(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे…”।)
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी…’।)
☆ जीवन यात्रा – मेल जोल बढ़ाइए, उम्र भी बढ़ जाएगी… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
(वानप्रस्थ ने मनाया 92 वर्षीय वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना का जन्मदिन)
हिसार। बड़ी उम्र के लोगों से अक्सर यह सवाल किया जाता है कि उनकी सेहत का क्या राज़ है। जीवन के 93 बसंत देख चुके हरप्रकाश सरदाना का सीधा सा जवाब है कि दैनिक जिंदगी में खानपान और जीवन शैली में अनुशासन बनाए रखिए और सबसे जरूरी यह कि मेलजोल बनाए रखिए।
वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ में उन्होंने अपना 93वां जन्मदिन मनाया। संस्था की तरफ से उन्हें एक पौधा, शाल और फूलों के गुलदस्ते देकर सम्मानित किया। उन पर फूलों की वर्षा कर सभी सदस्यों ने हैप्पी बर्थडे टू यू का गीत गाते हुए उनके अच्छे स्वास्थ्य और उनकी दीर्घायु की कामना की।
सरदाना जी ने इस अवसर पर अपने अनुभव सांझा किए। देश के विभाजन के समय वे 16 साल की उम्र में कराची से समुद्री जहाज़ के द्वारा शरणार्थियों के एक दल में गुजरात पहुंचे थे।
“सब कुछ सामान्य था। किसी को यकीन ही नहीं आ रहा था कि उन्हें अपने पुरखों के घर छोड़ कहीं और जाना पड़ेगा। फिर कुछ हिंसक घटनाएं हुई और सरकार ने सभी हिन्दू सिखों को कराची छोड़ गुजरात जाने के लिए कहा और सभी चल पड़े, अपने घरों को ताले लगा कर चाबी पड़ोसियों को देकर। उम्मीद जल्द लौटने की थी, पर यह तो स्थाई विस्थापन था।
गुजरात से आगरा आए। पिता मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में थे । बाद में सरदाना भी एम ई एस में ही भर्ती हुए और इंडियन एयर फोर्स के कई स्टेशनों पर काम किया। उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश व दिल्ली सहित अनेक राज्यों में काम किया। दार्जिलिंग में एवरेस्ट विजेता तेनजिंग से मिले। बंगाल में कलाईकोंडा एयरफील्ड पर पाकिस्तानी हमले को देखा।
एकमात्र पुत्री सुनीता की शादी सरदाना जी ने एयरफोर्स के अपने एक मित्र के पुत्र नवीन मेहतानी से करा दी जो मैरिन इंजीनियर थे और समुद्री जहाज़ों पर ही दुनिया में घूमते रहते थे। चीफ़ इंजीनियर पद से सिंगापुर से सेवानिवृति के बाद नवीन अब भी कंसल्टेंसी कर रहे हैं । किसी दुर्घटना में फंसे समुद्री जहाज़ को बचाने या निकालने के काम में लगे रहते हैं। सुनीता और नवीन के एक बेटा मन्नन और एक बेटी तारिणी हैं जो जॉब कर रहे हैं।
पिता सरदाना की देखभाल पुत्री सुनीता मेहतानी करती हैं पर उनके जन्मदिन पर पूरा परिवार इकट्ठा होता है। वानप्रस्थ संस्था में वे लंच का इंतजाम करती हैं और संस्था के सदस्य बड़े उत्साह के साथ गीतों और गजलों से उन्हें बधाई देते हैं। वे खास सदस्यों से खास गीतों की फरमाइश भी करते हैं और खुद कोई बांग्ला या इंग्लिश भाषा का गीत सुनाते हैं।
सुनीता मेहतानी कहती हैं कि कुछ वर्ष पहले उनके पिता सरदाना जी की तबियत काफ़ी खराब रहती थी। “हर दूसरे तीसरे दिन उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता था। जबसे वे वानप्रस्थ में आए हैं, उनकी तबियत में बड़ा सुधार हुआ है। अब महीने दो महीने में डॉक्टर से मिलना होता है।”
“सरदाना जी बुधवार व शुक्रवार को वानप्रस्थ की निर्धारित बैठक के लिए 9 बजे ही तैयार होकर बैठ जाते हैं और मुझे कहते हैं कि आज जाना है, जल्दी तैयार हो जाओ।”
“किसी और दिन इनको उदास देखती हूं, तो किसी मित्र को फोन कर कहती हूं, डैडी आपको याद कर रहे हैं। आप के साथ चाय पीने के लिए आना चाहते हैं। मित्र स्वाभाविक रूप से तुरंत बुला लेते हैं और फिर चाय पर गपशप से उदासी फुर्र हो जाती है।”
प्रथम पंक्ति – वरिष्ठतम सदस्य एच पी सरदाना को सम्मानित करते वानप्रस्थ के सदस्य।
द्वितीय पंक्ति – वानप्रस्थ की गोष्ठी का दृश्य, सावन के गीत प्रस्तुत करती प्रो दीप कौर पुनिया व उनकी सखियां
वानप्रस्थ में सरदाना जी के जन्मोत्सव में प्रो दीप कौर पुनिया ने हरियाणा के सावन के लोकगीतों के मुखड़े पेशकर समा बांध दिया। प्रो पुष्पा खरब, सुनीता जैन, संतोष डांग, इंदु गहलावत व कमला सैनी ने उनका साथ दिया। सरदाना जी की फरमाइश पर दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर ग़ज़ल, हम देखेंगे गाकर पेश की। आलम यह था कि सभी श्रोता भी स्थायी टेक पर लगातार साथ देने लगे।
प्रो पुष्पा खरब, प्रो राज गर्ग, प्रो स्वराज कुमारी, वीना अग्रवाल, प्रो रामकुमार सैनी, करतार सिंह व एस पी चौधरी ने विभिन्न रंग के गीतों और ग़ज़लों की प्रस्तुति दी।
प्रो सुनीता श्योकंद, सुनीता मेहतानी, प्रो सुनीता जैन तथा वानप्रस्थ के जनरल सेक्रेटरी जे के डांग ने सभा का संचालन किया।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काली टोपी लाल रूमाल“।)
अभी अभी # 116 ⇒ काली टोपी लाल रूमाल… श्री प्रदीप शर्मा
सन् १९५९ में एक फिल्म आई थी, काली टोपी लाल रूमाल, वैसे वह समय भी टोपी और रूमाल का ही था। महिलाएं तो ठीक, पुरुष भी खुले सिर नहीं घूमते थे। टोपी कहें या पगड़ी, असली इज्जत वही थी।
गांधीजी ने कभी टोपी नहीं पहनी, लेकिन गांधीवादी लोग सफेद टोपी पहनने लगे। नेहरू आधुनिक विचारों के होते हुए भी, टोपी पहनते थे। राजनीति में टोपी पहनी भी गई, जनता को पहनाई भी गई, और दूसरों की टोपी उछाली भी गई।।
वह समय था जब हर सज्जन और सभ्रांत पुरुष काली टोपी पहनता था। ग्रामीण अंचल में किसान पगड़ी बांधते थे, और पसीना पोंछने के लिए रूमाल नहीं, लाल गमछा रखते थे, कहीं कहीं यह अंगोछे की शक्ल का भी होता था।
हमारा विद्यालय तब एक तरह से सरस्वती का मंदिर ही था, बस उसका नाम गणेश विद्या मंदिर था। शहर की महाराष्ट्र साहित्य सभा उसका संचालन करती थी, और अधिकांश वरिष्ठ शिक्षकों का परिधान धोती, कुर्ता, कुर्ते पर खुले गले का कोट, काली टोपी और आंखों पर चश्मा ही होता था। वे तब के शिक्षा, संस्कार और नैतिकता के ब्रांड एम्बेसडर थे। उनका आचरण छात्रों के लिए अनुकरणीय होता था।।
वह समय था, जब घरों में, मोटी मोटी दीवारों में खूटियां हुआ करती थीं, जिन पर छाता, कुर्ता और टोपी टांगी जाती थी।
हम आज भले ही वाहन चलाते वक्त सुरक्षा हेतु हेलमेट ना पहनें, लोग घर से बाहर जाते समय सर पर टोपी लगाना और हाथ में छाता ले जाना नहीं भूलते थे।
जब परिवेश बदलता है तो परिधान भी बदलता है। सर की टोपी और पगड़ी आजकल गायब हो चुकी है, विदेशी परिवेश में धोती कुर्ते की जगह सूट बूट ने ले ली है और गले के रूमाल का स्थान टाई ने ले लिया है। पहले कैप आई और पश्चात् मंकी कैप।।
सर पर टोपी अथवा पगड़ी अनुशासन और अस्मिता का प्रतीक है। पुलिस, और फौज में आज भी वर्दी और कैप अनिवार्य है। पब्लिक स्कूलों में आज भी यूनिफॉर्म अनिवार्य है। बेचारा रूमाल तो आजकल शर्म के मारे छोटा होकर पर्स का नैपकिन हो गया है।
हमारे परिवार में पिताजी की आज एक ही तस्वीर उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने काली टोपी लगा रखी है।
क्या समय था, जब मांगलिक अवसरों पर की जाने वाली पुरुषों की कपड़ा रस्म में धोती कुर्ता, रूमाल अथवा अंगोछे के साथ टोपी भी रखी जाती थी।।
महिलाएं आज भी धार्मिक स्थलों में जाते वक्त सर पर पल्लू ले लेती हैं, कई पूजा स्थलों में पुरुष को भी सर ढंकना होता है, जेब का रूमाल तब बहुत काम आता है। लोग तो रूमाल रखकर, बस की सीट तक रोक लेते हैं। सर कहें अथवा मस्तक, यह अगर सदके में झुकता है तो गर्व से उठता भी है।
आज भले ही टोपी हमारे सर से गायब हो गई हो, रूमाल ने आज भी हमारा साथ नहीं छोड़ा। हमारी साख ही हमारी पगड़ी है। दूल्हा आज भी जीवन में एक बार ही सही, पगड़ी जरूर पहनता है। जो आज भी अपनी अस्मिता और गौरव को बनाए रख रहे हैं, उनके लिए टोपी और पगड़ी आभूषण है, सम्मान, सादगी और अभिमान का प्रतीक है।।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
आपणा सर्वांच्या सहकार्यामुळेच आपण मराठी ब्लाॅगज् मध्ये वरचा क्रमांक प्राप्त करू शकलो आहोत. अधिक वरचा क्रमांक प्राप्त करणे आपणा सर्वांच्या हातात आहे. शक्यतो सर्वांचे साहित्य समाविष्ट केले जाईल याची काळजी संपादक मंडळ घेत असते. संपादन कार्यात सुसूत्रता यावी म्हणूनच वरीलप्रमाणे विभागणी केली आहे. तरीही काही वेळेला येणा-या अडचणीं लक्षात घेऊन काही सूचना करीत आहोत. त्याचा गांभीर्याने विचार करून पालन व्हावे अशी अपेक्षा आहे.
1) आपली कोणतीही साहित्य कृती वरीलपैकी एकाच संपादक मंडळ सदस्याकडे पाठवावी.एकच साहित्य एकापेक्षा जास्त ठिकाणी पाठवू नये.
2) साहित्य पाठवताना वरील विभागणी लक्षात घ्यावी.
3) एखाद्या दिवसाचे महत्त्व लक्षात घेऊन त्या संबंधी साहित्य पाठवले जाते. असे साहित्य एक दोन दिवस आधी आले तर पूर्व नियोजित आराखडा बदलून असे ऐनवेळेस आलेले साहित्य स्विकारणे तांत्रिक कारणांमुळे खूप कठीण असते. त्यामुळे असे साहित्य त्या दिवसाच्या किमान आठ दिवस आधी मिळेल अशा बेताने पाठवावे. त्यामुळे आपण पाठवलेले साहित्य योग्य दिवशी प्रकाशित करता येईल.
4) प्रासंगिक साहित्य (अनपेक्षित सामाजिक/नैसर्गिक घटना, यश इ. विषयी व्यक्त होणे) पाठवतानाही फार विलंब करू नये ही विनंती.
सर्वांनी या सूचनांचे काटेकोरपणे पालन केल्यास प्रत्येक साहित्य प्रकार योग्य वेळेत लावता येईल.
सर्वांच्या सहकार्याची खात्री आहेच.
धन्यवाद.
संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती (मराठी)
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
सोशल मीडिया वर त्यांची ओळख झाली.थोड्या जुजबी गप्पातून आवड निवड जुळली.तिला माहिती होते,अशा ओळखी होतात थोडा वेळ राहतात आणि गायब होतात जणू सशाच्या डोक्यावरचे शिंग.म्हणून तीही कुठे अडकत नव्हती.जपून बोलत होती.
एक दिवस तो तिला भेटला.ती अंतर ठेवून वागते हे त्याच्या लक्षात आले होते.ती अनुभवाने शहाणी किंवा सडेतोड वागणारी झालेली. तर तो फार हळवा प्रत्येक गोष्ट तिला सांगणारा अगदी मना पासून कोणतेही नाते निभावणारा.तसा तो पारदर्शक वाटत होता.तसे वागतही होता.पण हिच्या मनात एकच प्रश्न आपले नाते काय? तो म्हणे सगळ्याच नात्यांना नाव का द्यायचे?नाते फुलू द्यायचे.म्हणजे नाते आपोआप तयार होते.ही एकच गोष्ट सोडली तर प्रत्येक बाबतीत त्यांचे एकमत होत असे.आवडी निवडी पण सारख्या होत्या.त्या मुळे एकमेकांची जणू सवयच लागली होती.पण ती मध्येच अस्वस्थ व्हायची.आणि नात्याचे नाव शोधू लागायची.
एक दिवस रस्त्यात फुले विकणाऱ्या मुला कडून त्याने लाल गुलाब घेतला आणि तिला दिला.त्या दिवशी ती छान दिसते हे ऑफीसमध्ये खूप लोकांनी सांगितले होते. ती पुरती गोंघळून गेली.तिला वाटले त्याच्या या कृतीचा अर्थ काय असावा?त्या नंतर ती त्याला टाळू लागली.जेवढ्यास तेवढे बोलू लागली.
एक दिवस तो धावत पळत तिच्या घरी आला.
एका हातात एक बॉक्स तर दुसऱ्या हातात पोस्टाचे पाकीट.तिला म्हणाला बहिणीने राखी पाठवली आहे. तूच बांध आणि हा माझ्या कडून ड्रेस.ती परत गोंधळात पडली.
एक दिवस सिनेमाची तिकिटे काढली.दोघे त्याच्या हट्टामुळे सिनेमाला गेले.त्यात हिरोची आई मरते असे दृश्य होते.तो इतका भावना विवश झाला.घरी येऊन तिच्या मांडीवर डोके ठेवून मनसोक्त रडला.ती डोक्यावर हात फिरवत राहिली.
नोकरी बदलताना, ड्रेस घेताना कोणतेही छोटे मोठे निर्णय तिला विचारून घेत होता.
प्रत्येक गोष्ट तिला सांगत होता.ही सगळे आनंदाने ऐकत होती,सल्ले देत होती.पण मध्येच हीचा प्रश्न डोके वर काढायचा. आपले नाते काय?
तिच्या मनातील घालमेल त्याला समजली.एक दिवस त्याने तिला आपल्या बरोबर नेले.रस्त्याने ऊन लागत होते.तिने स्कार्फ बांधून घेतला.रस्त्यात वाळवणे दिसली.ऊन आवश्यक असणारी आणि ऊन त्यांना किडी पासून वाचवणार होते.पुढे उन्हाळ्यात चालणारी रस्त्याची,काही सफाईची कामे दिसली.त्यांना एक बांधकाम दिसले.ते काम पावसाळ्या पूर्वी पूर्ण व्हायला हवे म्हणून मालक कडक सूचना देत होता.तिथल्याच झाडा खाली काही प्राणी उन्हापासून संरक्षण व्हावे म्हणून झाडा खाली बसले होते.दुसऱ्या झाडाखाली एका मजुराचे बाळ झोळीत झोपले होते.आणि त्याची आई त्याला ऊन लागू नये म्हणून जपत होती.
एकीकडे फुले सुंदर फुलली होती तर एकीकडे नाजूक गवत करपत होते.
हे सगळे त्याने तिला दाखवून दिले आणि विचारले आता सांग ऊन कसे आहे?ती पुन्हा विचारात पडली.आणि उत्तर शोधू लागली.मग तोच पुढे म्हणाला,ज्यावेळी मी तुला लाल गुलाब दिला त्या वेळी तुझ्यात मला प्रेयसी दिसली होती.ज्या वेळी मी राखी बांधून घेतली त्यावेळी तुझ्यात बहीण दिसली होती.ज्या वेळी मी हळवा होऊन रडलो त्यावेळी तुझ्यात आई दिसली होती.प्रत्येक सल्ला घेताना तुझ्यात उत्तम सल्लागार दिसला होता.प्रत्येक गोष्ट शेअर करताना एक जिवलग मैत्रीण दिसत होती.
जशी उन्हाची विविध रूपे दिसली,ऊन चांगले की वाईट हे त्याच्या त्या त्या वेळे नुसार ठरते.तसेच आपले नाते आहे.आता त्याला कोणते नाव द्यायचे हे तूच ठरव.आणि जास्त गोंधळात पडू नको.आणि आपण आपल्या या सगळ्यात समाधानी आहोत,तर प्रत्येक नात्याला नाव देण्याचा अट्टाहास करू नको.कदाचित नात्याला नाव देण्या मुळे आपण दुरावले जाऊ.
या सगळे तिला मनापासून पटले आणि नवीन मैत्रीच्या विविध धाग्यांनी विणलेला गोफ सोबत घेऊन ती समाधानाने शांत चित्ताने घरी गेली.
☆ किंमत… भाग – 2 … श्री श्रीपाद सप्रे ☆ प्रस्तुती – डाॅ.भारती माटे☆
(आधी नुसता फेरफटका मारू, मग ठरवू काय करायचं ते, असा विचार करून तिने निरुद्देश चालायला सुरुवात केली. ) इथून पुढे —-
तंद्रीत अचानक ती स्विमिंग पूलच्या समोर येऊन उभी राहिली. तिथे तीन चार जण पाण्यात डुंबत होते. ती गडबडीने मागे फिरणार तेव्हढ्यात तिला हाक ऐकायला आली,
” ए मुली, लाजू नको. ये इकडे….”
पन्नास वयाची अट असताना इथे मुलगी कशी काय आली? हे पाहण्यासाठी तिने मान वळवली. नऊवारी साडीतल्या एक आजी स्विमिंग पूलमधून बाहेर येता येता तिलाच हाक मारत होत्या. पन्नाशी उलटलेली मुलगी ! तिला गंमत वाटली. तोपर्यंत आजी तिच्याजवळ पोहोचल्या होत्या. तिला शेकहॅंड करत त्या म्हणाल्या,
” मी अरुणा प्रधान. तुला पोहता येत नसलं तरी नुसतं डुंबायला येऊ शकतेस. अगं, पाण्यात शिरलं ना, की तन आणि मन आपोआप हलकं होऊन जातं. जगाचा विसर पडतो, षडरिपू गळून पडतात. मला तर आईला भेटल्यासारखं वाटतं.”
पाण्याला आईची उपमा दिलेली पाहून ती हळवी झाली. बराच वेळ त्या दोघी पाण्यात खेळत राहिल्या. खेळताना मध्येच ती प्रधान आजींना म्हणाली,
” मला तुमच्या बद्दल जाणून घ्यायला आवडेल.”
“आधी जेवूया मग झाडाखाली बसून गप्पा मारू.”
जेवण झाल्यावर एक छानशी जागा बघून तिथे ऐसपैस बसल्यावर आजी म्हणाल्या,
” माझ्याबद्दल मी तुला सांगते. तूही मनमोकळेपणाने स्वतः बद्दल सांग. आधी तू बोलत्येस की मी बोलू?”
“आधी मी बोलते.”
असं म्हणून तिने सकाळी घडलेला किस्सा सांगितला आणि म्हणाली,.. ” तीस वर्षं व्रतवैकल्यं केली,उपासतापास केले. जे केलं ते नक्की कोणासाठी केलं? असं आताशा माझ्या मनात यायला लागलं आहे. कारण जे काही मी करते ते मला वाटतं म्हणून करते, असा सर्वांचा भाव असतो. माझ्या राबण्याला, माझ्या भावनांना किंमत नाही असं आताशा वाटू लागलंय. पण आता बास झालं असं मी ठरवलं आणि इथे येण्याचा निर्णय घेतला. आणखी एक गोष्ट तुम्हाला सांगायची होती….. आमच्या संसाराला तीस वर्षं झाली. आतापर्यंत नातं परिपक्व व्हायला हवं होतं नाही? पण, काहीतरी ‘मिसिंग’ आहे, असं उलटंच वाटायला लागलंय. ‘अपूर्णतेतंच खरा आनंद आहे ‘, ‘ भिन्नतेतच गंमत आहे ‘, वगैरे विचार डोक्यात येतात, पण हे सर्व भंपक आहे असंही वाटतं. तीस वर्षांनंतरही पावलोपावली मतभिन्नता? खरं तर आम्ही नाटक-सिनेमाला जातो, हॉटेलिंग करतो, वर्षांतून दोन तीन ट्रीप असतात. पण आता हेही सर्व रूटीन झाल्यासारखं वाटतं. सगळं निरस होत चाललंय. नवरा वाईट नाही, पण टिपीकल पुरुषी मनोवृत्ती आहे. सध्या मी गोंधळलेली आहे. मला नेमकं काय हवंय ते कळत नाहीये. पण खात्री आहे की कधीतरी सापडेल. तोपर्यंत शोध घ्यायचाय. त्याचाच भाग म्हणून मी इथे आल्येय.” .. दीर्घ श्वास घेऊन ती थांबली. आता आपण बोलायचं आहे हे ओळखून, प्रधान आजींनी डोळे मिचकावत तिला विचारलं,
” हं…. तर काय जाणून घ्यायचंय माझ्याबद्दल…..?”
” किती छान आहात तुम्ही. खरं तर स्वतः विषयी जे जे सांगाल ते सर्व ऐकण्याची उत्सुकता आहे.”
ह्या तिच्या वक्तव्यावर प्रधान आजी हसून म्हणाल्या,
” मी अरुणा प्रधान, वय वर्षे शहात्तर. एक मुलगा आहे, ऑस्ट्रेलियात असतो. पस्तीस वर्षं अर्धांगिनी होऊन संसार केला, आता गेली पंधरा वर्षं लिव्ह इन रिलेशनशिप मध्ये राहते. नाही… नाही…. गैरसमज करून घेऊ नकोस. नवरा तोच आहे. माझ्यापुरतं मी स्टेटस बदललंय. आता मी अर्धांगिनी नाही आणि वामांगीही नाही. संसारात राहूनही अलिप्त झाल्येय. गरज असेल तेव्हा आम्ही एकमेकांना जमेल तेवढी मदत करत असतो. पण एकमेकांवर अवलंबून नाही, उत्तरदायी नाही. आम्ही एकमेकांना मोकळं केलं आहे.”
” म्हणजे एका वेगळ्याच प्रकारे तुम्ही वानप्रस्थाश्रम एन्जॉय करताय….” ती हसत हसत म्हणाली.
” अगदी बरोबर ! अगं, पंधरा वर्षांपूर्वी माझ्या स्टोरीत नवऱ्याची, मुलाची, सुनेची, नातवंडांची स्टोरी इतकी मिसळलेली होती की ती फक्त माझी स्टोरी नसायची. आता मात्र तसं नाहीये. माझी स्टोरी ही फक्त माझीच स्टोरी आहे. ‘ या जन्मावर या जगण्यावर शतदा प्रेम करावे,’ असं पाडगांवकरांनी म्हटलंय. पण असं प्रेम करण्यासाठी आपल्याला नोकरी-व्यवसाय करताना, संसाराचा गाडा ओढताना वेळ कुठे मिळतो? आणि म्हणूनच आपल्यासारख्यांच्या आयुष्यात, वानप्रस्थाश्रम महत्त्वाचा टप्पा ठरतो. सहजीवनातील प्रेम, आदर, मैत्री आणि सहवासाची गरज उतार वयातही असते. पण सहजीवनाच्या बरोबरीने स्वजीवनही असतंच की…. आणि म्हणूनच स्वजीवनाचा आनंद घेण्यासाठी मी स्वतःला बंधनातून मोकळं केलंय.”
” प्रधान साहेबांचं काय मत आहे? “
तिने उत्सुकतेने विचारलं.
” तुला काय वाटतं, तूच कल्पना करून सांग.”
प्रधान आजींच्या प्रश्नाने ती भांबावली. तिचा चेहरा पाहून त्या खळखळून हसल्या आणि म्हणाल्या,
“अगं, माझा नवरा जगावेगळा आहे. त्याचं म्हणणं असं आहे, की आपला संसार कसा असावा, आपलं नातं कसं असावं ह्याचा विचार समाजाच्या अदृष्य दडपणाखाली बरीचशी जोडपी ठरवत असतात. संसारातील गोडी टिकवायची असेल तर, प्रत्येक जोडप्याने दर दहा वर्षांनी किमान सहा महिन्यांसाठी वेगळं रहायला हवं. माझ्या नवऱ्याची अशी मतं असल्यामुळे मला निर्णय घेणं खूपच सोपं गेलं. ‘ लिव्ह इन रिलेशनशिप ‘ ही कल्पना त्याला बेहद्द आवडली. खरं सांगू, बंधन नसल्यामुळे आता आम्ही एकमेकांना उलट जास्तच समजून घेतो.”
तिचा गंभीर चेहरा पाहून आजींनी तिला जवळ घेतलं. तिच्या चेहऱ्यावरून मायेने हात फिरवत त्या म्हणाल्या, ” नको काळजी करू एवढी. उद्या रात्रीपर्यंत इतकी धमाल कर, की घरी जाताना एकदम फ्रेश वाटलं पाहिजे. अधूनमधून इथे येत जा. वर्षातून एकदोनदा, दहा पंधरा दिवसांची सोलो ट्रीप कर. बघ तुझ्यात कसा आमूलाग्र बदल होतो की नाही ! शेवटी एकच कानमंत्र देते, जी गोष्ट सहज प्राप्य असते तिची किंमत नसते.”
— समाप्त —
लेखक – श्री श्रीपाद सप्रे
संग्रहिका : डॉ. भारती माटे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈