हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # मारिशस से ~ संस्मरण – भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी- ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी”।) 

☆ दस्तावेज़ # 19 – मारिशस से ~ संस्मरण – भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी- ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

संदर्भ : भारतीय समाज, शिक्षा और साहित्य में गांधी

संगोष्ठी : 20 — 22 फरवरी 2019

स्थल : गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय, गांधी नगर

महात्मा गांधी का जन्म स्थल गुजरात था और यहीं उक्त विषय पर त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी रखा जाना इस बात का प्रमाण है कि उनके जीवन काल और उनके कार्य कलाप पर चिंतन मनन करना उनके प्रति एक समर्पित श्रद्धा का परिचायक था। निश्चित ही इस संगोष्ठी की तैयारी भव्य थी।

पटना लिटरेचर फेस्टिवल में भाग लेने के लिए मैं आमंत्रित था और मेरा सौभाग्य रहा कि गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय के प्रो. संजीव कुमार दुबे जी ने हवाई टिकट दे कर इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए मुझे आमंत्रित किया। उक्त विषय यदि मेरी समझ से बाहर होता तो जाने का मेरा मन न बन पाता। यह मेरी अंतरात्मा को स्वीकार न होता कि जो मेरे वश में न हो और बस उपस्थिति दर्ज करने के लिए स्वीकृति का श्रेय अर्जित कर लेता। बल्कि गांधी जी तो मेरी मातृभूमि मॉरीशस के लिए सदा सर्वदा याद रखे जाने वाले एक पूज्य महा मानव हैं।

उनके प्रति भारत अपनी व्याख्या रखता है और ऐसा भी है कि उनके सिद्धांतों को आज एक अलग ही कसौटी पर कसा जा रहा है। यह गलत है भी नहीं, क्योंकि जो प्राणी स्वयं में एक शिखर होता है उसका मूल्यांकन इसलिए किया जाता है क्योंकि एक तो उसने अपने युग में अपने कर्मों की छाप छोड़ी हो और दूसरा यह कि भविष्य के लिए उसका प्रतिदान किसी न किसी रूप में सफर जारी रख रहा हो। इस परिभाषा से भावी मूल्यांकन कभी पुराना नहीं पड़ता। बल्कि नित मूल्यांकन उस में कुछ न कुछ जोड़ता जाता है। रही मेरी बात, जैसा कि मैंने ऊपर में दर्ज किया गांधी जी मेरे ‘देश’ के लिए एक अनभूले महा मानव हैं जिनका प्रशस्ति गान ही मेरा अंतिम लक्ष्य हो सकता है। ‘देश’ कहने के साथ मैं अपने अस्तित्व में गांधी जी को विलय अनुभव करना भी अपने लिए अहम मानता हूँ। मैंने गांधी जी को अपने लेखन में उकेरा है तो इसलिए कि मॉरीशस पर उनकी प्रबल छाप है। मॉरिशस एक वीरान देश था जो भारतीय मजदूरों के हाथों की मेहनत से हरियाली के सिंगार में सजता गया है। इसी बिंदु पर गांधी के नाम को हम अपने देश में गुंफित मानते हैं क्योंकि उनके एक विशेष कथन का चमत्कार था जो मॉरिशस के लिए गुरु मंत्र बन गया था।

1901 में उनके पाँव मॉरिशस की धरती पर पड़े थे और उन्होंने भारतीयों की दुर्दिनी देखने पर कहा था शिक्षा से अपने को संबल बनाओ। एकता से अपनी शक्ति का परिचय दो और भविष्य में राजनीति बलिष्ठ होती जाए तो उस में अपनी उपस्थिति दर्ज करो। मॉरीशस के भारतीय वंशजों ने ऐसा किया और कालांतर में स्वतंत्रता का स्वर्णिम पक्ष मानो बोल कर हमारे पक्ष में अवतरित हुआ।

मैंने ‘गांधी नगर’ में यह भी कहा मेरे देश में दो सरकारें थीं। समुद्री सीमाओं पर अंग्रेज तैनात थे और खेतों में हमारे पूर्वजों का शोषण करने वाले फ्रांसीसी हुआ करते थे। दोनों से यहाँ लड़ा गया है और हम कुंदन बने अपने को फला फूला अनुभव करते हैं। यह तो मेरे अपने उद्गार हुए जो मैं कहीं भी कह लेता हूँ और लिखना पड़े तो लिख लेता हूँ।

गांधी नगर में जो संगोष्ठी आयोजित हुई थी वह वैचारिक संगोष्ठी थी। जाहिर है सब के विचार एक जैसे नहीं होते। गांधी जी के संदर्भ में यही परिलक्षित हुआ, लेकिन ऐसा कोई मातम न मचा जो रेखांकित करता कि आज के युग में गांधी जी अप्रासंगिक हो गये हों। गांधी जी की ग्राम विकास योजना, नारी चेतना, चरितोत्थान, सत्य संभाषण, आपसी प्रेम, मानवता, भविष्य के प्रति सचेतनता आदि को आज अनदेखा करने का ही परिणाम है कि विद्वेष का जलजला सब के साथ नाग की तरह लिपटा हुआ है। गांधी जी भारत की स्वतंत्रता के लिए सक्रिय होने से पहले बहुत विचार मंथन से गुजरे थे। वर्षों उन्होंने अपनी सोच का एक बिंब तराशा होगा जिस में अहिंसा का स्थान प्रमुख रहा होगा। समय की कसौटी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने घोषणा की हो ‘अहिंसा’ हमारा लक्ष्य हो जो उनके युग का एक कारगर लक्ष्य ही था। यदि वे कह देते आजादी के लिए हाथ में पत्थर उठा लो तो लोग इस के दीवाने हो जाते। लोग पत्थर से जूझते और अंग्रेज गोली चलाते। प्राण जाए जैसी उमंग से लोग आजादी के करीब पहुँच जाते। अंग्रेज यथाशीघ्र आतंकित होते और भारत छोड़ कर चले जाते। पर तब भारत को गिनना भी पड़ता अपने लोगों की कितनी लाशें बिछीं। भारत में आजादी के दिनों ऐसे मनहूस हादसे बहुत मचे, लेकिन अंग्रेजों की अपेक्षा अपनों ही के बीच अधिकाधिक। एक भाई देश की सीमा के उस पार रह गया और एक भाई इधर से जोर लगाता रहा कि अपना भाई कभी मिल तो जाए। कोई भी इतिहास मानवता के उस हनन को सही शब्दों में व्याख्या नहीं दे सकता। बस शब्दों के अंबार बिछाये जा सकते हैं और सत्य का दर्द अनकहा रह जाए।

उक्त संगोष्ठी ‘वर्धा गांधी विश्व विद्यालय’ और ‘गांधी नगर के विश्व विद्यालय’ के द्वय आपसी सहयोग से आकार में आ सका था। इसकी रूप रेखा निश्चित करने वाले संजीव कुमार दुबे जी आद्यंत इस बात के लिए तत्पर रहे कि विषय का सही प्रतिपादन हो। निस्सन्देह वातावरण जिस तरह बन गया था गांधी जी के बारे में बात करने के लिए वक्ता उमंग और उत्साह से भरे पूरे थे। ऐसी बात नहीं कि गांधी की स्थापित परिभाषा को उसी रूप में गाया गया जिस रूप में हम अब तक उस परिभाषा को जानते हों। बल्कि प्रश्न भी उठे और संवाद में भिन्नता भी आयी। गांधी की बात करें और अपेक्षा में रहें आप से भाषा और ज्ञान में जो पीछे है एक वही गांधी को ढोए और आप हों कि अपने बेटे को अमरीकी नागरिक बनाने के सपने देखा करें। दिल्ली आप से चलती हो और गांधी उन से चले जो गाँवों के वाशिंदे होते हैं। गांधी के चरखे अभियान को वे ग्रामीण लोग भारतीय आत्मा के रूप में वरण करें और आप हों कि अपने तरीके से चरखे का धंधा चला कर करोंडों के मालिक बनें। मानवी स्वभाव में यह आता है भगवान को भी अपने लाभ के लिए भुना लें, गांधी तो फिर भी मनुष्य ही थे। आज के फरेब के बीच तराशना मुश्किल ही होगा भला करने वाला कौन है और हानि का विकृत मसीहा कहाँ बैठे ताक में है कि सब लूट ले जाये और किसी के लिए धेला भी न बचे। यह तथाकथित भाषणबाजी की चकाचौंध है कि देखो बोलने में मैं कितना अव्वल हूँ और तुम बोलना न जानने से कितने पीछे छूटे हुए हो। पर हमें यह बात भूलनी न चाहिए कि अनगढ़ और अनपढ़ की भी अपनी प्रज्ञा होती है। भाषण से उनके दिमाग में टाँकना सहज होता है कि तुम मेरे भाषण के मोहताज हो, लेकिन उनकी प्रज्ञा उनसे कह रही होती है ऐसे मीठे भाषण से तुम्हारा जीवन दुरुह होने का खतरा हो तो काट निकलो ऐसे बंधन को। यह कहा न जाए तो भी कहा सा हो कर हवा में गूँजा करता है शोषित भी अपने हक की परिभाषा जानता है। तब तो उसकी आह से न खेलो। वह जागे तो प्रचंड ज्वाला निश्चित ही दहकेगी।

गांधी नगर की उस संगोष्ठी की सारी बातें वहीं पलट रही थीं गांधी जी ने मात्र देश की आजादी के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया नहीं था। आजादी तो बाद के लिए हो पहले भारत की आत्मा से तादात्म्य तो स्थापित कर लें। गांधी जी ने गरीबों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का सपना देखा। इस के लिए उन्होंने प्रयास तो बहुत किया। उन्होंने मंदिर का द्वार सब के लिए खोलने की बात कही और इसके लिए अपना जीवन नित तपाते रहे। गांधी जी के जीवन के हर बिंदु को शब्दातीत किया गया है, लेकिन फिर भी लगता है अभी उन पर और लिखा जाना शेष है। उन्हें पढ़ने के लिए और स्कूल निर्मित हों और उन पर चिंतन मनन के गवाक्ष खुलते जाएँ।

‘गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय गांधी नगर’ में गांधी जी के तपी जीवन का यही मूल्यांकन हुआ और निष्कर्ष यह निकला कि जो सतत प्रवाहमान है उस में हम भी अपना अर्घ्य समर्पित कर लें। मैं विशेष कर प्रो. संजीव कुमार दुबे जी को इस बात के लिए साधुवाद देना अपना धर्म समझ रहा हूँ उन्होंने समय सापेक्ष एक अभियान चलाया जिस में शरीक होना मेरे लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं था। मैं पहली बार गुजरात गया। वहाँ का अक्षर धाम, सुन्दर फिसलती सी सड़कें और जन जीवन का प्रभाव मेरे मन में अक्षुण्ण बना रहेगा।

भारत से अपने आवास मॉरिशस लौटने पर

***
© श्री रामदेव धुरंधर

दिनांक 2 / 03 / 19

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth # 40 – The Accidental Death of Honesty, Hope, and Hunger☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his satire- The Accidental Death of Honesty, Hope, and Hunger 

☆ Witful Warmth# 40 ☆

☆ Satire ☆ The Accidental Death of Honesty, Hope, and Hunger… ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

It was an ordinary day in the Republic of Promises, where potholes were deeper than policies, and citizens were mere statistics waiting to be updated. At a deserted bus stop in a remote village—where election banners arrived more frequently than electricity—three coffins lay silently. Inside them rested an old farmer, a young graduate, and an honest officer. Their deaths were accidents, of course. The farmer accidentally mistook a rope for a government loan, the graduate mistakenly believed in merit, and the officer, well, he simply forgot that honesty was an outdated currency.

The villagers watched with silent reverence, for these three had achieved something extraordinary—they had managed to make the system notice them, albeit as corpses.

Ramprasad, the farmer, had a legacy of debt that grew faster than his crops. Every election season, a man in a white kurta would arrive, promising “Farmer Welfare” with one hand while holding a bank foreclosure notice in the other. One day, exhausted from running in circles between government offices, he decided to apply for a farming assistance scheme. The clerk smiled, took a bribe, and rejected his application in the same breath. That evening, Ramprasad found an easier government scheme—hanging from a tree. His suicide note was the only paper the authorities ever approved. It read: “I have cleared my debt. Will you?”

The next morning, politicians arrived for a quick photo session. They announced an investigation, formed a committee, and drove off in their air-conditioned cars. The village remained unchanged—thirsty, bankrupt, and ready to produce another Ramprasad for the next election cycle.

A few miles away, Abhishek, a young man with more degrees than his father’s entire generation, had spent years chasing a government job that the minister’s nephew secured in a single afternoon. He had memorized every motivational quote about perseverance but found no chapter on how to survive without a salary. Every time a job vacancy was announced, a convenient court case postponed the recruitment indefinitely. His father, once proud of his son’s education, now suggested, “Son, why don’t you start a small shop?”

But Abhishek was stubborn. He had sworn to serve his country, unaware that in this country, dreams belonged only to those who could afford them. His lifeless body was found near the railway tracks, clutching an old newspaper with the headline: “India’s Youth: The Future of the Nation!” The irony was poetic—the future had just thrown itself in front of a speeding train.

Meanwhile, Shivnath, an engineer who foolishly believed in the power of honesty, made the mistake of exposing corruption. His colleagues warned him, “Don’t fight the system. It’s older than you.” But Shivnath was honest, which, in his profession, was more dangerous than being a criminal. When he refused to approve a fraudulent contract, he unknowingly signed his own death certificate.

A few weeks later, he met with a “tragic accident”—his motorcycle mysteriously lost control on a dry, empty road. The police called it “death due to reckless driving,” the newspapers labeled it “an unfortunate incident,” and the system wrote him off as just another man who didn’t understand how things worked. His wife pleaded for justice, his son knocked on every door, but all they got was “We are investigating.” Investigation, after all, was just another word for waiting until people forgot.

Back at the bus stop, life continued around the coffins. The tea vendor poured another cup of tea, the shopkeeper discussed cricket, and a politician’s convoy sped past, not even slowing down. A journalist arrived but left quickly—there was bigger news in town. A celebrity had just bought a pet dog worth ₹5 lakh.

As the sun set, the villagers whispered, “Who’s next?”

No one knew the answer, but they all understood the game.

The system did not kill people. It simply created the circumstances for them to die.

And so, the nation moved forward, marching proudly toward progress—stepping over the graves of honesty, hope, and hunger.

****

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Books ☆ Books by Shri Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Authored six books on happiness: Cultivating Happiness, Nirvana – The Highest Happiness, Meditate Like the Buddha, Mission Happiness, A Flourishing Life, and The Little Book of HappinessHe served in a bank for thirty-five years and has been propagating happiness and well-being among people for the past twenty years. He is on a mission – Mission Happiness!

☆ Books by Shri Jagat Singh Bisht

1. CULTIVATING HAPPINESS

A GUIDE TO PRACTICES THAT DO WONDERS:

LEARN PRACTICES TO FIND MEANING, PEACE AND WELL-BEING:

You can change your life if you have the right understanding and adopt proven practices for creating happiness.

This is a comprehensive guide on the art of living and the science of being, based on years of study and practical sessions.

It includes a step-by-step guide to twelve sets of exercises and a treasure trove of timeless wisdom.

The book is a unique confluence of positive psychology, laughter yoga, yoga, meditation, and spirituality.

It is the right place for beginners to take the first steps and for the advanced learners to add more skills to their repertoire.

You will experience cheerful health, authentic happiness, and everlasting peace once you adopt these practices.

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2. MISSION HAPPINESS

My Idyllic Life:

This is a book on happiness, an autobiography, and a memoir that takes you for a journey on the pathway of authentic happiness, well-being, and a meaningful life. It gives you a new understanding of happiness and well-being and how to achieve them.

It takes a peek at my formative years, my work life, and my experiments with happiness. You will find, inside, a roadmap for a fruitful and fulfilling life, based on years of deep study and practical experience. It blends the best of positive psychology, meditation, yoga, laughter yoga, and spirituality.

The book will enable you to discover new ways to flourish in life, find inner peace, and contribute towards enhancing well-being on this planet. You will gain tremendous insight into life and happiness. The new learning, investigation, and wisdom can catapult you into higher realms of existence!

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3. NIRVANA – THE HIGHEST HAPPINESS

BE A BUDDHA IN THE MODERN WORLD:

The Buddha taught the Dhamma – the law of nature, the path of truth -about two thousand and five hundred years ago.

A lot of time has since elapsed, and much water has flown down the rivers. The whole world has changed drastically but the guiding principles of spirituality remain the same.

The Buddha understood that this world is in turmoil. There is stress, misery, and pain all around. The human beings are suffering.

After a long struggle for enlightenment, he arrived at the root cause of all suffering, and discovered a path leading to liberation from suffering, to peace, to happiness.

This book helps you to understand Nirvana – the culmination of the quest for perfection and happiness – and takes you on the path leading to Enlightenment.

It presents the Buddha’s teachings in a crystalline form and acquaints you with the quintessence of the practice of meditation.

It takes you on the way to the end of suffering, pain, and distress.

If you are seeking a stress-free life, peace of mind, and spiritual wisdom, this book would be of immense benefit.

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4. MEDITATE LIKE THE BUDDHA

A STEP-BY-STEP GUIDE:

This is essentially a book for beginning, establishing, strengthening, and consolidating your meditative practice. The instructions are simple and crystal clear.

It is a step-by-step guide for meditation based on practical experience. It explains in detail a universal practice of meditation thousands of years old. The Buddha attained enlightenment practising it and taught it to thousands of people for the next forty-five years. If you seek the serenity of the Buddha, you must learn to meditate like the Buddha.

Meditation calms the mind; removes anger, hatred, and ignorance; and develops love, compassion, and wisdom. It enables us to live our life optimally. Deep meditation leads to Nibbana – the state of supreme bliss, where you are free from all pain and suffering.

It includes supplementary reading material derived from the Pali Canon for gaining insight and spiritual development. This book is a treasure trove for all meditators.

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5. THE LITTLE BOOK OF HAPPINESS

SIMPLE WAYS TO BEAUTIFY YOUR LIFE:

SIMPLE, HASSLE-FREE, AND DIY WAYS TO CREATE YOUR OWN HAPPINESS:

This book describes activities derived from the modern science of happiness as well as ancient spirituality, based on years of study and practical sessions with people.

You will learn about flow, work-happiness, mindfulness, laughter meditation, and happiness activities.

There are beautiful parables and inspirational quotes inside.

Experience new joy and freedom!

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6. A FLOURISHING LIFE

EFFORTLESS PRACTICES FOR HAPPINESS AND STRESS MANAGEMENT:

Do you want to be happier? Would you like to increase your well-being and flourish? This book will help you flourish!

Flourishing is the experience of life going well – a combination of feeling good and functioning effectively. It is the opposite of languishing – living a life that feels hollow and empty.

Everyone seeks a flourishing life, but the modern-day lifestyle generates a lot of stress, which is the cause of psychosomatic disorders, including hypertension, respiratory ailments, gastrointestinal disturbances, migraine, and ulcers.

In this book, you will find simple, effortless, and painless practices for authentic happiness, stress management, and lasting peace. These exercises are easy to do, can be taken up by anyone, and require no previous training or experience.

The contents include how to relax your body and mind, knowing your inner self, freestyle exercise, life-long learning and evolving, autonomy and self-determination, flourishing, and spirituality.

After reading this book, you will have a deep understanding of the elements of authentic happiness and well-being. This book helps you to lead a flourishing life.

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© Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker

FounderLifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 629 ⇒ बदलते साथी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆“

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बदलते साथी।)

?अभी अभी # 629 ⇒  बदलते साथी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रेडियो सीलोन पर युगल गीतों का एक प्रोग्राम आता था, बदलते साथी। जिसमें एक मुख्य गायक होता था, और हर गीत में अन्य गायक बदलते रहते थे। अगर मुख्य गायक मुकेश है तो हर गीत में उसका साथी बदलता रहेगा, कभी लता, कभी आशा, तो कभी रफी, किशोर अथवा महेंद्र कपूर। यानी आधे घंटे के प्रोग्राम में मुकेश के सात आठ साथी बदल जाते थे।

हमारे जिंदगी के सफर में भी कितने साथी हमारे साथ चले होंगे, कुछ कुछ कदम, तो कुछ कदम से कदम मिलाकर चले, जब तक दम था, लेकिन एक दिन आखिर उनको बिछड़ना तो था ही ;

हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले।

रिश्ते नाते वो सारे तोड़ चले। ।

आज अगर हम उन साथियों को याद करें, तो मिलने बिछड़ने की दास्तान बहुत लंबी हो जाएगी। पहले किसी की उंगली थामी, फिर मां का आंचल और पिताजी का कंधा। भाई बहन, यार दोस्त, अड़ोस पड़ोस और कामकाज के सहयोगियों का, किसका साथ हमें नहीं मिला।

वे दिन थे, जब मन में उमंग थी, उत्साह था, सब कुछ कितना खूबसूरत लगता था। शायद हमने भी कभी यह गीत अपने समय में गाया हो ;

आज मेरे संग हँस लो

तुम आज मेरे संग गा लो

और हँसते गाते इस जीवन

की उलझी राह संवारो ..

लेकिन समय का पंछी उड़ता जाए, और समय के साथ ही, मिलना बिछड़ना चला करता है। बहुत दर्द होता है, जब पुराने साथी बिछड़ते हैं, क्योंकि वह सच्चाई, ईमानदारी और भोलापन आज के रिश्तों में कहां।

मतलब की सब यारी, बिछड़े सभी बारी बारी। ।

साथी बदलते हैं, लेकिन साथ नहीं बदलता। किसी ने यूं ही नहीं कह दिया ;

जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, तुम्हारा हमारा

अगर न मिलते इस जीवन में लेते जनम दुबारा ;

दुबारा तो छोड़िए, ये साहब तो ;

सौ बार जनम लेंगे,

सौ बार फ़ना होंगे

ऐ जान-ए-वफ़ा फिर भी,

हम तुम न जुदा होंगे ..

लेकिन सच तो यही है कि हमारा सच्चा साथी और हितैषी तो केवल एक रहबर, परम पिता परमात्मा है, जो हमसे कभी जुदा नहीं होता। जिस व्यक्ति में अच्छाई है, उसमें वह सदा विराजमान है, और वही हमारा सच्चा साथी है। स्वार्थ, मतलब और सब संसारी रिश्ते तो यहीं रह जाना है। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, अपना तो सिर्फ उसी से याराना है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ओ मेरे जनक… ☆ सुश्री वंदना श्रीवास्तव ☆

सुश्री वंदना श्रीवास्तव

(ई-अभिव्यक्ति में सुश्री वंदना श्रीवास्तव जी का स्वागत।)

संक्षिप्त परिचय 

जन्मस्थान- लखनऊ, उत्तर प्रदेश (विगत 35 वर्षों से मुम्बई, नवी मुम्बई मे निवास)

शिक्षा- परास्नातक अर्थशास्त्र, लखनऊ विश्वविद्यालय

कई वर्षों तक आल इंडिया रेडियो लखनऊ केंद्र के विविध कार्यक्रमों से सम्बद्धता, देश की विविध प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर लेख, कहानियाँ, लघुकथाएं, कविताएँ और गीत प्रकाशित, साझा द्वै अन्तर्मन के अतिरिक्त कई चर्चित साझा संकलनों मे रचनाएँ समाहित। कई मंचीय कवि सम्मेलनों मे भागीदारी। 

सम्प्रति- स्वतन्त्र लेखन

☆ कविता – ओ मेरे जनक☆ सुश्री वंदना श्रीवास्तव ☆

ओ मेरे जनक…

तुमने फिर से मुझे चिड़िया कह कर पुकारा!!

मुझे याद है, जब मैं नन्ही सी चिड़िया..

आंगन में फुदकती फिरती थी,

तुमने मुझे अपनी गोद में बिठा..

आसमान की ओर उंगली दिखा कर कहा था..

‘तुझे उड़ना है..

ये अनन्त आसमान तेरा है, अनन्त उड़ानों के लिए’…

तब मेरी आंखें जगमगा उठी थी,

मेरे पंख उत्साह से फड़फड़ा उठे थे।

लेकिन तब मैं कहां जानती थी,

कि जैसे ही पंख पसार कर उड़ने की चेष्टा करूंगी,

उस अनन्त आकाश में बाड़ लगा दोगे,

मेरे पंख थोड़े से नोच दोगे तुम!!!

 

रटे-रटाए पाठ मैं जब फटाफट बोलती जाती थी,

स्कूल मे सिखाई गई कविताएं

 मटक-मटक कर सुनाती थी,

तुम मुग्ध हुए जाते थे…

मेरी विद्वता और विलक्षणता पर,

लेकिन जैसे ही मैने स्वयं के..

दो शब्द बोलने चाहे,

उन रटी हुई परिभाषाओं से हट कर,

अपने वाक्यांश देने चाहे,

तुमने चुपके से मेरी जीभ कुतर दी,

मेरे शब्द कोष के कितने ही पन्ने फाड़ लिए।

 

तुम ही तो थे न..

जो मुझ पर वारे-न्योछारे जाते थे,

अपनी ‘कोहनूर’ के मूल्यांकन को दूसरों पर छोड़ दिया,

जिन्होने मेरा मनोबल भीतर तक तोड़ दिया।।

 

अब अगर चिड़िया कह कर बुलाना हो तो पहले,

कानों में बालियां डालते वक्त..

ये मंत्र भी फूंकना,

कि गलत सुन कर मुझे चुप नहीं रहना है,

आंखों में काजल के साथ सपने देखने की हिम्मत भी भरना,

सीने से लगाना तो इतना साहस भर देना,

कि उन्हें  पूरा कि जिद खुद से तो कर पाऊं,

इतना आत्मसम्मान भर देना मुझमें,

कि जो हूं वही बन कर जी पाऊं।

 

इतना कर सको मेरे जनक..

तो ही मुझे चिड़िया कह कर बुलाना..

वरना अब से मुझे चिड़िया मत कहना!!!

© सुश्री वंदना श्रीवास्तव   

नवी मुंबई महाराष्ट्र 

ई मेल- vandana [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 211 ☆ # “इस होली में…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता इस होली में…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 211 ☆

☆ # “इस होली में…” # ☆

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

गीत खुशी के गाओ इस होली में

 

अमराई में कोयल गाती

भ्रमरों को कलियाँ मदमाती

आम्र वृक्ष सा बौराओ इस होली मे

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

भीगी है रंगों से चोली

फूट रही अंगों से बोली

कामबाण से देह बचाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

दया नहीं अधिकार चाहिए

तिरस्कार नहीं प्यार चाहिए

मानवता का अलख जगाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

बिखर गए हैं सारे सपने

बिछड़ गए हैं हमसे अपने

नफरत की दीवार गिराओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में     

 

तपिश सूर्य की पी जाओ

मधुर चांदनी जग में लाओ

धरती को ही स्वर्ग बनाओ इस होली में

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

 

अबीर गुलाल लगाओ इस होली में

गीत खुशी के गाओ इस होली में /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – त्यौहार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा त्यौहार।)

☆ लघुकथा – त्यौहार☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

चौराहे पर, अपनी छोटी बच्ची को लिए, वह गुलाल के पैकेट बेच  रही थी। जो भी कार, लाल सिग्नल पर रुकती थी, वह कार के पास पहुंच जाती और शीशे पर उंगली की दस्तक कर वह गुलाल पैकेट लेने का आग्रह करती।  जो चाहते, उससे ले लेते, कुछ लोग शीशा ही नहीं खोलते थे, और चले जाते थे।  वह फिर भी आस लगाए, हर कार वाले के पास जाकर, पैकेट गुलाल ले लो, कह कर उन्हें मनाया करती। एक परिवार कार में था, पति-पत्नी, उनकी माताजी और उनकी बेटी जो कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पास भी गुलाल बेचने वाली ने शीशे पर दस्तक दे कर, गुलाल लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी ने गुलाल का पैकेट लिया और उस बेचने वाली को भी क्योंकि होली के उत्सव पर जिसने गुलाल नहीं लगाई थी, उसको और उसकी बच्ची को गुलाल लगा दिया। वह महिला चिल्लाने लगी कि मुझे गुलाल लगाने की हिम्मत कैसे हुई? क्यों गुलाल लगाया मुझे? परिवार ने कहा-  आप गुलाल आप बेच रही थी, और क्योंकि आपने आज होली का गुलाल नहीं लगाया था इसलिए, आपको और आपकी  बच्ची को, जिसे आप लिए हैं उसे थोड़ा सा गुलाल लगा दिया।  वह गुस्से में चिल्लाई कि हम तुम्हारे मजहब के नहीं हैं तुमने हमें गुलाल क्यों लगाया? हमारे मजहब में गुलाल नहीं खेलते, रंग नहीं लगाते है, शोर हो गया, काफी हंगामा हो रहा था। कार में बैठे परिवार ने बाहर निकल कर उससे माफी मांगी कि-  बहन हमें माफ करो हम आपका मजहब नहीं जानते थे, मगर आप गुलाल बेच रही थी, इसलिए बिटिया ने गुलाल लगा दिया।

वो महिला कुछ शांत हुई और रोने लगी और कहने लगी- कि रंग किसी भी मजहब में बुरे नहीं होते, मगर हम नहीं खेल सकते। पति की मृत्यु के बाद हम, हर त्यौहार पर, उस त्यौहार में काम आने वाली सामग्री बेच तो सकते हैं, मगर हर त्यौहार मना नहीं सकते। कोई भी धर्म आपस में लड़ना नहीं सिखाता और… । अपने पल्लू से अपना और इन सब बातों से अनजान अपनी बच्ची का रंग पोंछते हुए रो पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बरसने लगे।

सच है कोई भी धर्म आपस में लड़ने की बात नहीं करता, लड़ते तो वे हैं जो धर्म ग्रंथो का सार ही नहीं समझ पाए जो जीवन के लिए आवश्यक है।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आरसा… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आरसा ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

करता उगी कशाला बदनाम आरश्याला

बघण्यास रूप तुमचे त्याचा गुलाम झाला

*

पाहून आरश्याला हुरळू नका गड्यांनो

तुमचेच रूप असली तो दावतो तुम्हाला

*

माणूस माणसाला अंदाज देत नाही

होतो तयार नकली नात्यात बांधण्याला

*

सत्यास शोधण्याची आहेत कारणे ही

बाजार माणसांचा विकतोय माणसाला

*

आनंद वाटताना नव्हता विचार केला

फिरले नशीब उलटे भलताच काळ आला

*

निरखून पाहताना मी आरश्यात थोडे

आत्मा कुठे दिसेना मुखडा मलूल झाला

*

आभार मानताना तो आरसा म्हणाला

तुमच्याच वास्तवाला लपवू उगा कशाला

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्त्री… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सुश्री अपर्णा परांजपे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ✍️ स्त्री… 🥀🥀🥀 ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

बाल्यातील निरागसता मी

तारुण्यातील अवखळता मी…

मीच माझी सखी सख्याचीही सखी

प्रेम समर्पण आदराने होते सुखी…

*

नाजूकातील नाजूक फुल मी

कठोर कठीण पाषाणही मी…

*

प्रेमपान्हा हे अस्तित्वाचे अस्तित्व

मला पाहूनच कवींचे उफाळून येते कवित्व…

*

सावरणे आवरणे कर्तव्य माझे

तेच खरे कारण असतात स्वतंत्र राजे…

*

राणी हे राजाचे कारण असण्याचे

माझ्याशिवाय त्याचे असणे सत्य नसण्याचे…

*

एकमेकांची अस्मिता जपत चाले खेळ

आयुष्याचा असतो असा रंगीबेरंगी मेळ…

*

आहे ते सर्वोत्तम, देणे ईश्वराचे

जीवन सार्थक होते सौभाग्याचे…

*

अवर्णनीय आनंद शब्दांपलिकडचा

कुपीत जपावा असा सुगंध जीवनाचा…

*

शब्द नव्हे हा अनुभव संचय

सार्थकता ही जणू अमृतमय. . .

जणू अमृतमय…

☆ 

🌹 भगवंत हृदयस्थ आहे 🌹

© सुश्री अपर्णा परांजपे

कात्रज, पुणे

मो. 9503045495

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ मी कृतार्थ जाहले… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ मी कृतार्थ जाहले… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

स्वप्नं, महत्त्वाकांक्षा, ध्येयंं, नव्या वाटा, नवी क्षितिजे यांची आस बाळगणं त्यासाठी झोकून देणं या सर्वांसाठी लागते चिकाटी, जिद्द मनोबल. या दिशेचा मार्ग सरळ, सोपा नसतो. खाचखळग्यांचा, काट्याकुट्यांचा असतो. स्वप्नपूर्तीच्या मागे लागणाऱ्यांना भवतालचे अनेक घटक सतत मागे खेचत असतात, उणीवांवर बोट ठेवून मानसिक खच्चीकरण करत असतात, या सर्वांवर मात करून अंतप्रेरणेने चालत राहणं, ध्येयपूर्तीचा टप्पा गाठणं यासाठी प्रचंड मनोधैर्य लागतं.

A WILL WILL FIND A WAY

किंवा

प्रयत्ने वाळूचे कण रगडिता तेलही गळे या उक्तीप्रमाणे एक ना एक दिवस यश दारात उभे राहते आणि त्या वेळेचा जो आनंद असतो त्याला सीमा नसते. अनेक घटिकां-पळांच्या तपस्येचं ते फळ असतं आणि त्या क्षणी “आपण हे करू शकलो, हे मिळवू शकलो” ही भावना कृतार्थ करते. जगणं सार्थ झालं असं समाधान लाभतं. याचसाठी केला होता अट्टाहास हा भाव उत्पन्न होतो.

याच अर्थाचे डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री यांचे मी कृतार्थ जाहले हे सुंदर गीत! या गीताचा आपण आज रसास्वाद घेऊया.

☆ मी कृतार्थ जाहले ☆

स्वप्न माझ्या मनात मूर्त साकारले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले ॥ध्रु॥

*

चिमणीला पदरातिल गरुडपंख लाभले

उंच घेऊनी भरारी राज्य नभी थाटले

देवी साम्राज्याची भाग्य मला लाभले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले ॥१

*

दुर्गम गिरीशिखराप्रति मार्ग कठीण हो किती

साथ लाभता मना निग्रहा नसे भीती

संकल्परूप माझे या वांच्छनेस लाभले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले।२

*

नाही अहंकार कधी दंभ ना स्पर्शले

सेवेतुनि जगताच्या कर्मफला जाणिले

अर्पण जीवन सारे विश्वपदी वोपिले

यशोमन्दिरात आज मी कृतार्थ जाहले।३

कवी : डॉ. निशिकांत श्रोत्री (निशिगंध)

हे एक यशोगीत आहे. एक आनंदगीत आहे. साफल्याची भावना व्यक्त करणारे हे सुरेख शब्दातले गीत आहे. पूर्ततेचा आनंद, हर्ष आणि त्यानंतर येणारा कृतार्थतेचा भाव हे गीत वाचताना जाणवतो. एका यशप्राप्त कन्येचे मनोगत या गीतात व्यक्त केलेले आहे.

स्वप्न माझ्या मनात मूर्त साकारले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले।ध्रु।

ध्रुवपदात कवितेतल्या आनंदमयी भावना जाणवतात. आनंद कसला तर स्वप्नपूर्तीचा. “अजी मी ब्रह्म पाहिले” सारखाच, त्याच तोडीचा आनंद गीतातल्या या कन्येला झालेला आहे. ती म्हणते,

“आज माझं कित्येक वर्षं मनात बाळगलेलं एक स्वप्न प्रत्यक्षात उतरलं आहे आणि या यशाच्या शिखरावर मला कृतार्थ झाल्याचे समाधान लाभत आहे. ”

ध्रुवपदाच्या या ओळीतला यशोमंदिर हा शब्द खूपच लक्षवेधी आहे. यशाचे मंदिर किंवा यशाचे द्वार म्हणजे जणू काही मंदिरच. यशाला दिलेली ही मंदिराची उपमा फारच पवित्र, मंगलमय आणि सूचक वाटते. चांगल्या मार्गाने मिळवलेल्या यशाची ती ग्वाही देते.

चिमणीला पदरातिल गरुड पंख लाभले

उंच घेऊनी भरारी राज्य नभी थाटले

देवी साम्राज्याची भाग्य मला लाभले

यशो मंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले. १

इतके दिवस मी लहान होते. पंखात माझ्या ताकद नव्हती. उडण्याचे सामर्थ्य नव्हते. म्हणून ते मिटलेल्या अवस्थेत होते पण माझ्या आयुष्यात एक दिवस असा आला की जणू काही उंच गगनात सहजपणे भरारी मारणाऱ्या गरुडाचे पंखच मला लाभले आणि हे जग मी माझ्या मुठीत बंदिस्त करू शकले. जगाला माझं अस्तित्व मान्य करावंच लागलं. कर ले दुनिया मुट्टी मे हे माझं स्वप्न जणू काही पूर्ण झालं. माझ्याकडे बघणाऱ्यांच्या नजरेत मला आता आदर, अभिमान आणि आश्वासकता दिसत आहे. हेच मला हवं होतं आणि ते मी मिळवलं म्हणून माझा जन्म सार्थ झाला असे आता वाटत आहे. ”

हे संपूर्ण कडवं रूपकात्मक आहे. गरुडपंख लाभले या शब्दरचनेत आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता याचा मनोमन उगम झाल्याचा अर्थ अभिप्रेत आहे. कवीने योजलेल्या या रूपकात्मक शब्दातून जे अशक्य वाटत होते ते शक्य करून दाखवण्याचा अभिमान जाणवतो. “गुलामगिरीच्या शंखला तोडून उच्च स्थानावरचे माझे स्वतःचे असे एक राज्य निर्माण करण्यात मला यश लाभले आहे” हा विश्वास जाणवतो.

देवी साम्राज्याची या शब्दातून तिने रोवलेल्या विजयपताकेचा विलक्षण अभिमान आणि भाग्य ती उपभोगीत आहे हे दिसतं. आजपर्यंत जिला पायाची दासी मानलं जात होतं तिला देवीचं स्थान मिळालं. एका सक्षम सबल रूपात ती नव्याने अवतरली.

दुर्गम गिरीशिखराप्रति मार्ग कठीण हो किती

साथ लाभता मना निग्रहा नसे भीती

संकल्प रूप माझीया वांच्छनेस लाभले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले २

“यश तर पदरी आलंच पण मागे वळून पाहताना जाणवत आहे की या यशाचा मार्ग सोपा नव्हता. अवघड होता. सरळ नव्हता! वळणावळणाचा होता. एखाद्या असाध्य डोंगराचे शिखर गाठण्यासारखेच होते ते. अत्यंत साहसाचा हा मार्ग होता पण तरीही अंतर्मनाची कुठेतरी विलक्षण साथ होती, मनात जिद्द होती, चिकाटी होती, एक दुर्दम्य आशावाद आणि निग्रहही होता ज्यामुळे मनात दाटलेल्या भीतीवर मी मात करू शकले, निर्भय बनले. स्वशक्तीचा, स्वसामर्थ्याचा वेध घेऊ शकले आणि त्याच बळावर माझ्या या संकल्पांना, इच्छेला एक निश्चित असा आकार मिळू शकला. खरोखरच आज मी धन्य झाले.”

गिरीशिखराप्रति ही शब्दयोजना इथे अगदी चपखल आहे. कुठलाही डोंगर ओलांडणं हे अत्यंत साहसाचं आणि आव्हानात्मक असतं. उरी बाळगलेली स्वप्नं सत्यात उतरवणं हे येर्‍या गबाळ्याचं कामच नव्हे तर त्यासाठी गिरीशिखरावर पोहोचण्याइतकं सामर्थ्य हवं. . हे अधोरेखित करणारी ही शब्दयोजना वाचकाला नक्कीच भावते. या ओळींमध्ये वीरश्री जाणवते. वीर रसाचा इथे भावाविष्कार झालेला अनुभवास येतो.

गिरीशिखराप्रति मार्ग कठीण हो किती

साथ लाभता मना निग्रह नसे भीती

यात अनुप्रास आणि यमक हे दोन्ही अलंकार अतिशय सुंदरतेने गुंफले आहेत.

नाही अहंकार कधी दंभ मना स्पर्शले

सेवेतूनी जगताच्या कर्मफला जाणिले

अर्पण जीवन सारे विश्वपदी वोपिले

यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले ३

“मला जे हवं होतं ते मिळवताना माझी मानसिकता मात्र संतुलित होती. मी माझ्या मनाचा तोल कधीही ढळू दिला नाही. माझ्या ध्येयमार्गावरून जाताना मी कुणालाही तुच्छ लेखले नाही. मी कुणीतरी इतरांपेक्षा वेगळी आहे असा अहंकार बाळगला नाही. कुठल्याही ढोंगीपणाचा बुरखा पांघरला नाही उलट एका सेवाभावाने मी जगताच्या जीवनातला अज्ञानांधकार दूर करण्याचा प्रयत्न केला. मी- ची ओळख पटवताना मी समाजाच्या जीवनप्रवाहाला कधीही अव्हेरलं नाही. त्यातूनच ठेचकाळत, शिकत, शिकवत, समजावत, पटवत शांततेच्या, अहिंसक मार्गाने मी माझ्या कष्टाचे फळ मिळवले आणि माझे स्वप्न पूर्ण केले. स्वप्नपूर्ती नंतरही माझे पाय सदैव जमिनीवरच ठेवले. यशाने मी हुरळून गेले नाही. भले मी मनस्वी आनंदले असेन पण त्याची नशा किंवा धुंदी मी माझ्या मनावर येऊ दिली नाही. अखेर कोsहं या भावनेने मी एक निमित्तमात्र असे समजून समर्पित भावानेच या यशाकडे, तृप्त मनाने आणि प्रातिनिधिक स्वरूपात पाहते.”

या गीतातला हा शेवटचा चरण अतिशय अर्थपूर्ण आहे, संदेशात्मक आहे. आनंद होणं ही सर्वसाधारण सामान्य भावना आहे. ती एक सहज अशी अभिव्यक्ती आहे पण त्याचा अवास्तव आकार न होऊ देणे हे सामान्यातले असामान्यत्व आहे आणि याच असामान्यत्वाचा पाठपुरावा कवीने या शेवटच्या चरणात जाता जाता सहज केला आहे.

वोपिले हा शब्द ज्ञानेश्वरी ची आठवण करून देतो आणि त्या शब्दातला गोडवा सांभाळून या गीतातल्या ओळीत तो अगदी बेमालूमपणे सहज गुंफलेला जाणवतो.

वोपिले म्हणजे अर्पिले, देऊन टाकले या अर्थाने इथे तो योजला असावा.

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन याच अर्थाचा बोध करणाऱ्या या शेवटच्या काव्यपंक्ती आहेत.

विश्वपदी वोपिले हा खूप विस्तारित, उदात्त अर्थांचा शब्दसमूह आहे. “ जिथून मिळालं तिथेच अर्पिलं” हा भाव तिथे आहे. “माझं यश हे आता माझ्यापुरतं मर्यादित नाही तर या यशामुळे जे सामर्थ्य, जी ताकद मला लाभली आहे त्याचा सुयोग्य उपयोग या विश्वासाठीच मी करेन. ” हा व्यापक निर्धार त्यात जाणवतो.

विश्वस्वधर्मे सूर्ये पाहो ।

जो जे वांछील तो ते लाहो।।

असा एक अव्यक्त दडलेला अर्थ या गीतात व्यापून राहिलेला आहे.

जे गीत एका सामान्य कन्येच्या यशोनंदाने सुरू होते ते गीत सहजपणे एका विश्वरूपी संदेशात रूपांतरित होते. केवळ १४ ओळीत डॉक्टर श्रोत्रींनी साधलेला हा महान अर्थ वाचकाला एका वेगळ्याच विचारप्रवाहात घेऊन जातो. धन्य तो कवी! धन्य त्याची शब्दलीला!

या संपूर्ण गीताची यशोमंदिरात आज मी कृतार्थ जाहले ही एक टॅगलाईन आहे आणि या टॅगलाईनला, या ओळीला साजेसा प्रत्येक चरणातला तिसऱ्या ओळीतला शेवटचा शब्द …लाभले— वोपिले हे अतिशय लयबद्ध वाटतात. .

यश कोणते, यश कसले याचा स्पष्ट अथवा विशिष्ट असा उल्लेख या गीतात नाही. यश कोणतेही असू शकते. आर्थिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक, कौटुंबिक, सामाजिक, राजकीय अगदी कोणतेही …. पण या गीतातला एक अंतर्गत भाव जाणवतो तो हा की कुठल्याही स्त्रीचे यश, तिची स्वप्नपूर्ती आणि पुरुषाचे यश– सामाजिक फुटपट्टीने मोजले तर त्यात महत् अंतर असते. पुरुषांपेक्षा एखाद्या स्त्रीला तिच्या स्वप्नपूर्तीसाठी जो संघर्ष करावा लागतो तो अधिक आव्हानात्मक आणि अवघड असतो. कुठेतरी कवीने या स्त्री संघर्षाचा सन्मान आणि दखल घेतल्यामुळे एका स्त्रीच्या भूमिकेतून मला त्याचे मूल्य अधिक वाटते हे निःसंशय …

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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