हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शून्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – शून्य ☆

शून्य अवगाहित

करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की

टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख

हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की

अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह का

कुछ पता चला

या थाह में

फिर शून्य ही

हाथ लगा?

©  संजय भारद्वाज

(18.7.18, रात्रि 9.06)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 92 ☆ जंगल राग – श्री अशोक शाह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष तिवारी अशोक शाह जी की पुस्तक “जंगल राग” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 92 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति –  जंगलराग

कवि – अशोक शाह

मूल्य (हार्ड कवर) – 200 रु

मूल्य (ई- बुक) – 49 रु

हार्डकवर : 80 पेज

ISBN-10 : 9384115657

ISBN-13 : 978-9384115654

प्रकाशक – शिल्पायन, शाहदरा दिल्ली

अमेजन लिंक >> जंगल राग (हार्ड कवर) 

अमेजन लिंक >> जंगल राग ( किंडल ई- बुक)

मूलतः इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त, म. प्र. में प्रशासनिक सेवा में कार्यरत अशोक शाह हृदय से संवेदनशील कवि, अध्येता, आध्यात्म व पुरातत्व के जानकार हैं. वे लघु पत्रिका यावत का संपादन प्रकाशन भी कर रहे हैं. उनकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पर्यावरण के वर्तमान महत्व को प्रतिपादित करती उनकी छंद बद्ध काव्य अभिव्यक्ति का प्रासंगिक कला चित्रो के संग प्रस्तुतिकरण जंगलराग में है.

वृक्ष, जंगल प्रकृति की मौन मुखरता है, जिसे पढ़ना, समझना, संवाद करना युग की जरूरत बन गया है. ये कवितायें उसी यज्ञ में कवि की आहुतियां हैं. परिशिष्ट में ९३ वृक्षो के स्थानीय नाम जिनका कविता में प्रयोग किया गया है उनके अंग्रेजी वानस्पतिक नाम भी दिये गये हैं.

कवितायें आयुर्वेदीय ज्ञान भी समेटे हैं, जैसे ।

” रेशमी तन नदी तट निवास भूरी गुलाबी अर्जुन की छाल

उगता सदा जल स्त्रोत निकट वन में दिखता अलग प्रगट

विपुल औषधि का जीवित संयंत्र रोग हृदय चाप दमा मंत्र “

बीजा, हर्रा, तिन्सा, धामन, कातुल, ढ़ोक, मध्य भारत में पाई जाने वाली विभिन्न वृक्ष   वनस्पतियो पर रचनाकार ने कलम चलाई है. तथा सामान्य पाठक का ध्यान प्रकृति के अनमोल भण्डार की ओर आकृष्ट करने का सफल यत्न किया है. १४ चैप्टर्स में संग्रहित काव्य पठनीय लगा

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 – लघुकथा – गंगवा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा  “गंगवा । इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 81 ☆

?लघुकथा  – गंगवा ?

गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?

गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।

गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।

गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।

बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।

दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।

आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।

दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।

अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।

दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।

तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।

मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।

आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।

गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।

आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।

अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।

वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।

दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६७॥ ☆

 

तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां

न त्वं दृष्ट्वा न पुनर अलकां ज्ञास्यसे कामचारिन

या वः काले वहति सलिलोद्गारम उच्चैर विमाना

मुक्ताजालग्रथितम अलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम॥१.६७॥

कैलाश के अंक में प्रियतमा सम

पड़ी स्त्रस्तगंगादुकूला वहाँ है

जिसे देखकर मित्र ! हे  कामचारी

न होगा तुम्हें भ्रम कि अलका कहाँ है ?

उँचे भवन शीर्ष से शुभ्र शोभित

सजी घन जलद माल से उस समय जो

दिखेगी कि जैसे कोई कामिनी

मोतियों की लड़ी से गुंथाये अलक हो

इति मेघदूतम् पूर्वमेघः।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 87 ☆ मी मराठी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 87 ☆

☆ मी मराठी ☆

मी मराठी तू मराठी

मातृभाषा ही मराठी

घेउया रे शपथ आपण

जागवूया ही मराठी

 

हो मुकुंदानेच केला

श्रीगणेशा हा मराठी

ग्रंथ पहिला साक्ष ठेवी

आपल्यासाठी मराठी

 

चक्रधर स्वामी कवीश्वर

आद्य दैवत हे मराठी

पद्य ग्रंथांचा गणेशा

आणि पाया ते मराठी

 

ज्ञानियांची ज्ञानभाषा

आपुली आहे मराठी

घेउनी सौंदर्य फिरते

आज जगती ही मराठी

 

व्याकरण हे सोबतीला

गाठते उंची मराठी

चिन्ह देती अर्थ त्याला

शोभते त्याने मराठी

 

घालते खेटेच आहे

राज दरबारी मराठी

खंत ही अभिजात नाही

होत का अजुनी मराठी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मैत्र ☆ श्री शरद कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ मैत्र ☆ श्री शरद कुलकर्णी☆ 

व्यक्त हो,

मुक्त कर,

मनात भरून आल्या मेघांना,

कोंडलेल्या वादळांना,

थिजलेल्या वीजांना,

बंदिस्त पावसाला.

माझ्या भरभरून मजकूराच्या पत्रावर

ओघळू दे,बंद पापणीतला-

एक तरी थेंब.

वाहून जाऊ दे शब्दशब्द.

असंबद्ध सैरभैर कविता.

नाहीतरी मन म्हणजे काय..

न लिहीलेल पत्र,

किंवा अव्यक्त मैत्रच ना ?

 

©  श्री शरद कुलकर्णी

मिरज

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मराटी असे आमुची मदरटंग – भाग -1 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

 ☆ जीवनरंग ☆ मराटी असे आमुची मदरटंग – भाग -1 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆ 

“ममा, तू म्हणतेस ना, ते सॉंग मला कम्प्लिट लिहून दे ना ग.”

“कुठचं रे?”

“ते ग.’मराटी असे आमुची मदरटंग.’ ”

“काssय?”

“तू म्हणतेस नाय का नेहमी? मला लवकर लिहून दे ना ग. ते सॉंग मला बायहार्ट करायचंय. उद्या सिलेक्शन आहे.”

“कसलं सिलेक्शन?”

“नेक्स्ट मंडेला आमच्या स्कुलमध्ये  ‘मराटी डे ‘आहे ना! टीचरने सांगितलंय, प्रत्येकाने ‘मराटी’वर एक सॉंग बायहार्ट करुन या. मग त्यातून उद्या फोर सॉंग्ज सिलेक्ट करणार. ती नेक्स्ट मंडेला असेम्बलीमध्ये सिंग करायची.”

“वा रे मराटी गाणी सिंग करणारे!त्यापेक्षा एक दिवस शुद्ध मराठी बोलून ‘मराठी दिन’ साजरा करा म्हणावं.”

“एकच दिवस कशाला? मराटी पिरियडला फुल क्लास मराटीमध्येच बोलतो. मिस सांगते,’ज्या मुलानला मराटी बोलायला नाय येल, त्याने एक लेसन फाय टाइम्स कॉपी करायचा.’ ”

टीचरच्या मराठीप्रेमाने धन्य धन्य होऊन मी तिचं नाव विचारलं.

“सॅली डिकून्हा.”

काय हा दैवदुर्विलास! या मायमराठीच्या स्वतःच्या साम्राज्याच्या राजधानीत असूनही या शाळेला मराठी शिक्षक मिळू नये ना!आणि मारे आम्ही जागतिक मराठी परिषदेच्या बातम्यांनी स्वर्गाला हात टेकतो.

आणि पुन्हा नेहमीच्या विचाराने मनात उसळी मारली, चालू प्रवाहाबरोबर वाहत जाऊन आपण त्याला इंग्लिश मिडीयम स्कुलमध्ये घातलं, हे बरोबर की चूक? कारण प्रश्न फक्त भाषेपुरताच मर्यादित नाही. मराठी आणि इंग्लिश मिडीयममधल्या मुलांवर होणाऱ्या संस्कारातही किती अंतर असतं!

आता या नर्सरी ऱ्हाइम्स.

‘पिगी ऑन द रेल्वे….’    ‘रेल्वे’ म्हणताना त्या बिचाऱ्या चिमुकल्या जिभा अशा काही पिळवटल्या जातात आणि लेल्वे, लेर्वे, लेवले किंवा असंच कुठचंतरी रूप घेऊन ‘रेल्वे’ त्या इवल्याशा जिवणीच्या बोगद्यातून बाहेर पडते.

‘पिकिंग अप स्टोन्स’ म्हणजे काय ते एक देव जाणे आणि दुसरा पिगी जाणे!

‘डाऊन केम अँन इंजिन

अँड ब्रोक पिगीज बोन्स ‘

आता मराठीतलं बडबडगीत असतं तर मुलांनी त्याला मलम लावलं असतं, डॉक्टरकडे नेलं असतं आणि मुळीच न दुखणारं इंजक्शन द्यायला लावलं असतं. पण आंग्ल भाषेतला इंजिन ड्रायव्हर ‘आय डोण्ट केअर’ म्हणून चालायला लागतो. मुलंही गाणं संपवून ‘त्या पिगीचं बिचाऱ्याचं काय झालं असेल’ वगैरे चांभारचौकशा न करता शांतपणे, कपाळ फुटून भळाभळा रक्त वाहणाऱ्या जॅकचं आणि डोंगरावरून गडगडत खाली येणाऱ्या जिलचं गाणं म्हणायला लागतात.

अर्थात मुलांचाही काही दोष नाही म्हणा. त्यात काही भयंकर वगैरे असेल, अशी पुसटती शंकासुद्धा त्यांच्या मनात येत नाही.

याचं सर्वात मुख्य कारण म्हणजे त्यांच्यावर झालेले मीडियाचे संस्कार. हल्ली म्हणे सेन्सार  बोर्डाने सक्तीच केलीय की, प्रत्येक सिनेमात कमीत कमी दोन तरी माणसं उंच कड्यावरून किंवा कन्स्ट्रक्शन साईटवरून खाली कोसळली पाहिजेत आणि प्रत्येक पन्नास फुटांत किमान एक तरी माणूस घायाळ होऊन त्याच्या शक्यतो चेहऱ्यावरून भळाभळा रक्त वाहिलं पाहिजे. असा सीन नसेल तर ते पन्नास फुटांचं रिळ कट.फायटिंगमध्ये हिरोने व्हिलनचा मार खाल्ला रे खाल्ला की सगळे ज्युनिअर सिटीझन्स ‘होss!’ करुन ओरडणार. (आमच्या लहानपणी हिरोने व्हिलनला मारल्यावर ओरडायची पद्धत होती.)

                         क्रमश:….

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ विज्ञान कथा – बलिदान – भाग – 3 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले

सौ.अंजली दिलिप गोखले

Author: Hemant Bawankar - साहित्य एवं कला विमर्श

 ☆ जीवनरंग ☆ विज्ञान कथा – बलिदान – भाग – 3 ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले ☆ 

पण ती आमची शेवटचीच भेट ठरली. परत आल्यावर तब्बल दहा वर्षांनी मी निलेश ला आणि चं दाला भेटतोय. पण हा असा, दोघांच्या समाधीपुढे. म्हणजे हे मोठे वृक्ष आहेत ना. हाच तो प्रयोग प्रयोग केलेला आडवा वाटलेला हिरवागार पानांनी वेढलेला वृक्ष म्हणजे माझी मैत्रीण चंदा ! आणि त्या शेजारच्या त्याला वेढुन डेरेदार वाढतोय तो माझा निलेश. खरंच हे दोन वृक्ष म्हणजेच चंदा आणि निलेश.

ठरवल्याप्रमाणे निलेशने आपला प्रयोग चंदावर सुरू केला. सलाईन लावून त्यातून क्लोरोफिल, झिंक, मॅग्नेशियम मोजून-मापून तिच्या शरीरात इंजेक्ट केलं. तिच्याशी गप्पा मारत बसत असे. त्याला विद्यापीठातही जावे लागत होते. कारण दोघेही एम एस सी फर्स्ट क्लासमध्ये पास झाले होते आणि तिथेच डिपार्टमेंटमध्ये त्याला रिसर्च साठी फेलोशिप मिळाली. त्यामुळे त्याचे काम सुरू होते. विद्यापीठातले काम झाले की लगेच गाडी वरून इकडे चंदा जवळ येई. तिच्याशी गप्पा मारत, डोस ऍडजेस्ट करत, सलाईन बदलत याचा दिवस कसा जाई त्याचे त्याला समजत नसे.

एकदा मात्र तो विद्यापीठात गेला आणि गावांमध्ये काही कारणाने दंगा उसळला. इतका की कर्फ्यू पुकारावा लागला आणि निलेश दोन दिवस तिकडेच अडकून पडला. दोन दिवसांनी कर्फ्यू उठल्याउठल्या तो धावतच चंदाकडे आला आणि समोरचे दृश्य बघून हबकूनच गेला. चंदा कॉटवर कुठे दिसतच नव्हती. कॉटच्या खालून जमिनीकडे मूळं वाढत होती आणि तिच्या शरीरावर छोटी छोटी हिरवीगार पालवी फुटली होती. तिचे डोळे नाक हेही नक्की कुठे आहे ते निलेश ला दिसेना. कॉट जवळ जाऊन जोराने तो चंदा, चंदा हाका मारू लागला. पण पाने जागच्याजागी थरथरल्याचा त्याला भास झाला.

त्या चा आपल्या स्वतःवर, डोळ्यांवर विश्वासच बसेना. हे घडतंय ते त्याला अपेक्षित होतं. पण चंदा कुठे गेली? तिचं अस्तित्वच नाहीसं झालं. याचा आपण विचारच कसा केला नाही? निसर्गाच्या नियमानुसार न वा गता आपण भलत्याच फंदात पडलो आणि मानवी चं दाला मुकलो. हे त्याला कळून चुकले. आता वाईट वाटून नही काहीच उपयोग नव्हता.

त्याच क्षणी त्याने आपला प्रयोग लिहून ठेवला आणि पाकिटात घालून माझे नाव घालून पाकीट बंद केले आणि तेव्हापासून स्वतःही अन्नपाणी न घेता तो चंदा जवळ बसून राहिला.

सलग आठ दहा दिवस विद्यापीठात आल्याने त्याचे गाईड सर त्याला शोधत इकडे आले आणि त्या ना मरणासन्न निलेश दिसला. प्रयत्न करूनही ते निलेशला वाचवू शकले नाहीत. अखेर चंदाच्या शेजारीच नवीन रोप लावून त्याची राख, त्याच्या शरीराची हाडं तिथे रोपा बरोबर पुरण्यात आली आणि तोच हा वृक्ष वाढला.

आज दहा वर्षांनी हे पाकिट मला मिळालं आणि निलेश चंदाच्या अमर प्रयोगाची माहिती सर्वांना झाली. त्याच्या पत्रातल्या काही ओळी अजून माझ्या डोळ्यापुढून हलत नाहीत.

“निसर्गाच्या विरुद्ध प्रयोग करायला मी गेलो आणि चंदा सारख्या हुशार जिद्दी आणि मनापासून प्रेम करणाऱ्या प्रिय व्यक्तीला मुकलो. तिच्या बलिदाना पुढे मला जगावेसे वाटत नाही.. तिच्या या परिस्थितीस सर्वस्वी मीच जबाबदार आहे.. केवळ म्हणूनच मी अन्नत्याग करत आहे. अजूनही खूप काही करायचे मनात होते पण यंदा शिवाय करणे केवळ अशक्यच! म्हणून मी इथेच थांबतोय.”

“इथून पुढेही कोणीही प्रयोग जरूर करावेत पण परिणामांचा फार विचार करून आणि मुख्य म्हणजे निसर्गाबरोबर काम करायला हवे निसर्गाविरुद्ध नको!”

     …. झाडांशी निजलो आम्ही

             झाडात पुनः उगवाया….

© सौ.अंजली दिलिप गोखले

मो  8482939011

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆ विविधा ☆ रायगड प्रवास वर्णन…भाग 1 ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

२०१९ च्या दिवाळीत पंढरपूर क्षेत्री जाऊन जवळजवळ दीड तास दर्शनाच्या रांगेत उभा राहिलो असताना मी विचार करीत होतो की ‘इतका वेळ रांगेत घालवणे उचित आहे का? देवालयाला बाहेरूनच नमस्कार करायला काय हरकत आहे?’ पण मग विचार केला की देवाचे दर्शन हे सहजपणे न होता हे असेच कष्टसाध्य असले पाहिजे. नुसते पैसे भरून काही मिनिटांत होणारे सुलभ दर्शन “देखल्या देवा दंडवत!” सारखे झटपट समाधान देईलही कदाचित पण त्याने देवदर्शनाची आस फिटेल का? सरतेशेवटी एकदा पांडुरंगाच्या सगुण मूर्तीसमोर उभा राहिलो आणि मात्र डोळ्याचे पारणे फिटून धन्यधन्य झालो! कदाचित मंदिरातील, गाभार्‍यातील वातावरणाचा, आवाजाचा कुठेतरी मनावर खोलवर परिणाम होत असावा. “स्थानं खलु प्रधानं” असे म्हटले आहे ते काय उगीच नव्हे. थोडाफार असाच परिणाम नुकताच पुन्हा एकदा अनुभवास आला जेव्हा मी रायगडावरील ‘महाराजां’च्या स्फूर्तिदायक मूर्तीसमोर उभा राहिलो तेव्हा.

१६ जानेवारी २०२१ रोजी मी रात्री 10:30 वाजता ‘गिरीदर्शन’च्या ‘रायगड’ ट्रेकच्या बसमध्ये उत्साहाच्या भरात चढलो आणि लक्षात आले की मी मास्क आणि उन्हाळी टोपी ह्या दोन्ही आवश्यक गोष्टी घरीच विसरलो आहे. JJ असो. बस हलली असल्याने आता काही करणेही शक्य नव्हते. बसमध्ये मात्र सर्वत्र तरुणाई भरली होती त्यामुळे उत्साहाचे वारे संचारले होते. मग माझ्या शेजारी बसलेल्या मेकॅनिकल इंजींनीयरिंगच्या तिसर्‍या वर्षाला शिकत असलेल्या चिंचवडच्या सर्वेश बरोबर ओळख काढून गप्पा सुरू केल्या. “कोविद मुळे लेक्चर्स ऑफलाइन झाली नाहीत आणि ऑनलाइनही नियमितपणे होत नाहीत” असे गार्‍हाणे गात बिचारा जेरीस आलेला होता. कुठेतरी आयुष्यात बदल हवा म्हणून तो ट्रेकला आला होता. असो.

रात्री साधारण साडेतीन वाजता पाचाड गावातील एकांच्या मुक्कामस्थळी पोहोचलो. लगेचच घरच्या सारवलेल्या ओसरीवर पसरून सर्व पुरुषांनी ताणून दिली आणि मुली घरातील एका खोलीमध्ये विसावल्या. पुढील तीन-चार तासच जेमतेम झोपायला मिळणार होते. पण तासभर झाला असेल नसेल, आमच्या शेजारीच कांबळी टाकून झाकलेल्या एका दुरडीखाली ठेवलेल्या कोंबड्याने बांग द्यायला सुरुवात केली. त्याला आजूबाजूच्या त्याच्या साथीदारांनी सुरात सूर मिसळून साथ द्यायला सुरुवात केली. त्याच जोडीला दुरडीमध्येच असलेल्या कोंबड्याच्या पिल्लांनीही चिवचिवायला सुरुवात केली. एखाद्याच्या “झोपेचे खोबरे होणे” ह्याऐवजी झोपेचे कुकुच्च्कू होणे असा वाक्प्रचार प्रचलित करून ‘अखिल कोंबडे पक्ष्या’चा निषेध करावा असे ठरवून मी झोपेची आराधना करायला लागलो.

सकाळी साडेसहाला उठून पहिले तर ‘रोप वे’च्या पाळण्याच्या ट्रिप सुरू झालेल्या दिसल्या. लगेच आवरून आम्ही हॉटेल ‘मातोश्री’ मध्ये पोहे-चहाचा भरपूर नाश्ता करून पायथ्याशी पोहोचलो आणि आमच्या दुहेरी ‘लेग वे’ ने चढाईस प्रारंभ केला.

रविवारची सुट्टी असल्याने पर्यटकांची भरपूर गर्दी लोटली होती. त्यामुळे गडाची संपूर्ण माहिती देणार्‍या गाईडनाही काम मिळत होते. पायथ्याची सर्व दुकाने एव्हाना सजली असल्याने मला उन्हाळी टोपी लगेच विकत घेता आली. मास्क मात्र कोणीच घातलेला नव्हता, त्यामुळे मीही तो घेण्याच्या फंदात पडलो नाही. काही पायर्‍या चढून पहिल्या बुरूजापाशी थांबलो. स्वराज्याची दुसरी राजधानी असलेल्या रायगडच्या दर्शनाला आलेल्या भक्तांच्या भावना अनावर होऊन “छत्रपती शिवाजी महाराज की जय”, “जय भवानी, जय शिवाजी” अशा उत्स्फूर्त घोषणा सतत उठत होत्या. तिथल्या दुकानातच महाराजांची प्रतिमा असलेला ‘जाणता राजा’ लिहिलेला भगवा झेंडा मिळत होता. त्यासोबत फोटो काढून घेण्याची सर्वजण धडपड करीत होते. काहीजण तो झेंडा हातात घेऊन धावत गड चढून जात होते.

आपल्या आवडत्या राजाला मानाचा मर्दानी मुजरा देण्याची व भेटण्याची केवढी विलक्षण आतुरता!!

मजल दरमजल करीत चढत असताना आमच्या मध्येच पाठीवर पायरीचे तासीव अवजड दगड लादलेली गाढवे ही गड चढत होती. एका पाथरवटाला विचारले तर कळले की एका दिवसात एक गाढव तीन फेर्‍या मारते. हे ऐकून मात्र ह्या कष्टाळु प्राण्याचे भारीच कवतिक वाटले. इथे आम्ही कसाबसा एकदा हा गड चढउतार करून मोठा पराक्रम गाजवणार होतो! अर्थात रायगडच्या पायर्‍यांचे वैशिष्ट्य म्हणजे सकाळी चढाईच्या वेळेत उन्ह अजिबात लागत नव्हते व त्यामुळे थकवा जाणवत नव्हता. एक पर्यटक मोबाईलवर मोठयाने गाणी ऐकत गड उतरत होता त्याला आमच्या चमूतील एकाने ताबडतोब बंद करायला लावला. सुमारे दोन-सव्वादोन तासांत आम्ही वर पोहोचलो.

प्रथम दर्शन झाले ते महादरवाज्याचे. काही वर्षांपूर्वीच बसवलेला हा 16 फूटी भव्य दरवाजा खरोखर बघण्यासारखा आहे. त्यानंतर स्वागत करतो ते ‘हत्ती तलाव’. “हत्ती तलावात शिरला तर कसं बाहेर येईल?” तर ह्याचे उत्तर “ओला होऊन!” हा विनोद मला आठवला. पण रायगडावरील ह्या तलावात जर हत्ती शिरला तर तो खात्रीने पायाचे तळवेही न ओलावता कोरडा ठणठणीत बाहेर येईल इतका हा शुष्क पडला आहे. पावसाचे पाणीही गळतीमुळे ह्यात टिकत नाही. पूर्वी केलेल्या गळती-प्रतिबंधक योजना पूर्णपणे अयशस्वी ठरल्या आहेत. इथून थोडे वर आल्यावर ‘शिरकाई’ देवीचे मंदिर लागते.

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१९) – ‘तालवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१९) – ‘तालवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

‘गीतम्‌ वाद्यम्‌ नृत्यम्‌ च त्रयम्‌ संगीतमुच्यते’ अशी संगीताची व्याख्या आपल्या प्राचीन संगीतज्ञांनी केली आहे. गेल्या काही लेखांमधे आपण मुळात संगीत कसे अस्तित्वात आले असावे आणि माणसाच्या जीवनाचा अविभाज्य भाग कसे आणि का झाले असावे, ह्याविषयी विचार केला. परंतू त्यावेळी फक्त गीत किंवा गायन ह्या प्रकाराला अनुसरूनच लेखन झालं. आता वाद्यं का आणि कशी अस्तित्वात आली ह्याविषयी थोडक्यात जाणून घेऊया. असं म्हटलं जातं कि सृष्टीच्या कणाकणात लय आहे. त्यामुळे वाद्यप्रकारांमधे तालवाद्ये ही सर्वात आधी अस्तित्वात आली. असं मानलं जातं कि, भगवान शंकरांकडून ‘डमरू’ ह्या पहिल्या तालवाद्याची निर्मिती झाली. दुसरी एक अशी कथा वाचायला मिळते कि, स्वाती नावाच्या एक ऋषींनी एकदा पावसाचे मोठाले थेंब कमळाच्या पानांवर पडताना त्याचा आवाज ऐकला. एका लयीत कानांवर पडत राहिलेला तो सुंदर आवाज ऐकून त्यांच्या मनात ‘अशी सातत्यानं लय राखण्यासाठी तालवाद्यं हवीत’ ही कल्पना आली. म्हणजे शेवटी निसर्गाच्या प्रेरणेतूनच ही कल्पना जन्मली.

जुन्या ग्रंथांमधे असा उल्लेख आढळतो कि भरतमुनींच्या काळात शंभरभर तरी तालवाद्यं अस्तित्वात होती. ‘ताल’ ही संकल्पना नंतरची! मात्र कोणत्याही गोष्टीला अंगभूत ‘लय’ असते आणि ती साधली गेली तरच ती गोष्ट जास्त प्रभावी ठरते हे निश्चित! ह्यावरून असं म्हणता येईल कि, गायन, नृत्य कलेतील अंगभूत लयसौंदर्य आणखी खुललून ते जास्त प्रभावी करण्याच्या प्रयत्नातून तालवाद्ये अस्तित्वात आली. गायनाला, नृत्याला अर्थपूर्ण जोड/साथ देण्यासाठी तालवादन अस्तित्वात आले आणि प्रगतशील मानवाच्या प्रयत्नांतून पुढे तर तालवाद्ये आणि तालसंकल्पना इतकी विकसीत झाली कि त्यांचंच ‘एकलवादन’ (सोलो) शक्य होऊ लागलं ज्यावेळी लयसौंदर्याचं प्रामुख्य आणि सूर फक्त साथ देण्यापुरते मर्यादित असतात.

तालाचा विचार करताना एका आवर्तनामधे ठराविक अंतराने ठराविक मात्रा राखणं हा महत्वाचा भाग येतो. मात्र अगदी सहजी गुणगुणतानाही लय साधली गेली तरच त्यातून आनंद मिळतो. बोली भाषेचाच वापर करून माणसाच्याच जगण्यातील महत्वाच्या क्षणांचा उत्सव करणारे छोटेछोटे गीतप्रकार अस्तित्वात येत असतानाच शेवटपर्यंत त्यातली लय पकडून ठेवण्यासाठी मानवाकडून सहजस्फूर्तीने त्या लयीच्या हिशोबाने ठराविक अंतराने टाळी वाजवली गेली असेल, कधी हाताने मांडीवर आघात करून लय राखली गेली असेल, पायाने ठेका धरला गेला असेल. ह्या क्रिया आपल्या प्रत्येकाकडूनही अगदी सहजी घडत असतातच. एरवीही घरी आरतीच्या वेळी एका लयीत टाळ्या वाजवणे, कोणतेतरी गीत ऐकत असताना आपल्याही नकळत पायाने ठेका धरला जाणे, एखाद्या गायकाच्या जोशपूर्ण गायनाला साथ देताना श्रोत्यांनी उत्स्फूर्तपणे त्या गाण्याच्या लयीसोबत टाळ्या वाजवणे हे किती सहजी घडते! अशाप्रकारे लय साधताना मानवाने केलेला शारीरिक अवयवांचा उपयोग हा वाद्य कल्पनेचा प्रारंभकाल मानला जातो.

पूर्वीच्या जीवनमानाचा विचार केला तर लक्षात येईल कि स्वत:च्या शरीराच्या आधारे ठेका धरणे ह्याशिवाय भवताली उपलब्ध असणाऱ्या गोष्टींचा ह्या गोष्टीसाठी वापर करताना हुशार मानवाने दोन दगड एकमेकांवर आपटून, दोन लाकडाचे तुकडे एकमेकांवर आपटून पाहिले असतील. आजचे ‘टिपरी’ हे वाद्य म्हणजे दोन लाकडी काठ्यांचा एकमेकांवर आघात करणे हेच तर आहे! मात्र त्याचा उगम हा आदिमानवाच्या संगीतातील लय टिकवून ठेवण्याच्या गरजेतून झाला. आपल्याकडच्या चिपळ्या म्हणजेही एकसारख्या आकाराचे दोन लाकडी तुकडेच तर आहेत. पुढं धातूचा शोध लागला त्यानंतर चिपळीच्या तसेच करताल ह्यासारख्या वाद्याच्या लाकडी तुकड्यांमधे धातूच्या चकत्या बसवण्याचे प्रयोग झाले, टाळ, मंजिरी, झांज हे प्रकार अस्तित्वात आले. मात्र ह्या सगळ्याचं मूलतत्व एकच कि, दोन घन पदार्थांचा एकमेकांवर आघात केला तर नादनिर्मिती होते आणि त्याची लय पकडून ठेवण्यासाठी मदत होऊ शकते हा आपल्या जुन्या पिढ्यांनी लावलेला शोध!

आपल्या देवघरातील छोट्या घंटा किंवा देवळातल्या मोठ्या घंटा म्हणजेही एका घन पदार्थाच्या तुकड्याने दुसऱ्या घन पदार्थावर होणाऱ्या आघातातून केली जाणारी नादनिर्मिती! घुंगरूं हेसुद्धा एक प्रकारचं वाद्यच ज्यामधे धातूच्या पोकळ गोलाच्या आत असलेल्या एका धातूच्याच तुकड्याचा आघात झाला कि नादनिर्मिती होते. पायांत बांधल्यावर आपल्या पायाच्या हालचालींमुळं किंवा हातात घेऊन वाजवताना हाताने घुंगरू हालवल्यामुळं हा आघात आपोआप होतो.

प्राचीन काळी अन्न शिजवण्यासाठी मातीची भांडी वापरली जात असत. त्यावर बोटांनी आघात केला तरी सुंदर नाद निघतो हाही शोध त्यांना लागला. आज दक्षिणेतील घटम, कर्नाटक किनारपट्टींतल्या प्रांतातील घुमट, उत्तरेतील मटका ही वाद्यं हे त्याचंच उदाहरण!

प्राचीन काळी जंगलात राहाणाऱ्या मानवाचं मुख्य अन्न म्हणजे प्राण्यांची शिकार करून त्यांचं मांस शिजवून खाणं हे होतं. शिकार केलेल्या प्राण्याचा खाण्यालायक भाग म्हणजे त्याचं मांस! हळूहळू त्या प्राण्याचं कातडं, हाडं, शिंगं हा सगळा उर्वरित भागही कसा वापरता येईल ह्याचा विचार मानवाच्या मनात सुरू झाला असेल किंवा कधी तो आपसूक मानवाच्या समोर आला असेल. प्राण्यांचं कातडं बसायला वापरणं, त्याचा अंगरखा शिवून थंडीत आपल्या शरीराला ऊब मिळावी म्हणून वापरणं ही त्याची काही उदाहरणं! वाद्यांच्याबाबत विचार करता एका बाबीचा उल्लेख जुन्या पुस्तकांत आढळतो कि, शिकार केलेल्या प्राण्यांचं कातडं वाळण्यासाठी झाडाला टांगून ठेवलं असताना ते वाळल्यानंतर सहज त्यावर माणसाच्या हाताचा आघात झाला आणि त्यावेळी ‘वाळलेल्या कातड्यावर आघात केला असता नादनिर्मिती होते’ हा शोध लागला. हळूहळू पोकळ भांड्यावर हे चामडं बांधून त्यावर आघात केला तर आणखी सुंदर नादनिर्मिती होते (कारण पोकळ भाग हा त्या नादाचा ‘रेझोनेटर’ आणि ‘अम्प्लिफायर’ म्हणून काम करतो) हे लक्षात आलं आणि त्यातून चर्मवाद्यांची निर्मिती झाली.

ह्या चर्मवाद्यांना ‘अवनद्ध वाद्यं’ असं म्हटलं जातं. ‘अवनद्ध’ ह्या शब्दाचा अर्थच मुळी ‘कातड्याने मढवलेले’ असा होतो. आता डोळ्यांसमोर अशी अनंत वाद्यं उभी राहातील. लोकसंगीतात वापरली जाणारी अनेक तालवाद्यं ढोल, ताशा, हलगी, संबळ, टिमकी, नगारा इ. सगळीच ह्या प्रकारात येतात. ह्यापैकी काही वाद्यं हाताने आघात करून वाजवली जातात तर काही काठीने आघात करून! आज शास्त्रीय संगीतातील समाजमान्यता पावून सर्व रसिकांच्या मनावर अधिराज्य गाजवणारी तबला, पखवाज, मृदंग इ. वाद्येही ह्याच प्रकारातली! ह्या सर्वच वाद्यांमधे सध्या जो भाग लाकडी असतो तो पूर्वी मातीचा असायचा. पुढं मग कालमानानुसार लाकूड, धातू इ. गोष्टी वापरून विविध प्रयोग होत राहिले. ह्याचा अर्थ एकच कि अगदी प्राचीन काळापासून माणसाने निसर्गाच्या सान्निध्यात वावरताना निसर्गाकडून विविध गोष्टी शिकत आपला विकास साधला. संगीतही त्याला अपवाद नाही. ह्याच प्रक्रियेमधे उपलब्ध साधनांच्या वापरातून वाद्यांची उत्पत्ती होत राहिली. तालवाद्यांप्रमाणे तंतुवाद्ये आणि सुषीर वाद्ये कशी अस्तित्वात आली ह्याची रंजक कहाणी आपण पुढच्या लेखात जाणून घेऊ!

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  asawarisw@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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