हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 100 ☆ अस्त होना है तय उसे समझो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अस्त होना है तय उसे समझो“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 100 ☆

✍  अस्त होना है तय उसे समझो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

एक तरफ़ा वफ़ा करे कोई

ये तग़ाफ़ुल सहा करे कोई

*

नींद कैसे उड़ा के वो सोता

रात भर जब जगा करे कोई

*

रूह चोला तभी बदलती है

मौत से जब मरा करे कोई

*

ख्वाब साकार होते भवरों के

फूल जब जब खिला करे कोई

*

अस्त होना है तय उसे समझो

सूर्य सा जब चढ़ा करे कोई

*

करना तौबा है इश्क़ से बेहतर

कितना आखिर घुटा करे कोई

*

कब तलक साथ दे रिआया भी

रहनुमा जब छला करे कोई

*

कौन उसको सँभाल सकता है

जब बशर खुद गिरा करे कोई

*

बीच में बोलना बुरा है अरुण

तज़किरा जब किया करे कोई

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – ‘परछाई…’ – ☆ डॉ. कोयल विश्वास ☆

डॉ. कोयल विश्वास

संक्षिप्त परिचय

नाम : डॉ. कोयल विश्वास

संप्रति: असोशीएट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभाग अध्यक्ष, माउंट कार्मेल कॉलेज,स्वायत्त,बेंगलुरू।

प्रकाशित रचनाएं:

  • मौलिक: साहित्यकाश के दो चाँद- बंकिमचंद्र एवं प्रेमचंद( आलोचनात्मक ग्रंथ,2019), मन की खिड़की (कविता संग्रह 2021), गीली मिट्टी की खुशबू (कविता संग्रह 2023), यह तुम्हारा घर नहीं है (कहानी संग्रह 2024)
  • संपादित: कथा कौमुदी, कथा कौस्तुभ, एकाँकी धारा, कथा सरोवर, साहित्य वल्लरी. 
  • अनूदित : The Gazing Damsel Beyond the Canvas (2021), Treading the path of light (2022), Awakening of words (2022), The perfect picture (2023), My Satirical and Humorous stories by Dr. Harish Naval (2023).
  • हिंदी तथा अँग्रेज़ी साझा संकलनों में लगभग 100 कविताएं प्रकाशित तथा पत्र पत्रिकाओं में 30 से भी शोध आलेख प्रकाशित. 

 

☆ ~ ‘परछाई…’ ~ ☆ डॉ. कोयल विश्वास ? ☆

(लिटररी वारियर्स ग्रुप द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कविता। प्रतियोगिता का विषय था >> “परछाइयां” /Shadows”।)

सागर के लहरों पर तैरती

आसमान की परछाई,

स्फटिक से झीलों में अंकित

पहाड़ों की परछाई,

धरती पर घुमड़ती बादलों की

और बादलों पर

पंख फैलाए बाजों की परछाई|

दूर क्षितिज पर लिपटी है जो

कंचन-रजत आभा सी

सूरज से आँख मिचौली खेलती

इंद्रधनुष की परछाई|

मेरे सपनों में तुम्हारी यादों की

और मेरी यादों में

तुम्हारी उम्मीदों की

अगणित रेशमी परछाई

तितलियों के परों सी नाजुक

फूलों की पंखुड़ियों की परछाई

फूलों पर बसे भौरों की

 

और भौरों के गुंजन में

जीवंत उपवन की परछाई|

बंद आखों में उभर आती है

पुतलियों पर अंकित असंख्य परछाई

ठिठुरती पानी के सतह पर तैरते हो जैसे

हिम शृंग की परछाई|

साथ चलने वाले पथिकों के चेहरे पर

अतृप्ति की परछाई;

क्लांत मन मेरा , संवेदना की आस में

जब पीछे मुडकर् देखा,

दिखा केवल बस एक

मेरी ही परछाई|

~ डॉ. कोयल विश्वास

© डॉ. कोयल विश्वास

असोशीएट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभाग अध्यक्ष, माउंट कार्मेल कॉलेज,स्वायत्त,बेंगलुरू।

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “फोटो“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆

✍ लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

मुझे जीवन में एक पत्रिका का संपादक बनने का अवसर मिला। मैं तो बल्लियों उछल गया। लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ का हिस्सा। वाह, वाह अपनी ही पीठ थपथपाने लगा। मेरा जो भी सहयोगी सामने आता तो मैं उससे उम्मीद करता कि वह मुझे बधाई दे, मुझसे नमस्ते करे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।

एक बात अवश्य हुई कि जिन लोगों की लिखने में रुचि थी, उनका मेरे प्रति नजरिया अवश्य बदला और मुझसे संबंध बनाने के प्रयास करने लगे। जो उच्च श्रेणी के थे वे जहाँ मेरा नाम देखते किसी प्रस्ताव आदि पर तो सहमति व्यक्त कर देते। जो बराबर के थे, वे चाय पिलाने की पहल करने लगे, जबकि पहले पूछते भी नहीं थे। और जो नीचे की श्रेणी के थे वे पहले जो काम टाल जाया करते थे, अब प्राथमिकता से करने लगे। रचनाएं आने लगीं। संपादन क्या होता है, मैं अधिक नहीं जानता था। बस लेख आदि के शब्द, वाक्यों को ठीक करना, विषय के अनुरूप भाषा को बनाए रखना और जो विषय से मेल न खाती हो, उसे काट देना। काफी अच्छा लिखने वाले जुड़ते गए और पत्रिका के अच्छे अंक निकलने लगे। चूंकि सरकारी विभाग की पत्रिका थी इसलिए मुझे कड़े निर्देश थे कि सरकार, मंत्री आदि की आलोचना संबंधी कोई लेख आदि नहीं होना चाहिए। एक लेखक, कवि की एक ही रचना प्रकाशित होनी चाहिए।

एक बार एक कवि महाशय आए और अपनी दो कविताएँ एक ही अंक में प्रकाशित करने का अनुरोध करने लगे। कहने लगे कि इस पत्रिका में छपी अपनी कविताएँ लोगों को दिखाता हूँ तो खुश होते हैं और मुझे कवि सम्मेलन में भी बुलाते हैं। मैं यह जानता था कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं और चतुर्थ श्रेणी में काम करते हैं परंतु लेखन और हिंदी के प्रति उनकी रुचि देखकर मन में आया कि प्रकाशित कर दूँ लेकिन यह नियम विरुद्ध था परंतु उनकी जी हजूरी भी कचोट रही थी। जी हुजूरी करने वाले को मैं एक मजबूर लाचार व्यक्ति समझता था इसलिए मैंने बॉस से अनुमति लेकर उस अंक में उनकी दो कविताएं ले लीं। उसके बाद तो वे उसे ही नज़ीर बना कर हर अंक में दो कविताएँ प्रकाशित करने पर बल देने लगे। उनके व्यवहार में परिवर्तन आ गया। कवि होने का दंभ भरने लगे।

 ऐसे ही एक नवोदित लेखक थे। बड़े ही सुंदर अक्षरों में एकदम व्यवस्थित ढंग से निबंध लिखते थे।‌ अपने निबंध में एक अक्षर का भी संशोधन उन्हें बर्दास्त नहीं था। हर निबंध के साथ अपना फोटो और बायो डाटा अवश्य भेजते थे। पत्रिका में लेखक का नाम, पदनाम और पता प्रकाशित करने का नियम था। ऐसा लेखक बहुत बड़ा होता है जिसके निबंध, कविता आदि में कोई भी गलती न हो ऐसा निबंध होना बड़ा मुश्किल था कि उसमें एक वर्तनी भी ग़लत न हो। वर्तनी ठीक करने पर वे लेखक शिकायत करते कि मैं मनमाने ढंग से संपादन करता हूँ। एक बार उनसे किसी बहाने मुलाकात हो गई। मैंने उनके फोटो देखे थे तो उन्हें पहचान गया। पर वे नहीं पहचान पाए। केवल कार्यालय का नाम सुनते ही पत्रिका के संपादक की बुराई करने लगे कि वह अहंकारी और मूर्ख है। हर निबंध के साथ मैं नया फोटो खिंचवा कर अपना आकर्षक फोटो भेजता हूँ पर वह छापता ही नहीं। अब क्या मैं, इतना बड़ा लेखक खुद कहूंगा फोटो छापने के लिए। मेरी ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया न देखकर, उन्हें याद आया कि उन्होंने मेरा परिचय तो जाना ही नहीं सो सामान्य होते हुए मुझसे कह बैठे कि क्षमा कीजिए मैं अपनी ही बातों में बह गया, आपका तो परिचय पूछा ही नहीं। मैंने कहा जी मैं वही नाचीज़ मूर्ख इंसान हूं जिसकी अभी आप तारीफ कर रहे थे। उनके चेहरे का रंग उड़ गया।‌ और जरूरी काम होने का बहाना बना कर चले गए। मैं सोचने लगा कि व्यक्ति में फोटो छपवाने की इतनी लालसा क्यों है?

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ऐसी भी क्या थी बाधा? ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक  भावप्रवण कविता – ऐसी भी क्या थी बाधा?।)

✍ ऐसी भी क्या थी बाधा? ☆ श्री हेमंत तारे  

फिसल जाते हैं लम्हें, दिन, महीने,

साल, दशक,

या

उम्र तमाम

सुलझाने में गुत्थियां,

कुछ उलझनें,

कुछ अनुत्तरित प्रश्न

या

चिन्हें- अनचिन्हें

उत्तर, प्रतिउत्तर ।

 

और फिर,

जब – तब  प्रकट होता है

अप्रत्याशित, यक्षप्रश्न एक

कि

ऐसी भी क्या थी बाधा

या था कोई संकोच

जो

बंध गयी थी घिग्घी,

उस पल, उस घड़ी

कि

रह गया अनकहा,

अपने मन का सच।

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गीत गाया पत्थरों ने ।)

?अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सेहरा, झनक झनक पायल बाजे और लड़की सह्याद्रि की जैसी नृत्य और संगीतमय फिल्मों के निर्माता ने सन् १९६४ में एक और फिल्म बनाई, गीत गाया पत्थरों ने। हमने संगीत का असर देखा नहीं, लेकिन सुना जरूर है। तानसेन का दीपक राग बुझते दीयों को जला देता था और मेघ मल्हार की तो पूछिए ही मत। इसलिए हम तो मानते हैं कि जब पत्थर दिल इंसान भी पिघल सकता है, तो पत्थर गीत क्यों नहीं गा सकते।

यह फिल्म हमने भी देखी थी। थिएटर पुराना था, पंखे खराब थे, और सीटें फटी हुई। दर्शक फिल्म देखकर जब बाहर निकले, तो यही गीत गा रहे थे, काट खाया मच्छरों ने।।

तब घरों में कहां टीवी मोबाइल थे, एक अदद रेडियो अथवा ट्रांजिस्टर था, जिसकी आवाज सभी सुन सकते थे। रेडियो पर इसी फिल्म का शीर्षक गीत बज रहा था, और मेरे साथ मेरी पांच वर्ष की बिटिया भी गीत सुन रही थी। अचानक गीत खत्म हुआ और उद्घोषिका की आवाज सुनाई दी, अभी आपने सुना महेंद्र कपूर को, फिल्म गीत गाया पत्थरों ने।

पांच साल की उम्र इतनी छोटी भी नहीं होती, लेकिन कच्ची जरूर होती है। बिटिया अचानक चौंकी और प्रश्न किया, पापा ! गीत तो पत्थरों ने गाया था, और रेडियो वाली कह रही है, यह गीत महेंद्र कपूर ने गाया है। मैने उसे प्यार से समझाया, बेटा, वह तो फिल्म का नाम था, जिसका गीत गायक महेंद्र कपूर ने गाया है।

तब बच्ची जरूर समझ गई होगी लेकिन मेरे लिए एक प्रश्न खड़ा कर गई।।

मैं नहीं मानता, पत्थर बोलते हैं अथवा गीत गाते हैं। होती है पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा और पत्थर भगवान हो जाता है, मंदिरों में स्थापित हो जाता है। मंदिर में उसी पत्थर की पूजा होती है, लोग उसके सामने हंसते गाते, भजन कीर्तन करते, अपना दुखड़ा रोते, चिल्लाते, गिड़गिड़ाते हैं। चूंकि वह अब पत्थर नहीं भगवान है, उसे पिघलना पड़ता है, भक्त की सुननी पड़ती है, उसका दुख दर्द दूर करना पड़ता है।

केवल एक प्राण प्रतिष्ठा से जब पत्थर भगवान बन सकता है तो इस इंसान में तो स्वयं भगवान ने ही प्राण फूंके हैं, प्राण की प्रतिष्ठा की है, तो क्या हम सिर्फ इंसान भी नहीं बन सकते !

मेहनत से इंसान जाग उठा और जागेगा इंसान जमाना देखेगा, जैसे गीत भी महेंद्र कपूर ने ही गाए हैं। जागने की बात आज भी हो रही है, लेकिन एक नेकदिल इंसान होने की बात कोई नहीं कर रहा। हमसे तो वह पत्थर ही भला, जो जड़ है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। कहीं से एक इंसान आता है, उसे उठाता है, और किसी मासूम का सिर फोड़ देता है। शायद तब ही पत्थर पिघला, पसीजा होगा और उसने दर्द भरा गीत गाया होगा। गीत गाया पत्थरों ने।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 63 – मां की कीमत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मां की कीमत।)

☆ लघुकथा # 63 – मां की कीमत  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मां हम ऑफिस से आते हुए होली के लिए बाजार से गुजिया और सामान ले आएंगे तुम घर में परेशान मत होना तुम बेकार बनाती हो पास में एक अच्छी दुकान है वहां भी एकदम घर जैसी गुजिया मिलती है अरुण ने अपनी मां को कहा।

बेटा तुम और बहू दोनों व्यस्त रहते हो मैं घर में सारा दिन क्या करूं तो सुबह तुम्हारा टिफिन बनाने के बाद मैं बनाकर रख लूंगी फालतू पैसे क्यों खर्च कर रहे हो।

माँ तुम पैसों की चिंता मत करो आखिर हम दोनों काम क्यों रहे हैं?

मां रोमा तो ऑफिस चली गई है अब मैं जा रहा हूं।

शाम को रोमा और अरुण दोनों गुजिया, गुलाल और होली के लिए ढेर सारा  सामान लेकर घर आए।

अरुण – “पास में जो दुकान खोली है वहां कितना अच्छा सामान मिलता है मां जी आप खा कर देखो। एकदम तुम्हारे हाथों का स्वाद लग रहा है मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है।”

कमला ने कहा – “मैं तो बनाती हूं तो तुम लोग नाक मुंह सिकुड़ते हो और अच्छा नहीं लगता अब बाजार से लाए हो तो कह रहे हो कि घर जैसा है।”

तभी अचानक दुकान का मालिक घर में आता है।

“कमला आंटी आप तो बिल्कुल मेरी मां की तरह हो आपके कारण मेरी दुकान चल निकली । होली के लिए कुछ और गुजिया  बनाना है मैं माफी चाहता हूं आपको आकर तकलीफ दे रहा हूं आप चाहे तो मेरी दुकान में आकर बस आपकी निगरानी में  दुकान में काम करने वाले लोग बना देंगे। क्या-क्या सामान चाहिए ? आप पूरी लिस्ट बना दो आंटी।”

“अरे आप लोग तो अभी थोड़ी देर पहले ही मेरी दुकान में आए थे आपने यह क्यों नहीं बताया कि आप आंटी के बच्चे हो। और हंसते हुए कहा हर बच्चों का यही हाल है अपनी मां की कीमत नहीं जानते।”

बहू नाराज होकर बोली – “मां आपको यदि काम करना ही था कुछ तो हमें बताया होता।  इस तरह बेइज्जती तो ना करती सबके सामने । क्या हम आपको अच्छे से नहीं रखते ?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 264 ☆ लावणी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 264 ?

लावणी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(लावणी ही महाराष्ट्राची लोककला आहे. लावणी पारंपरिक, आकर्षक नृत्यप्रकार आहे, नर्तकीचे पदन्यास, हातांच्या हलचाली आणि मुद्राभिनय मोहक असतात, लावणी नृत्यात गीत आणि संगीताला फार महत्त्व आहे! पूर्वीच्या काळी लावणी, तमाशा ही उपेक्षित कला होती, पण नंतरच्या काळात तिला लोकमान्यता व लोकप्रियता मिळाली! सध्या लावणी महिला वर्गातही आवडीने पाहिली ऐकली जाते! )

माझ्या पायात काटा रुतला बाभळीचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥धृ॥

*

पांदी पांदीनं चालले होते

पायी पैंजण घातले होते

नाद छुनुकछुन बाई घुंगरांचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥१॥

*

वय नुकतंच सरलंय सोळा

साऱ्या गावाचा माझ्यावर डोळा

जीव जळतोय साऱ्या पाखरांचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥२॥

*

शेळ्या घेऊन गेले शेतात

चुडा राजवर्खी हातात

किणकिण आवाज झाला कांकणाचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा॥३॥

*

माझी चाहूल त्याला गं लागली

शेरडं रानात साऱ्या पांगली

लांडगा झालाय आता त्यांच्या ओळखीचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा॥४॥

*

माझ्या बांधाला त्याचा बांध

चार एकरात केल्यात कांदं

खिसा भरलाय नोटांनी सदऱ्याचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥५॥

*

त्याच्या बाभळीशी गेले नादात

काटा कचकन रुतला पायात

काटा काढताना डोळा लवला द्वाडाचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥६॥

*

छेडाछेडीत विपरीत घडलं

अन काळीज असं धडधडलं

मी वायदा केलाय रोज भेटण्याचा

त्यानं फायदाच घेतला या संधीचा ॥७॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ काही रुचणे काही नडणे… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ काही रुचणे काही नडणे☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆  

असतो जरी फुकाचा सल्ला कुणा न रुचतो

ऐकेल का बरे तो सल्ला तयास नडतो

*

मौलिक विचार सारे काव्यात शोभणारे

गजरा जसा फुलांचा केसात छान खुलतो

*

शिकलीय आज नारी नूतन विचार आले

कौतुक पगार घेतो खोटा विचार ठरतो

*

बदलेल का युगांती पण माय आणि आजी

देण्यास देव काही ओटी तिचीच भरतो

*

सोडून देत असता मृत्यू इथेच सारे

सौभाग्य दागिन्यांचे का तोच नेत असतो

 

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ होळी… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

? कवितेचा उत्सव ?

☆ होळी… ☆ सुश्री त्रिशला शहा

माघामधली थंडी सरली

फाल्गुनातल्या होळीला

जुने पुराणे हेवेदावे

जाळून टाकू आजमितीला

*

उत्साही अन् आनंदाचा

रंगपंचमी उत्सव रंगाचा

रंग उडविता पिचकारीने

रंगात सारे रंगून गेले

*

नीळा, जांभळा, केशरी, हिरवा

रंगांच्या किती सुंदर छटा

इंद्रधनू जणू अवचित आले

धरणीवरती अलगद उतरले

*

तप्त उन्हाळा शांत झाला

रंगांच्या शिंपणाने अवघा

जाती धर्म विसरुन सारे

एक रंगी रंगून गेले

©  सुश्री त्रिशला शहा

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आनंदी मन, आनंदी तन, आनंदी  जग… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

आनंदी मन, आनंदी तन, आनंदी  जग ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

एकेकाळी भारतात औषध म्हणूनही उपलब्ध नसलेला मानसिक आजार नावाचा रोग आता जवळजवळ प्रत्येकाच्या पाचवीला पुजल्याप्रमाणे डोके वर काढू लागला आहे. याला जबाबदार कोण ? अमेरिका, इंग्लंड की अन्य कोणी ? बघा, विचार करा ?

याला अनेक गोष्टी जबाबदार आहेत असे आपल्या लक्षात येईल.

* आधुनिक जीवनपद्धती,

* विभक्त कुटुंब व्यवस्था,

* हातात खेळणारा पैसा,

* मी कसा आहे हे दिसण्यापेक्षा मी  कसा असायला हवा हे दाखवण्याची अहमहिका आणि त्यातून स्वतःच निर्माण केलेली अनावश्यक स्पर्धा,

  • नकार पचविण्याची कमी होत चाललेली क्षमता,
  • मुलांना फुलझाडांसारखे न वाढवता फुलांसारखे जपणे,
  • सनातन वैदिक परंपरांबद्दल अनादर…,
  • सामाजिक माध्यमांचा अति आणि गैरवापर, स्वतःची क्षमता न पाहता स्वतःकडून ठेवलेल्या अनावश्यक अपेक्षा
  • वस्तुस्थिती स्वीकारण्याची तयारी नसणे.
  • व्यायामाचा अभाव
  • आधुनिक तंत्रज्ञानामुळे शाररिक हालचालींवर आलेली मर्यादा.

* अनावश्यक आणि चमचमीत अन्नपदार्थ

* अमली पदार्थांचे सेवन

* वेदना शामक गोळ्यांचा अतिवापर

* स्टेटस जपण्याची स्पर्धा

यात आपण आणखी काही मुद्दे जोडू शकाल…

मागील दहा वर्षांचा अभ्यास केला तर हृदयरोग आणि हृदयाला झटका  येऊन गेला आहे अशा लोकांचे प्रमाण वाढत आहे. यात प्रामुख्याने ४५ ते ६० या वयोगटाचे प्रमाण जास्त आहे. आपल्या कुटुंबात अथवा मित्रपरिवारात कोणाला तरी हृदय विकार असेल किंवा कधीतरी झटका येऊन गेल्याचे आपल्याला स्मरत असेल. त्यावेळी त्यांची झालेली मानसिक, शाररिक, भावनिक आणि आर्थिक घालमेल आणि ओढाताण आपण पाहिली असेल….

 मानसिक आरोग्य उत्तम असणे ही निरामय जीवन जगण्यासाठी  अत्यावश्यक आहे.

 आपण समस्या पाहिली, आता यावर उपाय पाहूया.

  1. स्वतः का प्रश्न विचारा. आपल्याकडे सुख, समाधान, शांती आहे का ?
  2. मेंदू सशक्त हवा त्यासाठी मन आरोग्य महत्वाचे.
  3. शांत मन, चिडचिड नको, मानसिक आरोग्य यासाठी आनंदी रहावे
  4. छोट्या गोष्टीत आनंद शोधा.
  5. सुखाच्या मागे धावल्याने आजचे सुख गमावताय.
  6. प्रेमाच्या माणसांबरोबर वेळ घालवा.
  7. काळजीत वेळ घालवू नका.
  8. छंद जोपासा.
  9. मन मोकळे करा, नंतर करु असे नको.
  10. पक्षांचे (BIRDS’) आवाज आनंदी करते.
  11. सकाळी फिरायला जा.
  12. योग, प्राणायाम व ध्यान.
  13. हसतमुख रहा/ Be Cheerful
  14. मेंदूचे दोन्ही भाग वापरा कलागुण यात येते. LEFT side of BRAIN is for ROUTINE ACTIVITIES & RIGHT SIDE of BRAIN is for CREATIVE ACTIVITIES. Make more use of Right side of brain.
  15. मन मोकळे करा, मनांत काही ठेऊ नका.
  16. आध्यात्मिक विकास व्हावा ही काळाची गरज यासाठी म्हातारपणाची वाट बघू नका.
  17. शांत झोप ही हेल्दी मनाची पायरी.
  18. आत्मपरीक्षण/ Think on your DAILY ACTIVITIES. Is there any room for improvement ? मोबाईल ऊठल्या ऊठल्या नको. मोबाईल मेंदू दुषीत करतो.
  19. मनावर नियंत्रण ठेवण्यासाठी श्लोक म्हणा, किंवा Utube वर लावा. त्यामुळे मेंदूत चांगल्या लहरी तयार होतील.
  20. नकारार्थी विचार मेंदूला दूषित करतो. 21. सकारात्मक विचार रुजवा Negative विचार दूर करा.
  21. कंटाळा हा शब्दच नको. सतत स्वत:ला कार्यमग्न ठेवा.
  22. दैवी गुण रुजवणे आवश्यक. असुरी गुण नको.
  23. मनाचे श्लोक आत्मसात करा. , रोज किमान १० श्लोक म्हणा.
  24. श्रध्दा व ऊपासना महत्वाची.
  25. रोज तुमचा आरसा (मनाचा) स्वच्छ ठेवा. Stay away from Negativity.
  26. चांगले वाचन करा. मन प्रसन्न राहील.
  27. मेंदूचा वापर सतत असावा.
  28. रोज किमान चार ओळी लिहीत जा. दिसा माजि काही लिहीत जावे…
  29. मागण्या कमी ठेवा. मन आनंदी राहील.
  30. रोजच्या रोज वेळेचे नियोजन करा
  31. एकावेळी एकच काम लक्षपूर्वक करा याने मेंदूतील झिज कमी होईल.
  32. वर्तमानात जगा. भूतकाळाचा व भविष्यकाळाचा विचार नको.
  33. अनुभवातून शिकणे हवे. पण त्याचा बाऊ नको.
  34. वाईट विचारांना तिलांजली व चांगल्या विचारांना चालना.
  35. चढउतार (IN LIFE) पचवणेची क्षमता वाढवा.
  36. मी काही चूकीचे करतोय का ? स्वत:ला विचारा. मनाचे ऐका.
  37. पैशांच्या मागे नको. झोप उडेल व मन दुःख:ी होणार. पैसा आवश्यक असेल तेवढाच हवा. (MONEY: साध्य नसून साधन).
  38. SHREESUKTA पठण व आत्मसात करा. KNOW THE REAL MEANING OF “LAKSHMI”.
  39. TRY TO BE A MAN OF VALUE NOT JUST A MAN OF SUCCESS.
  40. चांगली मुल्ये आनंदी करतात.
  41. श्रेयसाची वाट धरा. PREYAS will give you a short pleasure.
  42. रागावर नियंत्रण. मेंदूचे रसायन बदल. ANGER causes Mental as well as Physical imbalance.
  43. खरं बोलणे पालन. खोटे बोलणे मुळे ऊपयुक्त रसायनांत बदल.
  44. संस्कार जतन, चूक काय व बरोबर काय याकडे लक्ष हवे. सोंग नको. मनाला विचारणा करा.
  45. नात्यांचा आदर करा. एकी ठेवा. एकीतच बळ आहे. बंधनातच आनंद असतो.
  46. ध्यानधारणा करा व मेंदूला आराम द्या. PRANAYAM, YOGA & MEDITATION play an important role in keeping your brain cells healthy by producing dopamine like chemicals.
  47. आईवडिलांवर प्रेम करा व आदर करा.
  48. भावनांचा दिखावा नको. फसवू नका.
  49. नातेसंबंध दृढ करा. आपल्या आवडत्या लोकांबरोबरच रहा नावडत्यांना दुर ठेवा. Nurture Relationships.
  50. परस्परावर विश्वास ठेवा.
  51. लोकांचे आवडते बना.
  52. सॉरी म्हणायला शिका.
  53. जबाबदाऱ्या जाणा.
  54. गैरसमज टाळा. “आपणच बरोबर” हे नको. दुसऱ्याचे म्हणणे ऐका. आत्मपरीक्षण करा.
  55. विवेकाने वागायला शिका.
  56. माणूस बनायला शिका प्राणी नको.
  57. बुध्दीचे मनावर नियंत्रण हवे.
  58. मेधा, मती, प्रज्ञा, ऋता हे आचरण.
  59. चांगला दृष्टीकोन हवा.
  60. व्यक्त व्हा…. !
  61. मन आनंदी तर हृद्य आनंदी…. !
  62. सत्संगती

देवावर विश्वास ठेवा, आजपर्यंत ज्याने सांभाळले तो पुढेही सांभाळेल हा विश्वास मनाला उभारी देईल… !

मन करा रे प्रसन्न ।

सर्व सिद्धीचें कारण ।

मोक्ष अथवा बंधन ।

सुख समाधान इच्छा ते ॥१॥

*

मनें प्रतिमा स्थापिली ।

मनें मना पूजा केली ।

मनें इच्छा पुरविली ।

मन माउली सकळांची ॥ध्रु. ॥

*

मन गुरू आणि शिष्य ।

करी आपुलें चि दास्य ।

प्रसन्न आपआपणास ।

गति अथवा अधोगति ॥२॥

*

साधक वाचक पंडित ।

श्रोते वक्ते ऐका मात ।

नाहीं नाहीं आनुदैवत ।

तुका म्हणे दुसरें ॥३॥

 *

–  जगद्गुरु श्रीतुकाराम महाराज

 सर्वांनी आपापले मानसिक आरोग्य उत्तम राखण्याचा प्रयत्न करावा. आपल्याला प्रयत्नांना प्रभू श्रीरामांनी सहाय्य करावे अशी प्रार्थना मी त्यांच्या चरणी करीत आहे.

आपला

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

विशेष आभार :- या लेखास नाशिक येथील जगप्रसिध्द न्युरोलोजिस्ट डॉ. महेश करंदीकर यांच्या एका भाषणाचे सहाय्य झाले आहे.

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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