मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “रिटायर्ड  वडील…!!!” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

श्री मोहन निमोणकर 

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “रिटायर्ड  वडील…!!!” – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर

आज जेवून झाल्यावर वडील म्हणाले …

 

” मी आता रिटायर्ड होतोय.

मला आता नवीन कपडे नको. 

जे असेल, ते मी जेवीन. 

रोज वाचायला पेपर नको. 

आजपासून सिगरेट बंद. 

तुम्ही मला जसं ठेवाल, तसा मी राहीन.”

 

…. काहीतरी कापताना सुरीनं बोट कापलं जावं आणि 

टचकन पाणी डोळ्यात यावं .. काळीजच तुटावं, 

अगदी तसं झालं…

 

एवढंच कळलं, की आजवर

जे जपलं, ते सारंच फसलं…

 

का वडिलांना वाटलं, ते

ओझं होतील माझ्यावर…?

 

मला त्रास होईल, जर ते गेले 

नाहीत कामावर…?

 

ते घरात राहिले, 

म्हणून कोणी ऐतखाऊ म्हणेल…

की त्यांची घरातली किंमत शून्य बनेल…???

 

आज का त्यांनी दम दिला नाही…?

“काय हवं ते करा, माझी तब्बेत बरी नाही, 

मला कामावर जायला जमणार नाही…”

 

खरंतर हा अधिकार आहे, त्यांचा सांगण्याचा. 

पण मग ते काकुळतीला का आले…?

 

ह्या विचारातच माझं मनं 

खचलं. नंतर माझं उत्तर मला मिळालं…

 

…. जसजसा मी मोठा होत गेलो, वडिलांच्या कवेत मावेनासा झालो. 

तेव्हा नुसतं माझं शरीरच वाढत नव्हतं, 

…. तर त्याबरोबर वाढत होता तो अहंकार 

…. आणि त्यानं वाढत होता, तो विसंवाद…

 

आई जवळची वाटत होती.

पण, वडिलांशी दुरावा साठत होता…

 

मनाच्या खोल तळापर्यंत

प्रेमच प्रेम होतं. पण, ते कधी शब्दांत सांगताच आलं नाही…

 

वडिलांनीही ते दाखवलं असेल

…  पण, दिसण्यात आलं नाही.

 

मला लहानाचा मोठा करणारे वडील, 

आज स्वतःच स्वतःला लहान समजत होते…

 

मला ओरडणारे – शिकवणारे वडील, 

का कुणास ठाऊक.. बोलतांना धजत होते…

 

मनानं कष्ट करायला तयार असलेल्या वडिलांना, 

शरीर साथ देत नव्हतं…

 

शून्यातून सारं उभं केलेल्या तपस्वीला, 

घरात नुसतं बसू देत नव्हतं…

 

…… हे मी नेमकं ओळखलं…!!

 

खरंतर मी कामावर जायला लागल्यापासून, 

सांगायचंच  होतं त्यांना – 

की थकला आहात, आराम करा. पण,

 

आपला अधिकार नव्हे, सूर्याला सांगायचा, की 

“मावळ आता”…!!

 

लहानपणीचे हट्ट पुरवणारे वडील… 

मधल्या वयांत अभ्यासासाठी ओरडणारे वडील…

आणि नंतर चांगलं वागण्यासाठी कानउघडणी करणारे वडील…

 

आजवर सारं काही देऊन 

कसलीच अपेक्षा न ठेवता, 

जेव्हा खुर्चीत शांत बसतात,

तेव्हा वाटतं, की जणू काही 

आभाळंच खाली झुकलंय !!

 

कधीतरी या आभाळाला जवळ बोलवून 

.. खूप काही बोलावसं वाटतं…!!

 

पण तेव्हा लक्षात येतं, की 

आभाळ कधीच झुकत नाही, 

ते झुकल्यासारखं फक्त वाटतं…!!

 

आज माझंच मला कळून चुकलं, 

की आभाळाची छत्रछायाही 

खूप काही देऊन जाते…!!!

 

सर्व रिटायर्ड आणि जेष्ठ नागरिकांना समर्पित…!!!

कवी : अज्ञात

संग्राहक : श्री मोहन निमोणकर

संपर्क – सिंहगडरोड, पुणे-५१ मो.  ८४४६३९५७१३.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #256 – कविता – ☆ नफरतों के बीज बो दिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “नफरतों के बीज बो दिए…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #256 ☆

☆ नफरतों के बीज बो दिए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

थी जरा सी बात इसलिए

नफरतों के बीज बो दिए।।

 

लिया सूर्य से उबाल, चंदा से चतुराई

तारों के बहुमत से, उर्वर कुमति पाई,

धरती ने पोषित कर

पुष्पित पल्लवित किये

नफरतों के बीज बो दिए।

 

खरपतवारों ने, दायें-बायें साथ दिया

ईर्ष्यालु वायु के, झोंकों का नशा नया,

मदमाते लहराते

गर्वीले घूँट पिये

नफरतों के बीज बो दिए।

 

बीज सबल स्वस्थ उन्हें,अलग-अलग बाँट दिया

प्राकृत फसलों ने, आपस में प्रतिघात किया,

धरती की शुष्क दरारों को

अब कौन सिये

नफरतों के बीज बो दिए।।

 

खेतों में नई-नई, मेढ़ों की भीड़ बढ़ी

उपजाऊ माटी पर, अलगावी पीर चढ़ी,

संकट में नई पौध

कैसे निर्द्वन्द्व जिये

नफरतों के बीज बो दिए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 80 ☆ अकेलापन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “अकेलापन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 80 ☆ अकेलापन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मौन ही

करते रहे हैं बात

मेरे अकेलेपन में।

 

दूर ढलती साँझ

मादल के स्वरों पर

सूर्य रक्तिम सा

खड़ा परछाइयों में

घाटियों में उतर

आया है अँधेरा

दीप जलता है

कहीं वीरानियों में

 

सुलगती

है अँगीठी सी रात

गहरे निस्तब्ध वन में।

 

पहरुए सा समय

काँधे पर धरे दिन

जोतता अँधियार

बोता भोर उजली

कातता है चाँद

भूरे बादलों सँग

चाँदनी के तार

लेकर स्वप्न तकली

 

झील भी

ले कँवल की सौग़ात

आँजती काजल नयन में।

 

उड़े पंछी गगन

नापे पर क्षितिज से

चहकते जंगल

नहाती धूप आँगन

मंज़िलों पर जा

रुके हारे थके से

पाँव आ ठहरे

लिए आशा के सगुन

 

उम्र भर

पढ़ते रहे हालात

बैठकर अपने भुवन में।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यह आदमी मरता क्यों नहीं है? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध  ? ?

(26 नवंबर 2019 को प्रकाशित >> ☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆  अपने आप में विशिष्ट है। ई-अभिव्यक्ति परिवार के सभी सम्माननीय लेखकगण / पाठकगण श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी के इस महायज्ञ में अपने आप को समर्पित पाते हैं। मेरा आप सबसे करबद्ध निवेदन है कि इस महायज्ञ में सब अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और यही हमारा दायित्व भी है। – हेमन्त बावनकर) 

श्री संजय भरद्वाज जी के ही शब्दों में – “आम आदमी की अदम्य जिजीविषा को समर्पित यह कविता *’शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’* प्रदर्शनी और अभियान में चर्चित रही। विनम्रता से आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ। यदि आप किसी महाविद्यालय/ कार्यालय/ सोसायटी/ क्लब/ बड़े समूह के लिए इसे आयोजित करना चाहें तो आतंक के विरुद्ध  जन -जागरण के इस अभियान में आपका स्वागत है।”

सर्वप्रथम 26/11 और देश भर में अलग-अलग आतंकी घटनाओं में प्राण गंवाने वाले आम आदमी और आतंकियों से मुकाबला करते हुए बलिदान देनेवाले सुरक्षाकर्मियों की स्मृति को सादर नमन। 26/11 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमति सुधा भारद्वाज जी द्वारा शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध अभियान आरम्भ किया गया। 16 वर्ष से यह अभियान अनवरत जारी है।

शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध में सम्मिलित रचना ‘यह आदमी मरता क्यों नहीं है’ का जन्म 26 से 28 नवम्बर 2008 के बीच कभी हुआ था। सामान्य आदमी की असामान्य जिजीविषा को समर्पित इस रचना को पाठकों और श्रोताओं ने अपूर्व समर्थन दिया। आम आदमी के इसी अदम्य साहस को समर्पित है शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध अभियान।

? यह आदमी मरता क्यों नहीं है? ?

💐 नागरिकों की रक्षा के लिए आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए सशस्त्र बलों के सैनिकों और आतंकी वारदातों में प्राण गंवाने वाले  नागरिकों को श्रद्धांजलि💐

हार क़ुबूल करता क्यों नहीं है,

यह आदमी मरता क्यों नहीं है?

 

कई बार धमाकों से उड़ाया जाता है,

गोलीबारी से

परखच्चों में बदल दिया जाता है,

ट्रेन की छतों से खींचकर

नीचे पटक दिया जाता है,

अमीरज़ादों की ‘ड्रंकन ड्राइविंग’

के जश्न में कुचल दिया जाता है,

 

कभी दंगों की आग में

जलाकर ख़ाक कर दिया जाता है,

कभी बाढ़ राहत के नाम पर

ठोकर दर ठोकर

कत्ल कर दिया जाता है,

कभी थाने में उल्टा लटका कर

दम निकलने तक

बेदम पीटा जाता है,

कभी बराबरी की ज़ुर्रत में

घोड़े के पीछे बांधकर खींचा जाता है,

 

सारी ताकतें चुक गईं,

मारते-मारते खुद थक गईं,

न अमरता ढोता न कोई आत्मा है,

न ईश्वर, न अश्वत्थामा है,

फिर भी जाने इसमें क्या भरा है,

हज़ारों साल से सामने खड़ा है,

मर-मर के जी जाता है,

सूखी ज़मीन से

अंकुर-सा उग आता है,

 

ख़त्म हो जाने से डरता क्यों नहीं है,

यह आदमी मरता क्यों नहीं है..?

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 84 ☆ बोझ तुम मान  के बेटी नहीं रुखसत करना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बोझ तुम मान  के बेटी नहीं रुखसत करना“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 84 ☆

✍ बोझ तुम मान  के बेटी नहीं रुखसत करना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

क्या रखा दर्प में छोड़ो ये फ़ज़ीयत करना

चाह इज्जत की है तो सीख ले इज्जत करना

 *

हर इबादत का शरफ़ दोस्त मिलेगा तुझको

दरमन्दों से गरीबों से मुहब्बत करना

 *

पहले कर लेना हुक़ूमत से गुज़ारिश फिर भी

कान पर जूं न जो रेंगें तो बगावत करना

 *

एक हद तक ही मुनाफे को कहा है जायज़

दीन को ध्यान में रखके ही तिज़ारत करना

 *

आसतीनों के लिए नाग भी बन जाते हैं

आदमी देख के ही आज रफाक़त करना

 *

हम सफ़र उंसके हो लायक जो उसे दे सम्मान

बोझ तुम मान  के बेटी नहीं रुखसत करना

 *

दोसती करके निभाना है अरुण मुश्किल पर

कितना आसान किसी से भी अदावत करना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य व्यंग्य  “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…”)

☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “इच्छाधारी नाग के साथ रेल यात्रा…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं मुम्बई से जबलपुर लौट रहा था, रात्रि में ट्रेन पूरी गति से दौड़ रही थी।

अचानक मेरी नजर अपने बाजू वाली बर्थ पर लेटे व्यक्ति की चमकदार गोल आंखों पर पड़ी। मुझे थोड़ा अजीब लगा फिर सोचा दुनिया में तरह तरह की आंखों वाले लोग हैं। नीली, लाल, भूरी, काली आंखों वाले लोग। मछली, हिरनी, उल्लू, सांप जैसी आंखों वाले लोग। होगा कोई, मुझे क्या। तभी अचानक गोल चमकदार आंखों वाला वह व्यक्ति मुझसे बोला श्रीवास्तव जी आपका शक सही है। मैंने कहा भाई आप मुझे कैसे जानते हैं और कौन से शक की बात कर रहे हैं? वह बोला भाई परेशान न हों मैं सब को पहचान लेता हूं। मैं इच्छाधारी नाग हूं, मुझे कुछ विशिष्ट शक्तियां प्राप्त हैं। रात के समय ट्रेन की बत्तियां बंद थीं उसकी चमकती आंखें देखकर और बातें सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया। उसने कहा श्रीवास्तव जी घबराएं नहीं आपका धर्म भी फुफकारना और डसना है और मेरा भी यही धर्म है, इसीलिए मैंने आपको अपना परिचय दिया। मैंने कहा यह कैसे हो सकता है, मैं सांप नहीं आदमी हूं। आदमी के वेश में ट्रेन की सीट पर लेटे इच्छाधारी सांप ने पहले मेरी ओर जहरीली मुस्कुराहट फेंकी फिर हंसा और कहा आदमी तो हो लेकिन व्यंग्यकार हो न इसीलिए तो कहा कि हम दोनों का फुफकारने और डसने का धर्म एक ही है। इच्छाधारी अचानक कुछ उदास हो गया।

मैंने कहा भाई क्या बात है? इतने शक्ति सम्पन्न होने के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर उदासी? वह बोला सही बात है, जब भी किसी व्यंग्यकार को देखता हूं तो उदास हो जाता हूं क्योंकि आप लोग मुझसे ज्यादा शक्तिशाली हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी क्यों मजाक कर रहे हो! वह बोला – व्यंग्यकारों की नजर और सूंघने की शक्ति मुझसे बहुत तेज होती है उन्हें न जाने कहां से लोगों के बारे में सब जानकारी हो जाती है और वे लिखकर फुफकार भी मारते रहते हैं और डस भी लेते हैं। भाई जी हम तो जिसे डसते हैं वह मात्र कुछ क्षण छटपटा कर मर जाता है, लेकिन जब आप अपनी कलम से किसी को डसते हैं तो उसे आजीवन अपमान का मृत्यु तुल्य दर्द झेलना पड़ता है। अब बताइए आप बड़े की मैं? मैंने कहा – इच्छाधारी जी जब आप सब जानते हैं तो यह भी जानते होंगे कि मैं सिर्फ व्यंग्यकार हूं बड़ा नहीं। इच्छाधारी मुस्कुराया और बोला श्रीवास्तव जी आज लेखन की हर विधा में दो प्रकार के लोग हैं, एक वे जो वास्तव में जानकार और विद्वान हैं, जिनके पास प्रशंसक तो हैं पर चापलूस नहीं  दूसरे वे जो स्वयं को बड़ा समझते हैं और अपने बड़े होने का निरंतर प्रचार प्रसार कराते रहते हैं इनके पास प्रशंसक तो नहीं होते,चापलूस होते हैं। ये सृजन से अधिक जुगाड़ की शक्ति पर भरोसा करते हैं और सरकारी गैर- सरकारी सम्मान, पुरस्कार लेकर स्वयं पर श्रेष्ठ होने का ठप्पा लगवा लेते हैं। इच्छाधारी जी आगे बोले – श्रीवास्तव जी रामधारी सिंह “दिनकर”, मन्नू भंडारी, परसाई जी आदि की बात अलग थी उन्हें छोड़िए और बताइए की आज जितने भी कथाकार, कवि, नाटककार अथवा व्यंग्यकार हैं अथवा जो भी राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए छटपटा रहे हैं उनमें से कितने लोगों का लिखा हुआ आपकी समझ में आता है?

इच्छाधारी के प्रश्न पर मैंने मौन रहना उचित समझा। सोचा कोई टिप्पणी करके क्यों आज के बड़े तथाकथित रचनाकारों से बुराई लूं, वे सब लोग ही तो पुरस्कार और सम्मान समितियों के चयनकर्ता बने बैठे हैं। हो सकता है किसी के दिमाग में अगले बड़े सम्मान के लिए मेरा नाम चल रहा हो।

मेरी चुप्पी से इच्छाधारी ने मेरा मन पढ़ लिया वह मुस्कुराते हुए बोला – व्यर्थ उम्मीद न लगाएं आपको सम्मान दिलाने में किसी की रुचि नहीं है। मैंने कहा क्यों भाई मुझमें क्या कमी है? उसने कहा – क्योंकि आप सिर्फ व्यंग्यकार हैं, सम्मान प्राप्त करने के लिए व्यंग्य बाणों के साथ – साथ “चापलूसी का हथियार” चलाना भी आना चाहिए। मैंने प्रश्न किया इच्छाधारी जी कृपया बताएं मुझे चापलूसी नामक हथियार चलाना कौन सिखा सकता है? वह जोर से हंसा फिर सांसों पर नियंत्रण करके बोला – यह जन्मजात गुण है प्यारे भाई, इसे सिखाया नहीं जा सकता। इच्छाधारी ने आगे कहा आप तो अपने साथियों को रचनाएं सुना – सुना कर प्रसन्न रहें।

मैंने चौंकते हुए कहा – अरे आप मेरे साथियों के बारे में भी जानते हैं! वह बोला, भाई जी मैं सबको जनता हूं, आप कहें तो नाम गिना दूं। आखिर आप सब फुफकारने – डसने वाले मेरे ही धर्म के लोग हैं। मैंने कहा भाई जी जब आप सबको जानते हैं तो इतना बता दें कि हमारे साथियों में से कौन भाग्यशाली बड़ा सम्मान पाने की योग्यता रखता है? इच्छाधारी हंसा फिर बोला – अच्छे रचनाकार तो सभी हैं लेकिन सभी नर्मदा का पानी पीकर अक्खड़ हो गए हैं, चापलूसी का हथियार चलाना कोई नहीं जानता अतः आप सब बड़े सम्मान की उम्मीद न करें और निःस्वार्थ नगर के बाहर के रचनाकारों का सम्मान करके उन्हें बड़ा बनाने की संस्कारधानी की परम्परा निभाएं।

मैंने निराश होते हुए कहा – क्या हममें से किसी को राष्ट्रीय स्तर का कोई सम्मान नहीं मिल सकता? इच्छाधारी कुछ सोचता हुआ बोला – मिल सकता है, यदि पुरस्कार चयन समिति के सदस्यों को कोई यह ज्ञान दे दे कि इनमें से किसी को सम्मान के लिए चुन लेने पर चयन समिति पर लगा यह धब्बा मिट जायेगा कि समिति के सदस्य सिर्फ चमचों को ही पुरस्कृत करते हैं। मैंने कहा – इच्छाधारी जी चयन समिति के सदस्यों के दिमाग में इस बात को आप ही प्रविष्ट करा सकते हैं कृपया मदद करें।

वह बोला, मुझे आप लोगों से हमदर्दी है किंतु क्या करूं पहले नाग वेश में ट्रेन में घुसकर मुफ्त यात्रा कर लेता था किंतु विगत दिवस आपके मित्रों ने मेरे गरीबरथ में यात्रा करने का इतना हल्ला मचा दिया कि अब मुझे आदमी के वेश में टिकट लेकर रेल यात्रा करना पड़ रही है। आप लोगों के काम से न जाने कहां कहां जाना पड़ेगा, न जाने कितना पैसा खर्च होगा? बातों बातों में रास्ता काट गया, जबलपुर आने वाला था। मैंने मनुष्य रूपी उस इच्छाधारी नाग से प्रार्थना करते हुए कहा कि भाई आप ही ने तो कहा था कि हम लोग फुफकारने – डसने वाले एक ही धर्म के लोग हैं। वह मुस्कुराया, हाथ मिलाकर विदा लेता हुआ बोला कि ठीक है प्रयत्न करूंगा।

वह नाग रूप धारण कर पटरियों के बीच गायब हो गया।

अब मुझे घर पहुंचने की जल्दी थी अतः मैंने आटो रिक्शा पकड़ने प्लेटफार्म से बाहर का रुख किया।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सजन… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆ सजन☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(डमरू घनाक्षरी)

तरसत मन अब, सजन जलत मन

असफल हर पल, पवन करत छल ।।

*

डगर डगर पर, सहज नजर धर

इधर उधर सब, बहत नयन जल ॥

*

जहर अधर पर, कहत कपट कर

दरस हरस कब, भटकत जल थल ॥

*

 बहकत पग अब, खबर नगर भर

सरस सबल मन, पनघट पर चल ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड और रजाई।)

?अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब मौसम करवट लेता है, और ठंड दस्तक देती है, तो सबसे पहले रजाई बाहर आती है। अचानक चादर छोटी पड़ने लग जाती है, और इंसान सोचता है, चादर अचानक इतनी ठंडी क्यों हो गई है।

वैसे चादर दो होती है, एक ओढ़ने की और एक बिछाने की। लेकिन जहां गरीबी में आटा गीला हो, वहां इंसान क्या तो ओढ़े और क्या बिछाए। कई बार तो अचानक ठंड पड़ने पर, हमने बिछाई हुई चादर भी ऊपर से ओढ़ी है।।

वैसे कबीर ने सारा ज्ञान चादर पर ही बांटा है, रजाई पर कभी उसका ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जुलाहा होते हुए भी हमेशा बाबा बनकर ही तो घूमते रहते थे ;

दास कबीर जतन से ओढ़ी

ज्यों की त्यों

धर दीनी रे चदरिया।।

ठंड में हम भी कबीर बन जाते हैं। चादर को ज्यों की त्यों रख देते हैं और रजाई में घुस जाते हैं। ठंड में रजाई का विकल्प सिर्फ कंबल है। पहले खादी भंडार वाले कम्बल आते थे, जो शरीर को चुभते थे। उधर ठंड चुभ रही और इधर ठंड से बचने जाओ तो कम्बल चुभे। साथ में एक चादर भी ओढ़ना ही पड़ती थी।

समय के साथ गुदगुदे इंपोर्टेड कंबल भी आ गए और मोटी मोटी रजाई की जगह जयपुरी रजाई ने ले ली। जब हमारे घरों में पलंग नहीं थे तो हम सभी भाई बहन जमीन पर ही लाइन से सोते थे। जमीन पर गद्दे बिछते थे और चादर, कंबल, रजाई, जो जिसके हाथ आई। अधिक ठंड होने पर कौन किसकी रजाई खींच रहा है, कौन किसके कंबल में घुस रहा है, कुछ पता नहीं चलता था।।

आजकल कौन जमीन पर सोता है। गद्दे भी कैसे कैसे आ गए हैं, kurl on और sleep well. वैसे तो well का अर्थ कुंआ भी होता है, लेकिन कुंए में ठंड में कौन सोता है।

हमारा तो आज भी बीस किलो रूई वाला गद्दा है और भरी पूरी गदराई हुई रजाई। हम ना तो लग्ज़री सोफे के आदी हैं और ना ही स्लीप वैल वाले गद्दों के। जब कभी घर से बाहर, मजबूरी में, होटलों में ठहरते हैं, तो घर के गद्दे रजाई बहुत याद आते हैं। एक वह भी जमाना था, जब बाहर घूमने जाते थे, तो बिस्तरबंद यानी होलडॉल साथ ले जाते थे।

आज तो सुविधा ही सुविधा है।।

पूरी ठंड हमारी रजाई से यारी रहेगी। लेकिन यह हरजाई भी घुसने से पहले बहुत ठंडी रहती है। यकीन मानिए, रजाई को भी गर्म हम ही करते हैं, हमारे बिना कैसी ठिठुरती रहती है।

रजाई में घुसते ही पहले हम उसे गर्म करते हैं, फिर वह हमें रात भर गर्म रखती है। सुबह उसे छोड़ने का मन नहीं करता। लेकिन वह भी जानती है इंसान की फितरत, इधर सर्दी हवा हुई, उधर हमने दल बदला। रजाई को अलविदा कहा और चादर ओढ़कर सो गए। किसी ने कहा भी तो है ;

पल दो पल का साथ हमारा।

पल दो पल के याराने हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 49 – घाट घाट का पानी…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – घाट घाट का पानी।)

☆ लघुकथा # 49 – घाट घाट का पानी श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरे आशा बड़े दिनों बाद कॉलोनी में दिख रही हो, तुम्हारा तो ट्रांसफर हो गया था । क्या फिर से तुम दिल्ली आ गयी?

आखिर हमारे शहर का जादू चली गया तुम्हारा मन नहीं लगा।

अरुण भाभी आपका मन बिना मजाक किए लगता नहीं है और खाना भी हजम नहीं होता। आज भी आप मंदिर इसी तरह जाती हैं, इस बार मुझे क्वार्टर इस सामने वाले घर में मिला है। चलिए ना थोड़ी देर बैठिये।

हां हां आऊंगी अभी तो मुझे मंदिर पूजा करने जाना है, तुम्हें पता है मैं हर सोमवार को मंदिर जाती हूं।

तुम्हारा तो इतनी जगह ट्रांसफर हो चुका है?

क्या करूं भाभी इन 10 सालों में आपका कहीं ट्रांसफर नहीं हुआ।  पर हमें तो तीन जगह देखना पड़ा क्या करूं?

भगवान और किस्मत को जो मंजूर रहता है, वही होता है।

हां हां बातें बनाना तो कोई तुमसे सीखे।  आखिर तुमने घाट-घाट का पानी जो पिया है!

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन

 सोशल मीडिया में कई बार अज्ञात लोगों की अज्ञात लोगों द्वारा ऐसी पोस्ट साझा की जाती है जो सहज ही हमें अतीत की स्मृतियों में खोने के लिए विवश कर देती हैं। और उन्हें सहेजने की इच्छा से हम भी सोशल मीडिया पर ही अपने जाने अनजाने मित्रों से साझा कर लेते हैं। प्रस्तुत है ऐसी ही एक पोस्ट –

हमारी यादें कभी भूल नहीं सकेगी। क्योंकि वो अच्छी ही नहीं थी बहुत अच्छी थी।

पहले भटूरे को फुलाने के लिये

उसमें ENO डालिये

 *

फिर भटूरे से फूले पेट को

पिचकाने के लिये ENO पीजिये

☆ जीवन के कुछ गूढ़ रहस्य – आप कभी नहीं समझ पायेंगे ☆

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को

जीभ से चाटकर कैल्शियम की

कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी

लेकिन

इसमें पापबोध भी था कि कहीं

विद्यामाता नाराज न हो जायें …!!!☺️

पढ़ाई का तनाव हमने

पेन्सिल का पिछला हिस्सा

चबाकर मिटाया था …!!!😀

☆ 

पुस्तक के बीच पौधे की पत्ती

और मोरपंख रखने से हम

होशियार हो जाएंगे …

ऐसा हमारा दृढ विश्वास था. 😀

कपड़े के थैले में किताब-कॉपियां

जमाने का विन्यास हमारा

रचनात्मक कौशल था …!!!☺️🙏🏻

हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते

तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना

अपने जीवन का वार्षिक उत्सव मानते थे …!!!☺️

माता – पिता को हमारी पढ़ाई की

कोई फ़िक्र नहीं थी, न हमारी पढ़ाई

उनकी जेब पर बोझा थी …☺️💕

सालों साल बीत जाते पर माता – पिता के

कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे …!!!😀

एक दोस्त को साईकिल के

बीच वाले डंडे पर और दूसरे को

पीछे कैरियर पर बिठा कर

हमने कितने रास्ते नापें हैं,

यह अब याद नहीं बस कुछ

धुंधली सी स्मृतियां हैं …!!!💕

स्कूल में पिटते हुए और

मुर्गा बनते हमारा ईगो

हमें कभी परेशान नहीं करता था

दरअसल हम जानते ही नहीं थे

कि, ईगो होता क्या है❓️💕

पिटाई हमारे दैनिक जीवन की

सहज सामान्य प्रक्रिया थी😰😀

पीटने वाला और पिटने वाला दोनों खुश थे,

पिटने वाला इसलिए कि हम कम पिटे

पीटने वाला इसलिए खुश होता था

कि हाथ साफ़ हुआ …!!!😀

हम अपने माता – पिता को कभी नहीं बता पाए

कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि

हमें “आई लव यू” कहना आता ही नहीं था …!!!

😰😀💕

आज हम गिरते- सम्भलते, संघर्ष

करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं,

कुछ मंजिल पा गये हैं तो

कुछ न जाने कहां खो गए हैं …!!!😰

हम दुनिया में कहीं भी हों

लेकिन यह सच है,

हमें हकीकतों ने पाला है,

हम सच की दुनियां में थे …!!!

😰

कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना

और रिश्तों को औपचारिकता से

बनाए रखना हमें कभी आया ही नहीं …

इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे …!!!

😰

अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए

हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं,

शायद ख्वाब बुनना ही

हमें जिन्दा रखे है वरना

जो जीवन हम जीकर आये हैं

उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं …!!!

😰

हम अच्छे थे या बुरे थे

पर हम सब साथ थे काश

वो समय फिर लौट आए …!!!

😰😰

“एक बार फिर अपने बचपन के पन्नों

को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”…💕

और अंत में …

 हमारे पिताजी के समय में दादाजी गाते थे …

 मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा💕

 *

हमारे ज़माने में हमने गाया …

 पापा कहते है बड़ा नाम करेगा💕

 *

अब हमारे बच्चे गा रहे हैं …

 बापू सेहत के लिए …

तू तो हानिकारक है। 😰😰

 *

सही में हम

कहाँ से कहाँ आ गए …???😰

 *

एक बार मुड़ कर  देखिये …

और

मुस्करा दीजिए

क्यों कि

 Change Is Part Of Life.

 Accept It Gracefully 💓😌💓

लेखक – सोशल मीडिया से – अज्ञात 

संकलन : सुश्री सुनीला वैशंपायन

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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