हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 44 ☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” ।)

☆ शेष कुशल # 44 ☆

☆ व्यंग्य – “मोमबत्ती से मोमबत्ती का संवाद…” – शांतिलाल जैन 

सड़क पर निकले एक केंडल मार्च में कुछ देर पहले ही जलाई गई एक मोमबत्ती ने दूसरी से कहा – “थोड़ी-थोड़ी बची रहना.”

“वो किसलिए?” – जलती पिघलती मोमबत्ती ने प्रतिप्रश्न किया.

“ये आखिरी रेप नहीं है बहन, न ही आखिरी मार्च. जो मार डाली गई है वो आखिरी स्त्री नहीं है. आगे भी जलना है, जलते जलते सड़कों पर निकलना है. हमें लेकर निकलनेवाले हाथ बदल जाएँगे मगर जलनेवाला हमारा नसीब और रौंद दी जानेवाली स्त्री की नियति बदलनेवाली नहीं है.”

“डोंट वरी, हमें दोबारा तुरंत निकलने की नौबत नहीं आएगी. ये सदमे,  ये संवेदनाएँ,  ये आक्रोश,  ये बहस मुबाहिसे,  ये प्रदर्शन,  ये मेरा-तुम्हारा जलना, जलते हुए सड़कों पर निकलना तब तक ही है जब तक अभया खबरों में है. मिडिया में हेडलाईन जिस दिन बदली उस दिन मोमबत्तियाँ और मुद्दे दोनों किसी कोने-कुचाले में पटक दिए जाएँगे. हादसे उसके बाद भी रोज़ ही होंगे मगर जब तक न पड़े मेन स्ट्रीम मीडिया की नज़र धरना-प्रदर्शन अधूरा रहता है. तब वो लोग निकलेंगे जो उस समय विपक्ष में होंगे, वे ही मार्च करेंगे. स्त्री के पक्ष में सत्ता का प्रतिपक्ष ही क्यों खड़ा होता है हर बार ?” 

“सत्ता तक पहुँचने का रास्ता उसे प्रदर्शन की केंडल-लाईट में एकदम क्लियर दिखाई पड़ता है. शहर मेट्रोपॉलिटन हो, मुख्यधारा के मिडिया की उपस्थिति सुलभ हो और रेप हो जाए, बांछें खिल आती है प्रतिपक्ष की. उसे अपने तले का अँधेरा दिखलाई नहीं पड़ता. बहरहाल, जितना कवरेज उतना जोश. हमने जलने से कभी मना नहीं किया मगर दूर गाँव में,  झुग्गी बस्ती में,  ऑनर किलिंग में,  दलित स्त्री, छोटी बच्ची के लिए कब वे सड़कों पर उतरे हैं ?  अंकल, कज़िन,  पड़ोसी के विरूद्ध कौन उतर पाता है सड़कों पर. पुलिस के रोजनामचे में स्त्री, बच्चों के विरूद्ध सौ से ज्यादा यौन अपराध हर दिन दर्ज होते हैं. रोज़ाना कौन निकलता है सड़कों पर ? एक राह चलती अनाम-अदृश स्त्री के मारे जाने पर हम नहीं निकले हैं,  मज़बूत इरादों वाली सशक्त डॉक्टर स्त्री के लिए निकले हैं. वो भीड़ भरे अस्पताल के अन्दर निपट अकेली पड़ गई थी.” 

“गरिमा और जान दोनों से हाथ धोना पड़ा है उसे. छत्तीस घंटे काम करने के बाद ऐसी दो गज जमीन उसके पास नहीं थी जहाँ वह महफूज़ महसूस करती हुई आराम कर पाती. उस रात वो पूज्यंते नहीं थी इसीलिए देवता भी कहीं और रमंते रहे. सवेरे फिर तीमारदारी में जुटना था मगर वो सवेरा आया ही नहीं. सुलभ ऑन-कॉल रूम की कमी ने अभया की जान ली है.” 

“एक बार अस्पताल की लाईट जाने पर वहाँ ऑपरेशन तुम्हारी रोशनी में करना पड़ा था. तुमने तो देखा है अन्दर का मंज़र. क्या देखा तुमने बहन ?”

“जितनी जगह में एक ऑन-कॉल रूम बनता है उतनी जगह में तो एक ट्विन शेयरिंग वाला प्रायवेट वार्ड निकल आता है. करोड़ों के इन्वेस्टमेंट से बने हॉस्पिटल में महिलाकर्मी की आबरू और जान की क्या कीमत है!! सरकारी अस्पताल तो और भी भीड़ भरे, मरीज के लिए ठीक से बेड मयस्सर नहीं स्टाफ की कौन कहे. दड़बेनुमा नर्सिंग स्टेशन में सिकुड़कर सोई रहती हैं सुदूर केरल से आईं चेचियाँ. साफ शौचालय और चेंजिंग रूम किस चिड़िया का नाम है ? अभया डॉक्टर थी,  मेट्रो के सरकारी अस्पताल में थी,  मिडिया की नज़र पड़ गई तो मार्च निकाल लिया गया है. सफाईकर्मी,  आया,  दाई,  मेनियल वुमन स्टाफ के बारे तो न कोई सोचता है न उनके प्रति अपराध रिपोर्ट ही हो पाते हैं.”

“जानती हो बहन – हम जल तो सकती हैं चल नहीं सकती. जब तक जलाकर ले जाते हैं देर हो जाती है.”

“कभी कभी इतनी देर भी कि एक स्त्री बेंडिट क्वीन बन जाती है. वो मोमबत्ती जलाकर निकलनेवालों का इंतज़ार नहीं करती, मशाल फूंकती है और पूरा गाँव जलाकर खाक कर देती है, बहरहाल..”

“अभया की उम्र तीस-इकत्तीस रही होगी ?”

“रेपिस्ट उम्र-निरपेक्ष होते हैं,  वे तीन साल की लड़की से भी उतनी ही     नृशंसता से पेश आते हैं जितनी कि सत्तर साल की प्रौढ़ा से. अपराधबोध नहीं होता उन्हें. वे संसद में भी मर्दानगी का वही तमगा सीने पर लगाए विराजते हैं जिसे लगाए हुए गली-कूचे से गुजरते हैं.” 

प्रदर्शनकारी गंतव्य तक पहुँच गए थे, मंजिल न मिलना थी, न मिली. मोमबत्तियाँ जल कर पूरी तरह पिघल जाने के कगार पर थीं. पहली ने कहा – “चाहकर भी अगले जुलूस तक के लिए बच नहीं पाए हम, तब भी कोई गम नहीं, एक नोबल कॉज़ के लिए जलकर मरे हैं.” 

“अपनी अगली पीढ़ी को कहूँगी मैं – तैयार रहना, आर्यावर्त की सड़कों पर निकलनेवाले ऐसे मार्च अभी ख़त्म नहीं होनेवाले, अलविदा”, दम तोड़तीं मोमबत्तियाँ वहीं प्रस्थान कर गईं हैं जहाँ अभया चली गई है. 

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पाखंड ? ?

मुखौटों की

भीड़ से घिरा हूँ,

किसी चेहरे तक

पहुँचूँगा या नहीं

प्रश्न बन खड़ा हूँ,

मित्रता के मुखौटे में

शत्रुता छिपाए,

नेह के आवरण में

विद्वेष से झल्लाए,

शब्दों के अमृत में

गरल की मात्रा दबाए,

आत्मीयता के छद्म में

ईर्ष्या से बौखलाए,

मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,

भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?

मुखौटे रचने-जड़ने में

जितना समय बिताता है

जीने के उतने ही पल

आदमी व्यर्थ गंवाता है,

श्वासोच्छवास में कलुष ने

अस्तित्व को कसैला कर रखा है,

गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,

पाखंड में क्या रखा है..?

 © संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य संग्रह – “पानी राखिए” पर पुस्तक चर्चा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

मजबूत खोपड़ी से उपजा ‘पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह– जय प्रकाश पाण्डेय 

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। रहीम के इस दोहे ने मनुष्य और समाज की बेहतरी के लिए सकारात्मक संदेश दिया है और व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन के व्यंग्य संग्रह ‘पानी राखिए’ में भी हमारे आसपास फैली विसंगतियों, पाखंड, दोगलापन जैसी अनेक विकृतियों पर अपने व्यंग्य लेखों के मार्फत प्रहार कर समाज को जागृत करने का प्रयास किया है।

श्री अभिमन्यु जैन

सच ही तो है पानी हमारे जीवन की सबसे अहम जरूरतों में से एक है इसके बिना मनुष्य ही क्या, किसी भी जीव- जंतु यहाँ तक की प्रकृति के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसीलिए ‘पानी राखिए’ शीर्षक वाले संकलन को पानी पी पीकर पढ़ने की इच्छा हुई। अभिमन्यु जी ने पानी राखिए संग्रह सप्रेम भेंट किया, पानी राखिए संग्रह का कवर पेज चेतावनी दे रहा है कि भविष्य में होने वाली लड़ाईयां पानी के कारण होगीं, इसीलिए पानी बचाना बहुत जरूरी होता जा रहा है, और समझ में ये भी आया कि पानी सबको रचता है, पृथ्वी से पानी खींचने के लिए पौधों और वृक्षों की जड़ें नीचे की तरफ गईं। पानी से पृथ्वी पर जीवन आया, पानी से भाषा बनीं, पानी से हम बने, जीवन वहां है जहां पानी है, ऐसे में व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का संग्रह “पानी राखिए” पढ़ने के लिए आकर्षित करता है, होना भी यही चाहिए कि शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को पढ़ने के लिए बुलाए। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी हास्य विनोद से लबालब भरे व्यंग्यकार अभिमन्यु जी हर रचना में कोशिश करते हैं कि उनकी रचना का शीर्षक पाठक को पकड़ कर रचना पूरी पढ़वा ले। व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का कहना है कि “व्यंग्य लिखना सरल नहीं, इसके लिए दिल के साथ खोपड़ी भी मजबूत होना चाहिए”। खोपड़ी तभी मजबूत बनेगी जब उसमें व्यंग्य लिखने लायक पानी हो, और दिल दरिया हो, ये सारी बातें व्यंग्यकार अभिमन्यु जी में कूट-कूट कर भरीं हैं। अभिमन्यु जी सकारात्मक सोच के व्यक्ति है विषम परिस्थितियों में भी राह निकालना उनके लिए चुटकियों का काम है। वे यायावर, मस्त मौला लेखक है और यहीं बिंदासपन उनके व्यंग्य लेखों में यदा-कदा दिखाई देता है।

अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य लेखों पर प्रसिद्ध आलोचक स्व.बालेन्दु शेखर तिवारी का कहना था कि ‘अभिमन्यु जैन ने व्यंग्य के इलाके में जान बूझकर पहलकदमी की है और अपने व्यंग्यों के लिए कथ्य और शिल्प की नव्यता तलाशी है, नये आलम्बनों से जूझते हुए उनके व्यंग्य अपने छोटे आकार में भी अनुभव के विस्तार का संकेत देते हैं ‘

जिन प्रवृतियों और आदतों को लेखक ने अपनी बेबाक कलम से पकड़ा है वो किसी एक शहर की बात नहीं है बल्कि शहर-शहर गांव-गांव ये नजारे आपको देखने मिलेंगे। ‘पानी राखिए’ व्यंग्य में लेखक लिखता है, गर्मी और पानी दोनों का बैर है, गर्मी में नल में पानी नहीं आधे घंटे हवा और 15 मिनिट आंसू देता है, इसीलिए शांतिलाल का रोज नल पर झगड़ा होता है और रोज अशांति होती है, गली गली पानी पर पानीपत का युद्ध देखने मिलता है। ये संकेत ऐसे हैं जो इशारा करते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा, इसीलिए लेखक बार बार चेतावनी दे रहा है कि पानी राखिए क्योंकि बिन पानी सब सून… हार कर फिर कहता है कि चलो जब प्यास लगे तो रेत निचोड़ना ही होगा। ‘जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई’ में टोनू भैया के बार बार जन्मदिन मनाने के ढकोसलेबाजी और राजनैतिक लोगों पर गहरे कटाक्ष किए गए हैं।

अभिमन्यु जैन जी के यहां गुदगुदाते लफ्ज़ों का ये लाव लश्कर किसी चश्मे से फूट कर बहते पानी सा छलकता है। इसमें सायास कुछ भी नहीं है बल्कि अनायास ही लच्छेदार भाषा की फुहार टपकती दिखाई देती है। लच्छेदार भाषा से सराबोर व्यंग्य ‘फूफा जी’ पाठक को जकड़कर बांध लेता है, हास्य विनोद से भरपूर कटाक्ष करते वाक्य जीवन के सच से सामना कराते हैं। फूफा गुजरा गवाह – लौटता बराती है। जीजा नई फिल्म तो फूफा पुरानी फिल्म नये प्रिंट में। मांगलिक अवसर पर फूफा मुंह न फुलाए तो काहे का फूफा। चाहे जो मजबूरी हो फूफा की मांग पूरी हो….

आज के लोग चिकित्सक, अस्पताल मालिक अपने निजी कामों में किस स्वार्थ की हद तक तल्लीन दिखाई देते हैं, ये लेखक ने बखूबी देखा है और उस पर व्यंग्य की दृष्टि से प्रहार किया है। ‘डाक्टर सरकारी, मरीज तरकारी ‘ लेख का शीर्षक पाठक को पढ़ने के लिए बुलाता है। लेख में अस्पताल और असंवेदनशील होते डाक्टरों के चरित्र पर चिंता व्यक्त करते हुए लेखक कहता है कि डाक्टर, अब डाक्टर नहीं रहे वे चाण्डाल बन लाश भी गिरवी रखने लगे हैं। व्यंग्य लेख में बड़े करुण दृश्य उकेरे गए हैं और पैसे के लालच में मरीजों के शोषण की कहानी कही गई है।

सच्चा व्यंग्य मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। पाठक के मन में हलचल पैदा करता है, और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड, आसामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है। चुनाव में वोट खींचने एवं जनता को तरह तरह के लालच देने वाली शासकीय योजनाओं की बाढ़ का पोस्टमार्टम करती हुई रचना ‘बहना सुखी, भैया दुखी’ में भैया लोगों की पीड़ा और वोट खींचने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने आगामी चुनाव हेतु भैया लोगों को सुखी करने की योजना घोषित कर दी है, यही इस व्यंग्य की सफलता मानी जाएगी। ‘बेईमान भर्ती केन्द्र’ लघु व्यंग्य जरूर है पर ईमानदारी से बेईमानी का विश्लेषण करते हुए बेईमान लोगों पर कटाक्ष कर सुधरने का मौका दिया है। उधर ‘फुटपाथ’ लेख में बड़ी सतर्कता के साथ फुटपाथ से अपनी करुण कहानी कहलायी गई है, फुटपाथ कहता है कि वह अमीर गरीब, ऊंच नीच में भेदभाव नहीं करता, फुटपाथ सबके भले पर विश्वास करता है कभी वह गरीबों का मसीहा बन जाता है तो कभी फुटपाथ बनाने वाले अफसर ठेकेदार की हवेली बनवा देता है। उपेक्षित, तिरस्कृत, पीड़ित की पीर फुटपाथ ही सहता है।

व्यंग्य लेखन वास्तव में देश, काल और परिस्थितियों के मद्देनजर व्यक्ति और समाज के अध्ययन से जन्मता है, एक व्यंग्य लेख ‘निधन विचार’ में लेखक ने जीवन की सच्चाई और रिश्तों में आयी खटास को मृत्यु के बहाने बड़े करुण अंदाज में प्रस्तुत करता है, मौत कई घरों में अंधेरा कर जाती है और कई घरों में अंधेर। बाप मर गए अंधेरे में, बेटा का नाम प्रकाश धर गए… कुछ अच्छे प्रयोग देखकर खुशी हुई।

‘नान स्टाप’ लेख में शब्दों की गजब की बाजीगरी देखने मिलती है, नान स्टाप शब्द के बहाने तरह तरह से लूटने और फायदा उठाने वालों पर हास्य विनोद के साथ व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं। सादा जीवन, चरित्र बल, ईमानदारी और अपने काम से काम जैसे गुणों ने ही अभिमन्यु जैन की कलम में इतनी ताकत भरी है कि वह कामचोरों, भ्रष्टाचारियों, जमाखोरों, चापलूसों और स्वार्थी, मौकापरस्त, झूठे आश्वासन देने वाले नेताओं का अनावरण करने से नहीं चूकती। वे कहते हैं कि व्यंग्यकार सदैव स्वस्थ विपक्ष की भूमिका निभाता है। व्यंग्य व्यक्ति, सत्ता और समाज को खबरदार करने का काम करता है।

पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह में 46 व्यंग्य रचनाएं उछल-कूद करते पाठकों को पढ़ने बाध्य करतीं हैं। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। यदि व्यंग्य अखबार में छपा है तो कहते हैं कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है।

अपने आस-पास फैले विषयों, विसंगतियों एवं रोजमर्रा जिन्दगी में फैले ढकोसलेपन जैसी प्रवृत्तियों पर अभिमन्यु जी ने सभी लेखों में अपने तरकश से खूब व्यंग्य बाण छोड़े हैं बहुत अनुशासनात्मक भाषा में।

कुल मिलाकर इस संग्रह की सभी व्यंग्य रचनाएं सहज, सरल होकर भी विसंगतियों पर गहन प्रहार करती हैं।

किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं। उनके व्यंग्य मात्र हँसी-मजाक नहीं हैं वे चार दशकों से अधिक समय से उद्देश्य पूर्ण, संदेशात्मक तीखी मारक क्षमता वाले व्यंग्य लिख रहे हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं निरंतर उनकी रचनाओं का प्रकाशन कर रही हैं। आकाशवाणी से भी जब-तब रचनाओं का प्रसारण होता रहता है।

साफ़ सुथरे मुद्रण, शुद्ध भाषा और कलात्मक प्रस्तुति का श्रेय प्रकाशक को दिया जाए या लेखक को, ये सोचे बिना पाठक अभिमन्यु जी की अगली किताब के इंतजार में रहेंगे। लेखक और संदर्भ प्रकाशन के लिए दिल से बधाई और शुभकामनाएं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 72 ☆ मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 72 ☆

✍ मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जिसमें सबक हो प्यार का ऐसी किताब दे

इंसानियत का करने मुझे इंतखाब दे

 *

मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा

काज़ी न पादरी न पुजारी खिताब दे

 *

दुश्वार जिनको ज़ीस्त है टूटे है ज़ोम से

मुरझा गए जो चहरे है उन पर शबाब दे

 *

पर्वत शज़र की दावतें  वर्षा कबूल ले

तेरा है रब निज़ाम तो सहरा को आब दे

 *

अपने लिए ही रोटी नहीं माँगता ख़ुदा

देने ज़कात मुझको मुक़म्मल निसाब दे

 *

तक़लीफ़ टूटने की सताती है उम्र भर

ताबीर जिनकी हो सके बस ऐसे ख्वाब दे

 *

इंसान आज का नहीं वंदा रहा तेरा

दुनिया का नाश करने क़यामत शिताब दे

 *

सुननी है बात प्रेम से हमको बुज़ुर्गों की

उल्टी हो बात फिर भी न उनको जबाब दे

 *

गुलशन को मेरे ख़ार अता तू करें भले

मुफ़लिस को ज़िन्दगी में महकते गुलाब दे

 *

मग़रूर आदमी की निशानी है ये बड़ी

मुझको न ज़िन्दगी में जरा भी इताब दे

 *

वो बेवफा कहें नहीं इनकार है मुझे

अपनी अरुण वफ़ा का मुझे भी हिसाब दे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्ण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆  कृष्ण☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

कृष्ण मेरा प्यार है

कृष्ण ही आराधना

कृष्ण मेरे जिंदगी की

एकमेव साधना

*

मैं न राधा, ना ही मीरा,

और नही हूँ कुब्जा भी

कृष्ण मेरा है युगों से

यह सत्य जाना है अभी

*

कृष्ण को देखा पहले

घर मैं लगी तस्वीर में

काली आँखे, अंग नीला,

बंसुरी थी हाथ में 

*

कृष्ण पढा , कृष्ण देखा

अनगिनत अध्यायों में 

कृष्ण ही पिछे खड़ा था

जीवन के हर संघर्ष में 

*

कृष्ण बेड़ा पार कराये,

जिंदा रखे संसार में 

जीवन मैं है ,मौत में है

कृष्ण ही है मोक्ष में !

🌹 जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ 🌹

© प्रभा सोनवणे

१६ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिनर के पहले… डिनर, के बाद।)

?अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Startar & dessert

जिसे हम साधारण भाषा में खाना अथवा भोजन कहते हैं, अंग्रेजों ने उसका समयबद्ध तरीके से नामकरण किया है, ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर, जिसे हम साधारण भाषा में सुबह का चाय नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना कहते हैं। आकर्षक भाषा में इसे ही अल्पाहार, स्वल्पाहार एवं रात्रिभोज कहते हैं।

रात भर भूखे रहे, सुबह जाकर उपवास तोड़ा, इसलिए वह अंग्रेजों का ब्रेकफास्ट हुआ। देहात में तो कुल्ला, दातून के बाद ही कुछ कलेवा कर आदमी खेत खलिहान अथवा काम धंधे रोजगार पर निकल जाता था। हां एक शहरी जरूर ब्रेड बटर, पोहे, इडली, अथवा बाजार से लाए जलेबी, समोसा अथवा कचोरी खाकर स्कूल, दफ्तर अथवा कामकाज पर निकल जाता था।।

अंग्रेज जितने समय के पाबंद होते थे उतने ही खाने के भी। उनके हाथ में ही नहीं, दिमाग में भी घड़ी लगी रहती थी। ब्रेकफास्ट टाइम, लंच टाइम, टी टाइम और रात का डिनर भी घड़ी से ही होता था।

समय के साथ घर घर में डाइनिंग टेबल भी पसर गई। उसी पर सुबह का नाश्ता, बच्चों का होमवर्क, और सब्जी सुधारना भी हो जाता था। अब दिन भर डाइनिंग टेबल का अचार डालने से तो रहे, बहू के दहेज में अलमारी और ड्रेसिंग टेबल के साथ घर में डाइनिंग टेबल भी चली आई। रात को सब मिल जुलकर इसी पर डिनर भी कर लेते हैं।।

जो दिन में संभव नहीं हो, उसे रात का डिनर कहते हैं। पूरे सप्ताह काम ही काम, बस वीकेंड में ही थोड़ा आराम मिलता है। टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया ने पुराने सिनेमाघरों का सत्यानाश कर दिया है। सब फिल्में हॉट स्टार और नेट फ्लिक्स पर देख लो।

इसके बजाय क्यों ना रात का खाना बाहर ही खाया जाए।

पुराने जमाने के सिनेमाघरों की तरह आजकल खाने पीने की होटलें भी हाउसफुल रहने लग गई हैं, घंटों इंतजार करने के बाद अपना नंबर आता है।

अच्छी होटलों में तो दरवाजे पर सजा धजा दरबान सलाम भी करता है।।

होटलों का डिनर तो स्टार्ट ही स्टार्टर से होता है। पापड़, सलाद और सूप के अलावा चिली पनीर के कुछ टुकड़े आपकी भूख को बढ़ाने का काम करते हैं। स्प्राउट्स यानी अंकुरित अनाज भला क्यों पीछे रहे। यह अलग बात है कि हमारे जैसे लोगों का तो स्टार्टर से ही पेट भर जाता है। फिर मुख्य भोजन, जिसे मेन कोर्स कहते हैं, वह सर्व होता है।

बच्चों की दुनिया अलग ही होती है। उनको तो सिर्फ सिजलर, पास्ता, पिज्जा मंचूरियन से मतलब होता है। वैसे भी भारतीय भोजन में चाइनीज फूड का अतिक्रमण हो ही चुका है।।

कोई भी डिनर तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कुछ डेजर्ट ना मंगवा लिए जाएं। जो मीठे के शौकीन नहीं हैं, वे आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक अथवा फ्रूट कस्टर्ड से डिनर का समापन करते हैं। भरपेट भोजन और वह भी पूरी तरह से कैशलैस।

हुआ ना यह भी एक तरह का मुफ्त डिनर ही न..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 116 – दहीहांडी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  दहीहांडीकी अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 116 – दहीहांडी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सावन तो जा चुका है और रक्षाबंधन भी. इसके फिर  कृष्णजन्माष्टमी और गणेशोत्सव के पर्व आने वाले हैं. सावन के आने का इंतजार बेटियां करती हैं, बहनें करती हैं, सावन में पत्नियां और मातायें भी अपने रोल को विस्मृत कर बहनों और बेटियों में सुकून और बचपन ढूंढती हैं. सावन के जाने की प्रतीक्षा करने वाले भी महापुरुष होते हैं जो धार्मिकता और रसरंग में संतुलन बनाने की कोशिश करते हुये अपने सुराप्रेम और सामिष भोज्यप्रेम की चाहत को दबाकर रखते हैं.

आज हम इन महापुरुषों को उनके हाल पर छोड़ते हुये याद करते हैं दहीहांडी के खेल रूपी उत्सव को जो मुख्यतः महाराष्ट्र के सांस्कृतिक उत्सवों की प्राणवायु है. हम मध्यप्रदेश वासी भी अपने बचपन से इस क्रीड़ा के उत्साही दर्शक और कभी कभी इस टोली के कुशल खिलाड़ी रह चुके होंगे.

अब तो मामला पेट से लेकर दिल तक पहुंच चुका है पर फिर भी हमें दिल को चुराने वाले इस खेल के हसरती दर्शक बनने से नहीं रोक पाया है. इस खेल में भाग लेने वालों के समूह की संख्या निर्धारित करने वाला कोई नियम बना नहीं है. इस खेल में टीम नहीं बल्कि टोलियाँ भाग लेती हैं और लक्ष्य बहुत ऊपर लटकी हुई मिट्टी की हांडी होती है जिसके अंदर दही के अलावा कुछ इनामी राशि भी होती है. प्रयास करने के मौके तब तक मिलते रहते हैं जब तक की दहीहांडी सहीसलामत लटकी रहती है.

ये हमारी सांस्कृतिक आदतों से मेल करता है कि ऊपर पहुंचे हुये और अधर में लटके हुओं को फोड़कर नीचे गिराना जो हम बखूबी करते रहते हैं. पिट्टू जमाना, फिर बॉल से फोड़ना और फिर जमाने की कोशिश करते हुये खिलाड़ियों को टंगड़ी मारना नामक क्रिया, क्रीडागत कुशलता की मान्यता कई सालों से लिये हुये है. जो चुस्त और चपल होते हैं वो इन बाधाओं को पारकर विजेता बनते हैं. यही खेल हम सारी जिंदगी खेलते रहते रहते हैं, खेलते रहते हैं. हमारी जीवनयात्रा इन खेलों के बीच से गुज़रते हुये और क्रमशः तीर्थयात्रा को संपन्न करते हुये अंतिमयात्रा की ओर समाप्त होती है जो जय पराजय, यशअपयश, लाभ हानि सब विधि के हाथों में फिर से सौंपकर, इस अंतिम यात्रा के नायक के मुख पर निश्चिंतता की छवि को उकेर देती है. इस तरह के नायकों को भी हम पंचतत्वों के हवाले कर फिर से दहीहांडी के उत्सव में जीवन पाने का प्रयास करते हैं.

दहीहांडी एक टीम या समूह का खेल है. सबसे पहले या सबसे नीचे कुछ बलिष्ठ खिलाड़ी एक दूसरे को मजबूती से पकड़कर ऊपर लक्ष्य की ओर जाने का आधार बनाते हैं. यह आधार कितना मजबूत रहेगा यह इन खिलाड़ियों के तालमेल, मजबूती और आघातों को सहकर भी स्थिर रहने की क्षमता पर निर्भर होता है. ये पहला वृत्त या सर्किल होता है जो जमीन से जुड़ा और जमीन पर खड़ा होता है. बाद में इसकी स्थिरता stability के बल पर ऊपर क्रमशः छोटे सर्किल बनाये जाते हैं. ये जमीन पर तो नहीं खड़े होते पर अपनी संतुलन कला के बल पर ऊंचाई की ओर जाने में महत्त्वपूर्ण सहायक का रोल निभाते हैं. ऊपर की ओर बना हर सर्किल अपनी स्थिरता को उसी अनुपात में खोकर संतुलन कला के दम पर मंजिल पाने का मार्ग प्रशस्त करता है. अंत में वह खिलाड़ी जो सामान्यतः बालअवस्था में होता है, अर्थात “भार कम और चपलता अधिक” के अनुपात से संपन्न होता है, इन्हीं सर्किलों के सहारे ऊपर चढ़ते हुये अंतिम लक्ष्य याने दहीहांडी को फोड़कर विजय प्राप्त करता है. विजय पाने के बाद, यह टोली अपने सारा स्थायित्व, संतुलन और टीमवर्क को दरकिनार कर जीतने के जश्न में डूब कर नाचने लगती है.

सारे खिलाड़ी जीतने की खुशी में नीचे आने की प्रक्रिया भूल जाते हैं. जो गिरता है वह भी कभी कभी इन्हीं हमजोलियों के हाथों संभाल लिया जाता है और यह टोली फिर अगले चौक पर लटकी दहीहांडी को पाने के लिये आगे बढ़ जाती है. यह जीत गिरने से आई चोटों पर पेनकिलर का काम करती है.

इस विजय में, जिसे उसकी भारहीनता और चपलता, मटकी फोड़ने का अवसर देती है, वह बालक ही दर्शकों की निगाहों में नायक बन जाता है पर उसकी यह विजय सिर्फ उसकी भारहीनता याने मानवीय दुर्बलताओं की हीनता और चपलता के कारण ही नहीं बल्कि जमीन से जुड़े और संतुलन कला में निपुण साथी खिलाड़ियों के कारण भी मिलती है.

यही हमारी जीवनयात्रा में मिली सफलताओं का भी सारांश है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षकगण, गुरुजन, कोच, संगी-साथी, मित्रगण, पत्नी, संताने, ऑफिस के सीनियर और जूनियर भी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इन्हें कभी भी भी कमतर समझना या गैर जिम्मेदार समझना, कामचोर समझना, बहुत बड़ी भूल ही कही जायेगी क्योंकि दहीहांडी फोड़ने के बाद नीचे गिरने पर, संभालने वाले हाथों की जरूरत हर विजेता को पड़ती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 37 – ग्लानि… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ग्लानि।)

☆ लघुकथा # 37 – ग्लानि ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

अवंतिका आंटी मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहा करते हैं, वह लोग सारा दिन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, पहली रोटी गाय को कुत्ते की रोटी आदि बातों का बहुत ध्यान रखते हैं।  मोहल्ले के सारे बच्चे उन्हें दादा-दादी कहते हैं, एक दिन अचानक अवंतिका आंटी के रोने की आवाज आ रही थी।  मुझे लगा क्या हो गया है मेरे पतिदेव अभिनव ऑफिस चले गए घर पर बच्चे और मैं अकेली थे। बाहर महामारी चल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं बाहर निकलना ठीक है या नहीं परंतु मुझसे रहा नहीं गया। अपने गेट से बाहर निकली और मुंह पर दुपट्टा बांधकर। दिखी तो क्या गाय के मुंह पर कांच लगा था। मुंह से खून निकल रहा है, और आंटी रो रही थी। थोड़ी थोड़ी दूर पर सभी पड़ोसी लोग भी खड़े थे। मेरे पड़ोसी राम भैया गाय के मुंह से कांच निकाले और उसके मुंह पर भाभी हल्दी लगा रही थी। सभी पूछ रहे थे। यह कैसे हो गया।

आंटी रो रही थी। अंकल बोले कचरे वाली गाड़ी की आवाज सुनकर ये भागी भागी कचरा और गाय की रोटी भी ली थी । गाय को रोटी दी, गाय ने कचरे की थैली पर सींग मारी तुम्हारी आंटी कचरा छोड़कर भागी।

आज सुबह-सुबह बर्तन धोते समय कांच का गिलास टूट गया था, कचरे में डाल दिया और गाय सब्जियों के छिलकों के साथ और उसके मुंह पर चुभ गया, और घायल हो गई। अंकल ने कहा राम बेटा तुम भगवान बन के आए।

गाय के मुंह से खून निकल रहा था। और अंकल कहे जा रहे थे, परोपकार करो, गाय के अलावा भी सब जानवरों को खाना दिया करो। आंटी की आंख के आंसू थम ही नहीं रहे थे। 

आंटी को ग्लानि हो रही थी। और हम सब भी स्तब्ध थे…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्रावण… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ श्रावण☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी 

श्रावण आला तुषार घेऊनी

सोनकोवळे उन्ह घेऊनी

झुला झुलवत इंद्रधनुचा

 सप्तरंगाचे क्षितिज घेऊनी

*

यमुना तीरी आला गरजत

राधेची पण छेड काढीत

गुलाबदाणी हाती मोगरा

अत्तरदाणी होता शिंपित

*

श्रावणातील निळमेघ तो

अधरावरी खाली झुकला

धीर सुटला त्या मेघातून

राधेला तो भिजवुनी गेला

*

गंधीत होऊनी आला वारा

जुनी ओळख सांगून गेला

शीर शीर शीळ घालीत

नभपक्षी तो उडून गेला

*

श्रावण आला तुषार घेऊनी

गिरीशिखरांना कवेत घेऊनी

हिरव्या हिरव्या पाना मधुनी

श्रावण मारवा नक्षी गोंदुनी

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्रावण साद… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ श्रावण साद... ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रावण येईल

सरसर सरित

इंद्रधनू रंग

भावमन भरीत.

*

पक्षीही गातील

वाराही पेतील

स्मृतींत पाऊस

मानव होतील.

*

स्वछंदी हृदय

मंदिर पवित्र

निर्मळ सर्वत्र

स्वर्गमय चित्र.

*

धरतीचे सत्य

नभनाते नित्य

क्षितीजाचा लोभ

प्रसन्नच चित्त.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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