मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १३ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १३ – भाग ७ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ लक्षद्वीपचा रंगोत्सव – भाग ३ ✈️

या तीनही बेटांवर आम्हाला कावळे सोडून पक्षी दिसले नाहीत. फार थोड्या गाई व कोंबडे दिसले. समुद्रपक्ष्यांच्या एक-दोन जाती मनुष्य वस्ती नसलेल्या पिट्टी बेटावर आहेत असं कळलं. लक्षद्वीप बेटांपैकी बंगाराम,तिनकारा,अगत्ती अशी बेटे परकीय प्रवाशांसाठी राखीव आहेत. तिथे हेलिपॅडची सुविधा आहे. इथल्या गडद निळ्या, स्वच्छ जलाशयातील क्रीडांसाठी,कोरल्स व मासे पाहण्यासाठी परदेशी प्रवाशांचा वाढता ओघ भारताला परकीय चलन मिळवून देतो.

कोरल्स म्हणजे छोटे- छोटे आकारविहीन  समुद्र जीव असतात. समुद्राच्या उथळ, समशीतोष्ण पाण्यात त्यांची निर्मिती होते. हजारो वर्षांपासूनचे असे जीव त्यांच्यातील कॅल्शिअम व एक प्रकारचा चिकट पदार्थ यामुळे कोरल रीफ तयार होतात. ही वाढ फारच मंद असते. या रिफस् मुळेच किनाऱ्यांचं संरक्षण होतं. संशोधकांच्या म्हण़़ण्याप्रमाणे जागतिक तापमानवाढीमुळे आर्टिक्ट व अंटार्टिक यावरील बर्फ वितळत असून त्यामुळे जगभरच्या समुद्रपातळीत झपाट्याने वाढ होत आहे. लक्षद्वीप द्वीपसमूहातील बेटं समुद्रसपाटीपासून केवळ एक ते दोन मीटर उंच आहेत. त्यावर डोंगर /पर्वत नाहीत तर पुळणीची वाळू आहे. या द्वीपसमूहातील बंगाराम या कंकणाकृती प्रवाळबेटाचा एक मनुष्य वस्ती नसलेला भाग २०१७ मध्ये समुद्राने गिळंकृत केला. आपल्यासाठी पर्यावरण रक्षणाचे महत्त्व पटविणारा हा  धोक्याचा इशारा आहे.

प्रवासाच्या शेवटच्या दिवशी सकाळी ११ वाजता आमची बोट कोचीन बंदराला लागणार होती. थोडा निवांतपणा होता. रोजच्यासारखे लवकर आवरून छोट्या बोटीत जाण्याची घाई नव्हती. म्हणून सूर्योदयाची वेळ साधून डेकवर गेलो. राखाडी आकाशाला शेंदरी रंग चढत होता. सृष्टी देवीने हिरव्यागार नारळांचे काठ असलेलं गडद निळं वस्त्र परिधान केलं होतं . उसळणाऱ्या पाण्याच्या लांब निर्‍या करून त्याला पांढऱ्या फेसाची किनार त्या समद्रवसने देवीने  लावली होती.पांढऱ्याशुभ्र वाळूतील  शंख, खेकडे, समुद्रकिडे त्यांच्या छोट्या- छोट्या पायांनी सुबक, रेखीव रांगोळी काढत होते. छोट्या-छोट्या बेटांवर नारळीच्या झाडांचे फ्लाॅवरपॉट सजले होते .अनादि सृष्टीचक्रातील एका नव्या दिवसाची सुरुवात झाली. आभाळाच्या भाळावर सूर्याच्या केशरी गंधाचा टिळा लागला. या अनादिअनंत शाश्वत दृश्याला आम्ही अशाश्वतांनी नतमस्तक होऊन नमस्कार केला.

लक्षद्वीप समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆ सुकून ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “सुकून। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆

☆ सुकून ☆

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

यह कैसी ख़ामोशी है

जो माहौल में अमावस बन छायी है?

वक़्त ने भी जाने क्यों

ले ली अंगडाई है?

कहाँ गया वो दिल का जुनून है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

आँखों में जाने कैसे अब्र हैं

जो झूमते भी नहीं और बरसते भी नहीं?

ज़हन में जाने कैसी हलचल है

कोई भी मंज़र इसे जंचते ही नहीं…

यह डूबता हुआ सूरज जाने कैसा शगुन है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

ऐ उड़ते हुए परिंदे

तुमने न जाने क्या ठानी है?

यह उड़ना तुम्हारा…यही तो…

हमारी मौजूदगी की निशानी है…

बजने लगी तुमको देख मेरे भी दिल में गुनगुन है…

बस करीब आने ही वाला सुकून है…

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “कोई रहा नहीं हमदम है…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है … ☆ 

सजल

समांत-अम

पदांत-है

मात्राभार- १६

 

रोती आँखें सबको गम है।

लूट रहे उनमें दमखम है।।

 

अट्टहास वायरस है करता,

सबकी आँखों में डर-सम है।

 

आक्सीजन की नहीं व्यवस्था,

देख सिलेंडर में अब बम है।

 

धूम मची है नक्कालों की,

उखड़ी साँसें निकला दम है।

 

बन सौदागर खड़े हुए अब,

कोई रहा नहीं हमदम है ।

 

लाशों का अंबार लग रहा,

आँख हो रही सबकी नम है ।1

 

लोग अधिक हैं लगे पंक्ति में ।

वैक्सीन की डोजें कम है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

18 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – रहस्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – रहस्य ?

…जादूगर की जान का रहस्य, अब रहस्य न रहा। उधर उसने तोते को पकड़ा, इधर जादूगर छटपटाने लगा।

….देर तक छटपटाया मैं, जब तक मेरी कलम लौटकर मेरे हाथों में न आ गई।

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 2:29, 2.2.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 117 ☆ एक शब्द चित्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता ‘एक शब्द चित्र’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 117 ☆

? कविता – एक शब्द चित्र  ?

 

मरीचिका मृग छौने की ,

प्रस्तर युग से कर रही ,

विभ्रमित उसे।

 

मकरन्द की,

अभिनव चाह,

संवेदन दे रही भ्रमर को नये नये ।

 

घरौंदे की तलाश में,

कीर्ति, यश की चाह में,

आकर्षण अमरत्व का,

पदचिन्ह खूबसूरत सा,

कोई बना पाने को,

मानव है भटक रहा ।

शुबहा शक नहीं,

इसमें कहीं,

भटकतों को मंजिल है,

मिलती नहीं ,

कामना है यही इसलिये,

मझधार में कोई न छूटे,

नाव खेने में जिंदगी की,

न साहस किसी का टूटे ।

 

ये विपदाओं से खेलने की शक्ति,

हर किसी को मिले,

कि जिससे हर कली,

फूल बन खिले ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 99 – लघुकथा – ओरिजनल फोटो ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “ओरिजनल फोटो। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 99 ☆

? लघुकथा – ओरिजनल फोटो ?

शहर की भीड़भाड़ ईलाके के पास एक फोटो कापी की दुकान। विज्ञापन निकाला गया कि काम करने वाले लड़के – लड़कियों की आवश्यकता है, आकर संपर्क करें।

दुकान पर कई दिनों से भीड़ लगी थीं। बच्चे आते और चले जाते। आज दोपहर 2:00 बजे एक लड़की अपना मुंह चारों तरफ से बांध और ऐसे ही आजकल मास्क लगा हुआ। जल्दी से कोई पहचान नहीं पाता। दुकान पर आकर खड़ी हुई।

मालिक ने कहा कहां से आई हो, उसने कहा… पास ही है घर मैं समय पर आ कर सब काम कर जाऊंगी। मेरे पास छोटी स्कूटी है। दुकानदार ने कहा ..जितना मैं पेमेंट  दूंगा तुम्हारे पेट्रोल पर ही खत्म हो जाएगा। तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा।

लड़की ने बिना किसी झिझक के कहा… सर आप मुझे नौकरी पर रखेंगे तो मेहरबानी होगी और एक गरीब परिवार को मरने से बचा लेंगे।

जानी पहचानी सी आवाज सुन दुकान वाले ने जांच पड़ताल करना चाहा। और कहा… अपने सभी कागजात दिखाओ और अपने चेहरे से दुपट्टा हटाओं, परंतु लड़की ने जैसे ही अपना चेहरा दुपट्टे से हटाया!!! अरे यह तो उसकी अपनी रेवा है जिसे वह साल भर पहले एक काम से बाहर जाने पर मिली थी।बातचीत में शादी का वादा कर उसे छोड़ आया था। उसने कहा ..जी हां मैं ही हूं…. आपके बच्चे की मां बन चुकी हूं। अपाहिज मां के साथ मै जिंदगी खतम करने चली थी, परंतु बच्चे का ख्याल आते ही अपना ईरादा बदल मैंने काम करना चाहा।

आज अचानक आपका पता और दुकान नंबर मिला। मैं नौकरी के लिए आई।मैं आपको शादी के लिए जोर नहीं दे रही। वह मेरी गलती थी, परंतु आपके सामने आपके बच्चे के लिए मैं काम करना चाहती हूं।

फोटो कापी के दुकान पर अचानक सभी तस्वीरें साफ हो गई । अपने विज्ञापन को वह क्या समझे??? कभी रेवा के कागज तो कभी उसके बंधे हुए बेबस चेहरे को देखता रहा।

उस का दिमाग घूम रहा था। जाने कितने फोटो कापी मशीन चलाता रहा और जब ओरिजिनल सामने आया तब सामना करना मुश्किल है????

तभी आवाज आई कितना पेमेंट देगें मुझे आप?????

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (31-35) ॥ ☆

 

गुरू दक्षिणा हेतु ही सिर्फ लेता औं याचक की इच्छा से अति दान दाता

कौत्स्य और रघु हुये दोनो सुविख्यात, अयोध्या के इतिहास से जिनका नाता। 31।

 

प्रसन्न मन हर्षित कौत्स्य ने तब अनेक उष्ट्राश्वों पै लदा धन

विनम्रता में झुके नृपति से कहा, बढ़ा हाथ औं छूते तन – मन ॥ 32॥

 

हे राजवृत रघु जो यह यह धरा तव हे कामदा तो विचित्र क्या है ?

प्रभाव ही है यह आपका जो सभीत नभ ने भी धन दिया हैं ॥ 33॥

 

समस्त कल्याण से युक्त है आप, कोई अन्य आशीष पुनरूक्ति होगी

वही खुशी पायें गुणी तनय पा, पिता ने जो पा तुम्हें है भोगी ॥ 34॥

 

आशीष दे कौत्स्य गुरू पास लौटे, रघु ने भी आशीष पा पुत्र पाया

सुत ऐसा जो सूर्य सा दीप्ति चमका, गुणों से जन जन के मन को भाया ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १२ ऑक्टोबर – संपादकीय ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

 

( १२/१०/१९२२ – ६/६/२००२ )

?१२ ऑक्टोबर  – संपादकीय  ?

आज १२ ऑक्टोबर :- कवयित्री शांता शेळके यांचा जन्मदिन .

श्रीमती शांता शेळके या एक अतिशय प्रतिभासंपन्न कवयित्री तर होत्याच, पण त्यांची एकूणच साहित्यिक कारकीर्द चौफेर- चतुरस्त्र अशीच होती, ज्याबद्दल बोलावे तेवढे कमीच आहे. त्या प्राध्यापिका होत्या, गीतकार, उत्कृष्ट लेखिका, कादंबरीकार, अनुवादिका, बालसाहित्यकार,आणि पत्रकारही होत्या. सुरुवातीच्या काळात ‘ वसंत अवसरे ‘ या टोपण नावानेही त्यांनी काव्यरचना केलेल्या आहेत. आचार्य अत्रे यांच्या “ नवयुग “ मध्ये त्यांनी ५ वर्षं उपसंपादक म्हणून काम केले होते. चित्रपट सेन्सॉर बोर्डाच्या , तसेच राज्य नाटक परिनिरीक्षण मंडळाच्या सदस्य म्हणूनही त्यांनी काम केले होते. १९९६ साली आळंदी  येथे झालेल्या अखिल भारतीय साहित्य संमेलनाचे अध्यक्षपद त्यांनी भूषविले होते. त्यांना अनेक पुरस्कार मिळालेले होते. तसेच काही पुरस्कार त्यांच्या नावाने दिले जातात. “ आठवणीतील शांताबाई “, “ शांताबाईंची स्मृतीचिन्हे “, अशासारखी पुस्तकेही त्यांच्या कार्यकर्तृत्वावर लिहिली गेली आहेत. त्यांची अनेक काव्ये खरोखरच अजरामर झालेली आहेत, हे निर्विवाद सत्य आहे. त्यामुळे ‘ निवडक ‘ हा शब्द त्याबाबतीत वापरताच येणार नाही.

स्वतःला उपजतच लाभलेल्या अतिशय संपन्न अशा प्रतिभेच्या प्रत्येक पैलूला सहज सुंदर अशा साहित्य-कोंदणात सजवून,  मराठी साहित्य- शारदेचे तेजच त्यांनी जणू आणखी उजळून टाकले. 

मराठीसाहित्याच्या आकाशातल्या या तेजस्वी ताऱ्याला जणू ध्रुवपद प्राप्त झाले आहे, यात साहित्य-रसिकांचे दुमत असणार नाही. 

श्रीमती शांताबाईंना त्यांच्या आजच्या जन्मदिनी अतिशय मनःपूर्वक आदरांजली ……    ?

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ 

मराठी विभाग. 

संदर्भ : कर्‍हाड शिक्षण मंडळ ‘साहित्य साधना’ दैनंदिनी , गुगल गुरुजी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कात्यायनी ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कात्यायनी… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

शिवोपासक कात्यायन

त्यांची पुत्री तूच महान

तीन नेत्र तू चतुर्भुजा

सहावे दिनी तुझी पूजा !

सिंह वाहिनी स्वाभिमानी

सर्व सुखांची तू जननी

हातात तलवार कमल

भक्तांचे इच्छिसी कुशल !

दृढनिश्चयी राहो मन

ऐसे देई आशीर्वचन!

 

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शांताबाई शेळके यांची कविता – लिंब ☆ स्व शांताबाई शेळके

स्व शांताबाई शेळके

? कवितेचा उत्सव ?

☆ लिंब ☆ स्व शांताबाई शेळके 

(१२ अक्टूबर १९२२ – ६ जून २००२)

निळया निळ्या आकाशाची

पार्श्वभूमी चेतोहार

भव्य  वृक्ष हा लिंबाचा

शोभतसे तिच्यावर

 

किती रम्य दिसे याचा

पर्णसंभार हिरवा

पाहताच तयाकडे

लाभे मनाला गारवा

 

बलशाली याचा बुंधा

फांद्या सुदीर्घ विशाला

भय दूर घालवून

स्थैर्य देतात चित्ताला

 

उग्र जरा परी गोड

गन्ध मोहरास याच्या

कटु मधुर भावना

जणू माझ्याच मनीच्या

 

टक लावून कितीदा

बघते मी याच्याकडे

सुखदुःख अंतरीचे

सर्व करीते उघडे!

 

माझ्या नयनांची भाषा

सारी कळते यालाही

मूक भाषेत आपुल्या

मज दिलासा तो देई 

 

स्नेहभाव आम्हांतील

नाही कुणा कळायाचे

ज्ञात आहे आंम्हालाच

मुग्ध नाते हे आमुचे !

 

    चित्र साभार – Shanta Shelke – Wikipedia

स्व. शांताबाई शेळके

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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