(ई-अभिव्यक्ति मे सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं शिक्षाविद डॉ सुमन शर्मा जी का हार्दिक स्वागत। आपने “यशपाल साहित्य में नारी चित्रण” विषय पर पी एच डी। की है। पाँच पुस्तकें (सैलाब (कविता संग्रह), मन की पाती (कविता संग्रह), रहोगी तुम वही (कहानी संग्रह), आहटें (कविता संग्रह) एवं यशपाल के उपन्यासों में नारी के विविध रूप) प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पत्र पत्रिकाओं में विविध विषयों पर आलेख, शोध पत्र, कविताएँ प्रकाशित, आकाशवाणी से अनेक वार्तालाप, कविताएँ प्रसारित। अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन तथा पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित। संप्रति – सेवानिवृत्त प्राध्यापिका (हिन्दी), श्रीमती वी पी कापडिया महिला आर्ट्स कॉलेज, भावनगर)। आज प्रस्तुत है 78वें स्वतन्त्रता दिवस पर आपकी भावप्रवण कविता कान्हा… इस युग में भी आना…।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तकिया, सिरहाना, करवट…“।)
अभी अभी # 463 ⇒ तकिया, सिरहाना, करवट… श्री प्रदीप शर्मा
नींद और भूख हमारे स्वस्थ जीवन का आधार है। हमारा जीवन चक्र भूख और नींद के बिना अधूरा है। भरपेट भोजन और चैन की नींद हमारी दिनचर्चा का अभिन्न अंग बन चुके हैं। भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता नींद क्या आएगी।
हम रोज सोते हैं और रोज उठते हैं, एक रोज अगर थोड़ी सी नींद पूरी नहीं हुई, तो पूरा दिन बिगड़ जाता है। यह शरीर रोज थकता है, और इसे रोज आराम की जरूरत होती है। जितनी गहरी नींद, इंसान उतना ही अधिक स्वस्थ।।
जब हम सोते हैं, तो बहुत जल्द ही हमारी चेतनता गायब हो जाती है, बस सांस चलती रहती है, और घोड़े बिकते रहते हैं। नींद में खलल हमें पसंद नहीं।
हम नींद में इतने असहाय हो जाते हैं, कि सपनों को भी आने से नहीं रोक पाते। इधर चेतन मन सोया, और उधर अवचेतन मन का संसार शुरू। वैसे तो जगत ही मिथ्या है, उस मिथ्या में भी एक और भ्रम। कन्फ्यूज हैं हम।
जो नींद बिना प्रयास के, इतनी आसानी से आ जाती है, उसकी सुविधा के लिए हम पलंग, बिस्तर, रजाई गद्दा और तकिये का भी इंतजाम करते हैं। उसे शयनकक्ष का नाम देते हैं। जब कि एक बार नींद आ जाने के पश्चात् हमें पता ही नहीं होता, हम किस दुनिया में हैं।।
नींद तो गरीब को भी आती है, और झोपड़ी में भी अच्छी आती है। एक थका हुआ इंसान तो कहीं भी ऊंघने लगता है, फिर चाहे वह क्लास रूम हो अथवा किसी देश की संसद। बस ट्रेन में तो लोग खड़े खड़े भी सोते देखे गए हैं। एक हास्य कलाकार हुए हैं केष्टो मुखर्जी जो अपने अभिनय से आपकी नींद भगा दे। वैसे भी नींद का नशा किसी शराब के नशे से कम नहीं होता।
नींद आराम है, विश्राम है। आराम और विश्राम के भी अपने अपने कम्फर्ट ज़ोन होते हैं, जिन्हें आप आरामदायक स्थिति भी कह सकते हैं। बच्चों के लिए झूला, जिसमें उसे ऐसा लगे, जैसे कोई उसे झूला देकर सुला रहा है।
लड़कियों की नींद के संसार में एक राजकुमार सबसे पहले आता है।।
हमने हमारे समय में टेडी बियर का नाम नहीं सुना था, लेकिन बच्चे खिलौनों के साथ खेलते खेलते आसानी से सो जाते थे।
आज की जीती जागती गुड़ियाओं के घर टेडीज़ से भरे होते हैं। हर बच्चे का एक प्यारा टेडी होता है।
जो नींद से करे प्यार, वो तकिये से कैसे करे इंकार। सोने से पहले, सबसे पहले तकिया ही प्यारा होता है।
सोने के बाद वह कहां पड़ा होता है, कोई नहीं जानता।
हम जहां सिर रखकर सोते हैं, वह सिरहाना कहलाता है। लोग सिरहाने क्या क्या रखकर सोते हैं, घड़ी, चश्मा, विक्स और पैन बॉम तो आम है ही।
पहले जहां सिरहाने किताब होती थी, वहां आजकल मोबाइल ने अतिक्रमण कर लिया है।।
गहरी नींद में, और चैन से सोने के बावजूद भी हमारी हरकतें चालू रहती हैं। रात को सोये थे, तो बिल्कुल सीधे, पीठ के बल। रात में ना जाने कब ऊंट की तरह किस ओर करवट बदल ली, पता ही नहीं चला। हमारा चेतना नींद में भी हमारे शरीर का पूरा खयाल रखती है। अगर मच्छर काटेंगे तो शरीर उठकर ऑल आउट लगा लेगा। प्यास और पेशाब भी कहीं रोके रुकते हैं, कितनी भी खूबसूरत सपना हो, बीच में ही तोड़ना पड़ता है।
लेकिन यह निंदिया इतनी सीधी सादी और भोली भाली भी नहीं। जब कोई आंखों में बस जाता है, तो नींद उड़ जाती है। दुख, तनाव और अवसाद में कैसी नींद और भूख प्यास। महलों और पंचासितारा शयनकक्षों में नींद का पता नहीं, और इधर एक मेहनतकश मजदूर अपनी बाहों का तकिया बनाए जमीन पर गहरी नींद में सो रहा है।।
बच्चों की आंखों में कल के सपने होते हैं। माता पिता रात रात भर जाग जागकर बच्चों को मीठी नींद सुलाते हैं ;
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हवेली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 ☆
🌻लघु कथा🌻 हवेली 🌻
बहुत पुरानी हवेली। हवेली का नाम लेते ही मन में उठने लगता है, शानदार बड़े-बड़े झरोखे, बड़े-बड़े लकड़ी के कशीदाकारी दरवाजे, यहाँ से वहाँ तक का फैला हुआ दालान, बीचों बीच बड़ा सा आँगन, चारों तरफ किनारों में तरह-तरह के पुष्प लता के सुंदर-सुंदर पेड़ पौधे।
परंतु जिस हवेली की बात हम कह रहे हैं वह तो सिर्फ एक खंडहर दीवाल सी शेष रह गई थी। बंद दरवाजे और दरवाजे की छोटी-छोटी खिड़की नुमा झरोखे से झांकती दो आँखें। कुछ अपनों का बिछोह और कुछ प्राकृतिक कहर। जो पास है वह आना नहीं चाहते।
हवेली मानो कह रही हो काश वह पल लौट आए और यह फिर से हरा भरा हो जाए। कोई भी आना-जाना पसंद नहीं करता था। सिर्फ एक नौकर का आना-जाना था। जो बाहर से सामान आदि लाते जाते दिखता। पता नहीं रहने वाले कैसे रह लेते होंगे?
जय गणेश, जय गणेश बच्चे ठेले के साथ धक्का मुक्की करते चले जा रहे थे और ठेले में गणपति बप्पा विराजमान थे। बारिश ने कहर मचाया। छाँव की खोज करते भगवान को पन्नी तालपतरी से ढकते बच्चे बड़े सभी इस हवेली के पास पहुंचे थे।
अचानक दो हाथ झरोखे से इशारे से लगातार बुला रही थी। बच्चों ने देखा, बस उन्हें किसी से और कोई मतलब नहीं। अपने बप्पा को ठेले सहित हवेली के अंदर ले गए।
बारिश से राहत मिली लगातार हो रही बारिश से सभी परेशान थे। कांपते हाथों से बड़ी सी थाली में थोड़ा सा खाने का सामान और साथ में दो लोटे जल के साथ एक सयानी बुढ़ी दादी निकल कर आई।
आज से पहले वह इतनी खुश कभी नहीं दिखी थीं। आकर कहने लगी तुम सब यह खाओं।
बच्चों ने आँखों – आँखों में निर्णय लिया। इससे अच्छी जगह गणेश पंडाल नहीं बनेगा। बस फिर क्या था तैयारी शुरू।
शाम के आते- आते, जगमग रोशन हवेली ताम-झाम और बप्पा की जय, जय गणेश, हवेली जिंदाबाद के नारे लगने लगे।
दीपों की थाल लिए आज हवेली से सोलह श्रृंगार कर दादा- दादी उतरकर आने लगे। एक बार फिर से हवेली गुलजार हो गई।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 99 ☆ देश-परदेश – एकाग्रता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन में पाठशाला में गुरुजी हमेशा धनुर्धर अर्जुन का उदाहरण देकर एकाग्रता के लिए प्रेरित करते थे। हमारा तो कभी भी पढ़ाई/ लिखाई में मन ही नहीं लगता था, फिर एकाग्रता कैसे आती ?परिणाम सामने है, जीवन में मन चाई सफलता नहीं प्राप्त हुई हैं। अभी भी प्रयासरत हैं।
मनपसंद किए जा रहे कार्य से एकाग्रता बनना स्वाभाविक होता हैं। आज प्रातः मन लगाकर जब समाचार पत्र पठन कर रहे थे, तो उपरोक्त समाचार पढ़ते पढ़ते इतने तल्लीन हो गए, की पास में रखे हुए गर्म चाय के कप को पकड़ते हुए चाय में ही हाथ डाल दिया, और अपनी तीन उंगलियां ही जला कर रख दी, ये तो अच्छा हुआ हमने अपना बयां हाथ चाय में डाला, वर्ना अभी ये टाइप भी नहीं कर पाते।
जीवन के छः दशक से अधिक का समय प्रतिदिन पेपर पढ़ने से ही आरंभ होता आ रहा है। मोबाईल का साथ तो अभी एक दशक से हुआ हैं। दो युवाओं का क्या दोष ? वो तो खुली हवा में धूप/ वर्षा का प्राकृतिक आनंद लेते हुए मोबाईल में मग्न थे। इससे पूर्व में भी लोग पतंग, कंचे या गिल्ली डंडा खेलते हुए रेल से दुर्घटना ग्रस्त होते थे। कुछ दशक पूर्व रेल की पांत पर ही कुछ युवा कर्नल रंजीत के नोवल पढ़ते हुए भी घायल हुआ करते थे।
एकाग्रता सभी व्यक्तियों में होती है, विषय अलग अलग होता हैं। समय, स्थान, साधन से एकाग्रता भी परिवर्तित होती रहती हैं। अभी आप सब भी तो कितनी एकाग्रता से इस आलेख को पढ़ रहे हैं। भले ही श्रीमती जी, आपकी मोबाइल की इस आदत को लेकर अनेक बार आक्रोश जाहिर कर चुकी होंगी, लेकिन मोबाईल अब आदत से लत बन चुका हैं।
☆ आला श्रावण श्रावण / वेध माहेराचे… ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆
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☆ आला श्रावण श्रा व ण ! ☆
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आला श्रावण श्रावण
सर पडे पावसाची
वस्त्र ल्याली अंगभर
मही हिरव्या रंगाची
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आला श्रावण श्रावण
ऊन पावसाचा खेळ
पडे गळ्यात नभाच्या
कधी इंद्रधनूची माळ
*
आला श्रावण श्रावण
नद्या नाले ओसंडले
उंच उंच डोंगर दरीत
मग प्रपात गाते झाले
*
आला श्रावण श्रावण
सारे चराचर आनंदले
कंबर कसून कासकर
शेती कामाला लागले
*
आला श्रावण श्रावण
डोळे सयीत पाणावले
नव्या नवरीच्या मनी
वेध माहेराचे लागले
वेध माहेराचे लागले ….
☆
वरील “श्रावण !” कवितेतल्या शेवटच्या कडव्यात म्हटल्याप्रमाणे, नव्या नवरीला श्रावणात माहेरी जाण्याचे लागलेले वेध कसे असतील, ते सांगायचा प्रयत्न पुढील कवितेत !
☆ पिठोरी अमावस्या अर्थात वैश्विक ‘मातृत्व’ दिन…☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’☆
आज श्रावण अमावस्या !! बैलपोळा, पिठोरी अमावस्या आणि मातृदिन असा त्रिवेणी संगम असलेला पावन दिवस !!!
अशी कथा सांगितली जाते की एकदा भगवान शंकर आणि माता पार्वती द्यूत खेळत होते. पंच (परीक्षक) म्हणून नंदी महाराज होते. खेळात माता पार्वती जिंकल्या होत्या. पण पंचाने म्हणजे नंदीने भगवान शंकर जिंकले असे जाहीर केले. याचा पार्वतीमातेला राग आला व तिने नंदीला शाप दिला की तुझ्या मानेवर लोकं जोखड ठेवतील आणि तुझा उपयोग शेतीच्या कामासाठी व इतर कामासाठी केला जाईल. नंतर नंदीने क्षमा मागितली तेव्हा पार्वतीमातेने त्याला वरदान दिले की श्रावण अमावस्येच्या दिवशी तुला काहीही काम सांगणार नाहीत, तुझी पूजा केली जाईल, तुला गोडधोड खाऊ घातले जाईल, तुझे कौतुक केले जाईल आणि तेव्हापासून आपल्याकडे ‘बैलपोळा’ हा सण साजरा करण्यात येतो. आपल्या संस्कृतीप्रमाणे घरात अगदी नवीन संगणक आणला तरी त्याची पूजा केल्याशिवाय आपण तो सुरु करत नाही, अशा निर्जीव वस्तूंचीही पूजा होते, तिथे जन्म देणाऱ्या मातेला ही संस्कृती कशी विसरेल? माता, जननी, मातृभूमी आणि जमिनीतून धान्य पिकायला सहाय्यकारी ठरणाऱ्या बैलाचीही आपल्याकडे पूजा होणे क्रमप्राप्त नव्हे काय?
या दिवशी बैलांना विश्रांती द्यायची. त्यांना ऊन पाण्याने आंघोळ घालायची, पुरणावरणाचा स्वयंपाक करून आधी त्याचे तोंड गोड करायचं. खूप ठिकाणी ‘ “शिंगे रंगविली, बाशिंगे बांधिली, चढविल्या झुली ऐनेदार ‘ असाही बैलपोळ्याचा थाट उडवून देतात. बैलाविषयी कृतज्ञता व्यक्त करण्यासाठी अनेक गावात बैलपोळा सामूहिकरीत्या साजरा केला जातो.
श्रावण अमावास्येला ‘पिठोरी अमावास्या’ असेही म्हणतात. ज्यांची मुले जगत नाहीत, अशा स्त्रिया पिठोरीचे व्रत करतात. हे व्रत पूजाप्रधान असून, चौसष्ट योगिनी या त्याच्या देवता आहेत. या व्रताचे विधान असे – श्रावण अमावास्येच्या दिवशी दिवसभर उपोषण करावे. सायंकाळी स्नान करून सर्वतोभद्र मंडलावर आठ कलश स्थापावे. त्यावर पूर्णपात्रे ठेवून त्यांत ब्राह्मी, माहेश्वरी, इ. शक्तींच्या मूर्ती स्थापाव्या. तांदुळाच्या राशीवर चौसष्ट सुपार्या मांडून त्यावर चौसष्ट योगिनीचे आवाहन करावे. त्यांची षोडशोपचारे पूजा करावी. नंतर व्रतासाठी केलेले पक्वान्न डोक्यावर घेऊन ‘कोणी अतिथी आहे काय? असा प्रश्न विचारावा. मुलांनी ‘मी आहे’ असे म्हणून ते पक्वान्न मागच्या बाजूने काढून घ्यावे.
पूर्वी पूजेच्या मूर्ती पिठाच्या करीत. अलिकडे त्यांची छापील चित्रे मिळतात. या व्रतात नैवेद्यासाठी पिठाचेच सर्व पदार्थ करतात. त्यावरून या तिथीला पिठोरी अमावास्या असे नाव पडले असावे. पूर्वी घराघरात ‘पिठोरी’ची पूजा होत असे. पिठोरी अमावस्येचंच दुसरं नाव मातृ दिन. या दिवशी महिला उपवास करतात. सायंकाळी स्नान करून घरातल्या मुलाला किंवा मुलीला खीरपुरीचे जेवण देतात. या दिवशी ६४ योगिनींच्या चित्राची महिला पूजा करतात. पुरणपोळी खांद्यावरून मागे नेत ‘अतीत कोण?’ असा प्रश्न विचारायचा असतो. त्याचे उत्तर म्हणून आपल्या मुलाचे नाव घ्यायचे. म्हणजे पुत्र किंवा कन्या दीर्घायुषी होतात, अशी श्रद्धा आहे. घरातली कर्ती स्त्री डोक्यावर ‘पिठोरी’चं वाण घेऊन ‘माझ्यामागे कोण आहे?, चा घोष करत असे. घरातील मुलं तिला ‘मीच, मीच’ म्हणत प्रतिसाद दिला जात असत. बेदाणे घातलेली भाताची खीर हा ‘पिठोरी’चा खास नैवेद्य.
मुलांना दीर्घायुष्य मिळावे यासाठी पिठोरी अमावस्येचे व्रत करण्याची प्रथा आहे. या सणामागची पौराणिक कथा अशी आहे की विदेहा नावाच्या स्त्रीला दर श्रावण अमावास्येला मुले होत व ती लगेच मृत्युमुखी पडत. या कारणासाठी पतीने तिला घराबाहेर हाकलून दिले. तेव्हा तिने कठोर तपश्चर्या केली. प्रसन्न होऊन चौसष्ट देवतांनी तिला दर्शन दिले. पुढे ती पुन्हा घरी आली. विदेहावर प्रसन्न झालेल्या देवतांच्या कृपेमुळे तिला दीर्घायुषी असे आठ पुत्र झाले. अशा प्रकारे संतति रक्षणासाठी चौसष्ट देवतांच्या पूजनाबरोबरच स्त्रीला स्वत:च्या सामर्थ्याची व मर्यादाशीलतेची जाणीव पिठोरी अमावास्या करून देते. म्हणून ही अमावास्या महत्वाची आहे. आजच्या पावन दिनी दिवशी वंशवृद्धीकरिताही पूजा केली जाते. म्हणून यास ‘मातृदिन’ असेही म्हणतात. पण आज याला आणखी एक संदर्भ जोडला तर आणखी सयुक्तिक होईल असे वाटते. आपण आजच्या दिवसाला ‘मातृत्वदिन’ म्हणू शकतो. ‘माता’ होणे हे जन्म देण्याशी निगडित आहे तर मातृत्वभाव हा फक्त जन्म देण्याशी निगडीत नाही. हा तर वैश्विक भाव आहे. आजची सामाजिक परिस्थिती लक्षात घेतली तर समाजाला आज ‘मातृत्वभावा’ची विशेषत्वाने गरज आहे असे जाणवते.
‘स्वामी तिन्ही जगाचा आई विना भिकारी’, ‘आई सारखे दैवत साऱ्या जगतावर नाही’; ‘प्रेमस्वरूप आई, वात्सल्यसिंधु आई’ अशा विविधप्रकारे प्रतिभावंत कवींनी/मुलांनी आपल्या आईचे गुणवर्णन केले आहे. जरी असे वर्णन जरी केले असले तरी ते वर्णन पूर्ण आहे असे कोणताच कवी ठामपणे म्हणू शकत नाही. ज्या प्रमाणे भगवंताचे वर्णन करता करता वेद हि ‘नेति नेति’ असे म्हणाले, (वर्णन करणे शक्य नाही), अगदी तसेच आईच्या बाबतीत प्रत्येक मुलाचे / प्रतिभावान कवीचे होत असावे असे वाटते आणि म्हणूनच आपल्या हिंदू संस्कृतीत पहिला नमस्कार आईला करण्याचा प्रघात रुजवला गेला असावा.
आपल्या संस्कृतीत प्रत्येक गोष्टीकडे ‘मातृत्वभावाने पाहण्याचे संस्कार आपल्यावर बालपणीच केले जात असतात, त्यामुळे आपल्याकडे पूर्वीपासून ‘भूमाता’, ‘गोमाता’, ‘भारतमाता’ अशा विविध भावपूर्ण संज्ञा आपल्या मनावर कोरल्या गेल्या आहेत. ही पद्धत अकृत्रिम पद्धतीने आचरली जात होती, त्यामुळे ‘राष्ट्रीय एकात्मता’ शिकवावी लागत नव्हती की त्याची जाहिरात करावी लागत नव्हती. मनी रुजवलेल्या मातृत्वाभावामुळे कितीतरी चांगल्या गोष्टी नकळत घडत होत्या आणि त्याचा फायदा सर्व समाजाला, पर्यायाने देशाला होत होता. आज पुन्हा एकदा आईचे ‘आईपण’ (प्रत्येक गोष्टीतील मातृत्वभाव) जागृत करण्याची गरज जाणवत आहे. “छत्रपती शिवाजी शेजारणीच्या पोटी जन्माला यावा’ ही मानसीकता सोडून ‘मीच माझ्या बाळाची ‘जिजामाता’ होईन” हा विचार मातृशक्तीत रुजविण्याची गरज आहे असे जाणवते. भले मला माझ्या मुलास ‘शिवाजी’ बनवता आले नाही तर त्याला शिवरायांचा ‘मावळा’ बनवण्याचा प्रयत्न मी नक्की करेन करेन असा पण प्रत्येक आईने करायला हवा. हा प्रयत्न थोड्या प्रमाणात जरी यशस्वी झाला तरी देशात महिलांवर होणाऱ्या अत्याचारांचे प्रणाम मोठ्या प्रमाणात कमी होतील.
आज ‘आंतरराष्ट्रीय मातृत्वदिन’ आहे. आपल्या आईप्रति कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा हा दिवस. मला असा जाणवलं की नुसती कृतज्ञता व्यक्त करून आपले कर्तव्य संपेल ? नक्कीच नाही. तर एक मुलगा म्हणून माझं काही कर्तव्य नक्कीच आहे. मी माझ्या जन्मदात्रीचा मुलगा आहेच, भारतमातेचे पुत्र आहे, समाजपुरुषाचा पुत्र आहे. प्रत्येकासाठी माझी वेगवेगळी कर्तव्ये आहेत, ती योग्य रीतीने पार पाडता यावीत म्हणून मी माझ्या जीवनात प्राधान्यक्रम कशाला देणार हे ठरवावयास हवे. माझ्या अंगातील कौशल्ये अधिकाधिक समाजाभिमुख कशी होतील याचा विचार करावयास हवा. ‘मी आणि माझे’ यातून बाहेर पडून संपूर्ण समाज ‘माझा’ आहे ही भावना बळकट व्हावयास हवी. आज त्याचीच नितांत गरज आपल्या मातृभूमीस आहे, असे वाटते.
जसे भक्तामुळे देवास ‘देवपण’, अगदी तसेच लेकरांमुळे आईला ‘आईपण’ प्राप्त होते. भक्तच आपल्या भक्तीतून देवाचे देवपण सिद्ध करतो, तसेच प्रत्येकाने यथाशक्ती चांगले वागून, चांगली कर्म करून आपल्या आईच्या आईपणास गौरव प्राप्त करून दिला पाहिजे. मग ती आई असो, गोमाता असो कि भारतमाता !!. दैनंदिन व्यवहार करताना आपल्या अंगी ‘मातृभाव किंवा पुत्रभाव’ ठेवता आला तर देशातील भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव आणि इतर सर्व अनैतिक गोष्टी तात्काळ बंद होतील, यात बिल्कुल संदेह नाही.
आज आईचे स्मरण करताना बऱ्याच गोष्टी चित्रपटाप्रमाणे डोळ्यासमोरून सरकत गेल्या. माझी आई ही एखादवेळेस जिजामाता नसेल, ‘श्यामची आई’ नसेल पण ती ‘आई’ होती हेच माझ्यासाठी पुरेसे होते. आज या नश्वरजगात आई नाही, पण तिने जे काही शिकविले ते ‘श्यामच्या आई’च्या शिकवणीपेक्षा कणभरही कमी म्हणता येणार नाही. ‘देवाला सर्व ठिकाणी जाता येत नाही म्हणून त्याने आई निर्माण केली’* याची अनुभूती आपण सर्वच जण नेहमीच घेत असतो. सर्व संत मातृभक्त होते. सर्व क्रांतिकारक मातृभक्त होते आणि म्हणूनच अनंत हालअपेष्टा सोसूनही क्रांतीकारकांनी स्वराज्य प्राप्तीसाठी अथक प्रयत्न केले. आपणही आपल्या आईसाठी यथामती काहीतरी करीतच असतो. आपल्या आईची समाजातील ‘ओळख’ ‘सौ. अमुक अमुक न राहता ती अमुक अमुक मुलाची आई आहे’, अशी करून देता आली तर आईप्रति कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा यापेक्षा चांगला उपाय नसेल..
मी इथे प्रत्येकाच्या मनात असलेली ‘आई’बद्दलची भावना प्रातिनिधिक स्वरूपात मांडण्याचा प्रयत्न केला आहे. चुकभुल माफी असावी.
चार मातीच्या भिंती
त्यात राहे माझी आई
एवढे पुरेसे होई
घरासाठी….. !!
जगातल्या सर्व मातांस आणि मातृभावनेने कार्य करणाऱ्या सर्व कार्यकर्त्यांस ही शब्दसुमनांजली सादर अर्पण!! श्रीरामसमर्थ।
नुकतीच माझी बदली दिल्लीला झाली होती. रघुवीरजी, एकेकाळचे माझे सहकारी, दिल्लीच्या जवळच फरिदाबादला स्थायिक झाले होते. एकदा रघुवीरजींना आणि सविता दीदींना भेटायची इच्छा होती. ते साताठ वर्षापूर्वी निवृत्त झाले असल्याने त्यांचा मोबाईल नंबरही नव्हता. खरं सांगायचं तर, कामाच्या धबडग्यात मला वेळही मिळत नव्हता.
आमच्या ऑफिसातला जगदीश फरिदाबादलाच राहतो. एकदा त्याच्याकडे रघुवीरजींच्याविषयी चौकशी केली. रघुवीरजी त्याच्या जवळच्या कॉलनीत त्यांच्या मुलासोबत राहत असल्याचं त्यानं सांगितलं. सविता दीदी एका वर्षापूर्वीच हृदयविकाराच्या झटक्याने परलोकवासी झाल्या हे कळल्यावर मला त्यांच्या सोबत व्यतित केलेलं मुंबईतलं वास्तव्य आठवलं.
रघुवीरजींची मुलं हॉस्टेलमधे राहून दिल्लीत शिकत होती. त्यामुळे कांदिवलीच्या स्टाफ क्वार्टर्समध्ये ते सपत्नीक अकराव्या मजल्यावर राहायचे तर मी सातव्या मजल्यावर एकटाच राहायचो. बऱ्याच वेळा सवितादीदी मला आग्रहाने त्यांच्याकडे जेवायला बोलवायच्या. मी चार पाच वेळा तरी त्या माऊलीच्या हातचं खाल्लं असेल. त्या म्हणायच्या, “हृषिकेश, आप मुझे दीदी कहते हो ना? फिर अपने दीदी के घर आने में इतना क्यों झिझकते हो?”
एकदा सवितादीदी कुठल्याशा समारंभाच्या निमित्ताने दिल्लीला गेल्या होत्या. रघुवीरजींनी फोनवर विचारलं, ‘हृषिकेश, मैं तुम्हारे फ्लॅट में रहने आऊं क्या?’
सवितादीदी नसल्याने त्यांना घर खायला उठलं होतं. मी ‘हो’ म्हणताच ते माझ्या फ्लॅटवर राहायला आले. मला म्हणाले, ‘हृषिकेश, मेरे भाई, सविताजी ह्या फक्त दोन दिवसासाठी बाहेर गेल्या आहेत तर मी इतका अस्वस्थ झालो आहे की काय सांगू? देव न करो अन त्या माझ्या अगोदर गेल्या तर माझी काय अवस्था होईल?’ हे ऐकल्यावर, अशाच विरह व्यथेचे मनोज्ञ दर्शन घडवणाऱ्या बोरकर यांच्या कवितेतल्या ओळी माझ्या मनात रूंजी घालत होत्या.
‘तू गेल्यावर दो दिवसांस्तव जर ही माझी अशी स्थिती
खरीच माझ्या आधी गेलीस तर मग माझी कशी गती?….
‘तू गेल्यावर फिके चांदणे, घर परसूंही सुने सुके
मुले मांजरापरी मुकी अन् दर दोघांच्या मधे धुके’….
खरंच रघुवीरजी आणि सवितादीदी ‘मेड फॉर इच अदर’ असं कपल होतं. रघुवीरजींना शेवटची पोस्टिंग दिल्लीला मिळाली त्याचवेळी माझी चेन्नईला बदली झाली. त्यानंतर रघुवीरजींचा कधी संपर्क झाला नाही.
जगदीश पुढे सांगायला लागला आणि माझी तंद्री भंग पावली, ‘साहेब, रघुवीरजींचा मुलगा शेखर हा माझा घनिष्ठ मित्र आहे. शेखर आणि त्याची पत्नी रजनी त्यांची अतिशय काळजी घेतात. गेल्या वर्षभरापासून ते दोघेही ऑफिसला गेल्यानंतर रघुवीरजींना घरी एकटेच राहावे लागायचे. पत्नींच्या आठवणीने हळूहळू ते निराशेच्या गर्तेत जात होते.
त्यांची सून रजनीच्या आग्रहामुळे, रघुवीरजी घराच्या जवळच असलेल्या पार्कमध्ये सकाळी आणि संध्याकाळी फिरायला जायला लागले. पार्कमध्येच त्यांची राजेश्वरींशी ओळख झाली. हळूहळू ती जुजबी ओळख गाढ मैत्रीत रूपांतरित झाली. रघुवीरजींना राजेश्वरींच्या वागण्यातून, बोलण्यातून सविताजींचे लाघवी रूप दिसायला लागले. त्यांच्या चेहऱ्यावर एक नवीनच तजेला आला. त्यांच्या मैत्रीची गोष्ट आजूबाजूला पसरली.
शेखरने ती हकीगत माझ्या कानावर घातली. मी म्हटलं, “शेखर, अरे रजनी भाभींना ही हकीगत इतरांच्याकडून कळण्या अगोदर तूच सांगावंस. ”
घरी पोहोचल्यावर शेखरने रजनी भाभींना ही हकीगत शांतपणे सांगितली.
सगळं ऐकल्यावर रजनी भाभी म्हणाल्या, ‘हे पाहा शेखर, ज्यांनी एकटेपणा अनुभवला नाही ना असेच लोक पप्पांच्या विषयी बोलत असतील. एकटेपणाशी लढण्यात हार मानून निराशेच्या गर्तेत जाऊन आपलं नुकसान करून घेण्यापेक्षा किंवा चिडचिड करून आपल्या मुलांच्या संसारात लुडबूड करीत राहण्यापेक्षा; त्यांनी त्यांच्या वयाला, स्वभावाला जुळणाऱ्या व्यक्तिशी सुखदु:खं वाटून घेतली तर काय हरकत आहे? या वयातल्या मैत्रीत समोरची व्यक्ती आपल्याला कितपत समजून घेतो एवढंच माणूस पाहत असतो. ‘
‘मग त्यांनी पुरूष मित्र जोडावेत. त्याला कोणाची हरकत असणार आहे?’ शेखरनं सांगितलं.
‘शेखर, स्त्रियांमध्ये वात्सल्य-ममता हे भाव जात्याच असतात, तसे पुरुषांमध्ये नसतात. एक स्त्री म्हणून नव्हे तर ती त्यांच्या भावना समजून घेते म्हणून पप्पांनी त्यांच्याशी मैत्री जोडली असेल. पप्पांना त्यांच्या एकाकी जीवनात योगायोगाने एका स्त्रीमधे मैत्र भेटलं आहे. एरव्ही कोणा परस्त्री सोबत बोलताना मी मामंजीना कधी पाहिलेलं नाही.
आज वयाच्या या टप्प्यावर सासूबाई नसल्याने त्यांना आलेले मानसिक रितेपण न सांगताच राजेश्वरीजी समजून घेत असाव्यात. माणसाला एकटेपणा, नैराश्य ह्यातून सहानुभूतीचे चार जादुई शब्दच तारू शकतात. स्त्री आणि पुरुष हा आदिम व मूलभूत भेद अनादिकाळापासून माणसाच्या प्रवृत्तीला चिकटलेला आहे.
आजकाल तरूण वयातल्या मुला-मुलींची मैत्री स्वाभाविक वाटते, मग वृद्धत्वात झालेल्या मैत्रीत कसली आली आहे विसंगती? ते वृद्ध झाले आहेत म्हणून त्यांची लहानसहान सुखे आपण हिरावून घ्यावीत का? स्त्री पुरुषात शारीरिक ओढीच्या पलीकडचे मैत्र असूच शकत नाही का?’
‘रजनी, तू जे बोलते आहेस ते बरोबर आहे, पूर्वीच्या मानाने आता स्त्री-पुरुष या नात्यात बराचसा मोकळेपणा आलेला आहे, हे मान्य आहे. परंतु अजूनही तो पुरेसा नाही. आपल्या समाजात आजही स्त्री-पुरुषांच्या मैत्रीकडे वाकड्या नजरेनेच बघितले जाते हे तर मान्य करशील की नाही?’
‘शेखर, दिवसेंदिवस भोवतालचे वातावरण आणि राहणीमान वेगाने बदलत चालले आहे आणि त्याच बरोबर लोकांचा पाहण्याचा दृष्टीकोन आणि विचार करण्याच्या पद्धतीतदेखील बदलत होतोय. प्राप्त परिस्थितीला सामोरे जाणे ही काळाची गरज होत चाललीय.
आपल्या जीवनाचे निर्णय बरोबर की चूक किंवा चांगले की वाईट एवढ्याच कसोट्यांवर घासून न पाहता त्यातून होणाऱ्या सोयी सुविधांच्या हिशेबाने योग्य तो विचार करून आज माणूस निर्णय घेतो आहे. परदेशातल्या नोकरीच्या निमित्ताने मुलं दूर जाण्याने वृद्धांची एकाकी कुटुंबे वाढत चाललेली आहेत. परिणामत: कधीही विचारात न घेतल्या गेलेल्या अनेक नवीन समस्यांना तोंडे फुटत चाललेली आहेत. आईबाबांना एकटे राहायला लागू नये म्हणून विदेशातली संधी नाकारणारा तुझ्यासारखा एखादाच शेखर असतो. कळलं?’
‘खरंच, रजनी मी हा विचार कधी केलाच नव्हता. तूच बाबांशी बोलून एकदा राजेश्वरी आंटीशी बोलून घे. ’
असं म्हटल्यावर रजनीने रविवारी सकाळचा नाश्ता झाल्यावर रघुवीरजींच्या समोर विषय काढला. ‘पप्पा, आम्ही तुम्हाला सोसायटीतल्या राजेश्वरी आंटीबरोबर पार्कमध्ये गप्पा मारताना पाहिलं आहे.’
आम्ही राहत असलेल्या गल्लीत शिरतानाच उजवीकडे एक खूप मोठा ओटा सदृश मोकळा चौथरा होता ज्यास आम्ही “घटाणा” असे म्हणत असू. हा घटाणा म्हणजे एक प्रकारचे गल्लीतले ‘ॲम्फीथिएटरच” होते. तिथे नाना प्रकारचे पारंपरिक, लोककलेचे आणि लोक कलाकारांचे कार्यक्रम विनामूल्य चालत. जसे की डोंबाऱ्याचा खेळ, मदारी, माकडांचा खेळ, डब्यातला सिनेमा, टोपलीतले नाग नागिण, पोतराज आणि असे कितीतरी. त्यातल्या सगुणा, भागुबाई, गंगुबाई, अक्का, माई, जंगल्या, आण्णा, आप्पा अशी नाना प्रकारची पात्रे आजही आठवली तरी सहज हसू येते. डोंबारीचा खेळ पाहताना हातात काठी घेऊन दोरीवर चालणारी ती लहान मुलगी पाहताना छाती दडपून जायची. पुढे आयुष्यात केलेल्या अनेक लाक्षणिक कसरतींचा संदर्भ या लहानपणी पाहिलेल्या खेळांशीही जोडला गेला ते निराळे पण आम्हा मुलांसाठी घटाण्यावरचे खेळ म्हणजे एक मोठे मनोरंजन होते. या पथनाट्यांमुळे आमचे बालपण रम्य झाले.
एक चांगलं लक्षात आहे की या खेळांव्यतिरिक्त मात्र आम्हा मुलांना त्या घटाण्यावर जाण्याची परवानगी नसायची कारण त्या घटाण्याच्या मागच्या बाजूला ट्रान्सजेंडर लोकांची वस्ती होती. ती चेहऱ्यावर रंग चढवलेली स्त्री वेशातील पुरुषी माणसे, त्यांचं टाळ्या वाजवत, कंबर लचकवत सैरभैर चालणं, दोरीवर वाळत घातलेले त्यांचे कपडे पाहताना विचित्र असं भयही जाणवायचं. कधीकधी घटाण्यावर रात्रीच्या वेळी ढोल वाजवत गायलेली त्यांची भसाड्या सूरातील गाणी ऐकू यायची. त्या गाण्यात अजिबात श्रवणीयता अथवा गोडवा नसायचा. आज विचार करताना वाटतं, त्यांच्या जीवनातील भेसूरता ते अशा सूरांतून व्यक्त करत असावेत.
पण तरीही मनात प्रश्न असायचे. ही माणसं अशी कशी? ही वेगळी का? यांचे आई वडील कोण? यांची वस्ती हेच यांचं कुटुंब का? या प्रश्नांची उत्तरे त्यावेळी कधीच मिळाली नाहीत पण आजही त्यावेळी उत्तर न मिळालेले अनेक प्रश्न मनात आहेतच.
एकदा बोलता बोलता जीजी म्हणजे माझी आजी म्हणाली, ”मालु गरोदर असली आणि मी घरात नसले की शेजारची काकी बिब्बा मागायला यायची. मालु भोळसट. ती काकीला द्यायची बिब्बा. ”
बिब्बा नावाचं एक काळं, औषधी, सुपारी सारखं ‘बी’ असतं जे स्नायूंच्या दुखण्यावर उपयोगी ठरतं. हे बिब्बे वगैरे विकणाऱ्या बाया “बुरगुंडा झाला बाई बुरगुंडा झाला” अशाप्रकारे काहीतरी गाणी गात सुया, मणी, बिब्बे वगैरे विकत. जीजी पुढे सांगायची, ”म्हणून तुझ्या आईला तुम्ही पाच मुलीच झालात. ”
मालु — मालती हे माझ्या आईचं नाव. मला जीजीचं हे बोलणं अजिबात आवडलं नाही. मी तिला लगेच म्हटलं, “आम्ही मुली म्हणून तुला आवडत नाही का ?” तेव्हा मात्र जीजी फार खवळली आणि तिने माझे जोरात गालगुच्चे घेतले पण मग दुसऱ्या क्षणी प्रेमाने जवळ घेऊन म्हणाली, ” नाही ग ! तुम्ही तर माझे पाच पांडव. ”
पण माझ्या मनात जे उत्तर न मिळालेले अनेक प्रश्न आहेत त्यापैकीचा एक प्रश्न कुमुदताई या आकर्षक व्यक्तिमत्वाभोवती गुंतलेला आहे. घटाणा ओलांडून गल्लीतून बाहेर पडताना उजवीकडे एका जराशा उंच प्लिंथवर दोन बैठी पण वेगवेगळी घरे होती. एक समोरची खोली आणि आत एक स्वयंपाक घर. एक खिडकी हॉलची आणि एक खिडकी स्वयंपाकघराची. परसदारी दोन्ही घरांसाठी वेगवेगळी स्वच्छतागृहे होती आणि पुढे मागे थोडा मोकळा परिसर होता. त्यातल्या एका घरात लैला आणि कासिमभाई हे बोहरी दाम्पत्य आपल्या इबू आणि रफिक या लहान मुलांसोबत राहत आणि दुसऱ्या घरात चव्हाणकाका आणि कुमुदताई हे नवविवाहित दांपत्य राहत असे. अतिशय आकर्षक असे हे दांपत्य. दोघेही गौरवर्णीय, उंच आणि ताठ चालणारे. त्यांच्याकडे पाहता क्षणी जाणवायचं की धोबी गल्ली परिसरातल्या जीवनशैलीशी न जुळणारं असं हे दाम्पत्य आहे. त्यांचा क्लासच वेगळा वाटायचा. चव्हाणकाका हे उत्तम वकील होते. अर्थात ते नंतर कळलं जेव्हा ते आमचे चव्हाणकाका झाले आणि त्यांच्या पत्नी आमच्यासाठी कुमुदताई झाल्या. आम्हा मुलांना नसेल जाणवलं पण ते नवविवाहित दांपत्य असलं तरी ते प्रौढ होते पण महत्त्वाचे हे होतं की सुरुवातीला काहीसे निराळे, वेगळ्या क्लासमधले ते वाटले तरी तसे ते असूनही खूपच मनमिळाऊ, हसरे आनंदी आणि खेळकर होते. आमच्याशी त्यांचे सूर फारच चटकन आणि छान जुळले. दोघांनाही लहान मुले फार आवडायची. शेजारच्या बोहरी कुटुंबातल्या रफिक आणि इबु वर तर ते जीवापाड प्रेम करत आणि कुमुदताई आम्हा मुलांना तर प्रचंड आवडायच्या.
मी प्रथम त्यांच्याशी कधी बोलले ती आठवण माझ्या मनात आजही काहीशी धूसरपणे आहे. मी आणि माझी मैत्रीण त्यांच्या घरावरून जात होतो. जाता जाता कुतुहल म्हणून त्यांच्या घरात डोकावत होतो. तेवढ्यात त्यांनीच मला खुणेने बोलावलं. खरं सांगू तेव्हा मला इतका आनंद झाला होता! कारण मला त्यांच्याशी नेहमीच बोलावसं वाटायचं पण भीडही वाटायची. आता तर काय त्यांनी स्वतःहूनच हाक मारली होती मला. मी धावतच गेले. “तुझा फ्रॉक किती सुंदर आहे ग !” हे त्यांच्याशी झालेल्या संभाषणातलं पहिलं वाक्य. मग मी फुशारकीत सांगितलं, “माझ्या आईने शिवलाय माझा फ्रॉक. ” “अरे वा ! तुझी आई कलाकारच असली पाहिजे. ” “होयच मुळी. ” आणि मग त्या दिवसांपासून कुमुदताईंची आणि आमची घट्ट मैत्री झाली.
उठसूठ आम्ही त्यांच्याच घरी. रविवारच्या सुट्टीत तर आम्हा सवंगड्यांचा त्यांच्याकडे अड्डाच असायचा. त्यांच्याबरोबर आम्ही खूप पत्ते खेळायचो. पत्त्यातले अनेक डाव. पाच तीन दोन, बदामसत्ती, नॉट ॲट होम, लॅडीस, झब्बू, ३०४ वगैरे. आम्ही आमच्या वयातलं अंतर कधीच पार केलं होतं शिवाय नुसतेच खेळ नसायचे बरं का. कुमुदताई उत्कृष्ट पाककौशल्य असणार्या गृहिणी होत्या. खेळासोबत कधीकधी कांदाभजी, सोडे किंवा अंडे घालून केलेले पोहे, वालाची खिचडी असा बहारदार चविष्ट मेनूही असायचा.
माझी धाकटी बहीण छुंदा त्यांना फार आवडायची. ती सुंदर म्हणून तिला चव्हाणकाका लाडाने “प्रियदर्शनी” म्हणायचे. त्यांचंही आमच्या घरी जाणं-येणं होतं. चव्हाणकाकांचं आणि पप्पांच अनेक विषयांवर चर्चासत्र चालायचं आणि “कुमुदताई” माझ्या आईची खूप छान मैत्रीण झाल्या होत्या. अर्थात यातही मैत्रीचं पहिलं पाऊल त्यांचंच होतं. आईकडून आणि जिजी कडूनही शिवणकामातल्या अनेक कौशल्याच्या गोष्टी अगदी आत्मीयतेने त्यांनी शिकून घेतल्या. आईने त्यांना कितीतरी पारंपारिक पदार्थही शिकवले. जसे कुमुदताईंकडून आमच्याकडे डबे यायचे तसेच आमच्याकडूनही त्यांना डबे जात. मग एकमेकींनी बनवलेल्या पदार्थांची चर्चाही घडे.
कुठल्याही अडचणीच्या वेळी कुमुद ताई आईची मदत घेत आणि हे दोन्हीकडून होतं. आम्हा मुलांना तर त्यांच्यासाठी काहीही करायला आवडायचे. त्या एकट्या असल्या तर अभ्यासाची वह्या पुस्तके घेऊन आम्ही त्यांना सोबत करायचो. असं खूपच छान नातं होतं आमचं. त्यांच्याबरोबर गाणी ऐकली, सिनेमे पाहिले. कितीतरी वेळा— बालमन कधी दुभंगलं तर त्यांच्यापुढेच उघडं केलं आणि त्यांनी आमच्या डोळ्यातलं पाणी वेळोवेळी टिपलं.
मग नक्की काय झालं ? कुमुदताई गर्भवती झाल्या, चव्हाण काका आणि कुमुदताईंना ‘बाळ’ होणार म्हणून खरं म्हणजे सारी गल्लीच आनंदली. दुसऱ्यांच्या मुलांवर जीवापाड प्रेम करणारं, मुलांमध्ये रमणारं हे जोडपं आता स्वतः “आई-बाबा’ होणार ही केवढी तरी आनंदाचीच गोष्ट होती पण कळत नकळत का होईना जाणवायला लागलं होतं ते पडत चाललेलं अंतर, त्यांच्या वागण्या बोलण्यातला अधोरेखित फरक. बालमन बारकावे टिपण्याइतकं परिपक्व नसतं पण कुठेतरी आत संवेदनशील नक्कीच असतं.
आजकाल रोज येणाऱ्या कुमुदताई आमच्याकडे येईनाशाच झाल्या होत्या. अत्यंत तुटकपणे बोलायच्या. नंतर तर बोलणंही संपलं. गल्लीतल्या बाकीच्यांशी मात्र त्यांचं काही बिनसलं नव्हतं.
प्रश्नांची खरी उत्तरं फक्त “जीजी” कडे मिळायची. जीजी आपणहूनच म्हणाली एक दिवस, “ तुझ्या कुमुदताईंना विसर आता. आता नाही येणार त्या आपल्याकडे. ” “पण का ?” माझे डोळे तुडुंब भरले होते. कुमुदताईंसारख्या आवडत्या व्यक्तीला तोडणे कसे शक्य होते ? “त्यांना भीती वाटते की तुझ्या आईचा चेहरा त्यांनी पाहिला तर त्यांनाही मुलगीच होईल. त्यांना मुलगी नको मुलगा हवाय. ”
हा मला बसलेला ‘मुलगी’ विषयीचा अनादर दाखवणारा एक प्रचंड धक्का होता. त्या क्षणी मी माझ्या आईला घट्ट मिठी मारली आणि तेव्हा एकच जाणवलं, ”माझ्यासाठी या जगात माझ्या आई इतकी महान व्यक्ती दुसरी कुणीच नव्हती. एक वेळ मी परमेश्वराची आरती करणार नाही पण माझ्या आईची महती गाणारी आरती जन्मभर करेन.”
आई आणि जीजीमध्ये सासू—सून नात्यातले वाद असतील पण अशा कितीतरी भावनिक, संवेदनशील संघर्षामय क्षणांच्या वेळी जीजी आईमागे भक्कमपणे उभी असायची.
शेतात उंचावर बसवलेल्या बुजगावण्यासारखं माझ्या मनातलं कुमुदताईंचं स्थान एकाएकी कोसळलं आणि रात्रीच्या भसाड्या आवाजातल्या ट्रान्स जेंडरांचं गाणं अधिक भेसूर वाटलं.
त्यानंतर चव्हाणकाका आणि कुमुदताईंनी घरही बदललं. ठाण्यातल्याच “चरई’ सारख्या प्रतिष्ठित भागात त्यांनी स्वतःचं मोठं घर घेतलं. चव्हाणकाकांची वकिली जोरात चालू होती. ठाण्यातील नामांकित वकील म्हणून त्यांची ओळख निर्माण होत होती. घटाण्या समोरची त्यांच्या घराची खिडकी कायमची बंद झाली आणि आमच्यासाठीही तो विषय तिथेच संपला.
आमच्याही आयुष्यात नंतर खूप बदल झाले. आम्ही मोठ्या झालो. भविष्याच्या वाटेवर आम्हा बहिणींची— आई वडील आणि आजीच्या प्रेम आणि मार्गदर्शनाखाली आयुष्ये फुलत होती. ’ मुलगा नसला तरी.. ’ हे वाक्य सतत कानावर पडत राहिलं तरीही कधी कधी ते चांगल्या शब्दांबरोबरही गुंफलेलं असायचं. “मुलगा नसला तरी ढग्यांच्या मुली टॅलेंटेड आहेत. ढग्यांचे नाव त्या नक्कीच राखतील. ” तेव्हा त्या व्यक्तिंबद्दल “ही माणसं आपल्या विचारांची” असंही काहीसं वाटायचं.
अनपेक्षित पणे एक दिवस, ध्यानीमनी नसताना आमच्याकडे चव्हाणकाका आणि कुमुदताई आले. मध्ये बर्याच वर्षांचा काळ लोटला होता. काळाबरोबर काळाने दिलेले घावही बोथट झाले होते. आमच्यावर लहानपणापासून झालेला एक संस्कार म्हणजे, “ झालं गेलं विसरून जावे, कोणाही विषयी विचार करताना केवळ त्यांच्या आनंदाचा, सुखाचा, अथवा त्यांच्याच भूमिकेतून विचार करावा. कुठलाही आकस मनात ठेवून टोकाची प्रतिक्रिया कधीही देऊ. नये. ”
कुमुदताईंना तीन मुली झाल्या. सुंदर गुणी, त्यांच्यासारख्याच आकर्षक. मुलगा झाला नाही. तिसऱ्या मुलीच्या जन्मानंतर चव्हाण दांपत्य पेढे आणि बर्फी दोन्ही घेऊन आमच्याकडे त्या दिवशी आले होते. कुमुदताईंनी माझ्या आईला घट्ट मिठी मारली. एक अबोल पण अर्थपूर्ण मीठी होती ती! एका वैचारिक चुकीची जणू काही कबुलीच होती ती. त्यानंतर कृष्णमेघ ओसरले. आकाश मोकळे झाले.
आज प्रातिनिधिक स्वरूपात विचार केला तर वाटते यात ‘कुमुदताईंना’ दोष देण्यात काय अर्थ आहे? सामाजिक वैचारिकतेचा हा पगडा असतो. अजून तरी समाज पूर्णपणे बदलला आहे का ?