हिंदी साहित्य – कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “सत्तर से एक कम!”)

☆ कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हाँ थोड़ा थक सा जाता हूँ

दूर निकलना छोड़ दिया,

पर ऐसा भी नही हैं कि

मैंने चलना ही छोड़ दिया।

 

फासलें अक्सर रिश्तों में

अजीब सी दूरियां बढ़ा देते हैं,

पर ऐसा नही हैं कि मैंने

अपनों से मिलना छोड़ दिया।

 

हाँ जरा अकेला महसूस करता हूँ

अपनों की ही भीड़ में,

पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने

अपनापन ही छोड़ दिया।

 

याद तो करता हूँ अब भी

मैं सभी को और परवाह भी,

पर कितनी करता हूँ

बस! ये बताना छोड़ दिया ।

 

हाँ! उस मंजर की कसक बाकी है अभी,

जब बारिश में साथ भीगते थे कभी,

पर ऐसा भी नही है कि मैंने

बारिश में भीगना ही छोड़ दिया |

 

हाँ! याद तो आती है वस्ल की रातें,

जब तनहा होता हूँ कभी,

पर ऐसा भी नहीं कि मैंने,

ख़्वाब देखना ही छोड़ दिया ।

 

ठोकरें खाई हैं ऊबड़ खाबड़ राहों पर

एक कम सत्तर तक आते-आते

पर ऐसा भी नहीं कि

शतायु का ख़्वाब छोड़ दिया है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 –  आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पे पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया। 

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा । उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पत्थर पहले मूर्तिकार की चोटों से काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (36-40) ॥ ☆

 

कमल भी बढ़ती पुराने मुरझे को छोड नये मृदु कमल में जाकर

तथैव रघुकुल की श्री बढ़ी नये सुयोग्य युवराज विभा को पाकर ॥ 36॥

 

पवन से पावक निरंभ्र नभ – रवि मदोन्मत्त गज प्रचण्ड होते

तथा प्रतापी सुपुत्र रधु से दिलीप भी गये अजेय होते ॥ 37॥

 

नेतृत्व दे राजपुत्रों का रघु को बना अश्व रक्षा का उसको प्रभारी

किये अश्वमेघ यज्ञ निन्यानबे पूर्ण निविघ्न राजा ने बन धर्मचारी ॥ 38॥

 

जब सौवा यज्ञ – अश्व छोड़ा गया तब इंद्र यह सब सहन कर न पाया

अदृश्य हो सैनिकों के ही आगे, विश्वजयी घोड़े को उसने चुराया ॥ 39॥

 

अदृश्य होने पर अश्व के सहज ठगी सी रह गई कुमार सेना

तभी अचानक प्रकट हुई ख्यात वशिष्ठ गुरूधेनु प्रिय नंदिनी वहाँ ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अद्वैत ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अद्वैत ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

सूर छेडिले मधुर

जशा सरीवर सरी

गोकुळाला वेड लावी

कान्हाची धुंद बासरी ||

 

वसे मोहन अधरी

हेवा वाटे गोपिकांना

भाग्य तुझे असे मोठे

याचे कारण सांगना ||

 

बासरीची ती साधना

कधी कुणा ना कळते

सर्वसंग परित्यागे

नतमस्तक ती होते ||

 

अहंकार त्यजुनीया

झाली पोकळ आतूनी

षडरिपू दूर होती

सहा छिद्रांच्या मधूनी ||

 

‘मी’पण नसे तियेला

शांत सदैव रहाते

फुंकर घालीता कान्हा

शीळ मधुर वाजते ||

 

परिपूर्ण या गुणांनी

चीज अनोखी बासरी

मुरलीधराला प्रिय

धरी सदैव अधरी ||

 

कान्हाच्या स्वरसंगमी

सारे विश्व वेडे होते

कृष्ण बासरीचे ऐसे

अद्वैत घडून येते ||

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गणपती बाप्पा मोरया ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गणपती बाप्पा मोरया ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆ 

(सुवर्ण सुधाकरी अभंग रचना)

भादव मासात | चतुर्थी दिनात ||

बाप्पा भुलोकात | आनंदात ||१||

 

प्रसन्न अवनी | चैतन्य गगनी ||

भालचंद्र जनी | तन मनी || २||

 

आरंभी नमन | रंगले भजन ||

मानस पूजन | गजानना ||३||

 

भरजरी शेला | पितांबर नीला ||

शेंदूर लाविला | हेरंबला ||४||

 

हिरे मुकुटात | हार तो गळ्यात||

नुपूर पायात | एकदंता ||५||

 

हातात परशू | धरिले अंकुश ||

निर्गुण तो ईश | गणाधीश.||६||

 

चंदनाची उटी | नागबंध कटी ||

गदा धरी मुष्टी | तो विकट ||७||

 

कला अधिकारी | दिनांचा कैवारी||

संकटे निवारी | विघ्नेश्वर ||८||

 

तूच बुधिदाता | विश्वाचा नियंता ||

वेद शास्त्र महंता | शिवसुता ||९||

 

आतुर दर्शना | मुषकवाहना ||

तू चित्तरंजना | त्रिनयना ||१०||

 

भक्तांचा तो मेळा | सुखद सोहळा ||

धुंद परिमळ | सदाकाळा ||११||

 

मी गें अल्पमती | करावया स्तुती ||

तूच देई स्फूर्ती | गणपती ||१२||

 

तूच माझी माता | तूच माझा पिता ||

क्षमा करी आता | कृपावंता || १३||

 

© सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

विश्रामबाग, सांगली.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 71 – हरवलेले माणूसपण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 71 – हरवलेले माणूसपण ☆

 समृध्दीने नटलेल घर पाहून हरवले देहभान ।

शोधून सापडेना कुठेही हरवलेले माणूसपण ।।धृ।।

 

कुत्र्या पासून सावध राहा भलीमोठी पाटी।

भारतीय स्वागताची आस  ठरली खोटी।

शहानिशा करून सारी आत घेई वॉचमन ।।१।।

 

झगमगाट पाहून सारा पडले मोठे कोडे ।

सोडायचे कुठे राव हे तुटलेले जोडे ।

ओशाळल्या मनाने कोपऱ्यात  ठेऊन ।।२।।

 

सोफा टीव्ही एसी सारा चकचकीतच मामला।

पाण्यासाठी जीव मात्र वाट पाहून दमला ।

नोकराने आणले पाणी भागली शेवटी तहान ।।३।।

 

भव्य प्रासादातील तीन जीव पाहून ।

श्रीमंतीच्या कोंदणाने गेलो पुरता हेलावून ।

चहावरच निघालो अखेर रामराम ठोकून।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ माॅर्निग वाॅक….☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

? विविधा ?

☆ माॅर्निग वाॅक ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

लेकाची बारावीची परीक्षा संपली.सुधाने मोकळा श्वास घेतला.तिला एकदम महिला परिषदेत ऐकलेल्या व्याख्यानाची आठवण झाली.चाळीशीनंतर महिलांनी आपल्या प्रकृतीबद्दल जागरुक रहायला हवं.तिने मनाशी ठरवले उद्या पासून माॅर्निग वाॅकला जायचे.

सकाळी सहा वाजता फिरण्यासाठी घराबाहेर पडली.अजून काळोख होता.थोडासा गारवाही जाणवत होता.खूप प्रसन्न वाटले.चार पावले चालली, तेवढ्यात कुत्र्याची कळवळ ऐकू आली.चार- पाच कुत्री एकमेकावर भुंकत होती.जसजसा आवाज जवळ येऊ लागला,तसे सुधाचे पाय लटपटायला लागले.आता ती कुत्री आपल्याच अंगावर आली तर या विचाराने सुधा जागीच थांबली.

मनात आले,आल्या पावली घरी परत जावे.पण घरी जायचा अवकाश , घरातील सगळे हसतील,मी फिरणार म्हणजे हे दोन दिवसाचे नाटक होणार हे समजून आधी तोंडसुख घेतले होते. मी आता घरी परत गेले तर दिवसभर चर्चला विषय.त्यापेक्षा इथंच थांबलेले बरं.पाचएक मिनिटांनी कुत्री बाजूला झाली.तसा सुधाने सुटकेचा श्वास घेतला. पुढे चालू लागली.चार पावले जाते न जाते तोच एका घरातून एक व्यक्ती आपल्या कुत्र्या सोबत बाहेर आली.कंबरे एवढा मोठा कुत्रा होता. जीभ बाहेर काढून दाखवत होता. जरा निरखून पाहिल्यावर दिसले,त्या कुत्र्याच्या गळ्यात पट्टा होता.तो पट्टा मालकाने धरला होता.आपल्या या कुत्र्यापासून भिती नाही असे म्हणून कपाळावरचा घाम पुसला. पुढे चालु लागली.तो समोरून दोन कुत्री येताना दिसली.अंतर जरा जास्त होते म्हणून तिने स्वत: ला सावरतचं रस्त्याच्या दुसऱ्या बाजूने चालायला सुरुवात केली. सकाळी बबसकाळी किती कुत्री असतात रस्त्यात.कसे बरं चालावं? कोण कसे यांना पकडत नाही? किती हा त्रास? मुलेबाळे कशी चालणार या रस्त्यावर?

मोकाट कुत्र्यांचे काही तरी केलेच पाहिजे, असे विचार सुरू असतानाच समोरून येणाऱ्या कुत्र्यानी अचानक वेग घेतला.ती धावत आपल्याच दिशेने येतात असे तिला वाटले.तिने चालण्याचा वेग वाढवला. तशी ती कुत्री अजून जोरात पळत वेगात जवळ येताना दिसली.

आता सर्वांगाला घाम फुटला,पाय लटपटायला लागले.तेवढ्यात दोन शाळकरी मुले त्या कुत्र्यांजवळून बिनधास्त गेली.आता आपण काय करावे? कुठे बसावे? असे वाटू लागले.रस्त्यात चोहोबाजूला पाहिले. बसण्यासारखे काहीच नव्हते‌.पुन्हा स्तब्ध झाली.

दोन कुत्री समोरच्या मालकाबरोबर चाललेल्या कुत्र्यावर भुंकत होती.ते कुत्रे ही जोरात भुंकू लागले.क्षणभर सुधाला वाटले,ही कुत्री एकमेकांशी बोलत असावीत.आम्ही कसे स्वतंत्र आहोत.हवं तसे हवं तेव्हा कुठे ही फिरतो.लोकांना घाबरवतो, आम्ही मुक्त जगतो.तू मात्र मालकाच्या तालावर जागतोस.त्यांनी फिरायला बाहेर काढले तर फिरणार नाही तर दिवसभर घरात एका जागी बांधून पडणार.मालकांनी दिलं तर खाणार, फिरायला नेहले तर फिरणार,त्याच्या घराची राखण करणार.तोड ते बंधन.हो मुक्त.चल आमच्या बरोबर….हे काय सूचतय मला?या विचाराने तिला हसू आले.

कुत्रा जास्त पायात येताना त्या कुत्र्याच्या मालकाने त्या कुत्र्याला हुसकावून लावले.तशी कुत्री पायात शेपटी घालून लांब निघून गेली.तो मालकही आपल्या कुत्र्या सोबत दुसऱ्या गल्लीत वळला. सुधा भानावर आली.आपला बराच वेळ रस्त्यातच गेला.आता भरभर चालले पाहिजे असे म्हणत ती एका ग्राऊंडजवळ आली.लोखंडी फाटकातून आत पाऊल टाकणार  तेवढ्यात समोरून एक कुत्रे आले आणि उडी मारून गेले.हे इतकं अचानक झाले तिला काही कळलेच नाही.भितीने हृदयाचे ठोके मात्र वाढले.फाटकाच्या आधाराने काही क्षण उभारली आणि चालू लागली.तोच दोन कुत्र्यांची पिल्ले जवळून पळत गेली.आज काय कुत्रे डे आहे का?

सकाळपासून सगळीकडे सगळी कुत्री माझ्याच मागे का? काय घोडे मारले मी त्यांचे? या विचारात चालत असताना तिला जाणवले तिची ओढणी कुणी तरी मागून ओढत आहे.तिला पुढे चालता येईना.मागून कुत्री भुंकत आहेत.असा भास झाला.तिची ओढणी कुत्र्यांने तोंडांत धरली आहे असे जाणवले.जवळ जवळ मोठ्याने ती किंचाळली.माॅर्निग वाॅक करणारे लोक थांबले.ते धावतच सुधा जवळ आले.आपल्या काय होतय हे कळायच्या आता तिला भोवळ आली.एकाने तोंडावर पाणी मारले.” मॅडम  काय झाले?बरं वाटतंय का?”

 आपल्या भोवती माणसांचा गराडा पाहून तिला काय झाले ते कळलेच नाही.

” काय झाले मला?”

” अहो आता तुम्ही किंचाळलात?भोवळ आली तुम्हाला.आम्ही विचारतोय तुम्हाला काय झाले?”

“मला…मी…मला…कुत्रे…कुठाय ?”

” कुत्री… ती काय तिकडे लांब खेळत‌ आहेत.”

तिने पाहीले तर खरंच  कुत्री लांब होती.तिने आपली ओढणी बघितली.

” आता माझी ओढणी कुत्र्यांनी पकडली होती ना?”

” नाही.तुमची ओढणी त्या झुडपात अडकली होती.मी काढली.”

हे ऐकून सुधा चांगली ओशाळली.सावरत उठली.इकडे तिकडे न बघता तिने तडक घर गाठले.  पुन्हा कधी ही माॅर्निग वाॅकला न येण्याच्या दृढ निश्चयाने.

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सांगली

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एक कटिंग असाही – भाग 1 ☆ सुश्री समिधा ययाती गांधी

? जीवनरंग ?

☆ एक कटिंग असाही – भाग 1 ☆ सुश्री समिधा ययाती गांधी ☆ 

(हृदयस्पर्शी व्याख्या “लंगोटी यार” ची)

सकाळी सकाळी मला फोन आला.

“नमस्कार. आपण भास्कर आपटे बोलताय का?”

“नमस्कार, मी भास्कर आपटे बोलतोय. आपण कोण बोलताय?”

“काका, तुम्ही सुरेश कामतांना ओळखता ना? मी त्यांचा मुलगा बोलतोय. “

” कोणाचा मुलगा?”

” सुरेश कामतांचा. बाबा म्हणाले की तुम्ही कॉलेजात असताना जिगरी दोस्त होतात. “

” हो. होतो आम्ही जिगरी दोस्त. पण आता त्याचे काय. आमची मैत्री मोडून पण चाळीस वर्षे झाली. आता आम्ही कित्येक वर्ष भेटलेलो सुद्धा नाही. “

” हो. बाबा नेहमी तुमच्या आठवणी सांगायचे. तुम्हाला कॉलेजचे जय वीरू म्हणायचे ना? “

सुरेशाच्या मुलाचे पुढचे शब्द माझ्या कानावर पडत होते खरे पण मी पूर्णपणे भूतकाळात शिरलो होतो. एखादा सिनेमा फ्लॅशबॅकमध्ये पहावा तसे माझे बालपण माझ्या नजरेसमोर येत होते.

मी आणि सुरेश काही दिवसांच्या फरकाने एकाच चाळीत जन्माला आलो. आमची मैत्री आधी झाली मग कधीतरी आम्ही चड्डीची नाडी बांधायला शिकलो. इतक्या लहानपणापासून आम्ही दोघे एकत्रच असायचो. एकमेकांशिवाय आमचे पान हलत नसे. कधी भांडलो तरी तेवढ्यापुरते. तासादोन तासाच्यावर आमचे भांडण टिकायचेच नाही.

आम्ही गेल्या जन्मी एकमेकांचे भाऊ असणार असे आमच्या आया म्हणायच्या. मे महिन्याच्या सुट्टीत आम्ही दोघे एकत्रच माझ्या आणि त्याच्या आजोळी राहायला जायचो. मी कामतांकडे मासे खायला शिकलो  सुरेश आमच्याकडचे शाकाहारी जेवण मनापासून जेवायचा. अगदी पंचामृत, अळूच्या फतफद्यासकट सगळे पदार्थ  तो आवडीने खायचा.

कॉलेजातही आमची मैत्री फेमस होती. आम्ही कॅंटीनमधला कटिंग चहा पण अर्धा अर्धा करून प्यायचो. चहा हा आमच्या दोघांचाही वीक पॉईंट..दिवसभरात दोघांचा मिळून दहाबारा कप चहा होत असे. गप्पा मारताना, अगदी मुलींकडे चोरून बघताना, अभ्यास करताना. आम्हाला चहा हवाच असायचा. आमच्या चहा पिण्याची थट्टा व्हायची. आम्ही दोघे नेहमी म्हणायचो आमची चहाची सवय आणि आमची मैत्री कधीच तुटणार नाही. 

सगळे म्हणायचे दृष्ट लागण्यासारखी मैत्री आहे या दोघांची. खरच कोणाची दृष्ट लागली आमच्या मैत्रीला?

 कॉलेजमधल्या आमच्या इतर मित्रांनी एकमेकांत आमच्यात भांडण लावून द्यायची पैज लावली होती. जो त्यात यशस्वी होईल त्याला दोन हजार रुपये इतरांनी मिळून द्यायचे असे ठरले होते.

आम्हाला दोघांना या प्लॅनची अजिबात कल्पना नव्हती.

आम्ही आमच्याच विश्वात मश्गुल असायचो. पण हळूहळू इतरांनी मिळून आमच्या मनात एकमेकांविषयी स्पर्धा निर्माण करण्यात यश मिळविले. कधी नव्हे ते आम्ही एकमेकांकडे संशयाच्या नजरेने पहायला लागलो. आमचा शेवटच्या वर्षाचा रिझल्ट लागला. दरवर्षी मी पहिला यायचो आणि सुरेश दुसरा किंवा तिसरा असायचा. यावेळी पहिल्यांदाच माझा दुसरा नंबर आला आणि सुरेशचा पहिला..

माझा मूड आधीच खराब होता. त्यात इतर मित्रांनी मला सांगितले की सुरेशने कॉपी करुन पहिला नंबर मिळवला आणि मुलींवर पहिल्या नंबरचे इंप्रेशन मारत फिरतोय.

तेवढ्यात सुरेश व आमच्या वर्गातलीच एक मुलगी मला भेटायला कॅंटीनमधे आले. तो बिचारा स्वतःचा पहिला नंबर येऊनसुद्धा माझा पहिला नंबर आला नाही म्हणून अस्वस्थ झाला होता. पण मला काय  झाले होते कोणास ठाऊक. मी त्याला वाट्टेल ते बोललो. त्या मुलीवरूनही त्याला बोलायला लागलो. तो सुरूवातीला शांत होता पण नंतर त्याचा ही संयम संपला. आम्ही खूप भांडलो. एकमेकांची उणीदुणी काढली. आणि पुन्हा एकमेकांचे तोंडही पहायचे नाही असे मनाशी पक्के करूनच घरी आलो. आमच्या घरच्यांनी आमची खूप समजूत काढायचा प्रयत्न केला. ज्या मित्रांनी पैज लावली त्यांनीही आमच्यात समेट घडवून आणायचा प्रयत्न केला. आम्ही दोघेही अडून बसलो. प्रेस्टीज इश्यू केला. पुढे मला नोकरी मिळाली. मी पुणे सोडून मुंबईत आलो. आमची जुनी चाळ पाडली. सगळी पांगापांग झाली.

आताशा कॉलेजच्या मित्रांची रियुनियन झाली. सुरेश तिथे असेल म्हणून मी जायचे टाळले. एकदा वाटले की आपण फोन करून सुरेशशी बोलावे. रियुनियनच्या निमित्ताने का होईना पुन्हा भेटावे. पण माझा इगो आड आला. इतकी वर्षे गेली तरी त्यानेही स्वतःहून कधीच फोन केला नाही. तो ही कॉलेजच्या व्हॉटसॲप ग्रुप पासून दूरच राहिला. आणि आज अचानक हा त्याच्या मुलाचा फोन ——-

क्रमशः….

© सुश्री समिधा ययाती गांधी

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे..…! ☆ संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित ☆

घरी आल्यावर हातपाय धुतलेस का? चल उठ आधी, तशीच बसलियेस घाणेरडी! अग जेवायला बसायचं ना, हात धुतलेस का स्वच्छ? संध्याकाळ झाली, आधी तोंड धू आणि नीट केस विंचरून वेणी घाल. तोंड पुसायचा टॉवेल हात पुसायला घेऊ नको ग, गलिच्छ कुठली!  बाथरूम मधून बाहेर येताना पाय कोरडे कर, ओले पाय घेऊन फिरू नको घरभर! केस स्वयंपाकघरात नको ग विंचरू, अन्नात जातील, शिळ्या भाताचा चमचा ताज्या भाताला वापरू नकोस, खराब होईल तो, दुधाची पातेली एकदम वरच्या खणात ग फ्रीजमध्ये, खालती नको ठेऊ! वाट्टेल त्या भांड्यात दुध नाही तापवायच ग. तुझ्या भांड्याने पाणी पी, माझं घेऊ नकोस, अग केस पुसायच्या पंचाने अंग नको पुसू, बेक्कार नुसती!!! खोकताना तोंडावर रुमाल घे, कितीवेळा सांगायचं, आणि तो रुमाल स्वतः धू, बाकीच्या कपड्यात टाकू नको धुवायला, दुसऱ्याशी बोलताना चांगलं हातभार अंतर ठेवून उभी रहा, थुंकी उडते कधीकधी ?. कशाला जाता येता मिठ्या मारायच्या एकमेकांना, घाम असतो, धूळ असते अंगाला ती लागेल ना! काहीतरी फ्याड एकेक, काय ते प्रेम लांबून करा!!! चप्पल घालून घरात आलीस तर याद राख, काढ आधी ती दारात. खजूर खल्लास, बी टाकून दे लगेच, तशीच ठेवायची नाही,तोंडातली आहे ना ती? नीट जेव, शीत तळहाताला कस लागतं ग तुझं? कसं जेवत्येस! ताट स्वच्छ कर, आणि पाणी घालून ठेव, करवडेल नाहीतर! तोंडात घास असताना बोलू नकोस, इतकं काय महत्वाचं सांगायचंय  ??

——–तात्पर्य काय? तुम्हाला जर असं वाढवलं गेलं असेल, तर कोरोना ची अजिबात चिंता करू नका, कारण आज सगळं मेडिकल सायन्स जे सांगतंय, ते आपल्या पितरांनी आपल्याला लहानपणीच शिकवलंय. तेव्हा जाच वाटला खरा, पण आज ह्याच सवयी आपलं कोरोना पासून रक्षण करतील. तेव्हा काळजी करू नका, जसे वागत आलायत तसेच वागत रहा .

——–एक शंका, आपल्या पूर्वजांचे अस्वस्थ आत्मे तर कोरोनाच्या रूपाने परत आले नाहीत जगाला स्वच्छता शिकवायला??? नाही म्हणजे, इंग्लंड चा राजा पण शेकहँड करायच्या ऐवजी नमस्कार करतोय म्हणे ??

 संग्रहिका : सौ. स्मिता पंडित

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ प्रकाशवाटा – डॉ. प्रकाश आमटे ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ 

☆ प्रकाशवाटा – डॉ. प्रकाश आमटे ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार ☆ 

पुस्तकाचे नाव: प्रकाशवाटा

 लेखक : डॉ. प्रकाश आमटे

शब्दांकन : सीमा भानू

प्रकाशक : समकालीन प्रकाशन 

पृष्ठ संख्या : १५६ 

किंमत : रु. २००/-

परीक्षण :  सौ कल्पना कुंभार.

आजपर्यंत अनेक समाजसुधारक पाहिले..पण मनात अगदी खोलवर घर करून राहिले ते बाबा आमटे व डॉ .प्रकाश आमटे..त्यांनी आदिवासींच्या जीवनात आनंद तर निर्माण केलाच पण त्या आनंदाला भरारी मारण्याचे पंखही दिले…त्यांच्या पुस्तकाचे परीक्षण करण्याइतकी मी नक्कीच तेवढी जाणकार  नाही..पण जे भावलं ते तुमच्यासमोर मांडण्याचा हा एक छोटासा प्रयत्न करत आहे..

डॉ. प्रकाश आमटे यांचे सीमा भानू यांनी शब्दबद्ध केलेले ” प्रकाशवाटा ” हे आत्मचरित्र वाचनात आलं आणि मी भारावल्यासारखी हेमलकशात  जाऊन पोहचले..पुस्तकाच्या मुखपृष्ठावर कंदील घेऊन डॉ. प्रकाश आमटे उभे असलेले आपल्याला दिसतात..जणू  ” कितीही अंधार असुदे..खाचखळगे असुदे..या कंदिलाच्या उजेडात ही वाट चालणारच आहे ” असे सांगत आहेत..तर मलपृष्ठावर बाबांसोबत व ताईसोबत  उभयंताचा फोटो आहे ..तो पहाताना त्यांचा साधेपणा मनाला भावतो..त्यांच्या चेहऱ्यावरील समाधानाच तेज ..व निस्वार्थी प्रेम  पाहून आपोआपच आपण नतमस्तक होतो त्यांच्यापुढे ….

प्रकाशाची वाट..

खडतर

          अवघड..

डोंगरदऱ्यांची

             वळणावळणाची

खाचखळग्याची..

तरीही बाबांचा विश्वास

 व ताईंची माया..   मंदाताई व प्रकाश दादांचा आत्मनिर्धार …

यामुळेच कुष्ठरोगी व आदिवासी समाज आज मानाने जगतोय..

ज्या वाक्यामुळे माझ्या बकेट लिस्ट मध्ये उर्वरित आयुष्य हेमलकशात  व्यतीत करायचे ही इच्छा मी लिहून ठेवली ते  म्हणजे.. डॉ .प्रकाश आमटे म्हणतात, ” हेमकशात आम्ही ज्या विपरीत परिस्थितीत काम करत होतो ते पाहून लोक आम्हाला वनवासातल्या राम सीतेची उपमा द्यायचे.पण मी तर म्हणतो , की सीतेला सोनेरी हरणाच्या कातड्याचा तरी मोह झाला.मंदाला मात्र कसलाच मोह कधीही झाला नाही ..अबोलपणे पण खंबीरपणे ती आयुष्यभर काम करत राहिली.” किती ही विरक्ती.. किती निरपेक्ष, निस्वार्थी भावना..मी क्षणांत नतमस्तक झाले त्या कुटुंबापुढे…” हीच आमची प्रार्थना अन हेच आमचे मागणे..माणसाने माणसाशी माणसासम वागणे…”असा सेवाभाव नसानसांत भिनलेले हे आमटे कुटुंब..आजही तळागाळातील लोकांच्या सेवेसाठी तत्पर आहे..

आपला जीवनप्रवास उलगडताना अगदी प्रांजळपणे मनातले सगळे विचार ,भावना ,इच्छा ,स्वप्ने डॉ .प्रकाश आमटे आपल्यापुढे एकेक करून खोलत जातात…

‘मॅगसेसे ‘ चा आनंद  मध्ये ‘ अंधाराकडून उजेडाकडे ‘ वाटचाल चालू असताना ‘आशियाच नोबेल ‘ म्हणून ओळखला जाणारा मॅगसेसे पुरस्कार डॉ प्रकाश व मंदा आमटे या उभयतांना जाहीर झाला आणि लोकबिरादरी प्रकल्पाला बळ मिळालं.. याबद्दल सविस्तर लिहिलं आहे..१७ वर्षे ज्या भागात वीजच नव्हती तेथे आज ४० खाटांचं हॉस्पिटल आहे तिथे उपचार करून घ्यायला लांबून लांबून लोक येतात हे अभिमानास्पदच.  

 ‘आनंदवनातले दिवस ‘ मध्ये त्यांनी त्यांचं व त्यांचा भाऊ विकास यांच्यासाठी बाबा ‘ रोल मॉडेल ‘ कसे बनले? कळत नकळत कसे संस्कार रुजवले गेले..आणि कुष्ठरोग्यांवर उपचार करायला डॉक्टर जेंव्हा यायचे नाहीत तेंव्हा बाबा स्वतः त्यांच्यावर उपचार करत हे बघून डॉक्टर व्हायची इच्छा कशी निर्माण झाली.. याचे चित्रच  डोळ्यासमोर उभे केले आहे..

‘आनंदवनाबाहेरच्या जगात ‘ या भागात डॉ प्रकाश आमटे यांच्या शिक्षण..नागपूर मधील वास्तव्य.. मंदा ताईंची भेट..मेडिकल कॉलेज मध्ये त्यांची जुळलेली वेव्हलेंग्थ.. आणि दोघांचा आगळा वेगळा विवाह याबद्दल वाचताना आपणही त्या काळात पोहचतो..आणि मंदा ताईंबद्दल चा अभिमान डोळ्यात दाटून येतो..

यानंतर मुक्काम हेमलकसा, कसोटीचे प्रसंग ,विस्तारती वैद्यकीय सेवा, जीवावरचे प्रसंग, शाळेची सुरुवात , अनोखे प्रयोग ,प्राण्यांचं गोकुळ,पुढची पिढी,समाजमान्यता जगन्नाथाचा रथ असे विविध भाग वाचता वाचता आपण कधी हेमलकसातीलच एक होऊन जातो हे समजतच नाही..कसोटीचे व जिवावरचे प्रसंग वाचताना अक्षरशः अंगावर काटा उभा रहातो तर फोटो पाहताना अशा प्रतिकूल परिस्थितीत त्यांनी जे स्वप्न साकार केले त्याचा निश्चितच खूप अभिमान ही वाटतो…हेमलकसाचा प्रकल्प प्रत्यक्षात यावा यासाठी अनेक अनामिक कार्यकर्ते,कुष्ठरोगी देणगीदार ,स्नेही यांनी सहकार्य केले आहे.. आणि म्हणूनच हा ” जगन्नाथाचा रथ ” चाललेला आहे अशी प्रांजळ कबुली देणारे..अंधाराकडून प्रकाशाकडे नेणारे… आदिवासींच्या उन्नतीसाठी झटणारे..डॉ प्रकाश आमटे मला तर माणसाच्या रुपात असलेले देव च वाटतात..

काही माणसं 

वेड लावून जातात

गाभाऱ्यातल्या नंदादीपासारखी सतत हृदयात तेवत रहातात..

त्यांच हसणं ,त्यांच बोलणं

हृदयात कोराव वाटतं

साकार झालेल्या प्रतिमांशी 

जीवन जगावं वाटतं..

अशीच

काही माणसं . ..

आपलं आयुष्यच बदलून टाकतात…

माझं आयुष्य बदलणारे ..मला सकारात्मक दिशेला नेणारे ..माझ्या सामाजिक जाणिवा जागृत करणारे..आणि माझ्या मनातील हेमलकसा मध्ये जाऊन तिथे समाजकार्य करण्याचं स्वप्न साकार करण्यासाठी  मनात भावना निर्माण करणारे हे पुस्तक ” प्रकाशवाटा ” सर्वांनी अगदी नक्की वाचा.

© सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

इचलकरंजी

मोबाईल नंबर:9822038378

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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