हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा राम-लक्ष्मण। )

☆ लघुकथा – राम-लक्ष्मण ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

इस पावन पर्व पर एक नयी दृष्टि से लिखी ये लघुकथा, श्रीराम को प्रणाम करते हुए :-

राम जब वन में सीता को ढूंढ रहे थे तो उन्हें एक हार दिखाई पड़ा । उन्होंने लक्ष्मण से पूछा-” देखो, ये हार कहीं सीता का तो नहीं है ? ” इस पर लक्ष्मण ने कहा-” भैया, मैंने तो जीवनभर भाभी के चरण ही देखे हैं, मैं हार नहीं पहचान सकता। हाँ, पायल होती तो पहचान लेता। ” यह पौराणिक प्रसंग पढ़-सुनकर मेरा मन लक्ष्मण की इस पावन श्रद्धा के प्रति झुक गया ।

पर एक बात मन में बार-बार उठ भी रही थी कि राम का लक्षण से यह पूछना, क्या लक्ष्मण का अपमान नहीं है ? लक्ष्मण की पावनता को भला राम से ज्यादा कौन जानता होगा ?

इस सोच-विचार मैं मेरी आँख लग गई । और मैंने सपने में राम से पूछ ही लिया-” आपको तो पता ही होगा कि लक्ष्मण की नजरें सीता के चरणों के ऊपर नहीं होंगी, फिर भी हार के बारे में पूछना क्या उचित,था ? ”

राम बोले-” लक्ष्मण स्वयं को जितना नहीं जानता, उतना मैं उसे जानता हूँ । ये तो फ्लो में, टाइम पास के लिए, यूँ ही उस सहजता से पूछ लिया था। जैसे कि तुम लोग जब ट्रेन आने को ही होती है, तब प्लेटफॉर्म पर गर्दन झुकाये देखते ही रहते हो, और जैसे ही इंजन दिखा, आप उस गर्दन से भी कहते हो ट्रेन आ गई, जो गर्दन खुद इंजन को देख रही थी। बस उसी सहज भाव से लक्ष्मण से पूछा था। ” एक पल रुक कर राम पुनः बोले-” ये तो लक्ष्मण के बारे में कवि-भक्त की महानता थी, वैसे मैं बताऊँ, लक्ष्मण ने सिर्फ चरण ही नहीं, सीता का चेहरा भी कई बार देखा है। सम्भवतः मुझसे भी ज्यादा बार । “

राम के इस कथन पर मैं शंकित-सा लक्ष्मण के पास गया और पूछा-” राम का तुमसे पूछना व उनका कथन क्या उचित है ? “

लक्ष्मण ने कहा-” उन्होंने यूँ ही फ्लो में टाइम पास के लिए सहज पूछा होगा। जैसे ट्रेन आते…”

” बस-बस रहने दो। वो ट्रेन का किस्सा राम से सुन चुका हूँ ।आप तो यह बताइए कि क्या आपने सीता का चेहरा भी देखा है ? “

” क्यों नहीं, अनेक बार। सीता जैसा पावन सौन्दर्य युगों बाद धरती पर आता है। वो अभागा होगा, जो इस पावन सौन्दर्य को न देखे। “

” पर वो कवि-भक्त का तो कथन है कि आपकी नजरें सीता के चरणों के ऊपर कभी नहीं गई। “

वह कवि-भक्त की महानता है, कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण। मैं बताऊँ- पाप आँखों में नहीं, मन में होता है। तुम कवि हो । इसलिए कविता के जैसे समझता हूँ ।

” आँखों में जरा झाँकिए

दिल का राज

गहरा दिखाई देता है,

दिल में गर पाप हो

तो कदमों में भी

चेहरा दिखाई देता है। “

मैंने सीता के चरणों भी देखें हैं और सूरत भी। “

” दोनों देखते हो एक साथ। वो कैसे? “

वो ऐसे।कविराज कविता में सुनो-

” सीता के पावन सौन्दर्य में

मैं इतना खो जाता हूँ ,

जब चरण देखता हूँ

तो राम का भाई हूँ

सूरत देखते ही

पुत्र हो जाता हूँ । “

लक्ष्मण फिर बोले-” और सुनो,

” किसी स्त्री का चेहरा उसका पुत्र ही ज्यादा गहराई से पहचानता है, पति से भी ज्यादा। पति चेहरा कम, जिस्म ज्यादा पहचानता है। जबकि पुत्र सूरत, सूरत और सिर्फ सूरत पहचानता है। इसलिए राम ने हार के सम्बन्ध में मुझसे पूछा था। “

इसके बाद मेरी नींद खुल गई । और मेरा मन राम-लक्ष्मण-सीता के प्रति और अधिक श्रद्धा से भर गया । सिर अपने आप झुक गया । हाथ अपने आप जुड़ गए।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #62 – धीरे चलो ☆ श्री आशीष कुमार

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा “यहां से नगर कितनी दूर है?

सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।

अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?’

वृद्ध ने कहा “धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।” भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।

वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।

भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।

उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।

उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा। भिक्षु ने नाराज होकर कहा, “तुम हंस क्यों रहे हो?”

उस व्यक्ति ने कहा, ‘आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।’

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा “साफ साफ बताओ भाई।”

उस व्यक्ति ने कहा “जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य

जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (51-55) ॥ ☆

 

आघात लगते ही उस वन्य हाथी ने रख रूप मनहरण आकाश चारी

जिसकी प्रभा दिव्यतापूर्ण शोभा साश्चर्य गई सैनिको से निहारी ॥ 51॥

 

तब कल्प द्रुम – पुष्प पा दिव्यता से उसने सुमन कुँवर अज पर चढ़ाये

निज रदन प्रभा से बढ़ा हार श्शोभा, उस वाक्पटु ने वचन ये सुनाये ॥ 52॥

 

गंधर्वपति प्रियदर्शन का आत्मज मैं हूँ प्रियवंद था राजरूप शापित

मतंगमुनि ने दिया शाप था मुझ घमण्डी को जिससे था अब तक प्रभावित॥ 53॥

 

मेरी प्रार्थना पर व्यथित कुपित मुनि ने तजक्षोभ सब क्रोध अपना भुलाया

होता है जल अग्नि या धूप से उष्ण प्रकृति ने उसे तो है शीतल बनाया ॥ 54॥

 

लोहा लगे फाल के बाण से जब भेदेंगे ‘अज’ कभी मस्तक तुम्हारा

कहा था उन्होंने तभी मुक्त होगें निपट जायेगा शाप मेरा ये सारा॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १६ ऑक्टोबर  – संपादकीय  – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

? १६ ऑक्टोबर  – संपादकीय  – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ?

*सोपानदेव चौधरी – (१९०७-१९८२)

‘आली कुठूनशी कानी टाळ मृदुंगची धून’ हे गाणे ऐकले की आठवतात सोपानदेव चौधरी. अलौकिक प्रतिभेच्या निसर्गकन्या बहिणाबाई चौधरी यांचे, सोपानदेव सुपुत्र. ते रवीकिरण मंडळाचे सभासद होते. यातील सारे सभासद कवी आपल्या कविता गाऊन सादर करत. सोपानदेव चौधरीही आपल्या कविता गाऊनच सादर करायचे. काव्यकेतकी, अनुपमा, छंद , लीलावती इ. त्यांचे कवितासंग्रह आहेत. आचार्य अत्रे यांच्या सांगण्यावरून ते गद्य लेखनाकडेही वळले.

एकदा नागपूर येथे कविसंमेलनासाठी त्यांना निमंत्रण होते. त्या प्रमाणे ते गेले. त्यांनी आपल्या कविता गाऊन दाखवल्या. श्रोत्यांनाही त्या खूप आवडल्या. पण रिपोर्टमध्ये त्यांचे नाव नव्हते. ते उदास झाले. घरी गेल्यावर बहिणाबाईंनी त्यांना त्याचे कारण विचारले. त्यांनी संगितले. त्यावर बहिणाबाई म्हणाल्या, ‘कुणी प्राणी मारत होता. ते पाहून तिथून जाणार्‍या एका माणसाने त्याचा जीव वाचवला. ‘छापून येणार नाही, म्हणून त्याने तसे केले नसते तर ?’ पुढे त्यांचे उत्स्फूर्त उद्गार आहेत,

‘अरे, छापीसनी आलं ते मानसाले समजलं

छापीसनी राहिलं ते देवाला उमजलं’ किती हृद्य आहे त्यांचं हे समजावणं॰ त्या म्हणाल्या, ‘अरे, तुझी सेवा रुजू झाली ना? मग झालं तर!’

शब्दांवर कोटी करण्याचा त्यांचा छंद होता. ‘मी कोट्याधीश’ आहे असे ते म्हणायचे.पुढे पुढे यांना कॅन्सर झाला. त्या काळात हॉस्पिटलमध्ये पडून पडूनही त्यांनी १०-१५ कविता लिहिल्या. एकदा शंकर वैद्य त्यांना भेटायला गेले आणि त्यांच्या अस्थिपंजर देहाकडे पाहून म्हणाले, हे काय हे आप्पा!’ त्यावर ते म्हणाले, ‘आता मी हाडाचा कवी झालो.’अशा त्यांच्या काही आठवणी डॉ. विठ्ठल प्रभू यांनी आपल्या लेखात  सांगितल्या आहेत.

*ना. सं इनामदार (१९२३ ते २००२) नागनाथ संताराम ईनामदार हे ऐतिहासिक कादंबरीकार म्हणून ओळखले जातात. त्यांनी १६ ऐतिहासिक कादंबर्‍या लिहिल्या. इतिहासातील उपेक्षित  पात्रांना न्याय देणारा लेखक अशी त्यांची ओळख आहे. संशोधन, इतिहासाचे सर्जनशील आकलन, प्रसंगातील नाट्यमयता, चित्रदर्शी शैली त्यामुळे ते लोकप्रिय कादंबरीकार ठरले. त्यांच्या सगळ्या कादंबर्‍यांमध्ये राऊ, झेप, शाहेंशाह, मंत्रावेगळा इ. कादंबर्‍या लोकप्रीय ठरल्या भारतीय ज्ञानपीठाने त्यांच्या राऊ कादंबरीचा राऊ स्वामी या नावाने हिंदीतील अनुवाद प्रकाशित केलाय.

*गो. पु. देशपांडे (१९३८ – २०१३) गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे यांनी मराठीत नाटके, कविता आणि निबंधही लिहिले. दिल्लीच्या जवाहर विद्यापीठातून चीन हा विषय घेऊन त्यांनी पीएच.डी. ही पदवी मिळवली व याच विषयावर हॉँगकॉँगयेथून पदविका मिळवली. पुढे दिल्ली विश्वविद्यालयातून राज्यशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून ते निवृत्त झाले.

त्यांनी मराठी आणि इंग्रजी दोन्हीमधून लेखन केले. त्यांनी वैचारिक, राजकीय, रंगभूमीविषयक, साहित्यविषयक, लेखन केले. प्रायोगिक नाट्यलेखनाच्या प्रवाहात विचारनाट्याची धारा त्यांनी पहिल्यांदा निर्माण केली. राजकीय जाणीवा ही त्यांच्या लेखनामागची प्रेरणा होती. अंधारयात्रा, उध्वस्त धर्मशाळा, चाणक्य विष्णुगुप्त, रस्ते, शेवटचा दिवस. सत्यशोधक इ. नाटके त्यांनी लिहिली. सत्यशोधक नाटकाचे हिंदीत रूपांतर झाले. याशिवात इत्यादी इत्यादी (कवितासंग्रह) ‘ चर्चक हे निबंधाचे पुस्तक २ भागात, राहिमतपूरकरांची निबंधमाला २ भागात, नाटकी निबंध हा लेखसंग्रह इ. लेखन त्यांनी केलेले आहे.

त्यांच्या साहित्याचे, इंग्रजी, कानडी, हिन्दी, तमीळ, अशाविविध भाषांमध्ये अनुवाद झाले आहेत. त्यांच्यावर बहुआयामी गो.पु.’या लघुपटाची निर्मिती झालेली आहे. त्यांनी, शिवाजी, महात्मा फुले, चाणाक्य इ. दूरचित्रवाणीवरील मालिकांसाठी लेखन केले आहे. चित्रपटांसाठी संवाद लेखनही त्यांनी केले आहे.

गो. पु. देशपांडे यांना जयवंत दळवी पुरस्कार, महाराष्ट्र फाऊंडेशनचा जीवन गौरव पुरस्कार, राज्य शासनाचा अनंत काणेकर पुरस्कार, संगीत नाटक अ‍ॅकॅडमीचा पुरस्कार व मरणोत्तर रूपवेध प्रतिष्ठानचा तन्वीर पुरस्कार लाभले आहेत. (हा पुरस्कार श्रीराम लागूंनी आपल्या मुलाच्या तन्वीरच्या स्मरणार्थ ठेवला आहे.)       

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(संपादक मंडळासाठी)

ई अभिव्यक्ती मराठी

संदर्भ :- १) कऱ्हाड शिक्षणमंडळ, “ साहित्य- साधना दैनंदिनी “ . २) गूगल गुरुजी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नवरंगी दसरा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नवरंगी दसरा… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे☆

पिवळ्या रंगाने आरंभ झाला,

शेवंती, झेंडू ने रंग भरला!

पीत रंगाची उधळण झाली,

पिवळ्या शालूत देवी सजली!

 

प्रसन्न सृष्टी हिरवाईने नटली,

दुसऱ्या माळेच्या दिवशी!

करड्या रंगाने ती न्हाली,

देवी तिसऱ्या माळेची !

 

चवथीची सांज केशरी

रंगात न्हाऊन गेली !

पाचवीची शुभमाळ,

शुभ्र पावित्र्याने उजळली!

 

कुंकवाचा सडा पसरला

देवीच्या सहाव्या माळेत!

आभाळाची निळाई दिसे,

दुर्गेच्या सातव्या माळेत!

 

गुलाबी, जांभळा आले

आठव्या माळेला !

शुभ रंगांची बरसात

करीत देवीला !

 

हसरा,साजरा देवीचा चेहरा,

खुलविला नऊ रंगाने !

सिम्मोलंघनी दसरा सजला,

झळाळी घेऊन सोन्याने!

 

© सौ. उज्वला सहस्रबुद्धे

वारजे, पुणे (महाराष्ट्र)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 76 – आई अंबाबाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 76 – आई अंबाबाई ☆

अगं आई ,अंबाबाई

तुझा घालीन गोंधळ ।

डफ तुण तुण्यासवे

भक्त वाजवी संबळ।

 

सडा कुंकवाचा घालू

नित्य आईच्या मंदिरी।

धूप दीप कापूराचा

गंध दाटला अंबरी.

 

ताट भोगीचे सजले

केळी, मध साखरेने।

दही मोरव्याचा मान

फोडी लिंबाच्या कडेने .

 

ओटी लिंबू  नारळाची-

संगे शालू  बुट्टेदार।

केली अलंकार पूजा

सवे शेवंतीचा हार.

 

धावा ऐकुनिया माझा

आई संकटी धावली।

निज सौख्य देऊनिया

धरी कृपेची सावली।

 

माळ कवड्यांची सांगे

मोल माझ्या जीवनाचे।

परडीत मागते मी

तुज दान कुंकवाचे।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रावण- दहन ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? विविधा ?

☆ रावण – दहन ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆ 

रावणाचे  मनोगत 

दसऱ्याच्या दिवशी रावणाला जाळताना हजारोंनी माणसं जमली होती. त्यामध्ये कितीतरी रावणच होते. एक दोघे राम होते पण हतबलतेने ते गप्प होते. लढवय्या राम मात्र एकही नव्हता. तो रामराज्यात फक्त सीतेच्या वाटेला आला होता. 

जळताना रावणाने मोठयाने ओरडून सांगितले—-” बघा तुमच्याच आतमध्ये डोकावून आणि करा हिशोब स्वतःच्या चारित्र्याचा.” 

हो.. हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा.– पण मी कधीच मर्यादेच्या सीमा नाही ओलांडल्या. कायम विचार केला तिच्या मानाचा. 

तुम्हीतर दिवसाढवळ्या नुसत्या वखवखलेल्या नजरेनेच अब्रूचे लचके तोडता, वर दिमाखाने मिरवत, सभ्यपणाचा बुरखा लावून मलाच जाळता. 

हो.. हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा.– पण मी कधीच विचार नाही केला तिच्या अत्याचाराचा.– निर्भयासारख्या कितीजणींना भक्ष्य केलय तू मानवा, कळस झाला आहे तुझ्या अविचाराचा.– विचार कर तुझ्यातल्या राक्षसाला जाळायचा. 

हो.. हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा– पण मी कधीच विचार नाही केला जबरदस्तीचा. 

तुझ्यासारखा तूच नीच, जो जोर दाखवितो अबलांवरती आपल्या बळाचा. जरा तरी विचार कर त्यांच्या नाजूक मनाचा. 

हो..हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा– पण मी कधीच विचार नाही केला आक्रमकतेचा. 

तू तर मान नाही राखत कुठच्याच स्त्रीचा, मानवा कधीतरी तूच खून कर तुझ्यातल्या दानवाचा. 

हो..हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा—-पण कधीच  नाही विचार केला तिच्या अपमानाचा. 

अरे मला जाळण्याआधी मानवा जरा स्वतःला विचार, हुंड्याच्या मोहापायी तू किती सीता जाळल्या आणि वंशाच्या दिवट्यासाठी गर्भात किती कळ्या मारल्या. 

हो..हो, केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा— पण कधीच नाही विचार केला बीभत्सपणाचा.– 

तुम्ही तर करता चुराडा, न उमललेल्या फुलांचा आणि त्यांच्या भावी स्वप्नांचा. 

मानवा लाज बाळग नाव घ्यायला मर्यादा पुरुषाचे.

मानवा लाज बाळग नाव घ्यायला मर्यादा पुरुषाचे.—

कधी न कधी तुलाही भोगायला लागेल फळ आपल्या कर्माचे.

हो.. हो..शंभरदा सांगेन, हो.. हो.. हो. शंभरदा सांगेन,– केला आहे मी गुन्हा सीतेच्या अपहरणाचा —-कारण मला रामाकडूनच पाहिजे होता मोक्ष मानाचा. 

मानवा तूच प्रयत्न कर स्वतःचे चारित्र्य सुधारण्याचा, मला जाळताना विचार कर–

स्वतःतला मी जाळण्याचा. 

स्वतःतला मी जाळण्याचा. 

स्वतःतला मी जाळण्याचा. 

रावणाच्या मनोगताला दिलेले मानवाचे उत्तर 

(दसऱ्याच्या दिवशी जळताना रावणाने मोठयाने ओरडून दिले स्पष्टीकरण आपल्या गुन्ह्याचे,  आणि मानवाला विचार करायला लावत  सांगितले-’ स्वतःतला मी जाळायला ‘-) 

त्यावर मानवाचे उत्तर ——–

हो.. हो, आहेत रावणा आमच्यामध्ये, वखवखलेल्या नजरेनेच अब्रूचे लचके तोडणारे,—-

पण त्याहूनही जास्त जण आहेत आपल्या जरबी नजरेनेच,  त्या समाजकंटकांना वठणीवर आणणारे.—- 

हो.. हो, आहेत रावणा आमच्यात, काही निर्भयासारख्याना भक्ष्य करणारे—- 

पण त्याहूनही कितीतरी जण आहेत त्यांच्यासारख्या राक्षसांना लक्ष्य करणारे.—-  

हो.. हो, आहेत रावणा आमच्यात, काही जण अबलांवरती जबरदस्ती करणारे—–

पण अनेक जण आहेत स्वतःच्या बळावरती, त्यांना फाशी देऊन जमीनदोस्त करणारे—- 

हो. हो, आहेत रावणा आमच्यात, काहीजण स्त्रीचा अपमान करणारे,—-

पण अनेक भारतपुत्र आहेत, सीमेवर आमच्याच माय लेकींची रक्षा करणारे—-

रावणा तू नको विचार करूस, 

रावणा…… तू नको विचार करुस—-  

आमच्यात राहून तुझ्या नातलगांनी हुंडयापायी किती सीता जाळल्या आणि गर्भात किती कळ्या मारल्या—–

त्याही पेक्षा जास्त आम्ही कितीतरी सीता वाचवल्या आणि उमलत्या कळ्यांना लक्ष्मी मानल्या.—-

रावणा,२६/११ च्या हल्ल्यात तुझ्यासारख्याच नराधमानी निरागसांचा नरसंहार केला—- 

तेव्हा आमच्यातल्याच असंख्य रामांनी सामोरे जाऊन त्यांचाच खात्मा केला—– 

रावणा लाज बाळग, 

रावणा लाज बाळग—-

स्वतःच्या गुन्ह्याची कबुली देऊन, वर गमज्या मारतोस—

सीतेच्या अपहरणाचा गुन्हा करून–

मोक्ष रामाकडून मानाचा मागतोस—- 

तुझ्यासारख्या असंख्य रावणांना मारायला आता नाही गरज आमच्यातल्या रामाची,

तुझ्यासारख्या असंख्य दानवांना जाळायला आता—-

झाली आहे नजर सक्षम— सीतेची.

झाली आहे नजर सक्षम— सीतेची.

झाली आहे नजर सक्षम— सीतेची.

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

मो. नं. ९८९२९५७००५. 

ठाणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मागोवा स्वप्नांचा – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ?

☆ मागोवा स्वप्नांचा – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆ 

(पूर्वसूत्र-वडील अतिशय प्रसन्न,शांतपणे गेले.जाताना ते आम्हाला पैशात मोजता न येणारं असं भरभरुन खूप कांहीं देऊन गेलेत.स़स्कारधन तर होतंच आणि जणूकाही स्वतःची सगळी पूर्वपुण्याईही ते आम्हा कुटुंबियांच्या नावे करुन गेलेत नक्कीच.त्यांनी मनोमन कांहीं स्वप्न म्हणून जपलं असेल तर ते फक्त आम्हा सर्वांच्या समाधानी सुखाचं…!)

या पार्श्वभूमीवरचा माझ्या कळत्या वयानंतरचा माझा जीवन प्रवास.हा प्रवास बाबांच्याइतका खडतर नव्हता तरीही खाचखळग्यांचा होताच. सरळ साधा नव्हताच. त्यामुळे रुढार्थाने कांहीएक स्वप्न उराशी बाळगावं आणि त्या दिशेने अथक प्रयत्न करून ते पूर्ण झाल्याचं समाधान मिळवावं एवढी उसंत आम्हा भावंडांपैकी कुणालाच मिळाली नव्हती. आम्ही दोघे पाठचे भाऊ पहिलीपासून एकाच वर्गात.मी त्याच्यापेक्षा सव्वा दोन वर्षांनी लहान,त्यामुळे लहानपणापासून त्याच्याशी खेळत आणि भांडतच मी लहानाचा मोठा होत होतो. तो सात वर्षाचा होताच पहिलीत जाऊ लागला तेव्हा त्याच्या बरोबर मीही.तो तिसरीत गेला तेव्हा मुख्याध्यापकांच्या अधिकारात माझी पहिली आणि दुसरीच्या परीक्षा घेऊन त्यांनी रीतसर मलाही तिसरीत प्रवेश दिला. तेव्हापासून अकरावीपर्यंत आम्ही दोघेही एकमेकांच्या गळ्यात हात टाकून एकत्र शाळेत जायचो. एकाच बाकावर बसायचो. माझ्यापुरतं तरी वयातलं अंतर पुसूनच गेलं होतं. तो माझा फक्त भाऊच नाही तर माझा मित्रच झाला होता.ती मैत्री अजूनही तशीच आहे. तो माझ्यापेक्षा बुद्धीने अतिशय तल्लख. अभ्यासात खूप हुशार. त्याचे भाषा आणि सायन्स  सर्वच विषयात चांगले स्कोअरिंग होत असे. पहिल्या पाच नंबरात तो असायचाच. आणि त्या पाचही नंबरात फक्त एखाद-दुसऱ्या मार्कांचेच अंतर असे. त्यांची पहिल्या नंबरासाठी  सतत चुरस असे. अर्थात तेव्हा मैत्रीसारखी स्पर्धाही  निकोप असायची. त्यांच्यापाठोपाठ माझा नंबर. अर्थात सहावा.पण पाचवा नंबर आणि मी यात दहा-बारा मार्कांचं अंतर असायचं. तरीही शाळेत आणि घरी ‘ लहान असून इतके मार्ग मिळवतो ‘ म्हणून कणभर का होईना जास्त माझंच कौतुक व्हायचं. माझ्या भावाला इंजिनीयर व्हायचं होतं. ते त्याचं जिवापाड जपलेलं स्वप्न होतं. मला अर्थातच भाषा विषय खूप आवडायचे. वक्तृत्व, कथाकथन, चित्रकला, अभिनय,निबंधलेखन अशा सगळ्या कलांमध्ये मला विशेष गती. शाळेतल्या सर्व वर्षांत या सगळ्या स्पर्धांमधे  माझा पहिला नंबर ठरलेलाच असे. अर्थात जे आवडतं ते करीत त्यातून आनंद मिळवायचा एवढंच तेव्हा समजत असे.त्याचं छंदात, स्वप्नात रुपांतर, परिस्थिती  अनुकूल असती तर कदाचित झालंही असतं. पण तसं व्हायचं नव्हतं. आम्ही दोघेही अकरावीत असताना अचानक वडिलांचं आजारपण उद्भवलं. त्यापुढची त्यांची नोकरी ते निभवत राहिले तरी अनिश्‍चिततेच्या भोवर्‍यातच सापडली. हक्काच्या रजा संपल्या नंतर जेव्हा बिनपगारी रजा होत तेव्हा ऑफिसमधे सर्वजण सांभाळून घेत असले तरी दर महिन्याला हातात येणारा पगार थोडा जरी कमी आला तरी घराचा आर्थिक डोलारा डळमळू लागे. मॅट्रिकचा रिझल्ट लागला. मला जेमतेम फर्स्ट-क्लास आणि भावाला डिस्टिंक्शन मिळाले होते. माझ्या आनंदाला उधाण आलेले पण भाऊ मात्र हिरमुसलेला. त्या काळी मॅट्रिक नंतरही चांगल्या नोकऱ्या मिळत. पण माझं वय खूप लहान आणि मोठ्या भावाचं मात्र नोकरीचं वय झालेलं. त्यामुळे त्याने मिळेल ती नोकरी करायची आणि माझं कॉलेज शिक्षण होईपर्यंत घरची जबाबदारी घ्यायची. आणि मला नोकरी मिळाली की मी ती जबाबदारी स्वतःकडे घ्यायची असा वडिलांशी चर्चा  करुन आईने नाईलाजाने निर्णय घेतला आणि भावाची समजूत काढली. त्या रात्री डोक्यावर पांघरूण घेऊन तो घुसमटत रडत होता. का ते सगळं माझ्यापर्यंत पोचलेलंच नव्हतं.मी खोदून खोदून विचारलं तरी भाऊ ‘काही नाही’ म्हणाला. मग दुसऱ्या दिवशी मी आईच्या खनपटीलाच बसलो तेव्हा आईने जे ठरवलं होतं ते माझ्या गळी उतरवलं. ऐकलं आणि कॉलेजला जायचा त्या वयात इतरांना होणारा आपसूक आनंद मी हरवूनच बसलो. भाऊ आधीच अबोल, आता तर घुमाच झाला. तो रोज लायब्ररीत जाई, पेपरमधल्या नोकरीच्या जाहिराती वाचून अर्ज करी. टेलिग्राफ ऑफिसमधे त्याला नोकरी मिळाली.गोव्याला पोस्टींग झालं.ट्रंक घेऊन तो सर्वांचा निरोप घेऊन घराबाहेर पडला. या सगळ्या उलघालीत इंजिनीयर व्हायचं त्याचं स्वप्न उध्वस्त झालं होतं आणि ती बोच त्याच्याइतकीच माझ्याही मनात सलत राहीलेली.मग अर्थातच मी सुखद स्वप्न पहायचा माझा अधिकारही विसर्जित करून टाकला.त्यानंतर स्वप्न पाहिलं ते फक्त भावाचे हे उपकार कधीच न विसरण्याचं.तेव्हा गोव्यासारख्या महागाईच्या ठिकाणी दरमहा जेमतेम दोनशे रुपये त्याच्या हातात येत. त्यातल्या दीडशे रुपयांची तो न चुकता घरी मनिऑर्डर करी. राहिलेल्या पन्नास रुपयात पुढे स्टेट बँकेत नोकरी मिळेपर्यंतची दोन वर्ष त्यांनी कशी काढली होती ते खूप वर्षं उलटून गेल्यानंतर पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेल्यावर  गप्पांच्या ओघात त्यांनी मला ओझरतंच सांगितलं,तेव्हा ते ऐकूनही माझ्याच अंगावर सरसरून काटा आला होता. अतिशय काटकसरीत का होईना पण आई-वडिलांच्या सहवासात सुरक्षित छपराखाली मी रहात असताना, माझ्यापेक्षा खूप हुशार असूनसुद्धा केवळ माझ्यापेक्षा दोन वर्षांनी मोठा म्हणून त्याच्यावर पडलेलं जबाबदारीचं ओझं स्वतःचंच कर्तव्य म्हणून त्याने मनापासून पारही पाडलं होतं. माझ्या मनावरचं ओझं आणि जबाबदारीची जाणीव मला स्वस्थ बसू देत नव्हती.त्या मनोवस्थेत मी माझी कॉलेजची चार वर्षे एकाग्रतेने अभ्यास करीत एक एक दिवस मोजून काढलीत.हे करीत असताना मनातली अस्वस्थता कमी व्हावी म्हणून आणि त्याक्षणी ते मीच करायला हवं म्हणूनही, तेव्हा आठवड्यातले रिकामे मिळणारे शनिवार-रविवार हे दोन दिवस मी एका ठिकाणी अकाउंटस् लिहायची कामं घेऊन स्वतःला गुंतवून ठेवलेलं होतं. ते दोन पूर्ण  दिवसभर खाली मान घालून काम करावं तेव्हा महिन्याला वीस रुपये मिळत. ते पैसे साठवून मी माझ्या लहान भावाचे युनिफॉर्मचे दोन जोड, त्याची वह्या पुस्तकं, माझे दोन शर्ट आणि पायजमे, आणि कॉलेजसाठीचा रेल्वेचा पास एवढे खर्च बाहेरच्या बाहेर करू शकायचो. हे प्रथम भावाच्या लक्षात आलं तेव्हा तो माझ्यावर खूप चिडला होता.’ हे सगळं करताना तू मला विश्वासात घेऊन बोलला का नाहीस ‘ या त्याच्या प्रश्नाला माझ्याकडे उत्तर नव्हतं. तो गोव्याहून एक्स्टर्नल ग्रॅज्युएशन च्या परीक्षेसाठी वर्षातून फक्त एकदा मिरज सेंटर घेऊन घरी येऊ शकायचा. तो स्वतःची इतकी ओढ करीत असताना त्याच्या जीवावर दोन वेळा बसून खाणं मला नको वाटायचं. त्या क्षणी मीच करायला हवं अशी ही एकच गोष्ट होती. हे सगळं या शब्दात त्याला सांगून मला त्याला दुखवायचं नव्हतं. अखेर आईने त्याची समजूत काढली तेव्हा ‘पैसे मिळविण्यापेक्षा ग्रॅज्युएशनला जास्तीत जास्त स्कोरिंग करायची तुझी जबाबदारी तू पार पाडणं महत्वाचं आहे ‘असं मला त्याने बजावून ठेवलं होतं. ते तर मी करणार होतोच पण त्याच्या सांगण्या-समजावण्यातली  कळकळ पाहून कोणत्याही कारणाने मी कमी पडून उपयोगाचं नाही हे स्वतःला रोज नव्याने बजावत असायचो.त्या चार वर्षांत माझी स्वप्नं यश मिळवून आई-बाबांना न् भावाला कृतार्थतेचं समाधान द्यायचं याच परिघाभोवती फिरत असायची.

पुढे भावाला स्टेट बँकेत आणि दोन वर्षानंतर मला युनियन बँकेत जॉब मिळाला आणि नाही म्हटले तरी अस्वस्थता बऱ्याच प्रमाणात कमी झाली. त्यानंतर मी भावाला त्याच्या आर्थिक जबाबदारीतून मोकळं केलं, तरीही आम्हा दोन्ही लहान भावांना वेळोवेळी काय हवं नको याकडे त्याचं बारीक लक्ष असायचंच. पुढे आम्ही आमचे संसार सुरू करून अन्नाचा शेर असेल तिथे फिरत राहिलो. परस्परांना लिहिलेली पत्रे आणि कारणपरत्वे गरज निर्माण होईल तसं मदतीला आम्हा सगळ्या भावंडांकडे धाव घेणारी आई ही दोनच संपर्काची साधने. तरीही आम्ही मनाने सतत जवळच असायचो. दोघांच्याही सुरु झालेल्या बँकिंग क्षेत्रातील निसरड्या वाटांवरूनच्या वाटचाली पाय न घसरु देता उत्कर्षाच्या दिशेने चालू राहिल्या ते अर्थातच आई-बाबांनी वेळोवेळी केलेल्या संस्कारांमुळेच. या प्रवासातही यशासाठी हव्यासापायी कोणतीही अनाठाई तडजोड न करायचं बंधन आम्ही कोणी न सांगताच आमच्या स्वप्नांना घालून घेतलेले होतं. त्यामुळे वेळोवेळी मिळालेली प्रमोशन्स असोत,कधी सोयीची तर कधी गैरसोयीची पोस्टिंग्ज असोत,इतरांना अप्राप्य असं सतत मिळत रहाणारं ‘ जॉब सॅटिसफॅक्शन ‘ असो, सगळं आम्हाला मिळत गेलं. यातलं काहीच आम्ही अट्टाहासाने स्वप्न उराशी बाळगून, तडजोडी करून मिळवलं नाही.आणि ते सगळं आम्ही समाधानाने स्वीकारत गेलो. आज त्या समाधानाबरोबर कृतार्थताही आहे.

मी स्वप्न पाहिलं होतं ते फक्त कर्तव्यपूर्तीचं आणि कितीही यश आणि ऐश्वर्य प्राप्त झालं तरीही न उतण्या-मातण्याचं. त्या स्वप्नाची पूर्तता हेच माझं जीवन ध्येय होतं आणि ते ध्येय साध्य झाल्याचं समाधान हीच माझ्या उर्वरित आयुष्याला पुरूनही उरुन राहील अशी कृतार्थता..!

मला मिळालेली ही स्वस्तात माझ्या मुलाला उत्तुंग स्वप्ने पहात उंच झेपावण्यासाठीचं विस्तिर्ण आकाश देऊ शकली.

क्रमश:….

 ©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जावे त्यांच्या वंशा ☆ सौ. सावित्री जगदाळे

सौ. सावित्री जगदाळे

☆ मनमंजुषेतून ☆ जावे त्यांच्या वंशा ☆ सौ. सावित्री जगदाळे ☆

गावाकडे घर केलं तेव्हाच घराशेजारी दोन गुंठे जागेत भाजीपाला करायचा असं ठरवलं. यावेळी शेतात मूग पेरला. कडेने  पावटा, भेंडी, गवार, दोडका, गोसाळी, कारले यांच्या बिया  टोकल्या. वांगी, फ्लॉवर, कोबी, मिरच्या यांची रोपे लावली. शेपू, चाकवत, पालक, मेथी, कोथींबीरच्या  बियांची चिमूट चिमूट लावली. सतत पाऊस पडत होता त्यामुळे पाणी द्यायची गरज पडली नाही. मूग चांगला आला. शेंगा काळ्या पडू लागल्या की तोडायच्या. पहिल्या दिवशी दोन बादल्या भरल्या. वाकून तोडाव्या लागत त्यामुळे कंबर दुखू लागली. तरी घरच्या शेतातला आणि खत, किटकनाशके न वापरता आलेला. त्यामुळे त्याचं समाधान जास्त. नंतर एक दोन दिवसांनी थोड्या निघत राहिल्या. यासाठी गौरी गणपती गावाकडेच बसवायचे ठरवले. त्यामुळे वरचेवर मुगाच्या शेंगा तोडता येतील. गौरी गणपती बसवताना सून, मुलगा आलेले. घरातली सगळी कामे  झाल्यावर सुनबाई कुठेतरी फिरून येऊ म्हणाली. खेड्यात शेताशिवाय कुठे जाणार…

लांबच्या शेतात गेलो. हल्ली जास्त ऊसाचीच शेती केली जाते. आमच्या शेतात उंच वाढलेला ऊस होता. टॅक्टरने नांगरल्या मुळे बांध राहतच नाही. मग शेतातूनच वाट काढत जावं लागतं. शेजारच्या सोयाबीनच्या शेतातून निघालो. गुडघ्या एवढं पीक त्यात गवतही भरपूर. अनेक ठिकणी लाल मुंग्यांची वारुळे. साप असण्याची शक्यता. नीट बघूनच चालावे लागते. आम्ही दोघे, सूनबाई, सहा वर्षाचा नातू असे निघालो. मुलगा आदल्या दिवशीच जाऊन आल्यामुळे येणार नाही म्हणाला. त्याला अनुभव आलेला.

 थोडे चालणं झाल्यावर ह्यांनी मागे वळून बघण्याच्या नादात वारुळावर पाय पडला. त्यांच्या पॅण्टवर सगळीकडे लाल मुंग्याच. पॅण्ट काढून मुंग्या झटकून मग पुन्हा घातली. थोड्याफार मुंग्या आम्हालाही चावल्या. शौर्य नाचायला लागला. सूनबाई म्हणाली, कशाला आलोय आपण इकडे? म्हटलं तुलाच हौस फिरायला जायची.  माझ्या आणि शौर्यच्या कपड्यांना कुसळे भरपूर लागली. सोयाबीनचे शेत संपल्यावर ऊसाच्या शेतातून जावं लागलं. ऊसाचे काचोळे हाताला कापत होते. हाताने ऊस धरला तरी मागच्या येणाऱ्या च्या अंगावर पडत होता. शौर्य वैतागला. ऊसाच्या बाहेर आल्यावर शेजारच्या काकी मुलाला बघून म्हणाल्या, आमच्या शेतातून वाट होती की. इकडून यायचं नाही का?  त्यांचा मूग काढल्यामुळे शेत मोकळं होतं. शेजारी हिरवंगार आल्याचे भरघोस पीक होते. पुन्हा एक ऊसाचे शेत ओलांडून उंबराच्या झाडाखाली आलो. तिथे कपड्यावरची कुसळे काढली. शौर्यने खाऊ खाल्ला. नुकतीच एका शेतात ऊसाची लागण केलेली. गेल्यावर्षी भुईमूग, हरभरा होता तेव्हा शेत छान वाटत होतं.

आता उंच वाढलेल्या ऊसामुळे जंगलात आल्यासारखे वाटत होते. थोडावेळ थांबून निघालो. येताना मात्र शेजारच्या आल्याच्या, मुगाच्या शेतातून आलो. तरी वर खाली बांध, पावसाने भरपूर तण वाढलेले आणि निसरडी जमीन. सापाची भिती. मुंग्यांची वारूळे चुकवत आलो. रस्त्यावर आल्यावर  सुटकेचा निश्वास सोडला. हे दोन तीन दिवसांनी शेतात चक्कर मारतात. त्यांना काही वाटले नाही. पण आम्हाला ट्रेकींगपेक्षा अवघड अनुभव आला. शेतकऱ्यांच्या कष्टाची जाणीव झाली. रोज किती यातना त्यांना सहन कराव्या लागतात. जावे त्यांच्या वंशा तेव्हाच कळते.

 

© सौ. सावित्री जगदाळे

संपर्क – १००, कुपर कॉलनी, सदर बाजार, सातारा ,पीन-४१५०० १

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ व्यक्त – अव्यक्त….वैशाली ☆ संग्रहिका: श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

? वाचताना वेचलेले ?

☆ व्यक्त – अव्यक्त….वैशाली ☆ संग्रहिका: श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

मनुष्य आणि इतर प्राणी यांच्यामधील महत्वाचा फरक म्हणजे, शब्दांनी समृध्द मनुष्य शब्दांद्वारा आणि शब्दांशिवायही  आपल्या भावना व्यक्त करु शकतो. अव्यक्त राहूनही  परस्परांना समजून घेणारं  नातं खूप छान फुलतं—शब्दांचे खतपाणी घालण्याची फार गरजच नसते.

पण सतत असं राहून चालणार नाही. काही विशिष्ट प्रसंगातच हे योग्य ठरतं.

एरवी वेळोवेळी व्यक्त होणं खूप आवश्यक—नाहीतर मग संवाद संपू शकतो. आणि कुठेतरी गैरसमजाचे बीज नकळतं रोवल्या जातं. 

व्यक्त होणा-यांचे ही वेगवेगळे प्रकार असतात. कोणी स्वतःबद्दल काहीच सांगू इच्छीत नसतं—व्यक्तच होत नाही.  तर कोणी सतत व्यक्त होत राहतं.—या दोन्ही परिस्थितीमध्ये हवा तसा संवाद शक्यच होत नाही.

संतुलीतपणे व्यक्त होणं ही एक कलाच आहे. कुठे केव्हा किती बोलावं, व्यक्त व्हावं, हे कळणं खूप आवश्यक—-

याचबरोबर व्यक्त कोणासमोर व्हायचं,  हे देखील तितकंच महत्वाचं —समोरची व्यक्ती कुठलेही मत न लादणारी, पूर्वग्रह न ठेवता,  निरपेक्षपणे ऐकणारी हवी. व्यक्त होणा-याबरोबरच ऐकणाराही प्रगल्भ हवा. तेव्हाच एखाद्या कठीण प्रश्नातून बाहेर पडण्याचं  सामर्थ्य मिळतं.

व्यक्त अव्यक्त दोहोंमधुन असावा संवाद— 

प्रत्येक नात्यामधील मिटेल मग वाद—-

——वैशाली

संग्रहिका:  श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

सांगली

मो. – 8806955070

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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