संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “फागुन के दिन आ गये…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अशोक व्यास जी द्वारा लिखित “राजघाट से राजपाट तक” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 172 ☆
☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … राजघाट से राजपाट तक
व्यंग्यकार … अशोक व्यास
भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ १४४
मूल्य २५० रु पेपरबैक
राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधी राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।
विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओ ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठको ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।
राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम”, ” तारीफ पे तारीफ “, ” मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है ” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।
शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं ” राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हि्दी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो ” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है। वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओ का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिाक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। ” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। मैने बहुत कम अंतराल में आए उनके तीनों ही व्यंग्य संकलन आद्योपांत पढ़े ही नहीं उन पर अपने पुस्तक चर्चा स्तंभ में उन पर लिखा भी है अतः मैं कह सकता हूं कि उनके व्यंग्य लेखन का कैनवास उत्तरोत्तर बढ़ा है। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये। पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पतझड़”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 ☆
🌻लघुकथा🌻 🍂पतझड़ 🍂
फागुन की रंग बिरंगी मस्ती के साथ जहाँ सभी उत्साह, उमंग, गाते बजाते, आती – जाती टोली। वहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर कतारों में लगे वृक्ष और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखी टूटी- फूटी कुर्सियाँ।
उम्र का पड़ाव और मानसिक सोच के साथ-साथ गुलाब राय मन ही मन कुछ बात कर रहे थे। सड़क सफाई करने वाला स्वीपर झाड़ू लेकर पेड़ के गिरे पत्तों को एकत्रित कर रहा था। राम राम बाबु जी 🙏🙏कैसे हैं?
देखिए न इस मौसम में हम लोगों का काम बढ़ गया। अब यह सारी सूखी पत्तियाँ किसी काम की नहीं रही। सरसराती गिरती जा रही हैं। आप सुनाएं – – – आप होली के दिन यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हैं। घरों में आसपास पड़ोसी या परिवार के संग होली नहीं खेल रहे।
गुलाब राय जैसे नींद से जाग उठे। झुरझुरी आँखे और कपकपाते हाथों से डंडे का सहारा लेकर उठ कहने लगे – – यही तो सृष्टि का नियम है!! बेटा पतझड़ होता ही इसीलिए है कि नयी कपोले अपनी जगह बना सके।
हृदय की टीस दर्द को दबाते हुए कहना चाहते थे कि परिवार वाले ने तो उन्हें कब का पतझड़ समझ लिया है। शायद उस ढेर का इंतजार है जिसमें माचिस की तीली लगे और पतझड़ जलकर हवा में उड़ने लगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काश का आकाश…“।)
अभी अभी # 630 ⇒ काश का आकाश श्री प्रदीप शर्मा
जिस प्रकार आशा का आकाश होता है, एक आकाश काश का भी होता है। अभाव में भी सुख की अनुभूति ही काश है। हम भी अगर बच्चे होते ! हम इस उम्र में बच्चे तो नहीं बन सकते, लेकिन कल्पना में बचपन का आनंद तो ले सकते हैं। आइए, काश के सहारे ही ज़िन्दगी जी लें।
दो ही शब्द आशा के हैं, और दो ही काश के ! आशा उम्मीद है, सकारात्मकता है, एक खुला हुआ आकाश है। जब हमारी आशा निराशा में बदल जाती है, मन के आकाश में काले बादल छा जाते हैं, हम दुखी हो जाते हैं। ।
काश, यथार्थ के आगे अस्थाई आत्म – समर्पण है। बचपन में हम सोचते थे, काश बड़े होकर हमारा भी एक खुद का मकान हो, बड़ी सी कार हो। खूब पैसा हो। आज हो सकता है, हमारे पास वह सब कुछ हो, लेकिन हम काश फिर भी कुछ मांग बैठें ! काश हमें भी मन की शांति हो। कोई तो दो घड़ी हमारे पास बैठे, हमारे मन की बात सुने।
सोचिए, अगर जीवन में काश न हो तो जीवन कितना नीरस हो जाए !
कभी न कभी, कहीं न कहीं,
कोई न कोई तो आएगा।
अपना मुझे बनाएगा,
दिल से मुझे लगाएगा।
कभी न कभी
या फिर ;
दिल की तमन्ना थी मस्ती में,
मंज़िल से भी दूर निकलते।
अपना भी कोई साथी होता,
हम भी बहकते, चलते चलते। ।
काश में कोई गिला शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं, एक तरह से उस ऊपर वाले से गुजारिश है। मेरी तकदीर के मालिक, मेरा कुछ फैसला कर दे। भला चाहे भला कर दे, बुरा चाहे, बुरा कर दे। कितना अफसोस होता है, जब बड़ी बड़ी इमारतें हमारी धूप खा जाती है और हम एक झोपड़ी की तरफ गिरती धूप देखकर कहते हैं, काश
यह धूप हमें भी नसीब होती।
दीवानेपन की भी हद होती है, गौर फरमाइए :
ऐ काश किसी दीवाने को,
हम से भी मोहब्बत हो जाए।
हम लुट जाएं, दिल खो जाए
बस, आज क़यामत हो जाए। ।
अब इसको आप क्या कहेंगे ;
गमे हस्ती से बस बेगाना होता
खुदाया, काश मैं दीवाना होता
ऐसा ही एक दीवानापन मुझ पर भी सवार है। काश कोई ऐसा वायरस इस दुनिया में फैल जाए कि नफ़रत इस जहान से हमेशा हमेशा के लिए अलविदा हो जाए। आमीन!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 123 ☆ देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
14 मार्च शुक्रवार 2025 को प्रतिवर्षानुसार संपूर्ण विश्व निद्रा दिवस मनाने की तैयारियों में लगा हुआ हैं। कुछ व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के मेधावी शोधकर्ताओं से इस बाबत चर्चा भी हुई हैं। उन सभी ने एक मत से कहा ये तो ” कुंभकरण” जोकि रावण के अनुज थे, उनके अवतरण दिवस को मनाने के लिए सैकड़ों वर्षों से आयोजित किया जाता हैं।
कुछ शोधकर्ताओं ने तो इसकी पुष्टि करते हुए ऐतिहासिक प्रमाणों की फोटो तक भी प्रेषित कर दी हैं। हम समझ गए ये त्यौहार भी हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति से भी प्राचीन है, जिसको अब पूरा विश्व भी स्वीकार कर चुका हैं।
हमारे दादाश्री ने हमें भी कुंभकरण नाम से नवाजा था। घर में कोई भी परिचित या अजनबी आता तो वो हमेशा कहते थे, कुंभकरण जाओ मेहमान के लिए जल ले कर आओ।
हमारा पूरा जीवन बिना सूर्योदय देखे हुए व्यतीत हुआ है। जब सूर्य देवता दस से बारह घंटे तक उपलब्ध रहते हैं, तो दिन में कभी भी उनके दर्शन कर सकते हैं। दिन में दस बजे के बाद उठने के कुछ समय बाद हमारा प्रिय पेय ” मीठी लस्सी” है। यदि आलू के पराठे साथ में हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।
मीठी लस्सी ग्रहण करने के बाद तो हम चिर निद्रा के आगोश में आकर, दिन में ही तारे (सपने) देखने लग जाते हैं। आप भी प्रयास कर सकते हैं, यदि लम्बी नींद लेनी हो तो कम से कम आधा लीटर लस्सी अवश्य ग्रहण करें।
हमारे कई मित्र तो हमेशा ही नींद में रहते हैं। दिन के समय जागते हुए भी यदि आप उनसे कोई बात पूछें तो वो एकबार तो हक़ब्का जाते हैं। चाणक्य ने भी ये ही कहा था “सोते हुए मूर्ख व्यक्ति को कभी भी नहीं उठाना चाहिए”।
हम भी इस लेख से व्हाट्स ऐप और सोशल मीडिया के उन पाठकों को जागने का निरर्थक प्रयास कर रहें है, जोकि जागते हुए भी सो रहें हैं। बुरा ना माने होली है।
मित्रांनो, आपले आयुष्य म्हणजे एका तळ्यातील साचलेल्या पाण्यासारखे आहे. त्यात जर कोणी एक दगड फेकून मारला की, ज्या प्रमाणे पाण्यावर तरंग निर्माण होतात, तसे काम विज्ञान-तंत्रज्ञान आपल्या आयुष्यात आज करत आहे. त्यामुळे आपल्या थांबलेल्या शांत आयुष्यात लगेच बदल घडायला सुरु होतो. असे रोज नवनवीन दगड पडत आहेत. ज्या ज्या वेळी नवीन दगड पडणार त्या त्या वेळी तुम्हाला मला बदलावेच लागणार आहे. आपल्याला नवीन अपडेट ज्ञान घ्यावेच लागणार आहे. तुम्हाला आणि मलाही कामाची नवीन पद्धत आणावीच लागणार आहे. तुम्हाला-मला नवनवीन कौशल्य आत्मसात करावेच लागणार आहे. तुम्हाला-मला आपली प्रवृत्ती बदलावीच लागणार आहे. यातून एक गोष्ट नक्कीच होणार आहे… ते म्हणजे आपल्याला सातत्याने बदलावेच लागणार आहे. कारण हा दगड पडण्याचा कार्यक्रम बंद होणार नाही. विज्ञान सतत नवनवीन दिशेने भरारी घेत रहाणार आहे.
यामुळे झालेय काय की, अनेक लोक आपल्या भविष्याबद्दल भयभीत होत आहेत. “माझे पुढे कसे होणार?, माझ्या मुलांचे कसे होणार? माझ्या आयुष्याचे काय होणार? काही थोडकेच जण असे आहेत की, जे त्यांच्या आयुष्यात शांत आहेत, आनंदी आहेत. बाकी मोठ्या प्रमाणात अशी लोकसंख्या आहे, जी आपल्या भविष्याबद्दल भयभीत आहे, प्रचंड तणावाखाली आहे. अनेक लोक तर या विचारात आहेत की, हे जे झपाट्याने बदल होत आहेत हे सर्व आम्हाला कसे झेपणार?
प्रत्येक गोष्टीचा वेग वाढला आहे. विज्ञान-तंत्रज्ञानातील हे बदल रोज आपल्या आयुष्याच्या प्रत्येक पैलूवर परिणाम घडवून आणत आहेत. आजूबाजूला जे झपाट्याने बदल घडत आहेत त्यामुळे अनेक नवीन गोष्टी तुमच्या-माझ्यावर आदळत आहेत. यामुळे एक खूप मोठा गोंधळ निर्माण होत आहे. त्यामुळे आपला आत्मविश्वास हरवत आहे. या अशा अशांत वातावरणाने आपल्या आरोग्यावर देखील परिणाम होत आहे. माणसे प्रचंड तणावाखाली वावरत आहेत.
मागील २०० वर्षात जितके शोध नाही लागले तितके शोध मागील ५ वर्षात लागले आहेत आणि हा प्रत्येक शोध आपल्या आयुष्यात अशी घुसखोरी करत आहे की, आपल्याकडे थांबून पाहायला वेळच नाही. माझे पुढे काय होईल? या अशा विचारांचा गोंधळ, सातत्याने वाढत जाणारी भीती, या सर्वाचा परिणाम म्हणजे आपण आत्याधुनिक साधने तर वापरू लागलो आहोत; पण विचारांनी मात्र अजूनही 400 वर्षे मागेच आहोत. म्हणूनच आपल्या आयुष्यात गोंधळ उडालेला दिसतोय. यावर उपाय एकच… जेव्हा आपण विवेकाने वागायला शिकू, वैज्ञानिक दृष्टिकोनाने जगायला शिकू, प्रत्येक घडणाऱ्या घटनेतील कार्यकारणभाव शोधायला शिकू, अंधश्रद्धेतून मुक्त होऊ, नवीन ज्ञान आत्मसात करायची जिगीविषा बाळगू, तेव्हाच या विज्ञान-तंत्रज्ञानाच्या भारारीला कवेत निश्चितपणे घेऊ शकू.
☆ ‘प्रेमळ आदेश…’ – भाग- २ – मूळ हिन्दी लेखक – अनामिक ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆
(आता मला त्यांना चिडवायला आणि छेडायला खूपच मजा येत होती. अशा स्थितीत काकूंनीही हसत हसत मला पूर्ण साथ दिली.) – इथून पुढे —-
आम्ही संध्याकाळी ऑफिसमधून परतलो की काकू चविष्ट नाश्ता बनवून आमची वाट पाहत असायच्या. आता सकाळ संध्याकाळ भाज्या चिरून, कोशिंबीर आणि विविध प्रकारच्या चटण्या तयार करून ठेवतात. त्या अनेकदा पीठही मळून ठेवायच्या. हे सर्व पाहून दिवसभरात त्या क्षणभरही बसत नसतील असे वाटले.
आता घरातील प्रत्येक वस्तू आपापल्या जागी नीटनेटकी ठेवली असते, ज्या आधी वेळेअभावी वापरानंतर इकडे तिकडे पडायच्या.
एका सुट्टीच्या दिवशी आम्ही काकूंना मॉलमध्ये फिरायला घेऊन जात होतो. वाटेत एका ठिकाणी त्यांनी गाडी थांबवायला सांगितल्यावर आम्हाला आश्चर्य वाटले. तरीही राकेशने ताबडतोब गाडी थांबवली तेव्हा काकू लगेच खाली उतरल्या आणि जवळच्या एटीएमच्या दिशेने निघाल्या. अवघ्या दोन मिनिटांत त्या नोटा हातात घेऊन परत आल्या.
आमच्या चेहऱ्यावर आश्चर्य बघून त्या म्हणाल्या, “आश्चर्यचकित होऊ नका. ” माझी परिस्थिती लक्षात घेऊन मी हे कार्ड हॉस्पिटलच्या सामानासोबत ठेवले होते. दवाखान्यात पैशाची गरज तर होतीच ना? पण मला माहित नव्हते की माझी अवस्था इतकी वाईट होईल की मला माझ्या शेजाऱ्याला सांगून फोन करून तुला बोलवावे लागेल. “
“ते ठीक आहे काकू, पण आता आम्ही आहोत ना. पैसे काढण्याची काय गरज होती? खरं तर, माफ करा, तुम्ही येऊन इतके दिवस झाले आहेत, याचा आम्ही विचारही केला नाही. आम्ही तुम्हाला तुमच्या गरजा विचारायला हव्या होत्या, ” राकेश लाजत म्हणाला.
“नाही नाही बेटा, मला पैशाचे काय काम? पण मी माझा मुलगा आणि सुनेसोबत पहिल्यांदाच बाजारात जात आहे, त्यामुळे पैसे माझ्याकडे असले पाहिजेत. चला, उशीर होत आहे, ” काकू उत्साहाने म्हणाल्या.
मॉलमध्ये पोहोचताच काकू तयार कपड्यांच्या दालनात गेल्या. आम्हाला वाटले की त्या आजारपणामुळे इतक्या घाईत दवाखान्यात आल्या आहेत की त्यांना त्यांच्यासोबत अनेक गोष्टी आणता आल्या नसतील. त्यांना कपड्यांविना त्रास होत असावा, म्हणूनच त्या तिथे गेल्या असाव्यात.
पण त्या रेडीमेड शर्ट आणि जीन्सच्या काउंटरवर गेल्या आणि राकेशला कपडे खरेदी करण्यास सांगू लागल्या. राकेशने खूप नकार दिला पण त्यांनी ऐकले नाही.
राकेश जीन्स घालून पहात असताना त्या मला म्हणाल्या, “आजकाल सगळ्या मुली जीन्स घालतात. ते सोयीचे असल्याचे कामावर जाणाऱ्यांचे म्हणणे आहे. सूनबाई, तू जीन्स वापरत नाहीस का?
त्यांचं हे बोलणं ऐकून मला आश्चर्य वाटले. जुन्या पिढीतल्या असूनही त्या असं का बोलल्या?
“नाही नाही काकू, मी पण… ” म्हणत मी थांबले. असं बोलत असताना त्या माझी परिक्षा तर घेत नाही ना असं मला वाटत होतं.
“तू घालतोस पण माझ्यामुळे तू रोज साडी आणि सूटच्या बंधनात अडकतेस. पण मी तर कधीच काही बोलले नाही, ” काकू अगदी निरागसपणे म्हणाल्या.
“सून, तू पण तुझ्यासाठी काही जीन्स आणि एक छान टॉप खरेदी कर. माझी सून या कपड्यांमध्ये कशी दिसते ते मलाही पाहू दे, ” असे म्हणत त्यांनी माझ्यासाठी कपडे निवडण्यास सुरुवात केली. मी आश्चर्याने त्यांच्याकडे बघत उभी राहिले. माझा माझ्या डोळ्यांवर विश्वासच बसत नव्हता, पण हे सर्व खरे होते आणि स्वप्न नव्हते.
कपडे खरेदी होताच काकू म्हणाल्या, “बेटा, मला खूप भूक लागली आहे. ” असंही मी आजारातून बरी झाल्याबद्दल एखादी मेजवानी तर व्हायलाच हवी. ”
आम्ही नकार देऊनही काकूंनी रेस्टॉरंटमध्ये आईस्क्रीमसह अनेक गोष्टी मागवल्या. नंतर राकेश पैसे द्यायला लागले तेव्हा किकूंनी लगेचच ती नोट त्याच्या हातात दिली आणि म्हणाल्या, “हे घे, हे दिल्याने काय फरक पडतो? ” हे ऐकून आम्ही हसलो, बिल घेऊन आलेल्या वेटरलाही हसू आवरले नाही.
घरी आल्यावर राकेश काकूंना म्हणाले की “तूम्ही इतके पैसे खर्च करायला नको होते”. त्यावर त्या म्हणाल्या, “तुझ्या काकांच्या पश्चात आता मला पेन्शन मिळते. मी एकटी असताना या वयात मी स्वतःवर असा किती खर्च करू? “
त्या बऱ्या झाल्यापासून त्या अनेकदा संध्याकाळी फिरायला जातात. येतांना फळे, भाज्या, दूध, मिठाई आणि इतर अनेक गोष्टी घेऊन येतात. कधीही रिकाम्या हाताने येत नाहीत.
सकाळी आम्ही ऑफिससाठी तयार होत असताना त्या जवळ आल्या आणि म्हणाल्या, “राकेश बेटा, मी आता पूर्णपणे बरी झाली आहे. आता मला परतीचे तिकीट काढून दे. “
हे ऐकून आम्ही दोघेही अवाक झालो. “काय झालं काकू, तुम्हाला इथे काही अडचण आहे का?”
“नाही नाही बेटा, काय अडचण असणार आहे तुझ्या घरात? तरीही मला परतले पाहिजे. दोन महिने झाले, मी तुमच्यावर… ”
हे ऐकताच मी अस्वस्थ झाले, “काकू, आम्ही तुम्हाला खूप नको म्हणतो, तरीही तुम्ही दिवसभर स्वतःच्या मर्जीने का होईना कामात मग्न राहता. “
“नाही नाही सीमा, मी कामाबद्दल बोलत नाहीये. हे काय काम आहे का. बटण दाबले आणि कपडे धुतले. बटण दाबलं, चटणी, मसाला तयार झाला. घराची साफसफाई आणि भांडीकुंडी ची कामे मोलकरीण करते. एका दिवसात असं किती काम असतं? पण बेटा, दोन महिने झाले, किती दिवस मी तुमच्यावर ओझे बनून राहणार? “
ओझे हा शब्द ऐकताच माझे डोळे भरून आले. मी त्यांना मिठी मारली. प्रेमाची अशी प्रतिमा ओझे कसं असू शकते? माझ्या सासूबाईंबद्दल किती चुकीचे विचार होते माझे. माझी काकूंच्या येथे रहाण्याबद्दल काहीच तक्रार नाही. आधी जेव्हा राकेश त्यांच्या इथे राहण्याबद्दल बोलला होता तेव्हा मला खूपच काळजी वाटली होती. पण आता मी त्यांच्याशिवाय जगण्याची कल्पनाच करू शकत नाही. त्यांच्या प्रेम, आशीर्वाद आणि उपस्थितीशिवाय आपण आणि आपलं कुटुंब किती अपूर्ण असेल. रोज संध्याकाळी आमची घरी येण्याची कोण वाट पाहणार? आम्हाला भूक लागली नाही तरी कोण खायला घालणार? एवढ्या बिनशर्त प्रेमाचा वर्षाव कोण आपल्यावर कोणत्याही स्वार्थाशिवाय करेल?
आम्ही दोघांनीही त्यांना स्पष्ट शब्दात सांगितले की त्या आता कुठेही जाणार नाहीत. आता या वयात त्यांनी एकटं राहायचं नाही. आता त्यांनी मथुरेतील घराला कुलूप लावायचे की भाड्याने द्यायचे ही त्यांची मर्जी आहे. त्या आमची जिद्द आणि आमच्या प्रेमाचा अव्हेर करू शकल्या नाहीत.
काकू थोडा विचार करून बोलल्या, ‘‘तुम्ही म्हणता तर तुमच्या जवळच राहीन, पण माझी एक अट आहे. ’’
काकूंना काय म्हणायचं आहे ते मी समजले. मी लगेच म्हणाले, ‘‘तुम्ही एकदा मथुरेला जा, तुमचे काही कपडे, काही आवश्यक सामान घेऊन या. यात अटीची काय गरज आहे. पुढील आठवड्याच्या शेवटी आम्ही दोघं तुम्हाला मथुरेला घेऊन जाऊ. ’’
“ते तर जाईनच, पण तरीही माझी एक अट आहे. “
काकूंनी हे सांगताच मी जरा काळजीत पडले. विचार केला, माहीत नाही त्या काय अट ठेवतील.
मग राकेश म्हणाले, “काकू, अट कशाला, तुम्ही फक्त आदेश करा, तुम्हाला काय हवे आहे?”
आमचे काळजीत पडलेले चेहरे पाहून काकू हसल्या. त्या हसत म्हणाल्या, “हो, ही अट नाहीये, मी इथेच राहावं असं वाटत असेल तर मला लवकर एक नातू द्यावा लागेल, असा माझा आदेश आहे. तुमच्या लग्नाला दोन वर्ष झाली, किती दिवस असेच सडाफटींग रहाणार? “
हे ऐकून आम्हा दोघंही लाजलो. ज्या प्रेमाने आणि अधिकाराने काकूंनी हे सांगितले, त्याबद्दल विचार करावा असे काहीच नाही. काकूंनी आमच्या आयुष्याला नवा अर्थ दिला आहे. मला तर हे कळत नाही की ही ममतेची मूर्ती इतकी वर्षे निपुत्रिक कशी राहिली असेल? आजारपणाच्या निमित्ताने का होईना, ती आमच्यावर प्रेमाचा वर्षाव करण्यासाठी आमच्याकडे आली आहे.
– समाप्त –
मूळ हिंदी कथालेखक : अनामिक
मराठी अनुवाद – मेघःशाम सोनवणे
मो 9325927222
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈