हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 103 ☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे –  चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 103 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆

छिटक रही है चाँदनी,   हैं पूनम की रात।

यहाँ वहाँ कहती फिरे, अपने दिल की बात।।

 

सजन गए परदेश को, बीते बारह मास।

तुम बिन मन लगता नहीं, कब आओगे पास।।

 

शरद आगमन हो गया,  खिली चाँदनी रात।

ठंडक दस्तक दे रही,  चली गई बरसात।।

 

शरद पूर्णिमा आज है,  देती है सौगात।

कर लो प्रभु से वंदना,  कह लो अपनी बात।।

 

शीतल आँखों से बहा, है निर्झर सा नीर।

मेरे मन को हो रही, देखो कैसी पीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ फूल के आँसू  ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कथा कहानी ☆ फूल के आँसू  ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

सुबह- सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ना उसका रोज़ का नियम था। आज भी वह नहा कर आई तो देखा कनेर हुलस रहा है, पीले फूलों संग, मगर, वह भीतर गई और प्रणाम करके भगवान के ऊपर से कल के बासी फूल उतार लाई। उन्हें एक बड़े से झाड़ की जड़ों में मसल कर डाल दिया।साथ ही तांबे के छोटे कलश का पानी भी उड़ेल दिया । बासीपन का विसर्जन, रोज़ ही तो करती है पर क्या कभी हो पाया? यथार्थ में बासीपन का विसर्जन कितना कठिन है । बीत चुकी घटनाएँ स्मृतियों के घोंसले से अपनी मुंडी निकाल बाहर झांकती रहतीं हैं। इतना ही नहीं वे प्रायः हर नवीन निर्णय में पूर्वाग्रह बन कर गुथमगुत्था रहतीं हैं।

सीमा ने भरपूर कोशिश की थी इस घर में कभी किसी को अपनी पिछली ज़िंदगी के कंकड़ कांटे नज़र नहीं आने देगी। आखिर इस घर के लोगों का इसमें क्या दोष? इन साधु समान लोगों ने उसे बिना झिझक अपनाया। सीमा ने भी अपनी पिछली ज़िंदगी के पन्ने दीपक के सामने खोल कर रखने में कोई कोताही नहीं बरती थी। आज दोनों के विवाह को एक बरस हो गया था । दीपक ने भी संक्षेप में सारी जानकारी घर वालों को दे दी थी।

सुबह स्नान के बाद पूजा की तैयारी का जिम्मा सीमा ने तभी से अपने ऊपर ले लिया था जबसे वह ससुराल आई थी। घर मे सास नहीं, दादी सास थीं जो यदाकदा नियम धर्म की शिक्षा भी दिया करतीं थी।उनका यह शिक्षण- प्रशिक्षण पूजा तक ही सीमित नहीं था अपितु रसोई से होते हुए शयनकक्ष तक पहुंच जाया करता था। एक दिन उन्हींने बताया था ,”जिन पौधों से तोड़ने पर दूध निकलता है उनके फूल ठाकुर जी को नहीं चढ़ाते।”और यह भी,” पीले फूल विष्णु जी को अधिक प्रिय हैं।”

इसके आगे सीमा ने कभी नहीं पूछा कि  दादी पूजा के लिए कनेर के फूल क्यों तुड़वातीं हैं उसका मन दुविधा में ही रहता कि फूल पीले हैं इसलिए चढ़ाए जाते हैं लेकिन तोड़ने पर दूध निकलता है तो फिर क्यों चढ़ाए जाते हैं!  पूछने पर दादी न जाने क्या सोचेंगी? दीपक को यह घटना किस तरह बताएंगीं? सबसे भली चुप।दिन बीतते गए और सीमा ने पूजा के फूल चुनने के साथ-साथ घर के अन्य काम भी अपने ही ऊपर ले लिए।

आज करवाचौथ का व्रत रखा था उसने।सारा दिन रसोई में बीता।मोहल्ले की कुछ महिलाएं उसे पति के साथ अपने घर आकर पूजा करने का न्यौता दे गईं।जब वह पूजा करके आई सभी ने भोजन किया और अपने-अपने कमरे में चले गए।मगर सीमा छत पर रखे बड़े से सिंटेक्स की ओट में बैठी न जाने कहाँ खोई थी। आहट हुई तो उसने देखा दादी हैं।दादी ने शरारती बच्चे की तरह अपने हाथ मे लाए छोटे से पेंडल को खोल कर उसके सामने अपनी बूढ़ी हथेलियां फैला दीं।इसमें सीमा और प्रकाश की विवाह के समय की फ़ोटो थी।इसे देखते ही सीमा दादी के गले लग गई।सीमा विवाह के कुछ माह बाद ही विधवा हो गई थी। उसके सहकर्मी दीपक से यह उसका दूसरा विवाह था।

अगली सुबह ,दादी ने पूजा में कनेर का पुष्प उठाया तो सीमा कुछ कहना चाहती थी ।फूल के डंठल पर वह सफेद बूंदें देख रही थी।दादी ताड़ गईं, बोलीं ये जहर नहीं बेटी ये तो फूल के आंसू हैं।प्रभु के चरणों में चढ़ कर खुश तो होता है फिर भी अपनी हरी डाली से विछोह को भुला नहीं पाता।सीमा ने महसूस किया कि वह भी तो ऐसी ही है। स्मृतियों में उसका अतीत आ कर उसे रुला जाता है।चाहे जितनी बासी हो जाएं,स्मृतियों का विसर्जन नहीं हो पाता।

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

टीकमगढ़

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 92 ☆ लेना है तो देना सीखो  ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता लेना है तो देना सीखो । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 92 ☆

☆ लेना है तो देना सीखो ☆

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के रहना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

स्वार्थ भरा है रग रग में

खड़ी है लालसा पग पग में

त्याग कभी कुछ करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

लोभ मोह ने आके घेरा

दिल में है बस तेरा मेरा

दान-धरम भी करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में प्रेम बसेरा कर लो

तम को मार सबेरा कर लो

दुख औरों के हरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दीन-दुखी की सेवा करिये

मानवता ना कभी बिसरिये

दिल में धीरज धरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

जीना है तो मरना सीखो

कदम कदम पर लड़ना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में गर “सतोष” रहेगा

सुख-शांति का कोष रहेगा

राह धर्म की चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (6 -10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (6-10) ॥ ☆

सजे सॅवारे स्वरूप धारे उन आसनासीन अनेक नृप में

स्वतेज से अज हुये विभासित ज्यों पारिजात हो कल्प द्रुम में ॥ 6 ॥

 

नगर निराली जनों की आँखे सबों को तज आ टिकी थी अज पै

कि जैसे वन में कुसुम विटप तज घिरे हों भौंर प्रमत्त गज पै ॥ 7 ॥

 

तब चारणों द्वारा चंद्र रवि कुल के नृपवरों के विरद कहे पर

कपूर चंदन की गंध के साथ स्फुरित पताका के फिर चुके पर ॥ 8 ॥

 

शुभ मधु बजे मंगल शंख – भेरी के स्वर दिशाओं में गूँज छाये

पले मयूरों ने नाचने को जिन्हें कि सुनकर थे पर उठाये ॥ 9 ॥

 

कहार कंधों पै पालकी में सजी सुशोभित विराज कन्या

सहेलियों संग सभा में आई स्वपति चयन हेतु स्वरूप कन्या ॥ 10॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २२ ऑक्टोबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २२ ऑक्टोबर  –  संपादकीय  ?

ना. सि. फडके (१८९४ ते १९७८ )

ना. सि. फडके हे दुसर्‍या पिढीतील सुप्रसिद्ध लेखक. ह. ना. आपटे यांच्यापासून आधुनिक मराठी कथेला आणि कादंबरीलाही सुरुवात झाली. त्या दृष्टीने ना. सि. फडके हे दुसर्‍या पिढतील लेखक मानावे लागतील. त्यांच्या कथा- कादंबर्‍या रेखीव आणि तंतत्रशुद्ध आहेत. भाषा ललित मधुर आहे. आकर्षक सुरुवात, कथेच्या मध्ये गुंताऊंट आणि शेवटी उकल आसा त्यांच्या कादंबरीचा साचा ठरलेला आसे. सुरेख शब्दचित्रण, रेखीव व्यक्तिचित्रण , रचनेतील सफाई, कथेमद्धे एखादे नाजुक रहस्य, विसमयाची हुलकावणी, अशी वाशिष्ट्ये त्यांच्या लेखनाची जाणवतात. ते वी.स.खांडेकर यांचे समकालीन. ते कलावादी होते. तर खांडेकर जीवनवादी. कळसाठी कला असे त्यंचे मत होते, तर जीवनासाठी कला असे खांडेकर म्हणात. दोघांचा वाद अनेक दिवस नियतकालिकातून रंगला होता. होता. दोघेही शेवटपर्यंत आपापल्या  भूमिकेवर ठाम होते.

ना. सि. फडके यांच्या अटकेपार, उजाडलं पण सूर्य कुठे? कुलब्याची दांडी, कलंकशोभा इ. ७० कादंबर्‍याआहेत. कलंकशोभा या कादंबरीवर चित्रपटही निघाला होता. धूम्रवलये, गुजागोष्टी, ही त्यांच्या लघुनिबंधाची पुस्तके. प्रतिभासाधन हे त्यांचे वैचारिक पुस्तकही खूप गाजले. त्यांच्या काही कादंबर्‍यांचे इंग्रजी व अन्य भारतीय भाषांत अनुवाद झाले.    

 रत्नागिरी येथे १९४० साली झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. १९६२मध्ये भारत सरकारने ‘पद्मभूषण’ पदवी देऊन त्यांचा सन्मान केला. दरवर्षी मराठीतील एका साहित्य कृतीला त्यांच्या नावे पुरस्कार देण्यात येतो.

☆☆☆☆☆

रमा हर्डीकर : रमा हर्डीकर यांचा आज जन्मदिन. या प्रामुख्याने अनुवादासाठी प्रसिद्ध आहेत. आत्मरंगी  या रस्कीन बॉंड आत्मचरित्राचा त्यांनी अनुवाद केलाय. ‘काळी मांजर’ हा एडगार अ‍ॅलन पो यांच्या  गूढकथांचा अनुवाद आहे. खिडकी या लघुत्तम कथांचे ई- बुक निघाले आहे. सुंदर पिची, गुगलचे भविष्य, हे जगमोहन भानवर यांच्या उस्तकांचे अनुवाद आहेत. त्यांनी प्रामुख्याने रस्कीन बॉंड आणि जगमोहन भानवर यांच्या पुस्तकांचे अनुवाद केलेले दिसतात. माधुरी पुरंदरे यांच्या पुस्तकांचे इंग्रजी अनुवाद त्यांनी केले आहेत. 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग.

संदर्भ :- १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी “.  २) गूगल गुरुजी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हरण्यासाठी किंवा जिंकण्या साठी ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हरण्यासाठी किंवा जिंकण्या साठी ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

लिहिली नसती कविता

तर काहीच बिघडलं नसतं

मनातल्या मनात काहीतरी

खदखदत राहीलं असतं

मिळालं नसतं स्वास्थ्य

कदाचित झोपही नसती लागली

गुंजत राहिली असती काळजात

वर्तमान भूत भविष्याची

शुभाशुभाची प्रश्नावली

प्रश्र्न ही माझेच आणि

उत्तरं माझीच असती

आणि मग मीच माझ्याशी

लढलो असतो कुस्ती

बघणारा मीच लढणारा ही मीच

एकांतात.

 

करून घेतला असता

मग मीच माझा घात

पण—————–

लिहिता झालो बरे झाले

निचरा होऊन मार्ग सापडले

आता कधी तरी तापतो तळपतो

आपोआपच शांत होतो

शब्दांशी लढतो त्यानाच कुरवाळतो

पुन्हा सामान्य होऊन सरकतो पुढे

आयुष्याचे चढ उतार चढण्यासाठी

जगण्याशी दिलखुलास लढण्यासाठी

हरण्यासाठी किंवा जिंकण्यासाठी

 

© श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 93 – दिलाची सलामी. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 93 – विजय साहित्य ?

☆ दिलाची सलामी. . . . ! कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया .

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

 

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

 

जरी दुःख  आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

 

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची,  कधी लाज नाही.

 

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

 

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वाढत्या अक्षरांची कविता ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वाढत्या अक्षरांची कविता ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

               तू           १

             माझा        २

           मी तुझी       ३

           एकरूप       ४

         अव्दैत सारे     ५

        ऋतू  ते हसले   ६

     हरकलो आपण    ७

   जीव गेला मोहरून   ८

दिसतो आपल्यात आता  ९

बहरलेला वसंतोत्सव       १०

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

सांगली 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ मैने तेरे लिये ही ☆ सौ. सुचित्रा पवार

सौ. सुचित्रा पवार

?  विविधा  ?

☆ मैने तेरे लिये ही ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

मैने तेरे लिये ही …?

मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने …गाणं ऐकताना मन कसं आनंदानं भरून गेलं ..अन तुझी आठवण आली . होय ! …कोण तू ? चेहरा …रंग रूप ..काही काही निश्चित नाही ,डोळ्यासमोर तुझे कुठलेच चित्र ,आकृती नाही; तरी मी तुझ्यासाठी ही स्वप्ने चुनते नुसते सातच का ?नाही ..अगणित रंगांची ,गंधाची ,आकारांची फुले वेगवेगळ्या ऋतूत बहरून येऊन आनंदाने श्रुष्टीत डोलावीत अन आनंदाचा सोहळा साजरा करावा अशीच ती नानाविध स्वप्ने मी तुझ्यासाठी विणते .तुला यत्किंचित कल्पनाही येणार नाही ..का ? हेही माहित नाही ती पूर्ण ही होत नाहीत …होणार नाहीत तरीही का ,का ही स्वप्ने मी गुंफावी ?कधी कधी कोडेच उलगडत नाही .

पण प्रत्येक क्षणाला स्वप्नांची माळ गुंफणे सुटत नाही. कारण ….कारण ती गुंफण्यात एक आनंद असतो …असा की खरेच त्या अनिश्चित आकाराच्या स्वप्नाला कोण पाहू शकत नाही पण मी अनुभवू शकते अन युगे न युगे ही स्वप्ने रचते फक्त फक्त तुझ्यासाठी कारण तुझ्यासाठी काही करताना मला आनंद होतो ! होय ,कधी राधा ,कधी मीरा ,कधी रुक्मिणी ,कधी उमा ,सत्यभामा ,सीता अन गीताही होऊन चरोंचरी तुझ्या साठीच फक्त …पण तू अनभिज्ञ .निर्विकार ,बेफिकीर …अजाणता ….तुला कळतच नाही अन कळणारही नाहीत या मनाच्या सुख संवेदना अन दुःखाच्या सूक्ष्म छटा …तरीही मी गुंफतेय …विणतेय …जपतेय ..रंगीत स्वप्ने फक्त तुझ्यासाठी …कारण ….तुला त्या स्वप्नात गुंफलेय म्हणूनच तर हे आंतरिक सुखावणे फक्त त्या अपूर्ण स्वप्नांसाठीच !!

स्वप्नातल्या कळ्यांची फुले फुलतच नसतात तरीही कळ्या उमलू पहातातच न ??

© सौ.सुचित्रा पवार

22/4/19

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा न सुटलेले ग्रहण – भाग – एक ☆ सौ. सुनिता गद्रे

सौ. सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ कथा न सुटलेले ग्रहण – भाग – एक ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

(एका सत्य घटनेवर आधारित….ती सत्यघटना भाग 6 आणि 7 मध्ये)

या नव्या छोट्या गावात आल्यापासूनच सीमा उदास झाली होती. तिचं कशातच मन लागत नव्हतं .पण काय करणार? अजयचा जॉबचअसा होता. दर तीन वर्षांनी बदली… नवं गाव… नवा बंगला किंवा फ्लॅट…नव्यानं संसार मांडायचा… ओळखीपाळखी होऊन जरा रुळतोय तोपर्यंत पुन्हा बदली !अजय अखंड कामात गुंतलेला,तर मुलं शिक्षणासाठी सासरी- पुण्याला.शेवटी नाईलाजानं, टाईमपास म्हणून ,तिनं बंगल्या समोरच्या मोठ्या बागेत लक्ष घालायला सुरुवात केली. हळूहळू तिचं मन त्यात रमू लागलं. एके दिवशी माळी वाफे तयार करत होता आणि ती त्याला सूचना देत बागेचे निरीक्षण करत होती. वेगळ्या रंगाच्या फुलांनी लगडलेल्या जास्वंदी वरून अचानक तिची नजर शेजारच्या खूप मोठ्या अलिशान बंगल्याकडे गेली…

…अन् ती आनंदानं जोरात किंचाळलीच ,”हेअ चेरी!”  नकळत चार-पाच पावले चालून ती तिथल्या कंपाउंड पर्यंत ही गेली .बंगल्याबाहेरच्या बागेत उभ्या असलेल्या दोन तरुणींपैकी एकीचं लक्ष सीमाकडं गेलं. तिच्या चेहऱ्यावर ओळख पटल्याचे भाव पण आले. पण….. अनपेक्षितपणे डोक्यावरचा पदर हनुवटीपर्यंत खाली ओढून ती तेथून निघून गेली. सीमाच्या जिवाचा संताप- संताप झाला. एवढा घोर अपमान!…” मीच मूर्ख!” पुटपुटत तिनं मान वळवली.

‘पहिल्यापासूनच ही मस्तवाल आहे’. तिचं विचार चक्र चालू झालं.’ मान्य आहे की ही गर्विष्ठ मुलगी….अलकनंदा उर्फ चेरी होती दिसायला शाळेत सर्वात सुंदर…. अभ्यासात पहिला नंबर न सोडणारी…. आणि हो ,सर्वात श्रीमंत सुद्धा! ड्रायव्हर तिला मोठ्या कारमधून  शाळेत सोडायला आणि घेऊन जायला यायचा. पण… पण त्याचं आत्ता काय? मला तिने बहुतेक ओळखलं होतं… मग दोन शब्द हसून बोलण्यानं तिचं काही बिघडणार होतं ?….जाऊ दे ,म्हणून सोडला तरी सीमाच्या मनातून चेरीचा विषय जात नव्हता.

साधारण दोनेक महिन्यानंतरची गोष्ट .सीमाला त्यांच्या लेटर बॉक्स मध्ये एक जाडजूड पाकीट मिळालं. उघडलं, तर एक पाच पानांचं मोठं पत्र .पत्राच्या शेवटी लिहिलं होतं , ‘अभागी चेरी.’ सीमाचा राग उफाळून आला. म्हणजे ती चेरीच होती…हट् आलीय मोठी तालेवार!…अभागी म्हणे….नौटंकी करतेय….

टेबलावर भिरकावून दिलेले पत्र, नंतर कधीतरी तिनं कुतूहलापोटी वाचायला घेतलं….आणि भारावून गेल्यागत ती वाचतच राहिली.

आपण तिला एक घमेंडखोर ,श्रीमंती तोर्‍यात वावरणारी ,इतर मुलींना तुच्छ लेखणारी, शिष्ठ मुलगी समजत होतो ..किती चूक होतो आपण! सीमाचं मन तिला खाऊ लागलं. रात्री अंथरूणावर आडवी झाली तरी ती अस्वस्थच होती. तिच्या मनातून चेरीचे ते पत्र जाईचना. त्यातली एक एक वाक्यंं तिला जास्ती जास्ती बेचैन करत होती. ‘तू पत्र न वाचता फाडून टाकलस तरीही ते चूक ठरणार नाही .’माझ्या त्या दिवशीच्या वागण्यानं तू मला असभ्य समजू शकतेस.’ ‘तुम्हा मैत्रिणींना माहित नव्हतं पण तेव्हाही मी सप्रेस्ड, दब्बू अशीच मुलगी होते.’ ‘ शेजारच्या तुझ्या बंगल्याच्या लेटर बॉक्समधे पत्र टाकणं हे ही माझ्या दृष्टीने एक मोठं धाडसच आहे.’

‘बापरे, कसलं हे कैद्यासारखं जीवन.’ सीमाचे विचार चालू झाले .मग तिला पडून रहावेना. उठून तिनं पत्र हातात घेतलं आणि त्यातली अक्षरंं पुन्हा तिच्याशी बोलू लागली……

अगं या घरातच काय पण माहेरीही मी दबावाखालीच जगत होते. तुला मी कशी विसरेन गं ?दहावीपर्यंत आपण एकाच वर्गात शिकलोय .तुमचा तो ‘पंचकन्यांचा बिंदास ग्रुप!’… मला तुमचा फार हेवा वाटायचा. माझ्यावरची बंधनंं मला टोचायची. इतरांना रुबाब वाटला तरी माझं कारनंं येणं जाणं हेही एक बंधनच होतं.

माझ्या बाबांचा डायमंडच्या बिझनेस!…. खूप वैभव मी अनुभवलं …..आणि आताही अनुभवतेय .त्यात सुख असतं गं, पण समाधान आनंद नसतो .स्वतःच्या मनातले बोलण्याचा, मनासारखे वागण्याचाअधिकार, तसाही आमच्यासारख्या अर्थोडॉक्स मारवाडी समाजात मुलींना नसतो. भरभरून जीवन जगणं मला माहीतच नाही. मला डॉक्टर व्हायचं होतं. पण मी बारावीत असतानाच बाबा वारले आणि घराची सत्ता भय्या -च्या हातात आली. त्याचा माझ्या शिक्षणाला विरोध होता. त्यामुळे मग मला बीएससीवरच समाधान मानावं लागलं. घरात तर त्यापूर्वीच वरसंशोधन सुरू झालं होतं.शिक्षण संपल्यानंतर आयुष्याच्या पुढचा टप्पा म्हणजे लग्न !

  क्रमशः…

© सौ सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares