हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – [1] भारत की नारी [2] हे! भोले भंडारी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – [1] भारत की नारी [2] हे! भोले भंडारी  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

☆ [1] भारत की नारी 

नारी सदा स्वयंसिद्धा है,कर्म निभाता नारी जीवन।

देकर घर भर को उजियारा,क्यों मुरझाता नारी जीवन ।।

*

कर्म निभाती है वो तत्पर,हर मुश्किल से लड़ जाती।

गहन निराशा का मौसम हो,तो भी आगे बढ़ जाती।।

पत्नी,माँ के रूप में सेवा,तो क्यों खलता नारी जीवन।

देकर घर भर को उजियारा,क्यों मुरझाता  नारी जीवन ।।

*

संस्कार सब उससे चलते,धर्म नित्य ही उससे खिलते।

तीज-पर्व नारी से पोषित,नीति-मूल्य सब उसमें मिलते।।

आशा और निराशा लेकर,नित ही पलता नारी जीवन।

 देकर घर भर को उजियारा,क्यों मुरझाता  नारी जीवन ।।

*

वैसे तो हैं दो घर उसके,पर सब लगता यह बेमानी।

फर्ज़ और कर्मों से पूरित,नारी होती सदा सुहानी।। 

त्याग और नित धैर्य,नम्रता,संघर्षों में नारी जीवन।

देकर घर भर को उजियारा,क्यों मुरझाता  नारी जीवन ।।

*

कभी न हिम्मत हारी उसने,योद्धा-सी तो वह लगती।

लिए हौसला भिड़ जाती है,हर विपदा भय खाकर भगती।।

धर्म-कर्म के पथ की राही,हर हालत में वह मुस्काती।।

[2] हे! भोलेभंडारी

हे त्रिपुरारी,औघड़दानी,सदा आपकी जय हो।

करो कृपा,करता हूँ वंदन,यश मेरा अक्षय हो।।

*

देव आप, भोले भंडारी, हो सचमुच वरदानी

भक्त आपके असुर और सुर, हैं सँग मातु भवानी

*

देव करूँ मैं यही कामना ,मम् जीवन में लय हो।

करो कृपा,करता हूँ वंदन,यश मेरा अक्षय हो।।

       * 

लिपटे गले भुजंग अनेकों, माथ मातु गंगा है

जिसने भी पूजा हे! स्वामी, उसका मन चंगा है

*

हर्ष,खुशी से शोभित मेरी,अब तो सारी वय हो।

करो कृपा,करता हूँ वंदन,यश मेरा अक्षय हो।।

        *

सारे जग के आप नियंता,नंदी नियमित ध्याता,

जो भी पूजन करे आपका, वह नव जीवन पाता

*

पार्वती के नाथ,परम शिव,मेरे आप हृदय हो।

करो कृपा,करता हूँ वंदन,यश मेरा अक्षय हो।।

*

कार्तिकेय,गणपति की रचना, दिया जगत को जीवन

तीननेत्र,कैलाश निवासी, करते सबको पावन

*

जीवन हो उपवन-सा मेरा,अंतस तो किसलय हो।

करो कृपा,करता हूँ वंदन,यश मेरा अक्षय हो।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 304 ⇒ झूठा सच… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झूठा सच।)

?अभी अभी # 304 ⇒ झूठा सच? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 सदा सच बोलो ! इससे बड़ा झूठ शायद ही कोई हो। कहते हैं, सत्य में धर्म प्रतिष्ठित होता है। जब किसी से आपका सच हजम नहीं होता तो वह आपको सत्यवादी हरिश्चंद्र की उपाधि से विभूषित कर देता है। दूसरे सत्यवादी माने जाते हैं, धर्मराज युधिष्ठिर, नरो वा कुंजरो वा वाले। हरिश्चंद्र सत्यवादी तो थे, लेकिन प्रैक्टिकल नहीं थे। धर्म की रक्षा के लिए बोला झूठ, झूठ नहीं होता इसलिए धर्मराज का झूठ, झूठ झूठ होते हुए भी सच के करीब ही माना गया और पांच पांडवों में से केवल वे ही स्वर्ग के अधिकारी माने गए।

क्या स्वर्ग का सच और झूठ से कोई संबंध है। क्या देवताओं का छल कपट भी सच की श्रेणी में ही आता है। हमने तो सदा धर्म की ही विजय होते देखी है, कहते रहिए आप सत्यमेव जयते।।

लोग भी अजीब हैं, सच की पहचान चखकर करते हैं। शायद ठीक वैसे ही, जैसे हम किसी को मजा चखाते हैं। किसी ने चखा और कड़वा कह दिया। कड़वा तो करेला भी होता है और नीम भी, लेकिन दोनों लाभप्रद हैं। सच को अगर करेले की तरह पकाया जाए तो शायद वह इतना कड़वा नहीं, स्वादिष्ट ही लगे। कड़वी नीम ही क्यों, मीठी नीम भी तो खाई जा सकती है। सच बोलने के लिए कड़वा बोलना जरूरी नहीं।

मुझे तो असली नकली घी की ही पहचान नहीं। जिस तरह केवल सूंघकर अथवा चखकर असली नकली की पहचान नहीं की जा सकती, सच और झूठ में भेद करना भी आजकल इतना आसान नहीं।।

बाजार में तो सच और झूठ दोनों एक भाव ही बिकते हैं। हमने देख ली ISI मार्क गारंटी और आंख मूंदकर वस्तु खरीद ली। गारंटी तो आजकल नोटों पर आरबीआई के गवर्नर की भी किसी काम की नहीं। नोटबंदी ने तो यह भी स्पष्ट कर दिया कि केवल मोदी की गारंटी ही काम आती है, किसी गवर्नर की नहीं।

राजनीति तो खैर साम दाम दण्ड और भेद का मामला है, उसे कभी सच झूठ की तराजू में तौला नहीं जा सकता। आज जिस तरह सभी सिंह एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं, उसी तरह आपातकाल के बाद सभी सिंह जनता पार्टी की ओर लपक रहे थे। बाबूजी यानी जगजीवन राम ने जब कांग्रेस छोड़ी तो लोगों ने उनकी निष्ठा पर सवाल किया। जिसके जवाब में बाबू जी ने बहुत सुंदर जवाब दिया। हम राजनीतिज्ञ हैं, कोई संत नहीं। और आज देखिए सत्य और धर्म का कमाल। सभी संत राजनीतिज्ञ बने बैठे हैं।।

यानी आज झूठ सच के आगे नतमस्तक है क्योंकि झूठ भी गारंटी के साथ बोला जा रहा है। हम सत्य की विजय होते देख रहे हैं, झूठ भी दल बदल रहा है, सच के चरणों में शरणागत हो रहा है। बस लिबास ही तो बदलना है, एक मोहर ही तो लगनी है ISI मार्क की।

अगर आप सच और झूठ में अधिक उलझना चाहते हैं तो “सत्य तथ्य या वास्तविकता से सहमत होने की स्थिति है, जबकि झूठ धोखा देने के इरादे से किया गया झूठा बयान है। हालाँकि, “तथ्य” या “वास्तविकता” का गठन करने वाली अवधारणा किसी के दृष्टिकोण के आधार पर भिन्न हो सकती है, और झूठ बोलने की नैतिकता उस संदर्भ पर निर्भर हो सकती है जिसमें यह घटित होता है।। “

संदर्भ : झूठा सच, यशपाल

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #222 ☆ – हाइकू … – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  हाइकू)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 222 – साहित्य निकुंज ☆

हाइकू… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मन को भाया

पिया को अपनाया

मन का मीत।

 

लाया है चाँद

अपने सुहाग की

 जीवंत ख़ुशी।

 

करवा चौथ

आती है हर बार

जगती ख़ुशी

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #205 ☆ संतोष के दोहे… रामलला ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे .. रामललाआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 204 ☆

☆ संतोष के दोहे.. रामलला ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राम लला के दरश बिन, हमें न आता चैन

लगी आस दिल में बहुत, चैन नहीं दिन-रैन

*

चैन नहीं दिन-रैन, अवध है हमको जाना

प्यासे हमरे नैन, दरश का दिल में ठाना

*

कहते कवि संतोष, बनें सबके काम भला

काम करो वह खूब, साथ सब के रामलला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – आज जागतिक महिला दिन… – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

💐 आज जागतिक महिला दिन… अ भि नं द न 💐

💐 आपल्या समूहातील सर्व लेखिका, कवयित्री, आणि सर्व महिला-वाचकांना आजच्या या विशेष दिवशी अभिवादन आणि हार्दिक शुभेच्छा. 💐

“ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते.. रमन्ते तत्र देवता :  “.

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 212 ☆ [1] नारी रूप [2] मानस पूजा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 212 – विजय साहित्य ?

☆ [1] नारी रूप [2] मानस पूजा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

☆ [1] नारी रूप ☆

(जागतिक महिला दिनानिमित्ताने..)

घरा घरपण

जिच्यामुळे येते

पूर्ण रूप देते

नरा नारी…..! १

*

पती आणि पत्नी

शिव आणि शक्ती

प्रेम प्रिती भक्ती

भारवाही….! २

*

आई,बाई,दाई

वात्सल्य आगर

संसार सागर

नारी रुप….! ३

*

ताई,माई,अक्का

आज्जी,काकी,मामी,

गुणदोष नामी

सामावले….! ४

*

सखी,राज्ञी,माता

नारी शक्ती रूप

चैतन्य स्वरूप

ललना‌ ही…! ५

*

संस्कार जनक

माहेरचा वसा

सासरचा ठसा

निजरूपी…! ६

*

भाव भावनांचे

मूर्त रूप नारी

सुख, दुःख, हारी

आदिमाया….! ७

*

विश्व वंदनीय

भाग्यश्रीची छाया

कविराज माया

कवनात…! ८

☆ [2]  मानसपूजा ☆

*

नमो शंकरा जपात आहे,

कैलासाची माया

शिव स्वरूपी,भालचंद्र तू,

चैतन्याची छाया.

*

निळी निळाई, फणींद्र माथा

चराचरी वास

शंख डमरू,त्रिशूलधारी,

ओंकाराचा न्यास.

*

निलकंठ तू, त्रिनेत्रधारी,

शोभे सिद्धेश्वर

 ब्रम्हांडधीशा उमापती तू,

स्वामी विश्वेश्वर.

*

शिवपिंडीचा महादेव तू

नंदी भक्तगण

शिव नामाने,पहा व्यापिले

त्रैलोक्याचे मन.

*

पंचाक्षरीच्या,नाम जपाने

घेतो देवा नाम

पंचामृती ही,मानस पूजा

सेवा‌ ही निष्काम.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कानगोष्टी… ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? कवितेचा उत्सव ?

कानगोष्टी ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

स्त्री-पुरूष मैत्रीच्या,

सीमा असतात फार धूसर,

निर्मळ नात्यालाही घायाळ करते,

समाजाची गढूळ नजर !

*

हुंगत राहते ती श्वानासम,

सदा, लैंगिकतेचा पदर,

कानगोष्टी होतात खबर,

संशयाचं गारूड मनावर!

*

वाग्बाणांनी करती बेजार,

पुराव्यांची ना इथे जरूर,

मांडूनी आयुष्याचा बाजार,

करती  विश्वासा  हद्दपार!

   *

समाज म्हणजे का कोणी गैर ?

मी, तुम्ही आणि आपणचं सार !

बाजार गप्पांनाच येतो पूर,

आणि सत्य  राहतं कोसो दूर !

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ युगंधरा–स्त्री शक्ती… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

🌸 विविधा 🌸

☆ युगंधरा–स्त्री शक्ती ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

युगंधरा स्त्री शक्ती अनादी, अनंत !

किती युगे, किती वर्षे लोटली !  तरी मी आजतागायत आहे, तशीच आहे. कीती उन्हाळे, कीती पावसाळे, कीती ऋतु किती वर्षे, माझ्या पद स्पर्शाने तुडवली गेली, ते  मलाच माहीत ! पण मी आहे  तशीच आहे, तिथंच आहे !

परिवर्तने  बरीच झाली, किती तरी युगे, काळ रात्री शृंगारात  गप्प झाली, पण माझ मूळ रूप  हा स्थायी भाव झाला, आहे आणी तो तसाच राहणार ही काळ्या दगडावरची रेघ !

मी कुठे नाही ? जगात कुठल्याही प्रांतात जा मी असणारच. तिन्ही काळ अष्टौप्रहर माझं अस्तित्व आहेच की. माझ्या शिवाय ह्या जगाचे सुद्धा पान इकडचे तिकडे होणार नाही !

देवादिकांच्या काळापासून माझं अस्तित्व मी पुढे पुढे नेत आहे. संख्याच्या प्रकृती सिद्धांता पासूनच ! त्यांच पण सदैव साकडं माझ्या पुढेच! मी त्यांचा बऱ्याच वेळा उद्धार केला. आज पण मी च सर्व मानवाचच नाहीतर, सर्व सृष्टीतील

सर्व प्राणी पशु पक्षी जीवजंतु यांचं पण पोषण करतेय ! किंबहुना मीच सृष्टी आहे. जगातील  सर्व घटकावर माझीच नजर असते  !

मला कोण आदिमाता म्हणतात, तर कोणी मोहमाया, तर कोणी आदिशक्ती, तर कोणी प्रकृती  ! माझं कार्य हे मी कधीच बदलेल नाही, बदलणार नाही, हे त्रिवार सत्य.

मी च ती “त्रिगुणात्मक” सृजनशील शक्ती. मी सृष्टी ! मी धरा, मी मेदिनी मी च पृथा !  “मी माता, ”  मी अनेक प्रकारची “माती”  मी स्त्री !, मी प्रजनन करणारी !. पालन, पोषण संगोपन, करणारी ! मी जीवसृष्टीची  निर्माती, मी  

“माता ते मी माती”  पुर्णस्वरूप जगत्रय जननी ! विश्व दर्शन ! देणारी. तमोगुणी असलेतरी, दीप, पणती उजळणारी ज्ञानाची ज्योत !

हो पण माझ्या काही सवयी आहेत, त्या मी पुर्ण करून घेण्यासाठी सर्व काही क्लुप्त्या वापरते. मी च हट्ट पुरवून घेणार ना ?

कोण नाही हो मी ? ऋतुनुसार माझे रूप पालटले जातात. मी प्रत्येक ऋतूत निराळीच असते. माझं सौंदर्य हेच माझं अस्त्र, माझ्या शिवाय तुमच्या जगण्यात पूर्णत्व येत नाही !

मी साज शृंगारा शिवाय राहू शकत नाही. मी च तर करणार ना  साज शृंगार तो माझा निसर्गदत्त अधिकार !  मी अवखळ  कन्या, तरुणी, कल्याणी, प्रेमिका, अभिसरीका, मी भार्या, मी च ती, सर्व हट्ट पुरवुन घेणारी तो ही अगदी सहज पणे ! 

मी साज, मी दागिना, नटणे, लाजणे, मुरडणे, नखरा करणे. मनमुरादपणे हौस करून घेणारी.  स्वर्गातील अप्सरा रंभा मेनका  उर्वशी हे माझेच पूर्वज ना ! माझेच रूप ना?

मी च “सांख्य तत्वाची” प्रकृती !   जड, अचेतन त्रिगुणात्मक, मोहमयी, गुढ, आगम्य, सर्वव्यापी, बीजस्वरूप कारण, मी सर्वत्र एकच आहे ! स्वतंत्र स्वयंभु पण निष्क्रिय !

मी कोण ! अस का वाटत तुम्हाला  ?   मी फुलात, पानात, फळात आहेच की. सुगंधच माझी ओळख.

विविध  रंगाच्या  आकाराची, फुले त्यांचं विविध गंध, वर्ण त्यांची झळाळी, हिरव्यागार झाडात वेलीत, त्यांचं मनमोहक रूप, तरीपण निष्क्रिय !   माझे अस्तीत्व मृदुमुलायम स्पर्शात, कोकिळेच्या कंठात, पौर्णिमेच्या शीतल चांदण्यात, गायीच्या हंबरण्यात, मयुर केकात ! 

आजचे माझे अस्तित्व, काळानुसार  जरी सुधारले असले तरी, मी सगळीकडे आहेच की, माझा पोशाख माझं राहणीमान माझ्यातल परिवर्तनाचाच भाग आहे.

मुळात माझ्याकडे निसर्गाने जी दैवी शक्ती दिली आहे, तीच आदिशक्तीचे अधिष्ठान आहे. अधिक जबाबदारी निसर्गाने घालून दिली.

म्हणूनच देवादिकांच्या पासुन ते आजच्या मानवापर्यंत माझी स्तुती चालत आली आहे.

।।  दुर्गे दुर्घटभरी तुझं वीण संसारी

 अनाथ नाथे आंबे करुणा विस्तारी ।।

।। वारी वारी जन्म मरणा ते वारी

हरी पडलो आता संकट निवारी ।।

अशी आरती करून तुम्ही माझ्या स्त्रीत्वाचा सत्कार आक्ख जग अजुनी करतच की !

अनादी अनंत चार युगे उलटली !  महिला आहे, म्हणुनच जग आहे, हे खरं  !  जगाला आजच का सजगता आली, स्त्री केव्हा पासुन पूजनीय वाटु लागली  ? पुर्वी ती पूजनीय नव्हती का ? चाली रूढी परंपरा ही तर भारतीय संस्कृती. विसरलात का !  मग आजच नारीचा नारीशक्तीचा डांगोरा पिटण्यात, कुठला पुरुषार्थ  आला बुवा ?

पाश्चात्य संस्कृतीचे अंध अनुकरण का ? पूर्वी इतकी स्त्री पुज्यनिय आता आहे असं वाटत नाही का ? बिलकुल नाही, पूर्वी जेवढी स्त्री पुजनिय होती, तेवढी आता नाही ! होय मी ह्या विधानाचा समर्थन करतोय.

“यात्र  नार्यस्तु पुज्यन्नते रमंते ”   ह्या विधानात सर्व काही आले, व ते खरे केले. पुरुष प्रधान संस्कृतीच आत्ता ज्यास्त फोफावली आहे हे लक्ष्यात ठेवा. बस म्हटले की बसणारी उठ म्हटले की उठणारी स्त्री म्हणजे  हातातील खेळणं आहे असं वाटत काय ?

हल्ली काळा नुसार सोई सुविधांचा वापर करणे इष्टच, कारण ती गरज आहे, गरज शोधाची जननी ! काळ बदलला नारी घरा बाहेर पडली कारण परिस्थितीच तशी चालुन आली. एकाच्या कमाई वर भागात नाही म्हणुन, प्रत्येक क्षेत्रात ती उतरली. व ते साध्य साधन करून दाखवत, ती सामोरा गेली व उभी राहिली. ती साक्षर झाली, मिळवती झाली, अर्थ कारण हा पुरुषर्थ तिने सहज साध्य केला. अस जरी असलं तरी तिच्या मागच  चुल मुलं बाळंतपण पाळणा ह्या गोष्टी परत आल्याच ! त्या पण साध्य केल्या, हे त्रिवार सत्य !

पुर्वीच्या काळात ही परिस्थितीला अनुसरून महिलांनी घर खर्चाला आधार कैक पटीने ज्यास्त दिला ! आठवा त्या गोष्टी, पिठाची  गिरणी नव्हती हाताने दळणकांडणच काय घरातील जनावरांचा पालन पोषण, गाय म्हैस बकरी इत्यादीच धारा, चारा पाणी, इत्यादी करून दुध दुभत त्या विकुन घरार्थ चालवीत होत्या अजुनी खेड्यात ही प्रथा चालु आहेच. जोडीला शेती कामात पण स्त्रिया मागे नव्हत्याच ! आता ही नाहीत.

मथुरा असो की द्वारका तिथं पण हे वरील सर्व व्यवहार सुरळीत चालु होतेच की, नुसतं गौळण श्रीकृष्ण राधा, रासक्रीडा काव्यात जे मांडतो ते, तिथं अस्तित्वात होतच ना ? कपोलकल्पित गोष्टी नाहीतच ह्या. स्त्रीया पुरुषा बरोबरीने अंग मेहनत करत त्या अर्थार्जन करत होत्या !!!

लग्न झालेली नवं वधु तिचे आगमन, तिच्या हाताचे पायाचे कुंकवाचे ठसे, जोडीने केलेली पुजा, असो वा कुलदैवत दर्शन, असो  मंगळागौर असो किंवा डोहाळ  जेवण इत्यादि गोष्टी ह्या, स्त्री जन्माला आलेला मानपानच होता. गौरवच  सत्कार  होता ना !  प्रत्येक गोष्टीत तिचा पुढाकार हा महिला दिनच होता ना !

सावित्री, रमा, जिजाऊ, कित्तूर राणी चांनाम्मा, झाशीची राणी ह्या सर्व लढाऊ बाण्याची प्रतीक च होती ना ?

काळ बदलला आस्थापना कार्यशैली बदलली. युग नवं परीवर्तन घेऊन आलं. नवं कार्याचा भाग पण बदलला तरी स्त्री आजुनी खम्बीर आहे. कामाचा व्याप क्षेत्र बदलले. पूर्वीपेक्षा अत्याचार बलात्कार गर्भपात मात्र दिवसा गणिक वाढते आहे !  पूर्वी पेक्ष्या नारी सुरक्षित आहे का ?

कारण स्पष्टच, चित्रपट टेली व्हिजन येणाऱ्या मालिका, चंगळवाद यांनी मनोवृत्ती बिघडली आहे.

महिला दिनाच्या निमित्ताने नारी संघटित होऊ पाहत आहे, पूर्वीही संघटीत होत्या, नाही असे नाही तरीपण आज मात्र ही काळाची गरज आहे ! 

तिच्या अस्मितेची लढाई अजून चालू आहे. प्रत्येक क्षेत्रांत स्त्री आहे, घर कुटुंबा पासून ते सैन्य भरती पर्यंत ! मजल दरमजल करत ती पुढे पुढे जात आहे

अलिकडेच खेडे गावात राहणारी राहीबाई पोपोरे पासून ते कल्पना चावला पर्यंत  !  अशी कित्येक उदाहरणे देता येतील. प्रत्येक क्षेत्रात स्वतःच्याअस्मितेवर तिने आघाडी घेतली आहेच. कोणतंही क्षेत्र तिने सोडलं नाही ! तरीपण कैक पटीने ती तीच अस्तिव सिद्ध करत आहे. स्त्री जीन पॅन्ट घालो अगर नऊ वारी सहा वारी साडीत असो, मातृत्वाची जबाबदारी खांद्यावर घेतलीच ना ? गरीब असो वा श्रीमंत, घरात असो वा कार्यालयात तिला मुलाप्रति जिव्हाळा हा तसूभरही कमी झाला आहे का ?

साक्षात भगवान शंकरांनीही पर्वतीकडे भिक्षा मागितलीच ना.

।। अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर   प्राण वल्लभे ।।

ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थम भिक्ष्यां देही च पार्वती ।।

बघा हं गम्मत साक्षात भगवान शंकर, पार्वती कडे भिक्षा मागतात !

काय म्हणतात हो ?

अन्नपूर्णे मला ज्ञान आणि वैराग्यासाठी भिक्षा घाल ! भुकेसाठी ? हो भूक ही नुसती पोटाची नसते बर का ! खर  ज्ञान मिळण्यासाठी ! भूक पण अनेक प्रकारची असतेच की! वैराग्य प्राप्तीसाठी पण !  वैराग्य केव्हा प्राप्त होत ?  तर विश्व दर्शन झाल्यावर. ही झाली देवादिकांची कथा त्यापुढे मानवाचे काय ? स्त्री शक्ती ही कालातीत आहे. असे असूनही तिच्यावरचे बलात्कार, स्त्रिभुण हत्या का थांबत नाहीत ?

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

नसलापुर  बेळगाव

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “आप की ऩजरो ने समझा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“आप की ऩजरो ने समझा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

… अलिकडे अलिकडे  रिक्त हस्ताने रात्र माझ्या दारी अवतरते… उदासीचा घनघोर काळा अंधार बसतो पहाऱ्याला.. अन रात्रभर दार सताड  उघडेच असते… कुणी येईल याची आतुरतेने वाट पाहात राहते… निराशा पदरी पडते पण कुणाचेही पाय इकडे वळत नाहीत… आलेली रिक्त रात्र मग सकाळ होताच तशीच निघून जाते दारातूनच.. उसासे भरून.. सगळया मोहल्यात तर दररोज संध्याकाळपासून दिव्यांची रोषणाई उजळून टाकत असते रंगीबेरंगी दारं, खिडक्या आणि भिंतीनां… अप्सरांचे मुखवटे दारी, सज्जात घुटमळत असतात मुरकत, भुवया उडवत, कंबर लचकत आपल्या नव्या नव्या सावजाच्या प्रतिक्षेत… साज शृंगाराने नटलेले शरीर, अत्तराचा घमघमाट, मोगऱ्याच्या गजऱ्याचा नाजूक सुकोमल फुलांचा पसरलेला सुगंध सारा माहोल धुंद करून सोडलेला असतो.. सुंगधी केवड्याच्या बनात नागीण लपून बसते तशी इश्काच्या माशुकी सळसळत राहतात आपल्या हवेलीत, हवेलीच्या वाटेवर… रात्र गडद होत जाते तशी हळुहळू इश्काचे माशुक येतात चोर पावलांनी दबकत दबकत… आपल्या मनाच्या

दुखऱ्या जखमेवर प्यारीचा हळवा कोपरा शोधत… व्यवहाराच्या सौद्या नुसार प्रेमाची देवाणघेवाण  इथं रात्रभर चालते… घडी घडीला दार खिडक्यांची उघड मीट होत राहते… डोळयांची उघडझाप व्हावी तशी… भिडू बदलत गेला तरी पण  आतली प्रीतीचा खेळ  मात्र उत्तरोतर रंगत रंगत जातो… लखलखाटात प्रेमाचा मिना बाजार रात्रभर  झळाळून निघत असतो इथं… पोटाच्या वितभर खळगी साठी, परिस्थितीच्या दुर्दैवी वरवंट्याखाली चेपून चिपाडं झालेली शरीरं नि मेलेली मनं घेऊन माशुकीं  हतबलतेने उसने हासू चेहऱ्यावर दाखवत आयुष्यातली आपली एकेक रात्र कमी कमी करत जातात… थकलेलं शरीर, मरगळलेलं मन, चुरगाळलेल्या चादरी, काळवंडून सुकुन कोमजलेल्या मोगऱ्याच्या कळ्यांच्या बाजेवर सैलावून पडतं… त्राणं नसलेलं आंबलेलं  शरीर दिवस तसाच लोळून काढतं… दोरीवर टाकलेले विरलेले, डागळलेले कपडे लोंबत असतात विस्कटलेल्या मनाच्या चिंध्या चिंध्या झाल्यासारख्या… मग पुन्हा संध्याकाळ झाली कि बेगडी प्रेमाची झुल अंगावर पांघरून घेतली जाते… अंगावरील वस्त्राच्या धागे सुटलेल्या कलाबुताचे दिव्याच्या उजेडात क्षीणपणे चमकताना दिसतात..

… मी ही त्यांच्यांतील एक… पोरसवदा वयात फसलेली.. नशिबाच्या फेऱ्यात अडकलेली… घरादाराने, समाजाने कलंकित म्हणून लाथाडलेली या वस्तीत कधी कशी आले काही कळलेच नाही… त्या सगळ्या लपंट देहातील.. वखवखून उसळून आलेली वासनाने शेवटी चांदनी बाजारापर्यंत आणून सोडले…. समज आली पण त्या मागचं गांभिर्य लक्षात येणारं वयं कधी आलचं नाही…. निराधाराला आधार अमिनाबाईची हवेली…. नजरेची जरब असणारी अमिनाबाई… वसुलीची पक्की…. कुठल्याही पुरूषात गुंतून पडायचं नाही हा एकमेव नियम मात्र कटाक्षाने पाळण्यास सांगितला जाई… दावणीला बांधलेल्या माजाला आलेल्या बैलांच्या  नाकात वेसणीचा रज्जू असतो तसा हवेलीची मोहर उजव्या हातावर ठसठशीतपणे गोंदवलेली असल्याने तिथून बाहेर पडण्याचा मार्ग कायमचा बंद केलेला… असं असतानाही.. असचं एका रात्री बऱ्याच उशीराने त्याचं येणं झालं होतं.. ओळखी नंतर  त्याचं येणं मग सुरूच झालं…. अमरप्रेममधील नायका सारखा… घरच्या स्त्री कडून झिडकारला गेलेला… प्रेमाचा भुकेला… आणि मी… नकळत त्याच्यात गुंतून गेलेली… या नरकातून माझी सुटका तोच करेल या आशेवर विसंबलेली… माझ्या मनीचे गुज ओळखले त्यानें आणि   लवकरच येथून बाहेर घेऊन जाईन असा विश्वास दिला… या नरकातून फक्त मरणच सुटका करतं हेच सत्य असतं आणि बाकी सगळचं झुट असतं… हे मानायला नादावलेलं मन कुठे तयार असतं… अचानकपणे हळूहळू त्याचं येणं कमी कमी होतं जातं… खोट्या कारणांची ढाल तो पुढे करत राहतो… त्याचा उधवस्त होणारा संसाराच्या मोहात तो अडकून पडतो.. कमळात अडकलेल्या भुंग्यासारखा.. आणि येणं बंद होतं  काहीही न कळवता सवरता… आशाळभूतपणे रोजची रात्र त्याचीच वाट पाहण्यात जाते… आज तो नक्की येईल.. पण तो त्यानंतर कधीच फिरकला नाही…

नेहमी सारख्या बाकीच्या आपआपल्या कोठीत दार बंद करून राहिल्या….. मला कुणी भेटलचं नाही त्या रात्री… वाटलं आजची रात्र आपल्याला फाके पडणार आणि त्यात  अमिनाबाई चे गाली गलौच ऐकून घ्यावे लागणार ते वेगळे… रात्रभर तारवटलेले दिवे  वाट पाहत राहीले, पहाटेला चला उशिराने का होईना पण आता तरी प्रकाश मिटून पडून राहता येईल. म्हणून… पण तसं काही झालं नाही… आता आता माझे डोळे सुद्धा भरून वाहणे विसरून गेलेत… आणि आणि… अलिकडे अलिकडे  रिक्त हस्ताने रात्र माझ्या दारी अवतरते… उदासीचा घनघोर काळा अंधार बसतो पहाऱ्याला.. अन रात्रभर दार सताड  उघडेच असते… कुणी येईल याची आतुरतेने वाट पाहात राहते… शमा जलती रही परवाने कि आने कि पैगाम पर… निराशा पदरी पडते पण कुणाचेही पाय इकडे वळत नाहीत… आलेली रिक्त रात्र मग सकाळ होताच तशीच निघून जाते दारातूनच  गुणगुणत… जी हमे मंजूर है आपका ये फैस़ला…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘भान…’ – भाग – 1 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘भान…’ – भाग – 1 ☆ श्री आनंदहरी 

तिने दुचाकी  उभी केली. इकडेतिकडे पाहिले. दुपारची वेळ असल्याने रस्ता निर्जन होता. सारा परिसरच दुपारी वामकुक्षी घेत असल्यासारखा शांत, निद्रिस्त.. उपनगरातली नवी कॉलनी. सारेच बंगले जणू माणसा-माणसात आलेली अलिप्तता दाखवत होते. मोठे नोकरीला, छोटे शाळा- कॉलेजला. बऱ्याच बंगल्यांना कुलपे. तशी ती काही पहिल्यांदाच तिथं येत नव्हती. नवरा, मुलगा यांच्या बरोबर बऱ्याच वेळा आली होती. तरीही तिला सारे नवखे वाटत होते. तिने खाली उतरून स्वतःचा ड्रेस ठीकठाक केला.

सकाळपासूनच तिचं चित्त थाऱ्यावर नव्हते. चहात साखरच नाही, भाजीत मीठ जास्त तर आमटी आळणी असे काही ना काही सकाळपासून घडतच होतं.

“तुला काही होतंय काय? बरे वाटत नसले तर डॉक्टरकडे जाऊया. उगाच अंगावर काढू नकोस. ”

दीपक, तिचा नवरा तिच्या कपाळावर हात ठेवून ताप नाही ना याची खात्री करत तिला काळजीने म्हणाला तेव्हा त्याच्या स्पर्शाने तिचे मन आक्रसले होते. मनाच्या आक्रसलेपणाची जाणीव होताच तिला कसेसेच झाले होते. मनात अपराधीपणाची जाणीव जागी झाली होती पण पुढच्याच क्षणी तापल्या तव्यावर पडणाऱ्या पाण्याच्या थेंबासारखी ती जाणीव वाफ होऊन गेली होती.

‘’ डॉक्टरकडे कशाला? मला काय झालंय? उगाचच तुमचं काहीतरी असते. “

“घर, ऑफिसचं काम, त्यात अलीकडे सोनू पण फार हट्टी होत चाललाय. खूपच दगदग होते तुझी. आज रजा घेतेस का? जरा आराम कर.. जरा विश्रांती घेतलीस की बरं वाटेल तुला…”

त्याच्या ‘ रजा घेतेस का ‘ या शब्दांनी तिने दचकून त्याच्याकडे पाहिले. तो स्वतःचं आवरण्याच्या नादात होता. त्याचं आपल्याकडे लक्ष नाही हे पाहून तिला हायसे वाटले.

तिच्याशी बोलता बोलता त्याने स्वतःचा, तिचा डबा भरला होता, सोनूची बॅग भरली होती.

“ तू आवर तुझे. आज जरा उशीरच झालाय. आठ वाजत आलेत.. हवं तर सोनूला मी सोडते आईकडे.. ”

तिच्या वाक्याने त्याने चमकून तिच्याकडे पाहिले. ती आपल्याच विचारात असल्यासारखी.. स्वतःचा डबा पर्स मध्ये ठेवत होती. त्याला बसने ऑफिसला जावे लागायचं. तिच्या आईचं घर त्याच्या वाटेवर असल्याने रोजच तो सोनूला तिथे सोडून, स्टँडवर जाऊन बसने ऑफिसला जायचा आणि ऑफिस मधून येताना सोनूला घेऊन यायचा. तिचं ऑफिस आईच्या घराच्या नेमके उलट दिशेला होतं. सारे आवरून ऑफिसला जायचं म्हणल्यावर तिची नेहमीच घाई व्हायची. सहसा ती सोनूला सोडायला, आणायला जायची नाही. त्यामुळे तिच्या वाक्याने त्याने तिच्याकडे पुन्हा एकदा चमकून पाहिले होते.

“गेले काही दिवस झाले पाहतोय तुला.. तुझं लक्ष नसतं, स्वतःच्याच नादात, विचारात असतेस… एवढी कसल्या  विचारात असतेस ? ऑफिसमध्ये काही झालंय काय ?“

“ मला काही म्हणालास काय?”

तिने दचकून भानावर येत त्याला विचारले. तिचे दचकणे त्याच्या नजरेतून सुटले नाही. त्याने तिला पुन्हा तेच विचारले.

“काही नाही रे. ऑडिट जवळ आलंय. पेंडिग कामे खूप आहेत त्याचा विचार करत होते. ”

तिने सावरत त्याला उत्तर दिले. त्याला ते उत्तर विचार करून, ठरवून दिल्यासारखं वाटलं. तो पुढे काही बोलला नाही. नुसतं‘ हं ‘ म्हणून स्वतःच आवरायला आत गेला. तिने सोनूचं सारे आवरले.

तिला ‘बाय‘ करून, सोनूला घेऊन तो गेला तशी ती रिलॅक्स होऊन मटकन सोफ्यावर बसली.

काही क्षण स्वस्थतेत गेले आणि पुन्हा अस्वस्थता मनाला बोचू लागली.. मनात द्वंद्व सुरु झाले…’काय करावे ? ‘ प्रश्नाचा भोवरा मनात गरगरु लागला.

मोबाईलची रिंग वाजली तशी ती विचारातून भानावर आली. तिने पाहिले. फोन स्वप्नीलचाच होता. उजाडायला सुरवात झाली की नकळत हळूहळू अंधार हटत जातो तसे तिच्या मनातले विचार, मनाची संभ्रमावस्था हटत गेली.

“ सुप्रभात ! आवरले काय ? सोनू काय म्हणतोय? झाली तयारी?”

स्वप्नीलचा खर्जातला आवाज कानावर पडला.. आणि ती भारावल्यासारखी झाली.

“ सुप्रभात ! दोघेही आत्ताच बाहेर पडले. आत्ता आठवण झाली वाटते?”

“ आठवण व्हायला विसरावे लागते… आणि कितीही, काहीही वाटले तरी तू थोडीच माझ्यासाठी फ्री आहेस ?  तुझी वाट पाहणे हेच आयुष्य झालंय माझे…  वाट पाहतोय.. येतेस ना लगेच ?” 

“हं. ऑफिसला जाऊन येते.. ”

“ऑफिसला जाऊन.. ?”

त्याचा रुसल्यासारखा स्वर.. तिचे मधाळ हसणे. काही क्षणांनी तिने फोन ठेवला. तिचा चेहरा आणि मन खुलून आले होते.. मनात स्वप्नील रेंगाळत असतानाच तिने सारे आवरले.

ती आरशासमोर उभं राहून आवरत असताना तिने स्वतःच्या प्रतिबिंबकडे पाहत, ‘ मॅडम, रागावणार असला तर रागवा.. पण राहवत नाही म्हणून सांगतो.. आज तुम्ही खूप खूप छान दिसताय.. ‘ हे स्वप्नीलचे पहिले वहिले वाक्य  अंगभर लपेटून घेतले.

ऑफिसमध्ये नव्यानेच बदलून आलेला स्वप्नील.. एकाच ऑफिसात असल्यावर ओळख व्हायला कितीसा वेळ लागणार? मुळात त्याचं व्यक्तीमत्व प्रथमदर्शनी प्रभाव पाडणारे होतंच. त्यात त्याचा खर्जातला, सतत ऐकावा वाटणारा आवाज.. , आपलेपणा वाटावा असे बोलणे, मदतीला सतत तत्पर असणे.. कोणत्याही चांगल्या गोष्टीसाठी भरभरून प्रशंसा करणे, प्रोत्साहित करणे.. त्याचं सारेच कसे भुरळ पाडणारे होते… पण भुरळ पडायला ती काही षोडशवर्षीया नव्हती. ती विवाहिता होती. तिचा दीपकशी प्रेमविवाह झाला होता आणि ती एका मुलाची, सोनूची आईही होती..

स्वप्नीलने केलेली तिच्या सौन्दर्याची प्रशंसा तिने काहीही न बोलता फक्त हसून स्वीकारली होती… पण त्याचे ते वेगळे शब्द, बोलण्याची वेगळी पद्धत तिला भावून गेली होती.. नकळत कुठेतरी तिच्या मनात.. अंतर्मनात रुजली होती. मनात त्याच्याबद्दल आपलेपणा रुजू लागला होता.

स्वप्नीलला ऑफिसच्या कामांची माहिती तर खूप होतीच त्याशिवाय इत्तर सर्वसाधारण माहितीही त्याला जास्त होती. त्याचं इंग्रजीवरचं प्रभुत्व खरंच वाखाणण्यासारखं होते त्यामुळे काहीही अडचण आली की सारेच त्याचे मार्गदर्शन घ्यायचे. तो ही हसतमुखाने आनंदाने, आपलेपणाने सगळ्यांना मदत करायचा.

तो तसा सगळ्यांनाच मदत करीत असला तरी आपल्याबाबतीत जरा जास्तच जवळकीने वागतो हे तिच्या लक्षात आले होते.. काळजीने, आपुलकीने चौकशी करणे, प्रोत्साहित करणे, हे सारेच तिला आवडायला लागले होते.. तिची स्तुती करणारे अनेकजण तिला भेटायचे त्यांना ती हसून दाद ही द्यायची पण स्तुतीने हुरळून जायची नाही. स्वप्नीलच्या बाबतीत मात्र वेगळे घडत होते. त्याने  स्तुती केली की ती सुखावत होती. तिला त्याने केलेली स्तुती आवडू लागली होती, सतत त्याने स्तुती करावी आणि आपण ऐकत राहावी असे वाटायला लागले होतं. त्याचे शब्द तिच्या मनात रेंगाळायचे.. ती त्या शब्दांच्याआणि त्याच्या आठवणीत रमायला लागली होती.

ऑफीसातले काम घरी घेऊन यावे तसे ती त्याच्या आठवणीची फाईल घरी घेऊन येऊ लागली होती. हातातली कामं झटपट आटपून ती त्या फाईलमध्ये डोके खुपसून बसू लागली होती..

क्रमशः भाग पहिला

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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