हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆

ग्रीष्म प्रतिज्ञा भीष्म सी, तपा धरा का तेज।

मौसम के सँग में सजी, बाणों की यह सेज।।

 *

सूरज की अठखेलियाँ, हर लेतीं हैं प्राण।

तरुवर-पथ विचलित करे, दे पथिकों को त्राण।।

 *

बना जगत अंगार है, धधक रहे अब देश।

कांक्रीट जंगल उगे, बदल गए परिवेश।।

 *

तपती धरती अग्नि सी, बनता पानी भाप।

आसमान में घन घिरें, हरें धरा का ताप ।।

 *

भू-निदाघ से तृषित हो, भेज रही संदेश।

इन्द्र देव वर्षा करो, हर्षित हो परिवेश।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “भाग कर शादी।)

?अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कभी आपने भागकर शादी की है ? आदमी मुसीबत से बच सकता है, परिस्थितियों से लड़ सकता है, लेकिन शादी से नहीं बच सकता। देखिए, ये मोहतरमा क्या फरमाती हैं ;

कोई कह दे, कह दे, कह दे ज़माने से जा के,

कि हम घबरा के

मोहब्ब्त कर बैठे

हाय मोहब्ब्त कर बैठे …

यानी इसी तरह, कोई इश्क का मारा, जमाने से घबराकर, भागकर शादी भी कर सकता है। लेकिन क्या इसके लिए भागना जरूरी है। अगर आप कड़के नहीं हो, तो गाड़ी घोड़े से भी जा सकते हो।

हो सकता है, लड़की पैसे वाली हो, और आपके कहने पर, फिल्मी अंदाज़ में, अंधेरी रात में, घर वालों की आंख में धूल झोंककर नकदी और जेवर सहित आपके साथ भाग निकले।

लेकिन हम जानते हैं, आप ऐसे इंसान नहीं हो।

हमारे साथ तो कुछ उल्टा ही हुआ। हमें शादी नहीं करनी थी, और परिवार वाले हमारी जबरदस्ती शादी कर रहे थे, और वह भी उनकी पसंद की हुई लड़की से। हमारे पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। यानी हमने भागकर शादी नहीं की, शादी के नाम से ही हम भाग खड़े हुए।।

शिवाजी महाराज के गुरु हुए हैं, समर्थ रामदास, जी हां वही दासबोध वाले। सुना है, शादी का शब्द सुनते ही वे सावधान हो गए थे, यानी भाग खड़े हुए थे। आज भी विवाह के शुभ प्रसंग पर कुर्यात सदा मंगलम् के साथ सावधान शब्द भी जोड़ा जाता है।

अगर भाग नहीं सकते, तो कम से कम सावधान, अर्थात् जाग तो सकते हो। आगे आपकी मर्जी।

कहीं कहीं जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आते हैं कि जल्दबाजी में शादी करनी पड़ती है, कहीं दादा जी अंतिम सांसें गिन रहे होते हैं तो कहीं किसी श्रवणकुमार को कसम दिलवा दी जाती है, अगर तूने आठ रोज में इस लड़की से शादी नहीं की, तो तू मेरा मरा मुंह देखेगा। और वह बेचारा कसम का मारा, अपना सर कढ़ाई में दे मारता है और उधर किसी की पांचों उंगलियां घी में हो जाती है। जो लोग सिर्फ मजबूरी को जानते हैं, महात्मा गांधी को नहीं, वे जीवन भर ऐसे इंसान को सुनाया करते हैं, लड़कियां कहां भागी जा रही थी, जो तुमने उस लड़की से शादी कर ली, जिसे तुम पसंद ही नहीं करते थे।।

इसे क्या कहेंगे, पसंद किसी और की, और नसीब अपना। वैसे बात निकली है तो बता दूं, पूरे सम्मान और संजीदगी के साथ अगर विचार किया जाए तो सदाबहार गायक, अभिनेता, हास्य सम्राट कहे जाने वाले चार चार पत्नियों के पति किशोर कुमार जी भी यही कहते पाए गए हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम शादी मत करना ..

हम भी जाते जाते युवा पीढ़ी को यह संदेश देकर जाना चाहते हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम भाग कर शादी मर करना …

प्रेम से शादी करें। सबकी मर्जी से करें, अथवा मनमर्जी से। नहीं तो हमारी तरह आप भी कहते रहेंगे। शादी अरेंज्ड थी अथवा लव मैरेज? और हम सर झुकाकर जवाब देते हैं, जी लव मैरेज नहीं, अरेंज्ड ही थी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 – खेल तमाशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा “खेल तमाशा ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 ☆

🔥लघुकथा🔥🌹खेल तमाशा 🌹

शहर के मध्य बहुत बड़ा सर्व सुविधायुक्त आजकल के माॅल का फैशन। सामान खरीदने या फिर मौज मस्ती की जगह। थियेटर, गेम जोन से लेकर गाड़ी चलाना, गाना बजाना, खाना पीना सभी प्रकार के मनोरंजन के साधन।

एक मदारी रोज ही अपने छोटे से बंदर को लेकर, वहाँ पास में तमाशा दिखाता था।कभी-कभी दया या दान का काम करते उसे भी सभी आने- जाने वालों से अपनी रोजी- रोटी मिल जाती थी।

तेज भीषण गर्मी, लू की तपन,बंदर भी खूब रंगबिरंगी कपड़ों से सजा, लंबी पूँछ, सर पर टोपी, पूरे साजों श्रृंगार करके तमाशा दिखा रहा था।

आज शाम बहुत भीड़ लगी थी, तमाशा देखने वालों की। कतारों में खड़े लोग तालियाँ बजा रहे थे। अचानक इतनी भीड़ देख कर हैरानी हो रही थी। झाँक कर देखने पर पता चला–गर्मी की तपन से मदारी का बंदर मर चुका था। वह अपने छोटे से बच्चे को बंदर बना कर नचा रहा था।

बाकी सभी अपने-अपने बच्चों को दिखा रहे थे – – कितना सुंदर बंदर बना है बच्चा। चिप्स और केले दिये जा रहे थे।

मदारी हँसते – रोते खुल्ले सिक्के, नोट बटोर रहा था। आज उसे सभी दिनों से खेल तमाशे का मेहताना ज्यादा मिला। जीवन तमाशा बनते देखता रहा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 128 – देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 128 ☆ देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत 16 अप्रैल के दिन ही वर्षों पूर्व, पहली भारतीय रेल यात्रा आरंभ हुई थी। उसी को यादगार बनाने के लिए मुम्बई और मनमाड़ के मध्य चलने वाली “पंचवटी एक्सप्रेस” के अंदर बैंक ने ATM सुविधा भी आरंभ कर दी हैं। यात्रियों के लिए एक बहुत बड़ी सुविधा और स्टेशन पर कार्यरत स्टाफ भी इस सुविधा का लाभ ले पाएगा।

ट्रेन में यात्रियों को खरीदारी करने या जुआ खेलने के लिए धन राशि की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए ये सुविधा एक मील का पत्थर साबित होगी।

सबसे पहले चलती ट्रेन में आप क्या क्या खरीद सकते है, इस पर चर्चा कर लेनी चाहिए। चलती ट्रेन में खान पान की सुविधा का लाभ उठाने के लिए लोगों को अब धन की कमी आड़े नहीं आएगी। यात्रा में बीच के स्टेशन पर अनेक बार स्थानीय पदार्थ जिसमें फल और सब्जी मुख्य है, सस्ते भाव पर उपलब्ध होते हैं। स्थानीय कलाकार हस्त निर्मित वस्तुएं भी चलती ट्रेन में या बीच के स्टेशंस पर मिल जाती हैं।

मुम्बई की लोकल ट्रेन में इतनी अधिक भीड़ होती है, कि, कई बार चींटी भी नहीं घुस पाती है, फिर भी विक्रेता आप को स्टेशनरी, फल, किताबें आदि बेच कर चला जाता हैं। महिलाओं के कोच में भी सिलाई, बुनाई, मेकअप आदि से लेकर पूरी रेंज लोकल ट्रेन में मिल जाती हैं। महिलाओं से ठसाठस भरी हुई ट्रेन में पुरुष विक्रेता अपना रास्ता वैसे बना लेता है, जैसे पहाड़ों के मध्य से जल अपनी निकासी का मार्ग बना लेता हैं।

चलती ट्रेन में प्रतिबंधित मदिरा भी खाद्य पदार्थ विक्रेता प्रीमियम पर उपलब्ध करवाने की क्षमता रखते हैं। इसका भुगतान वो नगद राशि में ही स्वीकार करते हैं। ऐ टी एम सुविधा आरंभ हो जाने से इस व्यवसाय में भी वृद्धि होगी।

जेब कतरे भी अब ट्रेन के अंदर ही अपने कारोबार को अंजाम दे सकेंगे। वो लोग मंथली पास बनवाकर यात्रा करेंगे, ताकि व्यापार करने की लागत कम की जा सकें।

आने वाले समय में ट्रेन के अंदर “नाई का सैलून” भी खुल सकने की प्रबल संभावना हैं। आगे आगे देखिए रेलवे नई नई सौगातों की झड़ी लगा देगा, बस सिर्फ भीड़ होने के कारण, बैठने के लिए उचित स्थान नहीं उपलब्ध हो पायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विलाप… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ विलाप… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

तुझे-माझे म्हणता-म्हणता

निघून जाते सारे आयुष्य

मनातले संकल्प-विकल्प

मागे पडून राहे भविष्य.

*

अल्लड मेळा तारुण्य शाळा

वाट ऋणांची करे सोबत

हृदयी पक्षी विरह स्मृती

कधी काळांचे खेळ नौबत.

*

असे आभाळ नयनी दाटे

पुन्हा मिठीत सत्य दर्पण

जर्जर पाहून धीर सुटे

तेंव्हा मी पण दुःखा अर्पण.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #281 ☆ फुलले कमळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 281 ?

☆ फुलले कमळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

वाकड्या वाटेवरी तो चालला इतका सरळ

राजकारण खेळले जे पाढरे झाले उखळ

*

झाकता उखळास येणे ही कला जमली तया

लक्षवेधी मांडली मग त्यास तर दिसता कुसळ

*

काल दलदल फार होती गाळ होता साचला

एवढ्या चिखलातुनीही छानसे फुलले कमळ

*

केतकीवर प्रेम त्याचे रान त्याने पोसले

भोवताली नाग होते ओकला नाही गरळ

*

हिरवळीवर झोपणारा तो फुलावर भाळला

बाभळीच्या दूर गेला रान केले ना जवळ

*

चोर इतका पुष्ट होता जीव घेउन धावला

लागला मागे शिपाई भावना नव्हती चपळ

*

साठवावे नीर थोडे त्यास नाही वाटले

कोरडे दिसले मला जे पात्र ते होते उथळ

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तो असा असावा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

तो असा असावा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

मी नाही भेटली दिवसभर

तर त्याने खूप बैचेन व्हावं

*

संध्याकाळी ऑफिसबाहेर

भेटून सरप्राईज द्याव

*

भेटण्यासाठी ठरलेल्या जागी

त्याने माझ्या आधी यावं

*

उशीरा आले म्हणून

लटके लटकॆ रागवावं

*

फिरताना जर नजरेआड झाली

तर त्याने कावरबावरं व्हावं

*

दिसल्यावर मात्रं

अश्रू लपवत प्रेमानं ओरडावं

*

माझं काही चुकलं तर

त्याने कधी ही न रागवावं

*

अबोला धरुन न रडवता

काय चुकलं ते समजवावं

*

ज्याची कल्पना केली इतकी

भर-भरुन प्रेम देणारा तोच असावा

*

माझी आठवण आली त्याला की

त्यानं माझ्यासाठी एक कविता लिहावी

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ हे श्रीरामा… हे सीते… ☆ डाॅ. मधुवंती दिलीप कुलकर्णी ☆

डाॅ. मधुवंती दिलीप कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

☆ हे श्रीरामा… हे सीते… ☆ डाॅ. मधुवंती दिलीप कुलकर्णी ☆

हे श्रीरामा, वयाच्या चौदाव्या वर्षांपर्यंत तुला लाभलेले आयुष्य हे पूर्णपणे संस्कारांनी भरलेले होते. लहानपणी तू चंद्र खेळायला मागीतलास. ती इच्छा पूर्ण करण्यासाठी राजा, तिन्ही राण्या, दास दासी झटत होते. कोणतीही वस्तू तुला खेळायला मिळाली. वात्सल्यामध्ये, प्रेमामध्ये तू न्हाऊन निघालास. पुढे वसिष्ठ ऋषींच्या आश्रमात जाऊन तत्त्वांनी भारलेले प्रशिक्षण, जीवन तू जगलास. गुरूकडून मनाचा परखडपणा शिकलास. भावनांना आवर घालून स्पष्टवक्तेपणा कसा अंगी बाणवायचा हे त्यांनी तुला शिकविले. समाजहितासाठी दुसर्याच्या वैगुण्याबद्दल संतोष न बाळगता लोकांसाठी वंद्य गोष्टी करण्याची वृत्ती तू तेथे आत्मसात केलीस म्हणून तुला वालीवध आत्मविश्वासाने करता आला. मारूतीरायासारख्या भक्ताचा आदर्श तू समाजापुढे ठेवलास म्हणूनच समर्थ रामदासांनी उत्स्फूर्तपणे मंदिरे स्थापन करून समाजातील युवामन घडविले.

जनी निंद्य ते सर्व सोडोनि द्यावे|जनी वंद्य ते सर्व भावे करावे||

हे सर्वांच्या मनात रूजविले. मनातील सर्व शंकांचे निरसन वसिष्ठ मुनींच्या कडून करून घेऊनच तू घरी आलास. आल्यावरही लग्न होईपर्यंत राजकुमाराचे कोडकौतुकात वाढलास. शिक्षणामुळे, गुरू सेवेमुळे कौशल्य आणि अध्यात्मिक वृत्तीमुळे तू आदर्श व्यक्ती बनलास. सीतेसारखी पत्नी तुला मिळाली. तिने आयुष्यभर तुझी साथ सोडली नाही. बालपणीच्या कालखंडात तुला निरीक्षणातून विचार करता आला.. तुला निवांतपणे सर्व शिकता आले. आदर्शवत अशा बर्याच व्यक्ती तुझ्या आसपास होत्या. म्हणून तू मर्यादा पुरुषोत्तम, एकवचनी, एकपत्नी, एकबाणी झालास. तू होतासच शूर, करारी आणि चारित्र्यसंपन्न. तुला राज्याभिषेक होण्यापूर्वी वनवासाला जावे लागले. तिथूनपुढे तू पुन्हा राजा होऊन रामराज्य येईपर्यंत तुझे आयुष्य कसोटीचे ठरले. वयाच्या चौदाव्या वर्षांपासून ते अठ्ठावीस वयापर्यंत वनवासात राहून, रावणवध करून तू परत आलास. तुझ्या आयुष्यातील सर्व यशाचे गमक तुझ्या लहानपणात आहे. हे सांगण्याचा उद्देश एवढाच की, सध्या चंद्रच काय सूर्य, मंगळ हाताशी आहेत मुलांना अनुभवायला.. विज्ञानाची आकाशझेप एवढी आहे की, धनुष्यबाण कालातीत झालं आहे. रॉकेट, पिस्तूल, बॉम्ब इ. चा वापर सर्रास सुरू आहे. तुला मिळालेले लहानपण सर्व मुलांना मिळते. भरमसाठ शिक्षण फी भरायला राजाराणी एका पायावर तयार असतात. असलेच पाहिजे. गुरूकुलाचा चांगलेपणा इमारती व भौतिक सुविधांवरच तर ठरतो. पण “वसिष्ठ” शोधावे लागतात. सत्य-असत्य, धर्म- अधर्म यांतील फरक समजावणारा वसिष्ठ मिळणे दुरापास्त. असलाच तर इथं इतका विचार कोण करणार जसा राजा दशरथाने केला. भविष्यकाळ उज्ज्वल होणं न होणं हे आर्थिक सुबत्तेवरच अवलंबून असतं. इथं वनवासात कोण जाणार? लाड करूनही योग्य शिकवण तुला दिली गेली. आता फक्त लाड करायला वेळ काढला जातो. ते महार लाड झाले तरी आवडून घ्यावं लागतं. कारण आर्थिक व नोकरीच्या कसरतीत वर्तमानातील वेळ हा विनात्रासात निघून गेला ना, चला आता उद्याचे उद्या यां सुटकेवर आधारित असतो. वर्तमानच जर असा भीषण तर भविष्य काळ पैशाच्या डोंगरावर बसून वाट्याला आलेला एकाकीपणा भोगण्यात जाईल. तू आणि सीता वेगवेगळ्या ठिकाणी रहात असलात तरी एकाकी नव्हतात हे कधी कळेल समाजाला.?

हे रामराया, रामराज्य आल्यावरही न्याय निवाडा करताना तू स्वतः च्या आयुष्यातील ऐशो आरामाचा विचार न करता लोकराज्याचा विचार करून सितेला वनवासात पाठविलेस. होय पाठविलेसच त्याशिवाय का तिने कष्टाने मुलांना योग्य ठिकाणी, योग्य माणसांच्यात वाढविल्यानंतर, लोकापवाद दूर झाल्यावर त्यांना तुझ्या हातात देऊन ती धरणी मातेच्या पोटात गडप झाली. तिचा अनुभवातून आलेला कणखर स्वभाव तेंव्हाच दिसला. तिच्याएवढा घराचा विचार करणारी स्त्री आता नाही निर्माण होणार. आश्रमात अत्यंत साधेपणाने राहून तिने मुलांना जन्माला घालणे आणि वाढविणे याला महत्त्व दिले. त्यामुळे रामराज्य येऊनही सिंहासनापेक्षा वरचढ असे स्थान मुलांनी समाजात निर्माण केले. रामासाठी मुले संपत्तीपेक्षा श्रेष्ठ ठरली. सध्या वनवासात जायला कोणती मुलगी तयार होईल? काही कारणाने गेलीच तर कोण मुलांना जन्म देईल? सध्या सीता एकट्या रामाला वनवासात जा म्हणते. महाल सोडवत नाही. घरातील कष्टाला भिते. नोकरीच्या ठिकाणी मात्र राबराब राबते. बॉसला गोड बोलून लांगूलचालन करणे हा नोकरी टिकण्याच्या पाया आहे. याव्यतरिक्त आणखी शक्ती जगात असतील यावर युवापिढीचा विश्वास नाही. समर्थांनी सांगितलेले अधिष्ठान पूर्णपणे विसरून गेलेल्या रामसीतांना “सामर्थ्य आहे चळवळीचे जो जो करील तयाचे | परंतु तेथे भगवंताचे अधिष्ठान पाहिजे|| हे कोण शिकवणार? हे श्रीरामा, तू ये आता.

त्यावेळचे सुनयना राणीचे संस्कार मोठ्यांच्या आशिर्वादात, पतीच्या विचारात संसार करण्याचे होते. सध्या सुनयनाचे लक्ष पतीला बाजूला ठेवून भौतिक आस शमविण्यासाठी बाह्य जगात कसे वावरावे या संस्कारांकडे जास्त आहे. त्यामुळे भविष्यात सीतांना कुठेही रामराया सापडणार नाही.

म्हणून हे रामराया, तू लोकोद्धारासाठी पुन्हा जन्म घेच पण हे सीते, हे सुनयना तुम्ही मुलींना संसारात आदर्श दाखविण्यासाठी पुन्हा जन्माला या. पुन्हा समाजाचं भलं करा.

हे सीते, तू वनवासात गेलीस तरी किती सुखी होतीस, समाधानी होतीस हे सांगण्याची वेळ कलीयुगात आली आहेस. तू काटक्या गोळा करून संसार केला असशील पण रामाचे तुला मिळालेले प्रेम, त्या प्रेमाच्या जोरावर ताठ मानेने उभी राहिलेली तू, त्यामुळे वाल्मिकी ॠषींच्या आश्रमात ही आनंदी असणारी तू कुणाला कशी कळणार? सर्वांची आई होऊन सीतामाता झालीस. हे सर्व आता कोण सांगणार कुणाला? सर्व जगाचा वाईट अनुभव घेऊन नंतरच रामासमोर निस्तेज पणाने उभी रहाणारी सीता तुला तरी बघवेल का गं? म्हणून तुझी आज गरज आहे. खरंच तुझी गरज आहे.

हे रामा…… हे सीते…… तुम्हां दोघांची आज खरंच गरज आहे.

भले शर्ट, पॅन्ट, हॅट, गॉगल घालून या. हातात लॅपटॉप चे शस्त्र असू द्या. चारचाकीतून या. पण तुमची मने रामसीतेची घेऊन या. युवापिढी वाट पहात आहे… 🙏🙏

© डाॅ. मधुवंती दिलीप कुलकर्णी

जि.सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “म्हैस…” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆

श्री सुधीर करंदीकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “म्हैस…” ☆ श्री सुधीर करंदीकर

मी राहतो पुण्याला कर्वेनगर या भागात. आम्ही रोजच दुपारी बावधन या भागात मुलीकडे जातो. नातवंडं दुपारी शाळेतून घरी येतात. त्यावेळेला आम्ही घरी असल्यामुळे त्यांचे दुपारचे खाणे – पिणे, अभ्यास, क्लास ला सोडणे / आणणे वगैरे, याची काळजी रहात नाही. संध्याकाळी मुलगी किंवा जावई ऑफिस मधून घरी आले, की, थोड्या गप्पा मारून, आम्ही साधारण ६ – ६. ३० ला तिथून निघून कर्वे नगरला, आमच्या घरी येतो. आमचे जाणे येणे स्कुटरनी असते. कधी कधी बायको बावधनहून स्कुटर घेऊन आधी निघून जाते, अशावेळेस, मी घरापर्यंत कधी पायी जातो, कधी अर्धे अंतर बसनी व पुढचे पायी जातो.

एक दिवस बायको स्कूटर घेऊन लवकर घरी गेली म्हणून त्या दिवशी संध्याकाळी मला बसनी घराकडे जायचं होतं.

मुलीकडून ६. ३० ला निघालो. साधारण ५ – ७ मिनिटे चालत गेलो, की मेन रोड लागतो. रस्ता ओलांडला, की, समोरच बसचा थांबा आहे. ट्रॅफिकच्या पीक- आवर्स मध्ये पुण्यात कुठलाही रस्ता ओलांडणे हे एक दिव्यच असते. मी जाऊन रस्त्याच्या अलीकडे उभा राहिलो व ट्रॅफिक मध्ये गॅप पडण्याची वाट बघत थांबलो. त्या दिवशी ट्रॅफिक जरा जास्तच होता. या रोडची खासियत अशी आहे, की, पुणे विद्यापीठ ते व्हाया पाषाण रोड – व्हाया चांदणी चौक – पौड डेपोपर्यंत, म्हणजे साधारण ५ – ६ किमी अंतरामध्ये कुठेही सिग्नल नाही. त्यामुळे सगळ्याच गाड्या, म्हणजे कार/ स्कुटर/ मोटर सायकल/ बसेस आणि ऑटो, रस्त्याच्या दोन्हीकडून सुसाट स्पीडनी धावत असतात. बहुदा, ४-५ मिनिटे गेली, की, छोटीशी गॅप मिळते व त्यामध्ये जीव मुठीत धरून रस्ता क्रॉस करता येतो. आज काय प्रकार होता माहित नाही, मधे गॅपच येत नव्हती. बाजूला बघितलं, तर काही तरुण मंडळी गॅप नसतांना पण, धावून रस्ता क्रॉस करत होती. तेवढ्यात एक अंध व्यक्ती समोरून आरामात रस्ता ओलांडून आली. अज्ञानात सुख असतं, असं म्हणतात, ते असं!

मी बऱ्याच वेळेला ४ – ५ पावले पुढे जायचो आणि वेड्यावाकड्या येणाऱ्या गाड्यांना घाबरून परत मागे यायचो. पण पुढे जायची हिम्मत होत नव्हती. वाट बघता बघता १० मिनिटे झाली, पण ‘नो चान्स’. अशा वेळेस वाटतं, की, काहीतरी घडून ट्रॅफिक जॅम व्हावा, त्यामुळे आपोआपच क्रॉस करणाऱ्यांची सोय होते. पण तसही आज काही घडत नव्हतं. १५ मिनिटे झाली, तरी मी होतो त्याच ठिकाणी होतो.

तेवढ्यात माझी नजर मागे गेली. मागे एक तगडी म्हैस उभी होती व तिच्या गळ्यातली दोरी धरून मुलगा उभा होता. म्हशीकडे बघताच मी मनातल्या मनात ‘युरेका’, ‘युरेका’ (म्हणजे ‘सापडले’, ‘सापडले’) असे ओरडलो. मी लगेच त्या मुलाकडे गेलो.

मी : दादा, म्हैस घेऊन पलीकडे चलणार का?

मुलगा : कशाकरता? काय करायचं आहे?

मी : करायचं काहीच नाही. फक्त पलीकडे माझ्याबरोबर चलायचं आणि लगेच परत यायचं. ५ रुपये देईन.

(मुलाला काहीच अर्थबोध झाला नसावा. पण ५ रु मिळणार आणि करायचं काहीच नाही, हे त्याला समजलं 

मुलगा : काका, चला 

मुलगा म्हैस घेऊन निघाला. मी म्हशीची ढाल करून, तिच्या उजव्या बाजूनी रस्ता क्रॉस करायला सुरुवात केली. इतका धुव्वाधार ट्रॅफिक असूनही मी मजेत रस्ता ओलांडत होतो. काही वाहन चालकांनी म्हशीकरता कर्कश्य हॉर्न वाजवले, काहींनी म्हशीला मनात शिव्या दिल्या असतील. आम्ही थाटात पलीकडे पोहोचलो. मी मुलाला ५ रु दिले आणि आभार मानले. पलीकडे ४ वयस्कर रस्ता क्रॉस करायला उभेच होते. मला इतक्या आरामात रस्ता ओलांडतांना बघून, सगळेच मुलाला म्हणाले – अरे आम्हाला पण पलीकडे सोड. आम्ही २ – २ रु देऊ. लगेच मुलानी म्हैस मागे वळवली आणि सगळे म्हशीच्या आडोश्यानी पलीकडे निघाले. मला हे बघतांना मजा वाटली. मी जवळच्या बस थांब्यावर जाऊन बस ची वाट बघत बसलो.

रस्त्यावरचा ट्रॅफिक मगाशी होता, तसाच टॉप गिअर मधे होता. सहजंच माझं लक्ष पलीकडून येणाऱ्या म्हशीकडे गेलं. २ वयस्कर म्हशीच्या आडोशाने रस्ता क्रॉस करत होते. म्हशीच्या फेऱ्या सुरु झालेल्या बघून मला मजा वाटली आणि लक्षात आलं, की, म्हशीबरोबर रस्ता क्रॉस करणं, या सारखा सुरक्षित पर्याय नक्कीच नाही. तेवढ्यात त्या मुलाचं लक्ष माझ्याकडे गेलं व त्यानी आनंदानी हात हलवला. बहुदा मनामध्ये मला थँक्स म्हटले असेल. मी पण हात हलवून त्याच्याशी संवाद साधला. तेवढ्यात माझी बस आली आणि मी आत चढलो.

नंतर साधारण महिनाभर माझी जा- ये स्कुटरनीच सुरु होती. स्कुटर असली, की, माझा जाण्यायेण्याचा रस्ता थोडा बदलतो.

आज बायको स्कुटर घेऊन बावधनहून लवकर घरी गेली, त्यामुळे मला बसनी जायचे होते. मुलीकडून निघालो आणि चालत मेनरोडला पोहोचलो. साडेसात ची वेळ असल्यामुळे रस्त्याच्या दोन्हीबाजूनी सुसाट गाड्या धावत होत्या, सगळीकडून हेडलाईट डोळ्यावर येत होते, कर्कश्य हॉर्न वाजत होते. काही टू व्हीलरवाले उलटीकडून येत होते. काही फुटपाथवरून येत होते. थोडक्यात म्हणजे, पुण्यातल्या कुठल्याही हमरस्त्याचं चित्र समोर होतं. चित्रातला एक रंग मिसिंग आहे, हे पटकन लक्षात आलं. जीव मुठीत घेऊन रस्ता क्रॉस करतांना कुणीच दिसत नव्हते. मी मनात म्हटलं, हे गेले कुठे? तेवढ्यात माझं लक्ष थोडं पलीकडे उभ्या असलेल्या म्हशीकडे गेलं आणि म्हशीबरोबरच्या मुलाचं माझ्याकडे गेलं. मला बघताच मुलांनी हात उंचावला आणि ओरडला, ‘काका, चला पलीकडे सोडतो. फ्री मध्ये, पैसे द्यायचे नाही’.

माझ्या डोक्यात महिन्यापूर्वीच्या घटनेची ट्यूब पेटली, आपण याला म्हशीबरोबर रस्ता क्रॉस करण्याचे ५ रु दिले होते.

मुलगा मला थांबा म्हणाला आणि धावत जवळच्या फुलवाल्याकडून एक फुलांचा सुंदर गुच्छ घेऊन आला. मला गुच्छ देऊन त्यानी खाली वाकून मला नमस्कार केला व म्हणाला, काका चला.

आम्ही म्हशीच्या आडोशाने रस्त्यावर उतरलो आणि चालायला लागलो. महिन्यापूर्वी गेलो होतो, तेव्हा म्हैस थोडी बिचकत होती. आज ती एकदमच कंफर्टेबल वाटत होती. आपल्याकडे सिग्नल तोडणारे, उलटे येणारे, फुटपाथवर गाड्या घालणारे जेवढे कंफर्टेबल असतात तेवढीच.

चालता चालता —

मी : अरे म्हशीला घेऊन इकडे काय करत होतास? आणि मला हा गुच्छ कशाकरता?

मुलगा : काका, गेल्या वेळेला आपण भेटलो होतो, त्या दिवसापासून मी रोजच इथे असतो. आणि रोजचं तुमची वाट बघत होतो.

मी : कशाकरता?

मुलगा : तुम्हीच मला हा मार्ग दाखवला. संध्याकाळी रोज म्हशीला घेऊन इथे येतो आणि रस्ता क्रॉस करणाऱ्यांची मदत करतो, मला पण छान पैसे मिळतात. गेल्या १० दिवसांपासून ह्याच रोडवर आता ८ म्हशी सोडल्या आहेत. घरचे सगळेच म्हशींबरोबर इथे निरनिराळ्या चौकात येतात, व २- ३ तास थांबतात. रोजचे म्हशीमागे ८० – १०० रु मिळतात. ह्या वेळेला म्हशींना काहीच काम नसते. त्यांची खाण्यानंतरची शतपावली होते. रात्री त्यांना झोप पण छान लागत असेल. त्यामुळे दूध पण वाढले आहे.

मी : ट्रॅफिक कमी असेल तर ट्रिपा मिळत नसतील!

मुलगा : काका, क्रॉस करणारी पब्लिक कायमच असते. आणि ट्रॅफिक कमी असतांना गाड्यांवाले जास्तच स्पीडनी आणि वेड्यावाकड्या गाड्या मारतात. त्यामुळे माझ्या ट्रिपांना मरण नाही. अगदीच दुपारी किंवा रात्री ९ नंतर मीच येत नाही.

मी : वा, क्या बात है!

तेवढ्यात आम्ही पलीकडे पोहोचलो. तिथे ५- ६ वयस्कर स्त्री – पुरुष उभे होतेच. मुलानी लगेच त्यांना माझी ओळख करून दिली – ह्या काकांनीच मला ही म्हशीची कल्पना दिली. वगैरे.

मी मनातून आनंदलो व देवाचे आभार मानले.

सगळ्यांनीच मला थँक्स दिले. त्यातल्या तिघा जणांनी मला बाजूला घेतले व मुलाला सांगितले, ‘आम्ही पुढच्या ट्रिप ला येतो. तू जा पुढे’.

एक जण (मला) : तुम्ही आमचा व आमच्या घरच्यांचा फार मोठा प्रॉब्लेम सोडवला आहे. आता घरून बाहेर पडतांना बायको बजावते, ‘म्हैस असेल तरच रस्ता क्रॉस करा. २ -५ रु जाऊ देत’.

दुसरी व्यक्ती : पूर्वी रोज रस्ता ओलांडताना समोर म्हशीवर बसलेले यमराज दिसायचे. आता त्यांची म्हैसच बरोबर असते, त्यामुळे एकदम ‘बी – न – धा – स’.

तिसरी व्यक्ती : आमच्या ज्येष्ठ नागरिक संघाच्या पुढच्या मीटिंगला आम्ही तुम्हाला बोलावू. आम्हाला तुमचा सत्कार करायचा आहे. तुम्हाला नक्की यायचे आहे. तुमची म्हशींची कल्पना म्हणजे – तोड नाही. फोन नंबर ची देवाण घेवाण झाली.

त्यांना बाय करून मी बस स्टॉप वर पोहोचलो. तिथे बसायला नवीनच बाक केले आहेत. बाकावर बसलो आणि कल्पनेच्या दुनियेत पोहोचलो ⤳ ⤳ ⤳ ⤳ ⤳ ⤳

पुढच्या काही दिवसांनंतरची वर्तमानपत्रे मला दिसायला लागली ⤳ ⤳ ⤳ ⤳ ⤳ ⤳

# ‘सिनियर सिटिझन्सच्या मदतीला म्हशी सरसावल्या’

पुण्यातल्या रस्त्यांवर चालणे ‘मौत का कुंवा’ मधे गाडी चालवण्याइतके धोकादायक होते. तुम्हाला कोण आणि केंव्हा उडवेल, ही चालणाऱ्यांच्या मनात सतत धास्ती असायची. म्हशीचा आडोसा घेऊन चालतांना लोकांची ही धास्ती आता संपली आहे. खाली निरनिराळ्या चौकातले वयस्कर मंडळींना घेऊन रस्ता क्रॉस करणाऱ्या म्हशींचे फोटो होते.

# ‘रस्त्यावरच्या स्पीड ब्रेकर्स ना रामराम’

बहुतेक रस्त्यांवरचे स्पीड ब्रेकर्स हद्दपार झाले आहेत. रस्त्यांवर ठराविक अंतरांवर म्हशींची जा – ये सुरु असल्यामुळे वाहनांच्या वेगावर आपोआपच वचक बसला आहे. ‘वाहने सावकाश चालवा, पुढे स्पीड ब्रेकर आहे’ ह्या पाट्या जाऊन, ‘म्हशी पुढे आहेत’ अशा पाट्या आल्या आहेत.

# ‘आर्थोपेडीक क्लिनिक मधली गर्दी ओसरली’

रस्त्यांवरचे स्पीड ब्रेकर्स काढल्यामुळे वाहन चालकांचे पाठीचे व कंबरेचे दुखणे यात लक्षणीय घट नोंदवण्यात आली आहे.

# ‘शाळा चालकांची म्हशीला पसंती’

शाळा सुटल्यानंतर लहान मुले रस्ता ओलांडताना वाहनांची नेहेमीच दशहत असायची. शाळेनी शाळा सुटतांना शाळेसमोर २ म्हशी तैनात कराव्या, अशी पालकांनी शाळा चालकांकडे मागणी केली आहे. बहुतेक शाळा चालकांनी याला मंजुरी दिली आहे.

# ‘म्हशींना सर्वच शहरांमध्ये डिमांड’

सर्वच मोठ्या शहरांमध्ये पादचाऱ्यांच्या सुरक्षिततेकरता म्हशींची मदत घेणार. पाहणी पथके पुण्यात दाखल.

# वर्षातली सगळ्यात इनोव्हेटिव्ह कल्पना म्हणून लवकरच शिक्कामोर्तब होण्याची शक्यता!

मीडिया संशोधकाच्या शोधात! ! !

काहीतरी गोड आवाजामुळे माझी तंद्री मोडली. शेजारी बसलेली मुलगी सांगत होती, बस येतेय, चला. लांब बस दिसत होती. मी उठून पुढे आलो. बाजूला म्हशीच्या ट्रिप सुरु होत्याच. तेवढ्यात बस आली. मी म्हशीकडे बघून तिला बाय केलं आणि बसमध्ये चढलो.

लेखक : सुधीर करंदीकर 

मोबा 9225631100

इमेल < srkarandikar@gmail. com >

 

© श्री सुधीर करंदीकर

मो. 9225631100 – ईमेल – srkarandikar@gmail. com

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… वासंती  – भाग – ३८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

जात

आयुष्याच्या प्रवासामध्ये घडणाऱ्या धक्कादायक घटनांचा परिणाम हा कायमस्वरूपी असतो का? हा प्रश्न जेव्हा माझ्या मनात येतो तेव्हा मला मिळणारं उत्तर हे अस्पष्ट असतं. त्याचं कारण असं की आठवणी जरी मागे उरलेल्या असल्या तरी काळानुसार त्या घटनेच्या वेळचा तीव्रपणा, कडवटपणा, त्यावेळी प्रत्यक्षपणे उसळलेली बंडखोरी अथवा वादळ शमलेलं असतं. सरकणाऱ्या काळाबरोबर खूप काही बदललेलंही असतं आणि या जाणिवेपर्यंत आपण पोहोचतो की आता मागचं कशाला उगाळायचं? जे झालं ते झालं किंवा झालं गेलं विसरून जाऊन पुन्हा एकदा नव्याने धागे विणणे जर आनंदाचे असेल तर ते का स्वीकारू नये?

काही दिवसापूर्वीच माझी एक बालमैत्रीण मला एका समारंभात भेटली. बोलता बोलता ती म्हणाली, ” त्या दोघींना बघितलेस का? कशा एकमेकींना प्रेमाने मिठी मारत आहेत! एकेकाळी तलवारी घेऊन भांडत होत्या. माणसं कसं काय विसरू शकतात गं भूतकाळातले खोलवर झालेले घाव? ”

तिच्या त्या प्रश्नाने माझ्या अंतर्मनातले संपूर्ण बुजलेले व्यथित खड्डे पुन्हा एकदा ठिसूळ झाल्यासारखे भासले.

१७/१८ वर्षांचीच असेन मी तेव्हा. दोन वर्षांपूर्वीच ताईचे तिने स्वतः पसंत केलेल्या मुलाशी थाटामाटात लग्न झाले होते. मुल्हेरकरांचा अरुण हा आम्हाला केवळ बालपणापासून परिचितच नव्हता तर अतिशय आवडता आणि लाडका होता तो आम्हा सर्वांचा आणि अरुणचे काका- काकी म्हणजे बाबा- वहिनी मुल्हेरकर आमचे धोबी गल्लीतले गाढ आमने सामनेवाले. आमचे त्यांचे संबंध प्रेमाचे, घरोब्याचे आणि त्यांच्या घरी नेहमी येणारा त्यांचा गोरागोमटा, उंच, तरतरीत, मिस्कील, हसरा, तरुण पुतण्या अरुणच्या प्रेमात आमची ही सुंदर हुशार, अत्यंत उत्साही, बडबडी ताई हरवली तर त्यात नवल वाटण्यासारखे काहीच नव्हते. खरं म्हणजे दोघेही एकमेकांना वैवाहिक फूटपट्टी लावली असता अत्यंत अनुरूप होते. बाबा आणि वहिनी खुशच होते पण अरुणच्या परिवारात म्हणजे त्याचे आई-वडील (भाऊबहिणीं विषयी मला नक्की माहीत नाही पण आई-वडिलांच्या मतांना पाठिंबा देणारे ते असावेत) त्यांचा या लग्नाला प्रचंड विरोध होता आणि त्याला कारण होते.. आमची जात. मुल्हेरकर म्हणजे चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभू म्हणजे सीकेपी, उच्च जातीतले. ब्राह्मण जातीनंतरची दुसरी समाजमान्य उच्च जात म्हणजे सीकेपी असावी आणि आम्ही शिंपी. जरी धागे जोडणारे, फाटकं शिवणारे, विरलेलं काही लक्षात येऊ नये म्हणून सफाईदारपणे रफू करणारे वा ठिगळं लावणारे असलो तरी शिंपी म्हणजे खालच्या जातीचे. जात म्हणजे जातच असते मग तुमच्या घरातले अत्यंत उच्च पातळीवरचे संस्कार, बुद्धीवैभव, संस्कृती, जीवनपद्धती, आचार विचार यांना या पातळीवर महत्व नसते त्यामुळे हा धक्का जरा मोठाच होता आम्हा सर्वांसाठी. त्यातून पप्पांनी आमच्यावर एक मौलिक संस्कार आमच्या ओल्या मातीतच केला होता. “जाती या मानवनिर्मित आहेत. मनुष्य कोणत्या जातीत जन्माला यावा हे केवळ ईश्वराधीन असते त्यामुळे जन्माला येणार्‍याची खरी जात एकच. “माणूस” आणि जगताना तो माणूस म्हणून कसा जगतो हेच फक्त महत्त्वाचं. ” अशा पार्श्वभूमीवर ताई आणि अरुणचं लग्न या जातीभेदात अडकावं ही आमच्यासाठी फार व्यथित करणारी घटना होती पण “मिया बिबी राजी तो क्या करेगा काजी? ”

कदाचित अरुण म्हणालाही असेल ताईला, ” आपण पळून जाऊन लग्न करूया” आणि ताईने त्याला ठामपणे सांगितले असेल, ” असा पळपुटेपणा मी करणार नाही कारण मी ज. ना. ढगे यांची मुलगी आहे. ”

अखेर प्रीतीचा विजय झाला. अरुणने घरातल्या लोकांची समजूत कशी काढली याबाबतीत अज्ञान असले तरी परिणामी अरुणा -अरुण चे लग्न थाटामाटात संपन्न झाले. त्या रोषणाईत त्या झगमगाटात जातीची धुसफूस, निराशा, भिन्न रितीभातीचे पलिते काहीसे लोपल्यासारखे भासले, वाटले. आम्ही सारेच लग्न किती छान झाले, सगळे मतभेद विरले, आता सारे छान होईल या नशेतच होतो पण नाही हो!

विवाहा नंतरच्या काळातही त्याची झळ जाणवतच राहिली. ती आग अजिबात विझलेली नव्हती. आपली लाडकी बाबी संसारात मानसिक कलेश सोसत आहे या जाणिवेने पप्पा फार व्यथित असायचे. वास्तविक भाईसाहेब मुल्हेरकर (अरुणचे वडील) जे रेल्वेत अधिकारी पदावर होते त्यांच्याविषयी पप्पांना आदर होता पण क्षुल्लक विचारांच्या किड्यांनी ते पोखरले जावेत याचा खेद होता. त्यात आणखी एक विषय पपांना सतावणारा होता आणि तो म्हणजे “बुवाबाजी”. प्रचंड विरोध होता पप्पांचा या वृत्तीवर आणि धोबी गल्लीच्या कोपऱ्यावर राहणाऱ्या एका बाईकडे बसणार्‍या, लोकांना भंपक ईश्वरी कल्पनात अडकवून त्याच्या नादी लावणाऱ्या “पट्टेकर” नावाच्या, स्वतःला महाराज समजणाऱ्या या बुवाच्या नादी हे सारं कुटुंब लागलेलं पाहून ते संताप करायचे. त्यातून ताई आणि अरुणही केवळ घरातले सूर बिघडू नयेत म्हणूनही असेल कदाचित पट्टेकरांकडे अधून मधून जात हे जेव्हा पप्पांना कळले तेव्हा आमच्यासाठीचा हा महामेरू पायथ्यापासून हादरला आणि माझ्यात उपजतच असलेली बंडखोरीही तेव्हाच उसळली.

या सगळ्या निराशाजनक, संतापजनक दुःख देणाऱ्या पार्श्वभूमीवरही काही आनंदाचे क्षण अनुभवायला मिळाले हे विशेष.

आमच्या घरात कित्येक वर्षांनी तुषारच्या जन्माच्या निमित्ताने “पुत्ररत्न” प्राप्त झाले आणि त्याचा आनंद काय वर्णावा! ताई -अरुणला पहिला पुत्र झाल्याचा आनंद समस्त धोबी गल्लीने अनुभवला. जणू काही “राम जन्मला गं सखी राम जन्मला गं” हाच जल्लोष होता. बाबा वहिनींना तर खूपच आनंद झाला. काय असेल ते असो जातीभेदाच्या या युद्धात ते मात्र सदैव तटस्थ होते. त्यांचा आमचा घरोबा, प्रेम, स्नेह कधीही ढळला नाही. त्यांनी लहानपणापासून त्यांच्या प्रेमळ सान्निध्यात वाढलेल्या ताईचा सून म्हणूनही नेहमी सन्मान राखला. तिच्यातल्या गुणांचं कौतुक केलं.

आमच्या घरात तुषारचे बारसे आनंदाने साजरे झाले. अरुणचा समस्त परिवार बारशाला आला होता. त्यांनी व्यवस्थित बाळंतविडा, तुषारसाठी सुवर्ण चांदीची बालभूषणेही आणली पण इतक्या आनंदी समारंभात त्यांनी आमच्या घरी पाण्याचा थेंबही मुखी घेतला नाही. आईने मेहनतीने बनवलेल्या खाद्यपदार्थांना हातही लावला नाही. कुणाशी संवाद केला नाही. ।अतिथी देवो भव । या तत्त्वानुसार आई, जीजी, पप्पा यांनी कुठलीही अपमानास्पद वागणूक अथवा तसेच शब्दही मुखातून प्रयासाने येऊ दिले नाहीत मात्र आमच्या याही आनंदावर पार विरजण पडलं होतं.

पाळण्यात बाळ तुषार रडत होता. त्याला मी अलगद उचललं. त्याचे पापे घेतले. त्या मऊ, नरम बालस्पर्शाने माझ्या हृदयातली खदखद, माझ्यासाठी जीवनात अत्यंत महत्त्वाच्या तीन व्यक्तींचा झालेला हा अपमान, मनोभंग आणि त्यातून निर्माण झालेला असंतोष शांत झाला होता का? पण मनात आले या कडवट, प्रखर आणि माणसामाणसात अंतरे निर्माण करणारे हे जातीयवादाचे बाळकडू या बाळाच्या मुखी न जावो!

पुढे अनेक क्लेशकारक घटना घडणार होत्या. एका सामाजिक अंधत्वाच्या भयाण सावलीत आमचं पुरोगामी विचारांचं कुटुंब ठेचकाळत होतं हे वास्तव होतं. त्याबद्दल मी पुढच्या भागात लिहीन आणि या वैयक्तिक कौटुंबिक बाबीं आपल्यापुढे व्यक्त करण्याची माझी एकच भूमिका आहे की माणसाच्या मनातले हलके विचार किंवा श्रेष्ठत्वाच्या दांभिक भावना जगातल्या प्रेमभावनेचा अथवा कोणत्याही सुंदर आत्मतत्त्वाचा किती हिणकस पद्धतीने कडेलोट करतात याविषयी भाष्य करणे. हे असं कुणाच्याही बाबतीत कधीही होऊ नये. कुठलाही इतिहास उगाळून मला आजचा सुंदर वर्तमान मुळीच बिघडवायचा नाही पण घडणाऱ्या घटनेचे त्या त्या वेळी जे पडसाद उमटतात त्याचा व्यक्तीच्या जडणघडणीवर नक्कीच परिणाम झालेला असतो..

– क्रमश: भाग ३८

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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