

And the regiment blind with dust and smoke.

The river of death has brimmed his banks,

And England’s far, and Honour a name,

But the voice of a schoolboy rallies the ranks:

‘Play up! play up! and play the game!”

― Henry Newbolt

‘वाळवंटातली वाळू लाल झालेली आहे रक्ताने….

शस्त्र तुटून पडलं आहे…सैन्याधिकारी धारातीर्थी पडला आहे.

सैन्यदल धुराने आणि धुळीने आंधळ्यासारखं झालं आहे.

मृत्यूच्या नदीत दुथडी भरून रक्त वाहतं आहे….

त्या गदारोळातून एका शाळकरी मुलाचा आवाज स्पष्ट उमटतो आहे…

खेळत रहा..खेळत रहा….हा मरणाचा खेळ खेळत रहा….याशिवाय विजय कसा मिळेल?’

सेकंड लेफ्टनंट अरूण खेतरपाल परमवीर ठरले. मरणोपरांत परमवीर चक्र मिळवणारे सर्वांत कमी वयाचे सैन्य अधिकारी ठरले.  खडकवासल्याच्या राष्ट्रीय संरक्षण प्रबोधिनी मधील कवायत मैदानाला अरूण खेतरपाल परेड ग्राऊंड म्हणून ओळखले जाते. त्यांच्या नावाने एक सभागृहसुद्धा असून एका प्रवेशद्वाराला यांचे नाव देण्यात आलेले आहे. नॅशनल वॉर मेमोरिअल मध्ये परमवीर सेकंड लेफ्टनंट अरूण खेतरपाल साहेबांचा अर्धपुतळा उभारण्यात आलेला आहे. इथे येणा-या प्रत्येकाला हुतात्मा अरूण खेतरपाल साहेबांच्या अविस्मरणीय शौर्यामुळे नवी प्रेरणा मिळत राहते. अरूण साहेबांच्या स्मृतींना दंडवत. 

युद्धाची शक्यता निर्माण झाली तेंव्हा अरूण आपल्या घरी सुट्टीवर होते. त्यांना तातडीने रेजिमेंटमध्ये बोलावले गेले. निघण्याच्या दिवशी त्यांच्या मातोश्री त्यांना म्हणाल्या होत्या,” वाघासारखं लढायचं,अरूण. भेकडासारखं पराभूत होऊन परत फिरायचं नाही!” अरूण साहेब विजयी होऊन परतले पण तिरंग्यात लपेटूनच. खरं तर १६ डिसेंबर,१९७१ रोजीच युद्धविराम झाला होता. पण याच दिवशी अरूण साहेब हुतात्मा झाले होते. पण याची बातमी त्यांच्या घरी पोहोचली नव्हती. मात्र युद्ध थांबल्याची बातमी त्यांना रेडिओवरून समजली होती. आपला लेक बसंतरच्या लढाईत आहे, हेही त्यांना ठाऊक होतं. लढाई संपली….अरूण साहेबांच्या मातोश्रींना वाटलं होतं….आपला लेक आता घरी येईल. त्यांनी अरूण साहेबांची खोलीही व्यवस्थित करून ठेवली होती…पण…! 

पुढे काही वर्षांनी घडलेली घटना तर आपल्यला व्यथित करून जाईल….अरूण साहेबांचे वडील निवृत्त ब्रिगेडीअर होते. त्यांचे मूळ घर पाकिस्तानात आहे. त्या घराला एकदा भेट द्यावी म्हणून ते पाकिस्तानात गेले असता त्यांचे यजमान एक ब्रिगेडीअरच होते…त्यांचे नाव नासिर….हो तेच नासिर ज्यांनी अरूण साहेबांच्या रणगाड्यावर गोळा डागला होता….नासिर यांनीच ही गोष्ट अरूणसाहेबांच्या वडीलांना सांगितली…तेंव्हा या बापाच्या मनाची काय अवस्था झाली असेल? कल्पना करवत नाही. मात्र ब्रिगेडीअर नासिर यांनी जेंव्हा त्यांना सांगितले की, तुमचा मुलगा खूप शौर्याने लढला आणि शहीद झाला…तेंव्हा या बापाचा ऊर अभिमनाने भरून आला ! This is Indian Army!

(लेफ्टनंट जनरल हनुत सिंग साहेबांच्या एका विडीओ मुलाखतीवर तसेच इतर बातम्या,लेख,विडीओस इत्यादींवर आधारीत हा लेख लिहिला आहे. लेखात वापरलेल्या हेंरी न्यूबोल्ट यांच्या कवितेचा स्वैर मराठी अनुवाद कथेच्या संदर्भात केला आहे. परमवीर अरूण खेतरपाल यांच्या रणगाड्याचे चालक श्री.प्रयाग सिंग आणि तोफ डागणारे नथू सिंग या धामधुमीत पाकिस्तानचे युद्धकैदी झाले होते. पाकिस्तानी सैन्याने या दोघांनाही वैद्यकीय उपचार दिले आणि नंतर भारताकडे सोपवले. पुढे हे दोघेही ऑनररी कॅप्टन म्हणून सेवानिवृत्त झाले. प्रयाग सिंग हे आता आपल्यात नाहीत. परमवीर खेतरपाल साहेबांचा मृतदेह आणि त्यांचा फॅमागस्टा रणगाडाही पाकिस्तानने त्यांच्या ताब्यात घेतला होता. पण काही वेळातच पाकिस्तानला साहेबांचा देह आणि रणगाडा भारताच्या स्वाधीन करावाच लागला.. )

– समाप्त – 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ ‘चहा की कॉफी…’ – कवी : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ ‘चहा की कॉफी…’☕ – कवी : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

जो जे वांछील तो ते पिओ!

 

चहा म्हणजे उत्साह..

कॉफी म्हणजे स्टाईल..!

 

चहा म्हणजे मैत्री..

कॉफी म्हणजे प्रेम..!

 

चहा एकदम झटपट..

कॉफी अक्षरशः निवांत..!

 

चहा म्हणजे झकास..

कॉफी म्हणजे वाह मस्त..!

 

चहा म्हणजे कथा संग्रह..

कॉफी म्हणजे कादंबरी..!

 

चहा नेहमी मंद दुपारनंतर..

कॉफी एक धुंद संध्याकाळी.!

 

चहा चिंब भिजल्यावर..

कॉफी ढग दाटुन आल्यावर.!

 

चहा = discussion..

कॉफी = conversation..!

 

चहा = living room..

कॉफी = waiting room..!

 

चहा म्हणजे उस्फूर्तता..

कॉफी म्हणजे उत्कटता..!

 

चहा = धडपडीचे दिवस..

कॉफी = धडधडीचे दिवस..!

 

चहा वर्तमानात दमल्यावर..

कॉफी भूतकाळात रमल्यावर..!

 

चहा पिताना भविष्य रंगवायचे…!

कॉफी पिताना स्वप्नं रंगवायची….!

 

कवी :अज्ञात

प्रस्तुती : स्मिता पंडित 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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