Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 31 – Helplessness ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem Helplessness.  This poem  is from her book “The Frozen Evenings”.)

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 31

☆ Helplessness ☆

There are those edgy instants

When you become a heated oven

And tiny grains of excruciating anger puff up,

They hit the grey steel walls

Of the ventricles of your heart

With high velocity,

Making you lose your steadiness.

 

Before those tender grains

Flare up like pale yellow popcorns,

It’s better to freeze them

In the refrigerator of time.

 

After some point,

When you take out those icy grains,

You expect them to cool your being…

 

Unfortunately,

They blue-pencil the white ribs

Surrounding the heart

With a razor like sharpness!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मानसपटल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मानसपटल   ☆

पहले आती थीं चिड़ियाँ,

फिर कबूतरों ने डेरा जमाया,

अब कौवों का जमावड़ा है..,

बदलते दृश्यों को मन के

पटल पर उतार रहा हूँ मैं

अपनी बालकनी में खड़ा

जीवन निहार रहा हूँ मैं..!

 

घर पर रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8:37 बजे,  1अप्रैल 2020

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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सूचनाएँ/ Information ☆ आपकी अब तक की रिश्तों / संबंधों पर आधारित सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ आमंत्रित ☆

सूचनाएँ/ Information

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

आपकी अब तक की  रिश्तों / संबंधों पर आधारित सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ आमंत्रित

 

 यह कोई प्रतियोगिता नहीं है। हम आपकी  मनोभावनाओं को  प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने के  लिए एक एक मंच प्रदान कर रहे हैं।

 सम्माननीय लेखक गण / प्रबुद्ध पाठक गण,

ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं, जो हमें पृथ्वी के किसी भी कोने में बसे जाने अनजाने लोगों से आपस में अदृश्य सूत्रों से जोड़ देते हैं। अब मेरा और आपका ही रिश्ता ले लीजिये। आप में से कई लोगों से न तो मैं व्यक्तिगत रूप से मिला हूँ और न ही आप मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिले हैं किन्तु, स्नेह का एक बंधन है जो हमें बांधे रखता है। आप में से कई मेरे अनुज/अनुजा, अग्रज/अग्रजा, मित्र, परम आदरणीय /आदरणीया, गुरुवर और मातृ पितृ  सदृश्य तक बन गए हैं। ये अदृश्य सम्बन्ध मुझमें ऊर्जा का संचार करते हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है और ईश्वर से कामना करता हूँ  कि मैं अपने इन सम्बन्धों को आजीवन निभाऊं। और आपसे भी अपेक्षा रखता हूँ कि मेरे प्रति यह स्नेह ऐसा ही बना रहेगा।

मेरा और आपका सम्बन्ध मात्र रचनाओं के आदान प्रदान तक ही सीमित नहीं है, इस सम्बन्ध में हमारी संवेदनाएं भी जुडी हुई हैं। संभवतः संवेदनहीन सम्बन्ध कभी सार्थक नहीं होते।

मैंने ऊपर जिन संबंधों की चर्चा की है उनमें रक्त संबंधों के अतिरिक्त भी ऐसे कई सम्बन्ध हैं जिन पर अति सुन्दर साहित्य रचा गया है। मेरा मानना है कि कोई भी साहित्य जो आज तक रचा गया है उसका आधार कोई सम्बन्ध या रिश्ता न हो ऐसा शायद ही संभव हो । कई सम्बन्ध ऐसे होते हैं जिनके बारे में हम भावनात्मक रूप से लिख देते हैं किन्तु, वे सम्बन्ध परिपेक्ष्य में रहते हैं ।

ई-अभिव्यक्ति साहित्य में सकारात्मक नए प्रयोग करने के लिए कटिबद्ध है। मेरे उपरोक्त विचारों से आप निश्चित रूप से सहमत होंगे। इस पूरी प्रक्रिया में मन में एक विचार आया कि क्यों न आपसे रिश्तों या संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित की जाएँ और अपने प्रबुद्ध पाठकों से एक नवीन रूप से साझा की जाएँ।

वैसे तो पारिवारिक रिश्तों की एक लम्बी फेहरिश्त है जिनमें प्रपौत्र-प्रपौत्री से लेकर परनाना-परनानी, परदादा-परदादी तक जिनसे हम प्रतिदिन रूबरू होते रहते हैं । वैसे ही सामाजिक संबंधों की भी असीमित लम्बी फेहरिश्त है।  कुछ सम्बन्ध और रिश्ते जो इस समय मेरे मस्तिष्क में आ रहे हैं आपसे उदाहरणार्थ साझा करने का प्रयास करता हूँ। इससे परे भी आपके मस्तिष्क में कई सम्बन्धो होंगे जो हम साझा करना चाहेंगे ।

पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, मित्र, पड़ौसी तो सामान्य हैं ही। आज जब इंसानियत तार तार हो रही है ऐसे में मानवीय सम्बन्ध, हमारा राष्ट्र से सम्बन्ध, प्रकृति एवं पर्यावरण से सम्बन्ध, पालतू एवं अन्य जानवरों से सम्बन्ध,  थर्ड जेंडर जो कभी कभार हमसे रूबरू होते हैं उनसे सम्बन्ध,  समाज में बमुश्किल स्वीकार्य रिश्ते (लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक) और ऐसे बहुत सारे सम्बन्ध और रिश्ते जो आपके विचारों में आ रहे हैं और मेरे विचारों में नहीं आ पा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी और कैसा भी सम्बन्ध या रिश्ता न छूटने पाये।

तो फिर देर किस बात की कलम / कम्प्यूटर कीबोर्ड पर शुरू हो जाइये और भेज दीजिये किसी भी संबंध / रिश्ते पर आधारित अपनी अब तक की सर्वोत्कृष्ट हिंदी/मराठी /अंग्रेजी  भाषा में अधिकतम दो रचनाएँ  (कविता /लघुकथा /आलेख / संस्मरण  / लघुनाटिका / कलात्मक चित्र / आपके द्वारा खिंचा गया फोटोग्राफ ) अधिकतम 750-1000 शब्दों में निम्न ईमेल आई डी पर

[email protected]

समय सीमा – जितनी जल्दी हम आपके कार्य को सर्वोत्कृष्ट आकार दे सकें।

आयु सीमा –  मनोभावनाओं की कोई आयु सीमा नहीं होती। 

 आपकी अनुमति / रचनाओं की मौलिकता – ई-अभिव्यक्ति को किसी भी रूप में प्रकाशित करने की स्वतंत्रता की आपकी अनुमति के साथ रचना पर कॉपीराइट आपका। रचनाएँ / कलाकृतियां  मौलिक एवं आपकी स्वरचित /स्वयं की होनी चाहिए।

हाँ रचना प्रेषित करते समय ई-अभिव्यक्ति के मूलमंत्र जो डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  के आशीर्वचन में व्याप्त है का अवश्य ध्यान रखें।

 

सन्दर्भ : अभिव्यक्ति

 

संकेतों के सेतु पर, साधे काम तुरन्त ।

दीर्घवायी हो जयी हो, कर्मठ प्रिय हेमन्त ।।

 

काम तुम्हारा कठिन है, बहुत कठिन अभिव्यक्ति।

बंद तिजोरी सा यहाँ,  दिखता है हर व्यक्ति ।।

 

मनोवृत्ति हो निर्मला, प्रकट निर्मल भाव।

यदि शब्दों का असंयम, हो विपरीत प्रभाव।।

 

सजग नागरिक की तरह, जाहिर  हो अभिव्यक्ति।

सर्वोपरि है देशहित, बड़ा न कोई व्यक्ति ।।

 

–  डॉ राजकुमार “सुमित्र”

 

हमारे आमंत्रण पर रिश्तों से सम्बंधित अतिसुन्दर संवेदनशील रचनाएँ हमारे पास आई हैं  और सतत आ रही हैं, जिनका संकलन का कार्य भी चल रहा है।  उन रचनाओं को अतिसुन्दर स्वरुप में प्रस्तुत करने का प्रयास जारी  है।

हाँ, अपने मित्र लेखकों / प्रबुद्ध पाठकों से इस जानकारी को अवश्य साझा कर इस अनुष्ठान में सहयोग करें।

आपकी अब तक की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं की प्रतीक्षा में।

 

हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆

☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र

 

अजी  दो -चार लाइनें क्या लिख लीं खुद को अखिल भारतीय साहित्यकार ही घोषित कर दिया । देश तो क्या विदेशों में भी आपके चर्चे हो रहे हैं अब तो मिलना ही पड़ेगा भाई साहब से ।

जय श्री कृष्णा भाई साहब ।

एक बात पूछनी थी, आपको  शहर में तो देखा ही नहीं कविता करते हुए आप कब  महान कवि घोषित हो गए, आज दूरदर्शन पर आपका काव्यपाठ देखा , क्या  गज़ब की शैली है कौन सी विधा में आपने पढ़ा ये तो संचालक भी  नहीं समझ पाए और तो और ऑडियंस भी आपके हाव- भाव को देखकर मौन हो गयी फिर कुछ देर बाद ऐसी ताली बजी कि कैमरामैन का कैमरा भी गिर  गया ।

हाँ भाई साहब एक बात तो और पूछनी है कि आपको जल्द ही लाल किले  में भी बुलाया जायेगा  ऐसा मैंने पढ़ा है, आपका नामांकन भी  राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए  हुआ है ।

कुछ हमें भी गुरु मंत्र दें आजकल काम धंधा मन्दा चल रहा है सोचता हूँ मैं भी कुछ लिखने लगूँ वैसे मेरे पड़ोसी और दोस्त दोनों को मेरी शायरी बहुत पसंद आतीं हैं ।

बहुत देर से  तुम्हारी बड़बड़ सुन रहा हूँ वो तो मेरी घरवाली के गाँव के हो तो इतना  बर्दाश्त कर लिया वरना …..

आप चाहें तो  मेरा बेड़ा पार हो सकता  है आज से आप मेरे गुरुदेव हैं कृपा कीजिए ।

अरे नादान बालक  इतना तो समझों  कि ये मौके व पुरस्कार सब सेटिंग का कमाल है लक्ष्मी  एक हाथ  से दो दूजे हाथ से पुरस्कार लो,  दो चार अच्छी- अच्छी कविताएँ  और ग़ज़ल पढ़ो  फिर बिना  दिमाग  लगाए पंक्तियों को जोड़-तोड़ दो ।

कुछ नया तैयार हो जायेगा  जिसको कॉपीराइट © करवा लो ।

समझ गया गुरुदेव ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका”।  श्री विवेक जी ने वर्तिका के सन्दर्भ में साहित्यिक विकास में संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला है। अग्रज साहित्यकार स्व साज जबलपुरी जी से मेरे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं और उनके साथ जबलपुर की संस्था साहित्य परिषद् में कार्य करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।  स्व साज भाई द्वारा रोपित वर्तिका आज वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगी इसकी उन्हें भी कल्पना नहीं होगी।  इसका सम्पूर्ण योगदान समर्पित कार्यकर्ता सदस्यों को जाता है। श्री विवेक रंजन जी  का यह प्रेरकआलेख निश्चित ही वर्तिका के सदस्यों के  हृदय में  उत्साह का संचार करेगा ऐसी भावना  है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ 

☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆

  वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं.  एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.

जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट  दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के  फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे ? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो  कवि मित्रो  की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.

सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल,  साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में  बैंक में जमा रखी जाती है.

कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब  तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी  निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही  विनम्रता  और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.

एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 42 – बुनियादी हक़ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी हक़। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 42☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी हक़ ☆

 

“अरे सावित्री ! क्यों मार रही है रोहन को. मोबाइल ही तो फेका है. सुधरवा लेना.”

“मांजी , मारू नहीं तो क्या करूँ. आजकल बहुत शैतानी करने लगा है,” कहते हुए सावित्री ने दूसरा चांटा रखना चाहा.

“रुक ! मेरे दोहते को मारना चाहती है, “ कहते हुए नानी ने हाथ पकड़ लिया.

“गोद लिए रोहन को मारते शर्म नहीं आती. पहले बच्चे पैदा करना, फिर मारना,” नानी यह कह पाती उस पहले ही रोहन की माँ देवकी बोल उठी , “माँ ! यह मेरी जेठानी-सावित्री का बेटा है. वह अपने बेटे को मारे या कुछ कहे , आप कौन होती है बीच में बोलने वाली. चलो यहाँ से.”

सुनते ही नानी और सावित्री अवाक् रह गई और देवकी मुंह में पल्लू दबा कर उलटे पैर भाग गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 21 ☆ कविता – प्यार होना चाहिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक अतिसुन्दर भावपावन रचना  “प्यार होना चाहिए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 21 ☆

☆ प्यार होना चाहिए ☆

आदमी को उम्रभर गमख़्वार होना चाहिए।

और दिल में सिर्फ ,उसके प्यार होना चाहिए।

 

जिसकी मिट्टी में फले-फूले सदा खाया रिजक।

नाज उस पर हर किसी को यार होना चाहिए।।

 

मजहबों और जातियों के भेदभावों से अलग।

भाईचारे का नया संसार होना चाहिए।।

 

सुख में तो साथी बहुत मिलते ही रहते हैं मगर।

मुश्किलों की हर घड़ी में यार होना चाहिए।।

 

हर कोई मशगूल है, अपनी भलाई में मगर।

वास्ते औरों के भी उपकार होना चाहिए।।

 

बात जो परदे में हो,अच्छी वो परदे ही में हो।

राज को यों राज ही दरकार होना चाहिए।।

 

चक्र की आवाज पहुँची आप सबके बीच में।

प्यार की वर्षा से यारो प्यार होना चाहिए।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 40 – पत्रलेखन – आये, काळजीत नगं काळजात रहा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनके द्वारा शहर में आये एक युवक द्वारा अपनी माँ को  लिखा गया अत्यंत भावुक एवं मार्मिक पत्र  “आये, काळजीत नगं काळजात रहा”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #40 ☆ 

☆ पत्रलेखन – ‘आये, काळजीत नगं काळजात रहा.’ ☆ 

(कोरोनाच्या संकटामुळे भयभीत झालेल्या  गावाकडील आईस ,  शहरात कामधंद्यासाठी आलेल्या  एका तरूणाने पत्रलेखनातून दिलेला हा बोलका दिलासा जरूर वाचा.)

पत्रलेखन

‘आये, काळजीत नगं काळजात रहा.’

आये. . पत्र लिवतोय तुला. . .  जरा  निवांत बसून वाच. शेरात कामधंद्यासाठी आल्या पासून  आज येळ मिळाला बघ तुला पत्र लिवायला. आधी डोळं पूस. मलाबी हिकडं रडायला येतया.

आये . . तू काळजी.करू नकोस मी बरा आहे सध्या शहरात सगळं काही बंद आहे. त्या कोरोना इषाणू मुळं.आये तुझी माया मला कळतीया.परं गावाकडं प्रवास करून येताना ह्या कोरोनाचा धोका जास्त हाये बघ. ह्यो साथीचा रोग आहे. ‘माणसान माणसाला टाळल तर ह्याची लागण हुणार नाय आसं जाणकार सांगत्यात.’

आये, आमच्या कामगारांची मालकानं हॉटेल मध्येच रहायची सोय केली हाय बघ. जेवना ची काय बी आबाळ होत नाय तवा काळजी करू नगस. माझा इचार करू नगंस. पगार पाणी माझं चालू रहाणार हाय . हिथं शेरात एका हॉटेलात आमी चार पाच जणं राह्यतोया. आक्षी चारा छावणीत राह्यलाय वानी वाटतयं बघ. चहा, नाश्ता, जेवण सारं बैजवार अन येळच्या येळी  मिळतया. आये तू माझी काळजी करू नगंस.

आये तू बी थोडं दिस घरीच थांब. शेताकडं जाताना तोंडाला एखाद फडकं बांधून जात जा. बा ला  बी सांग. जनावरांना चारापानी दिल्यावर,  घरात येताना हात साबनान चांगलं धू.. .तोंडावर रूमाल बांधून राह्य.  हळद घालून दूध दे समद्यास्नी. सकाळी फक्कड  आल  आन गवती चहा घालून चाय दे समद्यास्नी. हसू येतय नवं?  अशीच हसत राह्य. आये ही येळ काळजी करण्याची नाय तर सोताची काळजी घेण्याची हाय. म्या हिथं माझी काळजी घेतोया.तकडं तुमीबी जीवाला जपा. खोकला, सर्दी जास्त दिस अंगावर काढू नगं.

आये.. मी गाव सोडून

शहरात येताना

तूझ्या डोळ्यात

पाणी का दाटून आलं होत

ते आज कळतंय…

आज खरंच गावाकडची खूप आठवण येतेय

पोटाच्या भुकेच्या प्रश्नाचं

उत्तर शोधत

मी ह्या शहरातल्या

उंच इमारतीच्या गर्दीत

कधी हरवून गेलो कळलंच नाही

पण आता परिस्थिती समोर

नक्की कुठे जावं कळत नही…

माझी अवस्था तुह्या  किसना सारखी झालीया

त्याला  जन्म देणारी देवकी पण हवीय

आणि संभाळणारी यशोदा सुध्दा.

आये, हिथं तुझ्या वानी राधा मावशी हाय आमच्या जेवणाची काळजी घ्यायला. मलाबी सध्या निस्तं बसून रहावं लागतया. मनात नगं नगं त्ये इचार येत्यात.वाटत आत्ता  उठावं. . .   आनं मिळेल त्या वाहनानं  गाव गाठावं आनं तुला येऊन भेटावं. परं आये तुच म्हनती नव्हं ? “हातचं सोडून पळत्या पाठी धावायचं नाय” आये, आक्षी खरं हाय तुझं. त्यो  कोराना (त्ये महामारी सावट) जसं आलं तसं निघून बी जाईल.  आपून त्याच्या पासून दूर राह्यचं हाय. त्यांन मरणाच्या भितीनं सा-या जगाला नाचवलय. पर आये त्याला काय धिंगाणा घालायचा त्यो घालू द्येत. आपून  त्या नाचात  सामिल हुयाचं नाय. दुरूनच तमाशा पघायचा आन सोताला जपायचं ह्ये ध्यानात ठेवलंय.

आये. .  समजून घेशील नव्हं ? म्या हिथं सुखरूप हाय. , ‘काळजीत नगं काळजात रहा…’  ह्ये तुझं बोल ध्यानात ठ्येवलय. तू  दिलेली गोधडी  काळीज म्हणून पांघरलीया. लई आठवणी जाग्या झाल्यात बघ.  आता  एकटं वाटत नाय. आये ह्ये कोरीनाचं सावट दूर झालं की भेटू  आपण तवर सोत्ताची,  बा ची आन धाकल्या भावडांची काळजी घेऊ, घेशील नव्हं. म्या इथं सुखरूप हाय ध्यानात ठेव. पत्र लवकरच तुला मिळंल. तवा रडू नगं.  सावर सोताला. नमस्कार करतो. आये असाच आशिर्वाद राहू दे.

..तुझा लाडका

..सुजित

 

© सुजित कदम

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #36 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 36 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

सांस देखते देखते, चित अविचल बन जाये ।

अविचल चित निर्मल बने, सहज मुक्त हो जाये ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (29) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

 

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ।। 29 ।।

 

जैसे ज्वाला प्रति सहज खिंच जलते हैं पतंग

त्यों तव मुख में प्रविश यह इनका मरण प्रसंग ।। 29 ।।

 

भावार्थ :  जैसे पतंग मोहवश नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं।। 29 ।।

 

As moths hurriedly rush into a blazing fire for (their own) destruction, so also these creatures hurriedly rush into Thy mouths for (their own) destruction.।। 29 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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