हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विसंगति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विसंगति

आनंद बाँटने का

मुझ पर

अभियोग चला,

पीड़ा बेचने वाले ने

मेरा मुकदमा सुना।

©  संजय भारद्वाज 

दोपहर 12:19 बजे, 26.10.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #78 ☆ कविता – अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता अनुस्वार  ।  इस विचारणीय  कविता  के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 78 ☆

☆ कविता अनुस्वार ☆

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “ कारण। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 ☆

☆ कारण ☆

 “लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”

इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर !  वहाँ  चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद  है !” अनीता ने कहा, ”  यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे । और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे । मोबाइल पर कुछ देखेंगे ।”

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,”  अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकुँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, “तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि  तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आँख से आँसू निकल गए, “घर जा कर सास की जली कटी बातें सुनने से अच्छा है यहाँ सुकून के दो चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 39 ☆ सॉरी का चलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “सॉरी का चलन ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 39 – सॉरी का चलन ☆

कुछ लोगों को ये शब्द इतना पसंद आता है, कि वे कामचोरी करने के बाद इसका प्रयोग यत्र-तत्र करते नजर आ जाते हैं। उम्मीदों की गठरी थामकर जब कोई चल पड़ता है, तो सबसे पहले इसी शब्द से उसका पाला पड़ता है। जिसकी ओर भी उम्मीद की नज़र से देखो वो अपना पल्ला झाड़कर,आगे बढ़ जाता है। अब क्या किया जाए कार्य तो निर्धारित समय पर करना ही है, सो बढ़ते चलो, जो मेहनती है, वो अवश्य ही अपने उदेश्य में सफल होगा ।

क्षमा कीजिए का स्थान सॉरी शब्द ने तेजी के साथ हड़प लिया है। सनातन काल से ही क्षमा को वीरों का अस्त्र व आभूषण कहा जाता रहा है। इसका प्रयोग कमजोर लोग नहीं कर पाते हैं, वे क्रोधाग्नि में आजीवन जलकर रह सकते हैं किंतु अपना हृदय विशाल कर किसी को माफ नहीं कर सकते। जैन धर्म में तो क्षमा पर्व का आयोजन किया जाता है। जिसमें वे एक दूसरे से हाथों को जोड़कर अपनी जानी – अनजानी गलतियों के प्रति प्रायश्चित करते हुए दिखते हैं।

अच्छा ही है, अपनी पुरानी भूलों को भूलकर आगे बढ़ना ही तो सफल जिंदगी का पहला उसूल होता  है। पापों को धोने की परंपरा तो अनादिकाल से चली आ रही है। पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर हम यही तो करते चले आ रहे हैं।

क्षमा की बात हो और महात्मा गांधी जी का नाम न आये ये तो बिल्कुल उचित नहीं है। जिनका मन सच्चा होता है वे किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हो सकता है किसी व्यस्तता के चलते आज उन्होंने सॉरी कहा हो पर जैसे ही अच्छे दिनों की दस्तक होगी अवश्य ही हाँ कहेंगे, “अरे भई मेरी ओर भी निहारा कीजिए, हम भी लाइन में खड़े होकर कब से दस्तक दे रहे हैं।”

समय पर समय का साथ भले ही छूट जाए पर ये शब्द कभी नहीं छूटना चाहिए। आज वो सॉरी कह रहे हैं कल  सफ़लता हासिल करने के बाद आप भी इसे बोल सकते हैं। जिस तरह ब्रह्मांड में ऊर्जा घूमती रहती है, कभी नष्ट नहीं होती, ठीक वैसे ही ये शब्द  व्यक्ति, स्थान, भाव, उदेश्य को बदलता हुआ इस मुख से उस मुख तक चहलकदमी करता रहता है। लोगों को तो अब इसका अभ्यास हो चुका है। बात- बात पर सॉरी कहा औरआगे बढ़ चले।

बस कहते – सुनते हुए आगे बढ़ते रहें यही हम सबका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 46 ☆ राष्ट्र अस्मिता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “राष्ट्र अस्मिता .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 46 ☆

☆ राष्ट्र अस्मिता  ☆ 

भारतवासी भूल न जाना

राष्ट्र अस्मिता के हमले

घायल ये इतिहास पड़ा है

बन्द करो घातक जुमले।।

 

ऊँच- नीच और भेदभाव में

लुटे-पिटे हो तुम सारे

गलती पर गलती करते हो

जागो- जागो अब प्यारे

भूल न जाना क्रूर सिकंदर

भूल न जाना गजनी को

भूल न जाना तुगलक, गौरी

भूल न जाना मदनी को

 

ऐक्य बनाकर चलो सँभलकर

याद करो घाती पिछले।।

 

बाबर को तुम भूल न जाना

उसके रौरव जुल्मों को

मंदिर ढाए, बुर्ज बनाए

देखो सारे उल्मों को

भूल ना जाना नादिरशाह के

खूनी  रक्तापातों को

जुल्म न भूलें औरँगजेबी

शाहजहाँ की घातों को

 

अकबर के भी जुल्म न भूलो

फिर बन जाओगे पुतले।।

 

आसफ खां को भूल न जाना

मत भूलो शाह सूरी को

नहीं बाजबा खान को भूलो

मत भूलो अजमूरी को

देश को लूटा सब मुगलों ने

जमकर ही विनाश किया

अहंकार और जातिवाद ने

भारत सत्यानास किया

 

माटी की सब लाज बचाओ

याद करो कैसे कुचले।।

 

भूल न जाना तुम गोरों को

कैसे कत्लेआम किए

भाई- भाई खूब लड़ाए

सत्ता अपने नाम किए

भूल न जाना डलहौजी को

जिसने गोली प्रहार किए

नहीं भूलना डायर को भी

मानव नरसंहार किए

 

निर्दोषों का खून न भूलें

भूलों से भी ना पिघले।।

 

लूटा जमकर सभी खजाना

देश मेरा कंगाल किया

छोटे से इंग्लैंड ने खुद को

जमकर मालामाल किया

देश बाँटकर, लूटपाट कर

वैभव अपना बढ़ा लिया

मैकाले शिक्षा पद्धति से

नया बवंडर खड़ा किया

 

काले अंग्रेजो जागो

करो न नहले पर दहले।।

 

आजादी के बाद देखता

भारत की तस्वीर को

क्या सपने थे बलिदानी के

भूल गए सब पीर को

स्वारथ में सब लीन हो गए

छोड़ें अपने तीर को

श्रद्धांजलियाँ अर्पित कर दो

अनगिन भगत सुवीर को

 

भूल न जाओ शहादतों को

कुछ बन जाओ तुम उजले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आंदण ☆ श्री प्रकाश लावंड

☆ कवितेचा उत्सव ☆ आंदण ☆ श्री प्रकाश लावंड ☆ 

काढू नको उणेदुणे

नको अनावर त्रागा

पाल इथलं उठलं

शोध दुसरी जागा

 

एक हात सुटता

का तुझा जीव कुढे ?

तुला आधार द्यायला

दहा हात येतील पुढे

 

टाक गाडून इथेच

इथल्या आठवणी

फेक चावऱ्या वहाणा

चाल गड्या अनवाणी

 

तुझ्या दुखऱ्या पावलांना

जडो मखमली कोंदण

विधात्याने दिलीय तुला

सारी पृथ्वीच आंदण

 

© श्री प्रकाश लावंड

करमाळा जि.सोलापूर.

मोबा 9021497977

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – धूर्त मंत्रिपुत्र ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – धूर्त मंत्रिपुत्र ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? बोध कथा?

कथा ४. धूर्त मंत्रिपुत्र

अयोध्या नगरीत एक राजा होता. त्याला फुलांचे भयंकर वेड होते. त्याने त्याला आवडणाऱ्या विविध प्रकारच्या फुलांचे एक ‘पुष्पउद्यान’ तयार करून घेतले होते. तो आपलं विश्रांतीचा काळ त्या पुष्पोद्यानातच घावलीत असे व भरपूर आनंद उपभोगीत असे.

राजाचा एक मंत्री होता. त्याचा एक पुत्र दररोज त्या उद्यानात जाऊन फुले चोरीत असे. त्यामुळे त्या उद्यानातील बरीचशी फुले नष्ट झाली होती. हे लक्षात येताच राजाने माळ्याला बोलावून “माझ्या उद्यानात उमललेली फुले कोणीतरी चोरून नेत आहे. तेव्हा तू पहारा ठेवून त्या चोराला पकडून आण” असा आदेश दिला. आदेशानुसार माळ्याने जागता पहारा ठेवला. तेव्हा मंत्रिपुत्र फुले तोडतोय हे पाहून त्याला तत्काळ फुलांसह पकडून पालखीत बसवून नगरीत नेले.

त्यावेळी तो मंत्री नगरद्वाराजवळच होता. त्याला पाहून माळी म्हणाला, “तुझा हा पुत्र पुष्पोद्द्यानात फुले चोरत होता. त्याला आम्ही राजाजवळ नेत आहोत. तेव्हा याला राजगृही जाऊन सोडविण्याचा प्रयत्न करू नकोस.” हे ऐकून मंत्री त्याच्याकडे बघून “जर जगायचं असेल तर तोंड आहे. तुम्ही जा” असे मोठ्याने बोलला.

मंत्र्याचे हे शब्द ऐकून व त्याचा अभिप्राय लक्षात घेऊन मंत्रिपुत्राने स्वतःजवळ असलेली सगळी फुले खाऊन टाकली. नंतर राजाजवळ गेल्यावर राजाने “तू फुले का तोडलीस?” असे विचारताच मंत्रिपुत्र म्हणाला, “महाराज, मी आपले उद्यान बघण्यासाठी गेलो होतो. तिथे फुले तोडण्यासाठी नाही. मला ह्या माळ्याने अन्यायाने व जबरदस्तीने पकडले आहे.”

मंत्रिपुत्राजवळ फुले मिळाली नाहीत. तेव्हा माळ्याने मंत्रिपुत्राला अन्यायाने व जबरदस्तीनेच पकडले आहे असे निश्चित ठरवून राजाने माळ्यालाच दंड केला व मंत्रिपुत्राला सोडून दिले.

तात्पर्य – बुद्धिमान लोक ओढवणाऱ्या संकटाचा विचारपूर्वक सामना करतात.

 

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

कथासरिता उपक्रम साहित्य कट्टा,संयोजन- डॉ. नयना कासखेडीकर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा – पाऊस-4 ☆ श्री आनंदहरी

☆ जीवनरंग ☆ कथा – पाऊस-4 ☆ श्री आनंदहरी ☆

पावसाने मध्ये जरा ओढ दिली असली तरी पुन्हा पाऊस हवा तसा लागला होता. बारा आणे पीक तरी पदरात पडणार होते.. ती खुश होती.. गावंदरीचा भुईमूग काढायला आला होता. बिरोबाच्या शिवारातलं सोयाबीन काढायला आले होतं. सगळ्यांचीच सुगीची गडबड चाललेली त्यात कामाला माणूस तरी कुठून मिळणार. ती गावात फिरून आली.  दोन दिवसाने सोयाबीन काढायला यायला दोघीजणी तयार झाल्या.

घरी आल्यावर ते सारे नवऱ्याला सांगून म्हणाली,

“उद्या येरवाळचं जाऊन हुईल तेवडा भुईमूग उपटून टाकूया. उपटून हुतील ती समदं याल बांधून घरला घेऊन येऊ..”

“घरला ? ती कशापाय ?”

नवरा कावदरला… तरीही ती शांतपणे म्हणाली,

“अवो, द्वारकामावशी हाय , ती बसल शेंगा तोडत काय हुतील त्येवड्या.. तिला रानात जायाचं हुत न्हाय पर हितं ईल..”

तो काहीच बोलला नाही. ती पुढं म्हणाली,

“आन सोयाबीन काढायचं काम करून आल्याव मी बी तोडीन की पारभर.. अवो, सुगीच्या दिसात हुईल त्येवडं वडाय लागतंयच की काम.  ”

येरवाळी जाऊन दिवसभरात होईल तेवढा भुईमूग उपटला.., ,दोघांनी वेलांचं एकेक वजं सोप्यात आणून टाकलं..

जेवणं झाली.. थोडावेळ शेंगा तोडून ती आडवी झाली.. लगेच डोळा लागला.. तिला कसल्याशा आवाजाने जाग आली. उठून पाहतेय तर रप रप पाऊस सुरू झालेला..  तिने दार उघडून पाहिलं…सगळ्या पावसाळ्यात झाला नव्हता असला पाऊस पडत होता. तिचा जीव खालवर होऊ लागला.  तिने नवऱ्याला हाक मारली. आणि म्हणाली ,

“अवो, कसला पाऊस पडाय लागलाय बगा की वाईच.. भुईमूग उपटून टाकलाय त्येवडा तरी आणूया..”

नवरा या कुशीवरून त्या कुशीवर वळत म्हणाला,

“काय न्हाय हुइत त्येला.. बघू सकाळच्या पारी.. झोप आता..”

तो लगेच झोपुनही गेला पण तिला काही झोप लागली नाही.

पाऊस कोसळतच होता.झुंजूमंजू झाल्यावर  तसल्या पावसात ती भुईमुगाच्या वावराकडे निघाली,.. साऱ्या शिवारात गुडघाभर पाणी झाले होते सगळा भुईमूग पाण्याखाली गेला होता ..उपटून ढीग लावलेले भुमुगाचे वेल ..एखाद- दुसरा वेल पाण्यावर तरंगताना दिसत होता तेवढा सोडला तर बाकी सारे वाहून गेले होते.. मनात उदासीनतेचा, निराशेचा पाऊस सुरू झाला होता.. तिच्या मनात आले.. हितं पाऊस कोसळतोय तेवढा बिरोबाच्या शिवारात नसेल कदाचित.. मनातल्या विचारासारशी ती तडक बिरोबाच्या शिवाराकडे गेली.. पाऊस तिथेही कोसळत होताच.. वावराला घातलेल्या हातभर तालीवरून पाणी वाहत होतं. सारे रान भरून वाहणाऱ्या शेततळ्यासारखं दिसत होते.. जणू पावसाने सोयाबीन पिऊन टाकला होतं..

ती भान विसरून पावसात चिंब भिजत सोयाबीनच्या रानाकडे एकटक पहात होती.. निर्मितीचा नाश होत असल्याची वेदना तिच्या गालावरून आसवं होऊन ओघळत होती..  साऱ्या आसमंतात तिच्या त्या आसवांचाच पाऊस कोसळत राहिला.

◆◆◆

(समाप्त)

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आपले निर्व्याज गुरू ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

☆ विविधा ☆ आपले निर्व्याज गुरू ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

आत्ताच्या विज्ञान युगात खूप वेळा पुस्तके, ग्रंथ, मोबाईल, संगणक यांच्याद्वारे आणि नेटवरुन मिळणारी माहिती खूप उपयोगी पडते. ही माहिती खरी असते. त्यांच्याकडून भेदभाव होत नाही. गुरु करण्याआधी आपण सर्वप्रथम त्यांची कथनी व करनी याबाबतीत निरीक्षण व मनन,चिंतन केले पाहिजे. त्याला कसोटी लावलीच पाहिजे असा दंडक आहे.गुरु हा त्याच्या ज्ञान व सदाचरणावरून ठरतो. वयावरुन नाही. गुरु ही शक्ती आहे व्यक्ती नाही. वर्तमानकाळात गुरु परंपरेलाही किड लागू पाहत आहे. त्यांचे व्यापारीकरण होत आहे. त्यांच्याकडून स्रियांचे लैंगीक शोषण होत आहे. याबाबतीत खुप सावध रहावे लागत आहे. असे गुरु संकट दूर करण्याऐवजी संकटे निर्माण करतात. हे देवदूत नसून यमदूत आहेत. साधू नसून संधीसाधू आहेत. म्हणून मला पुस्तक, संगणक हे गुरु मला विश्वासू वाटतात. या दोन्ही गुरुंचे वर्णन करणाऱ्या कविता केल्या आहेत.

पुस्तक

पुस्तक असे आमचा गुरु आणि मित्र

त्यानेच घडवले अनेकांचे अंतर

त्यानेच उलगडले अनेकांचे अंतर

पुस्तक वाचता वेळ जाई मजेत

ती एक असे वेगळीच संगत

रुपे त्याची अनेक अन् कित्येक जन्मदाते

भाषाही त्यांच्या अनेक

मर्यादा नसे कोणत्याच गोष्टींची  परी मर्यादा पडे त्यासी

मार्गदर्शन, मनोरंजन करी सर्वांचे

भेदभाव नसे तयापाशी

तो एक प्रसिध्दिचा अन् संग्रहाचा मार्ग

ते एक उत्तम प्रसारमाध्यम

ग्रंथालय असे त्यांचे घर

जगाच्या पाठीवर सर्वत्र त्यांचे अस्तित्व

पण शेवटी पुस्तक करी विनंती

‘मी जरी मुका तरी वाचकांनो

जाणा माझे अंतर

दुमडू नका, फाडू नका माझी पाने

सांभाळूनी ठेवा मला

माहिती अन् स्फूर्ती घेऊन माझ्याकडून

घडवा आपुले भविष्य सूंदर’

आणि आता

संगणक

संगणक तू संगणक

आहेस माहितीचा साठक

आयुष्याचा अविभाज्य घटक

नवीन दिशांचा प्रेरक

पुढील प्रवासाचा संयोजक

तरीही आमचा सहचालक

आहेस संपर्काचा साधक

असतो तुला मालक

कित्येक क्षेत्रांचा दर्शक अन् संचालक

देतोस माहिती करतोस करमणूक

आहेस माहीतीचा अन् मालाचा वितरक

नवीन कल्पनांचा सुचक

जुन्यानव्या मैत्रीचा योजक

तसाच आनंदाचा आयोजक

रिकाम्या वेळाचा नियोजक

तुच असशी आमचा मार्गदर्शक

तसाच निरोपाचा वितरक

जन्मदाता तुझा एक संशोधक

साथी तुझा नेटवर्क

मग लागतो तुला संरक्षक

तूच एक संगणक

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जीवन गाणे -4 ☆ सौ. अंजली गोखले

☆ मनमंजुषेतून ☆  जीवन गाणे -4 ☆ सौ. अंजली गोखले ☆

किशोर वयातले ते अल्लड, अबोध कळी पण हळूहळू उमलत जाते, तस तसे अवतीभोवतीचे खरे वास्तव लख्ख दिसायला लागते ,  जाणवायला लागते. तारुण्याच्या उंबरठ्यावर डोळ्यांची पाखरं फडफडायला लागतात,  मनाला फुलपाखरी पंख फुटतात. स्वप्नांच्या ढगांमध्ये मुक्तपणे संचार सुरू होतो. एवढ्याश्या मनामध्ये, इवल्याशा नजरेची स्वप्न असंख्य असतात, , अभ्यासाची असतात करियरची असतात, मोठेपणी आई-वडिलांना आधार देण्याची असतात, मित्र-मैत्रिणींची असतात, आयुष्याच्या जोडीदाराची असतात, मोठ्या पगाराची नोकरी मिळवण्याची असतात.कोणाला मिलिटरी मध्ये जायचे असते, कोणाला क्रिकेटर बनायचे असते, कोणाला शास्त्रज्ञ तर कोणाला सर्जन!उन्हाळ्यामध्ये बहावा कसा फुलून, पिवळ्या जर्द नाजूक फुलांनी डवरलेला असतो, डोलत असतो, गुलमोहर गडद लाल फुलांनी आकर्षून घेत असतो, तसे तारुण्यातल्या मनाला ही सगळी स्वप्न खुणावत असतात.ती स्वप्न गाठण्यासाठी प्रयत्नांची पराकाष्ठा सुरू असते.ज्यांना मनासारखे यश मिळते, ते सुखाने मनोराज्यात मुक्तपणे विहार करतात.ज्यांचे निम्मी किंवा अखे तरूणपण त्यांना पकडण्यात जाते, त्यांच्या मनाला ओरखडे पडतात, त्यांच्या स्वप्नांचे पक्षी दूर दूर भरकटत निघून जातात आणि उरते एकाकीपण!सभोवताली निराशेचे ढग जमायला लागतात.जीवनाला सुरवंटाचे काटे टोचायला लागतात आणि अपयशाने खचून जायला होते.यास  सुरवंटी अवस्थेमध्ये , एखादा जरी सोबतीचा हात मिळाला, सहानुभूतीची हलकीशी थाप पाठीवर पडली, तरी ते आयुष्य सावरायला मदत मिळते आणि बघता बघता आयुष्याची पन्नास-पंचावन्न वर्षे भुरकन सरतात.इतरांसाठी करता-करता, स्वतःच्या इच्छा , अपेक्षा, आवड गुंडाळून ठेवलेली असते.आयुष्याची संध्याकाळ खुणावायला लागते.

नेमक्या याच वळणावर आपल्या आयुष्याची, आरोग्याची, आपल्या माणसांची खरी किंमत कळते.काहींना”संध्याछाया भिवविती हृदया”हे जाणवायला लागते तर अनेकांना अनेक व्याधींचा  विळखा पडलेला असतो. त्यांना दवाखान्याचे खेटे घालावे लागतात, वेळच्यावेळी औषध पाण्याच्या वेळा सांभाळण्यात सहकार्याची दमछाक होते.आपल्या गाडीचा वेग मंदावलाय हे समजते. काहीजण मात्र यासाठी नंतर अतिउत्साही बनतात. आपले छंद जोपासतात. आपला आनंद आपणच शोधतात. पर्यटनाचा आनंद उपभोगतात. मित्रमंडळीत रमतात. वाचन मनन चिंतन आणि चर्चा अशा मधून एकमेकांशी संवाद साधतात. तरुणपणी जे करायला मिळाले नाही, जे छंद जोपासायला मिळाले नाही त, आयुष्यातले जे क्षण वाळूसारखे हातातून गेलेले असतात, ते पुन्हा पकडण्याचा प्रयत्न करतात आणि जीवनाची संध्याकाळ मनासार खी उपभोगतात.

© सौ. अंजली गोखले

मो ८४८२९३९०११

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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