हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #42 – गीत – अमराइयों के गाँव… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतअमराइयों के गाँव

? रचना संसार # 42 – गीत – अमराइयों के गाँव…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 गीत

 प्राण से प्यारे हमें सच्चाइयों के गाँव।

गंग से पावन सुनो अच्छाइयों के गाँव।।

 

प्रेम अरु करुणा भरी सदभाव की है तान,

मील के पत्थर बने हैं देख इसकी शान।

खोट वादों में नहीं छल छंद से हैं दूर,

नित नयी सौगात मिलती प्रेम से भरपूर।।

भोर की उतरी किरण अँगनाइयों के गाँव,

 *

मीत चहके कोकिला मधुकर करे गुंजार।

खिल रहा कचनार है फागुन करे मनुहार।।

फूलती सरसों यहाँ धरती करे शृंगार।

झूमता महुआ बड़ा मादक हुआ संसार।।

अब महकते देखिए अमराइयों के गाँव।

 *

प्रीति की गागर लिए वह रूपसी गुलनार।

लाज – बंधन में बँधी भूले नहीं संस्कार।।

सभ्यता जीवित अभी होता सदा आभास।

हैं शिवाला भी यहाँ पर और है विश्वास।।

आस की गठरी लदी पुरवाइयों के गाँव।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #269 ☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपका एक भावप्रवण गीत यही जज्बात दिल में हैं…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 269 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मुझे मजबूर करते हो

मगर तुम सुन नहीं सकते।

मेरे नैनों की भाषा को ,

कभी तुम पढ़ नहीं सकते।

*

यही जज्बात दिल में हैं,

जिसे समझा नहीं तुमने।

तुम्हारी राह तकती हूँ,

मगर तुम आ नहीं सकते।

*

मुझे अब दर्द सहना है,

जिसे तुम छू नहीं सकते।

मेरी गलियों से गुजरे हो,

मगर तुम रुक नहीं सकते।।

*

मुझे मिलना है तुमसे अब,

कभी क्या मिल नहीं सकते।

ख्वाबों में ही मिलते हो,

जिन्हे हम पा नहीं सकते।।

*

मिलन के रंग लाया हूँ ।

मगर तुम छू नहीं सकते।

तेरी बातों में जादू है

मुझे बहला नहीं सकते।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ~ ‘बदली सी परछाईं…’ ~ ☆ डॉ अंशु शर्मा ☆

डॉ अंशु शर्मा

 

(डॉ अंशु शर्मा नई दिल्ली की निवासी, एक सरकारी सेवा निवृत्त एलोपैथिक चिकित्सक हैं। उन्होंने दिल्ली के प्रख्यात लेडी हार्डिंग कॉलेज से स्नातक और दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की, तत्पश्चात् सीजीएचएस में क़रीब ३० वर्ष, एवं केंद्रीय स्वास्थ्य सेवा निदेशालय में Public health officer के पद पर ९ वर्ष कार्यरत रहने के बाद २०२२ में निजी कारणों से सेवानिवृत्ति ले ली थी। उन्हें द्विभाषीय कविताये ( हिन्दी और अंग्रेजी में ) लिखने में क़रीब १२ वर्षो का अनुभव हैं और उनकी हिन्दी कविताओं की पुस्तक “अंतर्मन के संवाद” २०२० में प्रकाशित हो चुकी है।)

☆ ~ ‘बदली सी परछाईं…’ ~ ☆ डॉ अंशु शर्मा ? ☆

(लिटररी वारियर्स ग्रुप द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पुरस्कृत कविताप्रतियोगिता का विषय था >> “परछाइयां” /Shadows”।)

मेरी परछाईं कुछ बदल सी गई है,

यह भी ज़िंदगी की मानिंद कुछ ठहर सी गई है ।

अब मैं भी अपनी परछाईं को अधिक अनुभव कर पाती हूँ,

आत्मचिंतन के लिये समय निकाल पाती हूँ।

 

पहले सबके खुश होने का इंतज़ार रहता था,

तब सुपरवुमन बनने का जुनून रहता था।

अब मैंने अपनी गति से समझौता कर लिया है,

सबको हर वक्त खुश न रख पाने के भाव को मान लिया है

 

पहले मेरा अपने शरीर के हर उतार- चढ़ाव पर ध्यान रहता था,

अब मन के हर कोने में झांकने का प्रयास है बना रहता।

मैं कब उम्र के इस मुक़ाम पर आ पहुँची , पता ही नहीं चला,

कब मेरी परछाईं मुझे पीछे छोड़ आई, पता ही नहीं चला।

 

कब ये वक़्त की गहरी लकीरें , चेहरे पर छा गयीं,

कब रिश्तों की नाज़ुक ज़ंजीरें, हाथ छुड़ा आगे निकल गईं।

कहाँ रह गए सपनों से सुहाने वो हसीन पल,

कब बदला सब, समझा नहीं अंतर्मन ये कोमल।

 

शायद समय का नियम है ये पूरा बदलाव ,

पर मन कहाँ माने, यह सूना सा ठहराव ।

तलाशता रहता है वही पुरानी कहानी, वो प्यारी अंगड़ाई,

वो मीठी सी चुभन, वो लम्हे, वो भावनाओं की गहरायी।

 

किंतु, आज तो हुई अपनी ही परछाईं पराई,

मैं ख़ुद बदल गई या फिर हम से सभी लोगों की है क़िस्मत यही ।

आज हो गई है अपनी ख़ुद की परछाईं मुझसे अनजान,

और लगती है कुछ अजनबी सी, मुझसे पराई!

 

कल जो थी रौशनी में जगमग, आज है अंधेरे में गुम तन्हाई,

जिन साथियों संग चली थी मैं, पीछे चली थी परछाई ।

आज उन सबके साथ हुआ मेरा, समय का उलटफेरा,

परछाई भी नहीं देती साथ, बदलाव का रंग ऐसा बिखेरा ।

~ डॉ अंशु शर्मा

© डॉ अंशु शर्मा

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 633 ⇒ खुदकुशी और जिजीविषा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुदकुशी और जिजीविषा ।)

?अभी अभी # 633 ⇒  खुदकुशी और जिजीविषा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिंदगी के कई रंग रूप हैं ;

तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं

वापस बुला ले, मैं सजदे में गिरा हूं

मुझको ऐ मालिक उठा ले..

अब एक रंग यह भी देखिए ;

जिंदगी कितनी खूबसूरत है जिंदगी कितनी खूबसूरत है

आइए, आपकी जरूरत है।।

आज फिर जीने की

तमन्ना है,

आज फिर मरने का

इरादा है ;

ऐसी तमन्ना और इरादा सिर्फ गीतकार शैलेन्द्र का ही हो सकता है। यूं तो एक आम आदमी, रोज जीता और मरता है, लेकिन वह कभी खुदकुशी करने की नहीं सोचता। मेरा नाम जोकर में यही बात शैलेन्द्र के साहबजादे शैली शैलेन्द्र ने भी दोहराई है ;

जीना यहां मरना यहां

इसके सिवा जाना कहां।।

इंसान भी अजीब है। एक तरफ वह कहता है, गम उठाने के लिए मैं तो जिये जाऊंगा, और अगर उसे अधिक खुशी मिले तो भी वह कह उठता है, हाय मैं मर जावाँ।।

प्यार में लोग साथ साथ जीने मरने की कसमें खा लेते हैं, अगर दिल टूट गया तो कह उठे, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, और अगर खोया प्यार मिल गया तो;

तुम जो मिल गए हो,

तो ऐसा लगता है

कि जहान मिल गया।।

सुख दुःख और आशा निराशा के इस सागर में कोई डूब जाना चाहता है, तो कोई किनारा चाहता है। हाथ पांव सब मारते हैं, किसी की नैया पार लग जाती है, तो कोई मझधार में ही डूब जाता है। माझी नैया ढूंढे सहारा।

खुशी खुशी कौन खुदकुशी करता है, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार आत्महत्या पाप है, और कानून के अनुसार एक अपराध। एक ऐसा अपराध जिसका प्रयास तो दंडनीय है, लेकिन अगर प्रयास सफल हो गया, तो कानून के हाथ बंधे हैं।।

एक फौजी जब सरहद पर हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर करता है, तो यह वीरता कहलाती है और उसे शहीद का दर्ज़ा दिया जाता है तथा संसार उसे नमन करता है।

जापान में हाराकिरी को एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अभ्यास के रूप में देखा जाता है, लेकिन आजकल यह भी वहां वैध नहीं है। जब जन्म पर आपका अधिकार नहीं है तो क्या मौत को इस तरह गले लगाना, ईश्वरीय विधान को चुनौती देने की अनधिकार चेष्टा नहीं। अगर आप खुद को इस तरह दंडित करते हो, ऊपरवाला इसको अमानत में ख़यानत का अपराध मान कठोर दंड देता है। वहां कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं, कोई राष्ट्रपति नहीं जो आपका अपराध माफ कर दे।

दुख दर्द, शारीरिक और मानसिक कष्ट एवं भावनात्मक आवेग के वशीभूत होकर कोई भी व्यक्ति खुदकुशी के लिए प्रेरित हो सकता है, लेकिन जीने की चाह, जिसे जिजीविषा कहते हैं, हमेशा उसे ऐसा करने से रोकती रहती है। कीड़े मकौड़ों और पशुओं से हमारा जीवन लाख गुना अच्छा है। पशु पक्षियों में जंगल राज होते हुए भी, कोई प्राणी स्वेच्छा से मौत के मुंह में जाना पसंद नहीं करता। मूक प्राणियों की तुलना में मनुष्य अधिक सभ्य और सुरक्षित है। जब एक गधे को भी अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं, तो वह इंसान गधा ही होगा जो खुदकुशी करने की सोचेगा।।

आज के भौतिक युग में कुंठा, संत्रास, अवसाद अथवा मादक पदार्थों के सेवन के प्रभाव से भी व्यक्ति आत्मघाती प्रवृत्ति का हो जाता है। नास्तिकता और विकृति के कारण कई युवा अपनी जान गंवा बैठते हैं।।

सकारात्मक सोच और विवेक के अभाव में फिर भी किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आ जाते हैं, कि क्षणिक आवेश में वह अपनी इहलीला समाप्त कर बैठता है। यह एक ऐसा गंभीर जानलेवा कदम है, जो कभी वापस नहीं लिया जा सकता। यहां कोई भूल चूक लेनी नहीं, किसी तरह का भूल सुधार संभव नहीं।

अगर जीवन में एकांत है तो नीले आकाश और उड़ते पंछियों को निहारें, फूल पौधों और तितलियों से प्यार करें।

कहीं कोई नन्हा सा बच्चा दिख जाए, तो उससे बातें करें। बच्चों से आप ढेर सारी बातें कर सकते हैं। बच्चे कभी नहीं थकते क्योंकि बच्चों में ही तो भगवान होते हैं। अपने से कमजोर, अधिक दुखी और त्रस्त इंसान से प्रेरणा लें।

आखिर वह भी तो जिंदा है ;

एक बंजारा गाए

जीवन के गीत सुनाए।

हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #251 ☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका – एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 251 ☆

☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हमें  गधा  कहते   हैं   सारे

हम  हैं  लम्बी   मूंछों   बारे

सहज सरल स्वभाव हमारा

हम  पर  बोझा  डालें  सारे

*

गधा हमें  धोबी का  समझें

कान  हमारे  जबरन  उमठें

ढेंचू  ढेंचू कह कर  फिर भी

लाद  पीठ  पर  चलते प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

*

रखता  सबसे  वो   है  यारी

पर अफसोस गधा को भारी

एक अरज करता  है  सबसे

कहिए गधा मुझे  मत  प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 244 – गझल – आकाश भावनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 244 – विजय साहित्य ?

☆ गझल – आकाश भावनांचे…! ☆

आकाश भावनांचे गझले तुझ्याचसाठी,

हे विश्व आठवांचे मतले तुझ्याचसाठी…! 

  *         

आकाश बोलणारे जमले तुझ्याचसाठी,

हे पंख, ही भरारी, इमले तुझ्याचसाठी…!

 *   

माणूस वाचताना, टाळून पान गेलो.

काळीज आसवांचे, तरले तुझ्याचसाठी..!

*

सारे ऋतू शराबी, देऊन झींग गेले

प्याले पुन्हा नव्याने, भरले तुझ्याचसाठी..! 

*

हा नाद वंचनांचा , झाला मनी प्रवाही

वाहतो कुठे कसा मी?, रमलो तुझ्याच साठी..!       

*

जखमा नी वेदनांची,आभूषणे मिळाली

लेऊन  साज सारा, नटलो तुझ्याचसाठी..!

*

काव्यात प्राण माझा, शब्दांत अर्थ काही

प्रेमात प्रेम गात्री, वसले तुझ्याचसाठी..!

*

आयुष्य सांधताना,जाग्या  अनेक घटना

हे देह भान माझे हरले तुझ्याचसाठी…!

*

कविराज रंगवीतो, रंगातल्या क्षणांना

चित्रात भाव माझे, उरले तुझ्याचसाठी..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंगांचं रूप… ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंगांचं रूप… ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

रंग विस्कटलेला समाज

होळीचा रंग उधळतोय

बेगडी संस्कृती

परंपरा जोपासतोय

*

रंग येतील ही……

गळ्यात गळे घालून

घ्यावी लागेल त्यांची

अस्मिता तपासून

*

रंग स्वतःमध्ये रंगलेले

कोणी ओरबडले…

वेगळे केले…..

विभागात वाटून दिले

*

रंग झाले

अक्राळविक्राळ

आक्रमक

घोषणा देणारे

आपले गट पोसणारे

*

भिती वाटते

रंगाना आपलं म्हणणं

त्यापेक्षा सोयीचे असेल

रंगहिन असणं

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंगपंचमी… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंगपंचमी☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

रंगू दे

रंगात तुझिया

शाश्वत अशा

आत्मानंदात….

*

रंगू दे

रंगात तुझिया

बोधाच्या अशा

नितळ झ-यात…

*

रंगू दे

रंगात तुझिया

उत्कट अशा

निर्व्याज प्रेमात…

*

रंगू दे

रंगात तुझिया

सेवा, त्यागाच्या

निर्भेळ वृत्तीत…

*

रंगू दे

रंगात तुझिया

मी ने व्हावे वजा

सदैव राहो शून्यात…

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “पळा पळा कोण पुढे पळे तो…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “पळा पळा कोण पुढे पळे तो…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

अरं पळा पळा.. त्यो राक्षस किंग कोहली मैदानावर आला… आपली काही खैर नाही आता… आता विमानतळाकडं पळत पळत जायला हवं… अन असेल त्या विमानात लपून बसायला पाहिजे… त्या पायलटला आपून पंधरा जण खेळणारं आनी बाहीर बसून नुसत्याच टाळ्या वाजिवनार दहा जनं मिळून वर्गणी काढूया आनि त्या इमान पायलटला सांगूया आधी इथनं इमान उडीव.. तुला लांब कुठं नेता येईल तिकडचं आमास्नी घेऊन जा… पण परत कराचीकडं इमान या जन्मात उतरवू नकोस.. घराची पन याद येनार नाही अश्या ठिकानी नेऊन सोडं.. काय तु मागशिल तेव्हढा पैका देतू हवा तरं… खेळायच्या मैदानात ते इंडियावालं काय पिऊन येतात कूणास ठावं…  ती आय सी सी कुठलीबी मॅच भारत इरुध पाकिस्तान असू दे..जित भारताची ठरलेली असतीया.. थोडा थोडका न्हाई सात वेळेला मार खाल्ला आम्ही..तरीबी एक डावं बी जितायचं नाव न्हाई.. आमच्या देशात काय आम्हाला जीतं ठेवतं नाहीत..म्हणून आम्ही जितं राहाण्यासाठी   परदेशात राहतुया…कुणाला न कळत…पन मॅचच्या वेळेला पीसीबी वालं आम्हालाचं हुडकून काढतात आनि घोड्यावर बसवतात…मनातनं आम्ही कवाचं हारलेलो असतो भारताच्या विरुद्ध खेळायचं म्हंजे…परवा बी खेळ सुरू झाला तवा आमचा डाव असा असा रंगात येऊ लागतो  माशाल्ला असं वाटतं वारे गब्रू खेळावं तर असं अन समोरच्याला खेळवावं तर ते बी असं… जोरजोराने टाळ्या वाजवून नि आरोळ्या मारून लै दंग्याचा धुरळाच पाडत असतो स्टेडियम मधी … पण हे काय मधीच भलतं झालं.. खेळ सुरू झाला नाही तोवर इकडं इकेट बी पडाया लागल्या कशा.. अरं तू अंपायर कुनाच्या बाजून हायीस…  आपलं काय ठरलेल्या हुतं त्यांच्या बॅंटींगच्या येळेला आम्ही तुला इचारनार अल्ला कुठं असतो.. तवा तू नसतं बोटं वर करून सांगायचं  .. बाकीचं आम्ही सांभाळून घेतू… आणि आमच्या बॅंटींगच्या येळेला एकदा हात आडवा नि एकदा उभा असा व्यायामं करायचा.. पन गड्या तशी येळचं आली न्हाई… आता हैका जगाच्या पाठीवर कुठं बी गेलो तरी बी हुडकून ही जनावरं आपल्या मारणार आपल्याच देशात आपल्याला जगायची चोरी.. चोरी नव्हे फाशीच देनार त्ये… आवं  तिथं साध्या चार वर्षांच्या पोराकडं एके असतीया खेळायला…त्याचं जो ऐकनार नाही आनी जो  गेम मधी जिंतनार नाही त्याचा गेम केलाच म्हणून समजा त्यानं… व्हय रं त्या विराटलाच एकदा इचारून बघता काय… म्हनावं तुझ्याच देशात आम्हास्नी थारा देतोस काय.. हे काळं तोंड लपवाया… विराटच एक मानुस असा हायं त्येच्यात ख्योळ बी हायं नि मानुसकी बी… आपल्या इथं काय हायं.. रोजचं जगायचं इथं वांद असतात.. तिथं असला सपाटून मार खाल्यावर आमचं मढं तरी शिल्लाक ठुतील म्हनतासा… नाव नको… अरं पळा पळा ती राक्षसी सेना  विराट कोहली वाली नव्हं तर आपलचं जातभाई यायला लागलेती… तवा धुम शेपुट घालून जोशात पळा… वाट फुटंल तसं पळा..  जी दिशा गावंल तिकडं पळा.. पण माघारी कराची कडं ढुंकूनही बघू नका…मागचं सगळं इसरा आणि येड्या वो ते क्रिकेट वगैरे ते बी इसरूनच जा… आपल्या बाच्यानं कधी जमायचं न्हाई ते.. आपून फक्त बाॅम्ब टाकायचे, गोळ्या घालायच्या, स्फोट करायचे… यातच आपण वर्ल्ड चॅम्पियन आहोत… तेच आपलं बेस हायं बघा…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “International Day of Happiness, जागतिक आनंद दिन” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆

श्री सुधीर करंदीकर

 

🔆 विविधा 🔆

☆ “International Day of Happiness, जागतिक आनंद दिन” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆

नमस्कार नमस्कार,

20 मार्च.

हा दिवस आहे  International Day of Happiness, जागतिक आनंद दिन.

जगामधल्या सगळ्यांनी सदैव आनंदी राहावं आणि आपल्या आजूबाजूला आनंद पसरवावा, ही या दिना मागची कल्पना आहे.

दरवर्षी या दिनाकरता वेगळी वेगळी थीम असते.

यावर्षीची थीम आहे care and share. ही थीम आपण कशी आचरणात आणायची ते बघूया –

आपल्या आसपास असणाऱ्यांची आणि ज्यांना गरज आहे अशांची नेहमी काळजी करणे, काळजी घेणे आणि आनंद पसरविणे. नेहमी सोशल मीडिया वरती सकारात्मक संदेश पाठवणे. लोकांची काळजी घेणाऱ्या सामाजिक संस्थांमध्ये सहभागी होणे किंवा त्यांना सहकार्य करणे आणि आनंद सगळीकडे पसरवणे.

हे सगळे करण्याकरता सगळ्यात महत्त्वाचे काय असेल तर आपण स्वतः आनंदी असणे आणि ते पण 24/7, हे फार महत्त्वाचे आहे.

आनंदी राहणे हा माझा जन्मसिध्द हक्क आहे, आणि तो मी मिळवणारच, हे आपल्या सगळ्यांचच्  ब्रीदवाक्य असायला पाहिजे. आनंदी राहायला आवडत नाही, अशी व्यक्ति शोधून पण सापडणार नाही; आणि कायम आनंदी आहे, अशी व्यक्ति पण शोधून सापडणार नाही. म्हणूनच म्हणतात, “आनंदी  माणसाचा सदरा कुणाकडेच मिळू शकत नाही”. जेव्हा हा वाक्-प्रचार अस्तित्वात आला, तेव्हा सगळ्याच स्त्रिया कायम आनंदी असाव्यात; आणि म्हणूनच हा वाक्-प्रचार फक्त माणसाचा सदरा, या शब्दानी प्रचलित झाला असावा. जमाना बदलला, स्त्रियांनी शर्ट म्हणजे सदरा आणि पॅन्ट घालायला सुरुवात केली, आणि आता सरसकट सगळेच सदरा घालणारे, म्हणून हा वाक्-प्रचार आता सगळ्यांनाच  लागू होतो आहे.

मन आनंदी ठेवण्याकरता आनंद कुठून पकडून आणावा लागत नाही, आणि तो पकडून आणता पण येत नाही. आनंद हा सगळीकडे असतोच. आपण आपले ताण – तणाव, रागीटपणा, चिडचिडेपणा, प्रत्येक गोष्टीत “मी आणि माझे”, हे  जर आपण दूर करू शकलो, तर आनंद आपोआपच प्रकट होतो. अंधार आणि उजेड यांच्या सारखेच हे  नाते आहे. अंधार कुठून पकडून आणता येत नाही. उजेडाचा अभाव झाला, तर आपोआपच अंधार होतो.

कसे जगावे, कसे आनंदी राहावे, हे शिकण्याकरता निसर्ग हा उत्तम गुरु आहे असे म्हणतात. मोठे वृक्ष आनंदानी डोलत असतात आणि छोटे गवत पण तेवढ्याच आनंदानी डोलत असते. काही झाडांची फुले देवाला आवडतात, म्हणून ती तोडून देवाला वाहतात, म्हणून ही  झाडे आनंदी असतात. काही झाडांची फुले देवाला वहात नाहीत. आपली फुले कुणी तोडत नाहीत, म्हणून ही झाडे पण खुश असतात. काही झाडांना लाल फुले लागतात म्हणून ती खुश असतात, तर कुणाला पिवळी फुले लागतात, म्हणून ती खुश असतात. एकमेकांशी तुलना नाही, एकमेकांविषयी मत्सर नाही, एकमेकांचे पाय ओढणे नाही. फक्त आनंद आणि आनंद.   

नारळाचे झाड सरळ वर वर जाते. सूर्याची उन्हे अंगावर घेणे हाच त्याचा आनंद असतो. समजा बाजूला एखादा मोठा वृक्ष असेल आणि त्याच्या फांद्या  नारळाच्या वर येत असतील तर नारळाचा मार्ग खुंटणार आणि त्याचा आनंद संपणार. फांद्या बाजूला सारून वर जाणे आपल्याला शक्य नाही , हे नारळ ओळखून असतो. थांबला तो संपला, हे पण नारळाला माहित असते. अशावेळेस आपल्या झावळ्या आणि नारळ असा  भला मोठा पसारा घेऊन झाड चक्क तिरपे होते आणि सूर्य प्रकाश घेण्याकरता जिथे वाट दिसेल तिकडे वळून पुन्हा सरळ वर जायला सुरुवात करते.

आनंदी राहायचेच, असे जर आपण ठरवले, तर आसपासच्यांना न दुखावता, थोडे ऍडजेस्ट करत करत, आपण आपले ध्येय नक्कीच पूर्ण करू शकतो, हेच नारळाकडून शिकायचे आहे. प्रत्येक झाडाकडून अशाच प्रॅक्टिकल टिप्स मिळू शकतात. म्हणूनच जाणकार सांगत असतात – निसर्गात रमा.  

आपण बहुतेक जण आनंदी नसण्याचे आणखीन एक कारण म्हणजे, घरातल्यांनी किंवा इतर कुणी कसे रहावे, कसे वागावे, हा ज्याचा त्याचा प्रश्न आहे, हे बऱ्याच जणांना   समजत नसते. आणि यामुळे घरामधे आणि बाहेर, रोजच क्षुल्लक कारणांवरून अप्रिय परिस्थिती तयार होत असते. अप्रिय परिस्थिती आली, म्हणजे ताणतणाव सुरु होतात आणि आनंद गायब होतो. इतरांना बदलवण्यापेक्षा, स्वतःला थोडेसे  बदलणे खूप सोपे असते. मी रस्त्यानी चाललो आहे आणि डोळ्यावर ऊन येते आहे. सूर्य लवकर हलणार नाही, हे आपल्याला माहित असते, तरीपण आपण उन्हाला शिव्या मोजतो, ग्लोबल वॉर्मिंग च्या नावानी तणतण करतो आणि दुःखी होतो. त्यापेक्षा आपला मार्ग आपण थोडा बदलला किंवा डोळ्यांवर गॉगल घातला, तरी आपले रस्त्यावर चालणे सुकर होऊ शकते. माझा आनंद मीच शोधणार आहे, आणि पर्याय उपलब्ध आहेत, हे समजणे  महत्वाचे असते. 

“आनंदी राहणे हा माझा जन्मसिध्द हक्क आहे, आणि तो मी मिळवणारच ” असे जर आपण आजच्या शुभ दिवशी ठरवले आणि योग्य विचारसरणीने वाटचाल सुरू केली, तर आनंदी माणसाचा सदरा माझ्याकडे आहे, असे आपण खात्रीशीर रित्या म्हणू शकू. आणि आनंदी माणूस जिथे जिथे जातो तिथे तिथे आनंदी वातावरण निर्माण होते हे आपण जाणतोच.

आजच्या जागतिक आनंद दिनाच्या तुम्हाला, तुमच्या परिवार सदस्यांना आणि मित्रमंडळींना शुभेच्छा….

© श्री सुधीर करंदीकर

मो. 9225631100 – ईमेल – srkarandikar@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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