हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 281 ☆ कविता – कापी पेस्ट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – कापी पेस्ट। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 280 ☆

? कविता – कापी पेस्ट ?

अब

मौलिक नया

कम,

 

ऊपर का नीचे

नीचे का पैरा ऊपर

पहला और अंतिम वाक्य

अपना

शीर्षक चटकारी

इसका उसमे

उससे इसमें

उनकी कविता

जाने किसके किसके

नाम

अपने नेरेटिव

स्थापित नामो के साथ

 

यदि एक दो

विदेशी भाषाएं

जानते हैं तब तो

पौ बारह

वरना अनुवाद भी सुलभ

 

विकिपीडिया

पुरानी किताबें हैं न

हर विषय पर

कापी पेस्ट

 

पुस्तकें ज्यादा

काम कम

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… मातृ दिवस ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… मातृ दिवस ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

जीवन में अस्तित्व की पहचान है माँ ।

धरती से अंबर तक प्रेम महान है माँ ।।

*

धरा पर ईश्वर का रूप अनोखा है माँ ।

दुख को समेटे सुख लेखा है माँ ।।

*

चारों धाम की पुन्य प्रताप दयाला है माँ ।

जीवन के विष में अमृत प्याला है माँ ।।

*

चाँद तारे सूरज पूरा आसमान है माँ ।

पृथ्वी प्रकृति सृष्टि सी अरमान है माँ ।।

*

जिंदगी की धूप में ठंडी छाँव है माँ ।

प्रेमिल ममता का सुंदर गाँव है माँ ।।

*

सरिता सी बहती शीतल धारा है माँ ।

सभ्यता संस्कृति अर्पित सारा है माँ ।।

*

जीवन में पहला ज्ञान का भंडार है माँ ।

अतुल्य स्नेह की अमूल्य धरोहर है माँ ।।

*

बैचैन सी दुनिया में आत्मसंतुष्टि है माँ ।

नि:स्वार्थ भाव से तत्पर वृष्टि है माँ ।।

*

ममतामयी आँचल की सौगात है माँ ।

हर पल प्रेमिल हृदय बरसात है माँ ।।

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 – सुलोचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “सुलोचना ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 ☆

🌻 लघुकथा – सुलोचना 🌻

यही नाम था उस मासूम सी बिटिया का। माता-पिता की इकलौती संतान और सभी की दुलारी। मोहल्ले पड़ोस में सभी की आँखों का तारा। सुंदर नाक नक्श, रंग साँवला, पर नयन बला की सुन्दरता लिए पानीदार जैसे अभी बोल पड़े।

सुलोचना से सल्लों बनते देर नहीं लगी। समय और आज की दौर में छोटे-छोटे नामों का चलन।

बस सल्लों अपने आप में मस्त। सल्लों की बातें और समझदारी सभी को अच्छी लगती और सब उसे चाहते इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुलोचना को चने की दाल बीनते – बीनते नैनों से अश्रुं धार बहने लगी ।

तभी सासु माँ ने जोर से आवाज लगाई। “अरी ओ! काली चना कुछ समझ में आया कि नहीं आज ही काम खत्म करना है। परंतु तुम्हारे भेजे में कुछ समाता ही नहीं है। काली चना जो ठहरी।”

इससे पहले की दर्द की दरिया बहे। ससुर जी पेपर के पन्ने पलटते कहने लगे… “अरे वो भाग्यवान! आओ तुम्हें बताता हूँ। काली चने के फायदे।”

” आज पेपर पर वही छपा है। तुम अनपढ़ को आज तक समझ नहीं आया कि गँवार फली को चाहे कितना भी विद्ववता से कोई बुलाए परंतु उसे गँवार फली ही कहा जाता है।

ज्ञानकली नहीं!!”

अपनी बाजी पलटते देखा सासु माँ ने समझ लिया कि अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है।

क्योंकि नाम उसका ज्ञान कली।

और वह अंगूठा छाप। सिर्फ मुँह चलाना जानती थी।

सुलोचना के आँसु कब कृतज्ञता के भाव में पिताजी के चरणों पर झुके और सुलोचना ने देखा कि दोनों हाथ पिताजी ने उसके सिर पर रखे हुए हैं। एक मजबूत सहारे की तरह। मैं हूँ न।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 83 ☆ देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में किसी वस्तु या अन्य पदार्थ के विज्ञापन की टैग लाइन जब प्रसिद्धि के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है,तो लोग लंबे समय तक जनमानस के दिलों में अपना स्थान बना लेती हैं। “दाग अच्छे है” टैग लाइन भी उन प्रसिद्धि पा चुके में से एक हैं।

हमारे देश की सी एस आई आर जोकि एक वैज्ञानिक संस्था है,ने अपने कर्मचारियों का अव्वाहन किया है, कि प्रत्येक सोमवार के दिन वो बिना स्त्री(प्रेस) किए हुए वस्त्र पहनकर कार्बन की खपत में कटौती कर जन मानस को एक उदहारण प्रस्तुत कर जुगरूकता पैदा करें। हमारा देश विश्व के सबसे अधिक कार्बन खपत करने वाले देशों में अग्रणी हैं।

बचपन में हम पाठशाला गणवेश को सोते समय तकिए के नीचे या लोहे के संदूक के नीचे रखकर उसके रिंकल्स दूर कर लिया करते थे। धन के अपव्यय के साथ ही साथ कार्बन की खपत कम होती थी। बिजली से चलने वाली प्रेस सभी घरों में उपलब्ध है। आजकल एक नए प्रकार की स्टीम प्रेस भी आ गई है, जिसमें हैंगर पर टंगे हुए कपड़े भी प्रेस किए जा सकते हैं। प्रेस के कार्य में संलग्न धोबी आजकल जुगाड द्वारा एल पी जी गैस से भी कपड़े प्रेस करते हैं। कच्चे कोयले के उपगोग कर प्रेस का चलन कम हो गया हैं।

कपड़ो की सलवटे तो प्रेस से दूर हो जाती हैं। बिस्तर पर पड़ी हुई सलवटें, रात्रि नींद न आने पर करवट बदलने की गवाह बन जाती हैं। हमारे फिल्म वाले इस बात को अनेक गीतों के माध्यम से भुना चुके हैं।

कुछ समय पूर्व हमारे एक मित्र ने एक महंगी कमीज़ खरीदी थी, जिसकी वकालत विक्रेता ने ये कहकर की थी, ये “रिंकल फ्री” कमीज़ हैं। इसको प्रेस करने की आवश्यकता नहीं है, वो तो बाद में ज्ञात हुआ कि कमीज़ के साथ रिंकल्स फ्री में दिए जा रहे हैं।

कपड़े, बिस्तर आदि के रिंकल्स तो आप ठीक कर लेते हैं। हमारे जीवन के अंतिम पायदान के समय शरीर पर विकसित हो गई झुर्रियां शायद ये बयां करती हैं,” समय जिन  राजपथों से होकर गुजरता है, बोलचाल की भाषा में उन्हें ही झुर्रियां कहते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मातृदिनानिमित्त : आई ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ मातृदिनानिमित्त : आई ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

शीतल मोहक चांदण्यामध्ये चल ना आई जाऊ

घोस खुडूनी नक्षत्रांचे जीवनास नटवू ||धृ||

*

शिशुपणी मजला अपुल्या संगे उद्यानाअंतरी

थकली तरीही घेई उचलुनी मजला कडेवरी

कुठे पांग फेडू गे तव मी तुझाच तर सानुला

तव स्वप्नांच्या पूर्तीचा मी वसा मनी धरला   ||१||

*

बालपणीची शुभंकरोति निरांजनीची वात

भीमरूपी अन रक्षण करण्या रामरक्षेचे  स्तोत्र

स्वाध्यायी उत्कर्ष घडावा ध्यास कसा विसरू

ध्येय तुझे हे साध्य जाहले दुजा कुणा ना वाहू  ||२||

*

वियोग कधि ना तुझा घडावा  मनात एकच आंस

सुखशय्येवर तुला पहाणे हाच लागला ध्यास

सारे काही अवगत झाले तुझीच गे पुण्याई

दंभ नको ना अहंकार या संस्कारा तू देई ||३||

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #237 ☆ मातृदिनानिमित्त – अमृत सिंचन… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 237 ?

☆ मातृदिनानिमित्त – अमृत सिंचन ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

आई म्हणजे माझ्यासाठी झिजणारे ते चंदन आहे

स्तुतिसुमनांना गंध आणण्या करतो मीही चिंतन आहे

*

देव पुजेचा मुहूर्त माझा कधी कधीतर टळून जातो

रोज सकाळी उठल्यावरती माते चरणी वंदन आहे

*

झुंजायाला तयार असते भट्टीसोबत तीही कायम

राख तिची तर झाली नाही जळून होते कुंदन आहे

*

डोळ्यांमधल्या वाचत असते चुका वेदना सारे काही

कधी घालते नेत्री माझ्या जळजळीत ती अंजन आहे

*

मशागतीची सवय लावली मनास माझ्या तिनेच आहे

बीज पेरुनी मग ती करते भरपुर अमृत सिंचन आहे

*

लोक म्हणाया मला लागले अता टोणगा नसे काळजी

ती तर म्हणते तिचा लाडका मी छोटासा नंदन आहे

*

सागरात मी मेरू पर्वत घेउन आलो रवी सारखा

चौदा रत्ने यावी वरती मनात चालू मंथन आहे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मातृदिनानिमित्त – बाईपण भारी देवा ☆ सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मातृदिनानिमित्त – बाईपण भारी देवा ☆ सौ. गौरी गाडेकर

(This is how the mother feels 🙂

मी आई आहे म्हणुनी

पिल्लांवर छाया धरते

ती मोठी झाली तरीही

मी चिंता त्यांची करते.

*

मी आई आहे म्हणुनी

अस्तित्व हरवले माझे

मज कधी वाटते भीती

पिल्लांवर माझे ओझे.

*

मी आई आहे म्हणुनी

माझी सारी पुण्याई

बछड्यांच्या कामी यावी

ही विनवणी देवापायी

*

मी आई झाले म्हणुनी

लाभला मला नव जन्म

आईपण मिरवत गेले

मम धन्य जाहला जन्म.

© सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “रफू” ☆ सौ. अर्चना देशपांडे ☆

सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

? विविधा ?

☆ “रफू” ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे ☆

काल  दुपारी मी टॅक्सीने माहीमहून सिटीलाईटला चालले होते. शोभा हॉटेलच्या सिग्नलला माझी टॅक्सी थांबली.. तेव्हा माझे लक्ष साडीच्या दुकानाच्या बाहेर बसलेल्या रफफू वाल्याकडे गेले. तो बऱ्याच कलरचे कापडाचे कापलेले छोटे छोटे तुकडे एकत्र बांधलेल्या गठ्ठ्यातून उलट सुलट करून शोधत होता. तो बहुदा रफू करायला मॅचिंग कापड शोधत असावा. आत्तापर्यंत मी रस्त्यावर रफू करताना पाहिले होते पण का कोणास ठाऊक आज माझ्या डोक्यात एक विचार येऊन गेला की खरंच एखादी साडी ड्रेस पॅन्ट किंवा कोणत्याही चांगल्या कपड्याला हा रफूवाला किती सफाईने  पडलेले छिद्र अशाप्रकारे दुरुस्त करतो की आपल्याला कळत पण नाही की अगोदर इथे फाटले होते आणि आपण ते  वस्त्र वापरू शकतो.

एखाद्या नवीन कपड्याला छोटेसे भोक पडले तर आपला जीव चुटपुटतो, आपल्याला ते वस्त्र वापरतायेणार नाही याचे वाईट वाटते.. रफू वाल्याच्या हातातल्या कलेने आपण ते वस्त्र वापरू शकतो मग मनात विचार आला की कधीकधी आपल्या एवढ्या मौल्यवान आयुष्यात एखादे नाते खराब झाले तर आपण दुखावतो ,कधी कधी ते नाते संपुष्टात येते. एखादा बॅड पॅच आला‌ तर निराश होतो. मग अशावेळी आपण रफूवाला का होत नाही? तेवढाच पॅच रफू करून परत नव्याने जीवनाकडे पहात तो पॅच विसरून जात नाही . अशावेळी रफूवालयाचे‌ तंत्र आपणआत्मसात केले पाहिजे, अशावेळी कोणती सुई कोणत्या रंगाचे धागे मिक्स करून वापरायचे व पॅच भरून काढायचा  व नव्याने सुरुवात करायची हे पाहायला हवे. थोडासा पॅच दिसेल पण परत नव्याने ते वस्त्र वापरू शकतो यासाठी फक्त हवे असते छोट्या छोट्या रंगीत आठवणींचे गाठोडे आणि प्रेमाची सुई. कोणास ठाऊक कोणत्या वेळी कोणते चांगले क्षण दुखावलेले नाते रफू करायला उपयोगी पडेल व आपण आनंदी होऊ.

चला तर मग या नवीन वर्षात छोट्या छोट्या जुन्या चांगल्या आठवणी मनाच्या कप्प्यात जपून ठेवूया आणि वेळ पडेल तेव्हा रफू वाला होऊया.

लेखक – अज्ञात.

प्रस्तुती – सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

पुणे

मो. ९९६०२१९८३६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन लघुकथा — डायबिटीस प्रेम / नव्या वळणावर ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ दोन लघुकथा — डायबिटीस प्रेम / नव्या वळणावर ☆ श्री मंगेश मधुकर 

[१]  डायबेटीस प्रेम

बराच वेळ डॉक्टर रिपोर्ट पहात होते त्यामुळं अनंतची अस्वस्थता वाढली.

“अनंतराव,तपासण्या करून घेण्याची सुबुद्धी कशी काय झाली.त्यातही दोघांनीही तपासण्या केल्या हे चांगलं केलंत”डॉक्टर हसत म्हणाले. 

“काही सीरियस?”

“खास नाही.अभिनंदन!!आयुष्यभर सोबत करणारा नवीन नातेवाईक आलायं”

“डायबेटीस”

“हो,काळजी घ्यावी लागेल.शुगर जास्त आहे.औषधं देतो पण सवयी बदलून पथ्य काटेकोरपणे पाळावी लागतील.” डॉक्टरांचा निरोप घेऊन विचारांच्या तंद्रीतच अनंत घरी आला.

“रिपोर्ट आले.काय म्हणाले डॉक्टर.सगळं व्यवस्थित ना.”अनीतानं एकापाठोपाठ प्रश्नांचा भडिमार केला.

“काही विशेष नाही”

“म्हणजे काहीतरी आहे.तुम्हांला चांगलं ओळखते”

“शुगर खूप वाढलीय”

“अरे बाप रे!! मग”

“औषध दिलीत आणि पथ्य सांगितलीयेत.”

“काळजी करू नका.तसंही आपण जास्त गोड कुठं खातो”

“आपल्याला वाटतं पण रिपोर्ट काही वेगळंच सांगतायेत.आजपासून चहा बंद”अट्टल चहाबाज अनंतचा गळा दाटून आला.

“पथ्य म्हणजे अवघड आहे.तुम्हांला गोड तर अतिप्रिय.”

“फक्त मलाच???तू पण गोड खाण्यात तोडीस तोड आहेस”

“मग असं करू आपण दोघंही मिळून पथ्य पाळू.दोघात तिसरा आता गोड विसरा.”अनीतानं वातावरण हलकं करण्याचा प्रयत्न केला. 

“मग काय काय खाणं बंद करायचं.”

“जे जे आवडतं ते सगळं..”

“इतक्या वर्षांच्या खाण्या-पिण्याच्या सवयी एकदम कशा बदलायच्या.तुम्हांला जमेल”

“जमवावं लागेल.नाहीतर.. ” 

“काय होईल”

“औषधाबरोबरच इन्सुलिन सुरू करावं लागेल.” 

“बाप रे.त्यापेक्षा नव्या नातेवाईकाचा पाहुणचार जोडीनं करू या.एक से भले दो.”

“नको.माझ्यासाठी इच्छा मारू नकोस.बिनसाखरेचा चहा,कारल्याची भाजी यागोष्टी झेपणार नाहीत.खूप त्रास होईल.”

“चॅलेंज देऊ नका.मी ठरवलं तर काहीही करू शकते.”

“रोज किमान अर्धा-पाऊण तास चालायला सांगितलेय.मला चालण्याचा जाम कंटाळा.तू बरोबर येशील.” 

“हे बरंयं.बोट दिलं तर तुम्ही हात पकडताय.असं वाटतयं की डायबेटीस मलाच झालाय”

“शुभ बोल.”

“त्रास होतो म्हणून तपसण्या केल्या अन भलतंच झालं.माझे रिपोर्ट नॉर्मल आले आणि तुम्हांला….”

“शंका असेल तर चेक कर”

“अहो,तसं नाही तुमच्यावर विश्वास आहे.या साखर बंदीचा फार त्रास होणार.”

“तो कसा काय?”

“मनाला आणि शरीराला बदल झेपायला पाहिजे ना.”

“आता यावर नंतर बोलू.चल आवर फिरायला जाऊ.”

“आजपासूनच..”अनीता 

“कल करे सो आज कर म्हणूनच आता डायबेटीस लाईफचा श्रीगणेशा आजच..”

“हे किती दिवस”

“सध्या तरी तीन महीने नंतर पुन्हा तपासण्या करू आणि मग डॉक्टर सांगितल तसं..”अनंत-अनीताचं नवीन रुटीन सुरू झालं.गोड खायची खूप इच्छा व्हायची पण मोह आवरला.बिनसाखरेचा चहा घशाखाली उतरायचा नाही म्हणून दिवसातून चार-पाच वेळा होणारा चहा दोनवर आला.जेवणात कारल्याचं प्रमाण वाढलं.सकाळी व्यायाम आणि संध्याकाळी चालणं सुरू झालं.तीन महिन्यांनी तपासण्या करून डॉक्टरांकडे गेले. अनीता रिसेप्शनिस्टशी बोलत असताना अनंत लगबगीनं आत गेले.

“डॉक्टर,एक महत्वाचं सांगायचंय”  

“बोला”

“हिला डायबेटीस विषयी..”तितक्यात अनीता आल्यामुळे अनंत गप्प बसले. 

“डायबेटीस विषयी काय म्हणत होता”डॉक्टरांनी विचारलं. 

“काही विशेष नाही.तुम्ही सांगीतल्याप्रमाणे पथ्य पाळीलीत.अजून काही काळजी घ्यायची का?’

“सांगतो.”

“वा,वा!!वहिनी,रिपोर्ट एकदम नॉर्मल.काळजीचं कारण नाही”डॉक्टर. 

“थॅंकयू डॉक्टर!!यांचा डायबेटीस काय म्हणतोय”

“मला शुगरचा त्रासच नाहीये”गडबडलेले अनंत पटकन म्हणाले. 

“तेच तर …डायबेटीस तुम्हांला आहे.त्यांना नाही.”डॉक्टरांचं बोलणं ऐकून अनीताला धक्का बसला. 

“डायबेटीस आहे म्हणून यांनी तीन महीने कडक पथ्य पाळलीयेत”

“चांगलयं की मग!!अनंतराव ठणठणीत आहेत.बिनधास्त गोड खाऊ शकतात.तुम्ही मात्र पथ्य आणि व्यायाम असाच चालू ठेवा.काहीही प्रॉब्लेम होणार नाही.”रिक्षातून येताना अनीता एकही शब्द बोलली नाही.त्यामुळं आता काय होणार या विचारांनं अनंताला टेंशन आलं.

“खोटं का बोललात”घरात पाऊल टाकताक्षणीच अनीताचा प्रश्न. 

“खोटं बिटं काही नाही उलट डायबेटीस होऊ नये म्हणून मी सुद्धा काळजी घेतली”

“मन मारून..”

“इतकी वर्षे गोड खातोय.काही दिवस बंद केलं तर काही बिघडत नाही. ”

“माझ्यासाठी केलंत ना” भरल्या डोळ्यांनी अनितानं विचारलं. 

“आपल्यासाठी..”

“डायबेटीसचं कळल्यावर घाबरले असते आणि माझं गोडावरचं प्रेम बघून कोणतीच पथ्य पाळली गेली नसती म्हणूनच हा खेळ केलात ना”

“यामुळे फायदाच झाला ना.तुझी शुगर कंट्रोल मध्ये आली आणि माझंही थोडं वजन कमी झालं.”

“चहा चालेल”

“पळेल”अनीतानं चहाचा कप दिला.पहीला घोट घेतल्यावर अनंतानं विचारलं “हे काय”

“अडीच चमचे साखर घातलीये.गोड चहा आवडतो ना.बिनधास्त प्या”

“अगं पण तुला..”

“तुमच्या प्रेमामुळे माझाही चहा एकदम गोड आहे.” अनीता अशी काही लाजली की अनंतच्या काळजाचं पाणी पाणी झालं.त्याच वेळी रेडिओवर सुरु असलेलं “बहोत प्यार करते हैं तुमको सनम, कसम चाहे ले लो….. ” हे गाणं अनुराधा पौडवाल आपल्यावतीनं गात आहेत असचं दोघांना वाटलं.

[२] “नव्या वळणावर…

सकाळची गडबडीची वेळ, किचनमध्ये आवराआवर सुरू होती.नवरा मित्राला भेटायला निघाला. 

“अहो,बाहेर जाताय तर एक काम करणार”जरा भीत भीतच विचारलं. 

“बोला”

“टोमॅटो अन बटाटे आणता”काही बोलले नाहीत पण चेहऱ्यावरचा राग स्पष्ट दिसला. 

“आणतो”

“आधी बटाटे घ्या आणि नंतर ..”पिशवी देताना म्हटलं तर नवरोबा प्रचंड चिडले. 

“विनाकारण अक्कल शिकवू नकोस”

“धांदरटपणा माहितीये म्हणून सांगितलं”

“तुझा बावळटपणा काढू का?” झालं!! रोजच्याप्रमाणं ‘तू तू .. मै मै..’ सुरू झालं.शेवटी हातातली पिशवी फेकून दार आपटून नवरा बाहेर गेला. संतापानं लाही लाही झाली. सणसण डोकं दुखायला लागलं.कामं बाजूला ठेवून बसून राहिले.डोकं शांत झाल्यावर ताईला फोन केला “आहेस का घरी”

“हो.आहे की”

“दहा मिनिटात येते”

“काही विशेष”

“सहजच”आवरून ताईच्या घरी गेले.चहासोबत इकडच्या तिकडच्या गप्पा चाललेल्या असताना एकदम ताईनं विचारलं “सगळं काही ठिक ना.”

“हो,असं का विचारतेस”

“बोलतेस वेगळे पण चेहरा निराळचं सांगतोय अन डोळे तर..”

“काही नाही.यांच्याशी वाद झाला”

“संसारात असल्या गोष्टी चालयच्याच”

“तसं नाही गं.आजकाल आम्ही बोलतो कमी आणि भांडतो जास्त.मग त्यासाठी कोणतही निमित्त पुरतं.रोजच कटकट.कुठंतरी निघून जावंसं वाटतं पण जायला जागा नाहीये.”

“लग्नाची पंचवीशी उलटल्यावर हे असं होतच”ताईनं अनुभवाचे बोल सांगितले. 

“हो,पण सहन करायला पण काही मर्यादा असते.किती अडजेस्ट केलं,मन मारलं ते माझं मलाच माहिती.”

“हे सगळं तुझ्याच संसारासाठी केलं ना’

“पण संसार माझ्या एकटीचा नाहीये.”

“पण तुझा नवरा तर चांगलायं ना”

“जगासाठी.खरं काय ते मला विचार.फक्त पैसे कमावले म्हणजे झालं का?घरात बाकीच्याही जबाबदाऱ्या असतात.दुखणी-खुपणी असतात ते सगळं मीच बघते.”

“म्हणजे नवरा बिनकामाचा आहे.”ताईनं हसत हसत विचारलं. 

“अगदीच तसं नाही.चांगलं वागत नसले तरी वाईटही वागत नाही फक्त नीट बोलत नाही.इतरांशी किवा फोनवर मात्र गुलूगुलू बोलतात.त्याचाच जास्त राग येतो.”

“असं का वागता म्हणून विचारलं नाही का?”

“तुला काय वाटतं.विचारलं नसेल.दहादा विचारलं पण उत्तर दिलं नाही उलट मीच खूप चिडकी आणि विसराळू झालीय असं म्हणाले.नाही नाही ते सुनावलं मग मी पण आख्ख खानदान खाली आणलं.”

“एवढं करून काय मिळवलं”ताई. 

“मनस्ताप,चिडचिड आणि अबोला,घरातली शांतता घालवली.”

“सगळं कळतय ना मग वाद का घालतेस”

“मुद्दाम करत नाही.चाळीशी नंतरच्या बदलांचा परिणाम होणारच ना.अशावेळी हक्काच्या माणसानं समजून घेतलं पाहिजे ना पण यांना काही कळतच नाही.सतत आपलं ‘तू बदललीस, बदललीस’ हा धोशा चालू.मुलीसुद्धा वडिलांची री ओढतात.कोणाला माझी किंमतच नाही.”एकदम भरून आलं अन ओक्साबोक्सी रडायला लागले. ताई पाठीवरून हात फिरवत होती.मायेच्या,वडीलकीच्या स्पर्शनं जास्तच रडायला आलं. 

“शांत हो,”

“आजकाल मूड सारखे बदलतात.सारखी चिडचिड होतेय हे मला समजतं.त्यामुळं वाद,कुरबुरी होतात हे मान्ययं. बाईच्या आयुष्यात ही फेज येतेच.सांभाळून घ्यावं एवढी साधी अपेक्षा पूर्ण होत नाही. गेल्या काही वर्षांपासून आमचं अजिबात पटत नाहीये.धड बोलणं तर दूरच पण सारखी भाडणं नाहीतर अबोला.खूप वैताग आलाय.एकमेकांची तोंड बघायची सुद्धा इच्छा नाही पण नाईलाज.”

“तुला असं का वाटते की भाऊजीनी समजून घेतलं नसेल”ताई. 

“१०० टक्के खात्री आहे.”

“शांतपणे विचार केला तर अनेक प्रश्नांची उत्तरं सापडतील.”ताई बोलण्यानं विचारचक्र सुरू झालं.एकेक गोष्टी आठवल्या.नवरा घर कामात करत असलेली मदत,अनेकदा क्षुल्लक कारणावरून मी चिडले तरी त्यांचं शांत राहणं.चूक नसताना माघार घेऊन टाळलेले वाद अशा अनेक गोष्टी आठवल्यावर रागाची धार बोथट झाली.

“नवरा अगदीच वाईट नाहीयं” सहजच बोलून गेले.

“चला,तुझं तुलाच समजलं यातच सगळं आलं.”

“आता निघते.त्यांच्या आवडीची कांद्याचं थालपीठ करते.खूष होतील.”

“काळजी घे ”

“येस,नक्की,काळजी घेईन ”

“मी भाऊजींविषयी बोलतेय.”

“म्हणजे”

“बायकांच्या आयुष्यात जसे हार्मोन्समुळे वागण्या-बोलण्यात बदल होतात.मूड स्विंग होतात. इमोशनल उलथापालथ होते.चाळीशीनंतर पुरुषांच्या आयुष्यात देखील तशाच घडामोडी होतात.मिडलाईफ क्रायसिस.मन सैरभैर होतं.अस्वस्थता वाढते. शारीरिक तक्रारी सुरू होतात.पुरुषांनाही त्रास होतो. फरक एवढाच की आपण बायका निदान बोलतो तरी ….पण पुरुष यावर व्यक्तच होत नाहीत.एकदम गप्प राहतात नाहीतर चिडचिड करतात.अनेकांना तर होणारा बदल समजतच नाही तर बरेचजण स्वीकारत नाही.”

“फक्त स्वतःला कुरवाळत बसले.त्यांच्या बाजूनं  कधी विचारच केला नाही..”

“जगण्याचा मार्ग बदलणाऱ्या ‘नव्या वळणावर’ एकमेकांना सांभाळलं ना मग पुढचा प्रवास सोप्पा होतो.”ताईनं जगण्याचं मर्म सोप्या शब्दात सांगितलं. इतक्यात नवरोबांचा फोन “हे बघ,टोमॅटो घेतलेत आता बटाटे किती घ्यायचेत” त्यांचं बोलणं ऐकून मला हसायला आलं.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ परि तुझ्यावाचुनि करमेना… भाग – १ ☆ प्रस्तुती – सौ उज्ज्वला केळकर ☆ प्रस्तुती – सौ उज्ज्वला केळकर ☆

सौ उज्ज्वला केळकर

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☆ परि तुझ्यावाचुनि करमेना… भाग – १ ☆ प्रस्तुती – सौ उज्ज्वला केळकर ☆

माझी एक सख्खी मैत्रीण म्हणजे शुभदा साने. तशा आमच्या प्रत्यक्ष गाठीभेटी कमी होतात. पण आठवड्यातून एकदोनदा तरी फोन होतोच. दिलखुलास गप्पागोष्टी होतात. जून-जुलै च्या दरम्यान फोनमधून हमखास विचारणा असते, ‘कुठली कुठली बोलावणी आली…? काय काय झालं?’… बोलावणी म्हणजे दिवाळी अंकांची बोलावणी… साहित्य पाठवण्याविषयीचं पत्र आणि काय काय झालं, म्हणजे, काय काय लिहून झालं वगैरे… वगैरे… आम्हा मैत्रिणीत सगळ्यांत जास्त आणि सगळ्यात आधी बोलावणी तिला येतात. त्यामुळे हा काळ तिच्या दृष्टीने खुशीचा तसाच व्यस्ततेचाही असतो.

यंदा मात्र थोडंसं वेगळं घडलं. वेगळं म्हणजे काय? तर जूनअखेर अखेरच मला ‘मेहता ग्रंथजगत’ कडून पत्र आलं. फोनवर तसं तिला सांगितलं. ती म्हणाली, ‘हो का? कशावर लिहायचंय?’ मी म्हटलं, ‘माझा सहचर’… पत्र वाचल्यावर एकदम शाळेच्या दिवसांची आठवण झाली. म्हणजे शाळेत नाही का आपण निबंध लिहीत होतो? ‘माझी आई’, ‘माझी मैत्रीण, दादा, ताई, आजी-आजोबा इ.इ.’ माझं वाक्य पुरं होण्यापूर्वीच ती म्हणाली, ‘माझा मोत्या…’ आणि खिदळायला लागली. मग लगेच म्हणाली, ‘गंमत केली ग! पण त्याचा एक गुण आहेच तुझ्या मिस्टरांमध्ये…’ मी जरा विचारात पडले. म्हणजे माझ्यावरचं त्यांचं वसा वसा ओरडणं तिच्यापर्यंत पोचलं की काय? तशी मी सूज्ञपणे आणि संयमाने मैत्रिणीसमोर युध्दाचे प्रसंग टाळण्याचा प्रयत्न करत असते. तरी पण संगोवांगी तिच्यापर्यंत पोचलं की काय? पण ती गुण म्हणाली… की बदलत्या काळात अनेक बदलांप्रमाणे ‘गुण’ या शब्दाचाही अर्थ बदललाय? क्षणभरात एवढं सगळं माझ्या डोक्यात भिरभरून गेलं. एवढ्यात ती पुढे म्हणाली, ‘आज्ञाधारकपणा… तुमचे मिस्टर खूपच ऐकतात बाई तुमचं… आमच्याकडे नाही बाई असं…’ मला वाटतं, प्रत्येक नव-याला शेजा-याची बायको जास्त देखणी वाटते, तसं प्रत्येक बाईला दुसरीचा नवरा जास्त शहाणा, समंजस, समतोल विचारांचा, मुख्य म्हणजे तिच्या मुठीत रहाणारा वाटतो. निदान माझा सहचर असा आहे, याबद्दल माझ्या सगळ्या मैत्रिणींची शंभर टक्के खात्री आहे आणि तसं काही नसलं, तरी तसंच आहे, हे इतरांना पटवून देणं माझ्या सहचराला छानच जमतं. म्हणजे, तुलना केलीच तर सृजनाची प्रतिभा माझ्यापेक्षा त्याच्याकडे जास्त आहे. आता ते फक्त लिखाणातून नाही, तर बोलण्यातून, वाणीतून जास्त प्रसवतं एवढंच!

त्यानंतर एकदा आम्ही सगळ्या मैत्रिणी एकत्र जमलो होतो. साहित्यकलेपासून राजकारण… क्रीडेपर्यंत सगळ्या विषयांना पालाण घालून झाल्यावर गप्पांना खरा रंग भरला, तो आमच्या यांना.. आमच्या घरात… आमची मुलं… असं नि तसं सुरू झाल्यावर, आता माझ्या सगळ्याच मैत्रिणींना वाटतं, आमचे हे म्हणजे सद्गुणांचा पुतळा… मग मी म्हणून टाकलं,

‘आमच्या सुखी आणि समृध्द सहजीवनाचं मधुर पक्व फळ

चाखत माखत खातोय आम्ही गेली कित्येक वर्षं….’

‘याचं रहस्य?’ एकीने लगेच टोकलं. म्हटलं,

‘रहस्य कसलं त्यात? आमच्या घरात नेहमीच घडतं माझ्या इच्छेप्रमाणे…’

‘तेच तर आम्ही म्हणतो…’

सगळ्यांनी एकदमच गिल्ला केला.

‘थांबा… थांबा… पुरतं ऐकून घ्या…’

मी त्यांना थांबवत म्हणते.

‘आमच्या घरात नेहमीच घडतं  माझ्या इच्छेप्रमाणे

जेव्हा एकमत असेल तेव्हा

आणि घडतं त्यांच्या इच्छेप्रमाणे

दुमत असेल तेव्हा…’

क्षणभर त्या गोंधळल्याच. ‘बंडल मारू नका’ त्या एकदमच म्हणाल्या. ‘शप्पथ!’ मी म्हटलं. हे हे आत्ता म्हटलं ना, ते सुध्दा त्यांचंच म्हणणं आहे. मी आपली कवितेच्या फॉर्ममध्ये त्याची मांडणी केली, एवढंच!

विद्येचे माहेरघर असलेल्या आणि साहित्यिक आणि सांस्कृतिक उपक्रमांचं केंद्रबिंदू असलेल्या पुण्यनगरीतून १९६५ साली, लग्न होऊन मी माधवनगरला आले. गाव सांगलीपासून तीन-चार मैलावर, पण वहातूक व्यवस्था फारशी नव्हती. अधूनमधून येणा-या महामंडळाच्या बसेस किंवा मग टांगे. टू व्हिलर म्हणजे सायकलीच प्रामुख्याने. घराघरात स्कूटर्स दिसायचा काळ अद्याप खूपच दूर होता. त्यामुळे सांगलीला होत असलेल्या कार्यक्रमांचा मला फारसा उपयोग नसे.

घर मोठं होतं. बारा पंधरा माणसं नित्याचीच. येणं जाणंही खूप असे. घरात माणसांचा तसाच कामाचाही खूपच धबडगा असे. गृहस्थाश्रमाच्या रहाटगाडग्यात उठल्यापासून झोपेपर्यंत फक्त काम आणि कामच असे. मन-बुध्दीला, विचार, कल्पनाशक्तीला तसा विश्रामच असे. माय स्पेस किंवा माझा अवकाश याबद्दल आज जे सातत्यानं बोललं जातं, तो मला त्यावेळी बिंदूतसुध्दा मिळत नव्हता. नाही म्हणायला, गावात ब-यापैकी असलेले वाचनालय आणि महिला मंडळ हे हिरवळीचे तुकडे होते. ‘वंदना’ हे वार्षिक हस्तलिखित मंडळातर्फे निघत असे. त्याचं संपादन, महिला मंडळासाठी बसवायचे कार्यक्रम यातून थोडीफार कल्पनाशक्तीला चालना मिळायची.

मला आठवतंय, मी माझी पहिली कथा ‘वंदना’ हस्तलिखितासाठी लिहिली होती. पण ते सारं कधीमधी. रोजच्या जीवनात माझ्या शिक्षणाशी संबंधित असं काहीच नव्हतं. यामुळे होणारी माझी घुसमट यांच्या लक्षात आली. (आमचा काळ हा, हे अहो… जाहोचा! इकडून तिकडून पुढे एक पाऊल पडलेलं. सर्रास ‘अरे तुरे… चा काळ यायला अजून वीस-पंचवीस तरी वर्षं लागणार होती.) लग्नानंतर दुस-या वर्षी मला बी.एड्. ला जाणार का? म्हणून विचारलं. त्या वेळी शिक्षकी पेशाविषयी आस्था वा आकर्षण म्हणून नव्हे, तर स्वयंपाकघर-माजघर, उंबरठा-अंगण या परिघाबाहेर पाऊल टाकायची संधी मिळणार, म्हणून मी ‘होय’ म्हणून टाकलं. सकाळी कॉलेज, दुपारी पाठ, एवढं सोडून जागं असलेल्या वेळात घरकाम, त्यामुळे खूप फरफट झाली. पण मजाही खूप वाटली. शारीरिक ओढाताण झाली, तरी मन प्रसन्न, टवटवित राहिलं. कॉलेजमधील विविध कार्यक्रम, पाठाची तयारी यात कल्पकतेला खूप वाव मिळायचा. त्यावेळी जरी मी घराबाहेर पडण्याची संधी एवढ्याच दृष्टीने बी.एड्. कडे पाहिलं असलं, तरी पुढच्या आयुष्यात मला त्याचा खूप फायदा झाला आणि ते करायला सुचवलं होतं माझ्या सहचराने.

– क्रमशः भाग पहिला 

© सौ उज्ज्वला केळकर

संपर्क –17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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