हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ प्रेम जनमेजय और उनकी कृति “सींगवाले गधे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय जी के व्यक्तित्व, दर्शन एवं उनकी कृति सींगवाले गधे की समीक्षा)

☆ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय और उनकी कृति “सींगवाले गधे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

डॉ प्रेम जनमेजय – व्यक्तित्व दर्शन एवं कृति समीक्षा

“सींगवाले गधे” पुस्तक पर चर्चा से पहले बात करते हैं इस कृति का सृजन करने वाले श्री प्रेम जनमेजय जी की। एक धारदार व्यंग्यकार के रूप में और “व्यंग्य यात्रा” पत्रिका के माध्यम से व्यंग्य को प्रतिष्ठित व लोकप्रिय बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत प्रेम जनमेजय जी का नाम भी साहित्य जगत का घेरा तोड़कर सम्पूर्ण देश में कुछ उसी तरह चर्चित हो गया है जैसे मुंशी प्रेमचन्द और हरिशंकर परसाई का। जिन्होंने कभी इन्हें नहीं पढ़ा, जिन्हें साहित्य और व्यंग्य से कोई लेना देना नहीं वे आमजन भी इन्हें जानते हैं। साहित्य जगत में उनके उत्कृष्ट योगदान से, उनकी सफलता से परिचित हैं। एक नजर में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाले, सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी जनमेजय जी अपनी “सींग वाले गधे” पुस्तक के अपने कथ्य में पूरे होशोहवास में शपथ पूर्वक घोषित करते हैं कि “न तो मैं जन्मजात साहित्यकार हूं न मेरा जन्म किसी साहित्यिक परिवार में हुआ है और न ही मेरे आस – पड़ोस में कोई छोटा बड़ा साहित्यकार रहता है….मेरे खानदान में लेखक नाम का कोई जीव भी नहीं था।” उनका यह कथन साबित करता है कि उनका लेखन अनुभव, साधना, आत्मावलोकन और सिंहावलोकन से गुजरता हुआ कागज पर उतरता है। यही उनकी व्यापक सफलता और यश कीर्ति का कारण है। वे कहते हैं कि उनके जीवन में परसाई साकार और निराकार दोनों रूपों में उपस्थित हैं। प्रेम जनमेजय लिखते हैं कि जो परसाई हिंदी व्यंग्य के रक्षक दिखाई देते थे एक समय वही परसाई व्यंग्य के स्वतंत्र स्वरूप को सिरे से नकारने लगे। हरिशंकर परसाई ने घोषणा कर दी कि व्यंग्य कोई विधा नहीं है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। परसाई ने यहां तक लिखा कि उन्होंने कहानी, संस्मरण, निबंध आदि ही लिखे हैं। सारा प्रगतिशील खेमा व्यंग्य विरोधी हो गया। परसाई ऐसी ऊंचाई पर थे कि उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था।ऐसे समय प्रेम जनमेजय ने द्रुतविलंबित स्वर में अपना “विधा राग, मध्यम स्वर में ही सही चालू रखा। अगस्त 2012 में साहित्य अकादमी उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान एवं “व्यंग्य यात्रा” के संयुक्त तत्वावधान में व्यंग्य केंद्रित  दो दिवसीय आयोजन में “व्यंग्य विधा आंदोलन” को संजीवनी मिली। प्रेम जी ने लिखा है कि हिंदी साहित्य के जिन भारी भरकम हित चिंतकों ने व्यंग्य को अन्य विधाओं की पंगत में बैठाने का महापाप किया है जिसका प्रायश्चित नहीं हो सकता… व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है।

निःसंदेह प्रेम जनमेजय के संपादकत्व में “व्यंग्य यात्रा” में व्यंग्य पर गंभीर लेख आते रहते हैं  – व्यंग्य क्या है, कहां से पैदा होता है, व्यंग्य का कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। व्यंग्य की दशा और दिशा क्या है – वह किस ओर जा रहा है आदि आदि। मेरे (लेखक के) अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतिकरण के तरीके से अलग अलग अर्थ प्रकट करता है। नारद मुनि मात्र नारायण – नारायण भी भिन्न – भिन्न अवसरों पर भिन्न – भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके नारायण – नारायण कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति भाव प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किंतु व्यंग्य केवल शब्दों की नाव पर ही सवारी नहीं करता, शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म देता है। जिस तरह परिस्थितियों वश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय, क्रोध, ईर्ष्या पैदा होते हैं उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है। कभी शब्दों के माध्यम से, कभी वाणी के माध्यम से, कभी हाव – भाव से तो कभी सिर्फ नजरों से अतः व्यंग्य एक भाव भी है और इस दृष्टि से मुझे हर व्यक्ति में जब – तब व्यंग्यकार नजर आ जाता है।

अस्तु, आज के व्यंग्यकारों को प्रेम जी आधा कबीर मानते हैं, क्योंकि कबीर निर्भीक होकर सीधा प्रहार करते थे, आज के व्यंग्यकार बचकर प्रहार करते हैं। हरिशंकर परसाई जन्मशती 2023 में प्रकाशित प्रेम जनमेजय जी की कृति “सींग वाले गधे” में प्रकाशित उनका कथ्य साबित करता है कि परसाई की रचनाओं, विषयों, लेखन और शैली के प्रशंसक जनमेजय बचकर आधा प्रहार करने वाले व्यंग्यकार नहीं हैं, वे कबीर की तरह निर्भीकता से पूरा प्रहार करने वाले सशक्त व्यंग्यकार हैं।

अब पुस्तक पर आते हैं। जिस रचना “सींगवाले गधे” पर पुस्तक का नाम कारण हुआ उसे पुस्तक में प्रथम क्रम में रखा गया है। इसमें करोनाकाल की विषम परिस्थितियों, परेशानियों में फंसे हुए लोगों और लाभार्थियों पर करारा व्यंग्य है। किन शक्ति संपन्न लोगों को भारी – भरकम कहा जाता है सब जानते हैं। प्रेम जी लिखते हैं – “भारी – भरकम जी भी किसी करोना से कम नहीं हैं। भारी भरकम जी किसी के पीछे पड़ जाएं तो उसका लॉकडाउन करवा देते हैं।” वे आगे लिखते हैं – “वह तालियों के बाजार के थोक व्यापारी हैं। कब किसके लिए तालियां बजवानी हैं और किससे बजवानी हैं – ताली शास्त्र के वे ज्ञाता हैं। ….”वह बेचारे इसलिए हैं कि मास्टर हैं। वह डबल बेचारा इसलिए है कि हिंदी का मास्टर है।” ….”भक्त तो पद पर बैठे सींगधारी के भक्त होते हैं। इसलिए समझदार गधे निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं कि उनके सिर से सींग गायब न हों और वे दुधारु पद पर बने रहें।” दूसरे क्रम के आलेख का शीर्षक है – “हा! हा! श्री की दुर्दशा देखी न जाई “। इसमें प्रश्न किया गया है कि “क्या अवतार लेने का अधिकार प्रभु को है, देवियों को नहीं ?” ….देश का कानून कहता है कि हर किसी को भागने का अधिकार है। “दो वैष्णवन की वार्ता” शीर्षक लेख में उनके सीधे तीखे व्यंग्य हैं – “जुगाड़ जम जाए तो आदमी जनसेवक से राजा बन जाता है” ….”पुरस्कार अच्छे – अच्छों को ज्ञानी बना देवे है।” ….”जब से भगवान के कारण सत्ता मिलनी प्रारंभ हुई है हर पार्टी के अपने अपने भगवान हो गए हैं।” जुगाड़ू की  शक्ति बताते हुए प्रेम जी लिखते हैं कि – “जुगाड़ू के लिए का लंदन का अमेरिका।” “जैसे जिनके दिन फिरे”, करारी व्यंग्य रचना है जिसमें राधेलाल के माध्यम से चुनाव और लोकतंत्र पर प्रहार है। …. “फिरते होंगे घूरे के दिन बारह बरस में, आजकल तो पांच बरस में फिरते हैं “। “अथ पुरुष स्त्री संवाद” में पुरुष पर स्त्री के सटीक तीखे प्रहार हैं। पुरुष निरुत्तर है। “बसंत चुनाव लड़ रहा है” में प्रेम जी कहते हैं – “उसे अब पास वास होकर क्या करना है। अब तो वह जल्द शिक्षा मंत्री बनेगा और औरों को पास करेगा। उसे टिकट मिल गया है। जल्द वह देश का कर्णधार बनने वाला है।” ” बुरा न मानो साहित्यिक छापे हैं” – रचना की शुरूआत ही तीखी टिप्पणी से होती है – “वह छोटा व्यापारी था अतः बड़े आयकर अधिकारी के सामने त्राहिमाम की मुद्रा में बैठा था। बड़ा व्यापारी होता तो आयकर अधिकारी उसके सामने भिक्षामदेहि की मुद्रा में बैठा होता।” पुस्तक के 15 वें क्रम पर रचना है – “ओबे मास्टर जी !” व्यंग्य का पैनापन देखिए – आकाशवाणी हुई – ओबे मास्टर जी ! कैसा है ? मैं चौंका, बेशर्ममेव जयते के युग में, मुझ रिटायर्ड स्कूल मास्टर को “जी” लगाकर पुकारने वाला कौन है ? कौन है जो देश का हाल न पूछकर मुझ अनुत्पादी मास्टर का हाल पूछ रहा है।

“चुनाव लीला समाप्त आहे” चुनाव के साथ प्रभु चर्चा व्यंग्य के साथ हास्य भी पैदा करती है। भक्तों को दर्शन के लिए ऑनलाईन पंजीकरण और व्ही.आई.पी. तथा आम भक्त की चर्चा देश के धर्म क्षेत्र का सच प्रकट कर रही है। “चौराहे पर इतिहास” नामक रचना में प्रेम जनमेजय लिखते हैं – प्रजातंत्र की मांग पर देश कभी तिराहे, कभी दोराहे, कभी इक राहे पर खड़ा होता है, जैसे बाजार की मांग पर उपभोक्ता खड़ा होता है। “इश्क नहीं आसां” में लिखते हैं कि अब मजनूं सावधान हो गए हैं। सब्जी मंडी में छेड़ते, छिड़ते नहीं हैं। किसी मॉल में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। देश के सेवक भी तो देश के साथ सांसद में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। “वाह री बाढ़” में राहत वितरण का वास्तविक चित्र दिखाया गया है – “हम बाढ़ नियंत्रण कक्ष के अफसर हैं सरकार से बाढ़ नियंत्रण के लिए जो राहत मिलेगी उसे हम ही तो बांटेंगे। पिछली बाढ़ आई थी तो हमने ये टॉप फ्लोर लिया था। आगे एक प्रसंग पर वे लिखते हैं – “मुर्दे की भी हैसियत होती है, देश सेवक मरता है तो उसके लिए कम से कम चार एकड़ में समाधि बनती है।

167 पृष्ठीय, चार सौ रुपए मूल्य की इस सजिल्द पुस्तक “सींगवाले गधे” को विद्या विहार, नईदिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें 40 रचनाएं हैं। अनेक रचनाएं कोरोना और लॉक डाउन की परिस्थितियों पर भी व्यंग्य करती हैं। सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली में रचित गंभीर व्यंग्य, विसंगतियों पर ध्यान आकर्षित करते हुए न सिर्फ पाठकों को सोचने पर विवश करते हैं बल्कि उनमें आक्रोश भी पैदा करते हैं। इनमें हास्य नहीं किंतु विभिन्न प्रसंगों में कहीं – कहीं पाठकों के होंठों पर मुस्कान अवश्य उभरती है।

जनमेजय के रचना संसार में अब तक शामिल व्यंग्य संकलन हैं – राजधानी में गंवार, बेशर्ममेव जयते, कौन कुटिल खलकामी, कोई में झूठ बोल्या, हंसो – हंसो यार हंसो आदि। तीन व्यंग्य नाटक हैं – क्यूं चुप तेरी महफिल में, इर्दम – गिर्दम अहं स्मरामि (संस्मरण) एवं स्मृतियन के घाट पर जनमेजय चंदन घिसें (संपादन) के अतिरिक्त व्यक्ति और व्यक्तित्व चर्चा पर भी उनकी अनेक कृतियां हैं। प्रेम जी को श्रेष्ठ सृजन पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। प्रेम जनमेजय की शैली भले ही व्यंग्य बाणों से भरी हो किंतु उनका सृजन उन्हें चिंतक – विचारक साबित करता है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “टूट गई पतवार भँवर में“)

✍ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मन दर्पण में सुधियों का अंबार लगा

खुशियों में भी मेरे मन पर भार लगा

नूर नहीं चहरे पर दुख की छाया है

जिसको देखो आज वही बीमार लगा

 *

जो देता वो उसमें ही खुश रहना है

सब उपदेशों का यह मुझको सार लगा

 *

सच को सच कहने से मुखिया डरता है

कुर्सी पाकर वो कितना लाचार लगा

 *

टूट गई पतवार भँवर में नाँव फसी

ईश्वर मेरे तू ही मुझको पार लगा

 *

इक दिन जाना तय है जो भी आया है

चार दिनों का मेला यह संसार लगा

 *

मरघट सा सन्नाटा घर में फैला था

तुम आये तो भीड़ भरा बाजार लगा

 *

हाथ रखा जबसे तुमने सर पर मेरे

अपना हर सपना होता साकार लगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जी और जान।)

?अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या जी और जान एक ही ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें जान है,वह ही तो जीव है। जान से ही तो प्राणियों का जीवन है।

जी और जान को जानने,समझने के लिए,आप चाहें तो जी को मन और जान को प्राण

भी कह सकते हैं।

जी का दायरा बड़ा विस्तृत है,जब कि बेचारी जान तो नन्हीं सी है,लेकिन इसी जान से तो यह जहान है। जी का विस्तार जिजीविषा तक है और अगर इस दुनिया से जी भर जाए तो ,अब जी के क्या करेंगे,जब दिल ही टूट गया।।

उधर दूसरी ओर यह हालत है,वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। साफ साफ क्यों नहीं कहते कि किसी ने आपका जी चुरा लिया है। यह जी ही कभी जिया बन जाता है,तो कभी हिया। लागे ना मोरा जीया।

ये कवि और शायर लोग शब्दों से खेलते हैं,अथवा इंसान के जज़्बातों से,कुछ पता ही नहीं चलता। जरा इन महाशय को देखिए ;

जान चली जाए

जिया नहीं जाए।

जिया जाए तो फिर

जिया नहीं जाए।।

जीवन की कड़वी सच्चाई तो यही है कि जी जान एक करके ही जीवन में आगे बढ़ा जाता है। सफलता यूं ही किसी के पांव नहीं चूम लेती। लेकिन यह भी सच है कि निराशा और अवसाद के क्षणों में यही जी इतना भारी हो जाता है, कि इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।

यही जी कभी खास बन जाता है,तो कभी आम। जब जी करता है,मन की जगह विराजमान हो जाता है। कभी राग द्वेष में उलझ जाता है,तो कभी मौज मस्ती में डूबा रहता है।।

यही जी कभी मन है तो कभी दिल और जब मूड में आ जाए तो फिर यह किसी के वश में नहीं। कभी किसी को जी भर के गालियां दे दी तो कभी किसी को जी भर के आशीर्वाद। फिलहाल तो राजनीति में एक दूसरे को,जी भर के कोसने का चलन जोरों पर है।

कौन नहीं चाहता,जी भर के जिंदगी जीना। क्या चाहत से कभी किसी का जी भरा है। जी लो,जी भर के जिंदगी,कल किसने देखा है। इस जान के रहते ही आप कुछ जान सकते हो। इसलिए अगर जी को लगाना ही है तो कुछ जानने में लगाएं,जान सके तो जान। और कुछ तो हमारे बस में नहीं जानना,जी और जान के बारे में,बस ;

जी चाहता है,

खींच लूं तस्वीर आपकी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 23 – दिखावे की दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दिखावे की दुनिया।)

☆ लघुकथा – दिखावे की दुनिया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

बहुत दिन हो गया बंधु तुम्हारी मीठी आवाज नहीं सुनी।

जल्दी बताओ! यार फोन क्यों किया? तुम्हें पता है कि अभी कोचिंग क्लास में जाना है। तुम्हें तो पढ़ाई की चिंता नहीं है?

भाई मेरा जन्मदिन है। मॉल में आज शाम को पार्टी रखी है, सभी दोस्त आ रहे हैं। तुम भी जरूर आना एक दिन नहीं पढ़ोगे मेरे बुद्धि देव तो कुछ नहीं हो जाएगा।

ठीक है भाई आ जाऊंगा पर  पार्टी के खर्च के लिए पैसे कहां से आए? क्योंकि हमारे और तुम्हारे घर की स्थिति तो ऐसी है कि हमारे मां-बाप किसी तरह हमको यहां पढ़ने भेजे हैं  तुमने कैसे मैनेज किया ?

बंधु सुनो चुपचाप शाम को चले आना इसीलिए तुम्हें फोन नहीं करता और जोर से फोन पटक देता है।

राकेश सोचने लगता है कि इसे जरा भी चिंता नहीं है और मैं इसके घर में फोन करके यह बात कह भी नहीं सकता जाने दो मैं शाम को देखता हूं।

अरे !यार यह यहां पर तो  बड़े लोग भी खाना खाने से डरते हैं तुमने यहां कैसे पार्टी अरेंज की?

दोस्त इसके लिए बहुत जुगाड़ करना पड़ता है।

हम गरीब घर के है तो मेरी इज्जत यहां कोई नहीं करेगा धनवान का ही समान सदा होता है।  ये सब मैं मैनेज कर लिया अच्छा अब तुम अपना फोन मुझे दे दो बाकी के दोस्त कहां रह गए पूछना है?

क्यों तेरा फोन कहां गया?

और तेरी घड़ी भी तो नहीं दिख रही है मुझे?

ओ मेरे बुद्धि देव तू सवाल बहुत पूछता है?

कुछ दिनों के लिए और मैं इसे गिरवी रख दिया है अब यह बात किसी को नहीं बताना पार्टी इंजॉय करों। आम खा भाई गुठली गिन कर क्या करेगा?

राजेश गहरी सोच में डूब गया ऐसे दिखावे से क्या मतलब है और उसके मस्तिष्क पर गहरी रेखा आ गई और उसे बहुत घबराहट होने लगी। वहां पर लड़के लड़कियां बड़े आराम से सिगरेट पी रही थी और नशे का आनंद लेकर नाच रहे थे।

केक और लगे बढ़िया काउंटर पिज़्ज़ा, बर्गर और तरह-तरह के फास्ट फूड से भरे थे। वह चकित सब देखता रहा।

उसकी आंखों में आंसू आ गए। कुछ नहीं खाया गया वह चुपचाप वहां से अपने हॉस्टल रूम में आ गया।

वह अपनी पढ़ाई में लग गया लेकिन बार-बार उसके ध्यान में एक सवाल आ रहा था कि जब मैं आशुतोष के घर जाता था तो उसकी दादी हम दोनों को समझती थी कि जितनी चादर है उतना ही पैर पसारना चाहिए। यहां आकर अपने सारे संस्कार कैसे भूल गया?

दिखावे की दुनिया है क्या?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 – मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 3

☆ कथा-कहानी # 103 –  मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

भीषण गर्मी में तपते हुये जब “असहमत” मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन दयाराम के घर पहुंचा तो दयाराम के (घर का)दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर जुगाड़ से बने जर्जर खड़खड़ाते कूलर की ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते हुये इलेक्ट्रीशियन घोर निद्रा में लिप्त था।दयाराम का शौक तो पहलवानी और गुंडागर्दी था पर इससे तो घर गृहस्थी चलती नहीं तो किस्मत ने उसके हाथ में रामपुरी चाकू की जगह बिजली का टेस्टर थमा दिया था।रात देर तक, बारातघर में झालर ठीक करते करते भोर में घर लौटा था और सपने में खुद अपना भी “शाल श्रीफल” से होता सम्मान देख रहा था,तभी जर्जर और बड़ी मुश्किल से ईंटों के दम पर टिके कूलर के गिरने की आवाज ने उसे सपनीले शॉल- श्रीफल से ज़ुदा कर दिया।बाहर असहमत की कर्कश आवाज और दरवाजे पर जोरदार धक्कों ने न केवल उसकी नींद तोड़ दी बल्कि उसका कूलर भी धराशायी कर दिया।प्याज,टमाटर और इलेक्ट्रीशियन के भाव सीजन में उछाल मारते हैं और नखरेबाजी में ये दूल्हे के दोस्तों को भी मात देते हैं।

इस सुनामी से दयाराम पूरी तरह से निर्दयता से भर उठा और कमरे के अंदर के 30 डिग्री से बाहर खुले वातावरण में आने पर 45 डिग्री ने, उसका सामना असहमत से करा दिया जो बाहर तप तप के वैसे ही और गुस्से से भी लाल था।फिर हुई ज़ुबानी जंग इस तरह रही।

दयाराम : अबे दरवाजा क्यों तोड़ रहा था,घंटी नहीं दिखी तुझे।

असहमत :अबे,काम करने के सीजन में गधे बेचकर सोया पड़ा है और ऊपर से मुझे ताव दिखा रहा है।

दयाराम : काम अपनी मरजी से और अपने समय से करता हूँ चिलगोजे।खुद तो कुछ काम धंधा है नहीं, साला मुझे ज्ञान बांट रहा है।चल निकल यहाँ से।

दोनों ही एक दूसरे की तबियत से ‘बेइज्जती’ खराब किये जा रहे थे और तपता मौसम,जले में नमक के छींटे मार रहा था।वाकयुद्ध जारी था और असहमत ने दयाराम पर पहले दिव्यास्त्र का प्रयोग किया।

असहमत : साले ,रुक अभी ,मैं “भाई” को लेकर आता हूँ।

दयाराम : अबे भाई की धमकी किसे देता है,लेकर आ,दोनों की एक साथ ठुकाई करता हूँ।

असहमत : ठीक है, तो भागना नहीं, अभी भाई को लेकर आता हूँ।घर के बाहर ही रहना नहीं तो घर में घुसकर मारूंगा।

दयाराम : अबे बेवकूफ समझा है क्या, इतनी गर्मी में, मैं बाहर खड़ा रहूं और तेरा इंतजार करता रहूँ।तू लेकर आ अपने भाई को और  दरवाजा तोड़ने के बजाय बाहर लगी घंटी बजाना। फिर दोनों का सरकिट फ्यूज़ करता हूँ।

इस वाकयुद्ध को 1-1 पर ड्रा छोड़कर जब असहमत आगे बढ़ा तो उसकी रास्ते में ही अपने तथाकथित “भाई” से मुलाकात हो गई और पूरा किस्सा सुनकर “भाई” भूल गया कि वो किसी प्राइवेट बैंक का करारनामे पर नियुक्त वसूली (भाई) अधिकारी है।ये रेप्यूटेशन का सवाल था तो दोनों दयाराम के घर पर पहुंचे और जैसे ही असहमत ने घंटी बजाई,बिजली के झटके ने उसे पीछे हटा दिया।वसूली भाई की तरफ देखकर,असहमत ने कहा :इसकी घंटी में करेंट है.पहले कटआउट निकालता हूँ, फिर बजाता हूँ।

भाई: अबे, जब लाईट ही नहीं रहेगी तो घंटी कहाँ से बजेगी,दयाराम ने बदमाशी कर दी है।चल दूसरे इलेक्ट्रीशियन के पास चलते हैं।

भीतर दयाराम को सुनाते हुये ,असहमत ने कहा ;अपने आप को साला,थामस अल्वा एडीसन समझता है,तीन टुकड़ों में बांट के अलग अलग फेंक दूंगा।एक तरफ थामस जायेगा तो दूसरी तरफ अल्वा और तीसरी दिशा में एडीसन।

और अपने जुगाड़ से बने कूलर को ठीक करते हुए इलेक्ट्रीशियन दयाराम ये नहीं समझ पा रहा था कि जाते जाते आखिर क्यों, असहमत उसे ये “थामस अल्वा एडीसन” नाम की अनजान डिग्री से सम्मानित कर गया।

— समाप्त —

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 230 ☆ मातृदिनानिमित्त : आई गेल्यावर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 230 ?

☆ मातृदिनानिमित्त : आई गेल्यावर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आई गेल्यानंतर..

तिचं कपाट आवरताना,

किती सहजपणे टाकून दिल्या..

तिने  अनेक वर्षे जपून ठेवलेल्या तिच्या वस्तू,

जुनी पत्रे..लग्नपत्रिका…कागदपत्रे…जुने फोटो..विणकामाच्या सुया ..लोकर आणि बरेच काही सटर फटर…. जे तिला खुप महत्वाचे वाटत  असावे!

 

तिच्या माहेरच्यांनी दिलेल्या,

त्या लाकडी कपाटाला नेहमीच कुलुप असायचे !

होते त्यात काहीतरी खुप जपून जपून ठेवलेले…

कादंब-या, पाकशास्र, भरतकाम विणकामाची दुर्मिळ पुस्तके….

एक सुलट एक उलट करता करता…संपून गेले आयुष्य!

 

आत्यांनी विचारले,जुन्या आठवणी  काढत…

“वहिनीं ची भावगीतांची पुस्तके आहेत का?,त्या म्हणून दाखवायच्या त्यातली गाणी…”

 

हाती लागलेल्या, “गोड गोड भावगीते” या पुस्तकांवर तिच्या लग्नाची तारीख… कुणीतरी लग्नात भेट दिलेला भावगीतांचा संच… मुखपृष्ठावर बासरी वाजवणारा कृष्ण…  शेजारी राधा… राधेच्या हातावर स्वर्गीय पक्षी!

 

आतल्या पानांवर… वाटवे, पोवळे, नावडीकर, शांता आपटे, माणिक वर्मा, मधुबाला जव्हेरी, ज्योत्स्ना भोळे… यांचे तरूण चेहरे आणि गाणी…

 

एक भला मोठा कालखंड बंदिस्त करून ठेवलेला त्या लाकडी कपाटात !

कपाटातल्या सा-याच भावमधूर स्मृती….किती विसंगत तिच्या वास्तवाशी!

कपाटात कोंडलेले… डाचत होते बहुधा तिला आतल्या आत  !

 

आईचे कपाट आवरताना…

बरेच काही समजले तिच्या अंतर्मनातले….!

 

राधेच्या हातावरचा स्वर्गीय पक्षी,

पंख पसरून तसाच स्थिर….गेली कित्येक वर्षे!

आईचा प्राणपक्षी दूर…दिगंतरा….    !

 

सत्तावन्न वर्षाच्या सासरच्या वास्तव्यातली…फडफड…तडफड….शांत…!

 

आई गेल्यानंतर पाहिले,

कित्येक वर्षे गोठविलेले कपाटातले बंदिस्त विश्व !

आता मनात एक रूखरुख….

किती सहजपणे टाकून दिले आम्ही, तिला महत्वाचे वाटणारे बरेच काही!

(आई गेली. ….तेव्हा ची कविता)

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हसरा वैशाख… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हसरा वैशाख ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

वैशाख हसतो

सत्य वाटते का ?

वैशाख,हसतोच हसतो

असत्य का वाटावे ?

बहावा-गुलमोहर फुलतो

कुठेतरी निर्मळ झरा वहातो

पाणंद झाडातून कोकिळ गातो

तापल्या मातीस आम्रतरु बिलगू पहातो

वैशाख हसतोच.

मनात आठवणी उदास भासती

रणरण उन्हाचे निसर्गही सोसती

तरी सांजवेळी डुंबताना दिवस रंगतो

वैशाख हसतोच हसतो

हे निर्विवाद सत्य….!

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ समस्या… ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ समस्या… ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

बा.भ. बोरकर म्हणतात,

 मी पण ज्यांचे

पक्व फळापरी

सहजपणे गळले हो

 जीवन त्यांना कळले हो!

जीवनाविषयी अगदी नेमकं सांगणाऱ्या या ओळी पण खरोखरच हे इतकं सोपं आहे का?  जीवन म्हणजे नक्की काय हे संपेपर्यंत कळतं का? आपण जन्माला आलो,  जगलो,  म्हणजे नेमकं काय याचा सखोल विचार मनात कधी येतो का?  जीवनाविषयी खूप भाष्ये आहेत.

 जीवन एक रंगभूमी आहे.

 जीवन म्हणजे दोन घडीचा डाव.

 जीवन म्हणजे नदी आणि समुद्राचा संगम.

 जीवन म्हणजे कुणाला माहित नसणारं प्रत्येकाचं निरनिराळं  एक गोष्टीचं पुस्तक.

 यश अपयशाचा लेखा जोखा.

 सुख दुःख यांचे चढउतार.

 जीवन म्हणजे संसार.

 जसा तवा चुल्ह्यावर

 आधी हाताला चटके।

 तेव्हा मिळते भाकर. ।।

जीवनाविषयीचा विचार करताना त्यातली दुर्बोधता जाणवते.  खरोखरच जीवन कोणाला कळले का?  हा अत्यंत मार्मिक प्रश्न डॉ.  निशिकांत श्रोत्री यांनी त्यांच्या समस्या या लघुकाव्यात सुंदरपणे मांडला आहे.  या कवितेचा आपण रसास्वाद घेऊया.

☆ समस्या ☆

 जीवन ही तर एक समस्या

 कुणा न सुटली कुणा उमगली।ध्रु।

 

 कशास आलो कशास जगतो

 मोह मनाचा कुठे गुंततो

 कोण आपुला कोण दुजा हा

गुंता कधीचा कुणाल सुटतो ।।१।।

 

सदैव धडपड हीच व्यथा का

जीव कष्टतो कशा फुकाचा

स्वप्न यशाची दुर्मिळ झाली

मार्ग शोधता नजर पोळली ।२।

 – डॉ.  निशिकांत श्रोत्री

समस्या  या शीर्षकांतर्गत दोनच कडव्यांचे  हे अर्थपूर्ण चिंतनीय गीत आहे.  एखादी गोष्ट जेव्हा आपल्याला कळली असते असे आपण म्हणतो तेव्हा ती  खरंच का आपल्याला उमगलेली असते?  जो बोध अपेक्षित असतो तो आपणास झालेला असतो का?  उलट जितके आपण त्या प्रश्नात रुततो तितकी त्यातली समस्या अधिक गंभीरपणे जाणवते.  म्हणूनच ध्रुवपदात डॉ. श्रोत्री म्हणतात,

 जीवन ही तर एक समस्या

कुणा न सुटली कुणा उमगली।ध्रु।

या दोन ओळीत जीवनाविषयीचा नकारात्मकतेने विचार केला आहे असेच वाटते पण त्यात एक वास्तव दडलेलं आहे.  सभोवताली जगणारा माणूस जेव्हा आपण पाहतो तेव्हा खरोखरच जाणवतं की जीवन हे सोपं नाही. कुणासाठीच नाही.  ते कसं जगायचं, जीवनाकडे नक्की कोणत्या दृष्टिकोनातून पाहायचे आणि ते कसे जमवायचे हीच एक फार मोठी समस्या आहे,  कोडे आहे.  आणि आजपर्यंत हे कोडे ना समजले ना सुटले.

कवीने वापरलेला समस्या हा शब्द खूप बोलका आहे. इथे समस्या याचा अर्थ फक्त संकट,  आपत्ती,  चिंता, एक घोर प्रश्न असा नाही तर समस्या म्हणजे एक न सुटणारे कोडे.  एक विचित्र गुंतागुंत.  एकमेकांत अडकलेल्या असंख्य धाग्यांचे गाठोडे  आणि माणूस खरोखरच आयुष्यभर हा गुंता सोडवतच जगत असतो.  तो सुटतो का?  कसा सोडवायचा याचे तंत्र त्याला सापडते का हा प्रश्न आहे.

 कशास आलो कशास जगतो

 मोह मनाचा कुठे गुंततो

कोण आपला कोण दुजा हा

 गुंता कधीच कुणा न सुटतो ।१।

नेटाने आयुष्य जगत असताना निराशेचे अनेक क्षण वाट्याला येतात.  ही निराशा वेगवेगळ्या कारणांमुळे आलेली असते. अपयशामुळे, अपेक्षा भंगामुळे, अचानक उद्भवलेल्या अथवा अनपेक्षितपणे बदल झालेल्या परिस्थितीमुळे,” काय वांच्छीले अन काय मिळाले” या भावनेतून, फसगतीतून, विश्वासघातातून… वगैरे वगैरे अनेक कारणांमुळे माणसाच्या जीवनात नैराश्य येते आणि मग त्यावेळी सहजपणे वाटते  का आपण जन्माला आलो?  कशासाठी आपण जगायचं पण तरीही यातला विरोधाभास भेडसावतो. एकाच वेळी जगणं असह्य  झालेलं असतं,  मरावसंही वाटत असतं पण तरीही कुठेतरी जगण्याविषयीचा मोह सुटत नाही.  मनाने मात्र आपण या जगण्यातच गुंतलेले असतो.

फसवणूक तर झालेलीच असते. ज्यांना आपण आपली माणसं म्हणून मनात स्थान दिलेलं असतं त्यांनीच पाठीमागून वार केलेला असतो किंवा कठीण समयी साथ सोडलेली असते. मनात नक्की कोण आपलं कोण परकं, कुणावर विश्वास ठेवावा याचा प्रचंड गोंधळ उडालेला असतो.  मनाला जगण्यापासून पळून जावसं वाटत असतं पण तरीही पावलं मागे खेचली जातात कारण मोह, लोभ यापासून मुक्ती मिळालेली नसते.  पलायनवाद आणि आशावाद यामध्ये सामान्य माणसाची विचित्र होरपळ  होत असते. जगावं की मरावं अशी द्विधा मनस्थिती निर्माण होते आणि डॉक्टर श्रोत्रींनी या द्विधा मनस्थितीचा अत्यंत परिणामकारक असा सहज सुलभ शब्दात या कडव्यातून वेध घेतलेला  आहे हे जाणवतं.

कशास आलो कशास जगतो

या ओळींमागे आणखी एक भावार्थ आहे.

माणसाचा जन्म पूर्वसुकृतानुसारच होतो.

जन्मत:च  त्याने करावयाची कर्मेही ठरलेली असतात. पार्थ का भांबावला. कारण युद्ध करणे,अधर्माशी लढणे हा त्याचा क्षात्रधर्म होता. पण तो मोहात फसला. गुरु बंधुंच्या पाशात गुंतला आणि किंकर्तव्यमूढ झाला. माणसाचाही असाच अर्जुन होतो. तो त्याची कर्मं किंबहुना त्याला त्याची कर्मं कोणती हेच कळत नाही. भलत्याच मोहपाशात अडकतो. भरकटतो,सैरभैर होतो.आणि हीच त्याच्या जीवनाची समस्या बनते.

मोह मनाचा कुठे गुंततो या काव्यपंक्तीला एक सहजपणे प्राप्त झालेली अध्यात्मिक झालर आहे. मनुष्य जीवनाला काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर या षड्रिपुंनी  ग्रासलेलं तर आहेच. स्थितप्रज्ञता मिळवणे  किंवा त्या पायरी पर्यंत पोहोचणे  ही फार मोठी तपस्या आहे आणि जोपर्यंत माणूस हा नर असतो नारायण नसतो तोपर्यंत त्याला या सहा शत्रूंचा वेढा असतोच.  त्यात मोहाची भावना ही अधिक तीव्र असते आणि त्यासाठी माणूस जगत असतो आणि जगताना मोहापायी अनेक दुःखांचा वाटेकरी  होत असतो. चिंतित, पीडित असतो. डॉक्टर श्रोत्रींनी या कडव्यात केलेलं भाष्य हे वरवर पाहता जरी नकारात्मक वाटत असलं तरी ते एक महत्वाचा  संदेश देतं. माणसाच्या वाट्याला दुःख का येतात याचे उत्तर या काव्यात मिळतं. विरक्ती, दूरस्थपणा, अलिप्तता या तत्त्वांचा यात अव्यक्तपणे पाठपुरावा केलेला आहे. एकाच वेळी जेव्हा आपण जीवन ही एक समस्या आहे असं म्हणतो त्याचवेळी त्या समस्येला सोडवण्याचा एक मार्गही त्यांनी सूक्ष्मपणे सुचवला आहे असे वाटते. “सूज्ञास जास्ती काय सांगावे?” हा भाव या कडव्यात जाणवतो.

 सदैव धडपड हीच व्यथा का

 जीव कष्टतो कशा फुकाचा

 स्वप्न यशाची दुर्मिळ झाली

 मार्ग शोधता नजर पोळली ।२।

माणूस आयुष्यभर मृगजळापाठी धावत असतो.  तो एक  तुलनात्मक आयुष्य जगत असतो.  तुलनात्मक आयुष्य म्हणजे जीवघेणी  स्पर्धा.  स्पर्धेत असते अहमहमिका, श्रेष्ठत्वाची भावना, I AM THE BEST  हे सिद्ध करण्याची लालसा आणि त्यासाठी चाललेली अव्याहत धडपड.  जिद्द, महत्त्वाकांक्षा स्वप्नं बाळगू नयेत असे मुळीच नाही. SKY IS THE LIMIT.

आकाशी झेप घे रे पाखरा

सोडी सोन्याचा पिंजरा  या विचारात तथ्य नाही असे मुळीच नाही. झेप घेणं, भरारी मारणं, ध्येय बाळगणं,  उन्नत प्रगत होणं यात गैर काहीच नाही पण त्याचा अतिरेक वाईट.  पंखातली ताकद अजमावता आली नाही तर नुसतेच कष्ट होतात. फुकाची धावाधाव,  पळापळ हेलपाटणं होतं.  स्वप्न पाहिलं पण यश मिळालं नाही अशीच स्थिती होते.  माणूस दिशाहीन होतो भरकटतो आणि अखेर जे साधायचं ते साधता आलं नाही म्हणून निराश होतो. आयुष्याच्या शेवटी प्रश्न एकच उरतो.. काय मिळालं अखेर आपल्याला? का आपण इतकं थकवलं स्वतःला?  ज्या सुखसमृद्धीच्यापाठी आपण धावत होतो तिला गाठले का? मुळात सुख म्हणजे नेमकं काय?  हे तरी आपल्याला कळलं का? सुखाचा मार्ग शोधता शोधता नजर थकली. समोर येऊन उभा ठाकला तो फक्त अंधार. ही वस्तुस्थिती आहे. हेच माणसाचं पारंपारिक जगणं आहे आणि याच वास्तवाला उलगडवून दाखवताना डॉ. श्रोत्री मिस्कीलपणे त्यात दडलेल्या अर्थाचा, प्रश्नाचा आणि उत्तराचाही वेध घ्यायला लावतात. पाठीवर हात फिरवून सांगतात,” का रे बाबा! स्वतःला इतका कष्टवतोस? तू फक्त कर्म कर.  कर्म करण्याचा अधिकार तुला आहे. त्या कर्मांवरही तुझा हक्क आहे. पण कर्मातून मिळणाऱ्या फळाची अपेक्षा करू नकोस.  अपेक्षा मग ती कोणतीही असू देत… यशाची, स्वप्नपूर्तीची, सुखाची, समृद्धीची पण अंतिमतः अपेक्षा दुःख देते.

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मलहेतुर्भूमा ते संङ्गोsस्तवकर्मणि।।

समस्येचे मूळ कसे शोधावे याची एक दिशा या काव्यातून दिलेली आहे.  हे काव्य  अत्यंत चिंतनीय आहे. प्रत्येक कडव्याच्यामागे तात्त्विक अर्थ आहे. हे वाचताना मला सहजपणे विचारवंत जे. कृष्णमूर्ती यांच्या भाष्यांची आठवण झाली.  ते म्हणत,

“आपले ईहलोकीचे जीवन— कलह, द्वेष, मत्सर, युद्धे, काळजी, भीती, दुःख्खे यांनी भरलेले आहे.  याच्या मुळाशी मनो बुद्धी विषयीचे अज्ञान आहे.  नेमकं हेच ज्ञानमीमांसात्मक सत्य डॉ. श्रोत्रींनी अत्यंत सुबोधपणे समस्या या त्यांच्या लघुकाव्यातून मांडलेलं आहे. या काव्याबद्दल मी गमतीने म्हणेन मूर्ती छोटी पण कीर्ती महान

असे हे आत्मचिंतनात्मक, समत्व योग असलेले, नकारात्मकतेतून सकारात्मकतेकडे  नेणारे उत्कृष्ट गीत.

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मालगुडी डेज… ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

मालगुडी डेज ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

1985,86 चा काळ खुप भन्नाट काळ कारणं ह्या वर्षात यवतमाळात आमच्या घरी टिव्ही चे आगमन झाले. ह्या टिव्ही ने सगळ्यांना खिळवून ठेवले होते बघा. जरी वडीलधारी मंडळी ह्या टिव्ही ला इडियट बॉक्स म्हणत असले तरीही ते सुद्धा ह्याच्या समोर ठाण मांडून बसत असत. अर्थात त्या वेळेचे कार्यक्रम पण एकत्रितपणे बघायच्या लायकीचे असायचे म्हणा.   

त्यावेळी माझ्या आवडत्या मलिकांपैकी एक मालिका म्हणजे “मालगुडी डेज”.म्हणजेच मालगुडी डेज ही एक भारतीय दूरचित्रवाणी मालिका आहे. ह्या मालिकेचे सगळंच अफलातून होत, त्याचे कथानक, मालिकेचे शिर्षक गीत,त्या त्याचे चित्रणआणि त्यात काम करणारे कलाकार. असं वाटायचं ह्यातील एक जरी डावें पडले असते तरी ही मलिका परिपूर्ण न वाटता कुठेतरी काहीतरी मिसिंग वाटले असते. 

ही मालिका आर.के. नारायण यांच्या मालगुडी डेज नावाच्या इ.स. १९४३ च्या लघुकथा संग्रहावर आधारित आहे. या मालिकेचे दिग्दर्शन कन्नड अभिनेता आणि दिग्दर्शक शंकर नाग यांनी केले होते. कर्नाटक संगीतकार एल. वैद्यनाथन यांनी स्कोअर तयार केला, तर आरके नारायण यांचा धाकटा भाऊ आणि प्रसिद्ध व्यंगचित्रकार आर.के. लक्ष्मण हे रेखाटन कलाकार होते. ही मालिका चित्रपट निर्माते टीएस नरसिंहन यांनी बनवली होती. ही मलिका बघुन कित्येकांना मालगुडी हे गाव, स्थान काल्पनिक आहे ह्यावर विश्वासच बसत नव्हता. भारतीय रेल्वेने मालगुडी डेज मालिकेच्या स्थानाला आदरांजली म्हणून भारतातील शिमोगा, कर्नाटक मधील अरसालू रेल्वे स्थानकाचे नाव बदलून मालगुडी रेल्वे स्थानक ठेवण्याचा निर्णय घेतला होता.

ह्या मालिकेतील कथांचे लेखन आर. के. लक्ष्मण.

हे एक भारतीय इंग्रजी साहित्याचे कसदार लेखन करणारे प्रतिभावान लेखक तर होतेच शिवाय अतिशय मानाचे समजण्यात येणारे साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण आणि पद्मविभूषण ह्याचे मानकरी होते. आज त्यांचा स्मृतिदिन.

आर. के. नारायण आणि मालगुडी हे दोन्ही शब्द समानार्थी म्हणून वापरता येतील. १९३५ साली नारायण यांनी मालगुडी नावाच्या एका काल्पनिक गावाला केंद्रस्थानी असल्याची कल्पना करून स्वामी ॲन्ड फ्रेन्ड्‌स या नावाची आपली पहिली कथामालिका  लिहिली.  नारायण यांनी एका पाठोपाठ एक सरस गोष्टी लिहून काढल्या. त्यांच्या बऱ्याच कथा मालगुडी नावाच्या गावाभोवती घडतात. या गोष्टी वाचतांना वाचक त्यात हरवून जातात. हे गाव पूर्णपणे काल्पनिक आहे यावर अनेकांचा विश्वास बसत नाही, इतके वास्तववादी चित्रण नारायण यांनी आपल्या कथांमधून उभे केले आहे. या गावातीलच एक गोष्ट ‘दि गाईड’ यावर गाईड नावाचा हिंदी चित्रपट निघाला.

आर के नारायण यांचा  स्मृतिदिन १३ मे रोजी  झाला. मालगुडी डेज सारख्या मालिकेच्या आठवणी जाग्या झाल्यात.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ उद्या पालकांना घेऊन ये… ☆ श्री मयुरेश देशपांडे ☆

श्री मयुरेश देशपांडे

? जीवनरंग ?

उद्या पालकांना घेऊन ये…☆ श्री मयुरेश देशपांडे

उद्या बाहेरगावी जायची त्याची लगबग त्याच्या आत्ताच्या घाईत स्पष्ट जाणवत होती. जेवणं लवकर उरकली, माझा बिछाना लवकर घातला आणि आपल्या खोलीकडे लवकर गेला. दाराच्या फटीतून बाहेर येणारा प्रकाश अद्याप तो जागा असल्याचे सांगत होता, उद्या प्रवासात न्यायचे सामान भरत असेल बहुधा. पूर्वी हे सामान त्याच्यासाठी दुसर कोणी भरत होतं. त्यामुळे लक्षात ठेवून सगळे सामान, रोजची औषधे आणि हो ज्या कामासाठी जायचे आहे त्या संदर्भातील कागदपत्रे असे खूप काही. मला त्याला उद्याबद्दल सांगायचं होतं, विचारायचं होतं, थांबवायचं होतं, पण तो आज माझ्याशी नीट बोललाच नाही, आज त्याने मला काही विचारलेही नाही.

मला माझ्या वर्गशिक्षकांनी उद्या पालकांना घेऊन ये, असे सांगितले होते आणि नेमके तेच मला त्याला सांगायचे होते. पालकांमध्ये आई आणि बाबा दोघे आले ना? पण माझी आई कुठे आहे? कुठे आहे म्हणजे खरेच कुठे आहे मला माहित नाही. रडायला लागले की चित्रपटातला बाबा सांगतो, तसा माझा बाबा मला आकाशातला एखादा तारा दाखवतो आणि माझ्या आईचा पत्ता सांगतो. शाळेतल्या बाईंना पण तो हेच सांगेल काय? हो, पण त्यासाठी आधी तो शाळेत तर आला पाहिजे, तो तर उद्या बाहेरगावी चालला आहे, निदान त्याची धावपळ तरी हेच सांगतीये. आता काय करायचे?

वर्गशिक्षिकांनी “पालकांना घेऊन या”, असे नक्की का सांगितले असावे? प्रश्नांचे जाळे शाळेतून निघाल्यापासून मला गुंत्यात अडकवत होते. अगदी रात्री बिछान्यात अंग टाकल्यावरसुद्धा. म्हणजे एरवी बाबाने अंगावर दुलई घातली की अंगाई गीताची गरज नाही की काऊ माऊच्या गोष्टीची गरज नाही. पण आज तसे झाले नाही. बाबाने त्याच्या खोलीत जावे म्हणून मी काहीवेळ डोळे मिटलेही, पण त्याने दार ओढून घेताच ते उघडलेही. आता तो त्याच्या आणि मी माझ्या खोलीत जागे होतो. समजा उद्या बाबा शाळेत आलाच, तर बाई त्याला काय सांगतील? तुमची मुलगी खिडकीतून बाहेर बघत असते, वर आकाशात कोणाला तरी शोधत असते, अभ्यासात ठीक आहे पण वर्गात अजिबात लक्ष नसते, आताशी मित्र मैत्रिणींपासूनही लांब राहु लागली आहे वगैरे सगळे तर नाही ना सांगणार? आणि हे ऐकून बाबाला काय वाटेल? तो खरेच माझ्यासाठी खूप काही करत आहे. अगदी त्याचा व्याप पूर्वी इतकाच सांभाळत. मग त्याला अपयशी तर वाटले तर? तो माझ्यावर रागावला तर? नाही नाही मी यातले काहीच होऊन देणार नाही. उद्या सकाळीच वर्गशिक्षिकांना जाऊन भेटीन, त्यांची माफी मागेन आणि त्यांना हवे तसे वागण्याचे आश्वासन देईन. फक्त माझ्या पालकांना, म्हणजे फक्त माझ्या बाबाला शाळेत बोलवू नका. आता मात्र विचारांनी थकलेले माझे डोके कधी शांत झोपेत गेले कळालेच नाही.

सकाळी बाबा लवकर उठला असावा बहुधा. आज त्याला बाहेरगावी जायचे असावे. मग आजी तरी इकडे येईल किंवा मला तरी आजीकडे पाठवेल, म्हणजे धम्मालच धम्माल. इतक्यात कालची शाळा आठवली, बाईंचे पालकांना बोलावणे आठवले. बाबाला सांगू का? तो बिचारा बाहेरगावी चालला आहे. सगळेच रद्द करावे लागेल त्याला. नको कालरात्री ठरवल्याप्रमाणे मीच जाऊन भेटीन बाईंना.

एखाद्या शहाण्या मुलीसारखे माझे सगळे आवरूनच मी खोली बाहेर आले. दिवाणखान्यात शाळेचे दप्तर ठेवले. स्वयंपाकघरात जाऊन बाबाला काही मदत हवी आहे का विचारले. “अरे वा! आज माझे पिल्लू स्वतःहून उठले आणि तुझे आवरूनही झाले.”, बाबा खूप खूश झाला. मग मी पटकन दुध प्यायले, दोघांनी नाष्टा उरकला आणि शाळेत खेळांची तयारी आहे असे सांगून मी सायकल काढत लवकर घरातून बाहेर पडले. शाळा सुरू व्हायच्या आधी वर्गशिक्षिकांना भेटायचे होते.

मी सायकल घाईने दामटत शाळेत पोहचले. सायकल लावली आणि समोरच्याच झाडाखाली जाऊन बसले. बाईंशी बोलायची हिंमत होत नव्हती. काय आणि कसे बोलायचे याची वाक्ये मनात जुळवत होते, पुन्हा पुन्हा उजळणी करत होते. मी हे सगळे बोलल्यावर बाई काय म्हणतील? रागावतील, घरी पाठवतील की प्रेमाने जवळ घेत पाठ थोपटतील.

ते काही नाही जाऊच आत्ता असे म्हणत दप्तर पाठीवर घेत मुख्य इमारतीकडे चालू लागले. बाहेरच प्रवेशद्वाराजवळ बाबाची भली मोठी गाडी दिसली आणि छातीत धडधडायला लागले. बाबा इथे कसा आला, बाबाला हे सगळे कसे कळाले, तो तर बाहेरगावी चालला होता, मग इथे कसा आला, पुन्हा प्रश्नांचा गोंधळ. मी शिक्षकांच्या खोलीकडे वळाले. अर्ध्या वाटेतच बाबा परत येताना भेटला.

“अग वेडे कालच नाही का सांगायचस? यात घाबरण्यासारखे काय? बरे, मी वर्गशिक्षिकांशी बोललो आहे. तू थेट वर्गाकडेच जा आता आणि हो, त्या तुझे खूप सारे कौतुक करत होत्या. तेव्हा मी बाहेर गावावरून येताना तुझ्यासाठी मोठे बक्षिस आणणार आहे.”

मला नक्की काय बोलावे हेच कळत नव्हते. त्याच्या भल्या मोठ्या गाडीत बसताना बाबा मला गाडीपेक्षाही मोठा भासत होता, माझे आभाळजणू. मी वर्गात पोहचून बाकावर दप्तर ठेवले आणि वर्गाबाहेरच वर्गशिक्षिकांची वाट बघत उभे राहिले. त्या आल्या तशी त्यांच्या कमरेला घट्ट मिठी मारली आणि आईजवळ रडावे तसे हमसून हमसून रडायला लागले.

“हं चला आता वर्गात, प्रार्थनेची वेळ झाली आहे”, बाई मात्र हसून इतकेच म्हणाल्या.

लेखक : म. ना. दे. (होरापंडीत मयुरेश देशपांडे)

C\O श्री मंदार पुरी, पहिला मजला, दत्तप्रेरणा बिल्डिंग, शिंदे नगर जुनी सांगवी, पुणे ४११०२७

+९१ ८९७५३ १२०५९  https://www.facebook.com/majhyaoli/

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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