रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ न चीनी कम ना नमक ज़्यादा ☆ – श्री अनिमेष श्रीवास्तव

श्री अनिमेष श्रीवास्तव

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर)   

 

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” – श्री अनिमेष श्रीवास्तव ☆

 

* निर्देशकीय *

नियति है.. अकेलापन.. ।

आना भी अकेले और जाना भी…. इससे दूर रहने के लिए इंसान ने ख़ूब उपाय किये । समाज बनाया, रीति-रिवाज बनाये, नियम बनाया, क़ानून बनाये.. कि सभ्य और सुसंस्कृत रूप से जी सके.. मगर फिर भी अकेलेपन से निजात नहीं पा सका.. क्योंकि वह इसकी जड़ में अपने मूल स्वभाव.. अहंकार को कभी समझ ही नहीं पाया ।

अहंकार जिसके ना रहने पर प्रेम होता है, प्रेम क़रीब लाता है । उसके अभाव में लोगों से घिरे रहने के बावजूद भी मनुष्य तनहा है। अनगिनत संबंधों की डोर से जुड़ा होने पर भी जो सिरा उसके पास है वह अकेलेपन का ही है…।

मनोवैज्ञानिक और तथाकथित सामाजिक रूप में संबंधों (दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के संबंध) की महती आवश्यकता हर इंसान की ज़रूरत है। यह रिश्ते मानसिक जीवन के भरण-पोषण के लिए अवश्यम्भावी हैं। दोस्त के रूप में मां-बाप, भाई-बहन या अन्य कोई भी बाहरी, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में किसी भी आदर्श व्यक्ति या अपने ही किसी संबंधी की छवि जो पति-पत्नी के चयन में भी परिलक्षित होती है, के लिए मन खेल खेलता है और अपने मुताबिक ना होने पर खुद को छला महसूस करता है । मन का ये भ्रमण विलास और खोजते रहने की प्रवित्ति ही मानव जीवन का सत्य है ।

दुरूह है यह जानते हुए भी इंसान ने जीवन को स्वाभाविक ढंग से जीना शुरू किया और अपने सबसे बड़े गुण, बुद्धि का इतना विकास किया कि उससे अविष्कृत सुख-सुविधा में दुःख (जो मूल रूप में अकेलापन है, उसे) भूलने का छल भी अपने से किया ।

दिवा-स्वप्नों को जीते हुए इंसान अपने जीने के कारणों को तलाश रहा है और जीता चला जा रहा है।

मनुष्य अकेला है मगर उजागर नहीं है । दर्शन का उपयोग और शास्त्र का प्रयोग उसके अकेलेपन का बचाव है ।

प्रस्तुत नाटक में मानवीय अकेलापन सीधे-सीधे तो परिलक्षित नहीं होता मगर हास्य के क्षणों को, जो नाटक में हैं, हम देखें तो उसका दर्शन अवश्य होता है ।

यह एक मनोवैज्ञानिक नाटक है । एक एकाकी अविवाहित महिला जो जीने के कारणों को स्वप्न-दिवास्वप्न में तलाशती है । उसके यह सपने तो कभी पूरे नहीं होते किन्तु उसकी संपूर्णता की चाह ही उसके जीने का सबब हैं।

शारीरिक ज़रूरत कई समस्याओं की जड़ है लेकिन उसकी पूर्ति किसी समस्या का हल भी नहीं है।

नाटक की मुख्य पात्र मीरा के अकेलेपन का एक कारण लीबीदो है, जो जैविक मनोवैज्ञानिक कारण जैसे व्यक्तित्व और तनाव, और सामाजिक कारक जैसे काम और परिवार से प्रभावित होता है। इसके अलावा चिकित्सीय स्थितियों, जीवन शैली, रिश्ते के मुद्दों और उम्र से भी अपना स्वरूप ग्रहण करता है ।

मनुष्यों में अंतरंग संबंधों के निर्माण और निर्वहन में यौन इच्छाएं अक्सर एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं।

ऐसे ही लीबीदो से वशीभूत होकर मीरा के जीवन में किसी एक दिन तीन लोगों का आगमन होता है । यह लोग उसके मनःस्थिति में बसे संबंधों के आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं । उनमें से एक दोस्त है, एक हीरो रूप (प्रेरणा) और तीसरा प्रेमी । इनसे दो-चार होकर उसे खुशी भी मिलती है और नैराश्य भी। इस खुशी और नैराश्य के पीछे लीबीदो ही है।

क्या खुशी और नैराश्य एक स्वप्न है ? सिर्फ लीबीदो ?

निर्णय आपका है !

 

मंच पर

मीरा – आस्था जोशी

सोनू – सोनू चौहान

अरुण – सतीश मलासिया

हरीशंकर – सौरभ लोधी

मुरली मनोहर – पीयूष पांडा

कुली – आशुतोष मिश्रा

(नाटक “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” के लिए यह पेंटिंग नाटक के सेट डिजाइनर चैतन्य सोनी जी ने बनाया था। चैतन्य ने इस नाटक के लिए ना सिर्फ सेट डिजाइन किया, बल्कि वस्त्र-विन्यास भी उन्ही का था, जिसके लिए उन्होंने एक पूरी शर्ट भी पेंट किया। इसके अलावा नाटक में मेकअप भी उन्ही का था।)

मंच परे

मंच व्यवस्थापक – आशुतोष मिश्रा

मंच परिकल्पना एवं निर्माण – चैतन्य सोनी / अक्षिका यादव

मंच सामाग्री – सोनू चौहान

वस्त्र विन्यास – चैतन्य सोनी

रूप सज्जा – चैतन्य सोनी

प्रचार प्रसार – भगवती चरण

विडियो फोटो – कृष्णा गर्ग

प्रकाश परिकल्पना – मुकेश जिज्ञासी

मूल लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय

हिन्दी अनुवाद – समर सेनगुप्ता

संगीत संकलन – अंकित शिरबावीकर

संगीत संचालन – अभिषेक सिंह राजपूत

सहयोगी कलाकार – चन्द्र कुमार फाये, पीयूष तिवारी, अक्षिका यादव

परिकल्पना एवं निर्देशन – अनिमेष श्रीवास्तव

 

मार्गदर्शक  – मुकेश शर्मा

* निर्देशकीय संस्मरणात्मक अभिव्यक्ति *

समान्तर नाट्य संस्था, भोपाल के कलाकारों के साथ पिछले एक महीने से रंगमंचीय कार्यशाला करने का अनुभव ले रहा हूँ… सिखाया क्या हूँ कुछ नहीं, बल्कि खुद जाने कितनी चीज़े सीख गया हूँ। नए और जवान प्रशिक्षु लबरेज़ होते हैं अनगढ़ खूबसूरती से जिसे आकार देने की ज़िम्मेदारी किसी पुराने को दी जाती है। मैं पुराना नहीं हूँ बल्कि मुझ से नया और कोई नहीं, मगर फिर भी एक दिन श्री मुकेश शर्मा सर ने कहा कि आइए और हमारे कलाकारों के साथ कुछ काम कीजिये। मैं गया साहब। कलाकारों से मिला। बातें-वातें की । कुछ खेल खेले। कभी नाचे तो कभी रेंके । कभी पढ़ने लगे तो कभी एक्सरसाइज़ की। अपने तथाकथित सीखे को उनके तथाकथित नौसिखियेपन से जोड़ा, हिलाया, मिलाया, और जब सबने मिलकर खूब पसीना बहाया तब जाके रिजल्ट में निकला यह प्रहसन। जिसे मोहित चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने बांग्ला में  ‘गनधोराजेर हाथताली’ नाम से रचा था मगर हिंदी में हमारे लिए जिसका अनुवाद वरिष्ठ रंगकर्मी श्री समर सेनगुप्ता जी ने किया । जबलपुर में रहने वाले समर दा अभिनय और निर्देशन के अलावा लेखन में भी दखल रखते हैं और उनका यह अनुवाद अच्छा बन पड़ा है ।

इधर मुकेश सर की बेशकीमती सलाहियत से नाटक के कई कमज़ोर पक्षों को मजबूती मिली तो कहानी और साफ हुई।

मूल बांग्ला से अनुदित इस नाटक की हिंदी में संभवतः यह पहली प्रस्तुति है ।

यह कक्षा अभ्यास प्रस्तुति महज परिदृश्य है उसका जिसे इन कलाकारों ने कार्यशाला के दौरान समझा है और जाना है। कितना जाना है इसे तो आपका अवलोकन ही बेहतर बयान कर सकेगा।

 

प्रस्तुति : श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल   

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆ बेबस ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “बेबस ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #15 ☆

 

☆ बेबस ☆

 

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहू हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है .

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहू ले गया. अब ५ बोरी गेहू बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहू भरा . ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करू ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ?” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ 

 

 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय☆

 

धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं। यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें, पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है, तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं, यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हमें इस पर गर्व है। इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं, कुल, जाति, उपजाति,गोत्र, संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है। समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं, आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है। वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं। जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ। इन जातियों, कुल, गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन, अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी, जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया। चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये, कहीं ये हौसले दबा दिये गये, तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई। जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली, और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर, तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी। जो भी हो, इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है। धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह, रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये। पर दिल तो दिल है, गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े, प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं। प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं। इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है।

यह सदी नवाचार की है। नई पीढ़ी नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है। आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से, डाक्टर की डाक्टर से, साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से, जज की जज से, मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं। ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं। ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं। माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं। बच्चों से संबंध रखना है तो, उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता। मतलब शिक्षा, व्यवसाय, कंपनी, ने कुल, गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है। इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं। रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं। ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है। सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली, बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है। कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है। ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं। कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं। लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है। लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है, इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है। हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है, पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है, क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है।

यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, अफेयर, ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है, पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई, पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है, उसकी जगह शादी डाट काम, जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है। युवा पीढ़ी एस एम एस, चैटिग, मीटिग, डेटिंग, आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है। सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं, हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री, ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं। नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन। सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं। मैं इस परिवर्तन को व्यंजना, लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 15 – सहवास……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस हृदयस्पर्शी रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है।  श्री सुजित जी द्वारा डेढ़ दिन के गणपति जी  में स्वर्गीय पिता की डेढ़ दिन तक छवि देखना और उनके साथ रहने की कल्पना ही अद्भुत है. ऐसा सामंजस्य कोई श्री सुजित जी जैसा संवेदनशील कवि ही कर सकता है. प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “सहवास …! ”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #15☆ 

 

☆ सहवास…! ☆ 

 

दर वर्षी मी घरी आणणा-या गणपतीच्या

मुर्तीत मला माझा बाप दिसतो

कारण…!

मी लहान असताना माझा बाप जेव्हा

गणपतीची मुर्ती घेऊन घरी यायचा

तेव्हा त्या दिवशी

गणपती सारखाच तो ही अगदी….

आनंदान भारावलेला असायचा

आणि त्या नंतरचा

दिड दिवस माझा बाप जणू काही

गणपती सोबतच बोलत बसायचा…

माझ्या बापानं केलेल्या कष्टाची आरती

आजही…

माझ्या कानातल्या पडद्यावर

रोज वाजत असते

आणि कापरा सारखी त्याची

आठवण मला आतून आतून जाळत असते

आज माझा बाप जरी माझ्या बरोबर नसला

तरी..,त्याच्या नंतर ही गणपतीची मुर्ती

मी दरवर्षी घरी आणतो

कारण.. तेवढाच काय तो

बापाचा..!

आणि

बाप्पाचा..!

दिड दिवसाचा सहवास मिळतो..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ ☆ मानाचा मुजरा ! – मातोश्री बहिणाबाई चौधरी यांची १३९वी जयंती ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है.  आज उनकी प्रस्तुति है आदरणीया बहिणाबाई  के १३९वें जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति.)

श्रीमती उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  के ही शब्दों में – 

-बहिणाबाई. या निरक्षर-अशिक्षित माऊलीने दारी आलेल्या ज्योतिषाला सुमारे १०० वर्षांपूर्वी हे खणखणीत सत्य सोप्या पण परखड भाषेत सुनावलं.

डोके(बुध्दी नाही म्हणत)गहाण ठेवून भविष्यादि अंधश्रध्दांपुढे सपशेल शरणागती पत्करणारी आजची तथाकथित थोर  उच्चविद्याविभूषित मनुक्षे बघतांना या माऊलीची थोरवी लख्ख होऊन समोर येते.

ह्या माउलीने शंभर वर्षांपूर्वी व्यक्त केलेली खंत आजही कायम आहे.

दंडवत माय !

स्मृतींना विनम्र अभिवादन ! !

 – श्रीमती उर्मिला उद्धवराव इंगळे

☆ मानाचा मुजरा !☆

(खानदेशकन्या मातोश्री बहिणाबाई चौधरी यांची आज १३९ वी जयंती.)

नको नको रे ज्योतिषा

माह्या दारी नको येऊ,

माह्य दैव मले कळे

माह्या हात नको पाहू.

 

धनरेषांच्या च-यांनी

तळहात रे फाटला,

देवा तुह्याबी घरचा

झरा धनाचा

आटला.

 

नशिबाचे नऊ ग्रह

तळहाताच्या रेघोट्या,

बापा नको मारू थापा

अशा उगा ख-या खोट्या.

-बहिणाबाई

 

प्रस्तुति – 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (2)प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )

 

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ।।2।।

 

कहलाता सन्यास जो योग उसे ही मान

नहि संकल्प से त्याग बिन योगी की पहचान।।2।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।2।।

 

Do thou, O Arjuna, know Yoga to be that which they call renunciation; no one verily becomes a Yogi who has not renounced thoughts! ।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान – कविवर गुरु सक्सेना जी के जन्मदिवस पर शब्दार्चन ☆ – पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय  सुविख्यात साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  का  छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान कविवर गुरु सक्सेना जी के जन्म दिन 7 सितंबर पर यह विशेष आलेख.  ई-अभिव्यक्ति की ओर से कविवर गुरु सक्सेना जी  जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए  हार्दिक शुभकामनाएं. )

 

☆ छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान  –कविवर गुरु सक्सेना जी के जन्म दिन 7 सितंबर पर शब्दार्चन  

 

धर्म, अध्यात्म, कवित्त, छंद के प्रकार और लेखन में इतना सहज प्रयोग कि पाठक से श्रोता तक एक ही बार मे पहुंच जाए कविता की बारीकियां, कविता का प्रवाह,  कविता का उद्देश्य जिनकी लेखनी में सहज समाहित है ऐसे गुरुवर गुरु सक्सेना जी का आज 7 सितंबर को जन्मदिन है। मुझ जैसे अनेक कवियों के मार्गदर्शक साहित्यिक छंद शास्त्र के शास्त्रोक्त विद्वान का सानिध्य जिनको मिला उनका  जीवन धन्य है। मेरा सौभाग्य कि गुरु जी की सहज कृपा मुझ पर है। मेरे लेखन पर सदैव उनकी बारीक दृष्टि रहती है कभी कभी तो ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिसका उत्तर भी उन्हीं के पास होता है अनेकों बार तो सिर्फ फेसबुक पर मेरी पोस्ट पढ़कर फोन आ जाता है कि यह तुमने किस उद्देश्य से लिखा इसका हेतु समझाओ फिर सविस्तार चर्चा में समय का पता नहीं चलता और अंततः मुझमें गर्वोक्ति का संचार होता है कि मुझे कितने सहज सरल साहित्यिक गुरु जी मिले।

हिंदी कवि सम्मेलन के देश के लगभग सभी कवि सम्मेलन में गुरु जी बहुत प्रभावी भागीदारी हुई उन्होंने काव्यपाठ की मौलिक कहन को विकसित किया आरोह अवरोह उतार चढ़ाव की शैली के वे अनूठे जादूगर है वे वाचिक परम्परा के बेमिसाल कवि हैं। शब्दों से खेलने में उन्हें महारत हासिल है। उनके प्रस्तुतिकरण की अनुगूंज झंकृत करती है तात्कालिक विषय पर लेखन उन्हें सुख देता है अनेक बार वे सटीक समाधान की ओर ध्यानाकर्षित करते हैं। उनकी कृति आदर्श की फ़ज़ीहत, सूर्पनखा, सीता वनवास, पाकिस्तान को गुरु सक्सेना की चुनौती काव्य फलक पर साहित्यिक ऊष्मा बिखेर रही हैं।

हास्य व्यंग्य का प्रतिष्ठित काका हाथरसी पुरस्कार, व्यंग्य शिल्पी श्री श्रीबाल पांडेय सम्मान एवम बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा 50000/- रुपये का  विशिष्ट सम्मान प्रदान किया जा चुका है। इसी के साथ नित्य कवि सम्मेलनों के सम्मान की बहुत लंबी फेहरिस्त है जो गुरु जी की काव्य साधना का सच्चा सम्मान है। देश के लगभग सभी प्रान्तों में हिंदी की सच्ची सेवा का शुभ संकल्प आज भी उनमें ऊर्जा का संचार करता है। विषम परिस्थितियों में कवि सम्मेलन को पटरी पर लाकर श्रोताओं तक शुध्द शास्त्रोक्त छंद पहुंचाने में उनका कोई सानी नहीं है।

गुरु जी ने वह दौर देखा जब मंच पर सिर्फ कविता की ही पूजा होती थी आजकल के मंचों की मिलावट से वे दुखी है शुद्ध कविता से स्टैंड अप कॉमेडी तक पहुंचे मंचों का कैसा इतिहास लिखा जाएगा इसे लेकर वे सदैव चिंतित रहे और हैं उनके मन में मंचों के अवमूल्यन की पीड़ा है वे मुझसे और सुरेंद्र यादवेंद्र जी से हमेशा कहते हैं कि 21 सदी के दो दशकों ने पचास प्रतिशत कवि सम्मेलनों को नचैया गवैया और जोकरों के हवाले कर दिया है। कविता के भाव विभाव उद्दीपन आलम्बन से नए कवि कोसों दूर हैं ग्लैमर की चकाचौंध में कविता विलुप्त हो रही है।

आज हम सब बेहद प्रसन्न हैं मंच पर कविता के संस्कार को जीने वाले सच्चे रचनाकारों की गुरु कृपा से वृद्धि हो रही है। एक दिन यह कुंहासा छटेगा और कविता कीर्ति के कलश गढ़ते हुए मंच पर प्रतिष्ठित होगी गुरु सक्सेना काव्य गौरव सम्मान की स्थापना का उद्देश्य भी यही की सच्चे मौलिक रचनाकारों को गुरु जी का आशीष मिले वर्ष 2017 से यह सिलसिला आगे बढा प्रथम सम्मान देश के यशस्वी कवि भाई सुरेंद्र यादवेंद्र जी कोटा राजस्थान को प्रदान किया गया वर्ष 2018 का सम्मान संस्कारधानी के हिस्से में आया और इस सम्मान से मुझे मनीष तिवारी को सम्मानित किया गया। वर्ष 2019 के गुरु सक्सेना काव्य गौरव सम्मान से वीर रस के सिद्ध कवि श्रेष्ठ मंच संचालक शशिकान्त यादव देवास को 9 सितंबर को नरसिंहपुर के काव्य प्रेमियों की उपस्थिति में प्रदान किया गया।

मेरा मानना है कि यह भी वागेश्वरी की ही कृपा है जिनने मुझे उन तक पहुंचाया गुरु जी आप शतायु हों आपका सानिध्य वर्षो बरस मिलता रहा आप हमें कसते रहें और हम आपके समीप बैठकर लिखते रहें, पढ़ते रहें, बढ़ते रहें, अट्टहास कर हँसते रहें, प्रगति की सीढ़ियां चढ़ते रहें और इस जीवन को सार्थक करते रहें जन्मदिवस पर अनन्त मंगल कामनाएं। बारम्बार नमन।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न ९४२४६०८०४० / 9826188236

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 15 – माझ्यानंतर ……. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी ह्रदय स्पर्शी कविता माझ्यानंतर …….अर्थात मेरे बाद…. .  

मैंने सुश्री प्रभा जी की  पिछली कविता के सन्दर्भ में लिखा था कि वे जानती हैं  – समय गहरे  से गहरे घाव भी भर देता है. हम कल रहें या न रहें यह दुनिया वैसे ही चलती रहेगी और चलती रहती है.   इस कविता में उन्होंने अपने भविष्य की परिकल्पना की है.  उस परिकल्पना को न तो मैं नकारात्मक सोच में परिभाषित कर पा रहा हूँ और न  ही सकारात्मक.   क्योंकि, कल हमारा न होना तो शाश्वत सत्य है.  शायद, सुश्री प्रभा जी नहीं जानती कि उनके प्रकाशक और पाठक उनकी रचनाएँ  उनके मोबाईल / डायरी और जहाँ कही भी रखी हों , उन्हें जरूर ढूंढ लेंगे . आपकी ग़ज़लों को गायिका  आपकी गजलों को स्वर देकर अमर कर देंगी. आपके  परिवार की वो महत्वपूर्ण तथाकथित सदस्या “घुंघराले बालों वाली पोती/नातिन” उन्हें पुनः नवजीवन देने का सामर्थ्य रखेंगी. 

आपका एक एक पल अमूल्य है . आप नहीं जानती जो रचना संसार  रच रही हैं , वह साहित्य नहीं  इतिहास रचा जा रहा  है.  २०१७ की कविता अपने आप में इतिहास है. यात्रा जारी रहनी चाहिए….. . आपकी संवेदनशील कवितायें पाठकों में संवेदनाएं जीवित रखती हैं. 

सुश्री प्रभा जी का साहित्य जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह  गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 15 ☆

 

☆ माझ्यानंतर ……☆

 

कोणीच वाचणार नाहीत माझी कवितेची पुस्तके ……

डायरीतली कविता राहील पडून….

एमिली डिकिन्सन च्या

कवितांसारखी कुणी आणणार नाही प्रकाशात !

 

मोबाईल मधेही असतीलच काही कविता  …..

त्यांचा कोणी शोध घेणार नाही ….

 

गायकाने दर्दभ-या

आवाजात गायलेली

माझी गजल ऐकणारही

नाही कोणी …..

 

जिवंतपणी मला नाकारणारे ,

का कवटाळतील मला

मृत्यूनंतर ????

 

कुणी घालू नये हार

माझ्या फोटोला ,

पिंडाला कावळा

शिवतो की नाही

हे ही पाहू नये,

याची तजवीज मी आधीच करून ठेवलेली असेल—

देहदानाने !

 

माझी स्मृतिचिन्हे फोटोंचे अल्बम

धूळ खात पडून राहतील काही दिवस

नंतर नामशेष होतील !

 

संपून जाईल माझे

खसखशी एवढे अस्तित्व  —

 

पण माझ्या नातवाला

होईल कदाचित

एक कुरळ्या केसाची मुलगी —-

 

आणि ती मी च असेन !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆

(माँ शारदा की अनुकम्पा से जन्मी एक लघुकथा)

जल शांत था। उसके बहाव में आनंदित ठहराव था। स्वच्छ, निरभ्र जल और दृश्यमान तल। यह निरभ्रता उसकी पूँजी थी, यह पारदर्शिता उसकी उपलब्धि थी।

एकाएक कुछ कंकड़ पानी में आ गिरे। अपेक्षाकृत बड़े आकार के कुछ पत्थरों ने भी उनका साथ दिया। हलचल मची। असीम पीड़ा हुई। लहरें उठीं। लहरों से मंथन हुआ। मंथन से सृजन हुआ।

कहते हैं, उसकी रचनाओं में लहरों पर खेलता प्रवाह है। पाठक उसकी रचनाओं के प्रशंसक हैं और वह कंकड़-पत्थर फेंकनेवाले हाथों के प्रति नतमस्तक है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 13 – बाल कविता-वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बाल कविता  “वरदायी चक्की और मेरी चाह।  आदरणीय डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय ‘ जी ने बड़ी ही सादगी से बाल अभिलाषा को वरदायी चक्की के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है । )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 13 ☆

 

☆ बाल कविता – वरदायी चक्की और मेरी चाह ☆  

 

सोच रहा हूं अगर मुझे

मनचाही चीजे देने वाली

वह चक्की मिल जाती

तो जीवन में मेरे भी

ढेरों खुशियां आ जाती.

 

सबसे पहली मांग

मेरी होती कि

वह मम्मी के सारे काम करे

और हमारी मम्मी जी

पूरे दिनभर आराम करे…

 

मांग दूसरी

पापा जी की सारी

चिंताओं को पल में दूर करे

और हमारे मां-पापाजी

प्यार हमें भरपूर करे…

 

मांग तीसरी

भारी भरकम बस्ता

स्कूल का ये हल्का हो जाए

जो भी पढ़ें, याद हो जाए

और प्रथम श्रेणी पाएं…

 

चारों ओर रहे हरियाली

फल फूलों से लदे पेड़

फसलें लहराए

चौथी मांग

सभी मिल पर्यावरण बचाएं…

 

मांग पांचवी

देश से भ्रष्टाचार

और आतंकवाद का नाश हो

आगे बढ़ें निडरता से

सबके मन में उल्लास हो…

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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