(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत “बूढ़ी साइकिल और पिताजी”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय आलेख ‘मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 120 ☆
आलेख – मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय
हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight). जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है. हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है. यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।
सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।
क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं. किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है.आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं.आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “चोर !”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 ☆
☆ लघुकथा — चोर ! ☆
नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”
“आप उसे उतारते नहीं है?”
“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।
“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।
“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”
यह सुन कर एकटक देखता रहा।
“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”
“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।
“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”
यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”
आज २८ ऑक्टोबर — सुप्रसिद्ध कवी गिरीश म्हणजे श्री. शंकर केशव कानेटकर, यांचा जन्मदिन. ( २८/१०/१८९३ – ४/१२/१९७३ )
१९२० च्या दशकात पुण्यातील काही समविचारी कवींनी ,कविता लोकांपर्यंत पोहोचविण्याच्या उद्देशाने स्थापन केलेल्या “ रविकिरण मंडळाचे “ कवी गिरीश हे अगदी स्थापनेपासूनच एक प्रमुख सदस्य होते. मुधोजी हायस्कुल, फलटण इथे प्राचार्य म्हणून कार्यरत असतांना, त्याच काळात त्यांनी अनेक कविता लिहिल्या. बालकवी आणि गोविंदाग्रज या त्यावेळच्या दोन प्रसिद्ध कवींकडून त्यांनी काव्यरचनेची स्फूर्ती घेतली असे जरी म्हटले जात असले, तरी कवी गिरीश यांची काव्यरचना स्वतंत्र होती. कवितेत विविध वृत्तांचा उपयोग, रेखीव काव्यरचना, वळणदार घोटीव अक्षर, ही त्यांच्या कवितेची लक्षणीय वैशिष्ट्ये होती. कांचनगंगा, चंद्रलेखा, फलभार, बालगीत, आणि, सोनेरी चांदणे, असे त्यांचे ५ काव्यसंग्रह प्रसिद्ध झालेले आहेत. याव्यतिरिक्त त्यांची समृद्ध काव्यसंपदा पुढीलप्रमाणे आहे—- चार स्वरचित खंडकाव्ये, प्रसिद्ध पाश्चात्य कवी टेनिसन यांच्या “इनॉक आर्डेन” या दीर्घकाव्याचा “ अनिकेत “ या नावाने काव्यानुवाद, कवी यशवंत आणि कवी गिरीश यांच्या एकत्रित कवितांचे “ वीणा झंकार,” आणि “ यशोगौरी “ हे दोन काव्यसंग्रह.
“मनोरंजन” या तेव्हाच्या प्रसिद्ध मासिकात क्रमशः प्रसिद्ध झालेले “ अभागी कमल “ हे त्यांचे सामाजिक विषयावरील खंडकाव्य तेव्हा वाचकांना खूपच आवडले होते. या खंडकाव्यापासूनच सामाजिक खंडकाव्याची सुरुवात झाली असे यथार्थपणे म्हणता येईल. याबरोबरच त्यांनी “ कला “ हे एक खंडात्मक दीर्घकाव्य, आणि “ आंबराई “ हे ग्रामीण जीवनावरील खंडकाव्यही लिहिले.
“पोर खाटेवर मृत्यूच्याच दारा,
कुणा गरीबाचा तळमळे बिचारा”
—-अशासारखी त्यांची हृदयाला भिडणारी कविता आम्ही शाळेत असतांना शिकलेली आहे.
त्यांच्या अनेक स्फुट कविताही प्रसिद्ध झालेल्या होत्या.
कवी माधव ज्युलियन यांचे चरित्र, रेव्हरंड ना.वा. टिळक यांच्या “ ख्रिस्तायन ” या गाजलेल्या पुस्तकाचे पुन्हा संपादन, माधव ज्युलियन यांच्या “ स्वप्नलहरी “ पुस्तकाचे संपादन, अशा इतर कामांचे श्रेयही कवी गिरीश यांचेच आहे.
फलटणप्रमाणेच पुणे आणि सांगली इथेही ते शिक्षक-प्राध्यापक म्हणून कार्यरत होते, आणि शिक्षणक्षेत्रातील त्यांच्या या बहुमोल योगदानाबद्दल १९५९ साली “राष्ट्रपती-पदक” देऊन त्यांचा गौरव केला गेला होता, हे आवर्जून सांगायला हवे.
आजचे सुप्रसिद्ध नाटककार श्री. वसंत कानेटकर, आणि गायक मधुसूदन कानेटकर हे कवी गिरीश यांचे सुपुत्रही त्यांच्यासारखेच सुकीर्त झालेले आहेत, हे रसिकांना ज्ञात असेलच.
कविवर्य गिरीश यांना त्यांच्या जन्मदिनी विनम्र प्रणाम.
सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग.
संदर्भ : – १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी. २) माहितीस्रोत — इंटरनेट
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
या शेफाली ताईंनी सुरु केलेल्या उपक्रमावरुन काही महिन्यापूर्वी लिहिलेला लेख आठवला
अर्थात त्यांचा उद्देश आणि या लेखाचा उद्देश अगदी वेगळा आहे
पण असंच चालू राहिले तर हा काल्पनिक लेख सत्यात यायला वेळ लागणार नाही
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रिपोस्ट ?
कुंकू / टिकली डे *
(काल्पनिक, पण सध्या पहाण्यात येणा-या निरीक्षणावरुन *)
कुंकू किंवा टिकली ला इंग्रजीत काय म्हणतात हे माहित नाही त्यामुळे तेच लिहून पुढे ‘डे’ असं लिहिलय.तुम्हाला माहित असेल तर ते नाव टाकून बदल करायला हरकत नाही. बाकी बरेच जागतीक पातळीवरचे ‘डे’ उदा फादर, मदर, फ्रेंडशीप, चाँकलेट, कटलेट, वडा, सामोसा, योग डे इ.इ.इ हे माहित आहेत.
तर मंडळी, आजपासून पुढे ५० वर्षांनी कुठल्या अमेरिकन / युरोपियन संस्थेने केलेल्या पाहणीतून कपाळावर कंकू / टिकली लावणे कसे शास्त्रीय आहे हे सिध्द होऊन जुलै महिन्यातील “फूल मून” च्या जवळच्या रविवारी हा कुंकू/ टिकली डे अतीशय उत्साहात साजरा होईल यात शंका नाही. असा डे साजरा होताना कुणाच्या तरी एकदम लक्षात येईल की अरे ही तर मूळ आपलीच परंपरा आहे. त्या खास दिवसानिमित्य मग चँनेलवर “माझा कूंकवाचा कट्टा” यावर खास चर्चासत्र किंवा विविध ठिकाणी चर्चा सत्रे रंगतील. आठवडाभर स्पेशल सेल मधे अँमेझॉन किंवा तसल्याच कुठल्याही संकेत स्थळावरुन मागवलेले कुंकू/ टिकल्यांचे combo पॅक एव्हांन घरपोच मिळायला लागले असतील. आपण घेतलेले डिझाईन, किंमत शेअर केली जाईल. एखादी मैत्रीण दुस-या मैत्रिणीला उद्या माझा सेल्फीच बघ, एकदम हटके डिझाईन मागवलय असं सांगून आपण काय मागवलय हे गुलदस्त्यातच ठेवेल.
सोशल मिडीयावर याचे महत्व सांगणारे अनेक निबंध लिहिले जातील, दूरदर्शन वर कुंकू सिनेमा तर काही चॅनेलवर कुंकू मालिकेचे भाग दाखविले जातील आणि इतर अनेक स्पेशल ‘डे ‘ सारखा हा दिवस तेवढ्यापुरता साजरा होऊन संपून जाईल.
रात्री आठ सव्वा आठची वेळ, अमित ऑफिस मधून घरी परतला व अत्यंत उत्साहाने मुग्धाला आवाज देवू लागला.
“मुग्धा, ए मुग्धा, अगं ऐक ना, उद्या संध्याकाळी गेट टुगेदर ठरलं आहे आपल्याकडे. प्रतिक आणि प्रिया आले आहेत गोव्याहून एका लग्नासाठी, फक्त दोनच दिवस आहेत ते इथे मग काय आपल्या अख्ख्या गॅंगलाही आमंत्रण देऊनच टाकलं.
अनायसे रविवारच आहे उद्या धम्माल करूया सगळे मिळून. आणि हो, प्रतिकचा खास निरोप आहे तुझ्यासाठी काही तरी अगदी साधा आणि लाईट मेनू ठेव म्हणून. खाऊन खाऊन त्याच्या पोटाचं पार गोडाऊन झालंय म्हणे, असं म्हणून अमित खळखळून हसला.
त्याला असं खुश बघून मुग्धाही सुखावली. खरंच किती दिवसांनी असा दिलखुलास हसतोय हा ? नाहीतर नेहमीच कामाच्या व्यापात नको तेवढा बुडालेला असतो.
मैत्रीची जादूच खरं आगळी, सळसळत्या चैतन्याने ओथंबलेलं निखळ निरागस हास्य ही मैत्रीचीच तर देणगी असते ना ?
बऱ्याच दिवसांनी मैफिल रंगणार होती. एव्हाना अमितचे सगळे मित्र व त्यांच्या बायका ह्या सगळ्यांसोबत मुग्धाची छान घट्ट मैत्री जमली होती आणि नेहमीच्या रुटीनला फाटा देवून कधीतरी फुललेली अशी एकत्र मैफिल म्हणजे फ्रेशनेस आणि एनर्जीचा फुल्ल रिचार्जच. त्यामुळे मुग्धालाही खूप आनंद झाला होता.
हा हा म्हणता रविवारची संध्याकाळ उगवली आणि चांगली दहा बारा जणांची चांडाळचौकडी गॅंग अमित व मुग्धाकडे अवतरली. हसणे, खिदळणे, गप्पा टप्पांना अगदी ऊत आला होता.
घरात कितीतरी दिवसांनी गोकुळ भरलेलं पाहून अमितचे बाबा, म्हणजेच नानाही खूपच खुश होते. घरी कुणी चार जण आले की घरात काहीतरी उत्सव असल्यासारखंच त्यांना वाटत असे आणि लहान मुलांसारखं अगदी मनमुरादपणे ते सगळ्यांमध्ये सहज मिक्स होत असत.
मुग्धाने मस्तपैकी व्हेज पुलाव आणि खास नानांच्या आवडीची भरपूर जायफळ, वेलदोडा व सुकामेवा घालून छान घट्ट बासुंदी असा शॉर्ट, स्वीट आणि यम्मी बेत ठेवला होता.
गप्पा तर रंगात आल्याच होत्या पण त्याचबरोबर बासुंदी व पुलाव ह्यावरही यथेच्छ ताव मारला जात होता.
सगळेच जण हसण्या – बोलण्यात व खाण्यात मश्गुल असताना अमित जोरात ओरडला, “नाना अहो हे काय, नीट धरा तो बासुंदीचा बाऊल, सगळी बासुंदी सांडवली अंगावर. नविन स्वेटरचे अगदी बारा वाजवले नाना तुम्ही. जा तुमच्या रूम मध्ये जावून बसा पाहू.”
भेदरलेले नाना स्वतःला सावरत कसेबसे उठले, तशी मुग्धा लगेच त्यांच्याजवळ धावली. “असू द्या नाना, धुतलं की होईल स्वच्छ स्वेटर. काही काळजी करू नका.” असं म्हणत त्यांच्या अंगावर सांडलेली बासुंदी तिने हळूच मऊ रुमालाने पुसून घेतली व त्यांना फ्रेश करून त्यांच्या रूम मध्ये घेवून गेली.
थोड्याच वेळात मैफिलही संपुष्टात आली व सगळे आपापल्या घरी गेले, तसं प्रेमभराने अमितने मुग्धाचा हात हातात घेतला व म्हणाला, “वा ! मुग्धा, पुलाव काय, बासुंदी काय, तुझं सगळ्यांशी वागणं बोलणं काय, सगळंच अगदी नेहमीप्रमाणे खूप लाजवाब होत गं.
खरंच खूप छान वाटतंय आज मला. फक्त एक गोष्ट ह्यापुढे लक्षात ठेव मुग्धा, अशा कार्यक्रमांमध्ये नानांना आता नको इन्व्हॉल्व करत जावू. काही उमजत नाही गं आताशा त्यांना. उगाच ओशाळल्यासारखं वाटतं मग.”
अमितचं बोलणं संपताच इतका वेळ पेशन्स ठेवून शांत राहिलेली मुग्धा आता मात्र भडकली. “हो रे, अगदी बरोबर आहे तुझं. कशासाठी त्यांना आपल्यात येवू द्यायचं ? पडलेलं राहू देत जावूया एकटंच त्यांना त्यांच्या रूम मध्ये, नाही का ?
मला एक सांग अमित, तू ही कधीतरी नकळत्या वयाचा होताच ना रे ? तू ही त्यांना क्वचित कधीतरी ओशाळवाणं वाटेल असं वागतच असशील, मग तुलाही असं एकटं ठेवायचे का रे तुझे आई बाबा ? नाही ना ?
☆ “यश ज्वेलर्स” चा शुभारंभ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆
आणि ……….
आणि तो दिवस उगवला, माझ्या यश ज्वेलर्स दुकानाच्या शुभारंभाच्या आधीचा एक दिवस– ०५ सप्टेंबर १९९८. अनंत चतुर्दशी.
——सर्विसला असतानाच दुकानाची तयारी चालू होती १ टनापेक्षा जास्त वजनाची समेरिका कंपनीची तिजोरी कोल्हापूरवरून येऊन स्थानापन्न झाली होती. दुकानाचा लोगो तयार झाला. फक्त १५ दिवस हातात होते. काम पटापट चालू होते. दुकानाचा शुभारंभ धर्मवीर आनंद दिघे साहेबांकडून करायचे ठरविले होते– “ एक मराठी माणूस सर्व्हिस सोडून सोन्याच्या दागिन्यांचे दुकान चालू करतोय म्हणजे मी नक्कीच येणार आणि आशिर्वाद देणार “, अशी त्यांनी ग्वाही दिली. ०६ सप्टेंबरला सकाळी १० वाजताची वेळ नक्की झाली.
चार दिवस आधी सोन्याचे दागिने तयार होऊन हातात आले होते. दुकानाच्या बोर्डावर पितळी धातूची अक्षरं असलेले “ यश ज्वेलर्स “ हे चमचमणारे नाव झाकून ठेवले होते. सगळे ठरल्या वेळेत आणि मनाजोगतेही होत होते.
———आणि तो दिवस उगवला, आदल्या दिवशी दुपारी आम्ही पनवेलहून सगळे दागिने आणून, नवीन तिजोरीत ठेऊन, तिजोरी नंबर -लॉकिंगने बंद केली, आणि जेवायला गेलो. परत आल्यावर दागिने भिंतीवरच्या ट्रे मधे लावून उद्याची रंगीत तालीम करायचे ठरविले. दागिने तिजोरीतून बाहेर काढण्यासाठी तिजोरीची चावी फिरवली, ठरलेले नंबर सेट केले आणि——-
———आणि जे काही घडले ते अक्षरशः अनाकलनीय होते. ती नवी तिजोरी जी गेले महिनाभर दिवसातून एकदातरी उघड -बंद करीत होतो, आजही सकाळपासून तीनदा उघड- बंद केली होती, ती तिजोरी उघडेना. पुन्हापुन्हा प्रयत्न केला. परत परत नंबर चेक केले तरीही तिजोरी उघडेना. मी पुरता घामाघूम झालो होतो. दुकान चालू होण्याआधीच स्वामींनी मला मोठ्या परीक्षेला बसविले होते. दुपारचे चार वाजले. डोळ्यात पाणी आले, नको ते विचार डोक्यात येऊ घातले. तिजोरी नाही उघडली तर उद्या दुकानाचे उदघाटन कसे होईल ? अनेक प्रश्न डोक्यात थैमान घालत होते. सगळे दागिने तिजोरीत अडकले होते. दुसऱ्या दिवशी सकाळी १० वाजता उदघाटन होते. फक्त १८ तास हातात होते. जे काही करायचे ते लवकर करायला लागणार होते. मी समेरिकाच्या वर्कशॉपला फोन केला. मालक पांचाळ फोनवर होते. त्यांना तिजोरीचा गोंधळ सांगितला. त्यांनी दिलासा देत सांगितले—-’ फक्त मी सांगतो तसं करा.’ नंतर जवळ जवळ एक तास त्यांच्या सूचनांप्रमाणे मी तिजोरीचे नंबरलॉक फिरवत होतो, पण काहीच उपयोग होत नव्हता.. ते जे काही सांगत होते ते सगळे करून सुद्धा काहीच फरक पडला नव्हता.
———-आता संध्याकाळचे पाच वाजले. पांचाळसाहेबाम्हणाले, “ घाबरू नका, मी लगेच निघतो आणि पहाटेपर्यंत ठाण्याला येऊन तिजोरी उघडून देतो. “ तरीही माझी पायाखालची जमीन सरकली. तेव्हा कोल्हापूर- ठाणे प्रवासाला १०-१२ तास लागायचे . ते लगेच निघाले तरी ठाण्याला पोचायला त्यांना सकाळ होणार होती. हतबलपणे फक्त वाट बघणे एवढेच हाती होते. मी पार कोसळलो होतो, रडत होतो. काही कारणास्तव जर सकाळी ते वेळेत पोचले नाहीत तर …. दुसरा काही उपायही दिसत नव्हता— फक्त वाट बघण्याव्यतिरिक्त. पण माझे मन दुकान सोडायला तयार नव्हते. मी ठरविलेच होते — तिजोरी उघडल्याशिवाय घरी जायचे नाही. वेळ जाता जात नव्हता. मनाची चलबिचल चालूच होती. रात्री एक वाजता पांचाळसाहेबांचा फोन आला– ” मी पुण्याला पोचलोय. सहा वाजेपर्यंत ठाण्यात येतोय “. जीवात जीव आला. आशेचे किरण दिसू लागले. आता सगळे व्यवस्थित होईल असा विश्वास वाटायला लागला .
———– पहाटेचे पाच वाजले. रस्त्यावर थोडी वर्दळ चालू झाली. लक्ष हातातल्या घड्याळावर होते. सव्वासहा वाजले आणि पांचाळ हजर झाले. त्यांना बघून त्यांच्या रूपात स्वामीच आल्यासारखे जाणवले. त्यांनी आल्याआल्या आतमध्ये जाऊन कामाला सुरवात केली. मला वाटले होते की ते जादूगारासारखे एका क्षणात तिजोरी उघडतील— पण नाही— अर्धा तास झाला त्यांचे काम चालूच होते. माझ्या मनात स्वामींचा जप चालू होता. एक तास झाला तरीही काही घडले नव्हते. मी येरझाऱ्या घालू लागलो. . मनात नको नको ते विचार येऊ लागले आणि तेवढ्यात खट्क असा मोठा आवाज झाला—तिजोरी उघडली होती . मी देवाचे आभार मानले आणि लगेच उठून आत गेलो. पांचाळना नमस्कार केला. व्यवसायाच्या सुरुवातीलाच एक महत्वाचा धडा मिळाला—– कुठचीही समस्या कायमस्वरूपी नसते. संयम ठेवून समस्येला सामोरे गेल्यानेच त्याचे उत्तर मिळते.’
—–६ तारखेला ठरल्याप्रमाणे १० वाजून १० मिनिटानी ‘यश ज्वेलर्स’ दुकानाचे उदघाटन झाले. मी तीन वर्ष जे स्वप्न बघत होतो ते जसेच्या तसे साकार झाले होते—-आणि यश ज्वेलर्सचा यशस्वी प्रवास चालू झाला——