(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ लघुकथा ☆ ~ भोर का तारा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
भोर का तारा अब भी एकटक निहार रहा था। नन्हा गोलू चुप होने का नाम नही ले रहा था। मानों वह चीख चीखकर कह रहा था कि क्या मौसी! तुम भी मुझको छोड़कर चली जाओगी।
कुछ ही महीनों पहले की बात थी, सब कुछ ठीक ठाक था। घर में दुबारा मंगल बधाई बजने को थी, लेकिन उपर वाले को न जाने क्या मंजूर था कि सुमन की खुशियाँ धरी की धरी रह गयी। नन्हें आगन्तुक के आने से पहले ही वह चल बसी। गोलू अब इस दुनियां में बिना माँ के होकर रह गया था। ईश्वर को गोलू पर थोड़ी दया आयी तो उसे मौसी की गोद मिली तो उसको थोड़ी राहत मिली।
लेकिन आज एक बार फिर तेज- तेज बज रहे बैंड बाजों की आवाज ने गोलू को डरा दिया। गोलू आज बिल्कुल ही नही सोया। बार बार चिल्ला देता। बड़ी मुश्किल से उसकी कोई दूसरी चचेरी मौसी ने उसे पकड़ी तो जाकर, कहीं शादी की रस्म पूरी करने के लिये बिंदु मंडप में बैठ पायी। सिंदूरदान होने के बाद जब वह वापस कुछ रस्म अदाएगी के लिये कमरे में आयी तो गोलू उसे देखकर चिल्ला पड़ा, और इसबार उसकी गोद में पहुँच कर ही चुप हुआ। उसे आज नींद नही आयी। पूरी रात जगा ही रहा। शायद उसे इस बात का आभास हो चुका था कि उसकी मौसी भी उसे छोड़कर जाने वाली है।
बिंदु ने भी दौड़ कर उसे गले लगा लिया। सूरज निकलने से पहले ही बिदाई का मुहूर्त था। भोर का तारा अभी भी अकेले एक टक सब कुछ देख रहा था। बिंदु की विदाई की रस्म शुरू हो गयी थी। सभी रो रहे थे और गले लगकर बिंदु से मिल रहे थे। कार दरवाजे पर खड़ी हो गयी थी। अब विन्दु को इसी कार में बैठना था। किसी अंजान गोद में फंसा, गोलू एकदम से चिल्ला उठा, मानों वह कह रहा हो, मौसी.. क्या तुम भी मुझे छोड़कर चली जाओगी। बिंदु अपना बड़ा घुंघट हटाते हुए, पीछे मुड़ी तो गोलू, विवेक के गोद में था।
गोलू को गोद में लिये हुए विवेक यह कहते हुए कार में बैठा कि विन्दु तुम परेशान मत होओ, मत रोओ। गोलू भी हमारे साथ ही चलेगा। अब गोलू चुप हो गया था। फूलों से सजी कार आगे की ओर बढ़ गयी और धीरे -धीरे आँखों से ओझल हो गयी। आसमान में लालिमा छाने लगी थी। भोर का तारा भी हँसता हुआ वापस नीलगगन में समाते हुए आँखों से ओझल हो गया।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२३ – हनुमान जन्म स्थली की पवित्र यात्रा ☆ श्री सुरेश पटवा
पर्वत की चढ़ाई करते समय सूर्य हमारे पीछे चलते आ रहे थे। हम पूर्व से पश्चिम दिशा में बढ़ रहे थे। जब ऊपर पहुंचे तो दिनमान पूरी तेजी से सिर पर चमक रहे थे, लेकिन चढ़ते समय पसीने से नहाए हुए थे, ऊपर हवा ठंडी चल रही थी। शरीर का तापमान भी सामान्य हो गया। आसमान में एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था। फोटोग्राफी के लिए बहुत उम्दा चित्रमयी झांकियां चारों दिशाओं में दिख रही थीं। सम्पूर्ण भारत में सितंबर का महीना बड़ा सुहावना होता है। आंजनेय पर्वत पर से चारों दिशाओं में घूमकर देखा।
हमारी बस जिस रास्ते से आई थी। साथ में दाहिनी तरफ़ तुंगभद्रा नदी बहती दिखती रही थी। तुंगभद्रा नदी आंजनेय पर्वत को उत्तर से घूमकर पश्चिम की तरफ़ मुड़ती है। नदी भरी है, पानी पर सूर्य की किरणों की चमक तेज है। भारी गोल पत्थरों के किनारों से पेड़ों की घनी हरियाली दिख रही है। नदी और पहाड़ी के किनारे तक खेतों में हरियाली नज़र आ रही है। जी भरकर वीडियो बनाए और कई फोटो खींचे।
जिस रास्ते से चढ़े थे, उससे वापस उतरने के बजाय हमने दक्षिण दिशा का तीखी उतार का रास्ता चुना। सीधी सीढ़ियों से उतरने पर घुटनों में हल्का दर्द होने लगा। इसलिए रुक-रुक कर उतरते रहे। हमारे साथ घनश्याम मैथिल और रूपाली सक्सेना भी नीचे उतरे। नीचे उतर कर सबसे पहले नींबू-गन्ना रस पिया। बस की तरफ़ पैदल चलने लगे। तभी एक ऑटो ने दस-दस रुपयों में बस के नज़दीक छोड़ दिया। इस प्रकार हमारी हनुमान जन्म स्थली की पवित्र यात्रा पूरी हुई।
सभी साथियों के नीचे उतरने पर बस में सवार हो होटल की तरफ़ चले। सभी बुरी तरह थके निढाल दिख रहे थे। राजेश जी ने साथियों को विकल्प दिया कि होटल पहुँचकर आधा घंटा आराम करके एक और आश्रम चलना है या आराम करना है। हमने थोड़ा अधिक आराम करके हम्पी नगर का एक चक्कर लगाने का निर्णय किया। होटल पहुँच कुनकुने पानी से नहाकर थकान उतारी। थके-हारे पैरों की मालिश करके आधा घंटा ध्यान से मानसिक चंगा होकर घनश्याम जी के साथ पैदल घूमने निकले। दोहरी सड़क लंबी जाती दिख रही थी। उसी ओर बतियाते हुए चलने लगे। थोड़ा आगे चक्कर एक चौड़ी नहर के ऊपर से गुज़रकर क़रीब दो किलोमीटर चले। दोनों तरफ़ दुकानों की क़तारें थीं। एक बड़ा चौराहा पार करके उसके बाद के चौराहे से वापिसी यात्रा शुरू कर दी। फिर वही नहर मिली। चौड़ी और गहरी नगर तुंगभद्रा नदी पर बने बांध से प्रवाहित हो रही थी।
होसपेटे-कोप्पल जिलों की सीमा पर प्रवाहित तुंगभद्रा नदी पर एक जलाशय बना है। यह एक बहुउद्देशीय बांध है जो सिंचाई, बिजली उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण आदि के काम आता है। यह भारत का सबसे बड़ा पत्थर की चिनाई वाला बांध है और देश के केवल दो गैर-सीमेंट बांधों में से एक है।
इस बाँध के बनने का भी एक इतिहास रहा है। रायलसीमा के अकालग्रस्त क्षेत्र में उस समय बेल्लारी, अनंतपुर, कुरनूल और कुडप्पा जिले शामिल थे। अकाल के निदान हेतु 1860 में ब्रिटिश इंजीनियरों का ध्यान तुंगभद्रा ने आकर्षित किया। इन जिलों में अकाल की तीव्रता को कम करने के लिए तुंगभद्रा के पानी का उपयोग एक जलाशय और नहरों की एक प्रणाली के माध्यम से भूमि की सिंचाई के लिए करने का प्रस्ताव रखा गया। तुंगभद्रा के पानी की कटाई और उपयोग के लिए कई समझौते किए गए। ब्रिटिश भारत की मद्रास प्रेसीडेंसी और हैदराबाद निज़ाम रियासत के बीच वार्ता के कई दौर चले, पर कोई बात नहीं बनी। आज़ादी के बाद हैदराबाद निज़ाम रियासत के भारत में विलय, लेकिन भारतीय गणतंत्र बनने के पहले ही 1949 में इसका निर्माण शुरू हुआ। यह हैदराबाद और मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन प्रशासन की संयुक्त परियोजना थी। 1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद यह मद्रास और हैदराबाद राज्यों की सरकारों के बीच एक संयुक्त परियोजना बन गई। इसका निर्माण 1953 में पूरा हुआ। तुंगभद्रा बांध 70 से अधिक वर्षों से समय की कसौटी पर खरा उतरा है और उम्मीद है कि यह कई और दशकों तक टिकेगा।
नहर के ऊपर खड़े होकर कुछ देर नज़ारे देखते रहे। चाट-चटोरों और आइसक्रीम ठेलों पर बुर्काबंद महिलाएं बुर्का उठा कर सी-सी के तीखे स्वर के साथ पानीपूरी का मजा ले रही थीं। उनके बच्चे उन्हें आइसक्रीम ठेले की तरफ़ खींच रहे थे। हमने थोड़ी देर नज़ारे का आनंद लिया, फिर बाज़ार की गलियों में उतर गए। दुकानों पर हाथ से बनाई गई वस्तुएं जैसे मोती, पेंडेंट, स्क्रीन, नक्काशीदार टेबल और ताबूत के साथ सुगंधित वस्तुएं जैसे चंदन की मूर्तियां, चंदन की लकड़ी के पैनल, इत्र और अगरबत्ती जैसी वस्तुओं की भरमार थी।
थोड़ी ही दूर पर ठेलों पर स्थानीय व्यंजन बिक रहे थे। दुकानदार ने बताया यह चित्रन्ना है। चावल को नीबू के रस के साथ उपयोग करके इसे तैयार किया जाता है। आमतौर पर, चावल को गोज्जू नामक सब्जी मिश्रण में मिलाया जाता है। यह गोज्जू सामान्य रूप से सरसों के बीज, लहसुन, हल्दी पाउडर और मिर्च के साथ तैयार किया जाता है। मसाले में नींबू या मुलायम आम के टुकड़े मिलाये जाते हैं। पकवान को मसालेदार स्वाद बढ़ाने के लिए तली हुई मूंगफली और धनिये की पत्तियों से सजाया जाता है। सामग्री के आधार पर चित्रन्ना कई प्रकार के होते हैं।
दुकानदार ने दूसरा व्यंजन वंगीबाथ बताया। वंगीबाथ होसपेट का एक बहुत ही पसंदीदा व्यंजन है। इसे चावल और मिले-जुले मसालों से तैयार किया जाता है। इसे तैयार करने में अंडे की जर्दी का इस्तेमाल किया जाता है। यह व्यंजन आमतौर पर नाश्ते के लिए बनाया जाता है। मुख्य रूप से, लंबे हरे बैंगन और वंगीबथ पाउडर इसकी मुख्य सामग्रियां हैं, वे इसे एक अनोखा स्वाद देते हैं। वंगीबाथ को मेथी की पत्तियों का उपयोग करके भी तैयार किया जा सकता है। रेसिपी में कई मसाले भी शामिल दिख रहे थे, जो इसके मसालेदार और स्वादिष्ट स्वाद को अनोखा बनाते हैं।
एक और व्यंजन पुलिओइग्रे बताया। पुलिओइग्रे अपने खट्टे और मसालेदार स्वाद के लिए जाना जाता है। इसे इमली के रस के साथ चावल से तैयार किया जाता है। इसकी सजावट मूंगफली से की जाती है जो इसे और भी स्वादिष्ट बनाती है।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – बलिदानी वीरों की याद…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 222 ☆
☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – बलिदानी वीरों की याद… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पौ फटना…“।)
अभी अभी # 666 ⇒ पौ फटना श्री प्रदीप शर्मा
DAWN BURST
रात्रि विश्राम के लिए बनी है, दिन भर का थका मांदा इंसान, निद्रा देवी की गोद में अपनी थकान मिटाता है, प्रकृति भी रात्रि काल में सोई सोई सी प्रतीत होती है, क्योंकि अधिकांश पशु पक्षी भी इस काल में अपनी दैनिक गतिविधियों को विराम दे देते हैं।
प्रकृति में जीव भी हैं और वनस्पति भी ! जीव भले ही रात्रि में विश्राम करे, उसका दिल धड़कता रहता है, सांस चलती रहती है।
एक नई सुबह के साथ कैलेंडर ही नहीं बदलता, हमारी उम्र भी एक दिन घट/बढ़ जाती है। हमें पता ही नहीं चलता, हमारे नाखून बढ़ जाते हैं, सुबह फिर शेव करनी पड़ती है।
उधर भले ही पेड़ पौधे भी हमें रात्रि विश्राम करते प्रतीत होते हैं, हवा मंद गति से चलती रहती है, सुबह के स्वागत में कहीं कोई कली चटकती है तो कहीं कोई फूल खिलता है। पक्षियों का चहचहाना शुरू हो जाता है, पेड़ पौधों में नई कोपलें दृष्टिगोचर होने लगती है।।
अचानक बहुत कुछ घटने लगता है। लगता है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है। आसमान शनै: शनै: साफ होने लगता है। पौ फटने लगती है। पौ जब फटती है, तब सूर्योदय होता है अथवा जब सूर्योदय होता है, तब पौ फटती है। दिल टूटने की आवाज़ कुछ दीवाने भले ही सुन लें, पौ फटने की आवाज़ अभी तक तो विज्ञान ने भी नहीं सुनी।
अगर पौ नहीं फटेगी तो क्या सुबह नहीं होगी, सूरज नहीं निकलेगा। पंचांग में रोज सूर्योदय और सूर्यास्त का समय दिया रहता है, पौ फटने न फटने से पंचांग को क्या लेना देना। भले ही आसमान में किसी दिन बादलों के कारण सूर्य नारायण देरी से प्रकट हों, पौ तो वक्त पर फट ही चुकी होती है।।
हमने आसमान में बादलों को फटते देखा है, तीन चौथाई जल के होते हुए भी यहां कभी ज्वालामुखी फटते हैं तो कभी इस धरती के कलेजे को भी फटते देखा है। इंसान के भी अपने दुख दर्द हैं। कहीं कुछ फटा है तो कहीं कुछ टूटा फूटा है। एक बाल मन तो फकत एक गुब्बारे के फूटने से ही उदास हो जाता है। पेट्रोल के भाव सुनकर तो फटफटी की आंखें भी फटी की फटी रह गई हैं आजकल।
क्या पौ रात भर से भरी बैठी रहती है, जो सुबह होते ही फट जाती है, पौ का शाम से कुछ लेना देना नहीं, यह सिर्फ सुबह का नज़ारा है। जो सुबह ही फट गई, फिर उसके शाम को पौ बारह होने की संभावना वैसे भी खत्म ही हो जाती है। खेद है, प्रकृति प्रेमी और पर्यावरण प्रेमी भी पौ फटने की घटना को गंभीरता से नहीं लेते।
कवि और कविता की कल्पना की उड़ान चारु चन्द्र की चंचल किरणों से भले ही खेल ले, उसे सूरज का सातवां घोड़ा तक नजर आ जाए, मंद मंद हवा का शोर और कल कल करते बहते झरने की आवाज उसे सुनाई दे जाए, लेकिन पौ फटने का स्वर वह नहीं पकड़ पाया। फिर भी मेरी हिम्मत नहीं कि इस सनातन सत्य को मैं झुठला सकूं कि पौ नहीं फटती। जंगल में मोर नाचा, सबने देखा। आज ही सुबह सुबह, खुले आसमान में पौ फटी, कोई शक ? पौ फटना शुभ है। एक शुभ दिन की शुरुआत होती है पौ फटने से। आपका आज का दिन शुभ हो।।
☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ६ – संत बहिणाबाई… ☆ सौ शालिनी जोशी ☆
संत बहिणाबाईंचा जन्म वेरूळ जवळील देवगाव येथे. आई-वडील, जानकी व आवजी कुलकर्णी यांनी वयाच्या केवळ पाचव्या वर्षी पाठक आडनावाच्या एका तीस वर्षाच्या बिजवराशी बहिणाबाईंचा विवाह करून दिला. पण मुलीच्या लग्नासाठी काढलेले कर्ज आई-वडिलांना फेडणे शक्य झाले नाही. म्हणून जावयासह सारे कुटुंब घर सोडून प्रवासाला बाहेर पडले. पंढरपूर, शिंगणापूर करत कोल्हापूरला आले. एका ब्राह्मणांने त्यांना आश्रय दिला. बहिणाबाईंचे वय केवळ आठ वर्षाचे होते. पण त्यांना ईश्वराची अनावर ओढ होती. येथे जयरामस्वामी वडगावकरांची कीर्तने त्यांनी ऐकली. त्यातील तुकारामांच्या अभंगांनी त्या भारावल्या. सतत मुखात अभंग आणि तुकारामांचे ध्यान. ‘पती हाच परमेश्वर’ मानण्याचा तो काळ होता. बहिणाबाईच्या कर्मठ पतीला ते मानवले नाही. हात, पाय बांधून गोठ्यात टाकण्यापर्यंतच्या छळाला सामोरे जावे लागले. पण संसाराकडे तटस्थ भावनेने बघण्याचे सूत्र त्यांनी अवलंबले. करावं वाटतं ते करता येत नव्हतं. जे करावे लागत होतं ते आवडत नव्हतं. अशा कोंडीत त्या सापडल्या. तरीही प्रपंच आणि परमार्थ यांची सांगड त्यांनी घातली. परमार्थाचा आनंद घेतला.
स्त्रियेचे शरीर पराधीन देह l न चाले उपाय विरक्तीचा l
शरीराचे भोग वाटतात वैरी l माझी कोण करी चिंता आता ll
अशी व्यथा त्या अभंगातून व्यक्त करतात.
बहिणाबाईंची निष्ठा पाहुनी संत तुकारामानी त्याना स्वप्नात दृष्टांत दिला. त्यावेळी त्या अठरा वर्षांच्या होत्या. त्यांचे जीवन बदलून गेले. ‘प्रपंच परमार्थ चालवि समान l तिनेच गगन झेलियेले l’ असे आपले जीवन त्यांनी आपण अभंगातून उलगडले. हळूहळू बहिणाबाईंचा लौकिक पसरू लागला. लोक त्यांच्या दर्शनाला येऊ लागले. पण एका ब्राह्मण स्त्रीने शूद्र जातीच्या तुकारामाचे शिष्य व्हावे ही गोष्ट सनातन्यांना पटणारी नव्हती. नवराही संतापला. पण बहिणाबाई तुकारामांच्या अधिकार संपन्न शिष्या झाल्या. ‘मत्स जसा जळावाचूनि चडफडी lतैसी आवडली तुकोबाची l’अशा प्रकारची तगमग त्यांची तुकोबांविषयी असे. ‘स्वप्नामाजी कृपा केली पूर्ण’ अशी बहिणाबाईंची साक्ष आहे.
ब्रह्मज्ञांनी, भक्तीभाव व वैराग्याने त्या युक्त होत्या. नवऱ्याच्या संतापाला त्यांनी प्रतिक्रिया दिली.
‘भ्रताराची सेवा तोचि आता देव l भ्रतार स्वयमेव परब्रह्म ll
भ्रतार तो रवि मी प्रभा तयाची l वियोग त्याची केवी घडे ll
भ्रतारदर्शनाविण जाय दिस l तरी तेची राशी पातकांच्या ll
पुढे हळूहळू पतीचा स्वभाव बदलला.
काही दिवस त्या देहूला राहिल्या होत्या. तुकारामांची त्यांची प्रत्यक्ष भेट झाली. तेथे असताना त्यांना दोन मुले झाली एक मुलगा व एक मुलगी. स्वतः ब्राह्मण असूनही ब्राह्मण कोण या विषयावर त्यांनी आपले सडेतोड विचार तत्कालीन सनातनी ब्राह्मणांना सांगितले. ‘ब्रह्म जाणणारा तो ब्राह्मण’ असे ठामपणे सांगितले. त्यांनी साधारण ७३२ अभंग लिहिले.
वारकरी संप्रदायाच्या इमारत उभारणीतील संतांच्या कार्याचे रूपकात्मक वर्णन करून संतांची माहिती लोकांवर बिंबवली. ती प्रसिद्ध रचना,
संत कृपा झाली इमारत फळा आली l
ज्ञानदेवे रचीला पाया उभारिले देवालया l
नामा तयाचा किंकर तेणे विस्तारले आवार l
जनी जनार्दन एकनाथ स्तंभ दिला भागवत l
तुका झालासे कळस भजन करा सावकाश l
बहिणी फडकती ध्वजा तेणे रूप केले ओजा l
त्यांचे अभंग अलंकारिक, रसपूर्ण, शांतरसाचे अधिक्य असलेले असे आहेत.
असे सांगतात की त्यांना आपल्या पूर्वीच्या १२ जन्मांचे स्मरण होते. चालू जन्म हा तेरावा होता. हे जन्म मरण्यापूर्वी त्यांनी अभंगातून आपल्या मुलाला सांगितले. ‘घट फुटल्यावरी l नभ नभाचे अंतरी l’ हा शेवटचा अभंग सांगितल्यावर त्या समाधीस्थ झाल्या. (१७००साली) शिरूर येथे त्यांचे समाधी आहे.
अशा या बहिणाबाई स्त्रियांना सुधारण्याचा मार्ग दाखवणाऱ्या क्रांतीज्योत !