हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#40 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #40 – दोहे  ✍

संयम के सोपान पर, खड़े हुए हैं आप।

इसीलिए तो लग रही, मेरी चाह प्रलाप।।

 

अपने मन को बांधकर, रह लूंगा चुपचाप।

व्याकुल है मन प्राण पर, सुनने को पदचाप।।

 

चतुर शिकारी ने किया, पंछी पर अहसान।

पंख कतर कर कह दिया, फिर से भरो उडान।।

 

चाहा कब पूरा गगन, दे देते तुम काश।

ज्यादा कुछ तो था नहीं, मुट्ठी भर आकाश।।

 

समझ विवशता आपकी, लगा रहा अनुमान ।

संशय के अंधियार में, डूबा है दिनमान।।

 

मिली नहीं संजीवनी, सुझा नहीं निदान।

वहन कोई कैसे करें, मन पर की चट्टान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 39 – शंकित हिरनी जैसे… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “शंकित हिरनी जैसे … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 39 ।। अभिनव गीत ।।

☆ शंकित हिरनी जैसे …  ☆

 

मौसम ने बदल दिये

मायने आषाढ़ के

ओट में खड़े कहते

पेड़ कुछ पहाड़ के

 

आँखों की कोरों से

चुई एक बूँद जहाँ

गहरे तक सीमायें

थमी रहीं वहाँ वहाँ

 

ज्यों कि राज महिषी फिर

देख देख स्वर्ण रेख

सच सम्हाल पाती क्या लिये हुये एक टेक

 

सहलाया करती है

दूब को झरोखे से

ऐसे ही दकन के

या पश्चिमी निमाड़ के

 

शंकित हिरनी जैसे

दूर हो गई दल से

काँपने लगी काया

काम के हिमाचल से

 

गंध पास आती है

कान में बताती है

लगता है साजन तक

पहुँच गई पाती है

 

सोचती खड़ी सहसा

सोनीपत पानीपत

अपने हाथों से फिर

देखती उघाड़ के

 

विचलित सी मुद्रा

स्तूप की

लगा नींद टूट गई

धूप की

 

यौवन का देह राग

निखरा  है

फूल फूल पर पराग

बिखरा है

 

व्यवहल है करवट

को दोपहर

आँखों में पनपते

अनूप की

 

कटि के आकर्षण की गरिमायें

आयतन सम्हाल रहीं सीमायें

 

दिन की यह दुर्लभ

एकान्तिका

प्रवहमना उज्जवला

स्वरूप की

 

पिंडलियों तक उतार

सिमट गया

बिखरा सौहार्द और

लिपट गया

 

कैसा क्या था निदाघ

का आतप

बदल गई सैन्य नीति

भूप की

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25/26-02-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मातृरेखा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – मातृरेखा ☆

उसके विश्वास के आगे

मेरी उम्र की रेखा

बचपन पर ठहरी रहती है,

मेरे बीमार पड़ने पर

‘बेटे को नज़र लग गई’

जब मेरी माँ कहती है!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 18 ☆ व्यंग्य ☆ बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 18 ☆

☆ व्यंग्य – बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆

वो हमारे घर आया करती थी, सिर पर टोकरा रखे, किसम किसम के बर्तनों से सजा टोकरा लिये. माँ उससे बर्तन ले लेती और बदले में पुराने कपड़े दे देती. फिर वो एक दूसरे अवतार में बदल गई, उसकी भूमिका भी बदल गई, उसका बेस भी बदल गया, उसके काम की व्याप्ति प्रदेश और देश के स्तर पर हो चली. मगर उसका मूल काम वही का वही रहा, अब उसके टोकरे में मिक्सर, कलर टीवी, स्कूटी, लैपटॉप, मंगलसूत्र, स्मार्ट फोन, फ्री वाईफ़ाई और साईकिल जैसी चीज़ें होती हैं, बदले में आपको उसके कहने पर महज़ एक वोट देना होता है. तस्दीक करना चाहते हैं आप? ध्यान से देखिये माई के टोकरे को, टोकरा इक्कीस-बाईस के बजट का. पूरे सवा दो लाख करोड़ रुपये का ऐलान चस्पा कर दिया गया है तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम के लिये. गिव, गेव, गिवन. उन्होने दे दिया है फिलवक्त रिस्पॉन्ड इन चारों राज्यों के वोटरों को करना है. ज्यादा कुछ नहीं, बैलट मशीन में उनकी छाप का बटन दबाकर आना है, बस हो गया, थैंक-यू. दर्जनों परियोजनाओं का शुभारंभ, भूमिपूजन या लोकार्पण उस राज्य में जहां चुनाव का तम्बू गड़ चुका. घबराईये नहीं आपके राज्य को भी मिलेगा, दो हजार चौबीस आने तो दीजिये. पुरानी पेंट सा कीमती वोट संभालकर रखियेगा अभी हम जरा दूसरे राज्यों में फेरी लगाकर आते हैं.

बर्तनों के उनके टोकरों ने अब तो स्टॉल का आकार ले लिया है, जनतंत्र के मेले में ‘फ्री-बीज़’ के स्टॉल्स, छांटो-बीनों हर माल एक वोट में. क्या करियेगा पुरानी पेंटों का – कम से कम एक पतीली ही ले लीजिये कि धरा रह जाएगा आपका वोट अठ्ठाईस तारीख की शाम पाँच बजे के बाद – हमें ही दे दीजिये, हम आपको साथ में एक बोतल भी दे रहे हैं. बाद में पेंट-कमीज़-वोट का क्या आचार डालियेगा. जब तक जनतंत्र है वोट की मंडी लगी पड़ी है. रंगीन टीवी, लैपटॉप और स्मार्ट-फोन – एक वोट में तीन आईटम फ्री बाबूजी. प्रोमो-कोड ‘VOTE’ डालिये और पाईये अपनी जात-बिरादारी के आदमी को मंत्री बनवाने का सुनहरा मौका. हमारी पार्टी को रेफर करिये और पाईये कैश-बैक सीधे खाते में. अभी मौका है, फिर पाँच साल तक न टोकरा रहेगा, न बर्तन, न पुरानी पेंटों पर एक्सचेंज की सुविधा.

जनतंत्र के मेले में दरियादिली की चकाचौंध इस कदर मची है कि दाताओं के मन का अंधियारा भांप नहीं पाते आप. इसका मतलब यह भी नहीं कि अंधेरा पसरा नहीं है. कृत्रिम उजास है, चुनाव की बेला में ‘गुडी-गुडी’ का एहसास कराता हुआ. अधिसूचना के जारी होते ही पाँच साल का स्याह समां गुलाबी हो उठता है, वोटिंग की शाम से पाँच साल के लिये काला हो जाने की नियति लिये. सारी चकाचौंध बस मशीन का खटका दबाने की घड़ी तक ही है, फिर तो अंधियारा ही अंधियारा है. अंधियारा बेरोजगारी का, महंगाई का, मुफ़लिसी का, बेबसी का. स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये – रोजगार नहीं दे पायेंगे.

सुपर-रिच घरों के कपड़ों में निकलते हैं बिग-टिकट इलेक्टोरल बॉन्ड, टोकरों में धरे महंगे सरोकार उन्ही के लिये हैं. टुच्चे प्रतिफल हैं आपके लिये – सस्ते घिसे पुराने कपड़ों के बद्दल. पुराने कपड़ों के ढ़ेर से बने चढ़ाव बौने नायकों को उंचे ओहदों तक पहुँचा सकते हैं. पहुँचा क्या सकते हैं कहिये कि पहुँचा दिये हैं, आसन जमा लिया है उन्होने वहाँ. वे वहाँ बने रहें इसी में उस एक प्रतिशत का फायदा है जो काबिज हैं मुल्क की सत्तर प्रतिशत संपदा पर. बौने जब पुरानी कमीज़-पेंट ले जाते हैं तब वे चुपके से जनतंत्र पर से आपका भरोसा भी ले जाते हैं और आपको पता भी नहीं चल पाता. बौने कृतज्ञ हैं – बर्तनवाली माई ने राह जो दिखाई है. ध्यान से देखिये – फिलवक्त, बौने इसी लेन-देन में व्यस्त हैं.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 85 ☆ कविता – वे रोते नहीं ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता   सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं साहित्यकार श्री रमेश  सैनी जी का साक्षात्कार। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 85

☆ कविता – वे रोते नहीं ☆

लड़कियां

रो देतीं हैं

छोटी छोटी

बात पर,

 

लड़के

अपना दुख

दिखाते नहीं

हर बात पर

 

लड़कियां

आंसू लिए

बैठीं मिलतीं हैं

हर घाट पर

 

लड़के

आंख के आंसू

पी जाते हैं

बात बात पर

 

लड़कियां

घबड़ा जाती हैं

छोटी छोटी

बात  पर

 

लड़के

जिम्मेदारियां ढोते हैं

हारते नहीं,

बड़ी बात पर

 

लड़कियां

दुख बहा

आतीं हैं

नदी घाट पर

 

लड़के

रोते नहीं

दुख भरे

हाल पर

 

लड़के

हिम्मत देते हैं

रोते नहीं

बिगड़ी बात पर

 

लड़कियां

भूख से लड़कर

हंस लेतीं हैं

बात बात पर

 

लड़के

सहमे सहमे

सकुचाते रहेंगे

भूख की बात पर

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #32 ☆ बसंत आ रहा है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है बसंत ऋतू के आगमन पर एक भावप्रवण कविता “बसंत आ रहा है”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 32 ☆

☆ बसंत आ रहा है ☆ 

यह कैसा बसंत आया है

रंगों के संग

बंदिशें भी लाया है

खुशियां बस थोड़ी थोड़ी है

हर चेहरे पर डर का साया है

वो कहां गई हल्की हल्की

गुनगुनाती धूप?

वो कहां गई अमराई में

कोयल की कूक ?

वो कहां गई पीली पीली सरसों ?

वो कहां गई युवतियों के

सीने की हूक ?

जहां ढोल की थाप पर

थिरकते थे पांव

रंग-बिरंगे परिधानों में

झूमते थे गांव

तरूणाई का मदहोश

करता हुआ नृत्य

यौवन से घिरे हुए

जलतें थे अलाव

आज सबके मन में एक शंका है

कहीं अहित ना हो जाए

यह आशंका है

बुझी बुझी सी आंखें

परेशां  चेहरे हैं

डर है-

कोई छीन ना ले हमसे

हमारी सुनहरी लंका है

क्या आसमान की चुप्पी

कभी टूट पायेगी ?

क्या गरजते बादलों सें

रिमझिम फुहारें आयेंगी ?

यहां बिजली की चमक से

दरक जाती हैं दीवारें

ढह जाते हैं बड़े बड़े महल

हे धरतीपुत्र !

तू जरा संभल संभल के चल

अब-

यह भयानक, डरावना

पतझड़ का मौसम

धीरे धीरे बीतता जा रहा है

खुशबू लुटाता, खिलखिलाता,

हर मन को लुभाता

रंगीन ऋतुराज बसंत

पग पग बढ़ाता

आ रहा है,

बस आ रहा है ।

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६६॥ ☆

हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्याददानः

कुर्वन कामं क्षणमुखपटप्रीतिम ऐरावतस्य

धुन्वन कल्पद्रुमकिसलयान यंशुकानीव वातैर

नानाचेष्टैर जलदललितैर निर्विशेस तं नगेन्द्रम॥१.६६॥

जल पान कर , मान सर का जहाँ पर

कमल पुष्प वन , स्वर्ण से उगते हैं

या स्वेच्छगज इन्द्र के मुक पटल पर

छा जिस तरह झूल मुंह चूमते हैं

या झूमते कल्पद्रुम किसलयों को

कि ज्यों वस्त्र कंपित पवन मंद द्वारा

विविध भाँति क्रीड़ा निरत हो , जलद तुम

रहो प्रेम से शैल का ले सहारा

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ 

☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆

रडणे लहानपणी शोभते

पडणे लहानपणी शोभते…

रडता लहानपणी अश्रू पुसल्या जातात

पडता लहानपणी उचलण्या हात पुढे येतात…

डोळ्यांत अश्रू, बालपणीच शोभतात

मोठेपणी त्यास, षंढ सर्वे समजतात…

बालपणी पडता, प्रत्येक जण हळहळतो

मोठेपणी पडता, अव्हेर तो सतत होतो…

बालपणी रडता, चॉकलेट मिठाई मिळते

मोठेपणी रडता, आहे ते पण सरते…

लहानपणी पडता, मायेची फुंकर सुखावते

मोठेपणी पडता, अडगळ वाटायला लागते…

सांगायचे इतकेच, दिस सर्वे सारखे नसतात

सुकोमल हाताला सुद्धा, रट्टे-घट्टे पडतात…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जन्म…. ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ जन्म…. ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆ 

(निसर्ग विज्ञान कविता)

वाऱ्याने  जेव्हां

टरफल  उघडलं

‘बी’ला  दिसलं

आभाळ  निळं

 

बाहेरचं जग

सुंदर इतकं.-

‘बी’ने कधी

पाहिलंच  नव्हतं.

 

मातीने   प्रेमाने

कुशीत  घेतलं

उन्हाने  उबदार

पांघरुण घातलं

 

चिमुकल्या ओठानी

पाणी  पिऊन

‘बी’बाळ चटकन

झोपी गेलं

 

दुसरे दिवशी

जाग  आली

तेव्हां  शेपटी

फुटलेली

 

तिसरे  दिवशी

जादूने

शेपटीचीच

मान  झाली

 

उगवलं झाड,

झालं उंच

कोणी म्हणालं

‘ही तर चिंच ‘

फांदीच्या टोकाला

उगवला चिंचेचा आकडा

वाटोळा

 

चिमुकल्या ‘बी’ची

झाली होती आई

ती नव्या बाळाला

जन्म देई

 

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ज्ञान विज्ञान… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ कवितेचा उत्सव ☆ ज्ञान विज्ञान… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆  

शतक उगवले एकविसावे

युगानुयुगे सरली

विज्ञानाच्या विकासाने

मनास मने येऊनी भिडली….

 

जग हे बंद मुठीत

व्हाट्सएप्प , फेस बुक

ट्विटर, इन्स्टाग्रॅम

सारे कसे एका क्षणांत…..

 

तू कुठे अन् मी कुठे

पर्वा नाही कशाची

फेस टाईम करता करता

अनुभूति प्रत्यक्ष भेटीची….

 

पत्रे होती लिहिली आम्ही

करण्या वास्त पुस्त

उत्तर  मिळता मिळता गेले

किमान सात दिन मस्त…..

 

आता कसे सगळेच फास्ट

कुठेही असा जगाच्या पाठीवर

वैज्ञानिकांच्या प्रयत्नांनी

मानव पोहोचला मंगळावर….

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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