(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Embers of Memories…~”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
~ Embers of Memories… ~
☆
Time’s dark undertow sweeps us under,
Erasing the ever ephemeral present,
Leaving the memories etched on the soul
like indelible scars refusing to heal, forever…
*
In the unfathomable depths of our being,
a fading ember of the past still glows,
A beacon of longing that refuses to be
extinguished by the passage of time…
*
Fragile, fleeting memories cling to the life,
desperate to evade the abyss of forgetfulness,
Yet time’s relentless tide wears them down,
grinding them into the quicksand of oblivion…
*
Still, we cherish these tattered remnants,
treasuring the love, laughter, and tears they hold,
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – नवरात्रि।)
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य।माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के पाठकों की जानकारी के लिए श्री सदानंद जी का एक ज्ञानवर्धक आलेख “पितरों का सम्मान – श्रद्धा का विधान : श्राद्धकर्म तर्पण”।)
☆ आलेख ☆ पितरों का सम्मान – श्रद्धा का विधान : श्राद्धकर्म तर्पण☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति एक विलक्षण जीवन दर्शन है। आत्मवादी जीवन दर्शन भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय ऋषियों- मनीषियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जीवन की गहराइयों को समझा। सतत परिवर्तनशील काया के पीछे जीवन प्रवाह की निरन्तरता अनुभव की। नश्वर प्राणियों के अन्दर अनश्वर आत्म चेतना को पहचाना। उसी आधार पर रंग- रूप, रुचि- स्वभाव, आहार- विहार आदि की भिन्नताओं को देखा, विशेषताओं का मूल्यांकन भी किया। साथ ही परस्पर के संवेदनात्मक जुड़ाव का मर्म भी जाना। इसीलिए उन्हें प्रकृति के विभिन्न घटक परस्पर एक-दूसरे के पूरक दिखने लगे। इसी अनुभूति ने ’वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा ’आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के तथ्यों का उद्घोष किया। इसी आधार पर भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति का सम्मान पाती रही।
ऐसी महान संस्कृति में ऋषियों ने मानव जीवन के विविध कालखण्डों में मार्गदर्शी व्यवस्थायें निर्मित कीं जिन्हें हम सामान्य रूप से संस्कार परंपरा कहते हैं। हमारे जीवन में जन्म से पूर्व से मृत्यु उपरांत तक के सोलह संस्कार निर्धारित किये गये हैं। इनकी संख्या कहीं न्यूनाधिक हो सकती है किंतु महत्व यहां संख्या का नहीं वरन् उनकी उपादेयता और उसके उद्देश्य का है। जीवन के आरंभ होने से पूर्व गर्भाधान-पुंसवन से लेकर नामकरण, विद्यारंभ, विवाह आदि से होते हुये अंत्येष्टि व तदुपरांत श्राद्धकर्म व वार्षिक तर्पण तक का एक निश्चित क्रम बनाया हुआ है।
आज का तर्कशील एवं भौतिकतावादी सोच वाला व्यक्ति इनका महत्व जाने और माने अथवा नकार दे किंतु प्रत्येक संस्कार का जीवन में सार्थक उपयोग है जिस पर अलग से चर्चा की जा सकती है। ऐसा ही एक संस्कार है जो मनुष्य जीवन के पूर्ण हो जाने पर किया जाता है जिसे अंत्येष्टि एवं श्राद्धकर्म कहते हैं। कईयों का विचार होता है कि अंत्येष्टि में शरीर की सद्गति हेतु अग्निसंस्कार तो उचित है किंतु इसके उपरांत तो न स्थूल काया यहां होती है और न आत्मा इस लोक में होती है तो फिर श्राद्ध तर्पण का क्या काम है ? आजकल अधिकांश घरों में समयाभाव, धनाभाव, श्रद्धा की कमी अथवा किसी अन्य कारण से विधिवत श्राद्ध अथवा वार्षिक तर्पण का क्रम समाप्त होता जा रहा है। इस विषय पर आज उन बातों पर चर्चा की जाये जो सहज, सरल और हमारे लिये सुलभ हैं और जिन्हें अपनाना हमारा कर्त्तव्य है।
पितर क्या होते हैं ?
हमारे वे परिजन जिनका देहावसान हो चुका है वे पितर कहलाते हैं। वेदों में इनके तीन प्रकार बताये गये हैं किंतु उतने विस्तार में न जाकर यही जानना योग्य होगा कि हमारे पिता, दादा एवं परदादा इनके अतिरिक्त मातृकुल में पिछली तीन पीढियां पितरों की श्रेणी में मानी गई हैं। इसमें स्त्री संबंधी यथा माता, मातामह आदि भी आती हैं। सरल भाषा में कहा जाये तो हमारे दिवंगत परिजन पितर कहे जाते हैं। मनुष्य को जीवन में तीन ऋण चुकाने की मान्यता है-देवऋण, ऋषि या गुरुऋण एवं पितृऋण। इनमें से पितृऋण चुकाने का एक विधान श्राद्ध तर्पण बताया गया है। इस कर्मकाण्ड में तीसरी पीढी के पहले के दिवंगत पूर्वजों को चेतना में विलीन माना जाता है इसीलिये हमसे पूर्व तीन पीढियों के लिये ही तर्पण होता है। हमारी संस्कृति तो इतनी महान है कि तर्पण की प्रक्रिया में हमारे सगे, चचेरे, नानाकुल के लोगों के अतिरिक्त देव, ऋषि, संत, शहीद और अव्यक्त मृतात्माओं तक के लिये जल छोडा जाता है। श्राद्ध के उपरांत पंचबलि के रूप में थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रास रखा जाता है जिसमें गौमाता, कौए, श्वान एवं चींटी का भी अंश होता है। इस प्रकार से सर्वहिताय की भावना से यह कर्मकाण्ड किया जाता है।
श्राद्ध क्या है ?
संत तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के आरंभ में ही लिखा है भवानी शंकरौ वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ, यह श्रद्धाभाव ही है जिसके कारण पाषाण में ईश्वर का दर्शन होता है, हमारे माता पिता हमारे लिये ईश्वर रूप हो जाते हैं, एक अनजान चिकित्सक की दवा से हम ठीक हांगे ऐसा विश्वास होता है, अपने दिवंगतों के प्रति जीवन समाप्ति के बाद भी इसी श्रद्धा का प्रकटीकरण श्राद्ध ही है। गायत्री परिवार के संस्थापक वेदमूर्ति पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपनी पुस्तक पितरों को श्रद्धा दें वे शक्ति देंगे में इन पितरों को हमारे अदृश्य सहायक लिखा है। सूक्ष्म में व्याप्त इन आत्माओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने, उनके निमित्त जल तर्पण, नारायण भोजन एवं दान करना ही श्राद्ध कर्म कहलाता है। प्रकारांतर से विविध मान्यताओं, क्षेत्रविशेष के चलन आदि के आधार पर इनमें भिन्नता हो सकती है पर सबका आशय एक ही है – अपने दिवंगत पूर्वजों की शांति-तृप्ति हेतु उनका सम्मान करना। यह मात्र लकीर पीटने जैसा कर्मकाण्ड नहीं है वरन् उनके प्रति हमारी श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। चूंकि हमारे दैनिक कामकाज में यह रोज संभव नहीं है अतः हमारे शास्त्रों में वार्षिक श्राद्ध की व्यवस्था बताई गई है।
श्राद्ध विधान के बारे में सामान्य व्यक्ति कभी-कभी यह तर्क देते हैं कि हमारे पिता अथवा दादाजी का तो पुनर्जन्म हो गया होगा अथवा उनके सत्कर्मों एवं ईश्वर कृपा के कारण उनकी मुक्ति हो गई होगी तो फिर प्रतिवर्ष स्वर्गवास की तिथि पर व पितृपक्ष में तर्पण, पिण्डदान, भोजन, दान आदि क्यों करना ? दूसरे, क्या ये वस्तुयें उन तक पहुंचती होंगी ? स्थूल दृष्टि से उनकी बात सही लगती है किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से इसे यूं समझाया जा सकता है कि यह सत्य है कि उन्हें दिया हुआ जल, पंडितों को अथवा सत्पात्र को दिया भोजन, दान कहीं उड नहीं जाता है वरन् हमारे इस सत्कर्म का प्रतिफल उन पितरों को पितृलोक में अथवा यदि उनका पुनर्जन्म भी हुआ हो तो भिन्न रूप में प्राप्त होता है। हमारे पितर स्वर्गवासी हो गये, उन्हें स्मरण करने का कोई लाभ नहीं है तो फिर हमें हमारे ऋषियों, महापुरुषों, संतों आदि की जयंतियां मनानी बंद कर देना चाहिये क्यों कि अब या तो उनकी मुक्ति हो गई होगी या वे दुबारा जन्म ले चुके होंगे। यह बारंबार कहा जाता है कि श्राद्ध केवल हमारी श्रद्धा का प्रकटीकरण है, पितरों के प्रति हमारे साथ किये उपकारों का आभार मानना है। हमारे इस कर्म से सूक्ष्मरूप से हमारी भावनायें उन तक पहुंचती हैं और उनके आशीर्वाद हमें अवश्य मिलते रहते हैं। जिस तिथि को जिस पूर्वज ने देह त्यागी, उसी तिथि को उनके निमित्त तर्पण, पिण्डदान, अन्नदान, वस्तुदान आदि पुण्य कर्म किए जाते हैं। मान्यता यह है कि ऐसा करने से पितरों की सद्गति के द्वार तो खुलते ही हैं, तृप्त-तुष्ट होकर वे श्राद्ध करने वालों को विशेष आशीर्वाद-अनुदान भी देते हैं। अब प्रश्न दान के फल के सम्बन्ध में रह जाता है। यदि यह भी कहा जाय कि दान का पुण्य फल, दाता को ही मिलता है तो इसमें श्राद्ध की अनुपयोगिता सिद्ध नहीं होती। मनुष्य को लोभवश दान आदि सत्कर्मों में प्रायः अरुचि रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने कुछ पर्व, उत्सव, स्थान, काल, ऐसे नियत किये हैं इन पर दान करने के लिये विशेष रूप से प्रेरित किया गया है। उन विशिष्ट पर्वों, अवसरों पर दान करने के विविध भेद प्रभेद और महात्म्यों का वर्णन किया गया है। मनुष्य में विवेक से रूढ़ि का अंश अधिक होता है जैसे स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी त्यौहारों के दिन रूढ़िवश लोग पकवान ही बनाते और खाते हैं उसी प्रकार नियत अवसरों पर अनिच्छा होते हुए भी दानादि सत्कर्म करने पड़ते हैं। उत्तम कर्म का फल उत्तम ही होता है चाहे वह इच्छा से; अनिच्छा से, या किसी विशेष अभिप्राय से किया जाय। श्राद्ध के बहाने जो दान धर्म किया जाता है उसका फल उस स्वर्गीय व्यक्ति को अवश्य ही प्राप्त न होता हो तो भी दान करने वाले के लिये वह कल्याण कारक है ही। सत्कर्म कभी भी निरर्थक नहीं जाते। श्राद्ध की उपयोगिता इसलिये भी है कि इस रूढ़ि के कारण अनिच्छा पूर्वक भी धर्म करने के लिये विवश होना पड़ता है।
एक विचार यह भी होता है कि जब उनकी मुक्ति हो गई तो फिर वे हमारे पितर कैसे रहे ? इस विषय में शास्त्रों में माना गया है कि मर जाने के उपरान्त जीव का अस्तित्व मिट नहीं जाता वह किसी न किसी रूप में इस संसार में ही रहता है। स्वर्ग, नरक, निर्देह, गर्भ, संदेह आदि किसी न किसी अवस्था में इस लोक में ही बना रहता है। इसके प्रति दूसरों की सद्भावनाएं तथा दुर्भावनायें आसानी से पहुंचती रहती है। स्थूल वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में कठिनाई से पहुंचती हैं परन्तु सूक्ष्म तत्वों के संबंध में यह कठिनाई नहीं है उनका यहां से वहां आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गर्मी, प्रकाश, शब्द आदि को बहुत बड़ी दूरी पार करते हुए कुछ विलम्ब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं वे उस व्यक्ति के पास जा पहुंचते हैं जिसके लिए वे भेजे जायें।
श्राद्ध तर्पण के लिये बडी स्पष्ट मान्यतायें निर्धारित हैं। गरुड पुराण एवं अन्यान्य शास्त्रों में इसके विषय में व्यवस्थायें लिख दी गई हैं। पूर्वजों के देहावसान की हिन्दू पंचांग की तिथि पर प्रति वर्ष यह विधान करते हैं इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष भारतीय पंचांग के अनुसार भाद्रपद (भादों) माह की पूर्णिमा से आश्विन (क्वार) माह की अमावस्या तक पितृपक्षमनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस समय हमारे विमुक्त पितर धरती पर पधारते हैं और हमारी इस श्रद्धा को ग्रहण करते हैं। सामान्य चलन की धारणा के अनुसार इन सोलह दिनों की अवधि में शुभ कार्य, मांगलिक कार्य अथवा नई वस्तु खरीदना आदि वर्जित माना जाता है क्यों कि यह अवधि पितरों के आगमन की होती है, किंतु कुछ विद्वान मानते हैं कि पितरों की उपस्थिति शुभ होती है अतः इस काल को अशुभ नहीं मानना चाहिये।
श्राद्ध के विषय में एक और बात कही जाती है कि हमारे पूर्वजों का श्राद्ध गयातीर्थ में जाकर कर देना चाहिये। कई कारणों से यह सबके लिये सुलभ नहीं है तथापि इस विषय में पंडितों का यह विचार है कि गयाजी में पिण्डदान के उपरांत पितरों का स्वर्गारोहण हो जाता है किंतु जैसे हम प्रतिदिन देवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें भोग लगाते हैं वैसे ही पितरों का उनकी तिथि पर वार्षिक श्राद्ध तर्पण करते रहना चाहिये।
गयाजी में ही श्राद्ध तर्पण श्रेष्ठ क्यों ?
इस संबंध एक कथा भी बहुधा सुनाई जाती है-पिंडदान के लिए पूरे भारत में गया जी से अच्छी जगह नहीं है। वैसे तो देश में कई जगहों को पिंडदान के लिए महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन गयाजी का महत्व ज्यादा है। लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति और तर्पण के लिए बिहार के गया को ही चुनते हैं। पर क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों है? दरअसल, पुराणों में लिखा है कि अगर गया जाकर पिंडदान किया जाए, तो पितरों की 21 पीढ़ियां मुक्त हो जाती हैं। लेकिन इसके पीछे भी एक रोचक कथा है, जिसके बारे में आपको जानना चाहिए। गया धाम की कहानी गयासुर नाम के राक्षस से जुड़ी हुई है जिसने विष्णु भगवान की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया। तपस्या पूरी होने पर उसने भगवान से वरदान मांगा कि “मेरा शरीर देवताओं से भी ज्यादा पवित्र हो जाए। जो भी मेरे शरीर के दर्शन करे, या स्पर्श करे वह पाप मुक्त हो जाए”। भगवान विष्णु ने गयासुर को ये वरदान दे दिया। इसके पश्चात् स्थिति बदलने लगी, लोग जमकर पाप करने लगे ओर बदले में गयासुर के दर्शन कर लेते। ऐसे में यहां पाप बढ़ता गया। जब देवता इससे परेशान हो विष्णुजी के पास पहुंचे। भगवान विष्णु गयासुर के पास आए और कहा कि “मुझे धरती पर यज्ञ करने के लिए सबसे पवित्र स्थान चाहिए। गयासुर ने कहा कि प्रभु मुझसे पवित्र तो और कुछ नहीं है। मैं धरती पर लेट जाता हूं, आप यज्ञ कर लीजिए”। जब गयासुर लेटा, तो उसका शरीर 5 कोस तक फैल गया। विष्णुजी ने यज्ञ शुरू किया और यज्ञ के प्रभाव से गयासुर का शरीर कांपने लगा। तब भगवान विष्णु ने वहां एक शिला रखी। जिसे प्रेतशिला वेदी नाम दिया गया। गयासुर के त्याग से प्रभावित होकर विष्णुजी ने गया को ये वरदान दिया कि जो भी यहां आकर अपने पितरों का पिंडदान करेगा उसके पितरों की 21 पीढ़ियां मुक्त हो जाए माना जाता है कि गया धाम में पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। गया में किए गए पिंडदान की महिमा का गुणगान भगवान राम ने भी किया है।
कहा जाता है कि इसी जगह पर भगवान राम और माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया था. गरुड़ पुराण के अनुसार यदि इस स्थान पर पिंडदान किया जाए तो पितरों को स्वर्ग मिलता है. स्वयं श्रीहरि भगवान विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त- बद्रीनाथ धाम में ब्रह्म कपाल शिला, हरिद्वार में नारायण शिला, हर की पैड़ी, हरियाणा में कुरूक्षेत्र, कानपुर के निकट बिठूर नामक स्थान पर, प्रयागराज, काशी, मणिकर्णिका घाट, उज्जैन, त्र्यम्बकेश्वर, महाराष्ट्र, उ प्र में नैमिषारण्य व राजस्थान में पुष्कर एवं दक्षिण में कुछ तीर्थ आदि स्थानों पर तर्पण करने से मोक्ष प्राप्ति की बात शास्त्र कहते हैं किंतु परंपरा के चलते एवं धार्मिक कारणों से गयाजी के श्राद्ध तर्पण को श्रेष्ठ माना जाता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मृतकों का श्राद्ध करना, उन्हें जल चढाना हमारी श्रद्धा का प्रेषण है। कई धर्म हैं जिनमें ऐसी कोई परंपरा नहीं है तो उनके पूर्वजों का क्या होता होगा, किंतु वहां भी प्रतिवर्ष कोई प्रार्थना, पूजा आदि की व्यवस्था है क्यों कि मानव का मूल स्वभाव श्रद्धायुक्त ही है, उसे हम व्यक्त नहीं करते हैं यह हमारी कमी मानी जा सकती है। इसलिये हम दूसरों को न देखते हुये अपनी महान संस्कृति की दिखाई राह पर चलें तो हमारा ही भला होगा। अंधानुकरण का हम समर्थन नहीं करते किंतु विवेक का प्रयोग करते हुये चीजों को समझ कर किया जाये तो उसका लाभ अवश्य मिलता है। शेष, हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि है, सोच है, यदि कोई यह मान ले कि ईश्वर है ही नहीं तो उसके ऐसा कहने से ईश्वर का अस्तित्व मिट नहीं जायेगा।
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अस्वीकरण : उपरोक्त आलेख गायत्री परिवार के गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी की इस विषय पर लिखी पुस्तकों, जानकार व्यक्तियों से चर्चा एवं पुराणों से लिये गये संदर्भों एवं अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है, यह लेखक द्वारा किया गया मात्र एक संकलन है। पाठकों का अपने स्तर पर अन्य विद्वानों से परामर्श लेना उचित होगा।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – अब तो छोड़ो तुम नादानी। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “धोबी का कुत्ता …“।)
अभी अभी # 646 ⇒ धोबी का कुत्ता श्री प्रदीप शर्मा
क्या आपने कभी किसी धोबी के कुत्ते को देखा है ? मैंने तो नहीं देखा। मैंने धोबी का घर भी देखा है, और घाट भी। लेकिन वह बहुत पुरानी बात है। तब शायद धोबी और कुत्ते का कुछ संबंध रहा हो।
धोबी को आज कुत्ते की ज़रूरत नहीं ! वह खुद ही आजकल घाट नहीं जाता तो कुत्ते को क्या ले जाएगा। वैसे धोबी कुत्ता क्यों रखता था, यह प्रश्न कभी न तो धोबी से पूछा गया, न कुत्ते से।।
पहले की तरह आज धोबी-घाट नहीं होते ! सुबह 5 बजे से ही कपड़ों के पटकने की आवाज़ें वातावरण में गूँजने लगती थीं। कपड़ों की दर्द भरी आवाज़ों के साथ ही धोबी के मुँह से भी एक सीटी जैसी आवाज़ निकलती थी, जो सामूहिक होने से संगीत जैसा स्वर पैदा करती थी। कपड़े चूँकि सूती होते थे, अतः उनकी तबीयत से धुलाई होती थी। बाद में उन्हें सुखाने का स्नेह सम्मेलन होता था। तब शायद कुत्ता उनकी रखवाली करता हो।
सूती कपड़ों की जगह टेरीकॉट और टेरिलीन ने ले ली ! घर घर महिलाओं के लिए वाशिंग मशीन और डिटेर्जेंट की बहार आ गई। कपड़े ड्रायर से ही सूखकर बाहर आने लगे। और तो और, घर की स्त्रियाँ घर पर ही कपडों की इस्त्री करने लगी। अब कुत्ते का धोबी खुद ही न घर का रहा न घाट का।।
मैं कपड़ों पर इस्त्री करवाने धोबी के घर जाता था, लेकिन उसके कुत्ते से मुझे डर लगता था। लकड़ी के कोयलों की बड़ी सारी इस्त्री होती थी, जो एक ही हाथ में कपड़ों की सलवटें दूर कर देती थी। कपड़ों की तह भी इतने सलीके से की जाती थी कि देखते ही बनता था। 25 और 50 पैसे प्रति कपड़े की इस्त्री आज कम से कम 6-7 रुपये में होती है। सब जगह बिजली की प्रेस जो आ गई है। ज़बरदस्त पॉवर खींचती है भाई।
बेचारे देसी लावारिस कुत्ते, निर्माणाधीन मकानों के चौकीदारों के परिवार के साथ सपरिवार अपने दिन काट रहे हैं। रात भर चौकीदारी करते हैं, दिन भर सड़कों पर घूमते हैं। विदेशी नस्ल के कुत्तों ने न कभी धोबी देखा न धोबी घाट। कभी मालिक अथवा मालकिन के साथ मॉर्निंग वॉक पर देसी कुत्तों से दुआ सलाम हो जाती है। एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, और अपने अपने काम पर लग जाते हैं।।
आज की राजनीति में मतदाता की स्थिति भी धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। चुनाव सर पर आ रहे हैं, मानो लड़की की शादी करनी है, और अभी लड़का ही तय नहीं हुआ। ढंग के लड़के एक बार मिल जाएं, लेकिन मनमाफिक उम्मीदवार मिलना मुश्किल है।
उम्मीदवारों का बाज़ार सजा है। मन-लुभावन नारे हैं, वायदे हैं, संकल्प हैं। एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई, मतदाता जाए तो किधर जाए ! फिर भी वह चौकन्ना रहेगा। आखिर वही तो सच्चा चौकीदार है भाई।।
‘आम्ही सिद्ध लेखिका’ यांनी आयोजित केलेल्या राज्यस्तरीय गझल लेखन स्पर्धेत, आपल्या समुहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री सौ. ज्योत्स्ना तानवडे यांना उत्तेजनार्थ गझल लेखन पुरस्कार मिळाला आहे. ई अभिव्यक्ती परिवाराकडून त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा !
आज त्यांची पुरस्कार प्राप्त गझल प्रकाशित करीत आहोत.
संपादक मंडळ
ई अभिव्यक्ती मराठी
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈