हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह  “जीवन वीणा” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)

कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज

मूल्य : १५० रु

पृष्ठ : १५०

आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆   

जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों,  वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है,  तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक,  प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.

उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं

” घड़ी दिखाई देती है,  समय तू भी तो दिख “.

वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…

” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण,  ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी,  कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.

उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है,  बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है,  उसने मुझे ऐसा धकियाया है,  जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.

गीत,  बाल कवितायें,  क्षणिकायें,  नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी,  दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है,  जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं,  किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है,  मुझे तो अपनी बात कहनी है “.

कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है,  शिष्ट है,  नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम,  राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.

उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व,  समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये,  क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी,  अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है,  जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है,  जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं,  तो वे कुछ बड़ा,  शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.  

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक कविता  क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर । )

☆ कविता – क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

[1] 

नमाजें पढ़ी गई

दुआओं के लिए हाथ उठे,

भजन-कीर्तन-आरती

हवनों के लिए हाथ बढ़े।

इ‌धर ईश्वर हैरान हैं

उधर खुदा परेशान हैं

ये जो हिन्दुस्तान है

वो जो पाकिस्तान है

इन दोनों के लिए

दोनों एक समान है।

 

[2] 

मैच पाकिस्तान से था

इसीलिए कल भारत से

एक भी आत्मा यमलोक नहीं आयीं

बेचारे यमराज उदास होकर

आपना सिर धुन रहे थे,

क्योंकि प्राण लेने के लिए

भेजे गए यमदूतों में से

कुछ टीवी देख रहे थे

कुछ कमेन्ट्री सुन.रहे थे।

 

[3] 

हमें इस बात का ग़म नहीं

कि हमारा उत्पादन,

हमारी माँग की तुलना में

बहुत कम है,

गम है तो बस

इतना गम है,

कि हमारे रनों की संख्या

विरोधी टीम ये

क्य़ों कम है ?

 

[4] 

हमारा दिल

तब नहीं दहलता

जब दूध के अभाव में

एक मासूम अपना दम

तोड़ देता है,

हमारा दिल

तब दहलता है

जब एक मासूम-सा कैच

एक विराट-सा खिलाड़ी

छोड़ देता है।

 

[5] 

हमने देखी है

हर हाथों की बाॅलिंग- बैटिंग

इसको या उसको भी

शिकवों का इलजाम न दो,

क्रिकेट एक नशा है

रूह से मजा ले लो

खेल को खेल ही रहने दो

कोई नाम न दो ।

 

[6]

भूख-गरीबी- बेकारी

कोरोना- पेट्रोल जैसे

हमारे इर्द-गिर्द

कई राष्ट्रीय गम है,

इन सबके बावजूद

मुस्कराते, चिल्लाते -ताली बजाते

टीवी पर मैच देखते

हम हैं,

हम क्या किसी

” मैन ऑफ दि मैच ” से

कम हैं !

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 101 – लघुकथा – सोलह श्रृंगार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “सोलह श्रृंगार । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 101 ☆

? लघुकथा – सोलह श्रृंगार ?

आज करवा चौथ है। और शाम को बहुत ढेर सारे काम है। ब्यूटी पार्लर भी जाना हैं। रसोई में देखना है कि बाई आज क्या बना रही है।

श्रेया मेम साहब  सोचते – सोचते अपनी धुन पर बोले जा रही थीं। सुबह के नौ बज गए हैं महारानी (काम वाली बाई) अभी तक आई नहीं है। उसी समय दरवाजे की घंटी बजी।

जल्दी से दरवाजा खोल वह बाई को अंदर आने के लिए कहतीं हैं। मेम साहब नमस्ते ? किचन में जाते -जाते बाई कमला ने आवाज लगाई।

श्रेया मेम की नजर बाई पर पड़ी तो वह उसे देखते ही रह गई, कान में झुमके, पांव में पायल, हाथों में कांच की चुडिंयों के साथ सुंदर चमकते कंगन। वह दूसरे दिन से बहुत अलग और सुंदर लग रही थी।

वह आवाक हो बोल उठी… क्या बात है कमला आज तो… बीच में बात काटकर कमला बोली… मेरा आदमी सही बोल रहा था… हम गरीब हैं तो क्या हुआ आज तुम इन नकली गहनों में बहुत सुन्दर लग रही हो । बहुत प्यार करता है मुझे आज मेरे लिए व्रत भी रखा है।

हम गरीबों के पास एक दूसरे का साथ ही होता है। मेम साहब जीने के लिए। सच बताऊँ मेरे पति ने रोज की अपनी कमाई से महिने भर थोड़ा थोड़ा बचा कर चुपचाप आज मेरे लिए ठेले वाले से ये सब लिया है।

मै भी सोलह श्रंगार कर शाम को पूजन करुंगी। उसने मुझे सुबह से पहना दिया। बहुत खुश हो वह बोले जा रहीं थीं। श्रेया को लाखों के जेवर और ब्यूटी पार्लर जाकर भी इतनी खुशी नहीं मिलती, जितना आज कमला नकली जेवर पहन चहक रही है।

श्रेया मेम साहब की आंखों से आंसू बहनें लगे, पेपर से मुंह छिपाते दूसरे कमरे में जाकर फोन करने लगी।  शायद अपने पति देव को जिनसे महीनों से कोई बात नहीं हुई थी।

दोनों अपनी – अपनी सोसाइटी और दिखावे पर गृहस्थी  चला रहे थें। उन्हें कमला की बातें सुनाई दे रही थी.. मेरा पति मुझे बहुत प्यार करता है मेम साहब!!!!!!!

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (26 -30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (26-30) ॥ ☆

यथा पवन प्रेरित लहर मानस की राजहंसी को नये कमल तक

तथा सुनंदा ने इंदुमति को बढ़ाया आगे नये नृपति तक ॥ 26॥

 

तथा बताया यह अंगनृप हैं सुराइनाओं की कामना जो

विशेष अपने गजों से जिसने है पाई धरती पै इंद्रता को ॥ 27॥

 

अरिपत्नियों को दिये हैं जिसने मुक्ताओं सम केवल अश्रु बिखरे

विशाल वक्षस्थलों का जैसे हो मुक्तमाला बिना ही पहरे ॥ 28॥

 

स्वभ्ज्ञावतः भिन्न निवास कत्री सरस्वती भी हैं साथ जिसके –

सौदर्य माधुर्य औं योग्यता से बनो तृतीया त्वमेव उसके ॥ 29॥

 

यह सुन हटा दृष्टि वहाँ से आगे बढ़ो कहा तब कुमारिका ने

वर काम्य था, कन्या पारखी थी पर भिन्नता होती चाहना में ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २६ ऑक्टोबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २६ ऑक्टोबर  –  संपादकीय  ?

नोबेल पुरस्कार : आल्फ्रेड बनार्ड नोबेल हे स्वीडिश  रसायन शास्रज्ञ होते. डायनामाईट या जगप्रसिद्ध विस्फोटकाचा शोध त्यांनी लावला. या शोधामुळे त्यांना अमाप संपत्ती मिळाली, परंतु आपल्या शोधाचा उपयोग युद्धातच जास्त प्रमाणात होत असल्याचे त्यांना दिसून आले. त्यामुळे अनेकांच्या मृत्यूला आपण करणीभूत झालो, ही गोष्ट त्यांना सलत होती. म्हणून त्यांनी आपल्या मृत्युपत्रामध्ये, स्वत: मिळवलेल्या या अमाप संपत्तीमधील मोठा वाटा  नोबेल पुरस्कार देण्यासाठी म्हणून वापरला जावा, अशी तरतूद केली. त्यांच्या या इच्छेनुसार आल्फ्रेड बनार्ड नोबेल यांच्या पाचव्या स्मृतिदिनापासून म्हणजेच १०डिसेंबर १९०१ पासून रसायनशास्त्र,  साहित्य, जागतिक शांतता, वैद्यकशास्त्र, किंवा जीवशास्त्र आणि अर्थशास्त्र या क्षेत्रामध्ये, संपूर्ण विश्वात अतुलनीय कामगिरी करणार्‍या संशोधक व शांतीदूताला पारितोषिक म्हणून हा पुरस्कार देण्यास सुरुवात केली.

रवींद्रनाथ टागोर – ( ७ मे १८६१- ७ ऑगस्ट १९४१)   भारतामध्ये हा पुरस्कार साहित्य क्षेत्रासाठी रवींद्रनाथ टागोर यांच्या गीतांजलीला सन १९१३ साली मिळाला. ते कवी, कथाकार, नाटककार, संगीतकार, चित्रकार, शिक्षणतज्ज्ञ, तत्वज्ञ   होते. रवींद्र संगीत म्हणून संगीताची नवी धारा त्यांनी प्रवाहीत केली. त्यांचे वैचारिक आणि ललित लेखनही आहे. घर और बाहर, कबुलीवला, द गार्डनर, स्ट्रे बर्ड्स, द गोल्डन बोट, द पोस्ट ऑफिस इ. त्यांची पुस्तके प्रसिद्ध आहेत. कबुलीवला, पोस्ट ऑफिस इ. त्यांच्या पुस्तकांवर चित्रपटही निघाले.

त्यांना १९१५ मध्ये किंग जॉर्ज पंचम यांनी नाईटहूड ही पदवी दिली होती. ती त्यांनी ‘जालियनवाला बाग’ हत्याकांडाच्या निषेधार्थ परत केली. 

सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल –(१७ऑगस्ट – २०१८) व्ही. एस. नायपॉल म्हणून त्यांची विश्वात ओळख आहे. नोबेल परितोषिक मिळवणारे हे भारतीय वंशाचे पण लंडनमध्ये वास्तव्य करणारे साहित्यिक। त्यांना साहित्यासाठी २००१ मधे नोबेल पुरस्कार मिळाला. त्यांनी अनेक कादंबर्‍या लिहिल्या. त्यापैकी ‘ए हाऊस ऑफ मि.विश्वास’ ही कादंबरी विशेष गाजली. याशिवाय त्यांनी, ए बेंड इन द रिव्हर, इन ए फ्री स्ट्रीट, अ वे इन द वर्ल्ड, मॅजिक सीडस इ. कादंबर्‍या लिहिल्या. या व्यतिरिक्त अन्य अनेक विषयांवरची त्यांची पुस्तके आहेत. त्यांनी भारताचा इतिहास, सस्कृती, सभ्यता यावर ‘अ‍ॅन एरिया ऑफ डार्कनेस’ आणि ‘अ वुंडेड सिव्हीलयझेशन’ ही पुस्तके लिहिली.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :- १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी “.  २) गूगल गुरुजी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नव्या वाटा…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नव्या वाटा…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

 

गळूनी गेली सारी पाने

वृक्ष उभा ताठ

शिशीर संपूनी वसंत येईल

पुन्हा दिमाखात

 

बहर संपला

वादळ आले

तरूवर सारे

उन्मळूनी पडले

 

सोबतीला एकाकी जीवन

लेकुरवाळी मुले

इंद्रधनूचे सप्तरंग जणू

अंगण आनंदाने फुले

 

उदास स्वर ते माररव्याचे

परि वसंतात राग बहार

सुख दुःखाच्या झुल्यावरती

मिळे जगण्याला आधार

 

खेळ संपला जुना

चालणे नवीन वाटेवरी

अखेरच्या श्वासापर्यंत

जगायचे भूवरी

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शब्द… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शब्द… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

शब्द बंबाळ जग आहे हे,

  शब्दांचा बडिवार तो किती!

कधी गोड तर कधी कडू,

  सारी शब्दांचीच दिठी !

 

कधी शब्द माणिक मोती,

  कधी मुक्ताफळे उधळती !

ओथंबून   मायेपोटी ,

  नाटकी पणी ही कधी येती!

 

शब्द सखा बनून  येती,

  ओढ जीवाला लावती!

शब्द भाव भरून येती,

  काळजाला जाऊन भिडती!

 

कधी शब्द नि:शब्द बनून येती,

  अन्  अंतरात  घुसती !

खोल रुतून बाणा परी ,

  जखमी करून जाती!

© सौ. उज्वला सहस्रबुद्धे

वारजे, पुणे (महाराष्ट्र)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 109 ☆ कातरवेळी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 109 ☆

☆ कातरवेळी ☆

तिला पाहुनी सुचती मजला सुंदर ओळी

तिच्या मनीचे भाव मांडतो देते टाळी

 

तिची भेट तर ठरली होते कातरवेळी

इतक्या साध्या स्वप्नांचीही व्हावी होळी

 

बाप करारी वाटत होता तो तर कोळी

मला पाहते नजर तिची तर ही मासोळी

 

मीही होतो शेर तसा तर एकेकाळी

बाप तिचा हा पाहुन झाली माझी शेळी

 

माय तिची तर खूपच होती साधीभोळी

हात तिचा तर सदैव होता अमुच्या भाळी

 

नशीब होते बागेचा मी झालो माळी

आज फुलांनी भरली होती माझी झोळी

 

अंगणातली सारवलेली जमीन काळी

त्या भूमीवर प्रिया काढते मग रांगोळी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ बापमाणूस ☆ डॉ मेधा फणसळकर

डॉ मेधा फणसळकर

?  विविधा  ?

☆ बापमाणूस ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

काही दिवसांपूर्वी आमच्या ब्रह्मकमळाच्या झाडावर एका बुलबुलच्या जोडीने घरटे बांधले आणि थोड्याच दिवसात छोटी, चिमुकली पिल्ले दिसू लागली. आई – बाबा आपापल्या  पिल्लांसाठी खाऊ घेऊन येत असत. पण ते घरटे इतके खाली होते की आमच्या घरातील मांजरे त्यावर डोळा ठेवून होती. आणि एक दिवस त्यांनी डाव साधलाच.बिचाऱ्या आई बुलबुलची शिकार त्यांनी केली.पिल्ले एकटी पडली. पण बाबा बुलबुल मात्र आता दोन्ही जबाबदाऱ्या पार पाडू लागले.ते दृश्य बघताना माझ्या डोळ्यासमोर बापाची अनेक रुपे उभी राहू लागली.

काही वर्षांपूर्वी लहान मुलांसाठी “निमो” नावाचा एक animated चित्रपट आला होता. त्यामध्ये छोट्या निमो माशाची आई मरते व त्याचे बाबा त्याचा डोळ्यात तेल घालून सांभाळ करु लागतात. पण दुर्दैवाने निमो कोळ्यांच्या जाळ्यात सापडतो आणि मग त्याला वाचवण्यासाठी त्याच्या वडिलांनी केलेली धडपड आपल्या काळजाला हात घालते.

मग माझ्या डोळ्यासमोर उभा राहिला तो श्री. ना. पेंडसे यांच्या गारंबीच्या बापूचा ‛ विठोबा’!

लेकावर अमाप प्रेम करणारा ! बापूच्या आईला स्वतःच्या स्वार्थापुढे मुलगा आणि नवरा यांची किंमत नसते. पण हा विठोबा आपल्या या बापूवर इतके आंधळे प्रेम करत असतो की आपला मुलगा कधी चुकीच्या मार्गाला लागला हे त्यालाच समजत नाही.

याउलट नरेंद्र जाधवाचा मिश्किल आणि रांगडा बाप त्या प्रतिकूल परिस्थितीतही अनेक विनोद निर्माण करत आयुष्य आनंदाने कसे जगायचे हे नकळतपणे मुलांना शिकवून जातो.

तर ह. मो. मराठे यांचे वडील म्हणजे विक्षिप्तपणाचा नमुना! आपल्याबरोबर त्या लहानग्या आईविना असणाऱ्या पोराची फरफट करणारे! पण त्याचबरोबर त्या मुलावर माया पण असणारे ! असे अजब मिश्रण!

अवघ्या महाराष्ट्राचे लाडके दैवत असणारे शिवाजीमहाराज शत्रूशी दोन हात करताना जेवढे कणखर होते तितकेच आपला पुत्र शंभूराजांच्या बाबतीत अतिशय हळवे!  दिलेरखानाच्या छावणीतून पुत्राला परत आणण्यासाठी ते स्वतः जातीने जातात. अवघड जागेचे दुखणे तितक्याच कौशल्याने हाताळले पाहीजे हे त्यांच्यातील बापाला माहीत होते. म्हणूनच स्वतःतील राजेपण बाजूला ठेवून ते बाप बनून शंभूराजांना परत घेऊन येतात.

‘मार्टिना नवरातिलोव्हा’ नावाची ८०/९० च्या दशकातील  टेनिस खेळणारी लोकप्रिय खेळाडू! लहानपणी तिच्या पुरुषी दिसण्यावरुन शाळेतील मुले- मुली तिला चिडवत असत. त्यावेळी तिचे वडील हिरमुसलेल्या  तिला सांगतात,“ आयुष्यात सुंदर दिसणे महत्वाचे नाही तर आपल्या कर्तृत्वाने दुसऱ्याच्या जीवनात काहीतरी सुंदर अनुभूती देणे अधिक महत्त्वाचे आहे. ” आणि त्यानंतर तिने विम्बल्डनमध्ये  इतिहास घडवला. तिच्यात हा आत्मविश्वास केवळ वडिलांच्या शब्दांनी निर्माण झाला.

ज्या समाजात लहान असताना सिंधुताई सकपाळ  रहात होत्या त्या समाजात स्त्रियांनी शिक्षण घेणे योग्य मानले जात नव्हते. तरीही त्यांच्या आईच्या विरोधाला न जुमानता सिंधुताईंच्या वडिलांनी त्यांना यथाशक्ती शिक्षण दिले. त्याच इवल्याश्या पुंजीवर सिंधुताईनी आज केवढी भरारी मारली आहे हे आपण जाणतोच.

इंदिरा संत व ना.मा. संत यांचा मुलगा , लेखक‛ प्रकाश संत’ यांना वडिलांचा सहवास अगदी अल्पकाळ मिळाला. पण त्यांच्या लेखनातून प्रकाशना ते भेटत गेले व  त्यांचे जीवन समृद्ध होत गेले.      

याउलट प्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला हिच्या सौंदर्य व अभिनयाचा फायदा घेत तिच्या वडिलांनी तिच्या लहान वयातच चित्रपटक्षेत्रात तिचा प्रवेश करवून अमाप पैसा मिळवला.

‛आनंद यादव’ यांना वडिलांच्या जाचामुळे अनेकदा ‛शिक्षणापासून वंचित रहावे लागते की काय?’ अशी परिस्थिती निर्माण होत असे.

परवाच झी वहिनीच्या ‘लिटल चॅम्प’ या कार्यक्रमात एका मुलीने वडीलांविषयी अतिशय कृतज्ञतापूर्ण उद्गार काढले. त्यांच्या वैयक्तिक समस्येमुळे आईचा सहवास नसणाऱ्या या मुलींना वडील तितक्याच जबाबदारीने सांभाळत आहेत. आणि ही गोष्ट खरोखरच प्रशंसनीय आहे.

असे हे वडिलांचे वेगवेगळे रंग त्या एका घटनेने मनात उभे राहिले. काळ बदलला तसे हे नाते पण बदलत गेले. पूर्वी घराघरात वडिलांची प्रतिमा ‛कडक शिस्तीचे’ अशीच असे. वडीलांसमोर बोलण्याची मुलांची हिम्मत होत नसे.पण हळूहळू ही मानसिकता बदलली आणि नाते अधिक दृढ होऊ लागले. वडील केवळ वडिलांच्या भूमिकेत न राहता मित्रत्वाच्या नात्याने मुलांशी जोडले गेले. काहीवेळा मनात असूनही  प्रत्यक्ष भावना व्यक्त करण्यास मनुष्याला संकोच वाटतो. पण आता फेसबुक, व्हाट्सएपच्या माध्यमातून  दोघेही आपल्या भावना  अधिक चांगल्या पद्धतीने पोहोचवू लागले आहेत.

जग बदलले, घरे बदलली, माणसे बदलली. त्यामुळे नात्यांचे रंग बदलले.पण पिढ्यान् पिढ्या वडिलांची भूमिका तिच राहिली. काही अपवाद असतीलही; पण घरातील ‘आधारवड’ म्हणून वडील आजही ठाम उभे असलेले दिसतात. त्या बुलबुल बाबासारखा पिल्लांच्या पंखात बळ येईपर्यंत तो त्यांच्या पाठीशी खंबीरपणे उभा राहतो.पिल्ले आकाशाला गवसणी घालू लागली की मात्र अभिमानाने डोळे भरुन त्याची भरारी बघण्यात धन्यता मानतो. म्हणूनच तो “बापमाणूस”!

© डॉ. मेधा फणसळकर

मो 9423019961

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा न सुटलेले ग्रहण – भाग – पाच ☆ सौ. सुनिता गद्रे

सौ. सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ कथा न सुटलेले ग्रहण – भाग – पाच ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

(एका सत्य घटनेवर आधारित….ती सत्यघटना भाग 6 आणि 7 मध्ये)

वटव्रत आणि त्याची भयंकर सांगता चेरीला टाळायची आहे. त्यामुळे मदत मागायला मोठ्या विश्वासाने ती सीमाकडे आली आहे .आता पुढे ..

एवढं बोलून झाल्यावर, चेरी आपादमस्तक थरथर कापते आहे, तिचा चेहरा पांढरा फटक पडलाय, तोंड कोरडे पडल्याने ती बोलूच शकत नाहीय… हे सगळं सीमाच्या लक्षात आलं .फाशी लावून ‘सगळी आत्महत्या करणार? वडिलांना मोक्ष देऊन स्वतः दीर्घायुषी होण्यासाठी?  अतर्क्य!’….तरीही आपली उडालेले घाबरगुंडी लपवून सीमानं  चेरीला आधार दिला. तिच्या पाठीवर आपुलकीने हात फिरवत तिला विचारलं,            ” ह्या पाईप आणि भोकांच्या मागं काय तर्क आहे?”

“अगं फाशीला लोंबकाळल्यावर आमचे आत्मे शरीरातून पाइपद्वारे वरती जाणार. तिथल्या आत्म्यांना गती देऊन पुन्हा भोकामधून आमच्या शरीरात प्रवेश करणार. मृतात्मे स्वर्गात …तर आम्ही पृथ्वीवर दीर्घायुष्य उपभोगणार!…..”

सीमा उद्गारली,” ओ माय गॉड!…. नऊ जणांची अंधश्रद्धेमुळे…इतक्या टोकाला गेलेल्या अंधश्रध्देमुळे…  सामूहिक आत्महत्या…माझी  तर मतीच कुंठित झालीय…”

तरी सगळं धैर्य एकवटून…मोठी जबाबरीची भूमिका घेत ती चेरीला समजावू लागली की आम्ही तुझी सर्वतोपरी मदत करू.तू योग्य जागी आली आहेस.

खूप वेळ पसरलेल्या भयाण शांततेला चिरत, स्वतःच्या भावनांवर मिळवलेल्या ताब्यामुळे, आशावाद…अन् आत्मविश्वासाने भरून गेलेली चेरी ठामपणे बोलू लागली,

“पण हे सगळं मी होऊ देणार नाही. कारण तू मला मदत करणारच आहेस. बराचसा मुख्य  पुरावा आता तुझ्या मोबाईलमधे आहेच. मंगळवारी संध्याकाळपासून मदिरा प्राशन करून पूजा सुरू होईल….. पण मी तिथे नसेन…. बॅकयार्डच्या कुंपणाच्या तारा मी वाकवून ठेवल्यात. त्यामुळे मी आजच्या सारखीच मंगळवारी पण बाहेर पडेन.”

डायरी घेऊन जाता जाता ती पुन्हा थांबली. म्हणाली,” आता मी पूर्वीसारखी लेचीपेची राहिली नाहीय. त्यामुळे वड- व्रताचा विचार माझ्या मेंदूचा भुगा पण करू शकला नाही. आणि मला वेड पण लागलं नाही. माझं नशीब पण जोरावरच आहे त्यामुळे तू मला आज घरातच भेटलीस. नाही तर…. हो ,माझं आता ठरलंय… सगळ्यांना मी वाचवणारच आहे…. तुझ्या मदतीने ..आणि हो, यापुढे मी त्या घरात राहणार ही नाही.. जर हा जो सगळा बच्चूवाला विचित्रपणा आहे नां तो सोडून… मेडिकल सायन्सची मदत घेऊन… नॉर्मल जीवन जगायला माझा पती तयार असेल तर त्याच्या बरोबर ,नाहीतर त्याच्या शिवाय ,….पण मी आता आत्मसन्मानानं,माझ्या टर्म वर जगणार आहे. ती गेली…

अजय आल्यावर एका क्षणाचाही विलंब न लावता सीमानं सगळा वृतांत त्याला सांगितला. दोघांनी मोबाईल मधले डायरीचे फोटो वाचले . हे सगळे खूप गंभीरपणे घ्यायची गरज होती आणि वेळ वाया न घालवता उपाय पण शोधायची गरज होती.अजयने अंनिसच्या पाटील काकांची मदत घेतली.. आणि सगळी चक्र जोरात फिरू लागली. अजय, पाटील काका, वकील, सायकॉलॉजिस्ट, सायकॅट्रिस्ट,  पोलिस यंत्रणा सर्वांनी विचारविमर्श करुन , प्लॅन तयार केला…आणि मंगळवारचा भयंकर प्रसंग घडू न देण्यासाठी ते सज्ज झाले . कोण्या तांत्रिक-मांत्रिकाचा यात हात नसल्याची माहिती त्यांना प्रयत्न केल्यावर मिळाली. त्यामुळे हे कृत्य घरच्यांचे आहे हे उघड झाले .

मंगळवार उजाडला .सीमाचं घर कामात लक्षच लागत नव्हतं. नेमकं खिडकीतून बाहेर लक्ष गेलं. आज वटपौर्णिमा !वडावर पूजा करणाऱ्या बायकांची गर्दी दिसली… पण…जशी तिची पारंब्यावर नजर गेली… तसं तिच्या हातापायातलं त्राणच गेलं.

तिच्या मनःचक्षूला पारंब्यांच्याजागी , लोंबकळणारी…. वाऱ्याबरोबर हलणारी,….

जीभ बाहेर आलेली…नऊ प्रेतेच दिसत होती…खिडकी बंद केली तरी डोळ्यासमोरचं ते  दृश्य जाईना. मनातली तळमळ जाईना.चेरी येऊ शकेल ना ?….. सगळ्या गोष्टी प्लॅन प्रमाणं होतील ना?….. शंका..शंका….आणि फक्त शंकाच.. मनात थैमान घालत होत्या.

संध्याकाळी चेरी आली. तशी सीमाला हायसं वाटलं. दोघी गळ्यात गळे घालून रडल्या.पण नंतर एकमेकींना धीर देत राहिल्या.कानात- डोळ्यात प्राण आणून दोघी मोबाईलकडे आणि घड्याळाकडे पाहत राहिल्या.  घड्याळाचा काटा पुढे सरकतच नाहीय असं दोघींना वाटत राहिलं….. शेवटी एक मोठा मेसेज आला ‘खूप मोठी जीवितहानी टळलीय…. पण माताजी वाचू शकल्या नाहीत.आणि या सगळ्याचा सूत्रधार जीवन मेहता, व त्याला साथ देणारे सर्व – त्याची पत्नी ,भाऊ, आणि बहीण पोलीस कस्टडीत आहेत .या प्रसंगाने भयभीत झालेले इतर कुटुंबीय हॉस्पिटलमध्ये अंडर- ऑब्झर्वेशन आहेत.

फोनवर झडप घालून दोघींनी मेसेज वाचला.सीमानं सुटकेचा निश्वास टाकला… प्लॅन तसा खूपसा सक्सेसफुल झाला याबद्दल… पण त्या न पाहिलेल्या माताजींबद्दल तिला हळहळ ही वाटत राहिली….आणि चेरी?…तिची फारच विचित्र अवस्था झाली होती.क्षणात ती देवाचे आभार मानत होती.. तर क्षणात जोर-जोरात रडत होती. तिच्या पाठीवरून हात फिरवत , तिला सांत्वना देता देता सीमा विचार करत होती,’ हे उभ्या घराला लागलेलं खग्रास चंद्रग्रहण  आपल्या सगळ्यांच्या प्रयत्नामुळे लागण्यापूर्वीच सुटले. पण माताजींचा बळी गेलाच…चेरी पुन्हा पुन्हा मेसेज वाचतेय. तिचं दुःख आपण समजू शकतोय…. पण…. त्या बिचारीच्या संसाराला, आशा -आकांक्षांना, उत्साह, उमेदीला, सुखी दांपत्य  जीवनाच्या पाहिलेल्या स्वप्नांना.. सगळ्या सगळ्याला लागलेलं एक खग्रास, आजवर न सुटलेलं ग्रहण, कधी सुटेल का? त्यातून ती बाहेर पडेल का?’

एक मोठा सुस्कारा सोडून सीमा निशब्दपणे चेरीकडे पाहत राहिली.

  क्रमशः…

कथा समाप्त. पण ज्या सत्यघटनेवर ती  आधारित आहे, ती घटना सहाव्या आणि सातव्या भागात.

 

© सौ सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares