मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “लामणदिवे” – लेखक : श्री सदानंद कदम ☆ परिचय – सौ. अर्चना मुळे ☆

सौ. अर्चना मुळे 

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “लामणदिवे” – लेखक : श्री सदानंद कदम ☆ परिचय – सौ. अर्चना मुळे ☆ 

पुस्तक – लामणदिवे

लेखक – श्री सदानंद कदम

प्रकाशक – अक्षर दालन

पृष्ठ संख्या – १४४

मूल्य – रु. २००/-

जेव्हा जेव्हा समाजात अनीती, भ्रष्टाचार फोफावतो तेव्हा तेव्हा समाजाला दिशा देणारा, अंधारात प्रकाश देणारा, छोटीशी ज्योत सतत तेवत ठेवणारा  कुणीतरी जन्माला येतो असं म्हटलं जातं. कोणताही काळ मनश्चक्षू समोर आणला तर फक्त एकच सत्य गोष्ट जाणवते, ती म्हणजे सदासर्वकाळ ‘शिक्षक’, ‘गुरु’ हे लोक लहान मुलांवर खरे संस्कार करतात. ही संस्काराची देण दिव्यासम सतत तेवत ठेवतात. हे तेवणारे दिवे मात्र संख्येने नगण्य आहेत हेच खरे.

शाळांमधे मुलाना तोच अभ्यासक्रम  सर्जनशील, कृतीशील राहून शिकवणारे, व्यावहारीक ज्ञान देणारे कल्पक शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थ्याला आवडले नाहीत तरच नवल! संपूर्ण महाराष्ट्रात असे कितीतरी शिक्षक कार्यरत आहेत. त्यांची माहिती मात्र आपल्यापर्यंत पोहोचत नाही. प्रत्येक पालक अशा शिक्षकांच्या शोधात असतो. पण ते अवलिया शिक्षक हर शाळेत थोडेच असतात. ते असतात लाखात एक! दूरवर! 

अशाच शिक्षकांबद्दल भरभरून सांगणारं, त्यांचं कौतुक करणारं आणि त्यांच्या संकल्पना आपल्यापर्यंत पोहोचवणारं एक पुस्तक नुकतंच प्रकाशित झालंय. ‘आयुष्यात अक्षरांची जादू असणार्‍या सर्व गुरुजनांना सादर… ‘ असं म्हणत लेखकाने सुरुवात केली आहे. लेखकही साधा माणूस. त्याचं साधं वागणं, रांगडी बोलणं, मोकळंढाकळं राहणं याचा लवलेश अधूनमधून पुस्तकात डोकावतो. तो ज्या वाचकाला सापडला त्याला पुस्तकातील सर्व शिक्षक पात्रं नीट समजली असं म्हणता येईल. कारण लेखकाचं भाषेवर कितीही प्रभुत्त्व असलं तरी उगीचंच शब्दांच्या अलंकृतपणाचा आव कुठेही आणला नाही. पुस्तकात शिक्षक – विद्यार्थी, शिक्षक – प्रशासकीय अधिकारी, दोन शिक्षक, शिक्षक – गावकरी यांच्यातील संवाद अगदी सहज, साध्या, सोप्या शब्दात मांडला आहे. त्यामुळे हे पुस्तक वाचकांना खिळवून ठेवतं.

हे पुस्तक म्हणजे महाराष्ट्राच्या कानाकोपर्‍यातील १९ अवलिया शिक्षकांची विद्यार्थ्यांचं आयुष्य घडवणारी उत्तम प्रयोगशाळा. शिक्षकांचं फक्त कौतुक करायचं म्हणून नाही तर या शिक्षकांनी केलेले प्रयोग अनेक शाळांमधे केले जावेत. मुलांचं शिक्षण आनंददायी व्हावं. मुलांचा आनंद कशात आहे हे लेखकाला चांगलं माहीत आहे कारण तोही एक जिल्हा परिषदेचा या पात्रांसारखा आगळावेगळा शिक्षकच. म्हणून हे पुस्तक महाराष्ट्राच्या शैक्षणिक विकासात महत्त्वपूर्ण ठरेल यात शंकाच नाही.

प्रत्येक शिक्षकाला लेखकाने जवळून अनुभवलंय. शिक्षकांचं शिकवणं, त्यानी केलेले प्रयोग स्वत: डोळ्यानी बघितलेत. काही अनुभवी शिक्षक सहकार्‍यांना गुरु मानलंय. त्यानुसार वेगळी, मुलुखावेगळी, तिची कथाच वेगळी, अवलिया, ध्येयवेडा, अंतर्बाह्य शिक्षक, चौसष्ठ घरांचा राजा, स्वप्नं पाहणारं नक्षत्र, विवेकवादाचं झाड, जिद्दी, झपाटलेल्या, सेवाव्रती, कर्मयोगी, कणा असलेले गुरुजी, स्वप्नं पेरणारा माणूस, हाडाचा मास्तर, जंगलातले गुरुजी, मूर्तीमंत आचार्य, मार्तंड जे तापहीन अशा शीर्षकांमधून त्या त्या शिक्षकी सेवेमधील त्यांचं तप दिसतं.

मुलांना मराठी, इंग्लिश, गणित, विज्ञान या सर्व विषयांचं आकलन व्हावं, मुलांचा सर्वांगीण विकास व्हावा यासाठी मुलांच्या सर्वोत्तम प्रगतीसाठी झटणार्‍या या शिक्षकांच्या कार्यकर्तृत्वाला हृदयापासून माझा सलाम!!

महाराष्ट्रातील हे सर्व शिक्षक म्हणजे लेखक सदानंद कदम यांच्या नव्या पुस्तकातील मुलखावेगळे लामणदिवे.

लामणदिवे मधील ही शिक्षक पात्रं कोण आहेत? त्यानी नेमके असे कोणते प्रयोग केले आहेत? ते मुलखावेगळे का ठरले आहेत? महाराष्ट्राच्या कोणत्या शाळेत हे शिक्षक काम करत आहेत? हे पुस्तक वाचल्यावर यातील पात्राना भेटावसं वाचकाना नक्कीच वाटेल. म्हणून शिक्षकांचे छायाचित्रांसह भ्रमणध्वनी क्रमांक पुस्तकाच्या शेवटी दिले आहेत.

हे पुस्तक म्हणजे पालक शिक्षकांच्या हातातील विद्यापीठ. अक्षरदालन, कोल्हापूर म्हणजे पीठाधिपती. प्रत्येक वाचक हा पुन:श्च असा विद्यार्थी ज्याला वाटेल की असे शिक्षक मला लहानपणी भेटले असते तर… मी वेगळा घडलो असतो.

पालक शिक्षक विद्यार्थी यांच्याबरोबरच समाज विकासाची ज्योत तेवत ठेवण्याची इच्छा बाळगणार्‍या प्रत्येकाने हे पुस्तक वाचायलाच हवं! 

असं हे अद्भुत ‘ ला म ण दि वे!! ‘

परिचय : सौ. अर्चना मुळे

समुपदेशक

संपर्क – 21 ए बी,पार्श्व बंगला, श्रीवास्तुपूरम, धामणी रोड, सांगली – 416415

फोन – 9823787214 email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #232 ☆ गुण और ग़ुनाह… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 232 ☆

गुण और ग़ुनाह… ☆

‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं,आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है,हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं,उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।

मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है,परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंसकर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा-शक्ति,आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।

इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं;  उसकी सोच सकारात्मक है तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम,स्नेह,सौहार्द,करुणा, सहनशीलता,सहानुभूति,त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय,उपास्य,प्रमण्य  व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी,प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच,भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और उसके बदले में मानव को कोई भी मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा, ‘कोयला होय न ऊजरा,सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए। यह कथन कोटिश: सत्य है कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है,क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं–जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए  सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।

शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है,क्योंकि मानव की कथनी- करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध–भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकते और दुष्कर्म कर डालते हैं,क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है,परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।

आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना सर्वथा असंभव है।

मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबा डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान् नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है,देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 7 – नवगीत – प्रभु श्री राम जी की महिमा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – प्रभु श्री राम जी की महिमा…

? रचना संसार # 7 – नवगीत – प्रभु श्री राम जी की महिमा…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

राम तुम्हारी महिमा सारे,

जग ने देखो गाई है।

राम कथा लिखकर तुलसी ने,

जन -जन में पहुँचाई है।।

 *

अवतारे हैं राम अवध में,

देव पुष्प बरसाते हैं।

ढोल नगाड़े घर -घर बजते ,

ऋषि मुनि भी हर्षाते हैं।।

ऋषि वशिष्ठ से शिक्षा पाकर,

प्रेमिल -गंग बहाई है।

 *

उनकी पत्नी भी जगजननी ,

जनक दुलारी सीता थीं।

तीन लोक में यश था उनका

देवी परम पुनीता थीं।

राज-तिलक की शुभ बेला पर

दुख की बदरी छाई है।

 *

कुटिल मंथरा की चालों से,

राम बने वनवासी थे।

लखन जानकी संग चले वन,

क्षुब्ध सभीपुरवासी थे।।

चौदह साल रहे प्रभु वन में,

कैसी विपदा आई है।

 *

सीता हरण किया रावण ने,

वह तो अत्याचारी था।

गर्व राम ने उसका तोड़ा,

जग सारा आभारी था।

वापस लेकर सीता आये,

बजी अवध शहनाई है।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्री ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – स्त्री ? ?

एक स्त्री ठहरी है

स्त्रियों की फौज़ से घिरी है,

चौतरफा हमलों की मारी है

ईर्ष्या से लांछन तक जारी है,

एक दूसरी स्त्री भी ठहरी है

किसी स्त्री ने हाथ बढ़ाया है,

बर्फ गली है, राह खुली है

हलचल मची है, स्त्री चल पड़ी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Article ☆ – New start at Sixty – ☆ Mr Sunil Deshpande ☆

Mr Sunil Deshpande 

☆ Poetry ☆ New start at Sixty- ☆ Mr Sunil Deshpande

Turn of life at, sixty is best.

Start new life, with a new quest,

*

Beyond the career, beyond the life

Beyond relation, husband or wife

The search gives life, grand new test

Start new life, with a new quest ,

*

Beyond the rituals, beyond religion

Beyond the words, beyond emotion

Search prepares us, for a new test

Start new life, with a new quest,

*

The blessings you get, the support you get

We all are here, to see you get set

Best wishes for, achievement of quest

Start new life, with a new quest,

© Mr Sunil Deshpande 

Nasik Mo – 9657709640 Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 363 ⇒ समय पर कविता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी कविता – “समय पर कविता।)

?अभी अभी # 363 ⇒ समय पर कविता? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैने कभी कोई काम समय पर नहीं किया,

जब कि मेरे पास पर्याप्त समय था

जिस व्यक्ति ने कभी कविता लिखी ही नहीं,

वह अचानक समय पर कविता लिखेगा,

अगर वह समय पर कविता लिखता,

तो हो सकता है,

आज एक बड़ा कवि होता।

लोग समय पर, जो काम करना है, वह तो करते नहीं,

और बाद में मेरी तरह पछताते हैं।

देर आयद, दुरुस्त आयद। अभी भी समय है।

समय पर कविता लिखने के लिए,

सबसे पहले मैने समय देखा,

समय तो चलायमान है,

मुझे चलते समय पर ही कविता लिखनी पड़ेगी,

मेरे लिए कहां समय ठहरने वाला है। ।

समय पर कुछ पंक्तियां याद आईं,

ये समय बड़ा हरजाई,

समय से कौन लड़ा मेरे भाई।

समय ने मुझे आगाह किया,

तुम मुझ पर कविता लिखना चाहते हो,

अथवा मुझसे लड़ना चाहते हो, व्यर्थ समय मत व्यय करो,

मुझ पर कविता लिखो।

मुझे अच्छा लगा, समय मुझ पर प्रसन्न है,

आज समय मेरे साथ है,

चलो मन लगाकर समय पर कविता लिखें।

कहीं पढ़ा था, समय को शब्द दो।

शायद समय मुझसे शब्द मांग रहा है,

कविता भी शायद वह ही लिख दे।

समय पर क्या स्वयं समय ने कभी कविता लिखी है। अब मैं शब्द कहां से लाऊं।

गूगल शब्दकोश की सहायता लूं

लेकिन मैं जानता हूं, समय इतनी देर ठहरने वाला नहीं

वह मेरी परीक्षा ले रहा है। ।

मैं समय पर कविता लिख रहा हूं या कोई निबंध ? कोई तुक नहीं, मीटर नहीं,

क्या इस तरह सपाट भी कविता लिखी जाती है। समय क्या कहेगा।

फिर खयाल आया,

अकविता और अतुकांत कविता का समय भी तो आया था

कविता में सब चलता है, बस आपका समय अच्छा चलना चाहिए।

जब आज समय मेरे साथ है,

मतलब मेरा समय भी अच्छा ही चल रहा है। साहिर बेवजह ही डरा गए हमको,

आदमी को चाहिए,

वक्त से डरकर रहे।

इतना ही नहीं,

कौन जाने किस घड़ी,

वक्त का बदले मिजाज।

मैने घड़ी की ओर देखा,

मेरा समय ठीक चल रहा था। ।

जब समय का मूड अच्छा हो,

तो आप उससे बेखौफ कुछ भी पूछ सकते हो।

साहिर के बारे में समय ने बताया,

साहिर समय से बहुत आगे का शायर था,

इसीलिए लोग उसे समझ नहीं पाए

साहिर ने कई बार वक्त को मात दी है

तारीख गवाह है।

तुम भी अगर समय की कद्र करते,

समय पर साहिर की तरह कविता लिखते,

तो शायद आज तुम्हारा भी समय होता

लगता है, तुम्हारा समय अभी नहीं आया।

तुमको मैने इतना समय दिया लेकिन तुमने कविता के नाम पर एक शब्द नहीं लिखा

आज तुम्हारा समय समाप्त होता है

फिर जब समय आए, तब मुझ पर कविता लिखने की कोशिश करना।

वैसे समय के सदुपयोग से बड़ी कोई कविता नहीं।

समय निकालकर कुछ भी लिखा करो

समय अपने आप में एक कविता है

समय के साथ बहना सीखो। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’ ☆

डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

पुस्तक    : लम्हों से संवाद

कवयित्री : डॉ• मुक्ता

प्रकाशक : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना

पृष्ठ. सं•   : 114

मूल्य.      : 200 रुपए

‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद

मानव जीवन अनुभवों को लेकर चलता है। डॉ. मुक्ता के निजी अनुभव धीरे-धीरे विस्तृत होते-होते दर्शन में प्रविष्ट होने का आनंद और लुफ़्त उठाते हैं तथा बंजर जमीन पर पीर के फूल खिलाने का उद्यम रचते हैं। संवेदनशील मनुष्य हर क्षण, हर लम्हा मनुष्यत्व की रक्षा करता है, क्योंकि मनुष्य ही देव, दर्शन और इतिहास है, तभी तो कवयित्री डॉ. मुक्ता को भी ‘शब्द-शब्द समिधा’ में कहना पड़ा ‘सोहम्’। दरअसल यह आत्मीयता है, जो किसी-किसी को महसूस होती है, जो बेचैनी भी पैदा करती है। विपत्तियों में यादास्त किस तरह पतवार थामती है, खुद को समर्पित कर कैसे कविता या नज़्म आगे बढ़ती है, यह कहने को कवयित्री डॉ. मुक्ता प्रस्तुत होती हैं काव्य संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ को लेकर, एक कादम्बरी वाक्य में देखिए वह क्या कहती हैं- उम्र गुजर जाती है जिंदगी ख्वाबों में ख़ुद से कभी-कभी बेवजह मुस्कुराहट की कोशिश करते, जीने की वजह से गुनहगार, मरु-सी जिंदगी, बड़ी बेवफा, खफ़ा-सी, दरकते रिश्ते, मोह के धागे कहाँ खो जाते हैं पता ही नहीं चलता, पल-पल भरमाता सुकून कहाँ मिलता है, तमाशा बन शाश्वत सत्य भी बेवजह साहिल को पाने की गुफ़्तगू, इंसान की कशमकश, आतंक के साये में न्याय की गुहार में इम्तिहान, इत्मीनान, अदब, धीर बंधाए, अनुभव करता है- जिंदगी क्या है? उठ रहे सवाल, आंधियों का रेला, कैसा चलन हो गया आज, तन्हा-सी झंझावतों में फंसी जिंदगी को कैसे कह दे मलाल है, नसीब है, फितरत है- नहीं आसान है, काश! अक्सर, स्वाँग, फांसले उजास के, दस्तूर-ए-दुनिया, मन को समझाए कैसे, कहीं दूर चल और खुद से जीतने की ज़िद में, नहीं वाज़िब, क्योंकि बच्चे बड़े सयाने हो गए हैं, सोचो! क्या वे दिन आएंगे, पछताना पड़ेगा नहीं, शब्द अनमोल हैं बात ऊंची रख हाले-दिल, ख़लिश, जीना है मुझको ये सिख लीजिए, नहीं वाज़िब जनाजा, दिल नादान, ‘सोहम्’ पाक रिश्ता है, बस! उसे उन्मुक्त हो जाने दो, अन्तर्निनाद, मुकाम के लिए एकला चलो रे, जीने की राह पर, साहिल को पा जाएगा। कवयित्री डॉ. मुक्ता की ‘उम्र गुज़र जाती है’ नज़्म देखिए-

तूफ़ान तो गाहे-बेगाहे आते रहते हैं जिंदगी में

कश्ती को सागर तक पहुँचाने में उम्र गुजर जाती है

मन से क्षुब्ध होने पर सुख या दु:ख अनुभव होता है और शान्त मन का असुख-अदुःख की अवस्था अनुभूति है। तभी तो भावों के उद्दीप्त होने पर सुखानुभूति तो उद्बुद्ध होने पर दुःखानुभूति होती है। अतः हर प्रकार की मनोदशा में प्रिय-अप्रिय होने का तत्त्व विद्यमान रहता है। मगर, मृग-तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता का विषय है। कवयित्री कहती है कि जिंदगी दर्द भी है और दवा भी, इसमें लहरें उठती रहेंगी। जब शांत जल में मात्र कंकर डालने से क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तो फिर उद्दीपक के प्रभाव से शांत मन में विक्षोप या आंदोलन उत्पन्न होना संभाव्य है। कवयित्री कहती है मानव को समय की धार, जिंदगी के फ़लसफ़े, संवेग (क्षुब्द मनोवृत्ति) को समझना होगा। डॉ. मुक्ता ‘मरुस्थल में मरूद्यान’ की संकल्पना का पाठ लिखती हैं-

मृग-तृष्णा उलझाती है, मत दौड़ उसके पीछे मन बावरे !

ख़ुदा तेरे अंतर्मन में बसता, उस में झाँकना भी ज़रूरी है

जब मनुष्य मन की वीथियों से बाहर आ जाएगा, तो निश्चय ही अँधेरा छंट जाएगा, धरा सिंदूरी हो जाएगी। जिंदगी की डगर पर खुद पर भरोसा कर मनुष्य को मिथ्या जग में एकला ही चलना होगा-

अपनी ख़ुदी पर रखो भरोसा

और बना लो इसे ज़िंदगी का मूलमंत्र रे

यह ज़िंदगी है दो दिन का मेला

यहाँ कोई नहीं किसी का संगी-साथी रे

कवयित्री की नज़्में जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, विविध चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं। जीवन के सत्यों का उद्घाटन करती हैं, साथ ही सामयिक परिस्थितिओं और विद्रूपताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री जिंदगी का फ़लसफ़ा लिखती हैं; यथा-

ऐ मन! सीख ले तू जीने का हुनर

हम तो तेरे तलबगार हो गये

कवयित्री आत्म-प्रवचन्ना से मुक्त होकर आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। उसके निज़ाम में सब अच्छा ही होता है जो जीवन में समूचा सार-तत्त्व ‘जीने की राह पर’ सब गिला-शिकवा को भुलाकर आगे बढ़ता है। अर्थात ‘स्व’ में ‘पर’ का विसर्जन ही जीवन का सार-तत्त्व है-

यह दुनिया है मुसाफ़िरखाना

सबने अपना किरदार है निभाना

इस जहान से सबने है लौट जाना

तू हर पल प्रभु का सिमरन कर

90 नज्मों के इस संग्रह में कवयित्री किसी विशिष्ट भाव-बोध की गिरफ्त में नजर नहीं आती, बल्कि उनकी काव्यात्मक सोच विभिन्न गवाक्षों और गलियारों से गुजरती है और जहां कहीं भी कोई लम्हा उन्हें स्पंदित करता है, वह बड़ी चतुराई से उसे चुराकर अपने काव्य-कौशल द्वारा सुघड़ ढंग से अपनी कविता में पिरो देती हैं। एकांतलक्षिता के गुलमुहरी भाव-कुंजों से संपृक्त, संवेगात्मक कटु यथार्थ को अपनी कविता में सलिखे से समोने में कवयित्री के संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ की नज़्में काव्य-रचना की रहस्यमयी प्रक्रिया, सूक्ष्म निरीक्षण और संभाव्य कल्पना और यथार्थ-बोध से परांतग्राह्य बनकर, नितांत निजी काव्यगत अनुभव ‘स्वान्तःसुखाय’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की बानगी प्रस्तुत कर स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करती हैं-

समय कभी थमता नहीं, निरंतर बदलता रहता

सृष्टि का क्रम पल-पल, नव-रूप में प्रकट होता रहता

स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करता, अनुभव कीजिए

कवि दार्शनिक होता है, पर दर्शन को सहज रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती रहती है, जिसमें डॉ. मुक्ता उत्तीर्ण नज़र आती हैं। ‘शाश्वत सत्य’ से पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

ज़िंदगी में मनचाहा होता नहीं, तनिक विचार करें

जो होता है, वह कभी भाता नहीं, तनिक विचार करें,

स्व-पर से ऊपर उठना है लाज़िम

जो होना है, अवश्य होकर रहता, तनिक विचार करें।

निष्कर्षतः कवयित्री अपनी व्यथा, वेदना, पीड़ा को अपनी रचनाओं में समाविष्ट करती हैं और उनका दर्द, दुःख, बेचैनी, जिज्ञासा ही उनकी रचनाओं का आधार बने हैं। किंतु किसी भी कवि/कवयित्री की खासियत यह होती है वह व्यक्तिगत संदर्भ का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत करता है। चूंकि कवि रस-स्रष्टा से पहले रस-भोक्ता है, परंतु वह स्वार्थी की तरह रस का अकेला उपभोग नहीं करता, बल्कि ‘स्व’ को विस्तृत और व्यापक बनाकर ‘पर’ का तादात्म्य बैठा देता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसा करने के कारण रचनाएँ पढ़ने में अधिक रुचिकर और आकर्षित करने वाली भी बन जाती हैं। डॉ. श्यामसुंदर का मत है कि कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना साधारणीकरण है। डॉ. मुक्ता ने समसामयिक युग के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बदलते संदर्भो की गहनता से पड़ताल कर, ईमानदारी और सद्भावना के साथ साधारणीकरण के मंत्र को जपते ‘सर्तक-सावधान-समाधान’ रूपी विभिन्न रूपों की सुंदर प्रस्तुति दी है। यही कवयित्री चित्त (मन) का साधारणीकरण है। ऐसा ही एक प्रयास डॉ. मुक्ता ने ‘कोशिश’ नज़्म में किया है-

बढ़ न जायें दिलों के फ़ासले इस क़दर

ज़रा क़रीब आने की कोशिश तो कीजिए

कहीं छा न जाये मरघट सी उदासी

अंतर्मन में झांकने की कोशिश तो कीजिए

काव्य शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से मौलिक और प्रखर काव्य सृष्टि हुई है। नज़्में चित्रमयी, लाक्षणिक भाषा और रूपकों से सम्पन्न हैं तथा प्रस्तुत-अप्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। विशेषतः हिंदी तत्सम, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का मणिकंचन प्रयोग नज़्मों की नब्ज़ बने हैं।

शुभाकांक्षी

© डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

साहित्यालोचक एवं अनुवादविद

चरखी दादरी, हरियाणा, मो. 81999-29206

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #231 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 232 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(प्रदत्त शब्दों पर दोहे)

परिमल

मोहक परिमल गंध का, लेते हम आनंद।

रसिक राधिका ने कहा,लिख दो प्यारे छंद।।

*

कोकिल

 मोहक कंठी कोकिला,प्यारी सी आवाज।

चहक -चहक खग कह रहे, आए हैं ऋतुराज।।

*

किसलय

किसलय फूटा शाख पर,हुआ नवल शृंगार।

सुंदर शाखें सज रही,दिखता प्यार अपार।।

*

कस्तुरी

कस्तूरी की गंध ने,मृग को किया विभोर।

इधर – उधर मृग ढूँढता,कहीं न दिखता छोर।।

*

पुष्प

पुष्प चढ़ाते प्रेम का,प्रभु देते आशीष।

याचक ने की  याचना, झुके द्वार पर शीश।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #214 ☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 214 ☆

☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जख्म दिल के दिखाये न गये

राज  दिल  के  बताये  न गये

*

गीत  लिक्खे  प्यार  के  हमने

अफसोस   पर  सुनाये न  गये

*

इस  तरह मगरूर  थी  खुद में

रिश्ते  प्यार  के निभाए  न गये

*

खूब  चाहा  छिपाना  दर्द  को

चाह  कर  भी  छिपाये  न गये

*

सोचा मिटा  दें निशां  प्यार  के

पर  मुश्किल  है मिटाए न  गये

*

है  खुदा  की  नेमत   प्यार  भी

लब्ज़  ये  उनसे  जताये न  गये

*

दिल में “संतोष” आस आँखों में

कभी   हमसे   भुलाये   न  गये

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवन यात्रा… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

जीवन यात्रा… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

सुखदुःखाचे बांधून तोरण

माणसा तुझे हे कसले जीवन ।। ध्रु ।।

*

अस्थी मांसानी शरीर सजले

निज अवयवानी सुंदर नटले

रसरक्तानी तुला पोशीले

श्वेत कृष्ण कातडीचे पांघरुण

*

मांडलास तू जीवन व्यापार

गण गोताचा माया बाजार

पाप पुण्य कर्माचा शेजार

निर्मिलेस जरी तू नन्दनवन

*

मोह मायेचा पिंजरा सजला

संसारी जीव एथेच रमला

झाली घालमेल घात जाहला

आले यमाजी चे अवताण

*

चारचौघे घेती खांदयावरी

निघाली यात्रा यमाच्या दारी

प्रत्येक जण असतो त्या  वाटेवरी

गुंडाळले तुला पांढरे कफ़न

*

उठ ऊठ प्रेता तिरडी सजली

गण गोत  आप्त सर्वही जमली

कमी ज्यास्त सगळी  रडली

धग धगते पेटले चिता सरण

*

माणसा तुझे हे कसले जीवन

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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