(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 126 ☆
☆ व्यंग्य – गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ☆
हुज़ूर! मेरा बचाव यही है कि इस मामले में मैं बेकसूर हूँ। यह इत्ता बड़ा प्लॉट जो आप देख रहे हैं, मेरे वालिद साहब ने खरीदा था।पच्चीस- तीस साल पहले ज़मीन चवन्नी फुट के भाव मिलती थी और ज़मीनों के मालिक ग्राहकों से चिरौरी करते फिरते थे कि भाई ले लो,पैसे धीरे धीरे दे देना।मगर पिछले पन्द्रह-बीस साल में आबादी ने ऐसे पाँव पसारे और ज़मीन की कीमतों में ऐसे खेल हुए कि अब एक आदमी अपनी कब्र के लायक ज़मीन पा जाए तो ऐसे खुश होता है जैसे जंग जीत लिया हो।हर रोज़ कोई मुझे सूचना देता है, ‘भाईजान, आपकी कृपा से सरस्सुती नगर में मकान बनाया है।कभी चरन-धूल दीजिए न।’
सब अपना अपना ताजमहल बना कर मगन हैं, भले ही ताजमहल बनाने में उनकी मुमताज के गहने-जे़वर नींव में दफन हो गए हों। मैं ताजमहल बनने की सूचना पाकर खुश नहीं होता क्योंकि अभी करोड़ों लोगों का ताजमहल फुटपाथ पर और खूब हवादार बना है और उनकी मुमताज (वह अभी ज़िन्दा है) जब सोती है तो उसके आधे पाँव ताजमहल से बाहर सड़क पर होते हैं।
पिताजी ने पुराने ज़माने के हिसाब से सामने काफी खाली ज़मीन छोड़कर मकान बनवाया। अब सामने ज़मीन छोड़ने का चलन रहा नहीं, इसलिए सामने छूटी लम्बी चौड़ी ज़मीन के मुकाबले हमारा मकान बेतुका और पिद्दी लगता है। दाहिने बाएँ वाले उस ज़़मीन में धीरे से पाँव पसार लेने की फिराक में रहते हैं। इसलिए हमने एक लम्बी चौड़ी चारदीवारी ज़रूर बनवा दी है।
मैं इतने बड़े प्लॉट को खाली रखकर हमेशा बहुत शर्मिन्दा रहता हूँ क्योंकि मेरे शुभचिन्तक हमेशा पहली नज़र उस ज़मीन पर और दूसरी मेरे चेहरे पर डालते हैं कि मेरा दिमाग ठीक-ठाक है या नहीं। जो पूछ सकते हैं वे पूछते रहते हैं, ‘कहो भई, क्या सोचा इस ज़मीन के बारे में?’ दरअसल आसपास के घने मकानों के बीच यह ज़मीन ऐसे ही पड़ी है जैसे ठेठ शहरियों की महफिल के बीच में कोई देहाती अपनी पगड़ी सिरहाने रख कर पसर जाए।
एक दिन मैं उस ज़मीन के फालतू पौधे उखाड़ रहा था कि देखा कमीज़ पायजामा धारी एक अधेड़, ठिगने सज्जन मेरे पास खड़े हैं। मैं उन्हें शक्ल से जानता था क्योंकि वे बेहद बदरंग स्कूटर पर कई बार सड़क से आते जाते थे। परिचय का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था।
वे नमस्कार के भाव से हाथ उठाकर बोले, ‘जी, मैं भोगीलाल। जमीन मकान का धंधा करता हूँ। यह सारी जमीन आपकी है?’
मैंने कहा, ‘हां जी, अपनी है। आपकी दुआ है।’
वह बोले, ‘वह तो ठीक है साब, लेकिन यह इतनी लम्बी चौड़ी जमीन खाली क्यों पड़ी है?’
मैंने जवाब दिया, ‘बात यह है भोगीलाल जी, कि यह ज़मीन मेरे मरहूम पिताजी ने खरीदी थी। उन्होंने यह मकान बनवाया। अब हमारे पास इतना पैसा नहीं कि सामने मकान बना सकें और हमारी माता जी ज़मीन को बेचना नहीं चाहतीं।’
भोगीलाल जी कुछ आहत स्वर में बोले, ‘क्यों नहीं बेचना चाहतीं जी?’
मैंने कहा, ‘यों ही। बस इस ज़मीन से उनका जज़्बाती लगाव है। कहती हैं कि जब तक वे ज़िन्दा हैं, जमीन नहीं बिकना चाहिए।’
भोगीलाल जी मेरी बात सुनकर दुखी भाव से हाथ मलने लगे।बोले, ‘यह तो अंधेर है भाई साब। सोने के मोल वाली जमीन मिट्टी बनी पड़ी है और आप जज्बात की बात कर रहे हो। यह जज्बात क्या होता है साब? सुना तो कई बार है।’
मैंने कहा, ‘उसे आप नहीं समझेंगे। आप तो इतना ही समझिए कि हमें अभी यह ज़मीन नहीं बेचनी है।’
वे बड़े परेशान से चले गये।
दो तीन दिन बाद ही वे फिर आ धमके। मुझे घर से बाहर बुलाकर एक तरफ ले गये, फिर बोले, ‘तो क्या सोचा जी आपने?’
मैंने पूछा, ‘किस बारे में?’
वह आश्चर्य से बोले, ‘क्यों! वही जमीन के बारे में।’
मैंने कुछ झुँझलाकर कहा, ‘मैंने आपसे कहा था न कि माता जी अभी ज़मीन नहीं बेचना चाहतीं।’
सुनकर भोगीलाल जी ऐसे दुखी हुए कि मुझे उनकी हालत पर दया आ गयी। मेरा हाथ पकड़ कर बोले, ‘नादानी की बातें मत करो बाउजी। इतनी कीमती जमीन यों फालतू पड़ी देखकर मेरा तो दिल डूब डूब जाता है। आप अपनी माता जी को समझाओ न बाउजी। यह ‘प्राइम लैंड’ है, ‘प्राइम लैंड’।’
मैंने कहा, ‘मालूम है भोगीलाल जी, लेकिन मेरी माता जी इस बारे में कुछ नहीं सुनना चाहतीं और मैं उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता।’
भोगीलाल जी कुछ क्षण मातमी मुद्रा में शान्त खड़े रहे, फिर बोले, ‘देखो साब, मेरी बात का बुरा मत मानना। आप तो बालिग हैं, खुद फैसला कर सकते हैं। आज के जमाने में इस तरह सरवन कुमार बन जाना ठीक नहीं। माफ करना बाउजी, माता जी तो स्वर्गलोक चली जाएँगीं, जमीन यहीं रहेगी और आप यहीं रहोगे। जिनको चले जाना है उनकी बात का इतना ख्याल करना ठीक नहीं। थोड़ा प्रैक्टिकल बनो, बाउजी। मैं यहाँ फ्लैट बनवा दूँगा। एक दो फ्लैट आप ले लेना। मिनटों में लाखों के वारे न्यारे हो जाएँगे।’
मैंने चिढ़कर कहा, ‘मैंने कहा न, भोगीलाल जी, मुझे ज़मीन नहीं बेचना है। आप बार-बार इस बात को मत उठाइए।’
उन्होंने एक लम्बी आह भरकर धीरे से कहा, ‘जैसी आपकी मरजी।’ फिर उस खाली ज़मीन को ऐसी हसरत से देखा जैसे युद्ध में घायल कोई सैनिक अपने आखिरी क्षणों में अपनी बिछुड़ती हुई मातृभूमि को देखता है। इसके बाद वे भारी कदमों से विदा हुए।
इस मुलाकात के बाद मैंने कई बार उन्हें अपनी ज़मीन के सामने खड़े देखा। वे वहाँ खड़े खड़े ज़मीन के पूरे क्षेत्र की तरफ उँगली घुमाते रहते या उसकी लम्बाई और चौड़ाई की तरफ धीरे धीरे उँगली चलाकर फिर उँगलियों पर कुछ गुणा-भाग करने लगते। एक बार उन्हें कैलकुलेटर के बटन दबाकर उसमें झाँकते हुए भी देखा। लेकिन हर बार मुझे देखते ही वे स्कूटर स्टार्ट करके वहां से रवाना हो जाते।
एक दिन भोगीलाल जी की युवा कॉपी जैसा एक युवक मेरे घर आया। मुझसे पूछा, ‘जी,एम एल त्रिपाठी साहब यहीं रहते हैं?’
मैंने कहा, ‘जी, मेरा ही नाम एम एल त्रिपाठी है। कहिए।’
युवक बोला, ‘जी, मैं भोगीलाल जी का बेटा हूँ।उन्हें हार्ट अटैक आया है। अस्पताल में भर्ती हैं। आपको मिलने के लिए बुलाया है। कहा है कि तकलीफ करके थोड़ी देर के लिए जरूर मिल लें।’
मैंने अफसोस ज़ाहिर किया और मिलने का वादा किया, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि उन्होंने मुझे क्यों याद किया।अस्पताल पहुँचा तो वे बिस्तर पर लेटे हुए मिले। कमज़ोर और पीले दिख रहे थे। मैंने सहानुभूति जतायी।
वे धीमी आवाज में बोले, ‘दरअसल आप की जमीन ने मुझे मार डाला बाउजी। इसीलिए मैंने आपको तकलीफ दी। बात यह है कि मैंने बहुत दिनों से इतनी कीमती जमीन इतने दिन तक फालतू पड़ी हुई नहीं देखी। आपकी जमीन के पास से निकलते वक्त मेरा ब्लड- प्रेशर बढ़ जाता था। अकेले में बैठता था तो आप की जमीन मेरी खोपड़ी पर सवार हो जाती थी बाउजी। उस दिन आप की जमीन के बाजू से निकलते वक्त ही मुझे हार्ट की तकलीफ शुरू हुई।’
मैंने अपराधी भाव से कहा, ‘मुझे बहुत अफसोस है भोगीलाल जी। मैं क्या करूँ? मैं खुद मजबूर हूं, नहीं तो आपकी सेहत की खातिर ज़रूर उस ज़मीन का फैसला कर देता।’ भोगीलाल जी बोले, ‘हां जी, आपका भी क्या कसूर। फिर भी कोशिश करो जी। मुझे क्या लेना देना है, फायदा तो आपको ही होना है। मुझे तो बीच में दो चार पैसे मिल जाएँगे।’
मैंने उन्हें शान्त करने के लिए कहा, ‘मैं फिर कोशिश करूंगा, भोगीलाल जी। आप इत्मीनान से स्वास्थ्य लाभ कीजिए।’
वे कुछ संतोष के भाव से बोले, ‘बहुत शुक्रिया जी! आपने बहुत समझदारी की बात की। माता जी से बात करो बाउजी, नहीं तो मुझे आपकी सड़क से निकलना बन्द करना पड़ेगा। आप की जमीन को देखकर मेरे दिल को धक्का लगता है साब।’
मैं उन्हें आश्वस्त कर के चला आया। दुर्भाग्य से माता जी का फैसला नहीं बदला और भोगीलाल जी फिर मेरी सड़क से नहीं गुज़रे। एक बार मैंने उन्हें अपने मकान से कुछ दूर एक आदमी से बातें करते देखा, लेकिन वे मेरे मकान की तरफ पीठ करके खड़े थे। जल्दी ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चलते बने, लेकिन उन्होंने मेरे मकान की तरफ नज़र नहीं डाली।
साल भर बाद ही मैंने सुना कि भोगीलाल जी को दूसरा अटैक हुआ और वे अपने लिए पहले से रिज़र्व ऊपर के फ्लैट में रहने के लिए इस दुनिया के ज़मीन-मकान छोड़कर चले गए। लगता है मेरे जैसे किसी दूसरे नासमझ की खाली ज़मीन उनके लिए जानलेवा साबित हुई।
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 78 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 78) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 6
उत्सवधर्मी समाज :
जितने उत्सव भारतीय समाज में है उतने विश्व के दूसरे किसी भी समुदाय में नहीं है। इस दर्शन में जीवन प्रतिपल एक उत्सव है। विश्व के अनेक छोटे-बड़े धार्मिक समुदाय अन्यान्य कारणों से भारत में आए। इनमें शरण लेने से लेकर धर्म प्रचार और आक्रमणकारी सभी सम्मिलित हैं। कालांतर में इनमें से अधिकांश भारत में बस गए। गोस्वामी जी ने बालकांड में भरत के नामकरण के प्रसंग में लिखा है,
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उदारमना भारतीय संस्कृति ने घुसपैठियों और आक्रमणकारियों को अपनी ममता की उष्मा उसी प्रकार दी जैसे मादा कौवा अपने अंडों के साथ कोयल के अंडे भी सेती है। पोषण रस से होता है। जैसे माता पयपान कराती है एवं शिशु पुष्ट होता है। माता और संतान एकात्म होते हैं। पयपान करता शिशु अनेक बार माता को काट लेता है, तब भी माता उसे हटाती नहीं। भारतभूमि व यहाँ आये आक्रमणकारियों के बीच भी यही सम्बंध रहा। समय साक्षी है कि भारत माँ को वासना और लूट-खसोट की दृष्टि से देखनेवालों को भी इस धरती ने पयपान ही कराया।
शत्रु को भी अपनी संतान की तरह देखनेवाली इस धरती पर मनुष्य जन्म पाना तो अहोभाग्य ही है।
दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।
अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है। अनेक बार भारतीय संस्कृति की सामासिकता के लिए ‘गंगा -जमुनी तहज़ीब’ शब्द का प्रयोग होता है। इन पंक्तियों के लेखक की इससे मतभिन्नता है। गंगा भी भारत की है यमुना भी भारत की है। ऐसे में गंगा-जमुना में भेद कैसे हुआ? यह संस्कृति संगम की है जो अपने साथ अंतर्सलिला सरस्वती को भी समाहित करती है। यूँ भी सरस्वती का अभाव ही सारे छद्मवाद की जड़ होता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘सॉनेट – शीत’।)
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। आप सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत थे साथ ही आप विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में भी शामिल थे।)
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने ‘प्रवीन ‘आफ़ताब’’ उपनाम से अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना “बसंत पंचमी: आया पर्व ऋतुराज बसंत का…”।
जन्म, जीवन और मृत्यु,श्रीमदभगवद्गगीता के भाष्य के अनुसार आत्मा अजर-अमर है।
तथा श्री रामचरितमानस के अनुसार
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुख राशि ।।
अर्थात्
आत्मा का स्वरूप ईश्वरीय अंश से निर्मित चेतना युक्त मल रहित सहज सुख राशि है। यह जन्म के पहले भी अस्तित्व में थी और मृत्यु के पश्चात भी रहेगी, इसका अस्तित्व कभी विलीन नहीं होता। जन्म और मृत्यु की दुखद परिस्थितियों से गुजरने के बाद इस योनि गत शरीर का ही प्रकटीकरण और विनाश होता है । जन्म और मृत्यु के बीच का बिताया गया समय ही जीवन कहा जाता है। हमारे हिन्दू धर्मदर्शन के संस्कारों के अनुसार जन्म से पहले गर्भाधान संस्कार से जीव की उत्पत्ति प्रक्रिया आरंभ होती है। पंच तत्व के मिलने पर मां के गर्भ में पिंड बनता है और उस पिंड में ईश्वर अंश आत्मा के संयोग से जीव स्थूल रूप में प्रकट होता है तथा वह गर्भाधान संस्कार से अनभिज्ञ होता है। स्थूल शरीर से आत्मा का बिछोह, प्राण चेतना का समापन ही मृत्यु है।
मृत्यु के पश्चात अंत्येष्टि संस्कार पर सोडष संस्कारों का अंत होता है। समापन होता है जन्म लेने की क्रिया के पूर्ण होने में नौ माह से अधिक समय लगता है इस समय मां के पेट में जीव की सुरक्षा का दायित्व ईश्वर निभाता है
प्राकृतिक रूप से पालन पोषण करता है जब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है तब यह जीव स्थूल स्वरूप धारण कर सशरीर जन्म लेता है इस क्रिया को जन्म लेना कहते हैं ।
जन्मना जायते शूद्र:
इस परिभाषा के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं लेकिन समाज के विकसित होने पर जो प्रक्रिया समाज को सुव्यवस्थित ढंग चलाने के लिए अपनाई गई उसे ही वर्ण व्यवस्था का नाम दिया जिसकी परिकल्पना हमारे मनीषियों ने सृष्टि कर्ता ब्रह्मा के शरीर से माना है, जिसके चार वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। किन्तु, वर्ण क्रम के प्रतिनिधित्व के लिए गुण और कर्म के सिद्धान्त को अपनाया गया। मानव योनि में जन्म लेने वाले मनुष्य ने जैसा कर्म किया वैसे ही क्रम के अनुसार जीवन शैली अपनाकर कर उसी वर्ण का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन बदलते समय के अनुसार यही व्यस्था कालांतर में जातिवाद में परिवर्तित हो गई। जिसके चलते ऊंच, नीच, छोटा-बड़ा, छुआ छूत की खाई पैदा हुई जिसने हिंदू धर्म को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया और सामाजिक समरसता में बाधक बनी, जब कि वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में कर्म के अनुसार सदस्यता ग्रहण करने की इजाजत थी ।
जीवन – जन्म और मृत्यु के बीच के बिताए गये पलों (समय) को जीवन चक्र कहा जाता है। जीवन काल में इस स्थूल शरीर की संरचना उम्र के अनुसार, बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था तथा बुढ़ापे में बदलती रहती है जब कि शरीर में व्याप्त आत्मा का स्वरूप सदैव एक सा रहता है। गर्भाधान संस्कार से अंतेष्टि संस्कारों के बीच सोडष संस्कार सामाजिक जीवन के आदर्श आचार संहिता के अनुसार कर्मकांड आधारित है, जिन्हें मानव अपने आचरण में धारण कर जीवन जीता है।
संस्कारों से ओत-प्रोत जीवन शैली मानव समाज को गरिमा प्रदान करती है संस्कारविहीन समाज का विकास नहीं होता तथा तमाम विद्रूपता दिखाई देती है, तथा मानव जीवन त्रासद हो जाता है।
व्यक्ति सोडष संस्कारों को जीवन में आत्मसात कर के ही आदर्श समाज की संरचना करता है, संस्कार विहीन समाज पथभ्रष्ट होकर छिन्न भिन्न हो जाता है।